दिनांक
3 अप्रैल, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
1—परमात्मा
की स्मृति
प्रारंभ कैसे
होती है?
मैं परमात्मा
को याद कैसे
करूं? मुझे
तो परमात्मा
का कोई भी पता
नहीं।
2—अपने
भीतर झांकने
पर मुझे पता
लगा है कि
मेरी अनेक
वासनाएं
रुग्ण हैं, बीमार
हैं, विशेषकर
नकारात्मक
वासनाएं।
क्या वासनाएं
भी रुग्ण और
स्वस्थ होती
हैं? और
क्या बताने की
अनुकंपा
करेंगे कि
स्वस्थ और
रुग्ण
वासनाओं में
फर्क क्या है?
3—कुछ दिन से
मुझे आपका
प्रवचन सुनने
का और पुस्तक
पढ़ने का अवसर
मिला है। यह
मेरा सौभाग्य
है। परमात्मा
के संबंध में
इसके पहले
मुझे बिल्कुल
खिचड़ी जैसा
ज्ञान था। अब
मुझे विश्वास
हो गया है कि
अगर आपका
आशीर्वाद मिल
जाए तो
परमात्मा को
भी जान
सकूंगा। इस
संबंध में एक
छोटी—सी बात
मुझे खटकी हुई
है कि अगर
हमारी गलती के
बिना कोई हमें
नुकसान
पहुंचाने आए
तो उस समय क्या
करना उचित
होगा?
4—आप
कहते हैं कि जो
नाचता—गाता
जाता है वही
परमात्मा के
मंदिर में
प्रवेश कर
पाता है।
लेकिन भक्त—संत
तो दर्द और आंसुओ
का अर्ध्य
लेकर वहां
जाने की सलाह
देते हैं। यह
विरोधाभास
स्पष्ट करें।
5—मैं
आप से बहुत—बहुत
दूर चला जाना
चाहता हूं।
लगता है कि
पास रहा तो आप
मिटाकर
रहेंगे।
पहला
प्रश्न :
परमात्मा
की स्मृति
प्रारंभ कैसे
होती है?
मैं परमात्मा
को याद कैसे
करूं? मुझे
तो परमात्मा
का कोई भी पता
नहीं है।
मधुशालाओं
में आओ—जाओ।
पियक्कड़ों के
पास बैठो।
जहां शराब
ढलती हो वहां
से हटो ही मत।
सत्संग करो।
एक तो यह उपाय
है।
परमात्मा
से तो
तुम्हारी
पहचान नहीं।
सच,
कैसे याद
करोगे?
किसकी याद
करोगे?
करोगे भी तो
झूठी होगी।
हृदय से नहीं
उमगेगी।
बुद्धि के
द्वारा
आरोपित होगी।
करनी चाहिए, इसलिए करोगे।
प्राणों का
उससे संवाद
नहीं होगा।
उसमें
तुम्हारे
जीवन की धुन
नहीं बजेगी।
उधार होगी। दो
कौड़ी की होगी।
ऐसी याद से
परमात्मा
नहीं पाया
जाता है।
तो
पहला, सबसे
सुगम और सबसे
करीब मार्ग है
: किसी ऐसे
व्यक्ति की आंख
में झांको, जिसने
परमात्मा
जाना हो।
क्योंकि
जिसने
परमात्मा
जाना है, उसकी
आंख में नशा
सदा के लिए
शेष रह जाता
है। चांद नहीं
दिखाई पड़ता तो
झील में झांको।
झील में
प्रतिबिंब
दिखाई पड़ेगा।
माना कि
प्रतिबिंब
चांद नहीं है,
लेकिन चांद
का है। पि१ ३२
र प्रतिबिंब
से चांद तक की
यात्रा सुगम
हो सकेगी। कुछ
तो पहचान हो
जाएगी।
व्यक्ति न
देखा, चलो
उसकी तस्वीर
ही देखी, कुछ
तो पहचान हो जाएगी।
दर्पण में झलक
देखी, उस
झलक से ही
हृदय तंत्री
पर गीत उठना शुरू
होता है।
एक
अर्थ में सुगम
है यह बात, दूसरे
अर्थ में कठिन
भी। कहां खोजो
ऐसे व्यक्ति
का? फिर, किसी
व्यक्ति में
परमात्मा की
झलक पड़ी है, यह स्वीकार
करना हमारे
अहंकार को बड़ा
कठिन होता है।
परमात्मा की
झलक देने वाले
व्यक्ति सदा
मौजूद रहे हैं,
सदा मौजूद
हैं। पृथ्वी
कभी उनसे खाली
नहीं होती।
थोड़े होंगे, मगर हैं। और
जो खोजता है
उसे मिल जाते
हैं। प्यासा
खोजने निकले
तो पानी खोज
ही लेता है।
भूखा खोजने
निकले तो भोजन
मिल ही जाता
है, देर—अबेर
लेकिन नहीं मिलता,
ऐसा नहीं है।
जिन्होंने भी
कभी खोजा है
उन्हें मिला
है।
लेकिन
कठिनाई
तुम्हारी तरफ
से आती है।
तुम्हारा
अहंकार यह
स्वीकार करने
को राजी नहीं
होता कि किसी
व्यक्ति में
परमात्मा की
झलक आई है।
तुम्हारा
अहंकार कहीं
झुकने को राजी
नहीं होता।
तुम्हारा
अहंकार हजार
बाधाएं खड़ी
करता है।
तुम्हारा
अहंकार पहाड़
बनकर खड़ा हो
जाता है बीच
में। और पहाड़
बनने की जरूरत
भी नहीं है; आंख
में जरा—सी
ककड़ी भी पड़ी
हो, तो भी आंख
बंद हो जाती
है। और अहंकार
का पहाड़ लिए
हम चलते हैं।
इस पहाड़ के
कारण तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता। इस पहाड़
को उतार कर
रखो।
अहंकार
को उतार कर जो
रख दे, उसे देर
न लगेगी उस
व्यक्ति को
खोज लेने में,
जहां से झलक
शुरू हो जाए, जहां से
लालसा का जन्म
हो, अभीप्सा
पैदा हो जाए।
सच तो यह है, अगर तुम
अहंकार को
उतारकर रख दो
तो तुम्हें खोजने
न जाना पड़ेगा
उस व्यक्ति को,
वैसे
व्यक्ति तुम्हें
खोजते चले
जाएंगे। सदगुरू
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक देगा।
दस्तक शायद
बहुत बार दी
भी होगी, मगर
तुम गहरी नींद
में सोए हो।
अहंकार बड़ी
गहरी निद्रा
है। कौन सुनता
है दस्तक! और सदगुरूओं
की दस्तक बड़ी
धीमी होती है,
बड़ी
सूक्ष्म होती
है;
चिल्लाने की
तरह नहीं होती,
कानाफूसी
की तरह होती
है। बड़ी
माधुर्य से
भरी होती है!
नाजुक होती है।
स्त्रैण होती
है!
अहंकार
उतारकर रखो।
परमात्मा की
फिक्र छोड़ दो।
मैं तुम्हारी
बात समझा, तुम्हारा
प्रश्न समझा,
तुम्हारे प्रश्न
की संगति समझा।
ठीक पूछा है
तुमने। सा
र्थक पूछा है
तुमने। यह प्रश्न
सभी का प्रश्न
है। करें तो
कैसे उसकी याद
करें?
पुकारना भी
चाहें तो किस
दि श में
पुकारें?
किसका नाम
लेकर पुकारें? वह है भी?
हमें भरोसा भी
नहीं आता। अनुभव
न हो तो भरोसा
कैसे आए?
इस दुष्ट —
चक्र को तोड़े
कैसे?
अनुभव हो तो
भरोसा आए। और
अनुभवी कहते
हैं कि भरोसा
हो जाए तो
अनुभव हो। अब
बड़ी अड़चन खड़ी
हो जाती है।
बिना अनुभव के
भरोसा नहीं
आता। बिना
भरोसे के
अनुभव नहीं
होता। करें
क्या? आदमी
बड़ी दुविधा
में पड़ जाता
है।
तुम्हारा
द्वंद्व समझा।
तुम्हारी
दुविधा समझ
में आई। तुम
परमात्मा की
फिक्र ही मत
करो। तुम सिर्फ
अपने अहंकार
को उतारकर रखो।
यह तो कर सकते
हो! अहंकार से
तुम्हारी
भलीभांति
पहचान है।
अहंकार के ढंग
से तुम जिए हो।
और अहंकार से
तुमने दुख के
अतिरिक्त कुछ
पाया नहीं।
नरकों का ही
निर्माण हुआ
है तुम्हारे
अहंकार से।
इसे छोड़ने से
कुछ खोएगा
नहीं — — दु : ख खो
जाएंगे, नरक
मिट जाएंगे।
अहंकार
से तुमने कभी
कोई सुख जाना
है? घाव की तरह
अहंकार दु :
खता है। हर
छोटी — छोटी
बात दुखाती है।
जितना अहंकार
होता है उतनी
जीवन में पीड़ा
होती है। इस
पीड़ा के स्रोत
को हटा दो। और
कोई सदगुरू
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक दे देगा।
या कि तुम
अनायास, जिसमें
कभी सदगुरू
नहीं देखा था,
उसमें सदगुरू
को पहचान लोगे।
कभी — कभी ऐसा
होता है कि
तुम्हारे
पड़ोस में ही
मौजूद था और
तुमने नहीं
सुना। तुम रोज
रास्ते पर
मिलते — जुलते
थे, जयरामजी
भी होती थी, और फिर भी
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ा।
देखने
की आंख चाहिए
न! अहंकार
वैसी आंख को
जन्मने नहीं
देता। अहंकार
बड़ा पर्दा है।
एक
तो उपाय यह है।
अगर यह कठिन
मालूम पड़े कि
अहंकार भी
उतरना कहीं
आसान तो नहीं, सदगुरू
को देखना आसान
तो नहीं, फिर
एक और उपाय है।
वह उपाय है :
प्रकृति में तलाश
प्रे। झरनों
में, वृक्षों
में, हवाओं
में, चादतारों
में! परमात्मा
को मत तलाशस्त्र,
क्योंकि
परमात्मा का
तो पता नहीं — — सिर्फ
तलाश प्रे!
अगर है तो मिल
जाएगा।
आदमी
ने एक दुनिया
बना ली है। जो
आदमी की बनाई
हुई है, उसमें
तुम परमात्मा तलाश
प्रेगे, नहीं
मिलेगा।
मंदिरों में
मत तलाश। अगर
पाना ही हो तो
मंदिरों में
मत तलाश, मस्जिदों
में मत तलाश, गिरजे —
गुरुद्वारों
में मत तलाश, क्योंकि वे
आदमी के बनाए
हुए हैं। आदमी
के बनाए हुए
में परमात्मा
का हस्ताक्षर नहीं
है। वे मूर्तियां
आदमी ने गढ़ी
हैं — — तुम जैसे
आदमियों ने
गढ़ी हैं, जिन्हें
खुद भी
परमात्मा का
कोई पता नहीं
है। जिन्हें
पता है वे
परमात्मा की मूर्ति
नहीं गढ़ सकते,
क्योंकि वह
अमूर्त है।
जिन्हें पता
है वे उसका
मंदिर नहीं
बना सकते, क्योंकि
यह सारा
अस्तित्व
उसका मंदिर है।
अब और क्या मंदिर? जिन्हें
पता है वे
तीर्थ
निर्मित नहीं
करते।
प्रत्येक कण
तीर्थ है।
जहां तुम हो
वहां तीर्थ है,
क्योंकि हर
तरफ परमात्मा
ने ही तुम्हे
घेरा है। तुम
उससे ही घिरे
हो।
जैसे
मछली सागर के
जल से घिरी है, ऐसे
तुम परमात्मा
से घिरे हो।
और मछली तो
शायद कभी
दुर्घटनावश
किसी मछुए के
जाल में फंस
जाए तो जल के
बाहर भी निकल
आती है, मगर
तुम तो उसके
जल के बाहर
निकल ही नहीं
सकते। उसके
अतिरिक्त कोई
स्थान नहीं है
जहां तुम जा
सको। वही है!
सब तरफ, सब
दिशाओं में!
नीचे—ऊपर, आगे—पीछे!
उसके
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है।
परमात्मा
अस्तित्व का
नाम है।
मैं
तुमसे यह नहीं
कहता कि तुम वृक्षों
में परमात्मा
को खोजो, क्योंकि
फिर तो भूल हो
जाएगी।
वृक्षों में
तुम क्या
खोजोगे?
अगर तुम कृष्ण
को माननेवाले
घर में पैदा
हुए तो वृक्ष
में तुम
चाहोगे कि
बांसुरी मिल
जाए कृष्ण की।
वह नहीं
मिलेगी।... कि
मोर—मुकुट
बांधे हुए
कृष्ण का
दर्शन हो जाए
वृक्ष में। वह
नहीं होगा।
उसके लिए तो
मंदिर जाना
होगा। और
मंदिर झूठे
हैं। सब मंदिर
झूठे हैं।
अस्तित्व के
मंदिर के
अतिरिक्त और
सब मंदिर झूठे
हैं। और
प्रकृति के
वेद के
अतिरिक्त सब
वेद आदमी के
निर्मित हैं।
तुम
प्रकृति में
तलाशो। मैं
नहीं कहता
परमात्मा
तलाशो— —सिर्फ
तलाशो! अगर
राख में अंगार
होगा, तुम राख
में सिर्फ
तलाशने जाओगे,
अंगार मिल
जाएगा। और
अंगार है।
जीवंत है यह
सारा जगत।
इसकी
जीवन्तता ही
तो परमात्मा
है। तुम जरा
गौर से गहरे
झांको।
कुछ
ऐसी ही फजा, ऐसी
ही शब, ऐसा
ही मंजर था
न
जाने क्या
मुझे भा गया
तारों की झिलमिल
में
रात
तारों की
झिलमिल को
देखो। उसके
साथ झिलमिलाओ।
हिलो—मिलो।
तुम भी तारे
हो जाओ तारों
के साथ। पानी की
लहरों में
झांको। लहर बन
जाओ। हवा का
झोंका आया, हवा
हो जाओ। हरे
वृक्ष के पास
खड़े होकर हरे
हो जाओ। फूल
के पास फूल हो
जाओ। ऐसे
तल्लीन हो जाओ
प्रकृति में
और तुम
परमात्मा को
पा लोगे, क्योंकि
वह सब तरफ
मौजूद है। फिर
तो तुम्हें याद
अपने—आप आने
लगेगी। फिर तो
तुम्हारी
पहचान गहराने लगेगी।
मैं
आह करके अपने
खयालों में खो
गया
कुछ
जिक्र था
बहारो— शबे
माहताब का
फिर
तो कोई चांद
की बात करेगा
और तुम्हें
मालिक की याद
आ जाएगी। कोई
सूरज की बात
करेगा और
तुम्हें साहब
की याद आ
जाएगी। कोई
बच्चा हंसेगा—
— और तुम्हें
उसकी
खिलखिलाहट
सुनाई पड़
जाएगी। किसी
की आंखों में
प्रेम के और
आनंद के आंसू
बहेंगे— —और उन आंसूओं
में तुम्हें
दर्पण मिल
जाएगा, उसकी
झलक पकड़ में आ
जाएगी।
सहर
के झुटपुटे
में जब परिंदे
चहचहाते हैं
मनाजिर
सुबह के जिस
दम रसीले गीत
गाते हैं
बहारों
के जिलौमें
दिलरुबा
नग्मे लुटाते
हैं
हंसी
गुचे चमन में
सुबह दम जब
मुस्कराते
हैं
तुम
ऐसे में मुझे
बेसाख्ता
क्यों याद आते
हो;
शफक
जब झांकती है
दामनों से
कोहसारों के
फजा
में थरथराते
हैं तराने
आबशारों के
हवा
में तैरने
लगते हैं
नक्शे जूए'— बाले
के
बयाबां
जब बदल लेते
हैं चोले
सब्जा जारों
के
तुम
ऐसे में मुझे
बेसाख्ता
क्यों याद आते
हो;
परी
कौसे—कुजा की
आस्मां पर जब
संवरती है
अदाए—दिलबरी
से रंग के
सांचो में
ढलती है
सबा
के मुश्कबू झोंकों
से निकहत टूट
पड़ती है
बहार
आकर चमन की जब
गुलों से मांग
भरती
तुम
ऐसे में मुझे
बेसाख्ता
क्यों याद आते
हो;
कनारे
आब का नज्जारा
जब मदहोश होता
है
दरख्शां
रेत का मैदान
जब जरपोश होता
है।
कंवल
आबे — रवा की
जीनते — आगोश होता
है
हंसी
लहरों के दिल
में जज्बए पुरजोश
होता है
तुम
ऐसे में मुझे
बेसाख्ता
क्यों याद आते
हो;
खुनक
रातों की भीनी—भीनी
जब महकार होती
है
सितारों
की नजर जब
वाकिफे—इसरार
होती है
किसी
शाइर की चश मे —
रूह जब बेदार
होती है
मेरे
पिदार के
तारों में जब
झंकार होती है
तुम
ऐसे में मुझे
बेसाख्ता
क्यों याद आते
हो?
और
अनिवार्यरूपेण
उसकी याद आएगी।
उसकी स्मृति
से तुम भर
जाओगे।
बेसाख्ता!
विवश! तुम
चाहोगे भी कि
याद न आए तो भी
याद आएगी।
आदमी
प्रकृति से
टूटा है, इसलिए
परमात्मा से
टूटा है। और
आदमी ने धीरे—
धीरे अपनी ही
बनावट की
दुनिया खड़ी कर
ली है। हमारे
सीमेंट—
पत्थरों के
मकान, आकाश
को छूती हुई
गगनचुंबी
मंजिलें, हमारे
कोलतार और
सीमेंट के
रास्ते, हमारे
बड़े—बड़े
कारखाने, हमारी
मशीनें— —हमने
एक झूठी
दुनिया
निर्मित कर ली
है, आदमी
की अपनी। हमने
प्रकृति को
बाहर कर दिया
है। हम
प्रकृति के
बाहर हो गए
हैं। इसलिए
अड़चन आ गई है।
नास्तिकों
ने नहीं
परमात्मा को
तुमसे छीना है।
कौन नास्तिक
की सामर्थ्य
है कि किसी से
परमात्मा छीन
ले? तुमने ही
प्रकृति से
अपने नाते तोड़
लिए हैं। जिस
मात्रा में
तुम्हारे
प्रकृति से
नाते टूट गए
हैं, उसी
मात्रा में
तुम परमात्मा
से भी टूट गए
हो। तुम्हारी
जड़ें उखड़ गई
हैं।
मैं
समझा
तुम्हारी बात।
मैं तुम्हारी
पीड़ा समझता
हूं।
तुम्हारे प्रश्न
का दर्द मेरे
खयाल में है।
ये दो उपाय
हैं। सुगमतम
मैं तुमसे
कहता हूं यह
है। क्योंकि
वृक्षों में
झांकने में
फिर अड़चन होगी।
वृक्ष कुछ
बोलते नहीं।
वृक्ष चुप हैं।
उनमें झांकने
के लिए बड़ी
संवेदनशीलता
चाहिए। सदगुरू
बोलता है, उसका
रोआ—रोआ बोलता
है। अगर तुम जरा—सा
अहंकार हटाकर
रख दो तो
ज्योति से
ज्योति जल उठे।
उसका दीया
तुम्हारे
बुझे दीए को
जला दे।
इसलिए
पहले तो मैंने
यह सुझाया कि सदगुरू
खोजो। अगर यह
संभव ही न हो— —बहुत
लोगों के लिए
संभव नहीं रहा
है— —तो उनके
लिए फिर एक
दूसरा उपाय
है: प्रकृति
में तलाशो।
लेकिन
तुमसे मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि मंदिरों
में और
मस्जिदों में
तलाशो। वहां
तलाशनेवाले
लोग खाली हाथ
रह गए हैं। और
मैं तुमसे यह
भी नहीं कह
रहा हूं कि
शास्त्रों
में तलाशो, क्योंकि
शास्त्रों
में शब्द हैं
और शब्दों के
साथ तुम खेल
करोगे, तुम
पंडित हो
जाओगे, प्रज्ञा
को उपलब्ध न
हो सकोगे। और
शास्त्र
तुम्हें
ज्ञान से भर
देंगे, प्रेम
से नहीं। और
प्रेम से
मिलता है
परमात्मा, ज्ञान
से नहीं।
दूसरा
प्रश्न :
अपने
भीतर झांकने
पर मुझे लगा
है कि मेरी
अनेक वासनाएं
रुग्ण हैं, बीमार
हैं, विशेषकर
नकारात्मक
वासनाएं। तो
क्या वासनाएं
भी स्वस्थ और
रूग्ण होती
हैं? और
क्या बताने की
कृपा करेंगे
कि स्वस्थ और
रुग्ण
वासनाओं में
फर्क क्या है?
वासना
स्वाभाविक है।
प्रकृति की
भेंट है।
परमात्मा का
दान है। वासना
अपने—आप में
बिल्कुल
स्वस्थ है।
वासना के बिना
जी ही न सकोगे, एक
क्षण न जी
सकोगे।
सच
तो यह है, संसार
के पुराने से
पुराने
शास्त्र एक
बात कहते हैं :
परमात्मा
अकेला था।
उसके मन में
वासना जगी कि
मैं दो होऊं, इससे संसार
पैदा हुआ।
परमात्मा में
भी वासना जगी
कि मैं दो
होऊं, कि
मैं अनेक होऊं,
कि मैं
फैलूं, विस्तीर्ण
होऊं, तो
संसार पैदा
हुआ! हम
परमात्मा की
ही वासना के
हिस्से हैं, उसकी ही
वासना की
किरणें हैं।
इसलिए
पहली बात :
वासना
स्वाभाविक है।
वासना
प्राकृतिक है, नैसर्गिक
है। वासना
बुरी नहीं है,
पाप नहीं है।
जिन्होंने
तुमसे कहा
वासना पाप है, वासना
बुरी है, वासना
से बचो, वासना
से हटो, वासना
से भागो, वासना
को दबाओ, काटो,
मारो— —उन्होंने
वासना को
रुग्ण कर दिया।
दबाई गई वासना
रुग्ण हो जाती
है। जो भी
दबाया जाएगा
वही जहर हो
जाता है। दबने
से मिटता तो
नहीं, भीतर—
भीतर सरक जाता
है। उसकी सहज
प्रक्रिया
समाप्त हो
जाती है, क्योंकि
तुम उसे प्रकट
नहीं होने
देते। वह फिर
असहज रूप से
प्रकट होने
लगता है। और
असहज रूप से
जब वासना
प्रकट होती है,
तो विकृति,
तो रोग, तो
रुग्ण। तो
तुमने एक
सुंदर कुरूप
कर डाला।
वस्तु
को
वासना
तो परमात्मा
की दी हुई है, विकृति
तुम्हारे
महात्माओं की
दी हुई है।
महात्माओं से
सावधान! अपने
परमात्मा को
महात्माओं से
बचाओं।
तुम्हारे
महात्मा
परमात्मा के
एकदम विपरीत मालूम
होते हैं। और
तुम्हें यह
समझ में आ जाए
कि तुम्हारे
महात्मा
परमात्मा के
विपरीत है;
तुम्हें यह
दिखाई पड़ जाए
कि जो
परमात्मा ने दिया
है स्वाभाविक,
सरल, जो
जीवन का आधार
है, उसे
नष्ट करने में
लग हैं— —तो
तुम्हारे
जीवन से
रुग्णता
समाप्त हो
जाएगी, वासना
का रोग विलीन
हो जाएगा, विकृति
विदा हो जाएगी।
समझो।
कामवासना है।
स्वाभाविक है।
तुमने पैदा
नहीं की है।
जन्म के साथ
मिली है। जीवन
का अंग है।
अनिवार्य अंग
है। तुम्हारे
मां और पिता
को कामवासना न
होती तो तुम न
होते। इसलिए
शास्त्र ठीक
ही कहते हैं
कि परमात्मा में
वासना उठी
होगी, तभी संसार
हुआ।
तुम्हारे मां
और पिता में
वासना न उठती
तो तुम न होते।
तुममें वासना
उठेगी तो
तुम्हारे
बच्चे होंगे।
यह
जो जीवन की
श्रंखला चल
रही है, यह जो
जीवन का
सातत्य है, यह जो जीवन
की सरिता बह
रही है, इसके
भीतर जल वासना
का है।
वासना
बुरी नहीं हो
सकती, क्योंकि
जीवन बुरा
नहीं है। जीवन
प्यारा है, अति सुंदर
है। लेकिन
वासना को
दबाने में लग
जाओ— — और
विकृति शुरू
हो जाती है।
वासना के ऊपर
चढ़कर बैठ जाओ,
उसकी छाती
पर बैठ जाओ, उसको प्रकट
न होने दो, उसको
दबाओ, काटो,
छांटो, कि
बस फिर विकृति
शुरू होती है।
फिर अड़चन शुरू
होती है। फिर
वासना ऐसे ढंग
से प्रकट होने
लगती है, जो
कि स्वाभाविक
नहीं है।
जैसे
: एक सुंदर
स्त्री को
देखकर
तुम्हारे मन में
अहोभाव का
पैदा होना जरा
भी अशस्त्र नहीं
है। सुंदर फूल
को देखकर
तुम्हारे मन
में अगर यह भाव
उठता है सुंदर
है,
तो कोई पाप
तो नहीं है।
चांद को देखकर
सुंदर है, तो
पाप तो नहीं
है। तो मनुष्य
के साथ ही भेद
क्यों करते हो? सुंदर
स्त्री, सुंदर
पुरुष को
देखकर
सौंदर्य का
बोध होगा।
होना चाहिए।
अगर तुममें जरा
भी
बुद्धिमत्ता
है तो होगा।
अगर बिल्कुल
जड़बुद्धि हो
तो नहीं होगा।
इसलिए
सौंदर्य के
बोध में तो
कुछ बुराई
नहीं है, लेकिन
तत्क्षण
तुम्हारे
भीतर घबड़ाहट
पैदा होती है
कि पाप हो रहा
है; मैंने
इस स्त्री को
सुंदर माना, यह पाप हो
गया, कि
मैने कोई
अपराध कर लिया।
अब तुम इस भाव
को दबाते हो।
तुम इस स्त्री
की तरफ देखना
चाहते हो और
नहीं देखते।
अब विकृति
पैदा हो रही
है। अब तुम और
बहाने से
देखते हो, किसी
और चीज को
देखने के
बहाने से
देखते हो। तुम
किस को धोखा
दे रहे हो?
या तुम भीड़
में उस स्त्री
को धक्का मार
देते हो। यह
विकृति है। या
तुम बाजार से
गंदी
पत्रिकाएं
खरीद लाते हो,
उनमें नग्न
स्त्रियों के
चित्र देखते
हो। यह विकृति
है।
और
यह विकृति
बहुत भिन्न
नहीं है— — जो
तुम्हारे ऋषि—
मुनियों को
होती रही।
तुमने क थाएं
पढ़ी हैं न, कि
ऋषि ने बहुत
साधना की और
साधना के अंत
में अप्सराएं
आ गईं आकाश से।
उर्वश आ गई और
उसके चारों
तरफ नाचने लगी।
पोरनोग्रेफी
नई नहीं है।
ऋषि— मुनियों
को उसका अनुभव
होता रहा है।
वह सब तरह की
अश्लील भाव—
भंगिमाएं
करने लगी ऋषि —
मुनियों के
पास।
अब
किस अप्सरा को
पड़ी है ऋषि—
मुनि के पीछे
पड़ने की! ऋषि—
मुनियों के
पास,
बेचारों के
पास है भी
क्या, कि
अप्सराएं
उनको जंगल में
तलाश जाएं और
नग्न होकर
उनके आस— पास
नाचे! सच तो यह
है कि ऋषि —
मुनि अगर
अप्सराओं के
घर भी दरवाजे
पर जाकर खड़े
रहते तो क्यू
में उनको जगह
न मिलती। वहां
पहले से ही
लोग राजा —
महाराजा वहां
खड़े होते। ऋषि
— मुनियों को
कौन घुसने
देता? मगर
कहानियां
कहती हैं कि
ऋषि— मुनि
अपने जंगल में
बैठे हैं — — आंख
बंद किए, श को
जला कर, गला
कर, भूखे—
प्यासे, व्रत
— उपवास किए
हुए — — और
अप्सराएं
उनकी तलाश में
आती हैं।
ये
अप्सराएं
मानसिक हैं।
ये उनके मन की
दबी हुई
वासनाएं हैं।
ये कहीं हैं
नहीं। ये बाहर
नहीं है। यह
प्रक्षेपण है।
यह स्वप्न है।
उन्होंने
इतनी बुरी तरह
से वासना को
दबाया है कि
वासना दबते—
दबते इतनी
प्रगाढ़ हो गई
है कि वे खुली आंख
सपने देखने
लगे हैं, और
कुछ नहीं।
हैल्यूसिनेशन
है, संभ्रम
है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, किसी
आदमी को
ज्यादा दिन तक
भूखा रखा जाए
तो उसे भोजन
दिखाई पड़ने
लगता है। और
किसी आदमी को
वासना से बहुत
दिन तक दूर
रखा जाए तो
उसकी वासना का
जो भी विषय हो
वह दिखाई पड़ने
लगता है। भ्रम
पैदा होने
लगता है। बाहर
तो नहीं है, वह भीतर से
ही बाहर
प्रक्षेपित
कर लेता है।
ये ऋषि—
मुनियों के
भीतर से आई
हुई घटनाएं
हैं, बाहर
से इनका कोई
संबंध नहीं है।
कोई इंद्र
नहीं भेज रहा
है। कहीं कोई
द्वंद्व नहीं
है और न कहीं
उर्वशी है। सब
इंद्र और सब
उर्वशिया
मनुष्य के मन
के भीतर का
जाल हैं।
तो
तुम अगर कभी
यह सोचते हो
कि जंगल में
बैठने से
उर्वशी आएगी, भूल
से मत जाना, कोई उर्वशी
नहीं आती।
नहीं तो कई
ऋषि—मुनि इसी
में हो गए हों,
बैठे हैं
जंगल में जाकर
कि अब उर्वशी
आती होगी, अब
उर्वशी आती
होगी! उर्वशी
तुम पैदा करते
हो, दमन से
पैदा होती है।
यह विकृति है।
इस स्थिति को
मैं मानसिक
विकार कहता
हूं। यह कोई
उपलब्धि नहीं
है। यह
विक्षिप्तता
है। यह है
वासना की
रुग्ण दशा।
तुम्हारे
भीतर जो
स्वाभाविक है, उसको
सहज स्वीकार
करो। और सहज
स्वीकार से
क्रांति घटती
है। जल्दी ही
तुम वासना के
पार चले जाओगे।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
वासना में सदा
रहोगे। लेकिन
पार जाने का
उपाय ही यही
है कि उसका
सहज स्वीकार
कर लो। दबाना
मत, अन्यथा
कभी पार न
जाओगे।
उर्वशिया आती
ही रहेंगी।
तुमने
देखा कि चूंकि
पुरुषों ने ही
ये शास्त्र
लिखे हैं, इसलिए
उर्वशियां
आती हैं।
स्त्रियां
अगर शास्त्र
लिखतीं और
स्त्रियां
अगर साधनाएं
करती जंगलों
में, पहाड़ों
में, तुम
क्या समझते हो
उर्वशी आती? स्वयं
इंद्र आते। तब
उनकी
कहानियों में
उर्वशी इंद्र
को भेजती, क्योंकि
उर्वशी से काम
नहीं चल सकता
था। जो
तुम्हारी
वासना का विषय
है वही आएगा।
उन्होंने
अप्सराएं
नहीं देखी
होती, उन्होंने
देखे होते कि
चलो हिंदकेसरी
चले आ रहे हैं,
कि विश्व—
विजेता
मुहम्मद अली
चले आ रहे हैं।
स्त्रियां
देखती उस तरह
के सपने कि
कोई अभिनेता
चला आ रहा है।
कल्पना है
तुम्हारी।
मनुष्य
वासना के पार निश्चित
जा सकता है, जाता
है। जाना
चाहिए। मगर
वासना से लड़कर
कोई वासना के
पार नहीं जाता।
जिससे तुम
लड़ोगे उसी में
उलझे रह जाओगे।
दुश्मनी सोच—समझ
लेना, क्योंकि
जिससे तुम
दुश्मनी लोग
उसी जैसे हो
जाओगे। यह राज
की बात समझो।
मित्रता तो
तुम किसी से
भी करो तो चल
जाएगी, मगर
दुश्मनी बहुत
सोच—समझकर
लेना, क्योंकि
दुश्मन से
हमें लड़ना
पड़ता है। और
जिससे हमें
लड़ना पड़ता है,
हमें उसी की
तकनीक, उसी
के उपाय करने
पड़ते हैं।
हिटलर
से लड़ते वक्त
चर्चिल को
हिटलर जैसा ही
हो जाना पड़ा।
इसके सिवाए
कोई उपाय न था।
जो धोखा— धड़ी
हिटलर कर रहा
था वहीं
चर्चिल को
करनी पड़ी।
हिटलर तो हार
गया,
लेकिन
हिटलरवाद
नहीं हारा।
हिटलरवाद
जारी है। जो—जो
हिटलर से लड़े
वही हिटलर
जैसे हो गए।
जीत गए, मगर
जब तक जीते तब
तक हिटलर उनकी
छाती पर सवार
हो गया।
जिससे
तुम लड़ते हो, स्वभावत
: उसके जैसा ही
तुम्हें हो
जाना पड़ेगा।
लड़ना है तो
उसके रीति—रिवाज
पहचानने
होंगे, उसके
ढंग—ढौल
पहचानने
होंगे, उसकी
कुंजिया
पकड़नी होंगी,
उसके दांव—पेंच
सीखने होंगे।
उसी में तो
तुम उस जैसे
हो जाओगे।
दुश्मन
बड़ा सोचकर
चुनना। वासना
को अगर दुश्मन
बनाया तो तुम
धीरे— धीरे
वासना के दलदल
में ही पड़
जाओगे, उसी
में सह जाओगे।
वासना
दुश्मन नहीं
है। वासना
प्रभु का दान
है। इससे शुरू
करो। इसे
स्वीकार करो।
इसको अहोभाव
से,
आनंद—भाव से
अंगीकार करो।
और इसको कितना
सुंदर बना
सकते हो, बनाओ।
इससे लड़ो मत।
इसको सजाओ।
इसे मृंगार
दो। इसे सुंदर
बनाओ। इसको और
संवेदनशील
बनाओ। अभी
तुम्हें
स्त्री सुंदर
दिखाई पड़ती है,
अपनी वासना
को इतना
संवेदनशील
बनाओ कि स्त्री
के सौंदर्य
में तुम्हें
एक दिन
परमात्मा का सौंदर्य
दिखाई पड़ जाए।
अगर चांदत्तारों
में दिखता है
तो स्त्री में
भी दिखाई पड़ेगा।
पड़ना ही
चाहिए। अगर
चांद तारों
में है तो
स्त्री में
क्यों न होगा?
स्त्री और
पुरुष तो इस जगत
की श्रेष्ठतम
अभिव्यक्तियां
है। अगर फूलों
में है——गूंगे
फूलों में——तो
बोलते हुए
मनुष्यों में
न होगा? अगर
पत्थर पहाड़ों
में है——जडु
पत्थर—पहाड़ो
में ——तो
चैतन्य
मनुष्य में न
होगा...
संवेदनशील
बनाओ।
वासना
से भगो मत।
वासना से डरो
मत। वासना को
निखारो, शद्ध
करो। यही मेरी
पूरी
प्रक्रिया है
जो मैं यहां
तुम्हें दे
रहा हूं।
वासना को शद्ध
करो, निखारो।
वासना को
प्रार्थनापूर्ण
करो। वासना को
ध्यान बनाओ।
और धीरे—धीरे
तुम चमत्कृत
हो जाओगे कि
वासना ही
तुम्हें वहां
ले आयी, जहां
तुम जाना
चाहते थे
वासना से लड़कर
और नहीं जा
सकते थे।
प्रेम
करो। प्रेम से
बचो मत। गहरा
प्रेम करो! इतना
गहरा प्रेम
करो कि जिससे
तुम प्रेम करो, वहीं
तुम्हारे लिए परमात्मा
हो जाए। इतना
गहरा प्रेम
करो! तुम्हारा
प्रेम अगर
तुम्हारे
प्रेम—पात्र
को परमात्मा न
बना सके तो
प्रेम ही नहीं
है, तो
कहीं कुछ कमी
रह गई।
तुम्हारे
महात्मा कहते
हैं कि प्रेम
के कारण तुम
परमात्मा को
नहीं पा रहे
हो। मैं तुमसे
कहता हूं : प्रेम
की कमी के कारण
तुम परमात्मा
को नहीं पा
रहे हो। इस
भेद को समझ
लेना। इसलिए
अगर तुम्हारे
महात्मा मुझसे
नाराज हैं तो
बिल्कुल
स्वाभाविक
है। अगर मैं
सही हूं तो वे
सब नाराज होने
ही चाहिए।
मैं
कह रहा हूं :
प्रेम तुममें
कम है, इसलिए
महात्मा
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता। तुम्हारी
वासना बड़ी
अधूरी है, अपंग
है। तुम्हारी
वासना को पंख
नहीं है। पंख दो!
तुम्हारी
वासना को उड़ना
सिखाओ!
तुम्हारी वासना
जमीन पर सरक
रही है। मैं
कहता हूं:
वासना को आकाश
में उड़ना
सिखाओ।
परमात्मा
अगर वासना के
द्वारा संसार
में उतरा है, तो
तुम वासना की
ही सीढ़ी पर
चढ़कर
परमात्मा तक
पहुंचोगे, क्योंकि
जिस सीढ़ी से
उतरा जाता है
उसी से चढ़ा जाता
है। फिर
तुम्हें
दोहरा कर कह
दूं। पुराने
शास्त्र कहते
हैं :
परमात्मा में
वासना जगी कि
मैं अनेक
होऊं। अकेला—अकेला
थक गया होगा।
तुम भीड़ से थक
गए हो, वह
अकेला—अकेला
थक गया था। वह
उतरा जगत में।
तुम भीड़ से थक
गए हो, अब
तुम वापिस
एकांत पाना
चाहते हो, मोक्ष
पाना चाहते हो,
कैवल्य
पाना चाहते हो,
ध्यान—समाधि
पाना चाहते
हो। चढ़ो उसी
सीढ़ी से, जिससे
परमात्मा
उतरा।
इसलिए
मैं कहता हूं :
संभोग और
समाधि एक ही
सीढ़ी के दो
हिस्से हैं; दिशा
का भेद है, और
कोई भेद नहीं
है। परमात्मा
उतरा है समाधि
से संभोग की
तरफ, तो
संसार बना है, नहीं तो
संसार नहीं बन
सकता था। तुम
चलों संभोग से
समाधि की तरफ,
तो तुम
संसार से
मुक्त हो
जाओगे। उसी
सीढ़ी से चलना
होगा, और
कोई सीढ़ी नहीं
है।
तुम
जिस रास्ते से
चलकर मुझ तक
आए हो, घर जाते
वक्त उसी
रास्ते से
लौटोगे न! तुम
यह तो नहीं
कहोगे कि इस
रास्ते से तो
हम अपने घर से
दूर गए थे, इसी
रास्ते पर हम
कैसे अपने घर
के पास जाएं, यह तो बड़ा
तर्क विपरीत
मालूम पड़ता है।
नहीं; तुम
जानते हो कि
तर्क विपरीत
नहीं है। जो
रास्ता यहां
तक लाया है, वहीं
तुम्हें घर
वापस ले जाएगा; सिर्फ दिशा
बदल जाएगी, चेहरा बदल
जाएगा। अभी
यहां आते वक्त
मेरी तरफ मुंह
था, जाते
वक्त मेरी तरफ
पीठ हो जाएगी।
आते वक्त घर
की तरफ पीठ थी,
जाते वक्त
घर की तरफ
मुंह हो जाएगा।
बस इतना—सा
रूपांतरण।
विरोध नहीं, वैमनस्य
नहीं, दमन
नहीं, जबर्दस्ती
नहीं, हिंसा
नहीं।
तुमने
पूछा है कि
अपने भीतर कभी
झांकने पर मुझ
लगा है कि
मेरी अनेक
वासनाएं
रुग्ण हैं।
देखना, उनका
विश्लेषण
करना। जो—जो
वासनाएं
रुग्ण हों, समझ लेना।
खोज करोगे, अनुभव में
भी आ जाएगा।
वे वे ही
वासनाएं हैं,
जिन—जिनको
तुमने दबाया
है या जिन—
जिनको तुम्ह
सिखाया गया है
दबाओ। वे
रुग्ण हो गई
हैं। उन्हें
अभिव्यक्ति
का मौका नहीं
मिला। ऊर्जा
भीतर पड़ी—पड़ी
सह गई है।
ऊर्जा को बहने
दो।
झरने
रुक जाते हैं
तो सह जाते
हैं। नदी ठहर
जाती है तो
गंदी हो जाती
है। स्वच्छता
के लिए नीर
बहता रहना
चाहिए। बहते
नीर बनो! पानी
बहता रहे।
बहाव को
अवरुद्ध मत
करो। नहीं तो
तुम बीमार
वासनाओं से
घिर जाओगे। और
बीमार
वासनाएं हों
तो आत्मा
स्वस्थ नहीं हो
सकती। वे
बीमार
वासनाएं
आत्मा के गले
में पत्थर की चट्टानों
की तरह लटकी
रहेंगी;
आत्मा उठ नहीं
सकती आकाश में।
वे बीमार
वासनाएं घाव
की तरह होंगी।
उनसे मवाद
रिसती रहेगी।
पूछा
तुमने: तो
क्या वासनाएं
भी स्वस्थ और
रुग्ण होती
हैं?
निश्चित
ही। स्वीकृत
वासना, अहोभाव
से अंगीकृत
वासना स्वस्थ
होती है।
अस्वीकृत
वासना, इनकार
की गई वासना, अस्वस्थ हो
जाती है। और
जिसे तुम
इनकार करते हो,
वह बदला
मांगती है, वह प्रतिरोध
करती है और
प्रतिशोध
चाहती है।
जितना तुम
दबाते हो उतना
ही वह धक्के
मारती है कि
मैं प्रकट हो
कर रहूंगी।
इसलिए
अकसर ऐसा हो
जाता है कि
तुम्हारे
तथाकथित साधु—संन्यासी
सिवाए रुग्ण
वासनाओं की
गठरी के और कुछ
नहीं रह जाते।
अगर उनके मन
की तुम जांच
पड़ताल करो तो
बड़े चकित हो
जाओगे, वहां सिर्फ
रुग्ण
वासनाएं हैं।
अगर तुम उनके
सपनों में
झांको तो बहुत
भयभीत हो
जाओगे;
उससे बेहतर
सपने तुम
देखते हो। इस
बात का
तुम्हें शायद
पता न हो कि
साधारण जन गंदे
सपने नहीं
देखते, या
बहुत कम देखते
हैं; लेकिन
जिनको तुम
साधु पुरुष कहते
हो, उनके
सब सपने गंदे
होते हैं।
होंगे ही, क्योंकि
दिनभर जिसको
दबाया है वह
रात में बदला
लेता है।
इसलिए तो साधु—संन्यासी
सोने से डरने
लगते हैं।
नींद कम करने
लगते हैं— —पांच
घंटे सोओ, चार
घंटे सोओ, तीन
घंटे। जो साधु
जितना कम सोता
है, लोग
कहते
हैं : ''
हां '' यह
साधु! दो ही
घंटे सोता है।
'' मगर यह
नींद से डरता
क्यों है?
इतनी घबड़ाहट? या है?
नींद जैसी
सुखद
प्रक्रिया, नींद जैसी शांत
प्रक्रिया!
पतंजलि ने तो
कहा है : समाधि
और सुषुप्ति
एक जैसे हैं।
गहरी नींद
समाधि जैसी ही
है। जरा — सा
फर्क है। इतना
— सा फर्क है।
कि समाधि में
आदमी जागा
होता है और
नींद में सोया
होता है। मगर
दोनों दशाएं
एक जैसी हैं, क्योंकि
दोनों ही
स्थितियों
में मन शांत
हो गया होता
है, विचार
विलीन हो गए
होते हैं, निर्विचार
दशा आ गई होती
है।
सुषुप्ति
में भी तुम
परमात्मा में
गिर जाते हो। रोज
गिरते हो।
इसलिए तो गहरी
नींद के बाद
सुबह ताजापन
लगता है, पुनरुज्जीवन
मालूम होता है।
फिर लौट आए
ताजे होकर!
किसी ऊर्जा के
स्रोत में
नहाकर लौट आए!
कुछ पता नहीं
कहां गए, कैसे
गए, मगर गए।
हो श नहीं था, लेकिन गए।
सुषुप्ति
है : सोए — सोए
परमात्मा में प्रवेश।
और समाधि है :
जागे — जागे
परमात्मा में प्रवेश।
प्रवेश तो एक
ही है। द्वार
एक ही है। सिर्फ
इतना ही फर्क
है : एक में
नींद है, एक
में जागरण है।
लेकिन
तुम्हारे
साधु —
संन्यासी बड़े
घबड़ाते हैं
नींद से, बड़े
उपाय करते
रहते हैं कि
किस तरह न सोए।
उनका भय क्या
है? उनका
भय बेचारों का
यही है। वे
दया — योग्य
हैं। जो सो भी
नहीं सकते शस्त्र
से, उन पर
दया न करो तो
और क्या करो।
उनकी कठिनाई
यही है कि दिन
भर जो — जो
दबाया है, समझो
कि दिन — भर
उपवास किया है,
तो वे रात —
डरते हैं, कि
जब वे सोएंगे
तब राजमहल में
निमंत्रण
मिलने ही वाला
है। वे बच
नहीं सकेंगे।
राजा भोज देने
ही वाला है
सपने में। और
वहां सभी तरह
के मिष्ठान
होंगे और सब
तरह के भोजन
होंगे। दिन भर
सोचा वही है, लड़े उसी से
है।
तुम
भी उपवास करके
देखो। जिस दिन
उपवास करते हो, उस
दिन दिन — भर
भोजन करना
पड़ता है।
बारबार भोजन
की याद आती है।
राह से गुजरते
हो, उस दिन
फिर जूते की
दुकानें नहीं
दिखतीं बाजार
में, कपड़े
की दुकानें
नहीं दिखती उस
दिन बाजार में
— — उस दिन
रेस्त्रां और
होटल, बस
यही — यही
दिखाई पड़ते
हैं। सब तरफ
से भोजन की गंध
तैरती आती है — —
ये पकौड़े चले
आ रहे हैं! ये
भजिए चले आ
रहे हैं! सारा जगत
भोजन बन जाता
है। जिसे
देखते हो वही
याद दिलाता है,
भोजन की याद
दिलाता है।
रोज इसी
रास्ते से
निकलते थे, मगर तब यह
नहीं हुआ था।
रोज भोजन किए
निकले थे, कुछ
दबाया नहीं
गया था, कोई
रुग्ण नहीं था।
अगर
दिन — भर तुम
लड़े कि कहीं
स्त्री का
प्रभाव न पड़
जाए...। और साधु
किस तरह से
लड़ते हैं कि
जिसका हिसाब नहीं
है! स्त्री
दिखाई न पड़
जाए,
तो आंख
झुकाकर चलो।
जहां स्त्री
बैठी हो उस
जगह पर मत बैठ
जाना! स्त्री
जा भी चुकी है,
मगर उसकी
जगह पर मत बैठ
जाना! वह ज गह
ही खतरनाक हो
गई। तो साधु
अपना आसन लेकर
साथ चलते हैं
कि कहीं कोई
किसी के आसन
पर बैठना पड़े,
पता नहीं
कोई स्त्री
पहले बैठी रही
हो, फिर!
कहीं रोग लग
जाए! अपना आसन साथ
रखते हैं।
अपनी पिच्छी साथ
रखते हैं, जहां
बैठते हैं
वहां पहले
सफाई कर ली, फिर बैठ गए — —
देखकर कि अब
कोई खतरा नहीं
है। ऐसे हरे
हुए लोग
दया
- योग्य हैं।
इनका जीवन
जीवन नहीं है।
जिसको
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं - - '' पैरानाया
'' भयाक्रांत!
कैप रहे हैं।
चौबीस घंटे
कैप रहे हैं
कि कहीं कुछ
गड़बड़ न हो जाए!
और
जिससे तुम हरे
हो उसकी याद
बनी रहती है।
वह सब जगह से
दिखाई पड़ता है।
कोई हिप्पी
चला जा रहा है- -
लंबे बाल।
तुम्हारे
मुनि महाराज
को स्त्री
दिखाई पड़ेगी, पुरुष
नहीं दिखाई पड़
सकता। ऐसा मैं
अनुभव से कह
रहा हूं।
मैं
एक साधु के सा
थ बैठा था
गंगा के
किनारे। बचपन
के मेरे मित्र
थे। फिर मैं
असाधु हो गया, वे
साधु हो गए।
दोनों बैठे
बात कर रहे थे
उनकी आंखें
बारबार तट पर
कोई स्नान
करने आया उसकी
तरफ जाने लगी।
मैंने भी देखा
कि कौन है।
देखा कि एक
स्त्री स्नान
कर रही है।
मैंने उनसे
कहा कि यह बात
आगे नहीं चल
सकेगी।
तुम्हारा
ध्यान बारबार
स्त्री की तरफ
जा रहा है।
तुम जाकर उसे
देख ही आओ।
पीठ
थी हमारी तरफ।
वे गए, वहां से सिर
ठोंकते लौटे
कि स्त्री है
ही नहीं वह, सिर्फ बाल
लंबे हैं, कोई
पुरुष है। मगर
पीछे से लंबे
बाल....।
वासना
दबाई हो जिसने, उसके
लिए बड़ी
कठिनाइयां
हैं। उसे कोई
छोटी - मोटी
चीज भी प्रतीक
बन सकती है।
फ्रायड
ने इस संबंध
में बड़ी खोज
की है। जिन
लोगों ने अपनी
वासना को दबा
लिया है, उन्हें
स्त्रियां तो
दूर, स्त्री
की साड़ी लटकी
हो, उसमें
भी रस होता है।
जिसने पुरुष
के प्रति अपनी
वासना दबा ली
हो, उसे हर
पुरुष की चीज
में रस हो
जाता है। यह
विकृति है। यह
रुग्ण - चित
दशा है।
तो
फिर डरोगे रात
सोने में।
क्योंकि सोए
कि अड़चन हुई।
सोए कि घबड़ाहट
आई। जागने में
तो किसी तरह
अपने को
संभाले रहे, संभाल
- संभाल चलते
रहे। नींद में
कौन संभालेगा? नींद में तो
सब संभालना
बंद हो जाएगा।
और जो दिन भर
दबा रहा है वह
एकदम से प्रकट
होगा।
इसलिए
तो मनसविद
कहते हैं कि
तुम्हें
जानने के लिए
तुम्हें
सपनों का
विश्लेषण
करना पड़ता है।
तुम इतने झूठे
हो कि
तुम्हारे
जागरण का तो
कोई भरोसा ही
नहीं है।
तुम्हारा
जागरण तो
बिल्कुल
प्रपंच है।
तुम
मनोवैज्ञानिक
के पास जाओ तो
वह कहता है अपने
सपने लाओ। रोज
- रोज तुमसे
कहता है अपने
सपने लाओ, सपने
लिखवाओ, सपने
बताओ, सपने
की डायरी बनाओ।
तुम सोचते भी
हो कि भई
तुम्हें जो
पूछना हो, मुझसे
ही पूछ लो, सपने
को क्या देखना?
मनोवैज्ञानिक
कहता है कि
सपने से ही
पता चलेगा कि
तुम असलियत
में क्या हो।
जागने में तो
तुम धोखा दे
सकते हो। और
तुम इतने कुशल
हो गए हो धोखा
देने में कि
दूसरे को हीं
नहीं दे सकते,
अपने को भी
दे सकते हो।
कुछ लोग तो
इतने कुशल हो
गए हैं धोखा
देने में कि
सपने तक में
थोड़ा - सा धोखा
कर जाते हैं।
जैसे तुम्हें
अपने बाप की
हत्या करनी है,
ऐसा
तुम्हारे दिल
में लगा रहता
है कि बाप ने बहुत
सताया है, कि
सता रहा है, कि बूढा अभी
भी जा नहीं
रहा है, कब
जाएगा कब नहीं
जाएगा। ऐसे
तुम्हारे मन
में विचार चल
रहे हैं। मगर
पिता पिता है
और संस्कृति
कहती है, सभ्यता
कहती है - - आदर दो।
इसलिए सब
संस्कृतियां,
सब सभ्यताएं
कहती हैं कि
पिता को आदर
दो, क्योंकि
खतरा है, नहीं
तो बाप-बेटे
के बीच झगड़ा
होनेवाला है।
बेटे बाप को
मार डालेंगे।
इसको बचाने के
लिए ही सारी सभ्यताएं...।
यह
बड़े मजे की
बात है। अगर
तुम सभ्यताओं
के नियम
पहचानने की
कोशिश करो तो
उनसे राज पता
चलता है कि
मामला क्या है।
इतनी दुनिया
की सभ्यताएं
हैं- -अलग-अलग
ढंग,
अलग-अलग
व्यवस्था, भोजन
अलग, कपड़े
अलग- -मगर एक
बात में सब
राजी हैं कि
बेटा बाप का सम्मान
करें। अनुभव
है सभी को कि
अगर सम्मान
ठोक-ठोक कर
बिठाया नहीं
गया, तो एक
न एक दिन
अपमान
होनेवाला है।
बेटे के
द्वारा बाप का।
इसलिए उसको
बिठा ही देना
है ठोक-ठोक कर।
फिर वह इतना
गहरा बैठ जाता
है संस्कार......
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, सपने
में भी तुम
अपने बाप की
हत्या नहीं
करते, अपने
चाचा की कर
देते हो, क्योंकि
वह पिता जैसे
मालूम होते
हैं। अब चाचा
का कोई हाथ ही
नहीं। चाचा की
कोई हत्या
करना ही नहीं
चाहता, तुम
खयाल रखना।
चाचा से तो
दोस्ती होती
है। चाचा से
तो सबकी
दोस्ती होती
है। चाचा तो
प्यारा आदमी
होता है। बाप
जैसा होता है
और बाप जैसा
नहीं होता।
मित्रता होती
है। न आज्ञा
देता है, न
जबर्दस्ती
स्कूल भेजता
है? बल्कि
मौका पड़ जाए
तो कुछ पैसे
भी दे देता है,
स्कूल से
निकालना हो तो
छुट्टी भी
निकलवा देता
है। चाचा तो
भिन्न तरह का
आदमी होता है।
चाचा को कौन
मारना चाहता
है!
लेकिन
सपने में, मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, पिता
की हत्या करने
का भाव सपने
तक में आदमी रोक
लेता है कि यह
बात तो हो ही
नहीं सकती।
चाचा को मार
देता है। चाचा
पिता जैसा
लगता है। वह
प्रतीक बन
जाता है।
तुम
खयाल करना। मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
सपने तक में
धोखा शुरू हो
गया है। आदमी
का धोखा इतना
गहरा चला गया
है! लेकिन सपनों
में फिर भी
तुम्हारी
प्रामाणिकता
का पता चल
जाता है। अगर
तुम्हारे तीन
महीने तक के
सारे सपने तुम
खोलकर रख दो
तो तुम्हारी
आत्मकथा हो
जाएगी- -असली
आत्मकथा! असली
आत्मकथा उन
बातों की नहीं
है जो तुम
जागकर सोचते
हो- -उन बातों
की है, जो तुम
सोकर सोचते हो।
क्योंकि उससे
पता चलता है
तुम कहां हो।
और बड़ी उल्टी
बात होगी।
ऊपर-ऊपर तुम
कुछ थे, भीतर-
भीतर तुम कुछ
थे। ऊपर-ऊपर
तुम इतने शांत
थे और भीतर
तुमने हत्याएं
कर दीं। ऊपर-ऊपर
तुम इतने भले
मालूम होते थे
और भीतर- भीतर तुमने
क्या नहीं था
जो नहीं किया? बड़े से बड़े
अपराधी जो
करते हैं, वह
हर आदमी अपने
सपने में कर
लेता है। सपने
में तृप्ति
मिल जाती है।
रुग्ण
मत कर लेना
अपनी वासनाओं
को,
अन्यथा तुम
मुश्किल में
पड़ जाओगे।
स्वीकार करो। परमात्मा
ने जो भी दिया
है उसके पीछे
राज होगा, उसके
पीछे कुछ छिपी
होगी संपदा।
इनकार मत करो।
तुम परमात्मा
की जिस चीज को
भी इन्कार
करोगे, उसके
माध्यम से
परमात्मा का
ही इनकार होगा।
इसलिए भक्त
कहते हैं : सब
स्वीकार कर लो।
और अहोभाव से
स्वीकार कर
लो- -उदासी से नहीं''
विवशता से
नहीं, मजबूरी
से नहीं। और
स्वीकार के
बाद सरलता से
जो तुम्हें
मिला है उसको
गहराओ। उसको
गहराते-गहराते
ही तुम पाओगे
कि जहां केवल
कंकड़-पत्थर और
धूल- धेवांस
मालूम होती थी,
गड्ढ़ा
खोदते-खोदते
जल के स्रोत
मिल गए हैं, कुएं बन गए
हैं।
हर
वासना से प्रार्थना
तक पहुंचने का
उपाय है।
खुदाई ठीक से
करो। मैं
तुम्हें
जीवन-स्वीकार
का धर्म दे
रहा हूं।
इसमें इनकार
नहीं, जरा भी
इनकार नहीं।
मैं तुम्हें
प्रामाणिक
मनुष्य होने
की कला सिखा
रहा हूं।
तुम्हें अब तक
अप्रमाणिक
होने की बातें
बताई गई हैं।
अब तक तुम्हें
जबर्दस्ती
अपने को कुछ
बना लेने की
चेष्टा सिखाई
गई है। मैं
तुमसे कह रहा
हूं : सहजता
से तुम हो
जाओगे जो तुम
होना चाहते हो।
सहजता धर्म
होना चाहिए।
सहज-योग ही
एकमात्र योग
होना चाहिए।
और
अगर तुमने इस
संसार को
स्वीकार न
किया तो इस
संसार के
बनानेवाले को
कैसे स्वीकार
कर सकोगे?
वासना
का इनकार
नास्तिकता है।
वासना का
स्वीकार
आस्तिकता है।
जीस्त
को पुरबहार
क्या करते
दिल
ही था सोगवार
क्या करते
आपके
गम की बात है
वर्ना
खुद
को हम बेकरार
क्या करते
आपका
ऐतबार ही कब
था
आपका
इंतजार क्या
करते
थी
हमें क्या
बहार से
उम्मीद
हम
उम्मीदे-बहार
क्या करते
जीस्त
पर कब हमें
भरोसा था
आप
पर एतबार क्या
करते
थे
न जिनको अजीज
खारे-चमन
वह
भला गुल से
प्यार क्या
करते
''शमीय:''
जब न शब ही
रास आई
सुबह
का इंतजार
क्या करते
थोड़ा
समझो।
आपका
ऐतबार ही कब
था
आपका
इंतजार क्या
करते
जीवन
को ही स्वीकार
न करोगे तो
जीवन के पीछे
छिपे हुए को
कैसे स्वीकार
करोगे?
घूंघट से ही
भाग खड़े होओगे
तो घूंघट के
पीछे जो चेहरा
छिपा है, जो
प्यारा छिपा
है, उसे
उघाड़ कैसे
पाओगे? यह
प्रकृति उसका
घूंघट है।
वासना प्रा
र्थना का
घूंघट है। यह
सब रूप- रंग उस
अरूप और अरंग
का घूंघट है।
यह सब आकार उस
निराकार पर
घूंघट है। और
बड़े प्यारे
हैं। घूंघट भी
बड़ा प्यारा है,
क्योंकि
उसके चेहरे पर
है। उसके
चेहरे पर होने
का कारण सब
प्यारा है। इस
जगत् में ऐसा
कुछ है ही
नहीं जो
प्यारा न हो।
और अगर ऐसा
कुछ मालूम पड़े
कि प्यारा
नहीं है तो
फिर से सोचना,
सोच- सोच कर फिर-
फिर सोचना : कहीं तुम
अपनी भूल
पाओगे। होनी
ही चाहिए
तुम्हारी भूल,
क्योंकि
तुम परमात्मा
से ज्यादा
बुद्धिमान नहीं
हो सकते।
जिससे
यह जगत- का
प्रवाह आ रहा
है,
तुम उसमें
सुधार करने की
सोच रहे हो? तुम्हारी
चेष्टा यह है
कि तुम
परमात्मा को
भी सलाह देना
चाहते हो कि
ऐसा होना
चाहिए था।
वासना नहीं
होनी चाहिए थी।
जूरा सोचो तो
कि एक बच्चा
पैदा हो
जिसमें वासना
न हो, उसमें
क्या होगा?
उसमें रीढ़
होगी? वह
बच्चा नपुंसक
होगा। उसमें
जीवन की ऊर्जा
होगी, उल्लास
होगा?
उसमें फूल लग
सकते हैं?
वह जी सकता है? वह श्वास ही
क्यों लेगा? उसमें
श्वास ही
क्यों चलेगी? तुम उसे
धक्का मार
दोगे तो उसमें
क्रोध नहीं उठेगा।
वह बिल्कुल
गोबर- गणेश होगा।
तुम उसको जैसा
बना दोगे वैसा
ही बन जाएगा।
लीप- पोत दोगे,
लीप- पुत
जाएगा। उसमें
मेधा नहीं
होगी, प्रतिभा
नहीं होगी।
उसमें बगावत
नहीं होगी, क्रांति
नहीं होगी, आग नहीं
होगी। उसमें
कोई किरण नहीं
होगी, अंधकार
होगा। वह
बिल्कुल
मुर्दा होगा,
मिट्टी का
लौंदा होगा।
उसमें आत्मा
नहीं होगी।
वासना नहीं
होगी तो आत्मा
नहीं होगी। वह
कभी किसी
स्त्री को
प्रेम नहीं
करेगा। वह
अपनी मां को
भी प्रेम नहीं
कर सकता, खयाल
रखना।
बच्चे
का मां से
प्रेम संसार
में पहली
स्त्री से
प्रेम है। और
मनसविद कहते
हैं कि आदमी
अपने बुढापे तक
भी अपनी मां
के प्रेम से
मुक्त नहीं हो
पाता। वह अपनी
पत्नी में भी
अपनी मां ही
खोजता है।
बहुत गहरे में
मां की खोज
चलती है।
इसलिए तो
पुरुष
स्त्रियों के
स्तन में इतने
उत्सुक होते
हैं - - वह मां की
खोज है, और
कुछ नहीं।
स्तन यानी मां
का प्रतीक है।
वह बच्चे ने
पहली दफा जाना
था स्त्री का
रूप। पहली दफा
स्तन ही जाने
थे उसने;
स्त्री तो बाद
में जानी, स्तन
पहले जाने।
उसकी पहली
पहचान दुनिया
में स्तन से
हुई थी। स्तन
ही भोजन थे।
स्तन ही उसके
लिए प्रेम थ।
स्तन ही उसकी
सांत्वना थे।
रोता था तो
स्तन ही, उसके
लिए धीरज थे।
स्तन ही उसकी
सारी
आकांक्षा थे।
स्तन ही उसकी
सारी वासना थे।
स्तन ही उसका
सब सार थे, सब
कुछ थे।
इसलिए
ही तो पुरुष
स्तन से कभी
मुक्त नहीं हो
पाता है।
चित्रकार
स्तनों के
चित्र बनाते
हैं।
मूर्तिकार
बड़े - बड़े स्तन
गढ़ते हैं, जैसे
होते भी नहीं।
खजुराहो और
कोणार्क
स्तनों के
मंदिर हैं - - स्तन
ही स्तन! कवि
स्तन की
कविताएं
लिखते हैं।
फिर उपन्यास
हों कि
फिल्में हों
कि पुराण हों,
स्तन की ही
चर्चा चलती है।
स्त्री से
स्तन अलग कर
लो और स्त्री
में से कुछ खो
जाता है, बिल्कुल
खो जाता है।
क्योंकि वह
स्त्री मां
बनने के योग्य
नहीं रह जाती
है। कोई पुरुष
उस स्त्री में
उत्सुक नहीं
होता।
स्त्रियां भी
इस रहस्य को
जानती हैं, तो वे
स्तनों को
उभारने के
उपाय करती हैं।
ढंग - ढंग की
चोलिया तैयार
होती हैं सारी
दुनिया में; स्तन कैसे
बड़े दिखायी
पड़े, इसकी
चेष्टा जारी
रहती है। झूठे
स्तन बनाए
जाते हैं।
स्तन जवान
दिखाई पड़ते
रहें।
यह
सब क्यों चलता
है? इसके पीछे
गौर से देखो।
इसके पीछे यही
है कि बच्चे
का पहला अनु
भव स्तन से
हुआ था। स्तन
उसका जगत् का
सबसे प्राथमिक
अनु भव है और
सबसे
बहुमूल्य अनु
भव है। फिर
मां को पहचाना।
फिर मां से
पहचान उसकी, पहली स्त्री
की पहचान थी।
यही उसके गहरे
में बैठ गई।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं : इसलिए
कोई पति अपनी
पत्नी से कभी
पूरा प्रसन्न
नहीं हो पाता,
क्योंकि
कोई पत्नी कभी
उसकी मां की
प्रतिछवि
नहीं हो पाती,
कुछ न कुछ
कमी रह जाती
है। और कोई
पत्नी उसकी
मां बनने को
आई भी नहीं है।
पति भी कह
नहीं सकता कि
मैं तुझमें
मां खोज रहा
हूं, क्योंकि
उसके अहंकार
के विपरीत
जाता है। वह
मालिक, कैसे
कह सकता है कि
मैं मां खोज
रहा हूं, लेकिन
खोज मां रहा
है। बूढे से
बूढा आदमी मां
की तलाश कर
रहा है।
और
ठीक इसके
विपरीत
स्त्री बेटे
की तलाश कर
रही है।
उपनिषदों में
एक अदभुत
उल्लेख है।
ऋषि उन दिनों आशा
देते थे, जब
कोई नव
विवाहित जोड़ा
उनके पास आता
था तो वे जोड़े
को आशा देते
थे कि
तुम्हारे दस
पुत्र हों और
अंतत : तुम्हारा
पति तुम्हारा
ग्यारहवां
पुत्र हो जाए।
यह बड़ी अदभुत
बात है। अंतत :
उस दिन विवाह
पूरा सफल हुआ,
जिस दिन
स्त्री मां हो
जाएगी और पति
फिर बेटा हो
जाएगा, उस
दिन विवाह सफल
हुआ। फिर
यात्रा पूरी
हो गई, वर्तुल
पूरा हो गया।
जिस
बच्चे में
वासना नहीं
होगी उसमें
जीवन की ऊर्जा
नहीं होगी। वह
अपनी मां को
प्रेम नहीं कर
सकेगा। वह
किसी स्त्री
को प्रेम नहीं
कर सकेगा। वह
किसी पुरुष को
प्रेम नहीं कर
सकेगा। वह कोई
मैत्री नहीं
बना सकेगा।
उसे फूलों में
कोई सौंदर्य
नहीं दिखाई
पड़ेगा, चांदत्तारों
में कोई रोता नहीं
दिखाई पड़ेगी।
उसे इस जगत् में
कोई काव्य
दिखाई नहीं
पड़ेगा, क्योंकि
सब काव्य
वासना से ही
उमगता है।
तुम
क्या समझते हो
फूल तुम्हारे
लिए उगे हैं
वृक्षों में
कि तुम तोड़ो
और मंदिरों
में चढ़ाओ?
फूल तुम्हारे
लिए नहीं उगे
है, तुम्हारे
मंदिरों में
चढ़ने के लिए
नहीं उगे हैं।
फूल वृक्ष की
वासना का
हिस्सा है।
फूलों के
द्वारा वृक्ष
तितलियों को
लुभा रहा है, मुधमक्खियों
को लुभा रहा
है। फूलों में
वृक्ष ने अपने
वीर्य - अणु
रखे हुए हैं।
मधुमक्खियों
में, तितलियों
में, उनके पंखों
में, उनके
पैरों में
लगकर वे
वीर्य-अणु
मादा तक पहुंच
जाएंगे। फूल
तरकीब है। फूल
जाल है।
सोचते
हो कोयल है तो
कोई भजन गा
रही है कि कोई
अजान तुम जब
कुहू-कुहू पुक,,
कर
रही है? वह
अपने प्यारे
को पुकार रही
है। और ध्यान
रखना, जो
कुहू-कुहू कर
रही है कोयल, वह नर कोयल
है। वह स्त्री
नहीं है।
स्त्री तो
चुप-चाप बैठी
है, जैसी
सभी
स्त्रियां
चुपचाप बैठती
हैं। वह पुरुष
है जो चेष्टा
कर रहा है।
तुमने
देखा, वह जो
मोर नाचता है,
वह पुरुष
है! वह जो पंख
फैलाता है, वह पुरुष है।
स्त्री के पास
प्रकृति ने
सुंदर पंख
नहीं दिए हैं,
जरूरत नहीं
है। उसका
स्त्रैण होना
पर्याप्त है।
जब दुनिया
ज्यादा
प्राकृतिक थी
तो स्त्रियां
गहने नहीं
पहनती थी, पुरुष
गहने पहनते थे।
वही उचित है।
वही होना
चाहिए। यह जो
तुम हिप्पी
इत्यादि को
देखते हो न, घंटी
इत्यादि
बांधे हुए, और कुछ... यह
ज्यादा ठीक
बात है।
क्योंकि सारी
प्रकृति इसके
पक्ष में है
कि पुरुष. मोर
सुंदर है। फूल
सुंदर हैं।
कोयल... नर कोयल
की आवाज मधुर
है। क्यों?
वह स्त्री को
लुभाता है।
स्त्री
तो स्त्री
होने के कारण
पर्याप्त है, कुछ
और चाहिए नही; पुरुष
पर्याप्त
नहीं है। वह
लुभाने जाएगा।
तुम देखते हो,
मुर्गा
कैसी छाती
फैलाकर चलता
है, कलगी
उठा कर चलता
है! वह जब तुम
भी किसी के
प्रेम-तेम में
पड़ जाते हो, छाती न भी हो
तो कोट में
रूई भरवा लेते
हो, मगर...
कलगी वगैरह न
हो तो साफा
बांध लेते हो,
उसमें कलगी
निकाल लेते हो,
बने मुर्गा,
चले!
यह
सारा जगत्
वासना का
अदभुत खेल है।
बच्चा अगर
वासना के बिना
पैदा होगा, जिएगा
ही नहीं, मर
जाएगा। और
जिसको जगत् से
प्रेम पैदा
नहीं होगा-
-स्त्री का
पुरुष से, पुरुष
का स्त्री से-
-उसको
परमात्मा की
याद भी नहीं
आएगी।
क्योंकि
प्रेम जब इस
जगत् में हम
करते हैं और हारते
हैं, तब
परमात्मा की
याद आती है।
जरा
समझने की
कोशिश करना।
इस जगत् का
कोई प्रेम जीत
नहीं सकता, क्योंकि
कोई प्रेम
तुम्हारी
प्रेम की
आकांक्षा को
तृप्त नहीं कर
सकता।
आकांक्षा
बहुत बड़ी है- -
सागरों को पी
जाए, इतनी
है! और यहां
बूदें तरसने
से मिलती है, वे भी नहीं
मिलतीं। यहां
हर द्वं जो
तुम्हारे कंठ
में पड़ती है, वस्तुत :
तुम्हारी
प्यास को और
जगा जाती है, घटाती नहीं।
तो यहां तुम
प्रेम में
पडोगे और
हारोगे।
मैं
तुमसे कहता
हूं : प्रेम
में जरूर पड़ना।
हारोगे नहीं
तो तुम
परमात्मा को
कभी याद नहीं
करोगे। हारे
का हरिनाम! जब
हार जाओगे, बुरी
तरह हारोगे, यहां सब तरफ
टटोलोगे और न
पाओगे और हर
जगह से विषाद
हाथ लगेगा, असफलता हाथ
लगेगी, जहां-जहां
जाओगे वहीं से
खाली हाथ
लौटोगे- -तब एक
दिन असहाय
अवस्था में
आकाश की तरफ आंखें
उठाकर
पुकारोगे कि
अब बहुत हो
गया। अब तो तू
ही मिले तो
कुछ हो!
जब
स्त्री और
पुरुष के
प्रेम से
तृप्ति नहीं होगी
और अतृप्ति
बढ़ती जाएगी, तो
ही परमात्मा
की तलाश शुरू
होती है। जिस
बच्चे में
वासना नहीं, वह परमात्मा
को खोजने नहीं
जाएगा। जिस
बच्चे में
वासना नहीं, वह परमात्मा
से अलग हुआ ही
नहीं अभी, खोजने
का सवाल ही
नहीं है।
वासना उठी
परमात्मा में
तो उसने अनेक
होने का
विस्तार किया
अपना।
आपका
ऐतबार ही कब
था
आपका
इंतजार क्या करते
थी
हमें क्या
बहार से
उम्मीद
हम
उम्मीदे-बहार
क्या करते
जीस्त
पर कब हमें
भरोसा था
आप
पर ऐतबार क्या
करते।
जिंदगी
पर ही जिसको
भरोसा नहीं है, वह
जिंदगी को
बनानेवाले पर
भरोसा नहीं कर
सकता।
जीस्त
पर कब हमें
भरोसा था
आप
पर ऐतबार क्या
करते।
जिसको
कांटों से प्रेम
नहीं है, वह
फूलों से भी
प्रेम नहीं कर
सकेगा। और
जिसे फूलों से
प्रेम है उसे
कांटों से भी
प्रेम होगा।
क्योंकि वह
समझेगा कि
कांटे और फूल
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
थे
न जिनको अजीज
खारे-चमन
वह
भला गुल से
प्यार क्या
करते
''शमीय:''
जब न शब ही
रास आई
सुबह
का इंतजार
क्या करते
जिनको
रात ही पसंद न
पड़ी,
वे सुबह का
क्या खाक
इंतजार
करेंगे?
रात पसंद पड़े,
रात प्यारी
हो, तो
सुबह की आशा
जगती है, कि
सुबह और भी
प्यारी होगी,
कि सुबह और
विराट होगी, कि जब रात ही
इतनी सुंदर है
तो सुबह का
क्या!
देखते
हो,
धनी धरमदास
ने कहा कि जब
अपने गुरु में
झांककर देखा,
जब कबीर में
झांककर देखा
और इतना
प्यारा दर्शन
किया तब समझ
में आया कि जब
गुरु इतना
प्यारा है, तो जब उस
परम-पुरुष से
मिलन होगा, तो कैसा
होगा! फिर
वाणी कह नहीं
पाती। फिर
शब्द अधूरे पड़
जाते हैं। फिर
मौन ही उसे कह
सकता है।
जो
भी परमात्मा
ने दिया
है--बेशर्त कह
रहा हूं, जो भी
परमात्मा ने
दिया है--उसे
स्वीकार करो। उसे
अंगीकार करो।
उसके साथ चलो।
और तुम्हारी वासना
स्वस्थ
रहेगी। और
स्वस्थ वासना
प्रार्थना तक
पहुंचा देती
है, अनिवार्यरूपेण
पहुंचा देती
है।
विकृत
वासना--भटक गई।
न घर के रहे न
घाट के। धोबी
के गधे हो
जाते हैं लोग, न
घर के न घाट
के। संसार भी
गया और
निर्वाण का कुछ
पता नहीं चलता।
इसी मुसीबत
में पड़े हुए
तुम्हारे
साधु-संन्यासियों
को मैं देखता
हूं। वे निश्चित
दया के पात्र
हैं। उनके हाथ
से सब चला
गया। माया भी
गई और राम
मिले नहीं। माया
मिली न राम, दुविधा में
दोऊ गए।
दुविधा पैदा
हो गई उनके मन
में --यह चुनना
है, यह
छोड़ना है, यह
पकड़ना है, यह
हटाना है।
दुविधा पैदा
हो गई, द्वंद्व
पैदा हो गया।
द्वंद्व
वासना को
रुग्ण कर देता
है।
निर्द्वंद्व
जियो! अभय से
जियो!
परमात्मा तुम्हारा
रक्षक है, इतना
भय क्या? इतना
घबड़ाना क्या?
उसने दिया
है तो ठीक ही
दिया होगा। इस
आस्था से
जियो। और यही
आस्था
पहुंचाती है।
तीसरा
प्रश्न :
कुछ
दिन से मुझे
आपका प्रवचन
सुनने का और
पुस्तक पढ़ने
का अवसर मिला
है। यह मेरा
सौभाग्य है।
परमात्मा के
संबंध में
इसके पहले
मुझे बिल्कुल
खिचड़ी जैसा
ज्ञान था।
इतनी सरलता और
सद्विचार से
समझानेवाला
सदगुरु कभी
नहीं मिला था।
अब मुझे
विश्वास भी हो
गया है कि अगर
आपका
आशीर्वाद मिल
जाए तो परमात्मा
को जान भी
सकूंगा। इस
संबंध में एक
छोटी -सी बात
मुझे खटकी हुई
है,
प्रकाश
डालने की
अनुकंपा
करें। अगर हमारी
गलती के बिना
कोई हमें
नुकसान
पहुंचाने आए
तो उस समय
हमें क्या
करना उचित
होगा? क्योंकि
आपका संन्यास
और संसार एक
है। और संसार
में ऐसे कई
बार मौके आते
हैं।
पहली
तो बात : या तो
ज्ञान होता है
या नहीं होता,
खिचड़ी
ज्ञान जैसी
कोई चीज नहीं
होती। वह अज्ञान
को ही छिपाने
का ढंग है।
लोग कहते हैं :
कुछ-कुछ हमें
आता है। कुछ-
कुछ आ ही नहीं
सकता। या तो
पूरा होता है
या नहीं होता।
अभी
कुछ दिन पहले
एक वृद्ध
सज्जन आए, कोई
तीस साल से
संन्यासी
हैं। कहने लगे
: बहुत दिन से
आना चाहता था।
तीस साल तक
हिमालय में
रहा हूं।
कुछ-कुछ जाना,
और आगे बढ़ने
की इच्छा है।
मैंने
उनसे कहा कि
कुछ-कुछ क्या
जाना, वह मुझे
बता दो, क्योंकि
मैंने यह कभी
सुना ही नहीं
है कि परमात्मा
को कोई
थोड़ा-थोड़ा जान
सकता है, कि
अभी एक छंटाक
जाना, फिर दो
छंटाक जाना, कि एक सेर
जान लिया; या
नए मापदंड में
एक किलो जान
लिया।
परमात्मा
जाना जाता है
तो बस पूरा
जाना जाता है,
उसके खंड
नहीं होते।
लेकिन
आदमी का
अहंकार बड़ा
होशियार है।
वह यह नहीं
मानना चाहता
कि मैं
अज्ञानी हूं।
वह कहता है : कुछ-कुछ।
इतनी तो, वह
कहता है, मुझे
सुविधा दो।
मैंने
उनसे कहा अगर
कुछ-कुछ जानते
हो तो जो-जो जाना
वह मुझे बता
दो। उसको अपन
फिर बात न
करें, उसको
छोड़ दें। फिर
आगे की बात
हो।
वे
आख बंद करके
बैठ गए। थोड़ा
सोचा होगा।
बात समझ में
उन्हें पड़ी
होगी।
ईमानदार आदमी
थे। आख खोलकर
कहा कि मुझे
क्षमा करें!
नहीं, कुछ भी
नहीं जाना। ये
तीस साल ऐसे
ही गए।
ज्ञान
की यात्रा में
पहला कदम यही
है कि तुम ठीक
से समझ लो कि
तुम्हें पता
है या नहीं
है। अगर पता
नहीं है तो इस
बात को गहरे
उतर जाने दो
कि मुझे पता
नहीं है। इसी
भाव से कि
मुझे पता नहीं
है,
यात्रा शुरू
हो सकती है।
अगर तुम्हें
थोड़ा भी पता
है कि थोड़ा-
थोड़ा खिचड़ी
ज्ञान है, वह
ज्ञान नहीं
है। वह कचरा
है।
ज्ञान
की खिचड़ी होती
ही नहीं, अज्ञान
की ही खिचड़ी
होती है।
खिचड़ी यानी
अज्ञान। उसको
ज्ञान कहो ही
मत। नहीं तो
तुम उसको बचाकर
रख लोगे। तुम
कहोगे: है; माना
कि खिचड़ी है, मगर है तो!
ज्ञान है, छांट
लेंगे।
गेहूं-गेहूं
अलग कर लेंगे,
दाल-दाल अलग
कर देंगे।
छाटां : जा
सकता है।
नहीं, ज्ञान
है ही नहीं।
ज्ञान, और
खिचड़ी! ज्ञान
के क्षण में
तो सारे
द्वंद्व सारी
अनेकता, सारे
विचार, सब
समाप्त हो
जाते हैं। न
दाल बचती है न
गेहूं। खिचड़ी
बनाओगे किसकी?
दो ही नहीं
बचते, मिलाओगे
किसको?
अच्छा
हुआ,
इतना भी समझ
में आया खिचड़ी
ज्ञान है। यह
भी अच्छा हुआ।
चलो कुछ तो
हुआ। अब एक
कदम और आगे
उठाओ कि खिचड़ी
ज्ञान, ज्ञान
नहीं है। नहीं
तो खतरा है।
मैं तुमसे जो
कह रहा हूं, यह तुम्हारी
खिचड़ी में
पड़ेगा। और यह
भी खराब हो
जाएगा।
तुम्हारी
खिचड़ी जीत
जाएगी।
सदा
ध्यान रखना कि
श्रेष्ठ में
एक तरह की
नाजुकता होती
है। अगर पत्थर
और फूल को
टकरा दोगे तो
फूल मर जाएगा, पत्थर
नहीं मरेगा।
और पत्थर
निकृष्ट है और
फूल श्रेष्ठ
है। श्रेष्ठ
में एक
नाजुकता होती
है। निकृष्ट
में नाजुकता
नहीं होती, कठोरता होती
है। इसलिए
अपने पात्र को
इस खिचड़ी से
खाली कर लो।
तुम
कहते हो: ज्ञान
की खिचड़ी। मैं
कहता हूं : अज्ञान
की खिचड़ी। मगर
इस खिचड़ी से
अपने पात्र को
खाली कर लो, ताकि
मैं तुम्हारे
पात्र में जो
डालना चाहता हूं,
वह
तुम्हारी
खिचड़ी में
संयुक्त न हो
जाए। नहीं तो
वह भी विकृत
हो जाएगा। उस
पर भी रंग चढ़
जाएगा
तुम्हारा। उसको
भी तुम अपनी
भाषा में ढाल
लोगे, अपने
विचार के
अनुकूल बना
लोगे। उसको
तुम अपने
वस्त्र पहना
दोगे और उसका
सारा रूप खो
जाएगा, उसका
सारा सौंदर्य
नष्ट हो जाएगा।
फिर, तुमने
पूछा है कि एक
बात मुझे खटकी
हुई है कि अगर
हमारी गलती के
बिना कोई हमें
नुकसान पहुंचाने
आए
ऐसा
कभी हुआ नहीं।
तुम अपवाद
नहीं हो सकते।
तुम्हारी
गलती के बिना
कोई तुम्हें
नुकसान पहुंचाने
आएगा ही क्यों?
किसको पड़ी है? गलती, हो
सकती है, आज
न की हो, कल
ही हो, परसों
की हो, इस
जन्म में न की
हो, किसी
और जन्म में
की हो, मगर
गलती की होगी।
गलती के बिना
किसको पड़ी है? किसको तुम
में इतना रस
है कि तुम्हें
परेशान करे और
खुद परेशान हो?
एक
आदमी बुद्ध के
ऊपर मूक गया।
बुद्ध ने चादर
से मुंह पोंछ
लिया और उससे
कहा : भाई, कुछ
और कहना है? वह तो हक्का-
बक्का रह गया,
क्योंकि वह
तो सोचता था
झगड़ा- फसाद
होगा, मारपीट
होगी। वह तो
तैयारी करके
आया था, गुंडों
को बाहर
बिठाकर आया था
कि अगर मामला
बिगड़ जाए तो
बुला लूंगा।
मगर
बुद्ध ने कहा :
भाई,
कुछ और कहना
है? उसने
कहा : और तो कुछ
नहीं कहना है।
तो बुद्ध ने
कहा कि
नमस्कार।
बुद्ध
के शिष्य आनंद
ने कहा कि यह
बात क्या है, आपने
कुछ कहा नहीं? बुद्ध ने
कहा कि मैं
इसकी राह
देखता था।
इसका कभी
अपमान किया है
किसी जन्म में,
राह देखता
था। अगर इसका
मिलन न हो पाए
तो फिर मुझे
आना पड़ेगा। आज
यह आ गया अपने-
आप, हिसाब-किताब
पूरा हो गया।
अब इससे आगे
मैं कोई और
व्यवसाय जारी
नहीं रखना
चाहता। इसलिए
मैंने कहा : भाई,
कुछ और कहना
है। नहीं तो
नमस्कार। कुछ
कहना हो कुछ
तो कह दो।
मुझे कुछ नहीं
कहना है। मुझे
इसमें अब आगे
लेन- देन नहीं
करना है। अगर
मैं कोई भी
प्रतिक्रिया
करूं, अच्छी
या बुरी, दोनों
हालत में
संबंध बन
जाएगा।
यही
तुम फर्क समझो।
जीसस ने कहा
है : तुम्हारे
एक गाल पर कोई
चांटा मारे, दूसरा
कर देना।
बुद्ध नहीं
कहते कि एक
गाल पर कोई
चांटा मारे, दूसरा कर
देना। बुद्ध
कहते हैं : एक
गाल पर कोई
चांटा मारे, धन्यवाद दे
देना। दूसरा
गाल मत करना, क्योंकि
दूसरा गाल
करने में तुम
फिर कुछ कर्म कर
रहे हो। अच्छा
ही सही, मगर
अच्छा भी बांध
लेता है- - उतना
ही जितना बुरा
बांधता है।
तुम कुछ करना
ही मत। जो
दूसरा कर रहा
है उसको
चुपचाप
स्वीकार कर लेना।
तुम्हारे किए
का
प्रत्युत्तर
मिल गया, बात
पूरी हो गई, बात समात हो
गयी यह लेन-
देन बंद हुआ।
यह खाता
समाप्त हुआ।
तुम्हारी एक
उपद्रव से
मुक्ति हो गई।
तुम
कहते हो : अगर
हमारी गलती के
बिना...।
ऐसा
तो कभी होता
नहीं। और अगर
कोई तुम्हारी
गलती के बिना...
समझ लो तुम्हारा
मन नहीं मानता, तुम
यही सोचते हो
कि हमारी गलती
के बिना ही कोई
हमें परेशान
कर गया है, तो
अपनी गलती के
लिए वह भोगेगा,
तुम चिंता
में मत पड़ो। तुम
उत्तर देने की
विचारणा में
मत पड़ो, क्योंकि
उत्तर देने
में तुम उलझ
जाओगे, उसके
साथ गुंथ
जाओगे। यही तो
कर्म का जाल
है।
समझो, तुम्हारी
गलती से या
तुम्हारी ना
गलती से... मैं
तो कहता हूं
कि तुम्हारी
गलती के बिना
नहीं हो सकता,
लेकिन
तुम्हें अगर
यह समझ में न आए,
क्योंकि यह
समझने के लिए
बड़ी
अंतर्दृष्टि
चाहिए पड़ेगी,
तुम्हारी
गलती के बिना
ही सही, कोई
गलती कर रहा
है, तुम
परमात्मा पर
छोड़ दो। उसकी
जो मर्जी! तुम
इसे एक
परीक्षा समझो
कि तुम्हें एक
अवसर मिला
शांत होने के
लिए, तुम्हें
एक चुनौती
मिली कि
विपरीत
परिस्थिति में
तुम मौन रख
सकते हो या
नहीं? जब
कोई उद्विग्न
करे, तब
तुम
निरुद्धिग्न
रह सकते हो या
नहीं? जब
कोई गाली दे, तब तुम शांत
रह सकते हो या
नहीं? एक
तुम्हें अवसर
मिला। इस आदमी
को धन्यवाद दो।
इसने तुम्हें
एक अवसर दिया।
इसने गाली दी
या तुम्हें
नुकसान
पहुंचाया और तुम
अछूते रहे।
तुमने कोई
जवाब न दिया।
जैसे कुछ हुआ
ही नहीं।
तुम्हारी
चेतना ऐसे रही,
जैसे कुछ
हुआ ही नहीं।
जैसे यह आदमी
आया ही नहीं, इसने गाली
दी ही नहीं।
जैसे एक सपने
में हुआ या
तुमने एक
फिल्म में देखा
या कहानी पढ़ी।
मगर तुम्हें
इससे कुछ भी
हुआ नहीं। तुम
दूर ही रहे।
तुम साक्षी
रहे।
यह
साक्षी- भाव
ही मुक्ति का
सूत्र है। फिर
तुम्हारी
गलती से हुआ
या न गलती से
हुआ,
कुछ
लेना-देना
नहीं। दोनों
हालत में एक
ही काम करना
है- -साक्षी
रहना है।
''
अगर हमारी
गलती के बिना
कोई हमें
नुकसान पहुंचाने
आए तो उस समय
हमें क्या
करना उचित
होगा? ''
कुछ
भी करोगे तो
अनुचित होगा।
करना मात्र
अनुचित होगा।
साक्षी रहना
ही उचित होगा।
सिर्फ देखते
रहना, जैसे
तुम द्रष्टा
हो; जैसे
यह बात किसी
और के साथ की
जा रही है।
तुम दर्शक
मात्र हो। तुम
इसके भोक्ता
नहीं हो। एक।
यह तो सबसे
ऊंची बात है।
अगर हो सके तो
साक्षी रहना।
अगर यह न हो
सके, क्योंकि
मैं जानता हूं
यह कोई सरल
बात नहीं है
कि तुम साक्षी
रह जाओ। और
अगर साक्षी को
जिंदगी भर
साधोगे, संभालोगे,
तो ही रह
पाओगे। उस दिन
के लिए मत
बैठे रहना कि
जब कोई गाली
देगा तब
साक्षी हो
जाएंगे। उस
दिन फिर तुम न
हो पाओगे। जब
कोई स्तुति कर
रहा हो तब भी
साक्षी होना।
और जब कोई
फूलमालाएं
पहना रहा हो
गले में, तब
भी साक्षी
होना, तभी
गाली देते
वक्त साक्षी
हो पाओगे। जब
खाना खा रहे
होओ, स्नान
कर रहे होओ, तब भी
साक्षी होना।
साक्षी को
रचने देना, पचने देना।
साक्षी को
भीतर
प्रविष्ट
होने देना। तो
ही किसी
दुर्दिन में,
किसी
दुर्घटना में,
किसी ऐसी
घड़ी में, जहां
कि आदमी एक
क्षण में
डांवाडोल हो
जाता है, भूल
जाता है- - बच
सकोगे। वह तो
आखिरी लक्ष्य
है। हो सके, उसके ऊपर
फिर कुछ भी
नहीं।
अगर
यह न हो सके तो
नंबर दो की
बात। नंबर दो
से मुक्त होना
है,
सिर्फ
इसलिए कह रहा
हूं कि शायद
नंबर एक की
बात अभी न हो
सके।
होते-होते
होगी। लेकिन
नंबर दो की
बात अगर करोगे
तो नंबर एक की बात
सधने में
सहारा मिलेगा।
नंबर दो की
बात यह है : पहले
से तय मत करो
कि क्या
करेंगे; उस
घड़ी जो हो जाए
परमात्मा के
ऊपर छोड्कर हो
जाने देना।
पहले से तय
करने में तो
बड़ी गड़बड़ होगी।
वह तो अहंकार
का हिस्सा हो
गया। तुम पहले
से तय करके
बैठे हो कि
कोई गाली देगा
तो हम ऐसा
करेंगे। कोई
अगर ईंट मारेगा
तो हम पत्थर
से जवाब देंगे; या कोई एक
गाल पर चांटा
मारेगा, हम
दूसरा गाल कर
देंगे। दोनों
में तुमने
पहले से
इंतजाम कर
लिया, तुमने
पहले से सोच
लिया। तुम
कर्ता बन गए।
तुमने समय न
आने दिया।
तुमने समय में
सहज स्फुरणा न
होने दी।
आने
दो समय। जब
कोई गाली देगा, तब
सहज स्फुरणा
से जीना। जो
उस क्षण लगे
करने जैसा, वह कर लेना।
और कृत्य को
अपना मत मानना,
उसको
परमात्मा पर छोड़
देना। यही
कृष्ण ने गीता
में अर्जुन को
बारबार कहा कि
फल उस पर छोड़
दे। कर्ता वही
है, ऐसा
जान। तू निमित
मात्र है।
यह
नंबर दो की
बात है। लेकिन
इससे पहली बात
सधने में
सहायता
मिलेगी। अभी
तुम निमित्त
बन जाओ। मात्र
उपकरण।
परमात्मा जो
करवाना चाहे
करवाए। तुम सिर्फ
उसके लिए राजी
रहो। फिर न
पछताना पीछे
लौटकर, न
गौरव करना।
तुम कर्ता ही
नहीं हो, तो
पछताना किसको
है, गौरव
किसको करना है? लौटकर ही मत
देखना? जो
हो गया हो गया।
धीरे- धीरे
निमित्त
बनते-बनते
साक्षी भी बन
जाओगे।
निमित्त
साक्षी बनने
की प्रक्रिया
है, विधि
है।
और
इसलिए मैं
कहता हूं: संसार
से मत भागों।
रहो संसार में।
क्योंकि वही
निमित्त बनने
का उपाय है, निमित्त
बनने की
चुनौती है। और
वही साक्षी
बनने की
संभावना है।
चौथा
प्रश्न :
आप
कहते हैं कि
जो नाचता-गाता
जाता है वही
परमात्मा के
मंदिर में
प्रवेश पाता
है। लेकिन भक्त-संत
तो दर्द और आंसुओ
का अर्ध्य
लेकर वहां
जाने की सलाह
देते हैं। यह
विरोधाभास
स्पष्ट करने
की अनुकंपा
करें।
दर्द
का भी एक गीत
है और आंसुओ
का भी एक
नृत्य है। सच
तो यह है, जैसा
गीत दर्द से
उठता है वैसा
गीत और किसी
स्रोत से नहीं
उठता। और जैसा
नृत्य आंसुओ का
होता है उतना
जीवंत नृत्य
किसी और ऊर्जा
का नहीं होता।
इसलिए
विरोधाभास
नहीं है।
नाचते-गाते
जाओ।
नाचने-गाने
में सब आ गया-
-दर्द भी आ गया, रोना
भी आ गया, आंसू
भी आ गए। जब
मैं कहता हूं
नाचते-गाते
जाओ, तो
मैं यही कह
रहा हूं: आस्था
से भरे हुए
जाओ, मिलन
होगा। मिलन
होना सुनिधित
है। इसमें
रत्ती संदेह
नहीं है। दर्द
तो होता है।
जब तक मिलन
नहीं हुआ तो
दुःख भी होता
है, पीड़ा
भी होती है।
कोई
मेरे दिल से
पूछे तेरे
तीरे नीम-कश
को
यह खलिश
कहां से होती, जो
जिगर के पार
होता
वह
जो तीर लगा है, वह
छिद गया है।
पार भी नहीं
हो गया है, इसलिए
बड़ी खलिश होती
है।
परमात्मा
को पाना है, यह
तीर की तरह चु
भी है बात
हृदय में। जड़ -
बुद्धियों को
पता नहीं चलती,
संवेदनशिल इसको
अनु भव कर
लेते हैं कि
तीर की तरह चु
भी है बात।
विरह का अनु
भव होता है।
हम भटक रहे
हैं, खोज
रहे हैं, प्यासे
हैं, भूखे
हैं, शरण चाहते
हैं, कोई जगह
चाहते हैं
जहां निश्चित
होकर विश्राम
को उपलब्ध हो
जाएं, कोई
आकाश चाहते
हैं जहां हम
लीन हो जाएं।
कोई
मेरे दिल से
पूछे तेरे
तीरे नीम-कश
को
यह
खलिश कहां से
होती जो जिगर
के पार होता
लेकिन, भक्त
भगवान को इस
विरह के लिए
भी धन्यवाद देता
है। कोई मेरे
दिल से पूछे.. .
वह कहता है:
कोई मेरे दिल
से पूछे।
अच्छा ही किया
जो तूने तीर
मारा और दिल
के पार न हुआ, चुभकर रह
गया। नहीं तो
यह खलिश कहां
से होती?
यह विरह-अग्नि
कैसे जलती?
यह प्यास कैसे
उठती? मैं
तेरी खोज पर
कैसे निकलता? खूब किया
तूने कि जलाया,
नहीं तो यह
प्रार्थना
कैसे जनमती? खूब किया कि
तूने तड़फाया,
क्योंकि
इंतजार के भी
मजे हैं। दर्द
से भक्त घबडता
नहीं, दर्द
को गाता है।
इशरते
कतरा है दरिया
में फना हो
जाना
दर्द
का हद से
गुजरना है दवा
हो जाना
वह
जानता है इस
राज को, धीरे-धीरे
अनुभव करने लगता
है कि
जैसे-जैसे
दर्द बढ़ता है
वैसे-वैसे दर्द
की मिठास बढ़ती
है। भक्त का
दर्द बड़ा मीठा
दर्द है। दर्द
ही नहीं है, उसमें बड़ा
रस भरा हुआ
है।
इशरते
कतरा है दरिया
में फना हो
जाना
दर्द
का हद से
गुजरना है दवा
हो जाना
एक
हद के पार जब
पीड़ा पहुंच
जाती है, इतनी
बड़ी हो जाती
है कि उस पीड़ा
में भक्त
बिल्कुल डूब जाता
है, जैसे
बूंद सागर में
गिरकर खो जाए।
मुहब्बत
का एजाज मैं
क्या कहूं
बढ़ा
दर्द, बढ़कर
दवा हो गया
जानोगे
एक दिन कि
पीड़ा एक दिन
पीड़ा से
मुक्ति का
कारण हो जाती
है- -इतनी बढ़
जाती है।
मुहब्बत
का एजाज मैं
क्या कहूं
--प्रेम की
गरिमा कहीं
नहीं जाती, कहना
मुश्किल है।
मुहब्बत
का एजाज मैं
क्या कहूं
बढ़ा
दर्द बढ़कर दवा
हो गया
बढ़ने
दो दर्द! मगर
दर्द गीत है
दर्द गाता हुआ
है,
नाचता हुआ
है। दर्द उदास
नहीं है। पीड़ा
मधुर है, मीठी
है। और फिर यह
जो पीड़ा है, छिपती नहीं।
भक्त के आंसुओ
से निकलेगी।
भक्त के नृत्य
में निकलेगी।
भक्त के गीत
में निकलेगी।
भक्त के मौन
में निकलेगी।
प्रेम
छिपायो ना
छिपे जा घट
परकट होय।
जो
पै मुख बोलै
नहीं नैन देत
हैं रोय।।
शायद
शब्द न भी
कहें तो आंखे
रोकर कह देंगी।
मगर वह भी
कहने का उपाय
है।
तुमने
पूछा : आप कहते
हैं,
जो नाचता-
गाता जाता है
वही परमात्मा
के मंदिर में
प्रवेश पाता
है। लेकिन
भक्त - संत तो
दर्द और आंसुओ
का अर्ध्य
लेकर वहां
जाने की सलाह
देते हैं। एक
ही बात है।
मैंने सीधी -
सीधी तुमसे आंसुओ
और दर्द की
बात नहीं कही,
क्योंकि
उसमें भांति
हो जाने की
संभावना है।
और भांति हुई
है संतों के
वचन से। लोग
समझने लगे कि
परमात्मा की
तरफ जाने का
मतलब बड़े उदास
होकर जाना, मुर्दा होकर
जाना, लाश की
तरह जाना।
रोने-
रोने में फर्क
है। दर्द -
दर्द में भेद
है। एक तो
रोना है जो दु:ख
से निकलता है, विषाद
निकलता है। और
एक रोना है जो
आह्नाद से भी
निकलता है।
लेकिन तुमने
एक ही रोना
जाना है- - दु:ख
का। कोई मर
गया है, तब
तुम रोएं हो।
घर में बच्चा
पैदा हुआ, तब
तुम रोए हो? अगर तुम घर
में बच्चा
पैदा हुआ तब
रोएं हो, तो
तुम मेरी बात
समझ सकोगे। और
जो घर में
बच्चा पैदा
होता है तब
रोता है, उसे
वह दूसरी कला
भी आ जाती है
कि कोई मरे तो
वह हंस भी
सकता है।
मृत्यु
यहां हंसने की
बात है, क्योंकि
मरता कोई कभी
नहीं। मृत्यु
से ज्यादा
झूठी कोई बात
नहीं। जन्म
यहां रोने की
बात है। फिर
जीवन उतरा।
फिर सुबह हुई।
लेकिन रोने
में आह्नाद है,
उत्सव है।
तुम
कभी आनंद के आंसू
रोए हो? तो
फिर मेरी बात
तुम्हें समझ
में आ जाएगी।
तुम्हारा
प्रेमी
तुम्हें मिला
है और आंखें
झर - झर रो उठीं,
जैसे सावन
में बादल बरसे
हों। अगर
वैज्ञानिक के
पास दु:ख के आंसू
और सुख के आंसू
ले जाओगे तो
उसके
रासायनिक
विश्लेषण में
तो एक ही तरह
के होंगे, कुछ
भेद न पड़ेगा।
दोनों में नमक
होगा और बराबर
मात्रा में
होगा। और
दोनों में
पानी होगा और
बराबर मात्रा
में होगा। और
सब दूसरे तत्व
भी बराबर
मात्रा में
होंगे।
वैज्ञानिक
भेद न बता
सकेगा कि कौन-
सा आंसू सुख
में गिरा और
कौन- सा दु:ख
में गिरा। यही
तो बात है
समझने की कि
कुछ ऐसा भी है
जिसको
विज्ञान नहीं
तौल पाता। कुछ
ऐसा भी है जो
विज्ञान के
तराजू के पार
है। कुछ ऐसा
भी है जो
विज्ञान के
विश्लेषण की
पकड़ में नहीं
आता।
और
तुम अनुभव से
जानते हो कि
कभी तुम प्रेम
में भी रोए हो, कभी
तुम क्रोध में
भी रोए हो। और
कभी तुम आनंद
में भी रोए हो।
और कभी तुम दु:ख
में भी रोए हो।
और दोनों तरह
के रोने में
भेद है। एक
में गीत होता
है, एक में सिर्फ
हताशा होती है।
एक नाचता हुआ
होता है। एक
में पक्षाघात
होता है, जैसे
पैरालिसिस लग
गई।
मेरा
जोर-गाने पर
है,
क्योंकि
मैं जानता हूं
: नाचने-गाने
में दुःख अपने
से आ जाएगा, मगर वह
नाचता-गाता
हुआ होगा;
मरघट का नहीं
होगा, मंदिर
का होगा। और आंसू
भी अपने-आप
सम्मिलित हो
जाएंगे, मगर
वे आंसू गीत
की ही तरन्नुम
होंगे, गीत
की ही
लयबद्धता
होंगे, गीत
का ही छंद
होंगे। वे गीत
को ही ताल
देंगे, गीत
के विपरीत
नहीं होंगे।
इसलिए मैंने
तुम से नहीं
कहा कि रोते
हुए जाओ, क्योंकि
मैं जानता हूं
: रोना
तुम्हें पता
है एक तरह का
और तुम उसी को
न समझ लो! उसी
को बहुत लोग
समझकर बैठ गए
हैं। जाओ, मंदिर-मस्जिदों
में बैठे
लोगों को देखो।
बैठे हैं, उदास,
जड़, लाश
की तरह। सब
सूख गया है, मरुस्थल हो
गया है।
नहीं;
यह जीवन जीने
का सही ढंग
नहीं। यह तो
आत्महत्या है-
- धीमी- धीमी
आत्महत्या है।
मैं
आत्महत्या का
विरोधी हूं।
आखिरी
प्रश्न :
मैं
आप से
बहुत-बहुत दूर
चला जाना
चाहता हूं।
लगता है कि
पास रहा तो आप
मिटाकर
रहेंगे।
अब
बहुत देर हो
गयी। अब तो
समय बीत गया
भाग जाने का।
मैंने
सुना है, एक
महिला अपने
जन्म-दिन पर
गीत गा रही थी।
जन्म-दिन था
तो रात देर तक
गाती रही।...
वीणावादिनी
वर दे, वीणावादिनी
वर दे! '' मुल्ला
नसरुद्दीन
उसके पड़ोस में
रहता था। उसके
सुनने के
बर्दाश्त के
बाहर हो गया।
उसने जाकर
दरवाजा
खटखटाया और
कहा : बाई! गाने
से कुछ न होगा,
अखबार में
विज्ञापन दे।
नाराज
था बहुत कि यह
क्या बकवास
लगा रखी है- -वर दे, वर
दे! मगर उस
महिला ने सुना
ही नहीं, वह
अपनी मस्ती
में थी, वह
गाती रही, गाती
रही। दो बज गए,
मुल्ला
करवट बदलता है,
मगर नींद
नहीं आती।
आखिर वह फिर
गया। अब की
बार बहुत जोर
से दरवाजा
खटखटाया और
कहा कि दरवाजा
खोलो। अगर एक
बार और कहा
वीणावादिनी
वर दे, तो
मैं पागल हो
जाऊंगा।
कोई
उठा बिस्तर से, किसी
ने दरवाजा
खोला। वह
महिला खड़ी थी।
उसकी आंखें
नींद से भरी
हुईं। उसने
कहा : क्या कह
रहे हैं आप? नसरुद्दीन
ने कहा : अगर एक
बार और कहा कि
वीणावादिनी
वर दे तो मैं
पागल हो
जाऊंगा। उस
महिला ने कहा :
बहुत देर हो
गयी, मुझे
तो गाना बंद
किए घंटा- भर
हो चुका।
यही
मैं तुमसे
कहता हूं :
बहुत देर हो
गयी। पागल तो
तुम अब हो ही
चुके। अब
भागकर कहां
जाओगे? अब
भागने को कोई
जगह न बची।
प्रेम
जगह छोड़ता ही
नहीं। प्रेम
के लिए स्थान
का अर्थ ही
नहीं होता। अब
तुम जहां
जाओगे मैं
पीछा करूंगा।
अब कोई उपाय
नहीं है। अब
तुम जहां
जाओगे मुझे
अपने से पहले
पहुंचा हुआ
पाओगे। तुम
जाकर बैठ
जाओगे हिमालय
की गुफा में
और तुम मुझे
गुफा में बैठा
हुआ पाओगे।
मेरे शब्द
तुम्हें वहां
सुनाई
पड़ेंगे। मेरी आंखें
वहां तुम्हें
दिखाई
पड़ेंगी। अब
देर हो गयी।
तुम
कहते हो: मैं
आपसे
बहुत-बहुत दूर
चला जाना चाहता
हूं।
बहुत-बहुत
पास ही आ जाओ।
अगर सच में ही
मुझसे मुक्त
होना है तो
बहुत-बहुत पास
आ जाओ, तुम
मुझसे मुक्त
हो जाओगे। वही
उपाय है मुक्त
होने का। गुरु
से मुक्त होने
का एक ही उपाय
है : उसके
इतने पास आ
जाओ कि तुम
उससे गुजर जाओ
और परमात्मा
में प्रवेश हो
जाए।
गुरु
तो द्वार है।
द्वार से
गुजरना होता
है। गुजर गए, फिर
बात समाप्त हो
गयी। दूर-दूर
जाकर तो और याद
आएगी। दूरी से
याद बढ़ती है, घटती नहीं।
दूरी कब याद
को मिटा पायी
है? दूरी
ने सदा याद को
बढ़ाया है।
वैसे
तुम कह ठीक ही
रहे हो कि
लगता है इनकार
नहीं कर सकता।
वही मेरा काम
है तुम हो
सकते हो।
क्या
पसंद है
तुम्हें
भय
या अभय?
लय
दोनों में है
किंतु
मैं तो इन
दिनों
प्रलय
सोच रहा हूं
सो
भी छंद में
स्वर
में,
सुगंध में!
प्रलय!
वही तो गुरु
के पास आने का
अर्थ कि पास
रहा तो आप
मिटाकर
रहेंगे। उससे
मैं यहां। वही
मेरा धंधा है।
तुम्हें
मिटाऊं, तो ही है।
सब नष्ट हो
जाएगा। तुमने
अब तक जैसा अपने
को जाना है, नहीं बचेगा।
तुमने जो अब
तक अपने को
पहचाना है, वह नहीं
बचेगा।
तुम्हारा
सारा
तादात्म्य, तुम्हारा
नाम-पता-ठिकाना
सब खो जाएगा।
लेकिन तभी
तुम्हें पहली
दफे अपना असली
पता चलेगा, अपना असली
ठिकाना याद
आएगा।
तुम
अभी सराय को
घर समझ बैठे
हो। मैं
तुम्हें
तुम्हारा घर
देना चाहता
हूं। लेकिन
तुम्हारी
सराय तो छिनेगी।
तुम
अभी नकली
सिक्कों का
ढेर लगाए, संपदा
समझ रहे हो।
मैं तुम्हें
असली संपदा
देना चाहता
हूं। लेकिन
तुम्हें
कंकड़-पत्थर तो
छोड़ने ही
होंगे, तभी
तुम्हारी
झोली में जगह
होगी कि
हीरे-जवाहरात
भर सको।
तो
हर लगता है, यह
मैं समझता
हूं। और जितने
करीब आओगे
उतना हर
बढ़ेगा। जितना
प्रेम बढ़ेगा
उतना हर
बढ़ेगा। क्योंकि
प्रेम का अर्थ
ही होता है : अंतिम घड़ी
में प्रेम
मृत्यु हो
जाता है। मगर
मृत्यु के बाद
ही
पुनरुज्जीवन
है।
खुदा
जाने क्या
आफतें सर पर
आएं
उन्हें
आज फिर महरबां
देखता हूं
जैस-जैसे
परमात्मा की
कृपा तुम पर
होगी वैसे-वैसे
घबड़ाहट
बढ़ेगी।
खुदा
जाने क्या
आफतें सर पर
आएं
उन्हें
आज फिर महरबां
देखता हूं
आदमी
डरता है प्रेम
से,
सदा से डरता
रहा है। इसलिए
तो पृथ्वी
प्रेम-शुन्य
हो गई है।
इसलिए तो गुरु
और शिष्य खो
गए हैं, नाम
ही रह गए हैं, शब्द ही रह
गए हैं।
गुरुओं की जगह
अध्यापक बचे
हैं, शिष्यों
की जगह
विद्यार्थी।
विद्यार्थी
और अध्यापक
में कोई
मृत्यु नहीं
घटती, कोई
प्रेम नहीं
घटता--लेन--देन
की बात है।
विद्यार्थी
गुरु से कुछ
खरीद लेता है,
गुरु को कुछ
दे देता है।
बात खत्म हो
गयी। प्राणों
का
आदान-प्रदान नहीं
हो पाता।
ए
दिल न छेड़
किस्सए-फुर्सुदी
इश्क का
उलझा
न अहले बज्म
को इस खार जार
में
लोग
डरने लगे हैं।
लोग समझते हैं
कि यह कांटा है
प्रेम।
कांटों की
झाड़ी है, इसमें
उलझ गए तो
निकल न
पाएंगे। लोग
बचकर चलते
हैं। साधारण
प्रेम भी बहुत
उलझा लेता है,
तो असाधारण
प्रेम का तो
कहना ही क्या!
जब
तुम्हारे मन
में यह भाव
उठा है कि अब
भाग जाऊं, उसका
मतलब ही यह है
कि अब भागने
का समय निकल
गया। यह भाव
ही तब उठता है
जब समय निकल
जाता है। यह
समझ ही तब आती
है जब उपाय
नहीं रह जाता।
जब खतरा इतना
हो जाता है
तभी तो यह
खयाल आता है
कि अब भाग
जाऊं। लेकिन
तब भागकर कहां
जाओगे?
प्रेम
समय और स्थान
की दूरी नहीं
जानता। प्रेम
में समय और
स्थान दोनों
मिट जाते हैं।
प्रेम की
निकटता
शारीरिक
निकटता नहीं
है। अगर शारीरिक
निकटता ही
होती तो तुम
दूर जा सकते
हो,
मगर प्रेम
की निकटता तो
आत्मिक
निकटता है, इसलिए कैसे
दूर जाओगे? न तो पास
बैठने से कोई
पास बैठता है,
न दूर जाने
से कोई दूर
जाता है।
प्रेम की निकटता
आत्मीय संबंध
है।
तुम्हारे
मन में भय उठा
है,
स्वाभाविक।
तुम भाग भी
जाओ, तुम
कसम भी खा लो
कि मेरी याद न
करोगे, तुम
कसम भी खा लो
कि अब कभी
लौटकर यहां न
आओगे, मगर
ये कसमें काम
न आएंगी। ये
कसमें टूट
जाएंगी। और
तुम न आए तो
कोई हर्ज नहीं,
मैंने तो
कसम नहीं खाई
है। मैं तो आ
ही सकता हूं।
इस
इंतहाए—तर्के-मुहब्बत
के बावजूद
हमने
लिया है नाम
तुम्हारा
कभी-कभी
छोड़
भी दोगे, कसम
खा लोगे कि अब
नहीं नाम
लेंगे, मगर
फिर भी यह नाम
आ जाएगा। फिर
भी यह याद आ
जाएगी। यह याद
बस गयी अब।
इसने
तुम्हारे
भीतर घर कर
लिया। यह घर
जब कर लेती है
तभी भागने का
सवाल उठता है।
मगर तब तक सदा
देर हो गयी होती
है।
मैं
तेरे गम से
बहुत दूर चली
जाऊंगी
--किसी
प्रेयसी ने
गाया है--
मैं
तेरे गम से
बहुत दूर चली
जाऊंगी
तुझको
इक यास का
उनवान बना
जाऊंगी
नूर
में डूबी हुई
चांदनी रातों
की कसम
शबनमी
भीगी हुई
सावनी रातों
की कसम
बर्फ-सी
सहमी हुई
सुर्मयी रातों
की कसम
जगमगाते
हुए तारों की
बरातों की कसम
मैं
तेरे गम से
बहुत दूर चली
जाऊंगी
तुझको
इक यास का
उनवान बना
जाऊंगी
सर्द
रातों में
चमकते हुए
तारों की कसम
फूल
बरसाती हुई
मस्त बहारों
की कसम
सुबहे-बेदार
के शादाब
नजारों की कसम
रोदे
बानास के
सरसब्ज किनारों
की कसम
मैं
तेरे गम से
बहुत दूर चली
जाऊंगी
तुझको
इक यास की
उनवान बना
जाऊंगी
जल्वए-हुस्न
की हर
शाने-जमाली की
कसम
इश्क
में जब्त की
आदाते-मिसाली
की कसम
बेनियाजी
के हर
अंदाजे-जमाली
की कसम
अर्शे-आजम
के फसूं साज
कमाली की कसम
मैं
तेरे गम से
बहुत दूर चली
जाऊंगी
तुझको
इक यास का
उनवान बना
जाऊंगी
लेकिन
प्रेयसी शायद
दूर जा भी सके, क्योंकि
वे नाते शरीर
के हैं।
यद्यपि
प्रेयसी भी
दूर नहीं जा
पाती, प्रेमी
भी दूर नहीं
जा पाते।
प्रेमी कितने
ही दूर हो
जाएं, उनके
हृदय पास ही
धड़कते रहते
हैं। लेकिन
फिर भी
शारीरिक
प्रेम में तो
यह संभव है कि
कोई दूर चला
जाए, कसमें
खा ले, दूर
हट जाए, प्रेम
का खतरा देखे
और अपने को
बचा ले;
लेकिन आत्मिक
प्रेम में तो
यह संभव ही
नहीं।
तुम्हारा
मेरी देह से
थोड़े ही नाता
है। मेरा
तुम्हारी देह
से थोड़े ही
नाता है। यह
नाता किसी और
लोक का है। यह
नाता किसी
दूसरे ही जगत्
का है। जब एक
बार बन जाता
है तो बन गया।
जिंदगी में भी
यह नाता रहेगा, मौत
में भी यह
नाता रहेगा।
तुम शरीर भी
छोड्कर चले
जाओगे, तो
भी यह नाता
टूटनेवाला
नहीं।
इसलिए
अब दूर जाने
की बजाय, दूर
जाने में
जितनी शक्ति
लगाओगे, अच्छा
होगा पास आने
में ही लगाओ न!
पास ही आ जाओ! इतने
पास आ जाओ कि
दो-पन न रह जाए,
दुई न रह
जाए।
और
एक बार भी
तुम्हारे
जीवन में किसी
के साथ भी
इतनी
आत्मीयता की
प्रतीति हो
जाए कि दुई
मिट जाए, तो
परमात्मा की
पहली झलक
तुम्हारे
जीवन में आ
गयी। क्योंकि
परमात्मा दो
के पार है। एक
झरोखा खुला।
मुझे
एक झरोखा बना
लो।
आज इतना
ही।
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