सूत्र:
1—कलपना करो
कि तुम धीरे—धीरे
शक्ति या
ज्ञान से
वंचित
किए जा रहे
हो। वंचित किए
जाने के क्षण
अतिक्रमण
करो।
2—भक्ति
मुक्त करती
है।
तंत्र
के लिए मनुष्य
स्वयं ही रोग
है। ऐसा नहीं
है कि
तुम्हारे मन
में उपद्रव है, वस्तुत:
तुम्हारा मन
ही उपद्रव है।
ऐसा नहीं है
कि तुम
तनावग्रस्त
हो, बल्कि
तुम स्वयं ही
तनाव हो।
इस
फर्क को ठीक
से समझ लो।
अगर चित्त
रुग्ण है तो
रुग्णता का
इलाज हो सकता
है। लेकिन अगर
चित्त ही
रुग्णता है तो
इसका इलाज नहीं
हो सकता, इसका
अतिक्रमण हो
सकता है। यही
बुनियादी
फर्क है
पश्चिम के
मनोविज्ञान में
और पूरब के
मनोविज्ञान
में। पूरब का
मनोविज्ञान
तंत्र और योग
पर आधारित है।
पूरब
के तंत्र और
योग में तथा
पश्चिम के
मनोविज्ञान
में यही भेद
है। पश्चिम का
मनोविज्ञान
सोचता है कि
चित्त स्वस्थ
हो सकता है, कि
मन जैसा है
उसका उपचार हो
सकता है, उसे
सुधारा जा
सकता है।
क्योंकि
पश्चिम के
चिंतन में
अतिक्रमण की
धारणा ही नहीं
है; क्योंकि
वहा मन के पार
कुछ नहीं है।
अतिक्रमण तो
तभी संभव है
जब उसके पार
कुछ हो, ताकि
तुम अपनी
वर्तमान
अवस्था में
रहकर आगे की
ओर गति कर सको।
लेकिन यदि
इसके पार कुछ
नहीं है और
यदि मन ही अंतिम
है, तो
अतिक्रमण
असंभव है।
अगर
तुम सोचते हो
कि मैं सिर्फ
शरीर हूं तो
तुम शरीर का
अतिक्रमण नहीं
कर सकते।
क्योंकि कौन
अतिक्रमण
करेगा? और
अतिक्रमण
करके कहां
जाएगा? अगर
तुम शरीर ही
हो तो तुम
शरीर के पार
नहीं जा सकते।
और अगर शरीर
के पार जा
सकते हो तो
उसका अर्थ है कि
तुम शरीर ही
नहीं हो कुछ
और भी हो। वह
कुछ और गति के
लिए आयाम बनता
है।
वैसे
ही अगर तुम मन
ही हो, कुछ और
नहीं हो, तो
भी अतिक्रमण
संभव नहीं है।
तब हम अलग— अलग
तरह के रोग का
इलाज कर सकते
हैं। अगर कोई
मानसिक रूप से
रुग्ण है तो
उस रुग्णता का
इलाज किया जा
सकता है।
लेकिन तब हम
चित्त को
अछूता छोड़
देंगे; बीमारी
का इलाज
करेंगे और मन
को सामान्य
बना देंगे।
लेकिन
कोई यह नहीं
सोचता कि यह
जो सामान्य मन
है वह खुद
स्वस्थ है या
नहीं! सामान्य
मन महज औसत मन
है। फ्रायड
कहता है कि
जैसा मनुष्य
है उसमें हम
किसी बीमार मन
को सिर्फ
सामान्य बना
सकते हैं, लेकिन
मनुष्य
स्वस्थ है या
नहीं, यह
प्रश्न नहीं
उठाया जा सकता।
हम
माने बैठे हैं
कि साधारण मन
ठीक है, दुरुस्त
है। इसलिए जब
कोई व्यक्ति
इस सामान्य मन
के बाहर चला
जाता है, कहीं
और चला जाता
है, तो उसे
वापस लाकर
समायोजित
करना पड़ता है।
पश्चिम का
पूरा
मनोविज्ञान
इसी समायोजन
का प्रयत्न है—वह
सामान्य मन, औसत मन के
साथ समायोजन
है।
तो
ऐसे विचारक
हुए हैं, विशेषकर
एक अदभुत
प्रतिभाशाली
विचारक हुआ, ज्याफ्रे, जो कहता है
कि एक अर्थ
में प्रतिभा
रोग है, क्योंकि
प्रतिभा
असामान्य है।
अगर
सामान्यता
स्वास्थ्य है
तो प्रतिभा
अवश्य रोग है।
प्रतिभावान
व्यक्ति
सामान्य नहीं
है, वह एक
ढंग का पागल
है। हो सकता
है, उसका
पागलपन
उपयोगी हो और
इसलिए हम उसे
जीने देते हैं।
आइंस्टीन, वानगाग,
एजरा पाऊंड—वैज्ञानिक,
चित्रकार, कवि, रहस्यवादी—ये
सब विक्षिप्त
हैं। लेकिन हम
दो कारणों से
उनकी
विक्षिप्तता
को बरदाश्त कर
लेते हैं। या
तो उनकी
विक्षिप्तता
निरापद है, या उनकी
विक्षिप्तता
उपयोगी है। वे
लोग अपनी
विक्षिप्तता
के द्वारा
समाज को कुछ
देते हैं जो
सामान्य
चित्त नहीं दे
सकता। पागल
होकर वे किसी
अति पर पहुंच
गए हैं और वे वहां
से कुछ चीजें
देख लेते हैं
जिन्हें
सामान्य मन
नहीं देख पाता।
इसलिए हम ऐसे
पागलों को
अपने बीच रहने
देते हैं, इतना
ही नहीं, हम
उन्हें नोबल
पुरस्कार भी
देते हैं।
यदि
सामान्य होना
कसौटी है और
स्वास्थ्य का
मानक है, तो हर
असामान्य
व्यक्ति
बीमार है।
ज्याफ्रे
कहता है कि एक
दिन आएगा जब
हम वैज्ञानिकों
और कवियों का
वैसे ही इलाज
करेंगे जैसे
अभी पागलों का
करते हैं; हम
उन्हें औसत
चित्त के साथ
समायोजित कर
देंगे।
ऐसा
चिंतन इस
विशेष
मान्यता के
कारण पैदा हुआ
कि मन ही सब
कुछ है, उसके
पार कुछ नहीं
है। इस
मान्यता के
बिलकुल
विपरीत पूरब
की खोज है।
यहां हम कहते
हैं कि चित्त
स्वयं रोग है।
इसलिए
सामान्य और
असामान्य
चित्त में हम
इतना ही फर्क
करेंगे कि हम
एक को सामान्य
रूप से रुग्ण
कहेंगे और
दूसरे को
असामान्य रूप
से रुग्ण
कहेंगे।
सामान्य
व्यक्ति
सामान्यत:
बीमार है; वह
इतना बीमार
नहीं है कि
पता चले। वह
महज औसत रूप
से बीमार है।
और चूंकि दूसरे
भी उसके ही
जैसे हैं
इसलिए उसके
रोग का पता
नहीं चलता है।
जो उसका इलाज
करता है वह
मनोविश्लेषक
भी सामान्य
ढंग का बीमार
आदमी है।
हमारे
लिए तो मन ही
रोग है। क्यों? क्यों
हम मन को रोग
कहते हैं?
हम
इस बात को एक
भिन्न ही आयाम
से देखेंगे, परखेंगे,
और तब इसे
समझना आसान
होगा। हमारे
लिए शरीर
मृत्यु है; पूरब की
दृष्टि में
शरीर ही
मृत्यु है।
शरीर पूरी तरह
स्वस्थ नहीं
हो सकता है; अन्यथा वह
मरेगा कैसे? तुम एक
संतुलन पैदा
कर सकते हो; लेकिन शरीर
मरणधर्मा है
और उसे रोग
होंगे ही।
इसलिए
स्वास्थ्य एक
सापेक्ष बात
हो सकती है। शरीर
पूरी तरह
स्वस्थ नहीं
हो सकता है।
यही
कारण है कि
चिकित्सा
विज्ञान के
पास स्वास्थ्य
के लिए न कोई
मानक है और न
कोई परिभाषा।
वे रोग की
परिभाषा कर
सकते हैं। वे
किसी रोग
विशेष की
परिभाषा कर
सकते हैं, लेकिन
वे स्वास्थ्य
की परिभाषा
नहीं कर सकते।
ज्यादा से ज्यादा
वे नकारात्मक
ढंग से यही कह
सकते हैं कि जब
व्यक्ति
बीमार नहीं है,
किसी
बीमारी से
ग्रस्त नहीं
है, तो वह
स्वस्थ है। यह
नकारात्मक
परिभाषा हुई।
लेकिन
स्वास्थ्य की
नकारात्मक
परिभाषा करना
बेतुका मालूम
पड़ता है।
क्योंकि तब
तुम स्वास्थ की
परिभाषा रोग
से करते हो,
और रोग स्वास्थ्य
की परिभाषा के
लिए प्राथमिक हो
जाता है।
लेकिन
स्वास्थ्य की
परिभाषा नहीं
हो सकती; क्योंकि
सच में शरीर
कभी स्वस्थ
नहीं हो सकता है।
प्रत्येक
क्षण शरीर एक
सापेक्ष
संतुलन में होता
है। क्योंकि
जीवन के साथ—साथ
मृत्यु भी चल
रही है। तुम
मर भी रहे हो।
तुम सिर्फ
जीते ही नहीं,
तुम साथ—साथ
मरते भी रहते
हो। मृत्यु और
जीवन एक—दूसरे
से पृथक और
दूर नहीं हैं।
वे साथ—साथ
चलने वाले दो
पैरों की
भांति हैं। और
वे दोनों पैर
तुम्हारे हैं।
इस क्षण में
ही तुम जीवित
भी हो और मर भी
रहे हो।
प्रत्येक
क्षण
तुम्हारे भीतर
कुछ मर रहा है।
सत्तर वर्षों
की अवधि में
मृत्यु अपनी
मंजिल पा लेगी।
प्रतिक्षण
तुम मरते
जाओगे, मरते
जाओगे, और
एक दिन मृत्यु
पूरी हो जाएगी।
जिस दिन
तुम्हारा
जन्म हुआ उसी
दिन तुम्हारा मरना
भी शुरू हो
गया। जन्म—दिन
ही मृत्यु—दिन
है।
अगर
तुम निरंतर मर
रहे हो—और
मृत्यु बाहर
से नहीं आती
है,
वह भीतर ही
बढ़ती है, फैलती
है—तो शरीर
यथार्थत: कभी
स्वस्थ नहीं
हो सकता है।
कैसे होगा? जब वह क्षण—
क्षण मर रहा
है, तो वह
यथार्थत:
स्वस्थ कैसे
होगा? शरीर
सिर्फ
सापेक्षत:
स्वस्थ हो
सकता है। यह
पर्याप्त है
कि तुम
सामान्यत:
स्वस्थ हो।
यही
बात मन के लिए
सच है। मन सच
में स्वस्थ और
संपूर्ण नहीं
हो सकता; क्योंकि
मन का होना ही
कुछ ऐसा है कि
वह बीमार, बेचैन,
तनावग्रस्त
और
चिंताग्रस्त
होने को बाध्य
है। मन का
स्वभाव ही ऐसा
है। और मन के
इस स्वभाव को
हमें समझना
होगा।
इसमें
तीन चीजें हैं।
एक,
मन शरीर और
अशरीरी के बीच
सेतु है। यह
अशरीरी
तुम्हारे
भीतर है। मन
पदार्थ और
अपदार्थ के
बीच की कड़ी है।
यह अपदार्थ
तुम्हारे
भीतर है। और
मन सबसे
रहस्यपूर्ण
सेतु है। यह
दो परस्पर
विरोधी चीजों
को, पदार्थ
और आत्मा को
जोड़ता है।
इस
विरोधाभास को
तो देखो!
आमतौर से तुम
नदी पर पुल
बनाते हो, जिसके
दोनों किनारे
पार्थिव होते
हैं। लेकिन मन
वह पुल है
जिसका एक
किनारा
पदार्थ है और
दूसरा किनारा
अपदार्थ, एक
किनारा दृश्य
है तो दूसरा
किनारा
अदृश्य, एक
मृण्मय है तो
दूसरा चिन्मय,
एक जीवन है
तो दूसरा
मृत्यु, एक
शरीर है तो
दूसरा आत्मा।
और
क्योंकि मन
परस्पर
विरोधी चीजों
को जोड़ता है
इसलिए उसे सदा
तनाव में रहना
पड़ता है; वह
चैन में नहीं
हो सकता। मन
सदा दृश्य से
अदृश्य की ओर,
अदृश्य से
दृश्य की ओर
गति करता रहता
है। इसलिए मन
प्रत्येक
क्षण गहन तनाव
में होता है।
यह दो ऐसी
चीजों को
जोड़ता है जो जोड़ी
नहीं जा सकतीं।
यही तनाव है, यही चिंता
है। तुम हर
क्षण चिंता
में जीते हो।
मैं
तुम्हारी
आर्थिक चिंता
या ऐसी दूसरी
चिंताओं की
बात नहीं करता; वे
परिधि की
चिंताएं हैं,
बाहरी
चिंताएं हैं।
वे वास्तविक
चिंताएं नहीं
हैं। बुद्ध की
चिंता
वास्तविक
चिंता है। तुम
भी उस चिंता
में हो; लेकिन
दैनंदिन
चिंताओं से
तुम इस कदर
लदे हो कि
तुम्हें
बुनियादी चिंता
का पता ही
नहीं चलता।
एक
बार तुम उस
बुनियादी
चिंता का
सुराग पा लो तो
तुम धार्मिक
हो जाओगे। इस बुनियादी
चिंता की
फिक्र ही धर्म
है। बुद्ध उसी
चिंता से
चिंतित हुए थे।
वे धन के लिए
नहीं चिंतित थे, सुंदर
पत्नी के लिए
नहीं चिंतित
थे; उन्हें
किसी चीज की
चिंता न थी।
सामान्य
चिंताएं उनके
पास बिलकुल न
थीं। वे सुखी—संपन्न
थे; बड़े
राजा के बेटे
थे; अत्यंत
सुंदर पत्नी
के पति थे; और
उनके पास सब
कुछ था। चाहने
भर से उनकी चाह
पूरी हो सकती
थी। जो भी
संभव था, वह
उनके पास था।
लेकिन अचानक
वे
चिंताग्रस्त
हो उठे। यह
बुनियादी
चिंता थी—प्राथमिक
चिंता।
उन्होंने
एक शव को जाते
देखा और
उन्होंने अपने
सारथी से पूछा
कि इस आदमी को
क्या हुआ है? सारथी
ने कहा कि यह
आदमी मर गया
है। मृत्यु के
साथ बुद्ध का
यह पहला
साक्षात्कार
था। उन्होंने
तुरंत दूसरा
प्रश्न पूछा : 'क्या सभी
लोग मरते हैं?
क्या मैं भी
मरूंगा?'
इस
प्रश्न को
देखो! तुम यह
प्रश्न नहीं
पूछते। तुम
शायद पूछते कि
कौन मरा है, और
क्यों मरा है?
या तुम शायद
यह कहते कि
युवा नजर आ
रहा है; यह
मरने की उम्र
न थी। लेकिन
यह चिंता
बुनियादी
नहीं है; इसका
तुम से कुछ
लेना—देना
नहीं है। हो
सकता है, तुम्हें
सहानुभूति
हुई होती, तुम
दुखी भी होते।
लेकिन यह
चिंता परिधि
पर ही रहती, जरा देर बाद
तुम उसे भूल
जाते।
बुद्ध
ने पूरे
प्रश्न को
अपनी तरफ मोड़
दिया. 'क्या मैं
भी मरूंगा?' सारथी ने
कहा 'मैं
आपसे झूठ कैसे
बोलूं सबको
मरना है, हरेक
को मरना है।’ तब बुद्ध ने
कहा 'रथ
वापस ले चलो।
जब मुझे मरना
ही है तो अब
जीवन का कोई
अर्थ न रहा।
तुमने मेरे
भीतर एक गहरी
चिंता को जन्म
दे दिया है।
और जब तक यह
चिंता समाप्त
नहीं होती, मुझे चैन
नहीं है।’
यह
चिंता क्या है? यह
बुनियादी
चिंता है। अगर
तुम जीवन की
वस्तुस्थिति
के प्रति
बुनियादी रूप
से सजग हो जाओ
तो एक सूक्ष्म
चिंता तुम्हें
घेर लेगी और
तुम भीतर ही
भीतर उस चिंता
से कापते
रहोगे। चाहे
तुम कुछ करो
या न करो, वह
चिंता रहेगी,
एक संताप
बनकर रहेगी।
मन
ऐसे दो
किनारों को
जोड़ता है
जिनके बीच अतल
खाई है। एक ओर
शरीर है जो
मृण्मय है, और
दूसरी ओर
तुम्हारे
भीतर कुछ है
जो चिन्मय है।
ये दो
विपरीतताए
हैं। यह ऐसा
ही है मानो
तुम विपरीत
दिशाओं में
जाने वाली दो
नावों पर सवार
हो। तब तुम
गहरे द्वंद्व
में रहोगे ही।
वही द्वंद्व
मन का द्वंद्व
है। मन दो
विपरीतताओ के
मध्य में है—यह
एक बात हुई।
दूसरे, मन
एक प्रक्रिया
है, वस्तु
नहीं। मन कोई
वस्तु नहीं है,
वरन एक
प्रक्रिया है।
मन शब्द से एक
धोखा होता है।
जब हम कहते
हैं मन, तो
ऐसा लगता है
कि तुम्हारे
भीतर मन नाम
की कोई चीज है।
ऐसी कोई चीज
नहीं है। मन
कोई चीज नहीं
है, एक
प्रक्रिया है।
इसलिए उसे मन
न कहकर मनन
कहना उचित
होगा।
संस्कृत में
एक शब्द है.
चित्त, जिसका
अर्थ मनन करना
है; मन
नहीं, मनन—एक
प्रक्रिया।
और
प्रक्रिया
कभी मौन, शांत
नहीं हो सकती
है।
प्रक्रिया
सदा तनावग्रस्त
होती है।
प्रक्रिया का
अर्थ है
विक्षोभ। और
मन सदा अतीत
से भविष्य में
गति करता रहता
है। अतीत उस
पर बोझ बन
जाता है।
इसलिए उसे
भविष्य में
गति करनी होती
है। वह सतत
गति भीतर
दूसरा तनाव
पैदा करती है।
और अगर तुम
इसके बारे में
ज्यादा सचेत
हो जाओ तो तुम
म् पागल हो
जाओगे।
यही
कारण है कि हम
सदा किसी न
किसी चीज में
व्यस्त रहते
हैं;
हम अव्यस्त
रहना नहीं
चाहते। अगर
तुम अव्यस्त
रहते हो तो
तुम्हें भीतर
की प्रक्रिया
का, मनन की
प्रक्रिया का पता
चलने लगेगा। और
उससे तुम्हारे
भीतर अजीबोगरीब
तनाव पैदा होंगे।
यही कारण है कि
हरेक आदमी
किसी न किसी
रूप में
व्यस्त रहना
चाहता है। अगर
कुछ करने को
नहीं है तो वह
एक ही अखबार
को फिर—फिर
पढ़ता है।
क्यों? तुम
चुप क्यों
नहीं बैठ सकते?
यह
कठिन है। अगर
तुम चुप बैठो
तो तुम्हारे
भीतर की
तनावग्रस्त
प्रक्रिया का
पता चलने
लगेगा। और यही
कारण है कि
हरेक आदमी
पलायन की खोज
में है। शराब
वह पलायन है; तुम
बेहोश हो जाते
हो। काम—संभोग
वह पलायन
प्रस्तुत
करता है, एक
क्षण के लिए
तुम अपने को
पूरी तरह से
भूल जाते हो।
टेलीविजन से
भी वही होता
है। संगीत से
भी यह पलायन
उपलब्ध हो
सकता है। किसी
भी चीज से यह
हो सकता है; जहां भी तुम
अपने को भूल
सको और इतने
व्यस्त रहो
सको जैसे कि
तुम नहीं हो तो
काम चलेगा।
मनन की इस
प्रक्रिया के
कारण ही आदमी
अपने से निरंतर
भागता रहता है।
अगर
तुम अव्यस्त
रहो—और
अव्यस्त रहना
ध्यान है—अगर
तुम बिलकुल
अव्यस्त रहो
तो अपनी आंतरिक
प्रक्रिया के
प्रति सजग हो
जाओगे। अनेक
लोग मेरे पास
आते हैं और
कहते हैं : 'हम
ध्यान तो करना
चाहते हैं, लेकिन जब हम
ध्यान करते
हैं तो ज्यादा
तनावग्रस्त
हो जाते हैं।’
वे कहते हैं
कि हम पहले
इतने
तनावग्रस्त
नहीं थे।
सामान्यत: हम
कभी इतने
चिंतित नहीं
रहते हैं।
लेकिन जब हम
मौन होकर
बैठते हैं और
ध्यान करते
हैं तो
विचारों की
भाग—दौड़ शुरू
हो जाती है, विचारों की
भीड़ जमा होने
लगती है। वे
सोचते हैं कि
ध्यान के कारण
यह विचारों की
भीड़ लग रही है।
ध्यान
के कारण ऐसा
नहीं है।
प्रत्येक
क्षण
तुम्हारे
भीतर विचारों
की भीड़ लगी है, लेकिन
तुम बाहर इतने
व्यस्त हो कि
तुम्हें इसका
होश ही नहीं
रहता। इसलिए
जब तुम मौन
बैठते हो और
सजग होते हो
तो तुम उस चीज
के प्रति सजग
हो जाते हो
जिससे तुम निरंतर
भाग रहे थे।
मनन
एक प्रक्रिया
है,
और
प्रक्रिया
प्रयत्न है।
उसमें ऊर्जा
नष्ट होती है,
व्यर्थ
होती है।
लेकिन यह
आवश्यक है, यह जीवन के
लिए जरूरी है।
यह जीवन—संघर्ष
का एक हिस्सा
है। यह एक
हथियार है, और एक बहुत
ही घातक
हथियार है।
यही कारण है
कि मनुष्य
दूसरे
जानवरों को
हरा कर जीवित
है। दूसरे
जानवर
शारीरिक तौर
से अधिक बलवान
हैं; लेकिन
उनके पास मनन
का सूक्ष्म
हथियार नहीं है।
उनके दात, उनके
नाखून ज्यादा
खतरनाक हैं।
वे एक क्षण
में मनुष्य को
मार डाल सकते
हैं; लेकिन
उनके पास एक
हथियार नहीं
है—मनन का
हथियार। और इस
कारण ही
मनुष्य
उन्हें मारकर
जीवित रह सका
है।
अत:
मन जीवित रहने
की व्यवस्था
है। इसकी
जरूरत है, यह
जरूरी है। यह
मन हिंसक है।
यह मन उसी
लंबी हिंसा का
हिस्सा है
जिससे आदमी को
गुजरना पड़ा है।
वह हिंसा से
गुजरकर
निर्मित हुआ
है। जब तुम
बैठे हो तो भी
अंदर हिंसा
उबलती रहती है;
विचार, हिंसक
विचार आधी की
तरह चलते रहते
हैं। और ऐसा
लगता है कि
कभी भी
विस्फोट हो जाएगा।
यही कारण है
कि कोई चुप होकर
बैठना नहीं चाहता
है।
लोग
मेरे पास आते
हैं और कहते
हैं कि मुझे
कुछ सहारा
चाहिए, आंतरिक
सहारा। मैं चुपचाप
शांत होकर बैठ
नहीं सकता।
कुछ न हो तो
कोई नाम ही दे
दें कि मैं
रटता रहूं राम—राम—राम
दोहराता रहूं।
तब मैं शांत बैठ
सकता हूं।
लेकिन
असल में तुम
क्या कर रहे
हो?
तुम एक नई
व्यस्तता
पैदा कर रहे
हो। तुम तब
चुप हो सकोगे
जब मन व्यस्त
रहे। अब तुम
राम—राम रटने
में व्यस्त हो;
तुम्हारा
मन अभी भी
अव्यस्त नहीं
हुआ।
एक
प्रक्रिया की
भांति मन सदा
बीमार ही रहता
है। शांति के
लिए जो संतुलन
जरूरी है वह
संतुलन मन के
पास नहीं है।
तीसरी
बात कि मन का
निर्माण बाहर
से होता है।
जब तुम पैदा
होते हो तो
तुम्हारे पास
मन नहीं होता, मन
की क्षमता भर
होती है—एक
संभावना। यदि
बच्चे को समाज
के बिना पाला
जाए तो वह बढेगा,
उसका शरीर
बढ़ेगा; लेकिन
उसके पास मन
नहीं होगा। वह
कोई भाषा नहीं
बोल सकेगा; वह चिंतन
में समर्थ
नहीं होगा। वह
किसी जानवर
जैसा होगा।
समाज
तुम्हारे मन
की क्षमता को
वास्तविक बनाता
है। वह
प्रशिक्षित
कर तुम्हें मन
देता है। यही
कारण है कि
हिंदू मन अलग
है और मुसलमान
मन अलग। दोनों
मनुष्य हैं, लेकिन
उनके मन अलग—
अलग हैं। ईसाई
का मन भिन्न
है। मन भिन्न—भिन्न
हैं; क्योंकि
भिन्न—भिन्न
समाजों ने
भिन्न—भिन्न
इरादों से
उन्हें
निर्मित और
संस्कारित
किया है।
एक
लड़का पैदा
होता है, या एक
लड़की जन्म
लेती है। उस
समय किसी के
भी पास मन
नहीं होता—सिर्फ
मन के होने की
संभावना होती
है। हो भी
सकता है और
नहीं भी हो
सकता है, वह
अभी महज बीज
है। फिर तुम
उन्हें
प्रशिक्षित
करते हो। तब
लड़के का मन एक
किस्म का होता
है और लड़की का
मन दूसरी
किस्म का होता
है। क्यों? इसलिए कि
तुम उन्हें
भिन्न—भिन्न
ढंग से
शिक्षित करते
हो। वैसे ही
हिंदू भिन्न
होता है और
मुसलमान भिन्न
होता है।
आस्तिक भिन्न
होता है और
नास्तिक अलग
होता है। ये
मन तुम्हारे
भीतर पैदा किए
जाते हैं। ये
तुम पर थोपे
जाते हैं।
यही
कारण है कि मन
सदा पुराना और
रूढ़िवादी होता
है। मन
प्रगतिशील
नहीं हो सकता
है। यह
वक्तव्य कुछ
अजीब सा लगता
है कि मन
प्रगतिशील
नहीं हो सकता
है। मन
रूढ़िवादी है; क्योंकि
मन संस्कार है।
ये तथाकथित
प्रगतिशील
लोग अपनी
प्रगतिशीलता
के प्रसंग में
उतने ही
रूढ़िवादी हैं
जितने अन्य
रूढ़िवादी लोग।
एक
कम्मुनिस्ट
को देखो। वह
समझता है कि
मैं
प्रगतिशील
हूं;
लेकिन उसके
सिर पर दास
कैपिटल वैसे
ही बैठा है
जैसे मुसलमान
के सिर पर कुरान
और हिंदू के
सिर पर गीता
बैठी है। अगर
तुम उसके
सामने
मार्क्स की
आलोचना करो तो
वह उतना ही
दुखी होता है
जितना कोई जैन
महावीर की
आलोचना सुनकर
दुखी होता है।
मन रूढ़िवादी
है; क्योंकि
उसे अतीत ने, समाज ने, दूसरों
ने किसी खास
प्रयोजन के
लिए संस्कारित
किया है।
लेकिन
मैं क्यों
तुम्हें इस
तथ्य के प्रति
सजग कर रहा
हूं?
इसलिए कि
जीवन प्रतिपल
बदल रहा है और
मन अतीत से
अटका है। मन
सदा पुराना है
और जीवन सदा
नया। इसलिए
तनाव और
द्वंद्व
अनिवार्य हैं।
समझो कि एक नई
स्थिति सामने
आ गई है; तुम
किसी स्त्री
के प्रेम में
पड़ गए हो।
तुम्हारे पास
एक हिंदू का
मन है और वह
स्त्री मुसलमान
है। अब
द्वंद्व होगा;
अब
अनावश्यक ही
बहुत संताप
पैदा होगा। वह
स्त्री
मुसलमान है; और जीवन
तुम्हें वहां
ले आया है
जहां तुम उसके
प्रेम में पड़
जाते हो। जीवन
तो तुम्हें एक
नई घटना के आमने—सामने
कर देता है।
लेकिन
तुम्हारा मन
नहीं जानता है
कि उस घटना से
कैसे निबटा जाए।
कोई जानकारी नहीं
है; इसलिए द्वंद्व
होगा ही।
यही
कारण है कि
तेजी से बदलती
हुई दुनिया
में लोग अपने
मूल से टूट
जाते हैं और
उनका जीवन चिंताग्रस्त
हो जाता है।
बीते युगों
में ऐसी बात
नहीं थी।
मनुष्य
ज्यादा शांत
था। यथार्थत:
तो वह शांत
नहीं था, लेकिन
वह ज्यादा शांत
मालूम पड़ता था।
क्योंकि उसके
आस—पास की
जिंदगी इतनी
ठहरी हुई थी
और मन में कोई द्वंद्व
न था। अब सब
चीजें बहुत
तेजी से बदल
रही हैं, और
मन उतनी तेजी
से नहीं बदल
सकता। मन अतीत
से चिपका रहता
है, और
चीजें हर क्षण
बदल रही हैं।
यही
वजह है कि
पश्चिम में
इतनी चिंता है।
पूरब में
चिंता कम है।
यह हैरानी की
बात है, क्योंकि
पूरब को
ज्यादा
बुनियादी
समस्याओं का
सामना करना
पड़ता है। भोजन
नहीं है, कपड़ा
नहीं है, मकान
का अभाव है, लोग भूखे मर
रहे हैं।
लेकिन उन्हें
चिंता बहुत कम
है, जब कि
पश्चिम में
ज्यादा चिंता
है। पश्चिम
समृद्ध है, वैज्ञानिक
तल पर बहुत
विकसित है, तकनीकी
दृष्टि से
उसके जीवन का
स्तर बहुत ऊंचा
है। तब भी
इतनी चिंता
क्यों?
वह
इसलिए
क्योंकि
तकनीकी विकास
ने जीवन में तीव्र
बदलाहट ला दी
है,
इतनी तीव्र
कि मन उसके साथ
नहीं चल सकता।
इसके पहले कि
तुम किसी चीज
के साथ अपना
तालमेल बिठाओ
कि वह चीज
पुरानी हो
जाती है, बदल
जाती है। फिर
वही अंतराल।
जीवन
सतत नई
स्थितियां
पैदा किए जाता
है और मन है कि
अपने पुराने
संस्कारों के
मुताबिक प्रतिक्रिया
करता है, फलत:
अंतराल बढ़ता
है। और जितना
बड़ा यह अंतराल
होगा उतनी ही
बड़ी चिंता होगी।
मन रूढ़िवादी
है, लेकिन
जीवन
रूढ़िवादी
नहीं है।
मन
खुद रोग क्यों
है,
इसके ये तीन
कारण हैं। फिर
करना क्या है?
अगर
मन का उपचार
करना है तो
उसके कई आसान
उपाय हैं।
मनोविश्लेषण
एक आसान उपाय
है। इसमें समय
अधिक लग सकता
है,
यह सफल भी
नहीं होता है,
लेकिन कठिन
नहीं है। पर
मन का
अतिक्रमण
कठिन है, दुष्कर
है। क्योंकि
उसमें मन को
समग्रत:
विसर्जित
करना पड़ता है।
अतिक्रमण में
तुम पंख लगाकर
मन के पार उड़
जाते हो, मन
अपनी जगह जैसा
था वैसा ही
पड़ा रह जाता
है। तुम उसे
छूते भी नहीं
हो।
उदाहरण
के लिए, मैं
यहां हूं और
कमरा गर्म है।
तो मैं दो काम
कर सकता हूं।
मैं कमरे को
वातानुकूलित
कर सकता हूं
और उसमें रह
सकता हूं। मैं
ऐसे उपाय कर
सकता हूं कि
कमरा गर्म न
हो। लेकिन तब
उपायों के भी
उपाय करने
होंगे। और हर
उपाय समस्या
और चिंताएं
पैदा करता है।
दूसरी
संभावना है कि
मैं कमरा
छोड्कर बाहर
चला जाऊं।
यही
फर्क है।
पश्चिम मन के
उसी कमरे में
रहे चला जाता
है। वह
समायोजन के
सभी उपाय करता
है,
ताकि मन में
रहना कम से कम
सामान्य हो
सके। वह बहुत आनंदपूर्ण
तो नहीं हो
सकता है; लेकिन
कम दुखदायी हो
सकता है। मन
में रहना सुख
का शिखर तो
नहीं छू सकता
है, लेकिन
अतिशय दुख से
बचा जा सकता
है। दुख को कम
से कम किया जा सकता
है।
फ्रायड
ने कहा है कि
मनुष्य के
सुखी होने की
कोई संभावना
नहीं है।
ज्यादा से
ज्यादा तुम
यही कर सकते
हो कि मन को
ऐसे
व्यवस्थित करो
कि तुम
सामान्य जीवन
बिता सको। तब
तुम दूसरों से
कम दुःखी होगे।
बस इतना।
यह
तो बड़ी
निराशाजनक
स्थिति है।
लेकिन फ्रायड
बड़ा सच्चा और
प्रामाणिक
चिंतक था, और
एक ढंग से
उसकी बात सही
है, क्योंकि
वह मन के पार
नहीं देख सकता
था। यही कारण
है कि पूरब
में फ्रायड, वा या एडलर
की तरह का मनोविज्ञान
नहीं विकसित
हुआ। यह
हैरानी की बात
है; क्योंकि
पूरब मन के
संबंध में कम
से कम पांच हजार
वर्षों से
चर्चा करता आ
रहा है। मन और
ध्यान और
अतिक्रमण की
पांच हजार
वर्षों तक
चर्चा करने के
बाद भी पूरब
मनोविज्ञान
क्यों नहीं
विकसित कर सका?
पश्चिम में
मनोविज्ञान
का विकास हाल
की घटना है।
फिर पूरब
मनोविज्ञान
क्यों नहीं
निर्मित कर सका?
यहां बुद्ध
हुए, जिन्होंने
मन के गहनतम
तलों की चर्चा
की। उन्होंने
चेतन की चर्चा
की, अवचेतन
की चर्चा की
और उन्होंने
अचेतन की चर्चा
की। वे तो
जरूर जानते
होंगे। लेकिन
उन्होंने भी
चेतन, अवचेतन
और अचेतन का
मनोविज्ञान
क्यों नहीं विकसित
किया?
कारण
है। कारण यह
है कि पूरब
कमरे में
उत्सुक नहीं
रहा। उसने
कमरे की थोड़ी
चर्चा भी की
तो सिर्फ इसलिए
कि कमरे के
बाहर कैसे
जाया जाए, कमरे
के पार कैसे
जाया जाए।
सिर्फ उसका
द्वार पता
लगाने के लिए
हम कमरे में उत्सुक
रहे। बस। कमरे
के संबंध में
हमारी बहुत
उत्सुकता
नहीं है; क्योंकि
हम उसमें रहने
नहीं जा रहे
हैं। हमारी
रुचि इतनी ही
रही है कि हम
जानें कि द्वार
कहां है, और
कैसे बाहर
निकल जाएं।
हमने कमरे की
चर्चा भी
इसलिए की कि
द्वार का पता
चले और हम जान
लें कि कैसे उसे
खोला जाता है
और बाहर निकला
जाता है।
हमारी सारी
अभिरुचि यहीं
तक सीमित रही
है। इसी कारण
से भारत में
मनोविज्ञान
विकसित नहीं
हो सका।
अगर
तुम कमरे में
उत्सुक नहीं
हो तो तुम
कमरे के नक्शे
न बनाओगे, तो
तुम कमरे की
हर दीवार की, उसकी इंच—इंच
जगह की नाप—जोख
नहीं करोगे।
तुम इन चीजों
की फिक्र ही
नहीं करते।
तुम्हारी
दिलचस्पी
इतनी ही है कि
दरवाजा कहां
है, खिड़की
कहा है, ताकि
उससे बाहर
निकला जा सके।
और जिस क्षण
तुम बाहर
निकलोगे, तुम
कमरे को
बिलकुल भूल
जाओगे।
क्योंकि तब
तुम अनंत आकाश
के नीचे होंगे।
तब तुम्हें
याद भी नहीं
रहेगा कि कहीं
एक कमरा था और
मैं एक गुफा
में रहता था, जब कि एक
निस्सीम आकाश
उसके पार था
और मैं किसी
भी क्षण उसमें
प्रवेश कर
सकता था। तब
तुम मन को
बिलकुल भूल
जाते हो।
अगर
तुम मन का
अतिक्रमण कर
सको,
तो क्या
होगा? मन
तो वही का वही
रहता है। तुम
मन में कोई
बदलाहट नहीं
करते, बस
उसके पार निकल
जाते हो। और
सब कुछ बदल
जाता है। उसके
बाद तुम जरूरत
पड़ने पर कमरे
में वापस भी आ
सकते हो, लेकिन
तुम अब आदमी
दूसरे होगे।
वह बाहर जाना
और भीतर आना
तुम्हें
गुणात्मक रूप
से बदल देगा।
जो आदमी सदा
कमरे में ही
रहा है और
नहीं जानता है
कि कमरे के
बाहर कैसा है,
वह आदमी और
है। उसे आदमी
कहना भी उचित
नहीं है; वह
कीड़ों—मकोड़ों
की जिंदगी
जीता है। और
जब वह आकाश के
नीचे, खुले
आकाश के नीचे
पहुंच जाता है,
जब वह सूरज
से और बादलों
से और अनंत
विस्तार से
गुफ्तगू करता
है, तो वह
तुरंत दूसरा
आदमी हो जाता
है। अनंत—असीम
के प्रभाव में
वह पहली बार
आदमी बनता है,
चैतन्य
बनता है।
वह
अब कमरे में
वापस लौट सकता
है;
लेकिन अब वह
आदमी और ही
होगा। अब वह
कमरा किसी
उपयोग के लिए
होगा; अब
वह कारागृह
नहीं होगा। अब
वह जब चाहे
उससे बाहर जा
सकता है। अब
वह कमरे को किसी
उपयोग में ला
सकता है; कमरा
कामचलाऊ है।
पहले वह उसमें
कैद था; अब
वह कैद नहीं
है। अब वह
मालिक है। अब
वह जानता है
कि बाहर आकाश
है और वह अनंत
आकाश उसकी
प्रतीक्षा कर
रहा है। अब वह
यह भी जानता
है कि यह कमरा
भी उस अनंत का
ही हिस्सा है,
और इस कमरे
के भीतर जो सीमित
आकाश है वह भी
इसी आकाश का
हिस्सा है जो
बाहर है। वह
आदमी फिर वापस
आकर कमरे में
रह भी सकता है,
कमरे का
उपयोग भी कर
सकता है, लेकिन
अब वह कमरे का
कैदी नहीं रहा।
यह
गुणात्मक भेद
है। पूरब
फिक्र करता है
कि कैसे मन के
पार जाया जाए
और तब उसका
उपयोग किया
जाए। और तरकीब
यह है मन के
साथ तादात्म्य
मत करो। ध्यान
की सभी
विधियां इसी
बात की फिक्र
करती हैं कि
कैसे द्वार को
ढूंढा जाए, कैसे
कुंजी का
उपयोग किया
जाए, और
कैसे द्वार
खोलकर बाहर
निकला जाए।
आज
हम दो विधियों
की चर्चा
करेंगे। पहली
विधि का संबंध
किसी क्रिया
के बीच में रुकने
से है। इसके
पहले हम ऐसी
तीन रुकने
वाली विधियों
की चर्चा कर
चुके हैं। यह
विधि बाकी है।
अचानक
रुकने की चौथी
विधि:
कल्पना
करो कि तुम
धीरे— धीरे
शक्ति या
ज्ञान से
वंचित किए जा
रहे हो। वंचित
किए जाने के
क्षण में
अतिक्रमण करो।
इस
विधि का
प्रयोग किसी
यथार्थ
स्थिति में भी
किया जा सकता
है और तुम ऐसी
स्थिति की
कल्पना भी कर
सकते हो।
उदाहरण के लिए, लेट
जाओ, शिथिल
हो जाओ, और
भाव करो कि
तुम्हारा
शरीर मर रहा
है। आंखें बंद
कर लो और भाव
करो कि मैं मर
रहा हूं।
जल्दी ही तुम
महसूस करोगे
कि मेरा शरीर
भारी हो रहा
है। भाव करो. 'मैं मर रहा
हूं मैं मर
रहा हूं मैं
मर रहा हूं।’
अगर
भाव
प्रामाणिक है
तो तुम्हारा
शरीर भारी होने
लगेगा।
तुम्हें
महसूस होगा कि
मेरा शरीर
पत्थर जैसा हो
गया है। तुम
अपने हाथ
हिलाना
चाहोगे, लेकिन
हिला नहीं
पाओगे!
क्योंकि वह
इतना भारी और
मुर्दा हो गया
है। भाव किए
जाओ कि मैं मर
रहा हूं मैं
मर रहा हूं मर
रहा हूं मर
रहा हूं मर
रहा हूं। और
जब तुम्हें
मालूम हो कि
अब वह क्षण आ
गया है, एक
छलांग और कि
मैं मर जाऊंगा,
तब शरीर को
भूल जाओ और
अतिक्रमण करो।
'कल्पना करो
कि तुम धीरे—
धीरे शक्ति या
ज्ञान से
वंचित किए जा
रहे हो। वंचित
किए जाने के
क्षण में, अतिक्रमण
करो।’
जब
तुम अनुभव
करते हो कि
शरीर मृत हो
गया है, तब
अतिक्रमण
करने का क्या
अर्थ है? शरीर
को देखो। अब
तक तुम भाव
करते रहे थे
कि मैं मर रहा
हूं। अब शरीर
मृत बोझ बन
गया है। शरीर
को देखो। भूल
जाओ कि मर रहा
हूं और अब द्रष्टा
हो जाओ। शरीर
मृत पड़ा है और
तुम उसे देख
रहे हो।
अतिक्रमण
घटित हो जाएगा।
तुम अपने मन
से बाहर निकल
जाओ; क्योंकि
मृत शरीर को
मन की जरूरत
नहीं है। मृत
शरीर इतना
विश्राम में होता
है कि मन की प्रक्रिया
ही ठहर जाती है।
तुम हो, शरीर
भी है; लेकिन
मन अनुपस्थित
है।
स्मरण
रहे,
मन की जरूरत
जीवन के लिए
है, मृत्यु
के लिए नहीं।
अगर तुम्हें
अचानक पता चले
कि मैं एक
घंटे के अंदर
मर जाऊंगा तो
उस एक घंटे के
भीतर तुम क्या
करोगे? एक
घंटा बचा है।
और निश्चित है
कि एक घंटे
बाद, ठीक
एक घंटे बाद
तुम मर जाओगे,
तो तुम क्या
करोगे?
तुम्हारा
विचार बिलकुल
बंद हो जाएगा!
क्योंकि सब
विचारना अतीत
से या भविष्य
से संबंधित है।
तुम एक घर
खरीदने की सोच
रहे थे, या एक
कार खरीदना
चाहते थे। या
हो सकता है कि
तुम किसी से
विवाह की
योजना बना रहे
थे, या
किसी को तलाक देना
चाहते थे। तुम
बहुत सी बातें
सोच रहे थे, और वे सतत
तुम्हारे मन
पर भारी थीं।
अब जब कि
सिर्फ एक घंटा
हाथ में है तब
न विवाह का
कोई अर्थ है
और न तलाक का।
अब तुम सारी
योजना उनके
लिए छोड़ सकते
हो जो जीने
वाले हैं।
मृत्यु
के साथ आयोजन
समाप्त हो
जाता है।
मृत्यु के साथ
चिंता समाप्त
हो जाती है।
क्योंकि हर
आयोजन, हर
चिंता जीवन से
संबंधित है।
कल तुम जीओगे,
इसी कारण से
चिंता होती है।
और यही कारण
है कि जो लोग
ध्यान सिखाते
हैं वे सतत
कहते हैं कि
कल की मत सोचो।
जीसस अपने
शिष्यों से
कहते हैं कि
कल की मत सोचो!
क्योंकि कल की
सोचोगे तो तुम
ध्यान में
नहीं उतर
पाओगे, तुम
चिंता में उतर
जाओगे।
लेकिन
हमें चिंताओं
से इतना लगाव
है कि हम कल की
ही नहीं सोचते, आने
वाले जन्म तक
की चिंता करते
हैं। हम इस
जीवन के लिए
ही आयोजन नहीं
करते, मृत्यु
के बाद आने
वाले जीवन के
लिए भी आयोजन करते
हैं।
एक
दिन मैं सड़क
से गुजर रहा
था कि किसी ने
एक पुस्तिका
मेरे हाथ में
थमा दी। उसके
मुख—पृष्ठ पर
एक बहुत ही
सुंदर मकान का
चित्र बना था, और
उसके साथ ही
एक सुंदर
बगीचा भी था।
वह सुंदर था, अदभुत रूप
से सुंदर था।
और बड़े—बड़े
अक्षरों में
यह प्रश्न
लिखा था : 'क्या
तुम ऐसा सुंदर
घर और ऐसा
सुंदर बगीचा
चाहते हो? और
वह भी बिना
मूल्य के, मुफ्त?'
मैंने
उस किताब को
उलट—पुलटकर
देखा; वह घर और
बगीचा इस
दुनिया के
नहीं थे। वह
ईसाइयों की
पुस्तिका थी।
उसमें लिखा था
कि अगर
तुम्हें ऐसे
सुंदर घर और
बगीचे की चाह
है तो जीसस
में विश्वास
करो। जो लोग
उनमें
विश्वास करते
हैं उन्हें
प्रभु के
राज्य में ऐसे
घर मुफ्त में
मिलते हैं।
मन
कल की ही नहीं
सोचता, वरन
मृत्यु के बाद
की भी सोचता
है; वह
अगले जन्मों
के लिए भी
व्यवस्था और
आरक्षण करता
रहता है। ऐसा
मन धार्मिक
नहीं हो सकता
है। धार्मिक
मन कल की चिंता
नहीं करता है।
इसलिए जो लोग
अगले जन्मों
की चिंता करते
हैं, वे
सतत सोचते
रहते हैं कि
परमात्मा
उनके साथ कैसा
व्यवहार
करेगा।
चर्चिल मर रहा
था और किसी ने
उससे पूछा. 'तुम स्वर्ग
में परमपिता
से मिलने को
तैयार हो?' चर्चिल
ने कहा : 'वह मेरी
चिंता नहीं है;
मुझे तो यह
चिंता है कि
क्या परमपिता
मुझसे मिलने
को तैयार?' चाहे
जो भी ढंग हो, तुम चिंता
भविष्य की ही
करते हो।
बुद्ध
ने कहा है कि
कोई स्वर्ग
नहीं है और न
कोई भावी जीवन
है। और
उन्होंने यह
भी कहा है कि
आत्मा नहीं है, और
तुम्हारी
मृत्यु समग्र
और पूरी होगी।
कुछ भी नहीं
बचेगा।
इस
पर लोगों ने सोचा
कि बुद्ध नास्तिक
है। वे नास्तिक
नहीं थे। वे एक
स्थिति पैदा कर
रहे थे जिसमें
तुम कल को भूल
सको और इस
क्षण में, यहां
और अभी जी सको।
तब ध्यान बहुत
सरल हो जाता
है।
तो
अगर तुम
मृत्यु की सोच
रहे हो—वह
मृत्यु नहीं
जो भविष्य में
आएगी—तो जमीन
पर लेट जाओ, मृतवत
हो जाओ, शिथिल
हो जाओ और भाव
करो कि मैं मर
रहा हूं मैं
मर रहा हूं मैं
मर रहा हूं।
यह सिर्फ सोचो
ही नहीं, शरीर
के एक—एक अंग
में, शरीर
के एक—एक तंतु
में इसे अनुभव
करो। मृत्यु
को अपने भीतर
सरकने दो। यह
एक अत्यंत
सुंदर ध्यान—विधि
है। और जब तुम
समझो कि शरीर
मृत बोझ हो
गया है और जब
तुम अपना हाथ
या सिर भी
नहीं हिला
सकते, जब
लगे कि सब कुछ
मृतवत हो गया,
तब एकाएक
अपने शरीर को
देखो। तब मन
वहां नहीं
होगा। तब तुम
देख सकते हो।
तब सिर्फ तुम
होगे, चेतना
होगी।
अपने
शरीर को देखो।
तुम्हें नहीं
लगेगा कि यह
तुम्हारा
शरीर है। बस
एक शरीर है, कोई
शरीर, ऐसा
लगेगा। तुम और
तुम्हारे
शरीर के बीच
का अंतराल साफ
हो जाएगा, स्फटिक
की तरह साफ।
कोई सेतु नहीं
बचेगा। शरीर
मृत पड़ा होगा,
और तुम
साक्षी की तरह
खड़े होगे। तुम
शरीर में नहीं
होगे।
ध्यान
रहे,
मन के कारण
ही अहं भाव
उठता है कि
मैं शरीर हूं।
यह भाव कि मैं
शरीर हूं मन
के कारण है।
अगर मन न हो, अनुपस्थित
हो, तो तुम
नहीं कहोगे कि
मैं शरीर में
हूं या शरीर
के बाहर हूं।
तुम महज होगे;
भीतर और
बाहर नहीं
होगे। भीतर और
बाहर सापेक्ष
शब्द हैं, जो
मन से संबंधित
हैं। तब तुम
मात्र साक्षी
रहोगे। यही
अतिक्रमण है।
तुम
यह प्रयोग कई
ढंगों से कर
सकते हो। कभी—कभी
वास्तविक
स्थितियों
में भी यह
प्रयोग संभव
है। तुम बीमार
हो और तुम्हें
लगता है कि अब
कोई आशा न बची, मृत्यु
निश्चित है।
यह बहुत
उपयोगी
स्थिति है।
ध्यान के लिए
इसका उपयोग
करो।
और
दूसरे ढंगों
से भी इसका
उपयोग कर सकते
हो। कल्पना करो
कि धीरे— धीरे
तुम्हारी
शक्ति क्षीण
हो रही है।
लेट जाओ और
भाव करो कि
समस्त
अस्तित्व
मेरी शक्ति को
चूस रहा है।
चारों ओर से
मेरी शक्ति
चूसी जा रही
है,
और शीघ्र ही
मैं निःसत्व
हो जाऊंगा; सर्वथा
बलहीन हो
जाऊंगा; मेरे
भीतर कुछ भी
नहीं बचेगा।
और
जीवन ऐसा ही
है। तुम चूसे
जा रहे हो।
तुम्हारे
चारों ओर की
चीजें
तुम्हें चूस
रही हैं। और
एक दिन तुम
मुर्दा हो
जाओगे—सब कुछ
चूस लिया
जाएगा। जीवन
तुम से जा
चुकेगा और
केवल शव पड़ा
रहेगा।
इस
क्षण भी तुम
यह प्रयोग कर
सकते हो, कल्पना
कर सकते हो।
लेट जाओ और
भाव करो कि
ऊर्जा चूसी जा
रही है। थोडे
ही दिनों में
तुम्हें साफ
होने लगेगा कि
कैसे ऊर्जा
बाहर जाती है।
और जब तुम
समझो कि सारी
ऊर्जा बाहर
निकल गई है, भीतर कुछ
नहीं बची है, तब अतिक्रमण
कर जाओ।
'वंचित किए
जाने के क्षण
में, अतिक्रमण
करो।'
जब
ऊर्जा का
अंतिम कण तुम
से बाहर जा रहा
है,
अतिक्रमण
कर जाओ।
द्रष्टा हो जाओ,
मात्र
साक्षी। तब यह
जगत और यह
शरीर दोनों
तुम नहीं हो, तुम बस
देखने वाले हो।
यह
अतिक्रमण तुम्हें
तुम्हारे मन के
बाहर ले जाएगा।
यह कुंजी है।’ और
तुम अपनी पसंद
के मुताबिक कई
ढंगों से यह
प्रयोग कर सकते
हो। उदाहरण के
लिए हम लोग
दौड़ने की बात
कर रहे थे।
उसमें ही अपने
को थका दो।
दौड़ते जाओ, दौड़ते जाओ।
खुद मत रुको।
शरीर को अपने
आप ही गिरने
दो। जब शरीर
का जर्रा—जरी
थक जाएगा, तुम
गिर पड़ोगे। और
जब तुम गिर
रहे हो तभी
सजग हो जाओ।
सिर्फ देखो कि
शरीर गिर रहा
है।
कभी—कभी
चमत्कारपूर्ण
घटना घटती है।
तुम खडे रहते
हो,
शरीर गिर
गया है, और
तुम उसे देख
सकते हो। तुम
देख सकते हो; क्योंकि
शरीर ही गिरा
है और तुम खड़े
ही हो। शरीर
के साथ मत
गिरो। चारों
तरफ घूमो, दौड़ो,
नाचो, शरीर
को थका डालों।
लेकिन ध्यान
रहे, तुम्हें
लेटना नहीं है;
क्योंकि उस
हालत में आंतरिक
चेतना भी शरीर
के साथ गति
करके लेट जाती
है। इसलिए
लेटना नहीं है।
तुम चलते ही
चलो, जब तक
कि शरीर अपने
आप ही न गिर
जाए। तब शरीर
शव की तरह गिर
जाता है। और
तुरंत
तुम्हें
दिखाई देता है
कि शरीर गिर रहा
है और तुम कुछ
नहीं कर सकते।
उसी
क्षण आंख खोलो, सजग
हो जाओ। चूको
मत। जागरूक
होकर देखो कि
क्या हो रहा
है। हो सकता
है, तुम
खड़े हो और
शरीर गिर पड़ा
है। एक बार यह
जान लो तो फिर
तुम यह कभी न
भूलोगे कि मैं
इस शरीर से
पृथक हूं।
अंग्रेजी
के शब्द 'एक्सटैसी'
का यही अर्थ
है : बाहर खड़ा
होना।
एक्सटैसी
अर्थात बाहर
खड़ा होना।
अंग्रेजी में
एक्सटैसी का
प्रयोग समाधि
के लिए होता
है। और एक बार
तुम समझ लो कि
तुम शरीर के
बाहर हो तो उस
क्षण में मन
नहीं रह जाता
है। क्योंकि
मन ही वह सेतु
है जिससे यह
भाव पैदा होता
है कि मैं
शरीर हूं। अगर
तुम एक क्षण
के लिए भी
शरीर के बाहर
हुए तो उस
क्षण में मन
नहीं रहेगा।
यह
अतिक्रमण है।
अब तुम शरीर
में वापस हो
सकते हो, मन
में भी वापस
हो सकते हो, लेकिन अब
तुम इस अनुभव
को नहीं भूल
सकोगे। यह
अनुभव
तुम्हारे
अस्तित्व का
भाग बन गया है;
यह सदा
तुम्हारे साथ
रहेगा।
इस
प्रयोग को
प्रतिदिन करो।
और इस सरल
प्रक्रिया से
बहुत कुछ घटित
होता है।
मन
को लेकर
पश्चिम सदा
चिंतित रहता
है और अनेक
उपाय भी करता
है,
लेकिन अब तक
कोई उपाय काम
करता नजर नहीं
आ रहा है।
हरेक चीज फैशन
बनकर समाप्त
हो जाती है।
मनोविश्लेषण
अब एक मृत आंदोलन
है। उसकी जगह
नए आंदोलन आ
गए हैं—एनकाउंटर
समूह हैं, समूह
मनोविज्ञान
है, कर्म
मनोविज्ञान
है—और भी ऐसी
ही चीजें हैं।
लेकिन वे फैशन
की तरह आती
हैं और चली
जाती हैं।
क्यों?
इसलिए
कि मन के भीतर
तुम ज्यादा से
ज्यादा व्यवस्था
ही बिठा सकते
हो। और ये
व्यवस्थाएं
बार—बार
उपद्रव में
पड़ेगी। मन की
व्यवस्था, उसके
साथ समायोजन
करना रेत पर
घर बनाने जैसा
है, ताश का
घर बनाने जैसा
है। वह घर सदा
हिलता रहेगा,
और यह डर
सदा रहेगा कि
अब गिरा तब
गिरा। वह किसी
भी क्षण गिर
सकता है।
आंतरिक
रूप से सुखी
और स्वस्थ
होने के लिए
संपूर्ण होने
के लिए मन के
पार जाना ही
एकमात्र उपाय
है। तब तुम मन
में भी लौट सकते
हो,
और उसे
उपयोग में भी
ला सकते हो।
तब मन यंत्र
का काम करता
है, और तुम
उससे
तादात्म्य
नहीं रखते।
तो
दो चीजें हैं।
एक कि मन के
साथ तुम्हारा तादात्म्य
है। तंत्र के
लिए यही
रुग्णता है।
दूसरे, मन के
साथ तुम्हारा
तादात्म्य
नहीं रहा; तुम
उसे यंत्र की
तरह काम में
लाते हो। तब
तुम स्वस्थ और
संपूर्ण हो।
अचानक
रुकने की
पांचवीं विधि।
थोड़े से
शब्दों की यह
विधि एक अर्थ
में बहुत सरल
है और दूसरे
अर्थ में
अत्यंत कठिन।
यह पांचवीं
विधि कहती है :
भक्ति
मुक्त करती है।
थोड़े
से शब्द : 'भक्ति
मुक्त करती है।’
सच में तो
यह एक ही शब्द
है। क्योंकि 'मुक्त करती
है' भक्ति
का परिणाम है।
भक्ति का क्या
मतलब है?
विज्ञान
भैरव तंत्र
में दो कोटि
की विधियां हैं।
एक कोटि उनके
लिए है जो
मस्तिष्क—प्रधान
हैं,
विज्ञानोन्मुख
हैं। और दूसरी
उनके लिए है
जो हृदय—प्रधान
हैं, भावोन्मुख
हैं, कवि
हैं। और दो ही
तरह के मन हैं—वैज्ञानिक
मन और
काव्यात्मक
मन। और इनमें
जमीन—आसमान का
अंतर है; वे
एक—दूसरे से
कहीं नहीं
मिलते हैं।
मिलन असंभव है।
कभी—कभी वे
समानांतर
चलते हैं, लेकिन
मिलते कहीं
नहीं।
कभी—कभी
ऐसा होता है
कि कोई आदमी
कवि भी है और
वैज्ञानिक भी।
यह दुर्लभ
घटना भी घटती
है कि कोई
व्यक्ति कवि
और विज्ञानी
दोनों हो। तब
उसका
व्यक्तित्व
खंडित होगा।
तब वह यथार्थ
में दो होगा, एक
नहीं। जब वह
कवि होता है
तब वैज्ञानिक
को बिलकुल भूल
जाता है, अन्यथा
उसका
वैज्ञानिक
उपद्रव पैदा
करेगा। और जब
वह वैज्ञानिक
होता है तो
अपने कवि को बिलकुल
भूल जाता है
और तब वह
दूसरे जगत में
प्रवेश करता
है—जो धारणा, विचार, तर्क,
बुद्धि और
गणित का जगत
है। वह जगत ही
अलग है। और जब
वह कविता के
जगत में विचरण
करता है तो वहा
गणित नहीं, संगीत होता
है। वहा
धारणाएं नहीं
होतीं, वहा
शब्द होते हैं,
लेकिन तरल
शब्द, ठोस
नहीं। वहां एक
शब्द दूसरे
शब्द में
प्रवेश कर
जाता है। वहां
एक शब्द के
अनेक अर्थ हो
सकते हैं और
हो सकता है
कोई भी अर्थ न
हो। वहां
व्याकरण खो
जाता है, सिर्फ
काव्य रहता है।
यह और ही
दुनिया है।
विचारक
और भावुक, ये
दो कोटियां
हैं। पहली
विधि, जिसकी
चर्चा अभी मैंने
की, वैज्ञानिक
मन के लिए थी।’
भक्ति
मुक्त करती है,'
भावुक मन के
लिए है। और
याद रहे कि
तुम्हें अपनी
कोटि खोज लेनी
है। कोई भी
कोटि छोटी—बड़ी
या ऊंची—नीची
नहीं है। यह
मत सोचो कि
बौद्धिक मन
श्रेष्ठ है या
भावुक मन
श्रेष्ठ है।
नहीं, वे
सिर्फ
कोटियां हैं,
ऊंच—नीच की
कोई बात नहीं
है। इसलिए
खोजो कि
तुम्हारी
कोटि तथ्यतः
क्या है।
दूसरी
विधि भावुक
कोटि के लोगों
के लिए है।
क्यों? क्योंकि
भक्ति किसी और
के प्रति होती
है, और
भक्ति अंधी
होती है।
भक्ति में
दूसरा तुमसे
ज्यादा
महत्वपूर्ण होता
है। यह
श्रद्धा है।
बुद्धिवादी किसी
पर श्रद्धा
नहीं कर सकता
है। वह सिर्फ
आलोचना कर
सकता है, श्रद्धा
नहीं। वह
संदेह कर सकता
है, भरोसा
नहीं। और अगर
कभी कोई
बुद्धि—प्रधान
व्यक्ति
आस्था के निकट
आता भी है तो
उसकी आस्था
प्रामाणिक
नहीं होती।
पहली
बात तो यह कि
वह किसी तरह
अपनी आस्था के
संबंध में
अपने को राज़ी
करता है। ऐसी
आस्था कभी
प्रामाणिक
नहीं होती। वह
प्रमाण खोजता
है,
दलील खोजता
है। और वह
पाता है कि दलीलें
ठोस है, प्रमाण
जोरदार है,
तो ही विश्वास
करता है। लेकिन
यहीं वह चूक
जाता है।
क्योंकि
आस्था तर्क
नहीं करती है
और न आस्था प्रमाणों
पर आधारित है।
अगर प्रमाण
उपलब्ध हैं तो
आस्था की
जरूरत क्या
रही!
तुम
सूरज में
विश्वास नहीं
करते हो, तुम
आसमान में
विश्वास नहीं
करते हो, तुम
बस उन्हें
जानते हो।
सूरज उग रहा
है, इसमें
विश्वास करने
की क्या बात
है? अगर
कोई तुमसे
पूछे कि क्या
तुम सूरज के उगने
में विश्वास
करते हो, तो
तुम यह नहीं
कहते कि ही, मैं विश्वास
करता हूं और
एक बड़ा
विश्वासी हूं।
तुम यही कहते
हो कि सूरज उग
रहा है और मैं
यह जानता हूं।
विश्वास या
अविश्वास का
प्रश्न ही
नहीं है। क्या
कोई ऐसा
व्यक्ति भी है
जिसे सूरज में
विश्वास हो? ऐसा कोई नहीं
है।
श्रद्धा
का अर्थ है :
बिना किसी
प्रमाण के अज्ञात
में छलांग।
यह
कठिन है, बौद्धिक
कोटि के
मनुष्य के लिए
यह कठिन है।
क्योंकि तब
पूरी चीज
बेतुकी हो
जाती है, पागलपन
की हो जाती है।
पहले प्रमाण
चाहिए। अगर
तुम कहते हो
कि ईश्वर है
और उसके प्रति
समर्पण करना है,
तो पहले
ईश्वर को
सिद्ध करना
होगा।
लेकिन
तब ईश्वर एक
प्रमेय हो
जाता है; सिद्ध
तो हो जाता है,
पर व्यर्थ
हो जाता है।
ईश्वर को
असिद्ध ही
रहना है, अन्यथा
वह किसी काम
का न रहेगा।
क्योंकि तब
श्रद्धा
अर्थहीन हो
जाती है। अगर
तुम एक सिद्ध
किए हुए ईश्वर
में विश्वास
करते हो तो
तुम्हारा
ईश्वर
ज्यामिति का
एक प्रमेय
मात्र है। कोई
यूक्लिड के
प्रमेयों में
विश्वास नहीं
करता; उसकी
जरूरत नहीं है।
वे प्रमेय
सिद्ध किए जा
सकते हैं। और
जो सिद्ध किया
जा सकता है वह
श्रद्धा के लिए
आधार नहीं हो
सकता।
एक
अत्यंत
रहस्यवादी
ईसाई संत तरतूलियन
ने कहा है कि
मैं ईश्वर में
इसलिए विश्वास
करता हूं
क्योंकि वह
बेतुका है, अविश्वसनीय
है। और वह ठीक
कहता है।
भावुक लोगों
की दृष्टि यही
है। तरतूलियन
कहता है कि
चूंकि उसे
सिद्ध नहीं किया
जा सकता इसलिए
मैं ईश्वर में
विश्वास करता हूं।
यह
वक्तव्य
तर्कहीन है, अबुद्धिपूर्ण
है।
तर्कपूर्ण
वक्तव्य ऐसा
होना चाहिए : 'ईश्वर के ये
प्रमाण हैं, और इसलिए
मैं उसमें
विश्वास करता
हूं।’ और
तरतूलियन
कहता है, क्योंकि
उसके पक्ष में
कोई सबूत नहीं
है, क्योंकि
कोई भी दलील
यह सिद्ध नहीं
कर सकती है कि
ईश्वर है, इसलिए
मैं ईश्वर में
विश्वास करता
हूं।
और
वह एक अर्थ
में सही है; क्योंकि
श्रद्धा का
अर्थ है, किन्हीं
कारणों के
बिना अज्ञात
में छलांग। और
सिर्फ
भावपूर्ण
व्यक्ति ही यह
कर सकता है।
भक्ति
को छोड़ो; पहले
प्रेम को समझो।
और तब तुम
भक्ति को भी
समझ सकोगे।
तुम
किसी के प्रेम
में पड़ते हो।
अंग्रेजी में
इसे फालिंग इन
लव—प्रेम में
गिरना कहते
हैं। हम प्रेम
में गिरना
क्यों कहते
हैं?
कुछ नहीं
गिरता है, सिर्फ
तुम्हारा सिर
गिरता है।
प्रेम में सिर
के सिवाय और
क्या गिरता है?
तुम अपने
सिर से नीचे
गिर जाते हो।
इसी से हम इसे
'प्रेम में
गिरना' कहते
हैं। भाषा
बौद्धिक कोटि
के लोग
निर्मित करते
हैं। उनके लिए
प्रेम पागलपन
है, विक्षिप्तता
है। कोई प्रेम
में गिर गया
है, इसका
मतलब हुआ कि
अब वह कुछ भी
कर सकता है।
अब वह पागल है,
बुद्धि उसे
काम न आएगी; तुम उसके
साथ तर्क न कर सकोगे।
क्या तुम किसी
प्रेमी के साथ
तर्क कर सकते
हो? लोग
चेष्टा करते
हैं, लेकिन
कुछ हाथ नहीं आता।
तुम
किसी के प्रेम
में पड़ गए हो।
हर कोई कहता
है कि यह
तुम्हारे
योग्य नहीं है, या
कि तुम मुसीबत
मोल ले रहे हो,
या कि तुम
मूर्ख बन रहे
हो, और
इससे अच्छा
प्रेम—पात्र
मिल सकता था। लेकिन
यह सब कहने का
तुम पर कोई
असर न होगा, कोई दलील
काम न आएगी।
तुम प्रेम में
हो, अब
बुद्धि
व्यर्थ हो गई।
प्रेम की अपनी
तर्क—सरणी है।
प्रेम
में गिरने का
अर्थ है कि
तुम्हारा
व्यवहार अब
अबुद्धिपूर्ण
होगा। दो
प्रेमियों को
देखो, उनके
व्यवहार को, उनके संवाद
को देखो। सब
कुछ
अबुद्धिपूर्ण
है। वे बच्चों
की तरह बोलते
हैं। क्यों? एक बड़ा
वैज्ञानिक भी
जब प्रेम में
पड़ता है तो बच्चों
की तरह
तुतलाने लगता
है। वह बहुत
विकसित, टेक्नालाजी
की भाषा में
क्यों नहीं
बोलता है? उसकी
बातचीत
बच्चों जैसी
अटपटी क्यों
होती है?
इसीलिए
क्योंकि
प्रेम में
बहुत उन्नत टेक्नालाजी
की भाषा काम
की नहीं है।
मेरे एक मित्र
ने विवाह किया।
लड़की
चेकोस्लोवाकिया
की थी। लड़की
थोड़ी सी
अंग्रेजी
जानती थी। और
वैसे ही मेरे
मित्र थोडी सी
चेकोस्लोवाकिया
की भाषा जानते
थे। वे
विवाहित हो गए।
मेरे मित्र
उच्च शिक्षा—प्राप्त
व्यक्ति थे, विश्वविद्यालय
में प्रोफेसर
थे। और लड़की
भी प्रोफेसर
थी।
मैं
एक बार इन
मित्र के साथ
टिका था।
उन्होंने
मुझसे कहा कि
हम दोनों बड़ी
कठिनाई में
पड़े हैं। मेरा
चेकोस्लोवाकिया
की भाषा का
ज्ञान टेक्नालाजी
की शब्दावली
तक सीमित है, और
मेरी पत्नी का
अंग्रेजी का
ज्ञान भी टेक्नालाजी
की शब्दावली
तक सीमित है।
नतीजा है कि
हम बच्चों की
भाषा नहीं बोल
सकते हैं। यह
अजीब बात है।
हमें लगता है
कि हमारा
प्रेम कहीं
सतह पर अटका
है; वह
गहरे नहीं जा
सकता। भाषा
बाधा बन जाती
है। मैं
प्रोफेसर की
तरह बोल सकता
हूं; जहां
तक मेरे विषय
का संबंध है, मैं खूब बोल
सकता हूं। वह
लड़की भी अपने
विषय पर ठीक
से बोल सकती
है। लेकिन
प्रेम तो
हममें से किसी
का भी विषय
नहीं रहा।
लेकिन
तुम प्रेम में
बच्चों की तरह
क्यों बोलने
लगते हो? इसलिए
कि तुम्हारा
प्रेम का पहला
अनुभव मां के
साथ बचपन में
होता है। पहले
—पहले तुम जो
शब्द बोले थे
वे प्रेम के
शब्द थे। वे
सिर से नहीं, हृदय से आए
थे। वे भाव—जगत
के शब्द थे।
उनकी
गुणवत्ता
भिन्न थी।
इसीलिए जब तुम
प्रेम में
पड़ते हो तो
अपनी उन्नत
भाषा के
बावजूद तुम
बच्चों की
भाषा बोलने लगते
हो, तुम
पीछे लौट जाते
हो। वे बोल कुछ
और हैं; वे
सिर से नहीं, हृदय से
निकलते हैं।
वे उतने
व्यंजक और
अर्थपूर्ण
नहीं भी हो
सकते हैं। फिर
भी वे ज्यादा
व्यंजक और
अर्थपूर्ण
होते हैं।
लेकिन उनके
अर्थ का आयाम
सर्वथा भिन्न
होता है।
अगर
तुम बहुत गहरे
प्रेम में हो
तो तुम मौन हो जाओगे।
तब तुम अपनी
प्रेमिका से
बोल न सकोगे।
और यदि बोलोगे
भी तो नाम के
लिए ही।
बातचीत संभव
नहीं है।
प्रेम जब
गहराता है तब
शब्द व्यर्थ
हो जाते हैं, तुम
चुप हो जाते
हो। अगर तुम
अपनी
प्रेमिका के
साथ मौन नहीं
रह सकते हो तो
भलीभांति समझ
लो कि प्रेम
नहीं है।
क्योंकि
जिससे
तुम्हें प्रेम
नहीं है उसके
पास चुप रहना
बहुत कठिन
होता है। किसी
अजनबी के साथ
तुम तुरंत
बातचीत में लग
जाते हो।
अगर
तुम रेलगाड़ी
या बस से
यात्रा कर रहे
हो तो तुम
तुरंत बातचीत
में लग जाते
हो। क्योंकि अजनबी
के बगल में चुप
बैठना कठिन मालूम
होता है, भद्दा
मालूम होता है।
और चूंकि कोई
दूसरा सेतु
नहीं बन पाता
इसलिए तुम
भाषा का सेतु
निर्मित कर
लेते हो।
अजनबी के साथ आंतरिक
सेतु संभव
नहीं है। तुम
अपने में बंद
हो; वह
अपने में बंद
है। मानो दो
बंद घेरे अगल—बगल
में बैठे हों।
और डर है कि
कहीं वे आपस
में टकरा न
जाएं, कोई
खतरा न हो जाए।
इसलिए तुम
सेतु बना लेते
हो, इसलिए
तुम बातचीत
करने लगते हो,
इसलिए तुम
मौसम या किसी
भी चीज पर
बातचीत करने
लगते हो, वह
कोई भी बेकार
की बात हो
सकती है।
लेकिन उससे
तुम्हें
एहसास होता है
कि तुम जुड़े
हो और संवाद
चल रहा है।
चूकि
प्रेमी मौन हो
जाते हैं। और
जब दो प्रेमी
फिर बातचीत
करने लग जाएं
तो समझ लेना
कि प्रेम विदा
हो चुका है, कि
वे फिर अजनबी
हो गए हैं।
जाओ और पति—पत्नियों
को देखो, जब
वे अकेले होते
हैं तो वे
किसी भी चीज
के बारे में
बातचीत करते
रहते हैं। और
वे दोनों
जानते हैं कि
बातचीत गैर—जरूरी
है। लेकिन चुप
रहना कितना कठिन
है! इसलिए
किसी क्षुद्र
सी बात पर भी
बात किए जाओ, ताकि संवाद
चलता रहे।
लेकिन
दो प्रेमी मौन
हो जाएंगे।
भाषा खो जाएगी; क्योंकि
भाषा बुद्धि
की चीज है।
शुरुआत तो
बच्चों जैसी
बातचीत से
होगी, लेकिन
फिर वह नहीं
रहेगी। तब वे
मौन में संवाद
करेंगे। उनका
संवाद क्या है?
उनका संवाद
अतर्क्य है, वे अस्तित्व
के एक भिन्न
आयाम के साथ
लयबद्ध हो
जाते हैं। और
वे उस
लयबद्धता में
सुखी अनुभव
करते हैं। और
अगर तुम उनसे
पूछो कि उनका
सुख क्या है, तो वे उसे
प्रमाणित
नहीं कर सकते
ओ
अब
तक कोई प्रेमी
प्रमाणित
नहीं कर सका
है कि प्रेम
में उन्हें
सुख क्यों
होता है।
क्यों? प्रेम
तो बहुत पीड़ा,
बहुत दुख
लाता है, तथापि
प्रेमी सुखी
है। प्रेम में
एक गहरी पीड़ा
है। क्योंकि
जब तुम किसी
से एक होते हो
तो उसमें अड़चन
आती है। प्रेम
में दो मन एक
हो जाते हैं; यह केवल दो
शरीरों के एक
होने की बात
नहीं है।
सेक्स
और प्रेम में
यही भेद है।
अगर सिर्फ दो
शरीर एक होते
हों तो बहुत
अड़चन नहीं है
और उसमें पीड़ा
भी नहीं है।
वह बहुत सरल
बात है; कोई
पशु भी कर
सकता है।
लेकिन जब दो
व्यक्ति
प्रेम में
मिलते हैं तब कठिनाई
है, बहुत
कठिनाई है।
क्योंकि तब दो
मनों को
विसर्जित
होना पड़ता है,
अनुपस्थित
होना पड़ता है।
तभी वह स्थान
निर्मित होता है
जिसमें प्रेम
का फूल खिल सके।
प्रेम
के बारे में
तर्क नहीं
किया जा सकता; कोई
यह प्रमाणित
नहीं कर सकता
कि प्रेम सुख
लाता है। कोई
यह भी नहीं
प्रमाणित कर
सकता कि प्रेम
है।
और
ऐसे
वैज्ञानिक
हैं,
व्यवहारवादी
वैज्ञानिक, वाटसन और
स्कीनर के
अनुयायी, जो
कहते हैं कि
प्रेम महज
भ्रम है। कोई
प्रेम वगैरह
नहीं है; तुम
मात्र भ्रम
में हो। वे
कहते हैं कि
तुम्हें
सिर्फ आभास
होता है कि
मैं प्रेम में
हूं प्रेम है
नहीं। तुम बस
प्रेम का सपना
देखते हो। और
कोई भी सिद्ध नहीं
कर सकता कि वे
वैज्ञानिक
गलत हैं।
वे
कहते हैं कि
प्रेम बिलकुल
भ्रम है—मनोकल्पित
अनुभव। उसमें
कुछ भी यथार्थ
नहीं है, बस
शरीर का रसायन
तुम्हें
प्रभावित कर
रहा है। वे
शरीर के
हारमोन हैं, रासायनिक
द्रव्य हैं, जो तुम्हारे
व्यवहार को
प्रभावित कर
रहे हैं और
तुम्हें सुख—संतोष
का झूठा भाव
दे रहे हैं।
और कोई उन्हें
गलत नहीं
सिद्ध कर सकता।
लेकिन
यह चमत्कार है
कि वाटसन भी
प्रेम में पड़ेगा।
यह जानते हुए
कि यह महज एक रासायनिक
प्रक्रिया है, वाटसन
भी प्रेम में गिरेगा
और वाटसन भी सुखी
होगा। लेकिन प्रेम
सिद्ध नहीं
किया जा सकता
है। यह इतना आंतरिक
और वैयक्तिक
है।
प्रेम
में होता क्या
है?
प्रेम में
दूसरा
महत्वपूर्ण
हो जाता है—तुमसे
ज्यादा
महत्वपूर्ण।
तुम परिधि हो
जाते हो और वह
केंद्र हो
जाता है।
तर्क
सदा स्व—केंद्रित
रहता है। मन
सदा अहं—केंद्रित
होता है। मैं
केंद्र हूं और
शेष सब चीजें
मेरे चारों ओर
घूमती हैं, और
मेरे लिए घूमती
हैं, लेकिन
केंद्र मैं
हूं। बुद्धि
सदा इसी भांति
काम करती है।
अगर
तुम बुद्धि के
साथ बहुत दूर
तक चलोगे तो तुम
उसी निष्कर्ष
पर पहुंचोगे
जिस पर बर्कले
पहुंचा था।
उसने कहा.
केवल मैं हूं
और शेष सब
चीजें मेरे मन
की धारणाएं भर
हैं। मैं कैसे
सिद्ध कर सकता
हूं कि तुम
सचमुच हो? हो
सकता है, तुम
एक सपना होओ
और मैं भी एक
सपना देख रहा
होऊं और बोल
रहा होऊं। और
हो सकता है कि
तुम बिलकुल न
होओ। मैं कैसे
अपने को
समझाऊं कि तुम
सचमुच हो? हालांकि
मैं तुमको छू
सकता हूं
लेकिन ऐसा छूना
तो सपने में
भी होता है।
और सपने में
भी मुझे किसी
के छूने पर
छूने की
अनुशइत होती
है। मैं
तुम्हें चोट
कर सकता हूं
और तुम रोओगे,
लेकिन ऐसे
तो सपने में
भी किसी को
चोट कर मैं उस
स्वप्न के
व्यक्ति को
रुला सकता हूं।
यह भेद कैसे
जाए कि जो
व्यक्ति मेरे
सामने है वह स्वप्न
नहीं यथार्थ
है? हो
सकता है, वह
काल्पनिक हो।'
किसी
पागलखाने में
जाकर देखो और
तुम्हें अपने
आप से बातें
करते हुए लोग
मिलेंगे। वे
किससे बातें
कर रहे हैं? हो
सकता है, मैं
भी वैसे ही
अपने आप से
बातें कर रहा
होऊं। बुद्धि
से मैं कैसे
सिद्ध करूं कि
तुम हो ही? अगर
बुद्धि को
उसकी अति तक
ले जाया जाए, तार्किक अति
तक, तो
सिर्फ मैं
बचता हूं और
शेष सब स्वप्न
हो जाता है।
बुद्धि ऐसे ही
काम करती है।
हृदय
का मार्ग इसके
विपरीत है।
मैं खो जाता
हूं और दूसरा, प्रेम—पात्र
यथार्थ हो
जाता है। अगर
तुम प्रेम को
उसकी
पराकाष्ठा पर
पहुंचा दो तो
वह भक्ति बन
जाता है। अगर
तुम्हारा
प्रेम इस चरम
बिंदु पर
पहुंच जाए कि जहां
तुम बिलकुल
भूल जाओ कि
मैं हूं जहां
तुम्हें अपना
होश न रहे, और
जहां दूसरा ही
रह जाए, तो
वही भक्ति है।
प्रेम
भक्ति बन सकता
है। प्रेम
पहला चरण है, तभी
भक्ति का फूल
खिलता है।
लेकिन हमारे
लिए तो प्रेम
भी दूर का तारा
है। हमारे लिए
सेक्स या काम
ही सच्चाई है।
प्रेम
की दो
संभावनाएं
हैं। प्रेम
अगर नीचे गिरे
तो काम बन
जाता है, शारीरिक
रह जाता है।
और अगर प्रेम
ऊपर उठे तो
भक्ति बन जाता
है, आत्मा
की चीज बन
जाता है।
प्रेम दोनों
के बीच में है।
प्रेम के नीचे
सेक्स का
पाताल है, और
उसके ऊपर
भक्ति का अनंत
आकाश है।
यदि
तुम्हारा
प्रेम गहरा हो
तो दूसरा
ज्यादा—ज्यादा
अर्थपूर्ण हो
जाता है—वह
इतना अर्थपूर्ण
हो जाता है कि
तुम उसे अपना
भगवान कहने
लगते हो। यही
कारण है कि
मीरा कृष्ण को
प्रभु कहे चली
जाती है। न
कृष्ण को कोई
देख सकता है, न
मीरा सिद्ध कर
सकती है कि कृष्ण
वहां हैं; लेकिन
मीरा इसे
सिद्ध करने
में उत्सुक भी
नहीं है। मीरा
ने कृष्ण को
अपना प्रेम पात्र
बना लिया है।
और
याद रहे, तुम
किसी यथार्थ
व्यक्ति को
अपना प्रेम—पात्र
बनाते हो या
किसी कल्पना
के व्यक्ति को,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता है। कारण
यह है कि सारा
रूपांतरण
भक्ति के
माध्यम से आता
है, प्रेम—पात्र
के माध्यम से
नहीं। इस बात
को सदा स्मरण
रखो। कृष्ण
नहीं भी हो
सकते हैं; यह
अप्रासंगिक
है। प्रेम के
लिए
अप्रासंगिक
है।
राधा
के लिए कृष्ण
यथार्थत: थे, मीरा
के लिए यथार्थत:
नहीं थे। यही
चीज मीरा को
राधा से भक्ति
में ऊपर उठा
देती है। राधा
भी मीरा से
ईर्ष्या कर
सकती है। राधा
के लिए कृष्ण
जीते—जागते
पुरुष थे, उनकी
उपस्थिति में
उन्हें अनुभव
करना बहुत कठिन
नहीं है।
लेकिन जब
कृष्ण नहीं
हैं, और
मीरा कमरे में
अकेली है और
कृष्ण से
बातचीत करती
है, और उन
कृष्ण के लिए
जी रही है जो
कहीं नहीं हैं,
तब बात और
हो जाती है।
मीरा के लिए
कृष्ण सब कुछ
हो गए हैं। वह
इसे सिद्ध
नहीं कर सकती
है; यह
अतर्क्य है।
लेकिन उसने छलांग
ली और वह
रूपांतरित हो
गई। भक्ति ने
उसे मुक्त कर
दिया।
मैं
यह बात जोर देकर
कहना चाहता
हूं कि कृष्ण
के होने न
होने का
प्रश्न नहीं
है,
बिलकुल
नहीं है; यह
भाव कि कृष्ण
हैं, यह
समग्र प्रेम
का भाव, यह
समग्र समर्पण,
यह किसी में
अपने को विलीन
कर देना, चाहे
वह हो या न हो, यह विलीन हो
जाना ही
रूपांतरण है।
अचानक
व्यक्ति
शुद्ध हो जाता
है, समग्ररूपेण
शुद्ध हो जाता
है। क्योंकि
जब अहंकार ही
नहीं है तो
तुम किसी रूप
में भी अशुद्ध
नहीं हो सकते।
अहंकार ही सब
अशुद्धि का
बीज है।
अहंकार का भाव
ही सब
विक्षिप्तता
का जनक है।
भाव के जगत के
लिए, भक्त
के जगत के लिए
अहंकार रोग है।
यह
अहंकार एक ही
उपाय से
विसर्जित
होता है—कोई
दूसरा उपाय
नहीं है—वह
उपाय यह है कि
दूसरा इतना
महत्वपूर्ण
हो जाए, इतना
महिमापूर्ण
हो जाए कि तुम
धीरे— धीरे
विलीन हो जाओ,
और एक दिन
तुम बिलकुल ही
न बची, सिर्फ
दूसरे का बोध
रह जाए। और जब
तुम न रहे तो
दूसरा दूसरा
नहीं रह जाता
है, क्योंकि
दूसरा दूसरा
तब तक है जब तक
तुम हो। जब
मैं विदा होता
है तो उसके
साथ तू भी
विदा हो जाता
है।
प्रेम
में तुम पहला
कदम उठाते हो.
दूसरा महत्वपूर्ण
हो जाता है।
तुम बचते हो; लेकिन
किसी क्षण में
ऐसा शिखर आता
है किं तुम नहीं
रहते। वे
प्रेम के
दुर्लभ शिखर
हैं। लेकिन
सामान्यत: तुम
रहते हो और
प्रेमी भी
रहता है। और
जब प्रेमी तुम
से ज्यादा
महत्वपूर्ण
हो जाता है, जब तुम उसके
लिए जान भी दे
सकते हो, तब
प्रेम घटित
होता है। तब
दूसरा
तुम्हारे
जीवन का अर्थ
हो जाता है।
और
जब तुम किसी
के लिए मर
सकते हो तभी
तुम किसी के
लिए जी सकते
हो। अगर तुम
किसी के लिए
मर नहीं सकते
हो तो तुम उसके
लिए जी भी
नहीं सकते हो।
जीवन मृत्यु
के द्वारा ही
अर्थवत्ता
पाता है।
प्रेम
में दूसरा
महत्वपूर्ण
हो गया है, लेकिन
तुम रहते हो।
तुम प्रेम में
मिलन के किसी शिखर
को छूकर विलीन
हो जा सकते हो;
लेकिन फिर
लौट जाओगे। यह
विलीन होना क्षणिक
होगा। इसलिए
प्रेमियों को
भक्ति की झलक
मिल जाती है।
और इसी कारण
से भारत
में
प्रेमिका
अपने प्रेमी
को परमात्मा
कहती थी।
प्रेम के
किन्हीं
आत्यंतिक
क्षणों में ही
दूसरा परमात्मा
होता है जब
तुम नहीं होते
हो।
और
फिर वह बढ़ सकता
है। अगर तुम इसे
अपनी साधना बना
लो, आंतरिक खोज बना
लो, अगर
तुम सिर्फ
प्रेम का सुख
ही नहीं लेते,
वरन प्रेम
के द्वारा
अपने को
रूपांतरित भी
करते हो, तब
प्रेम भक्ति
बन जाता है।
और भक्ति में
तुम अपने को
पूरी तरह
समर्पित कर
देते हो।
और
यह समर्पण
किसी
परमात्मा के
प्रति हो सकता
है,
जो आकाश में
कहीं बैठा हो
या न बैठा हो।
यह समर्पण
किसी गुरु के
प्रति हो सकता
है, जो
ज्ञानोपलब्ध
हो या न हो। यह
समर्पण किसी
प्रेमी के
प्रति हो सकता
है, जो
उसके योग्य हो
या न हो। यह
बात
प्रासंगिक
नहीं है। अगर
तुम अपने को
दूसरे के लिए
खो सकते हो तो
तुम
रूपांतरित हो
जाओगे।
'भक्ति मुक्त
करती है।’
इसलिए
हमें प्रेम
में ही
स्वतंत्रता
की झलक मिलती
है। जब तुम
प्रेम में
होते हो तो
तुम्हें
सूक्ष्म ढंग
की
स्वतंत्रता
का अहसास होता
है। यह
विरोधाभासी
है;
क्योंकि
दूसरे तो यही
देखेंगे कि
तुम गुलाम हो
गए हो। अगर
तुम किसी के
प्रेम में हो
तो तुम्हारे
इर्द—गिर्द के
लोग सोचेंगे
कि तुम एक—दूसरे
के गुलाम हो
गए हो। लेकिन
तुम्हें
स्वतंत्रता
की झलकें
मिलने लगेंगी।
प्रेम
मुक्ति है।
क्यों? इसलिए
कि अहंकार ही
बंधन है, और
कोई बंधन नहीं
है। कल्पना
करो कि तुम
कारागृह में
हो और उसके बाहर
निकलने का कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन अगर
तुम्हारी
प्रेमिका उस
कारागृह में
पहुंच जाए तो
वह कारागृह तत्क्षण
खो जाएगा।
दीवारें तो
जहां की तहां
होंगी; लेकिन
वे अब तुम्हें
कैद न कर
सकेंगी। तुम
उन्हें
बिलकुल भूल जा
सकते हो। तुम
एक—दूसरे में
डूब सकते हो
और तुम एक—दूसरे
के उड़ने के
लिए आकाश बन
जा सकते हो।
कारागृह
विलीन हो गया;
वह कारागृह
अब कारागृह न
रहा।
और
यह भी हो सकता
है कि तुम
खुले आकाश के
नीचे हो, सर्वथा
बंधनहीन, सर्वथा
मुक्त; लेकिन
प्रेम न हो तो
तुम कारागृह
में ही हो।
क्योंकि तब
तुम्हारे
उड़ने के लिए
आकाश न रहा।
यह बाहर का
आकाश काम न
देगा। इस आकाश
में पक्षी
उड़ते हैं; लेकिन
तुम न उड़
सकोगे।
तुम्हारे
उड़ने के लिए
एक भिन्न आकाश
की जरूरत है, चेतना के
आकाश की जरूरत
है। कोई दूसरा
ही तुम्हें वह
आकाश दे सकता
है, उसका
पहला स्वाद दे
सकता है। जब
दूसरा
तुम्हारे लिए
अपने को खोलता
है और तुम
उसमें प्रवेश
करते हो, तभी
तुम उड़ सकते
हो।
प्रेम
स्वतंत्रता
है;
लेकिन
समग्र
स्वतंत्रता
नहीं। जब
प्रेम भक्ति
बनता है तो ही
वह समग्र
स्वतंत्रता
बनता है। उसका
मतलब है कि
तुम ने पूर्णरूपेण
समर्पण कर दिया।
इसलिए
यह सूत्र कि
भक्ति मुक्त
करती है, उनके
लिए है जो भाव—प्रधान
हैं। रामकृष्ण
को लो। अगर
रामकृष्ण को
देखो तो
तुम्हें
लगेगा कि वे
काली के, मां
काली के गुलाम
हैं। वे उसकी
आज्ञा के बिना
कछ भी नहीं कर
सकते; वे
बिलकुल गुलाम
मालूम पड़ते
हैं। लेकिन उनसे
ज्यादा कौन
स्वतंत्रँ होगा?
रामकृष्ण
जब पहले—पहल
दक्षिणेश्वर
के मंदिर में
पुजारी नियुक्त
हुए तो उनका रंग—ढंग
ही हैरान करने
वाला था।
मंदिर के
ट्रस्टियों
ने बैठक
बुलायी और कहा
कि इस आदमी को
निकाल बाहर
करो,
यह तो अभक्त
जैसा व्यवहार
करता है! ऐसा
इसलिए हुआ क्योंकि
रामकृष्ण
पहले खुद फूल
को सूंघते और तब
उसे काली के चरणों
में चढ़ाते।
लेकिन यह बात कर्मकांड
के विपरीत जाती
थी। सूंधा हुआ
फूल देवी—देवताओं
को नहीं चढ़ाया
जा सकता; वह
तो झूठा हो
गया, अशुद्ध
हो गया।
रामकृष्ण
पहले खुद चखते
थे, तब
काली को भोग
लगाते। और वे
पुजारी थे! तो
ट्रस्टियों
ने कहा कि ऐसा नहीं
चल सकता है।
रामकृष्ण
ने
ट्रस्टियों
को जवाब दिया
कि तब मुझे
काम से मुक्त
कर दो। मैं
मंदिर से निकल
जाना पसंद
करूंगा; लेकिन
मैं चखे बिना
मां को भोग
नहीं लगा सकता।
मेरी मां ऐसा
ही करती थी।
जब भी वह कुछ
भोजन बनाती थी
तो पहले खुद
चखती, तब
मुझे खिलाती
थी। मैं सूंघे
बिना कोई भी
फूल काली को
नहीं चढ़ा सकता।
और मैं निकल
जाने के लिए
राजी हूं और
तुम मुझे रोक
नहीं सकते।
मैं कहीं भी
पूजा कर लूंगा;
क्योंकि
मां सर्वत्र
है। वह
तुम्हारे
मंदिर में ही
सीमित नहीं है।
मैं जहां भी
जाऊंगा, इसी
तरह मां की
पूजा करता
रहूंगा।
ऐसा
हुआ कि किसी
मुसलमान ने
रामकृष्ण से
कहा कि अगर
आपकी काली
सर्वत्र हैं
तो आप मेरी
मस्जिद में
क्यों नहीं
आते?
उन्होंने
कहा कि ठीक, मैं आऊंगा।
और वे छह
महीने मस्जिद
में रहे। वे
दक्षिणेश्वर
को पूरी तरह
भूल गए और
मस्जिद में
रहे। तब उनके
मित्र ने कहा
कि अब आप वापस
जा सकते हैं।
उन्होंने कहा,
मां हर जगह
हैं।
कोई
सोच सकता है
कि रामकृष्ण
गुलाम हैं; लेकिन
उनकी भक्ति
ऐसी प्रगाढ़ है
कि अब प्रेम—पात्र
सब जगह है। जब
तुम नहीं होते
तो प्रेम—पात्र
सर्वत्र होता
है, और जब
तुम होते हो
तो प्रेम—पात्र
कहीं नहीं
होता।
आज
इतना ही।
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