दिनांक
12 नवंबर 1970,
क्रास
मैदान, बंबई
प्रश्नोत्तर
:
आचार्य
श्री, आप
बहुत बार कहते
हैं कि भौतिक
संपन्नता
आध्यात्मिक
विकास का आधार
है; लेकिन
अपरिग्रह पर
हुए पिछले
प्रवचन में
आपने कहा कि
कम चीजें हों
तो व्यक्ति कम
गुलाम होता है,
और चीजें
अधिक हों तो
व्यक्ति अधिक
गुलाम हो जाता
है। कृपया
संपन्नता व
अपरिग्रह के
इस मौलिक
विरोधाभास को
स्पष्ट करें,
और साथ ही
समझायें कि
अधिक चीजें
व्यक्ति को अधिक
गुलाम कैसे
बनाती हैं? और पजेसर
कैसे पजेस्ड
हो जाता है?
संपन्नता
आध्यात्मिक
जीवन का आधार
है, लेकिन
आधार से ही
कोई भवन
निर्मित नहीं
हो जाता। आधार
भी हो, और
भवन न उठाया
जाये, यह
हो सकता है।
भवन तो बिना
आधार के कभी
नहीं होता, लेकिन आधार
बिना भवन के
हो सकते हैं।
कोई नींव को
भरकर ही छोड़
दे तो भवन तो
नहीं उठेगा, पर आधार
जरूर होंगे।
लेकिन भवन हो
तो बिना आधार
के नहीं होता
है।
संपन्नता
वीतरागता
का आधार है।
संपन्न हुए
बिना कभी कोई
नहीं जान पाता
कि संपन्नता
व्यर्थ है। धन
पाए बिना कभी
कोई नहीं जान
पाता कि धन से
कुछ भी नहीं
मिलता है। धन
की जो सबसे
बड़ी देन है, वह धन नहीं
है। धन की
सबसे बड़ी देन,
धन के भ्रम
का टूट जाना
है, डिसइल्यूजनमेंट है। धन न
मिले, तो
धन की
व्यर्थता का
कभी भी पता
नहीं चलता। विपन्न,
दीन, दरिद्र,
धन से मुक्त
होने में बड़ी
कठिनाई
पायेगा। जो है
ही नहीं, उससे
मुक्त हुआ भी
कैसे जा सकता
है? मुक्त
होने के लिए
होना भी
चाहिए। और जो
हमें मिल जाता
है, केवल
उसी से हम
मुक्त हो सकते
हैं।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं कि
संपन्न समाज
ही धार्मिक हो
पाता है, संपन्नता
ही व्यक्ति को
धन के ऊपर, अतिक्रमण
में ले जाती
है।
लेकिन
पिछली
अपरिग्रह की
चर्चा में जब
मैंने यह कहा
कि थोड़ी चीजें
कम बांधती
हैं, ज्यादा
चीजें ज्यादा
बांध लेती हैं,
तो हो सकता
है--जैसा कि
प्रश्न में
पूछा गया है--अनेक
मित्रों को
लगा हो कि इन
दोनों में कोई
विरोधाभास
है।
विरोधाभास
नहीं है। कम
गुलामी से
छूटना बहुत
मुश्किल है, ज्यादा
गुलामी से
छूटना ही संभव
हो पाता है। जंजीरें
बहुत कम हों
तो आदमी सह
लेता है; जंजीरें
बहुत ज्यादा
हों, तो
बगावत हो जाती
है। गरीब आदमी
की जंजीरें इतनी
कम होती हैं
कि उनको तोड़ने
का खयाल भी
पैदा नहीं
होता। अमीर
आदमी की
जंजीरें बढ़
जाती हैं, तो
तोड़ने का
ख्याल भी पैदा
होता है।
इन
दोनों बातों
में कोई विरोध
नहीं है।
वस्तुओं के बढ़
जाने पर ही
पता चलता है
कि मैंने
व्यर्थ का बोझ
इकट्ठा कर
लिया है। और
ऐसा बोझ, जो
मैंने सोचा था
कि मुझे
मुक्ति देगा;
पर मुक्ति
उससे नहीं
मिली, सिर्फ
मैं दब गया।
ऐसा बोझ, जिससे
मैंने सोचा था
कि कोई उड़ान
भर सकूंगा; उड़ान नहीं हुई, केवल मेरे
पैर चलने में
असमर्थ हो गए।
अधिक
गुलामी
स्वतंत्रता
के निकट
पहुंचा देती
है। और जैसे
सुबह होने के
पहले अंधेरा
बढ़ जाता है, वैसे ही
स्वतंत्रता
की संभावना के
पहले दासता बढ़
जाती है।
संपन्न
व्यक्ति गहरी
गुलामी में है,
इसलिए
गुलामी का बोध
भी होता है।
छोटी-मोटी गुलामी
के लिए हम एडजेस्ट
हो जाते हैं, समायोजित हो
जाते हैं।
छोटी-मोटी
गुलामी को हम
पी लेते हैं
और सह लेते
हैं। पर जितनी
बड़ी गुलामी हो,
उतना ही
सहना मुश्किल
होता चला जाता
है। और छोटी
गुलामी को हम
इस आशा में भी
सह लेते हैं
कि शायद कल
गुलामी कम हो
जाये।
तो
गरीब के पास
जो भी कुछ है, उसे छोड़ने
का खयाल उसे
पैदा नहीं
होता; क्योंकि
उसकी जिंदगी
में तो जो
नहीं है, उसको
पाने की दौड़
जारी रहती है।
अमीर आदमी के पास
वह सब हो जाता
है जिसे पाने
की दौड़ थी, और
अब पाने को
कुछ भी नहीं
रह जाता, फिर
भी वह पाता है
कि पाया कुछ
भी नहीं गया
है। पाने को
कुछ शेष नहीं
रहा, और
पाया कुछ भी
नहीं गया है, बाहर सब
इकट्ठा हो गया
और भीतर पूरी
रिक्तता खड़ी
है। ये क्षण
ही संपन्न
आदमी के जीवन
में आध्यात्मिक
जीवन की
शुरुआत करते
हैं। यह उसकी
पहली किरण है।
लेकिन
मैं ऐसा नहीं
कहता हूं कि
सभी संपन्न आदमी
इस क्रांति को
उपलब्ध हो
जाते हैं।
अधिकतर
संपन्न आदमी
सिर्फ आधार
बनाकर ही रह
जाते हैं।
उनके जीवन में
क्रांति का
भवन कभी
निर्मित नहीं
हो पाता।
लेकिन उसके भी
कारण हैं। और
ऐसा भी नहीं
है कि गरीब
आदमी कभी
आध्यात्मिक
नहीं हो पाता।
गरीब आदमी भी
आध्यात्मिक
हो जाता है।
लेकिन उसके भी
कारण हैं।
पहली
बात तो यह ठीक
से स्मरण में
ले लेनी चाहिए
कि अनुभव के
अतिरिक्त और
कोई ज्ञान
नहीं है।
अनुभव ही
ज्ञान है। धन
का अनुभव ही
धन से मुक्ति
लाता है। और
अगर एक
व्यक्ति इस
जीवन में अपनी
गरीबी में भी
आध्यात्मिक
हो गया है, तो उसके
किसी न किसी
जन्म की
यात्रा में धन
के अनुभव का
कारण मौजूद
होगा ही।
अन्यथा अनुभव
के बिना ज्ञान
नहीं है। धन
के अनुभव के
बिना धन से
कोई मुक्त
नहीं हो सकता।
जिसे हमने
जाना नहीं, वह व्यर्थ
है, इसे भी
हम कैसे जान
सकेंगे? जिस
दुख को हमने
पाया नहीं, वह छोड़ने
योग्य है, इस
निष्कर्ष पर
भी हम कैसे
पहुंच सकेंगे?
जो अपरिचित
है, वह
शत्रु है, इसकी
पहचान की भी
तो कोई
संभावना नहीं
है।
शत्रु
को भी पहचानना
हो, तो
परिचित हो
जाना जरूरी
है। और गलत को
भी जानना हो, तो गलत से
गुजरना पड़ता
है। और राह के गङ्ढे
उन्हीं को पता
होते हैं, जो
राह के गङ्ढों
में गिरते हैं
और भटकते हैं।
इसके
अतिरिक्त
जीवन में कोई
उपाय भी नहीं
है।
हां, यह हो सकता
है--जिसे हम
जीवन कहते हैं,
वह बहुत
छोटा है, पर
जीवन की
यात्रा बहुत
लंबी है--एक
आदमी अपने पिछले
जन्मों में धन
के अनुभव से
इतना सेचुरेट,
इतना पूरा
हो चुका हो कि
इस जन्म में
गरीबी से भी उसकी
अध्यात्म में
छलांग संभव हो
जाये। अन्यथा
और कोई कारण
नहीं हो सकता।
और अगर इस
जन्म में भी
कोई आदमी धन
को पूरी तरह
पाकर भी दीन
और दरिद्र बना
रहता है, धन
को पूरी तरह
पाकर भी धन से
मुक्त नहीं
होता, तो
मैं कहना
चाहूंगा कि जो
धन से मुक्त
होता है, उसी
ने धन को पूरी
तरह पाया है, इसका प्रमाण
देता है।
धनी
वही है, जो
धन को छोड़
पाता है। अगर
नहीं छोड़ पाता
है, तो
उसके भीतर दीन
और दरिद्र
बैठा हुआ है।
अगर इस जन्म
में कोई पूरी
तरह धन को
पाकर भी धर्म
की प्यास को
जगाने में
असमर्थ है, तो इसका एक
ही अर्थ है कि
उसके बहुत से
पिछले जन्म
इतनी दीनता और
दरिद्रता में
कटे हैं कि
इतना धन भी
उसकी दीनता के
अनुभव को नहीं
काट पा रहा
है। उसके भीतर
की दरिद्रता
खड़ी ही रह गई
है। वह अभी भी
भीतर दरिद्र
है। धन का अनुभव
अभी नया है।
अभी वह अनुभव
ज्ञान नहीं बन
पाया है।
बहुत
बार अनुभव से
गुजरने पर
ज्ञान बनता
है। ज्ञान
बहुत से
अनुभवों का सार-संक्षिप्त
है। ज्ञान
बहुत से अनुभव
के फूलों का
इत्र है। इस
आदमी के लिए
धन का अनुभव
पहला है। अभी
धन का अनुभव
उसका ज्ञान
नहीं बन पाया है।
जैसे ही धन का
अनुभव ज्ञान
बनता है, वैसे
ही व्यक्ति धन
से मुक्त होने
लगता है।
मेरी
दोनों बातें
एक ही अर्थ
रखती हैं, उनमें कोई
विरोध नहीं
है।
ऐसे ही
मैं निरंतर
कहता हूं कि
जिसने कभी
शास्त्र नहीं
जाने, वह
कभी शास्त्र
से मुक्त न हो
सकेगा। जिसने
शास्त्रों को
जाना, वह
शास्त्रों से
मुक्त हो जाता
है।
ऐसे ही
मैं कहता हूं
कि जिसने
क्रोध नहीं
जाना, वह
क्रोध से
मुक्त न हो
सकेगा। लेकिन
जिसने क्रोध
की पूरी पीड़ा
और अग्नि जानी
है, वह
क्रोध से
मुक्त हो जाता
है।
ऐसे ही
मैं कहता हूं
कि जिसने काम
नहीं जाना, वासना नहीं
जानी, वह
कभी काम-
वासना से
मुक्त न हो
सकेगा। जो कामवासना
को जान जाता
है, वह
उसकी परिधि के
बाहर हो जाता
है।
अनुभव
मुक्ति है
क्योंकि
अनुभव ज्ञान
है। धन का
अनुभव ही धन
के बाहर ले
जाता है।
आचार्य
श्री, इसी
संदर्भ में
विरोधाभास पर
प्रश्न कर रहा
हूं। आप
निरंतर कहते
हैं और अभी
आपने कहा है
कि भोग की
पूरी
गहराइयों में
उतर कर ही
व्यक्ति कामना
और वासनाओं का
अतिक्रमण कर
पाता है, उनसे
मुक्त हो जाता
है, लेकिन
अपरिग्रह के
पिछले प्रवचन
में आपने कहा
था कि वासनाएं,
कामनाएं
वृत्ताकार
हैं, सर्कुलर
हैं, वे
कहीं भी
तृप्ति नहीं बनतीं।
कृपया इस
विरोधाभास को
स्पष्ट करें।
वासनाओं
के अनुभव से
ही व्यक्ति वासनाओं
से मुक्त होता
है; क्योंकि
अनुभव के
अतिरिक्त कोई
मार्ग ही मुक्ति
का नहीं है।
संसार ही
द्वार है
मोक्ष का; और
नर्क ही द्वार
है स्वर्ग का;
और कारागृह
ही द्वार है
मुक्ति का।
जितनी पीड़ा
अनुभव होती है
संसार में, वही पीड़ा
संसार के पार
ले जाने के
लिए मार्ग बन
जाती है--ऐसा
मैं निरंतर
कहता हूं। यह
भी मैंने कहा
कि वृत्तियां
कभी तृप्त
नहीं होती हैं।
वे
वर्तुलाकार
हैं; सर्कुलर
हैं। उनमें
दौड़ते जाइए, कहीं अंत
नहीं आता।
कितना भी दौड़िए,
आगे रेखा
सदा शेष रह
जाती है। और
भी दौड़िए--रेखा
शेष रह जाती
है। जैसे कोई
व्यक्ति गोल
घेरे में दौड़े
तो गोल घेरा
कहीं समाप्त
नहीं होता, वैसे ही
वृत्तियां
कहीं समाप्त
नहीं होतीं; कोई वृत्ति
कभी पूरी तरह
तृप्त नहीं
होती। लेकिन
दूसरी तरफ मैं
कहता हूं कि
वृत्ति के
गहरे अनुभव से
ही व्यक्ति
मुक्त होता
है। ये दोनों
बातें विरोधी
दिखायी पड़ती
हैं--विरोधी
हैं नहीं।
व्यक्ति
तृप्त नहीं
होता गहरे
अनुभव से, गहरे अनुभव
से मुक्त होता
है। तृप्त हो
जाये, तब
तो मुक्ति की
कोई जरूरत ही
नहीं है।
तृप्त नहीं
होता है--यही
तो मुक्ति में
ले जाने का कारण
बनता है। हजार
बार दौड़ चुका
है एक ही गोल
घेरे
में--पाता है, वहीं-वहीं दौड़ता है; कोल्हू के
बैल की तरह दौड़ता
है, पर
तृप्ति नहीं
होती।
यह
अनुभव ही
वृत्ति का
गहरा अनुभव है
कि दौड़ता
हूं बहुत, खोजता हूं
बहुत, पा
भी लेता हूं, फिर भी खाली
हाथ रह जाता
हूं। और एक
बार नहीं, अनेक
बार इस अनुभव
की गहराई में
जो उतर जाता है,
ऐसा नहीं है
कि उसकी
वृत्ति तृप्त
हो जाती है, बल्कि ऐसा
कि वह दौड़ना
बंद करके खड़ा
हो जाता है।
क्योंकि वह
कहता है कि
बहुत दौड़ चुका
इसी राह पर, कहीं कभी
पहुंचा नहीं
हूं; वहीं-वहीं
वर्तुलाकार
दौड़ रहा हूं, कहीं
पहुंचता नहीं
हूं। यह अनुभव
की गहराई है।
और अगर उसे
लगता है कि दो
कदम और दौड़
लूं, तो
शायद पहुंच
जाऊं, तो
समझिए कि अभी
अनुभव उसका
इतना गहरा
नहीं हुआ कि
दौड़ने से
मुक्ति हो
जाये। अगर वह
कहे कि एक
चक्कर और लगा
लूं, शायद
अब तक जो नहीं
मिला, अब
मिल जाये, तो
समझना कि अभी
भी उसका अनुभव
पूरा नहीं हुआ
है।
अनुभव
के पूरे होने
का अर्थ, वृत्ति
का तृप्त हो
जाना नहीं।
अनुभव के पूरे
होने का अर्थ,
दौड़ का
तृप्त हो जाना
है। अब दौड़
नहीं रही। जाना
बहुत बार है, दौड़े बहुत
बार हैं, लेकिन
पहुंचे कहीं
भी नहीं। अब
वह आदमी खड़ा
हो जाता है।
अब आप उससे
कितना ही कहें
कि एक कदम पर
सोने की खदान
है, तो वह
कहता है, मैंने
हजार कदम चलकर
देख लिया, सोने
की खदान सिर्फ
दिखायी पड़ती
है, है
नहीं। आप
कितना ही कहें
कि जरा आगे बढ़ो
और सब मिल
जायेगा जो
चाहा है, तो
वह आदमी कहता
है, जो-जो
मैंने चाहा, वह-वह मैंने
कभी नहीं
पाया। अब मैं
इतना जान गया
हूं कि चाहना,
पाने का
मार्ग नहीं
है।
यह
अनुभव की
गहराई है। वह
यह कहता है कि
मैं दौड़ा
बहुत, पर
मंजिल नहीं
मिली। आप कहें
कि जरा तेजी
से दौड़ो
तो मंजिल मिल
सकती है, वह
आदमी कहता है,
मैंने बहुत
तेजी से दौड़
कर भी देख
लिया, मैंने
हांफ कर देख
लिया, अब
मैं
पसीने-पसीने
हो गया हूं; जन्मों से
दौड़ रहा हूं; अब मैं एक
बात जान गया
हूं कि मंजिल दौड़कर
नहीं मिलती।
अब मैं खड़े
होकर मंजिल
पाने की कोशिश
और कर लेता
हूं।
चाह से
मुक्ति, चाह
की तृप्ति
नहीं है। चाह
से मुक्ति, चाह का टोटल,
चाह का
संपूर्ण रूप
से व्यर्थ हो
जाना है। संपूर्ण
रूप से व्यर्थ
हो जाना, मैं
कह रहा हूं।
अगर आंशिक रूप
से चाह व्यर्थ
हुई है, तो
नई चाह पकड़
लेगी।
संपूर्ण रूप
से चाह व्यर्थ
हो गई है, तो
फिर चाह नहीं
पकड़ सकेगी।
ऐसी जो
चित्त की दशा
है--जहां चाह
ही व्यर्थ हो गई
है--यह फ्रस्ट्रेशन
की दशा नहीं
है, यह
अतृप्ति की
दशा नहीं है।
क्योंकि जहां फ्रस्टे्रशन
है, वहां
अभी चाह
व्यर्थ है यह
पता नहीं चला।
फ्रस्ट्रेशन
का मतलब है, विषाद का
मतलब है, एक
चाह पूरी करनी
चाही थी, वह
पूरी नहीं हुई;
लेकिन आशा
मन में अभी है
कि वह पूरी हो
सकती थी। सफल
मैंने होना
चाहा था, असफल
हुआ; लेकिन
आशा मन में है
कि और कुछ
उपाय किए जाते,
तो सफल हो
सकता था।
वही
आदमी विषाद को, चित्त के
दुख को, फ्रस्ट्रेशन को उपलब्ध
होता है, जिसकी
आशा नहीं मरती
सिर्फ असफलता
आती है। लेकिन
जिसकी असफलता
ही नहीं, आशा
भी मर जाती है,
वह अब विषाद
को उपलब्ध
नहीं होता। वह
अचाह को, डिजायरलेसनेस
को उपलब्ध हो
जाता है। वह
खड़ा हो जाता
है। वह कहता
है, दौड़ना
व्यर्थ है। दौड़कर
बहुत खोजा, अब खड़े होकर
पा लूं।
और मजे
की बात है कि
जो दौड़कर
कभी नहीं मिला, वह खड़े होते
ही मिल जाता
है। क्योंकि
जिसे हम खोज
रहे हैं, वह
हमारे भीतर है;
क्योंकि
जिसे हम खोज
रहे हैं, वह
हमारे साथ है;
जिसे हम खोज
रहे हैं, वह
हमें सदा से
ही मिला हुआ
है।
इसलिए
जितना दौड़ते
हैं, उतना ही
उससे चूक जाते
हैं, जो कि
मिला ही हुआ
है।
अपने
घर में देखने
के लिए बाहर
दौड़ना बंद
करना पड़ेगा।
अपने भीतर
देखने के लिए
बाहर की यात्रा
छोड़नी
पड़ेगी। जो
निकट है, उसे
देखने के लिए
दूर से आंख लौटानी
पड़ेगी। जो हाथ
में है, उसे
खोजने के लिए,
दूसरे की
मुट्ठियों को
खोलना बंद
करना पड़ेगा।
अनुभव
की गहराई, वासना की
तृप्ति का नाम
नहीं है। अगर
वासना ही
तृप्त हो सकती,
तब तो
महावीर नासमझ
हैं। अगर
वासना तृप्त
हो सकती, तो
बुद्ध पागल
हैं। अगर
वासना तृप्त
हो सकती, तो
जीसस की
मनस-चिकित्सा
होनी चाहिए, साइकोएनालिसिस होनी
चाहिए। वासना
तृप्त नहीं हो
सकती है। बुद्ध
ने कहा है, कामना
दुष्पूर
है। वह कभी
पूरी नहीं हो
सकती। लेकिन
यह अनुभव
वासना के बाहर
ले जाता है।
और जो वासना
से नहीं मिला
था वह
निर्वासना
में मिल जाता
है।
अनुभव
की पूर्णता, वृत्ति की
वासना की
पूर्ण विफलता
का नाम है। और
तब अपरिग्रह
का फूल खिलता
है। जिसकी
वृत्तियां
गिर गईं, जिसकी
चाहें गिर गईं,
उसके भीतर
अपरिग्रह का
फूल खिलता है।
तब वह दौड़ता
नहीं, ठहर
जाता है; खड़ा
हो जाता है।
तब मंजिल दूर
नहीं होती, पैरों के
नीचे हो जाती
है। तब पाने
को कुछ बाहर
नहीं होता, तब पाने
वाला ही अपने
पाने का अंतिम,
अपनी दौड़ का
अंतिम लक्ष्य
बन जाता है।
पानेवाला ही,
खोजनेवाला ही खोज हो
जाता है। द
सीकर बिकम्स
द सीकिंग, द
सीकर बिकम्स
द साट।
वह
भीतर जो खोज
रहा है, वह
पाता है कि
मैं अपने को
ही खोज रहा
था। लेकिन
शायद दर्पणों
में खोज रहा
था। बहुत
दर्पणों में
खोजा, नहीं
मिला। अब वह
दर्पणों को
छोड़कर अपने को
देखता है; और
पाता है कि
दर्पण में मैं
कभी मिल भी
नहीं सकता था।
क्योंकि
दर्पण में
सिर्फ रिफ्लेक्शन
था; दर्पण
में मैं ही
प्रतिबिंबित
हो रहा था; दर्पण
में कोई था
नहीं सिर्फ
भ्रम था, एक
वर्चुअल
स्पेस का, एक
झूठे आकाश का
भ्रम था।
दर्पण में जो
दिखायी पड़ा था,
वह कहीं था
नहीं, दर्पण
में कहीं भी न
था। और अगर था
तो दर्पण के बाहर
था। लेकिन अगर
दर्पण में ही
कोई खोजने निकल
पड़े...!
हम सब
दर्पण में खोज
रहे हैं--जब तक
हम वासना में
खोज रहे हैं।
जिस दिन बहुत
दर्पणों को तोड़कर, और सिर को तोड़कर,
दर्पणों से टकराकर, लहूलुहान
होकर, एक
दिन आदमी
दर्पण की तरफ
पीठ फेर कर
खड़ा हो जाता
है, और
कहता है:
दर्पणों में
बहुत खोज चुका,
अब दर्पणों
में नहीं खोजूंगा,
उसी दिन उसे
पता चलता है
कि जिसे वह
खोज रहा था, वह उसका ही
प्रतिबिंब
था।
वासनाओं
के दर्पण में
हमने अपने ही
चेहरे पकड़े
हुए हैं।
वासनाओं के
दर्पण में हम
अपने को ही खोज
रहे हैं।
प्रत्येक
व्यक्ति
स्वयं को खोज रहा
है। लेकिन
वहां खोज रहा
है, जहां
प्रतिफलन है,
रिफ्लेक्शन है। वहां
नहीं, जहां
सत्य है। सत्य
यहां है--खोज
रहा है वहां। सत्य
अभी है--खोज
रहा है कभी।
सत्य प्रतिपल
है--खोज रहा है
भविष्य में।
सत्य भीतर
है--खोज रहा है
बाहर। इस
प्रतीति का हो
जाना अनुभव की
गहराई है।
वासनाएं
वृत्ताकार
हैं, वे कभी
पूरी नहीं
होतीं; लेकिन
दौड़ने वाला
दौड़-दौड़ कर
अनुभव को
उपलब्ध हो
जाता है; और
खड़ा हो जाता
है। वृत्त को
छोड़ देता है।
वृत्ताकार, सर्कुलर, वासनाओं से
हटकर खड़ा हो
जाता है।
और जिस
दिन कोई
व्यक्ति अचाह
में, डिजायरलेसनेस
में खड़ा हो
जाता है, उस
दिन उसको पाने
को कुछ शेष नहीं
रह जाता। वह
सभी कुछ पा
लेता है।
आचार्य
श्री, पहले
प्रश्न में एक
चीज और समझनी
है कि वस्तुएं,
पजेशंस,
अपने मालिक
को, पजेसर को कैसे
सम्मोहित, पजेस्ड कर लेती हैं?
इसके क्या
कारण हैं?
मालिक
बनने की
आकांक्षा में
ही गुलामी के
बीज छिपे हैं; क्योंकि
जिसके हम
मालिक बनेंगे,
उसका हमें
अनजाने में
गुलाम भी बन
जाना पड़ता है।
गुलाम इसलिए
बन जाना पड़ता
है, क्योंकि
जिसके हम
मालिक बनते
हैं, हमारी
मालकियत उस पर
निर्भर हो
जाती है। उसके
बिना हमारी
मालकियत नहीं
हो सकती। और
जब मालकियत
किसी पर
निर्भर होती
है तो हम अपनी
मालकियत के
मालिक कैसे हो
सकते हैं? मालिक
तो वह हो गया, जिस पर वह
निर्भर है।
अगर दस
गुलाम मेरे
पास हैं, तो
मैं दस
गुलामों का
मालिक हूं; लेकिन मेरी
मालकियत दस
गुलामों के
होने पर निर्भर
है। अगर ये दस
गुलाम खो
जायें, तो
मेरी मालकियत
भी खो जायेगी,
उनके साथ ही
खो जायेगी। उस
मालकियत की
कुंजी मेरे
पास नहीं है, इन दस
गुलामों के
पास है। ये दस
गुलाम बहुत गहरे
में मेरे
मालिक हो गये
हैं, क्योंकि
इनके बिना मैं
मालिक न हो
सकूंगा। और जिनके
बिना हम मालिक
न हो सकें, उनके
हम मालिक कैसे
हो सकते हैं? जिनके बिना
हमारी
मालकियत गिर
जायेगी, जाने-अनजाने
उनके हम गुलाम
हो गए! हम उनसे
बंध गए!
और मजे
की बात यह है
कि गुलाम तो
मुक्त भी होना
चाहेगा; क्योंकि
गुलामी में
कोई रहना नहीं
चाहता। इसलिए
अगर मालिक मर
जाये, तो
गुलाम
प्रसन्न
होंगे; लेकिन
अगर गुलाम मर
जायें, तो
मालिक रोयेगा।
अब हमें सोचना
चाहिए कि
गुलाम इन
दोनों में कौन
था? जो
रोता है, या
जो हंसते हैं?
मालकियत
की आकांक्षा
ही गुलाम बना
देती है। सिर्फ
वही आदमी इस
दुनिया में
मालिक है, जो किसी का
मालिक नहीं
होना चाहता
है। सिर्फ वही
आदमी मालिक हो
सकता है, जिसने
किसी को गुलाम
नहीं बनाया है;
क्योंकि
उसकी मालकियत
को खत्म नहीं
किया जा सकता।
उसकी मालकियत
स्वतंत्र है।
और मालकियत अगर
स्वतंत्र न हो
तो मालकियत
कैसे हो सकती
है?
वस्तुएं
भी हमारी छाती
पर बैठ जाती
हैं। वस्तुएं
भी हमारे ऊपर
हो जाती हैं।
द पजेसर बिकम्स द पजेस्ड।
वह जो वस्तुओं
को संभाले हुए
है, वह
धीरे-धीरे भूल
ही जाता है कि
वस्तुएं उसकी सेवा
के लिए थीं।
और उसने कब
वस्तुओं की
सेवा करनी
शुरू कर दी, इसका उसे
पता भी नहीं
चलता!
नहीं
चलेगा पता।
नहीं चलेगा
इसलिए कि
वस्तुएं इस
आदमी के पास
नहीं आई हैं, यह आदमी
वस्तुओं के
पास गया है।
गुलाम ही जाते
हैं, मालिक
कभी नहीं
जाते। आप
जिसके पास
जायेंगे, मालकियत
उसी को मिल
जायेगी।
वस्तुएं
आपके पास कभी
नहीं आतीं, आप वस्तुओं
के पास जाते
हैं। आदमी
वस्तुओं को खोजता
है, वस्तुएं
आदमी को नहीं
खोजती हैं। तो
जिसे आप खोजते
हैं, जिसके
लिए आप श्रम
उठाते हैं, जिसके लिए
आप कष्ट झेलते
हैं, जिसे
आप बामुश्किल
से पा पाते
हैं, अगर
उसे आप छाती
पर रखकर संभालें,
और उसके
नीचे दब जायें,
तो बहुत
आश्चर्य नहीं;
क्योंकि
सदा डर है कि
वह खो न जाये!
मैंने
सुना है कि रयोकान
नाम के एक झेन
फकीर के घर
में एक रात
चोर घुस गया।
तो रयोकान
उस चोर के
सामने हाथ जोड़कर
खड़ा हो गया और
उसने कहा, माफ करना, बड़ी गलत जगह
आ गए हो। आठ-दस
मील की यात्रा
करके भी आए हो
और इस गरीब के झोपड़े में
तो कुछ भी
नहीं है! बस, यह कंबल है
एक, इसे
तुम ले जाओ।
उसने
चोर को वह
कंबल दे दिया।
रयोकान
नंगा हो गया; क्योंकि
उसके पास
सिर्फ कंबल ही
था, और
ठंडी रात थी।
उस चोर ने
बहुत कहा कि
आप यह क्या कह
रहे हैं! आपके
पास कुछ भी
नहीं है, फिर
भी आप यह कंबल
दे रहे हैं!
तो रयोकान
ने कहा कि याद
रखना! आज तू एक
मालिक के घर
में घुस गया
है। अब तक तू
गुलामों के घर
में घुसा था। वे
कोई भी एक चीज
तुझे नहीं दे
सकते थे।
जिनको तू
सोचता है, जिनके पास
बहुत है, वे
तुझे एक चीज न
दे सकते थे।
लेकिन अब तू
याद रखना कि
ऐसे मालिक भी
हैं, जिनके
पास कुछ नहीं
है। असल में
वे मालिक इसीलिए
हैं कि उनके
पास कुछ नहीं
है। यह कंबल
तू ले जा।
वह चोर
कंबल लेकर चला
गया। जैसे आज
चांद निकला है, ऐसे ही उस
रात भी निकला
हुआ था। रयोकान
अपने दरवाजे
पर बैठ गया।
सर्द रात!
चांद की किरणें!
ठंडी हवाएं!
वह कांपने
लगा।
अगर रयोकान
गुलाम आदमी
रहा होता, तो उसने कहा
होता कि बहुत
बुरा हुआ कि
कंबल चोरी चला
गया, या
मैंने कंबल दे
दिया। लेकिन
वह एक मालिक
था। उसके मन
में उस लगती
हुई सर्दी को
देखकर यह खयाल
भी नहीं आया
कि कंबल चला
गया तो बहुत
बुरा हुआ।
उसने
एक गीत लिखा
उस रात। उसने
लिखा कि काश, यह चांद भी
मैं चोर को
भेंट कर सकता!
बेचारा चोर, चोरी के
चक्कर में है।
चांद ऊपर है, इसे देख भी
नहीं पा रहा
है!
उस रात
उसने एक गीत
लिखा, काश!
आज मैं चांद
भी चोर को
भेंट कर सकता...!
बेचारा चोर...!
चोरी के चक्कर
में चांद को
देख ही नहीं पा
रहा है!
यह एक
मालिक की बात
है।
आप
कंबल को ओढ़े
हुए दिखाई
पड़ते हैं, इस भूल में
मत पड़ना।
अक्सर कंबल ही
आपको ओढ़े
रहता है। आप
हीरे-जवाहरात
गले में पहने
हुए दिखाई
पड़ते हैं, इस
भूल में मत
रहना। अक्सर
हीरे-जवाहरात
ही आपके गले
को पहने रहते
हैं। आप बड़े
मकान में रहते
हैं, इस
भूल में मत
रहना कि आप
बड़े मकान में
रहते हैं।
मकान आपस में
चर्चा करते
हैं, तो वे
आपस में कहते
हैं कि मैं भी
किस आदमी के
भीतर रह रहा
हूं! मकान के
भीतर आप रहते
हों, यह
संभव नहीं है;
मकान इतना
भीतर आपके
रहता है कि आप
मकान के भीतर
कैसे रह सकते
हैं!
द पजेसर
बिकम्स द पजेस्ड।
वह जो वस्तुओं
का मालिक है, वस्तुओं का
गुलाम हो जाता
है। लेकिन
इसमें वस्तुओं
का कोई कसूर
है, ऐसा मत
समझ लेना।
वस्तुओं का
कोई हाथ ही
नहीं है, यह
बिलकुल
इकतरफा
लेन-देन है।
यह आप ही हैं, जो गुलाम बन
जाते हैं। यह
आपकी ही
दृष्टि और सोचने
का ढंग है, जो
गुलामी ले आता
है। वस्तुओं
का इसमें कोई
भी हाथ नहीं
है। वस्तुएं
किसी को क्या
गुलाम बनायेंगी?
वस्तुओं को
तो पता ही
नहीं चलता कि
किस आदमी को
मालिक होने का
भ्रम था और
किस आदमी को
गुलाम होने का
भ्रम था। हम
ही, आदमी
ही अपनी
दृष्टियों से
घिरता और बंधता
है। हाथ में
पड़ी हुई जंजीरों
के बीच भी कोई
आदमी मुक्त हो
सकता है, और
सोने के
आभूषणों में
बैठा हुआ आदमी
भी कारागृह
में हो सकता
है।
जिंदगी
बड़ी अदभुत है।
और आदमी से
ज्यादा इरछी-तिरछी
चाल चलनेवाला
कोई भी प्राणी
नहीं है। वह
अजीब काम करता
रहता है।
गुलामियों के
नाम बदलकर
मालकियत रख
लेता है, जंजीरों के नाम
बदलकर आभूषण
रख लेता है! और
कारागृह के भीतर
भी अगर हो, तो
दीवालों को
इतना सजा लेता
है कि मालूम
पड़ता है कि
अपने घर में
ही बैठा है!
हम सब
अपने-अपने
कारागृह की
दीवालों को
सजाए हुए बैठे
हैं। हमने
उन्हें बड़े
अच्छे नाम दिए
हैं। अच्छे
नामों में हम
खो गए हैं।
लेकिन नाम देकर
सत्यों को
बदला नहीं जा
सकता। सत्य
सत्य है। और
धर्म की
शुरुआत
सत्यों को
उनकी सचाई में
जानने से ही
शुरू होती है।
अपरिग्रह, धर्म का
बुनियादी
तत्व है।
अपरिग्रह का
अर्थ है: इस
सत्य को जान
लेना कि जब तक
मेरे मन में
वस्तुओं की
चाह है, तब
तक मैं
वस्तुओं का
मालिक नहीं हो
सकता हूं। जब
तक मैं
वस्तुओं को
चाहता हूं, तब तक मैं
वस्तुओं की
गुलामी में
रहूंगा ही।
मैं उसी दिन
वस्तुओं का
मालिक हो सकता
हूं, जिस
दिन वस्तुओं
की चाह मेरे
भीतर से चली
गई।
सुना
है मैंने, सुना होगा
आपने भी कि एक
संन्यासी एक
राजमहल में एक
रात आया था।
उसके गुरु ने
उसे भेजा था
कि वह जाये और
सम्राट के दरबार
में जाकर
ज्ञान सीख
आये। उसका
गुरु परेशान
हो गया था, नहीं
सिखा सका था।
तो उस
संन्यासी ने
कहा कि जब
आपके आश्रम
में नहीं सीख
सका, तपश्चर्या
की दुनिया में,
तो सम्राट
के महल में
कैसे सीख
सकूंगा? लेकिन
गुरु ने कहा, बात मत करो, जाओ! वहीं
पूछना।
जब वह
दरबार में
पहुंचा, तो
उसने देखा कि
वहां तो शराब
के प्याले ढाले
जा रहे हैं, और वेश्याएं
नाच रही हैं!
उसने कहा, मैं
भी पागल कहां
फंस गया हूं!
उस गुरु ने भी
खूब मजाक किया
है। दिखता है
छुटकारा पाना
चाहता है
मुझसे! लेकिन
रात? अब
लौटना तो उचित
भी नहीं। और
उस सम्राट ने
संन्यासी की
बहुत आवभगत की
और कहा, आज
रात तो रुक ही
जाओ।
संन्यासी ने
कहा, लेकिन
रुकना बेकार
है। तो सम्राट
ने कहा, कल
सुबह स्नान
करके भोजन
करके वापिस
लौट जाना।
रात भर
उस संन्यासी
को नींद न आ
सकी। सोचा, कैसा पागलपन
है। जहां शराब
ढाली जा रही
हो, और
जहां
वेश्याएं
नाचती हों, और जहां धन
ही धन चारों
तरफ बरसता हो,
वहां इस
भोग-विलास में
कहां ज्ञान
मिलेगा? और
ब्रह्मज्ञान
का मैं खोजी, आज की रात
मैंने व्यर्थ
गंवाई! सुबह
उठा तो सम्राट
ने कहा कि
चलें, हम
महल के पीछे
नदी में स्नान
कर आयें।
दोनों स्नान
करने गए।
वे
स्नान कर ही
रहे थे कि तभी
महल से
जोर-जोर से
आवाजें गूंजने
लगी: महल में
आग लग गई, महल
में आग लग गई।
नदी के तट से
ही महल से उठी
आग की लपटें
आकाश में उठती
हुई दिखाई
पड़ने लगीं।
सम्राट
ने संन्यासी
से कहा, देखते
हैं?
संन्यासी
भागा! उसने
कहा, क्या खाक
देखते हैं? मेरे कपड़े
घाट पर रखे
हैं! कहीं आग न
लग जाये!
लेकिन
घाट पर
पहुंचते-पहुंचते
उसे खयाल आया
कि सम्राट के
महल में आग
लगी है और वह
अब भी पानी में
खड़ा है, और
मेरी तो सिर्फ
लंगोटी ही घाट
पर रखी है, जिसे
बचाने के लिए
मैं दौड़ पड़ा
हूं! अभी वहां
आग पहुंची भी
नहीं है! लग
सकती है, महल
की आग बढ़ जाये
और घाट तक आ
जाये।
वह
वापस लौट कर, खड़े हुए
हंसते सम्राट
के चरणों में
गिर पड़ा। उसने
कहा कि मैं
समझ नहीं पा
रहा, आपके
महल में आग लग
गई है और आप
यहीं खड़े हैं?
सम्राट
ने कहा, उस
महल को अगर
मैंने कभी
अपना समझा
होता, तो
खड़ा नहीं रह
सकता था। महल
महल है, मैं
मैं हूं। मेरा
महल कैसे हो
सकता है? मैं
नहीं था, तब
भी महल था; मैं
नहीं रहूंगा,
तब भी महल
होगा। मेरा
कैसे हो सकता
है? लंगोटी
थी आपकी, महल
मेरा नहीं है!
नहीं, सवाल
वस्तुओं का
नहीं है कि
वस्तुएं किसी
को पकड़ लेती
हैं। सवाल
आदमी के रुख, आदमी के ढंग,
एटीटयूड,
उसके सोचने
की विधि और
जीवन की
व्यवस्था का
है। वह कैसे
जी रहा है, इस
पर सब निर्भर
करता है। अगर
वह वस्तुओं की
चाह से भरा है,
तो इससे
फर्क नहीं
पड़ता है कि वह
वस्तु महल है या
लंगोटी। अगर
वह वस्तुओं की
चाह से नहीं
भरा है, तो
फिर कोई फर्क
नहीं पड़ता कि
पास में
लंगोटी है या
महल।
आदमी
अपने ही
कारणों से
गुलाम होता है; और आदमी ही
इन्हीं
कारणों को तोड़कर
मुक्त भी हो
जाता है।
आचार्य
श्री, आपने
अपरिग्रह के
तीसरे प्रवचन
में कहा है कि महावीर
संन्यास के
जीवन में आकर
बादशाह हो गए,
लेकिन उनके
बड़े भाई
संपन्नता के बीच
रहकर भी
विपन्न और
गुलाम ही रहे।
महावीर का
आत्मिक
समृद्धि
उपलब्ध करना,
लेकिन
भौतिक
समृद्धि से
परे रहना
अर्थात परिग्रह
से मुक्त हो
जाना, क्या
एकांगी व
एक-पक्षीय
जीवन नहीं है?
वे अंतर और
बाह्य दोनों समृद्धियों
को एक साथ
क्यों नहीं
स्वीकार कर
पाते?
महावीर
सब छोड़कर चले
गए, इसलिए
नहीं कि वह
समृद्धि थी; बल्कि
इसीलिए कि वह
समृद्धि नहीं
थी। महावीर सब
छोड़ कर चले गए,
इसलिए नहीं
कि वहां कुछ
छोड़ने योग्य
था; बल्कि
इसीलिए कि
वहां कुछ भी पकड़ने
योग्य न था।
लेकिन
हमें दिखाई
पड़ता है कि
उन्होंने महल
छोड़ा; हमें
दिखाई पड़ता है,
हीरे-
जवाहरात छोड़े;
हमें दिखाई
पड़ता है, धन-दौलत
छोड़ी! यह
हमें दिखाई
पड़ता है।
महावीर ने तो कंकड़-पत्थरों
के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
छोड़ा। हीरे-जवाहरात
हमें दिखाई
पड़ते हैं।
महावीर को हीरे-जवाहरात
में कंकड़-पत्थर
दिखाई पड़ गये।
ऐसे
हीरे-जवाहरात
में कंकड़-पत्थरों
के अतिरिक्त
कुछ है भी
नहीं! हां, जिन्होंने
महावीर की कथा
लिखी है, उन्होंने
लिखा है कि
इतने हीरे, इतने
जवाहरात, इतने
माणिक, इतने
मोती छोड़े।
अगर कोई
महावीर से
पूछे, तो
वे कहेंगे, बड़े पागल हो,
कंकड़-पत्थरों के
भी अलग-अलग
नाम रख लिये
हैं? हां, अगर महावीर
ने कंकड़-पत्थर
छोड़े होते, तो हम भी
नहीं कहते कि कंकड़-पत्थर
छोड़ रहे हैं!
हम सबने छोड़े
हैं।
सभी
बच्चे कंकड़-पत्थर
इकट्ठे करते
हैं। और फिर
एक दिन बच्चे नहीं
रह जाते, कंकड़-पत्थर छोड़
देते हैं।
लेकिन किसी
बच्चे की जिंदगी
में हम नहीं
लिखते कि इस
बच्चे ने कंकड़-पत्थर
छोड़े; क्योंकि
हम जानते हैं
कि वे कंकड़-पत्थर
हैं। जिस दिन
हम जानेंगे कि
महावीर ने कंकड़-पत्थर
ही छोड़े, उस
दिन हम न
कहेंगे कि
उन्होंने कुछ
छोड़ा।
नहीं, आश्चर्य यह
नहीं है कि
महावीर ने
क्यों छोड़ा? आश्चर्य यह
है कि दूसरे
क्यों नहीं
छोड़ पाते हैं!
महावीर से कोई
पूछे, तो
वे नहीं
कहेंगे कि
मैंने कुछ
त्यागा; क्योंकि
त्यागी तो वह
चीज जाती है, जिसमें कोई
मूल्य हो।
महावीर
कहेंगे कि
मैंने कुछ भी
नहीं त्यागा;
क्योंकि
जिसमें कोई
मूल्य ही नहीं
था, उसके
त्याग की बात
करनी ही
व्यर्थ है।
आप रोज
अपने घर के
बाहर कचरा
फेंक देते हैं
तो अखबार में
खबर नहीं
छपाते कि आज
इतना कचरा त्यागा।
महावीर के लिए
जो कचरा हो
गया है, उसे
त्यागने का हक
तो उन्हें
देना चाहिए न!
कि इतना भी हक
उन्हें देने
को हम राजी
नहीं हैं?
हां, हमें दिक्कत
है, क्योंकि
हमें वह कचरा
नहीं दिखाई
पड़ता। एक बच्चे
से उसका कंकड़-पत्थर
छीन लें, तब
आपको पता चल
जायेगा। वह
रातभर रो सकता
है, सपने
में चीख सकता
है। उसकी सारी
संपत्ति छीन ली
आपने, जो
वह नदी के
किनारे से
इकट्ठी कर
लाया था! आप कहेंगे,
पागल है तू!
क्योंकि कंकड़-पत्थर
ही थे। आपको
लगते होंगे कंकड़-पत्थर,
बच्चे को सब
रंगीन पत्थर हीरे-मोती
से ज्यादा
कीमती लगते
हैं।
असल
में बच्चे की
चेतना के तल
और आपकी चेतना
के तल में जो
फर्क है, वही
कठिनाई है।
आपको पत्थर
दिखाई पड़ रहे
हैं, बच्चे
को बहुमूल्य
दिखाई पड़ रहे
हैं। आप फेंकने
का आग्रह करते
हैं, बच्चा
बचाने का
आग्रह करता
है। महावीर और
हमारे बीच भी
वही बच्चे और
प्रौढ़ वाला
फासला है। फिर
एक और नई
चेतना भी है, जो महावीर
को मिली है।
यहां इस जगत
में हमें जो
भी दिखाई पड़ता
है, वह
महावीर के लिए
निर्मूल्य
हो गया है, उसका
सारा मूल्य खो
गया है।
महावीर
कुछ छोड़ते
नहीं हैं, चीजें छूट
जाती हैं। जो
व्यर्थ हो गई
हैं, उन्हें
ढोना असंभव
है। महावीर
छोड़कर नहीं जाते
हैं। वे जाते
हैं, और
चीजें छूट
जाती हैं। जो
व्यर्थ हो गया
है उसे साथ
ढोना संभव
नहीं है।
महावीर
के बड़े भाई घर
रह गए हैं।
महावीर के बड़े
भाई दुखी हैं
कि उनके छोटे
भाई ने भूल की; हीरे-जवाहरात,
धन-दौलत, यश, सुख-सुविधा,
सब छोड़कर
चला गया है।
इन दोनों के
बीच प्रौढ़ और
बच्चे के मन
का फासला है।
महावीर के बड़े
भाई दुखी हैं
कि दुख उठाने
जा रहा है यह!
और महावीर तो
दुख उठाने
नहीं जा रहे, महावीर तो
इतने आनंद से
भर गए हैं कि
अब दुख का कोई
उपाय ही नहीं
रह गया है।
लेकिन
पूछा जा सकता
है कि वे वहीं
घर पर भी तो रह
सकते थे? जैसा
मैंने अभी उस
सम्राट की बात
कही, जो
महल में था, लेकिन महल
जिसमें नहीं
था। महावीर
वहां भी रह सकते
थे, लेकिन
यह
व्यक्ति-व्यक्ति
के टाइप और
प्रकार की बात
है।
महावीर
नहीं रह सकते
थे, कृष्ण रह
सकते हैं। जनक
रह सकते हैं, बुद्ध नहीं
रह सकते। यह
व्यक्तियों
की बात है; और
व्यक्ति परम
स्वतंत्रता
है। और नियम
एक-दूसरे पर
नहीं थोपे जा
सकते। महावीर
के लिए जो संभव
था, वह
संभव हुआ।
महावीर के
भीतर जो फूल
खिल सकता था, वह खिला।
लेकिन इस फूल
के खिलने
के भी अपने
आनंद हैं। महल
में, महल
के न होकर
रहने का अपना
आनंद है। महल
के बाहर, वृक्ष
के नीचे रहने
का अपना आनंद
है। और दोनों
की कोई तुलना
नहीं हो सकती,
कोई
कंपेरिजन
नहीं हो सकता।
यह
व्यक्तियों पर
निर्भर
करेगा।
महावीर
जब सब छोड़कर
चले गये...और
वृक्षों के नीचे
बैठना, सोना
और भिक्षापात्र
लेकर
गांव-गांव
भटकने में
कौन-सा आनंद
होगा? इस
बात को थोड़ा
समझ लेना
जरूरी है, क्योंकि
अपरिग्रह के
तत्व में यह
बड़ी कीमती और
बड़ी गहरी बात
है।
महावीर
की समझ ऐसी है
कि जब श्वास
मैं नहीं लेता, और जन्म मैं
नहीं
लेता--जन्म
अपने से आता
है, श्वास
अपने से आती
है, मृत्यु
अपने से आती
है--तो जीवन की
व्यवस्था भी मैं
अपने ऊपर
क्यों लूं? उसे भी
परमात्मा पर
छोड़ देते हैं
कि वही करेगा
व्यवस्था। यह
परम आस्तिकता
का लक्षण है।
यह परम
आस्तिकता है,
व्यवस्था
भी क्यों...!
कल
सुबह होगी, सूरज
निकलेगा नहीं
निकलेगा, तो
हमने क्या
व्यवस्था की
है? कल अगर
सुबह सूरज
नहीं निकला और
रात उसने रेजिगनेशन
भेज दिया, इस्तीफा
दे दिया, या
कल सुबह हड़ताल
पर चला गया, स्ट्राइक पर
चला गया और कल
सुबह नहीं
निकला, तो
हमारे पास
क्या उपाय है,
हम क्या
करेंगे? और
कल हवाओं से
अगर आक्सीजन
विदा हो जाये,
और कल अगर
जिंदगी असंभव
हो जाये, तो
हम क्या
करेंगे? हमने
क्या सुरक्षा
की है? क्या
व्यवस्था की
है? कल अगर
पृथ्वी ठंडी
हो जाये, या
कल अगर पृथ्वी
टूट जाये और
बिखर
जाये--अनेक पृथ्वियां
बिखर चुकी हैं,
अनेक बिखर
रही हैं; अनेक
सूरज ठंडे हो
चुके हैं, अनेक
ठंडे हो रहे
हैं--कल अगर यह
हो जाये, तो
हमने क्या
व्यवस्था की
है?
महावीर
कहते हैं कि
इतने बड़े कॉस्मास
में, इतने
अनंत
ब्रह्मांड
में, जहां
हमारे हाथ में
कुछ भी
व्यवस्था
नहीं है, वहां
यह महावीर नाम
का आदमी अपने
आसपास एक घर की
व्यवस्था भी
करे, इस
नास्तिकता
में पड़ने का
क्या अर्थ है?
महावीर
कहते हैं, यह
व्यवस्था भी
क्यों? जब
इतनी अव्यवस्थाएं
भी झेलनी पड़
सकती हैं, तो
इतनी-सी
अव्यवस्था वे
और जोड़ देते
हैं। इतनी कॉस्मिक
अव्यवस्था
में, इतनी
ब्रह्मांड की
असुरक्षा में,
मैं
बैंक-बैलेंस
रखकर भी क्या
व्यवस्था कर
पाऊंगा?
तो
महावीर कहते
हैं, यह व्यर्थ
का बोझ मैं
छोड़ देता हूं।
छोड़ देता हूं
कि जहां से
श्वास आती है,
जहां से कल
की सुबह आयेगी,
जहां से आज
का सूरज आया
था, और
जहां से आज का
चांद आया है, और जहां से
कल सुबह जड़ों
को रस मिलेगा,
और जहां से
कल वृक्षों
में फूल
खिलेंगे, और
जहां से पक्षी
गीत गायेंगे,
वहीं से अगर
इस परम सत्ता
की कोई
आकांक्षा इस शरीर
को भी जिंदा
रखने की है, तो वह रख
लेगी; और
नहीं रखने की
है, तो
महावीर की
अपनी अब कोई
इच्छा शेष
नहीं रह गई
है।
यह
महावीर की इस
बात की घोषणा
है सब को
छोड़कर जाना कि
अब मैं अपने
लिए नहीं जी
रहा हूं। अगर
परमात्मा
जिलाना चाहता
है, तो वह
जाने। अब मैं
अपनी तरफ से
नहीं जी रहा
हूं।
इसलिए
महावीर की
जिंदगी में एक
छोटा-सा नियम
था, जो मैं
आपसे कहूं, जो बड़ा
अदभुत है।
शायद दुनिया
के किसी
संन्यासी ने
वैसे नियम का
उपयोग नहीं
किया है। सच
तो यह है कि
महावीर जैसा
संन्यासी
खोजना बहुत
मुश्किल है।
महावीर का एक
नियम था कि सुबह
जब भीख मांगने
निकलते थे, तो वे अपने
मन में सुबह
के ध्यान में
सोच लेते थे
कि आज इस शर्त
पर भीख मिलेगी
तो स्वीकार करूंगा,
नहीं तो
नहीं करूंगा!
अब
भिखारी कभी
शर्त नहीं
लगाते।
भिखारियों की
भी कोई कंडिशंस
हो सकती हैं? भिखारी
बेशर्त
मांगते हैं।
और महावीर
शर्त लगाकर
मांगते हैं, क्योंकि वे
कोई भिखारी
नहीं है। और
शर्त भी ऐसी
कि दूसरे आदमी
को बतायी भी
नहीं गई है कि
वह कोई इंतजाम
न कर ले। शर्त
सिर्फ उन्हीं
को पता है।
जैसे, वह सुबह
शर्त लेकर
निकले अपने मन
में कि अगर आज
काले कपड़े
पहने हुए, एक
आंख वाली एक
गोरी स्त्री
मुझे भिक्षा
देगी, तो
ले लूंगा, अन्यथा
नहीं लूंगा।
अब इस
गांव का
उन्हें कुछ भी
पता नहीं है, रात ही इस
गांव में आकर
वे ठहरे हैं।
अब एक आंख वाली
गोरी स्त्री
काले कपड़े
पहने हुए उनको
भिक्षा देगी,
तो वे
स्वीकार कर
लेंगे, अन्यथा
वह गांव में
घूमकर वापस
लौट आयेंगे। वे
कहेंगे, परमात्मा
की मर्जी नहीं
थी तो जाने दो,
क्योंकि
अपनी अब कोई
मर्जी जीवन की
नहीं है। न
मरने की कोई
मर्जी है, न
जीने की कोई
मर्जी है।
अपनी तरफ से, वह जो
जिजीविषा है,
वह जो लस्ट
फार लाइफ है, वह अब नहीं
है। अब
परमात्मा की
मर्जी हो तो
रखे, मर्जी
हो तो उठा ले।
एक बार
ऐसा हुआ कि
महावीर
महीनों तक
गांव में जाते
रहे और भिक्षा
न मिल सकी, क्योंकि
उन्होंने एक
शर्त ले ली।
अब वह शर्त तो
बताई नहीं
जाती थी, नहीं
तो कोई इंतजाम
हो जाता। गांव
बहुत से उपाय
करता, लेकिन
वह शर्त पूरी
न होती। अब
बड़ी मुश्किल
हो गई कि
महावीर के मन
में क्या है।
महावीर ने एक
शर्त ले ली कि
एक राजकुमारी,
जो जंजीरों
में बंधी हो, जिसका एक
पैर मकान के
भीतर और एक
पैर मकान के बाहर
हो, जिसकी
आंखों में
आंसू हों और
ओंठ पर
मुस्कुराहट
हो, अगर वह
भिक्षा देगी,
तो ले
लेंगे।
तो फिर
महीनों
भिक्षा नहीं
मिली। नहीं
मिली, तो भी
वे रोज आनंदित
गांव जाते और
आनंदित वापस
लौट आते। सारा
गांव दुखी और पीड?ित है, और सारा
गांव रो रहा
है, गांव
भर में भोजन
मुश्किल हो
गया है। लोग
हाथ-पैर जोड़ते
हैं और कहते
हैं कि
स्वीकार
करें। लेकिन
महावीर कहते
हैं, उसकी
मर्जी।
महीनों
बीत गए। पर एक
दिन यह भी हो
गया। कारागृह
में बंद एक
राजकुमारी ने
भिक्षा दी।
उसकी आंखों
में आंसू थे, अपने
कारागृह में
होने के कारण।
ओंठों पर मुस्कुराहट
थी, क्योंकि
महावीर ने
उसकी भिक्षा
स्वीकार कर ली
थी। वह
हंस रही थी।
महावीर उसके
द्वार पर रुक
गए। आंखों में
आंसू थे, ओंठ
पर
मुस्कुराहट
थी, एक पैर जंजीरों
से बंधा हुआ
पीछे था, एक
बाहर निकाल
पायी थी, क्योंकि
एक ही पैर
खुला था।
महावीर
भिक्षा लेकर
लौट गए। लेकिन
इस भिक्षा के
लिए परमात्मा
कभी उनको
जिम्मेवार
नहीं ठहरा
सकेगा। अगर
कोई जिम्मेवार
होगा, तो
परमात्मा ही
होगा।
यह परम
सत्ता में
समर्पण है, यह संन्यास
का...यह
संन्यास की
परम अंतिम
अवस्था
है--जहां
व्यक्ति एक
श्वास भी अपनी
तरफ से नहीं
लेता। इसलिए
महावीर कह
सकते हैं कि
मेरे कर्मों
का अब कोई फल
मेरे लिए नहीं
है; और
मेरे कर्मों
का कोई परिणाम
अब मुझसे नहीं
बंधा है। अब
मैं कुछ कर ही
नहीं रहा हूं।
अब जो हो रहा
है, हो रहा
है। करना मेरे
हाथ में नहीं
है। कर मैं नहीं
रहा हूं। अब
मेरी कोई
इच्छा नहीं
है।
लेकिन
महावीर का यह
अपना
व्यक्तित्व
है। और हम से
भूल हो जाती
है, जब हम दो
व्यक्तियों
में तुलना
करने लगते
हैं। अगर हम
जनक और महावीर
की तुलना करें,
तो कठिनाई
हो जायेगी।
जनक का अपना
आनंद है। महावीर
कहते हैं, परमात्मा
को रखना होगा,
तो रख लेगा
किसी भी हाल
में। जनक कहते
हैं, परमात्मा
ने महल दिया
है, तो मैं छोड़नेवाला
कौन हूं? जनक
कहते हैं, परमात्मा
ने राज्य दिया,
तो मैं
छोड़ने की झंझट
में भी क्यों
पडूं?
कौन
ठीक है, कौन
गलत है? दोनों
का अपना ढंग
है परमात्मा
को देखने का।
दोनों ही ठीक
हैं। हजार तरह
के लोग हैं।
जीसस अपनी तरह
के आदमी हैं; बुद्ध अपनी
तरह के, महावीर
अपनी तरह के, कृष्ण अपनी
तरह के। हमने
जब भी उनकी
तुलना की है, तब भूल हो
जाती है।
क्योंकि
तुलना में हम
किसी एक आदमी
की तरफ झुक
जाते हैं, जिसकी
तरफ हमारे
व्यक्तित्व
का टाइप झुकता
है। और तब हम
दूसरे को गलत
देखने लगते
हैं।
नहीं, कोई कारण
नहीं है। इस
पृथ्वी पर लाख
तरह के व्यक्तित्व
खिल गए हैं, लाख तरह के व्यक्तित्वों
के खिलने
की संभावना
है। तुलना की
कोई भी जरूरत
नहीं है।
लेकिन गहरे
में अगर देखें,
तो बात एक
ही है। जनक
महल में हैं, क्योंकि वे
कहते हैं कि
जब परमात्मा
ने महल दिया, तो मैं
क्यों छोडूं?
महावीर
जंगल में हैं;
लेकिन बात
एक ही है। वे
कहते हैं, अगर
उसको रखना है,
तो जंगल में
भी महल की तरह
रख लेगा। मैं
क्यों फिक्र
करूं? दोनों
एक ही बात
कहते हैं; लेकिन
दोनों के
व्यक्तित्वों
के ढंग अलग
हैं। वह एक
बात ही इन दो
व्यक्तियों
में अलग-अलग गीत
बन जाती है।
वह एक बात ही
इन दोनों
व्यक्तियों
में अलग-अलग
स्वर ले लेती
है। वह एक बात
ही इन दोनों
व्यक्तियों
में अलग- अलग
अर्थ बन जाती
है। लेकिन वह
बात एक ही है।
वह
परमात्मा में
समर्पण की बात
है। यह हमें
खयाल में आ
जाये, तो
तुलना बंद कर
देनी चाहिए।
यह हमारे खयाल
में आ जाये, तो प्रत्येक
को, वह
जैसा है वैसा
ही, उसकी
पूर्णता में समझ
लेने की कोशिश
कर लेनी चाहिए,
बिना कंपेरीजन
के। और तब एक
दिन हम समझ
पायेंगे कि
हजार फूल हों,
लेकिन
सौंदर्य एक है;
और हजार ढंग
के दीये हों, लेकिन
ज्योति एक है;
और हजार ढंग
के सागर हों, लेकिन सभी सागरों का
पानी एक-सा
खारा है। जिस
दिन यह दिखाई पड़ना शुरू
होता है, उस
दिन व्यक्ति
विदा हो जाते
हैं और वह जो
मौलिक
आधारभूत सत्य
है, उसका
दर्शन हो जाता
है।
आचार्य
श्री, आज
एक और मुश्किल
पैदा हो गई
है। और वह
मुश्किल यह है
कि जिस ऊंचाई
से अपरिग्रह
के बारे में जो
प्रश्न पूछे
गए हैं, उनका
उत्तर आपने
उसी ऊंचाई से
दिया है, उसी
संदर्भ में यह
बात सामने आती
है कि अपरिग्रह
को आप अचाह की
संज्ञा देते
हैं, डिजायरलेसनेस
बताते हैं।
सुनने में यह
बात बड़ी
सार्थक, पाजिटिव लगती है; लेकिन
लोग इसे
नकारात्मक
अर्थों में ले
सकते हैं। तब
तो सारी
वैज्ञानिक
खोज और कर्म
करने की
प्रेरणा ही
समाप्त हो
जायेगी, सारी
प्रगति
गतिरुद्ध हो
जायेगी।
कृपया इसे स्पष्ट
करें। साथ ही
एक बात और कि
महावीर महावीर
थे; बुद्ध
बुद्ध थे; क्राइस्ट
काइस्ट
थे; लेकिन
उनके अनुयायी
उस ऊंचाई को
नहीं पा सके कभी
भी। और उनके
अनुयायियों
में एक
निष्क्रियता
भी पैदा हो
गई। नतीजा यह हुआ
कि
आध्यात्मिक
रूप से ऊंचाई
को तो नहीं छू
सके वे, भौतिक
दृष्टि में भी
बड़े फीके पड़
गए। ऐसी स्थिति
में आपका क्या
कहना है?
अपरिग्रह
की बात
दरिद्रता का
बचाव बन सकती
है। अपरिग्रह
की बात प्रगति
का विरोध बन
सकती है। अपरिग्रह
की बात जीवन
की संपन्नता
की खोज में
बाधा बन सकती
है। सभी बातें
गलत ढंग से
लिए जाने पर
विपरीत
परिणाम लाती
हैं। सभी
बातें उलटे
ढंग से पकड़े
जाने पर जीवन
को लाभ नहीं, हानि पहुंचाती
हैं। और आदमी
जैसा है, उससे
गलत ढंग से पकड़े
जाने की सदा
संभावना है।
एक
छोटी-सी कहानी
से मैं समझाने
की कोशिश करूंगा।
एक
गांव है, और
उस गांव में
एक बहुत बड़ा
धनपति है, और
जैसे कि धनपति
होते हैं, वैसा
ही धनपति
है--कंजूस। एक
पैसा उससे छूट
नहीं पाता है।
और तो और जो नए
भिखारी भी
गांव में आते
हैं, तो
पुराने
भिखारी उनसे
कह देते हैं
कि उस दरवाजे
पर मत जाना! उस
घर से कभी
किसी को कुछ
नहीं मिला है!
गांव
में एक नया
मंदिर बन रहा
है। गांव के
गरीब से गरीब
आदमी ने भी उस
मंदिर के लिए
कुछ न कुछ दिया
है; किसी ने
हजार दिया है,
किसी ने दस
हजार दिए हैं;
किसी ने
पांच दिए हैं,
किसी ने एक
ही दिया है।
गांव के लोगों
ने एक फेहरिस्त
बना ली।
जिस-जिस आदमी
ने जो-जो दिया
है, उसकी
एक फेहरिस्त
बना ली।
उन्होंने
सोचा कि एक भी
आदमी गांव में
ऐसा न बचे, जिसने
कुछ न दिया
हो।
फेहरिस्त
लेकर गांव के
सौ-पचास खास
आदमी उस करोड़पति
के द्वार पर
भी गए। सोचा
उन्होंने कि
आज तो हम कुछ
लेकर ही
लौटेंगे; क्योंकि
वह फेहरिस्त
देखकर भी
प्रभावित न
होगा? न
प्रभावित हो,
तो कम से कम
संकोच से तो
भर जाता है
आदमी!
जब वे फेहरिस्त
सुनाने लगे कि
फलां ने दस
हजार दिए हैं; जिसकी कुछ
भी हैसियत
नहीं है, उसने
दस हजार दिए
हैं! जो
बिलकुल ही दीनऱ्हीन
है, उसने
भी हजार दिए
हैं! जो रोज ही
रोटी कमाता है,
उसने भी
पांच रुपए दिए
हैं! वे फेहरिस्त
सुनाते जाते
और अमीर की
तरफ बीच-बीच
में देखते
जाते कि उस पर
क्या परिणाम
हो रहा है!
अमीर बहुत
उत्सुक होता
जाता दिखायी
पड़ा, वह
प्रभावित
होता दिखायी
पड़ा। तब तो
गांव के लोगों
को लगा कि आज
काम बन
जायेगा।
लेकिन पूरी फेहरिस्त
सुनने के बाद
वह अमीर तो
एकदम खड़ा हो
गया! उसने कहा,
मैं बहुत
प्रभावित हो
गया हूं! तो
गांव के लोगों
ने सोचा कि आज
हम लोग निष्फल
नहीं
लौटेंगे। तब
उन्होंने कहा,
फिर आप भी
कुछ दें! जब आप
इतने
प्रभावित हो
गए हैं!
उस
अमीर आदमी ने
कहा, तुम मेरे
प्रभावित होने
का मतलब गलत
समझे। मैं
इसलिए
प्रभावित हो
गया हूं कि कल
से मैं भी
गांव में दान
मांगना शुरू
करने की योजना
बनाऊंगा! जिस
गांव में सब
लोग देने को
राजी हों, उस
गांव में दान
न मांगना बड़ी
गलती है। मैं
बहुत
प्रभावित हो
गया हूं!
आदमी
ऐसे ही
प्रभावित
होता रहा है।
महावीर महल
छोड़कर सड़क पर
आ गए। होना तो
यह चाहिए था
कि जिनके पास
महल थे, उन्हें
पता चलना
चाहिए था कि
वे जरूर किसी
व्यर्थ दौड़
में लगे हैं।
क्योंकि
जिसके पास महल
था, वह
छोड़कर सड़क पर
खड़ा हो गया
है।
नहीं, यह नहीं
हुआ। हुआ यह
कि जो झोपड़ों
में थे, उन्होंने
सोचा कि जब महलवाला
ही छोड़कर आ
रहा है, तब
हमें अपने झोपड़े
को महल बनाने
की कोशिश
क्यों करनी
चाहिए? और
गरीब अगर अपनी
गरीबी में
राजी हो जाये,
तो कभी भी
उस स्थिति को
उपलब्ध नहीं
हो पाता, जो
धन के अनुभव
के बाद में
मिलती है। वह
गरीब ही रह
जाता है।
महावीर
को भिक्षा
मांगते देखकर
सम्राटों को
शर्म आनी
चाहिए थी; सोचना चाहिए
था कि जो आदमी
सम्राट होकर
कुछ न पा सका, वह भिक्षा मांगकर
कुछ पा रहा है!
नहीं, सम्राटों
ने यह नहीं
सोचा, भिखारियों
ने यह सोचा कि
हम बड़े गौरववान
हैं। क्योंकि
देखो! महलों
में नहीं मिला
तो अब भीख
मांगने आए। हम
तो पहले से ही
भीख मांग रहे
हैं। हम पर
परमात्मा की
कुछ ज्यादा ही
कृपा है।
आदमी...आदमी
ऐसा सोचता है।
और इसलिए इस
बात में सच्चाई
है कि भारत की
दीनता को
बचाने में
महावीर से
प्रभावित
लोगों का हाथ
है--पर महावीर
का नहीं। भारत
की दीनता में, भारत की
अवैज्ञानिकता
में, भारत
की अप्रगति
में बुद्ध और
महावीर से
प्रभावित
लोगों का हाथ
है--बुद्ध और
महावीर का नहीं।
लेकिन
बड़ी कठिनाई
है! महावीर पर
दोष कैसे थोपा
जा सकता है? आग है, घर
में चूल्हा भी
जला देती है
और रात अंधेरे
में रोशनी भी
कर देती है।
और किसी के
मकान में आग
लगानी हो, तो
भी काम में आ
जाती है।
जिसने आग को
खोजा था, उस
आविष्कारक को
कैसे दोष दिया
जा सकता है?
ऐटम बम
है, जिन
वैज्ञानिकों
ने बनाया, क्या
उनको
हिरोशिमा के
लिए दोषी
ठहराया जा सकता
है? नहीं
ठहराया जा
सकता।
क्योंकि अणु
की ऊर्जा से
तो खेत में
हजार गुनी फसल
भी आ सकती है।
अणु की ऊर्जा
से सारी
दुनिया के
यंत्र चल सकते
हैं; आदमी
काम से मुक्त
हो सकता है।
अणु की ऊर्जा
से दीनता, दरिद्रता
मिट सकती है, सदा के लिए।
अणु की ऊर्जा
से आदमी की
उम्र लंबी हो
सकती है। अणु
की ऊर्जा से
आदमी की
संघातक बीमारियां
समाप्त हो
सकती हैं।
लेकिन
आदमी ने यह
कुछ भी नहीं
किया! आदमी
भूखों मर रहे
हैं, खेत में
फसल न बढ़ी।
आदमी कैंसर से
मर रहे हैं, कैंसर का
इलाज अणु की
ऊर्जा से न
खोजा गया। बच्चे
असमय मर जाते
हैं, उनके
बचाने की कोई
संभावना अणु
की ऊर्जा से न खोजी
गई। अणु
गिराया गया
हिरोशिमा पर,
कि लाखों आदमी
राख हो जायें।
क्या किया जा
सकता है!
अरब
में एक कहावत
है कि जब भी
कोई नया
आविष्कार
होता है, तो
शैतान सबसे
पहले उस पर
कब्जा कर लेता
है। महावीर का
बड़ा आविष्कार
है, शैतान
ने सबसे पहले
कब्जा कर
लिया।
आइंस्टीन का
बड़ा आविष्कार
है, शैतान
ने सबसे पहले
कब्जा कर लिया।
दो ही
रास्ते हैं:
या तो ये
आविष्कार न
किए जायें; शैतान के डर
से दुनिया में
अच्छी चीजें न
बनायी जायें;
गलत प्रभाव
की वजह से दान
न मांगा जाये;
गलत प्रभाव
की वजह से कोई
अच्छा काम न
हो--क्योंकि
गलत प्रभाव पड़
सकते हैं।
लेकिन तब भी
तो बुरा
परिणाम होगा।
क्योंकि अगर
जो अच्छा न हो
पाये, तो
भी तो बुरा
शेष रह
जायेगा।
इसलिए
खतरे मोल लेने
पड़ते हैं।
आदमी गलत लेता
है, लेने
दें। जो ठीक
है, उसे
किये ही जाना
होगा। आज नहीं
कल, आदमी
अपनी गलती को,
अपने दुख और
पीड़ा को
समझेगा। और
समझेगा कि उसने
जिससे स्वर्ग
बन सकता था, उससे नर्क
बना लिया है।
महावीर
गरीबी के
समर्थक नहीं
हैं, महावीर
सिर्फ अमीरी
की व्यर्थता
के उदघोषक
हैं। लेकिन ये
दोनों बड़ी अलग
बातें हैं।
और
दूसरी बात
पूछी है। साथ
में पूछा है
कि महावीर के
अनुयायी तो
कभी महावीर की
ऊंचाई को न पा
सके! क्राइस्ट
की ऊंचाई को
ईसाई नहीं पा
सके! बुद्ध की
ऊंचाई को बुद्धिस्ट
नहीं पा सके!
नहीं
पा सके उसका
कारण है।
क्योंकि
अनुयायी कभी
ऊंचाई पा ही
नहीं सकता; क्योंकि जो
आदमी दूसरे के
पीछे चलता है,
वह अपनी
आत्मा को
गंवाने का काम
करता है। दूसरे
के पीछे चलने
के लिए अपनी
हत्या तो करनी
ही पड़ती है।
दूसरे का
अनुसरण करने
के लिए स्वयं
के विवेक को
तो काटना ही
पड़ता है।
दूसरे के वस्त्र
पहनने के लिए
अपने शरीर को
छोटा और बड़ा
करना ही पड़ता
है। दूसरे की
आत्मा ओढ़ने
के लिए अपनी
आत्मा को
दबाना ही पड़ता
है। अनुयायी
कभी ऊंचाई
नहीं पा सकता,
क्योंकि
जिसने
अनुयायी होने
का तय किया है,
उसने
सुसाइडल
निर्णय लिया
है, आत्मघाती
निर्णय लिया
है।
मैं
नहीं कहता कि
महावीर के
अनुयायी
बनें। मैं
नहीं कहता कि
जीसस के
अनुयायी
बनें। महावीर को
समझ लें, इतना
काफी है, और
छोड़ दें; जीसस
को समझ लें, इतना काफी
है, और छोड़
दें। बनें तो
सदा आप आप ही
बनें, महावीर
बनने का आपके
लिए कोई उपाय
नहीं है; जीसस
बनने का कोई
उपाय नहीं है।
इसका
मतलब यह नहीं
है कि जीसस
जिस ऊंचाई पर
पहुंचे उस तक
आप न पहुंच
सकेंगे। आप भी
पहुंच सकेंगे; लेकिन आप ही
होकर पहुंच
सकते हैं, जीसस
की नकल करके
नहीं पहुंच
सकते।
अनुकरण
नकल है। और
ध्यान रहे!
कार्बन-कापी
जो आदमी बनने
की कोशिश करता
है, वह
मूल-कापी की
स्पष्टता
नहीं पा
सकेगा। और फिर
हिंदुस्तानी
कार्बन हो तब
तो और भी
मुश्किल है!
फिर तो कुछ
समझ में भी आ
जाये, यह
भी मुश्किल है
कि पीछे क्या
है। और फिर
सेकेंड कापी
हो, तब भी
ठीक! महावीर
को मरे पच्चीस
सौ साल हो गए, पच्चीस सौ
साल में
हजारों कापियों
के बाद आप खड़े
हैं! लाखों कापियां
गुजर चुकीं, उस कार्बन
पर बहुत कापियां
हो चुकीं! अब
कुछ भी समझ में
नहीं आता।
लेकिन समझे
चले जा रहे
हैं, अनुकरण
किए चले जा
रहे हैं!
अनुयायी
कभी भी
धार्मिक नहीं
होता है। असल
में अनुयायी
यह कह रहा है
कि मैं अपने
होने की जिम्मेवारी
छोड़ना चाहता
हूं। मैं किसी
के पीछे चलना
चाहता हूं।
मैं अंधा होने
के लिए तैयार
हूं। मैं किसी
का हाथ पकड़कर
चलूंगा। मुझे
कोई कहीं
पहुंचा दे।
मैं अपने चलने
की
जिम्मेवारी
से इनकार करता
हूं।
जिस
आदमी ने अपनी
आंखों से
इनकार किया, और जिस आदमी
ने अपने पैरों
से इनकार किया,
और जिस आदमी
ने अपने विवेक
की
जिम्मेवारी
लेने से इनकार
किया, वह
आदमी कभी भी
विकसित नहीं
हो सकता। उसने
अविकास के
सारे उपकरण
चुन लिये।
लेकिन
सदा हमें यहीं
समझाया जाता
रहा है कि किसी
का अनुकरण करो, किसी जैसे
बनो। यह बड़ी
खतरनाक
शिक्षा है।
दुनिया में
कोई कभी "किसी
जैसे' नहीं
बन सकता है।
आज तक बना
नहीं, उदाहरण
नहीं है।
महावीर के
पीछे बहुत लोग
चले, लेकिन
कौन महावीर बन
सका है? ऐसा
नहीं कि चलनेवालों
ने कुछ कम
कोशिश की है।
यह दोष नहीं
थोपा जा सकता।
बड़ी कोशिश की
है। कई बार तो
ऐसा लगता है
कि महावीर के
पीछे चलनेवालों
ने महावीर से
भी ज्यादा
कोशिश की है।
सच तो यह है कि
महावीर को
महावीर होने
में कोई कोशिश
नहीं करनी
पड़ती। वह स्पांटेनियस
है। प्रत्येक
को स्वयं होने
में कभी बहुत
कोशिश नहीं
करनी पड़ती, दूसरा होने
में ही कोशिश
करनी पड़ती है।
एफर्ट जो
है, कोशिश
जो है, वह
दूसरा होने
में ही करनी
पड़ती है।
राम की
सीता चोरी चली
गई, तो राम को
रोने में
कोशिश नहीं
करनी पड़ी।
लेकिन
रामलीला में
जो राम होता
है, उसको
करनी पड़ती है,
आंसू तो आते
नहीं। हो सकता
है स्टेज के
पीछे से पानी
लगाकर आता हो!
हो सकता है
हाथ में मिर्च
लगाए रहता हो!
जब सीता खोती
हो तो जल्दी
आंख मीचने
लगता हो, क्योंकि
जल्दी आंसू
लाने पड़ते
हैं। और इतना
आसान नहीं है
रामलीला में
आंसू लाना, आंसू लाने
पड़ते हैं।
क्या राम को
भी आंसू लाने
का ऐसा उपाय
करना पड़ा होगा?
नहीं, राम
के लिए जो है
वह स्पांटेनियस
है, वह सहज
है। राम की वह
अंतर-अवस्था
है।
महावीर
का त्याग, महावीर की
नग्नता, महावीर
के लिए सहजता
है। दूसरा
आदमी नग्न होने
की व्यवस्था
से नग्न हो
सकता है।
लेकिन तब उसकी
नग्नता सर्कस
की नग्नता
होगी, संन्यासी
की नग्नता
नहीं हो सकती।
वह सिर्फ उधार,
बारोड,
दूसरे का
थोपा हुआ
होगा। वह
ज्यादा से
ज्यादा महावीर
का ऐक्ट कर
सकता है।
महावीर नहीं
हो सकता।
जीसस, या बुद्ध, या कृष्ण, या राम इनके
पीछे चलनेवाले
लोग अभिनय कर
रहे हैं।
इन्होंने आथेंटिक,
प्रामाणिक
आत्मा को
इनकार कर दिया
है।
एक बात
ध्यान रखनी
जरूरी है कि
परमात्मा ने
प्रत्येक को
स्वयं के होने
का हक दिया
है। और जो आदमी
अपने इस हक को
छोड़ता है, वह परमात्मा
की सबसे बड़ी
देन को छोड़ता
है। ऐसा आदमी
नास्तिक है।
ऐसा आदमी यह
कह रहा है कि तुमने
हम पर बहुत
बड़ी
जिम्मेवारी
दे दी। हम इस
योग्य न थे।
हमें तो किसी
के पीछे चला
दो। हम इंजन
नहीं हो सकते,
हम तो सिर्फ
डिब्बे होने
लायक हैं जो
इंजन के पीछे
लगे रहें और
उनकी सेंटिंग
इधर से उधर
होती रहे। तो
वह अपनी
जिंदगी गुजार
लेगा।
नहीं, प्रत्येक
आदमी स्वयं
होने को पैदा
हुआ है--बेजोड़,
यूनीक। उस
जैसा कोई आदमी
इस पृथ्वी पर
न पहले हुआ है
और न पीछे
होगा।
परमात्मा कोई मिडियाकर क्रियेटर
नहीं है। वह
कोई
मध्यम-वर्गीय
या साधारण
कोटि का
स्रष्टा नहीं
है कि एक ही
आदमी को फिर
दोबारा पैदा
करे। वह रोज
नए आदमी को
पैदा कर देता
है!
मैंने
सुनी है एक
कहानी। मैंने
सुना है कि पिकासो
का एक चित्र
किसी आदमी ने
खरीदा, कोई
दस लाख रुपए
में। पिकासो
की पत्नी से
उसने पूछा कि
यह चित्र
प्रामाणिक तो
है न? आथेंटिक तो है न? पिकासो
का ही है न?
पिकासो
की पत्नी ने
कहा, बिलकुल
निश्चिंत
होकर आप खरीद
लें; क्योंकि
यह चित्र मेरे
सामने ही पिकासो
ने बनाया है।
चित्र
खरीद लिया
गया। वह आदमी पिकासो को
यह खबर देने
गया। उसने कहा
जाकर पिकासो
से कि मैंने
दस लाख रुपए
में आपका एक
चित्र खरीदा
है। वह चित्र
भी साथ ले गया
था। पिकासो
ने उस चित्र
को देखा और
कहा कि यह
असली नहीं है, आथेंटिक नहीं है।
वह
आदमी तो होश
खोने लगा। दस
लाख रुपए
लगाये उसने और
पिकासो
ने कह दिया कि
नहीं, यह
प्रामाणिक
नहीं है! तो उस
आदमी ने कहा, आप कैसी बात
कर रहे हैं? आपकी पत्नी
ने गवाही दी
है कि यह
चित्र उसके सामने
बना है।
उसकी
पत्नी मौजूद
थी। उसने भी
कहा, आप कैसी
बात कर रहे
हैं? भूल
गए हैं क्या? यह चित्र
आपने बनाया
है। मैं मौजूद
थी।
पिकासो
ने कहा, मैंने
बनाया जरूर, लेकिन यह आथेंटिक
नहीं है।
तब तो
और मुश्किल हो
गई। अगर पिकासो
ने ही बनाया
है, तो फिर
प्रामाणिक
क्यों नहीं है?
तब तो उस
खरीददार ने
कहा, आप
मजाक तो नहीं
कर रहे हैं?
पिकासो
ने कहा, मैं
मजाक नहीं कर
रहा हूं। यह
चित्र बनाया
तो मैंने ही
है, लेकिन
यह चित्र मैं
एक दफा पहले
और बना चुका
हूं। अब यह
सिर्फ उसकी
कापी है। और
यह कापी कोई
दूसरा करे तो
भी प्रामाणिक
नहीं है, और
मैं खुद करूं
तो भी
प्रामाणिक
नहीं है। यह कापी
है, ओरिजनल नहीं है। यह
खयाल मैं एक
दफा पहले
प्रगट कर चुका
हूं।
लेकिन
परमात्मा जो
खयाल एक दफे
प्रगट कर चुका, दोबारा करता
ही नहीं।
बुद्ध एक दफा
पैदा कर दिए, बात खत्म हो
गई। महावीर एक
दफा पैदा किये,
बात खत्म हो
गई। इस पृथ्वी
पर खोजने से
एक कंकड़
भी आप दूसरे कंकड़ जैसा
न खोज पायेंगे,
आदमी तो
बहुत बड़ी बात
है। आप झाड़ का
एक पत्ता तोड़
लें तो उसी
झाड़ पर दूसरा
पत्ता वैसा न
खोज पायेंगे,
आदमी तो
बहुत बड़ी बात
है; आदमी
तो बहुत ही
जटिल चेतना का
विकास है।
यहां
प्रत्येक
आदमी एक शिखर
है। और किसी
आदमी को यह हक
नहीं कि वह
किसी का
अनुसरण करे।
इसका यह मतलब
नहीं है कि वह
महावीर को
समझे न। सच तो यह
है कि अनुयायी
ही नहीं समझता
कभी भी, अनुयायी
को समझने की
जरूरत ही नहीं
होती। असल में
जिसको पीछा
करना है, वह
समझने से बचने
के लिए ही
पीछा करता है।
वह समझने की
झंझट में नहीं
पड़ता। समझना
तो उसे पड़ेगा,
जिसे किसी
का पीछा नहीं
करना है। पीछा
तो अपना ही
करना है, लेकिन
दूसरों ने भी
अनुभव लिए
हैं। दूसरों
की जिंदगी में
भी संगीत
प्रगट हुआ है।
दूसरों ने भी
छुआ है जीवन
का तार। और
दूसरों ने भी जलाए हैं
दीये ज्ञान के,
प्रज्ञा
के। और दूसरों
की जिंदगी में
भी सुवास उठी
है आत्मा की।
और दूसरों की
जिंदगी में भी
नृत्य घटा है
परमात्मा का।
उनको वह समझने
जा रहा है।
इसलिए
नहीं कि उनका
वह अनुकरण
करेगा, बल्कि
इसलिए कि शायद
इन सब विकसित
फूलों को देखकर
उसकी कली भी
प्यास से भर
जाये और फूल
बनने को आतुर
हो जाये।
इसलिए कि शायद
दूसरी वीणाओं
को सुनकर उसकी
वीणा के तार
भी झनझना उठें
और उसकी वीणा
भी गीत गाने
को आतुर हो
उठे। इसलिए कि
शायद दूसरे के
पैरों में
बंधे घुंघरुओं
की आवाज उसके
सोये हुए घुंघरुओं
की चुनौती बन
जाये, वह
भी नाच सके।
लेकिन
किसी का
अनुकरण करने
के लिए समझने
की जरूरत नहीं
है। किसी का
अनुकरण करने
के लिये समझने
की जरूरत ही
नहीं है। आंख
पर पट्टी बांधिये
और चल पड़िये।
अनुकरण के लिए
अंधा होना बड़ी
से बड़ी
योग्यता, क्वालिफिकेशन है। समझ बड़ी
और बात है।
अपनी
जिंदगी को अगर
सच्चाई की ओर
ले जाना हो, स्वयं को
अगर विकसित
करना हो, तो
भूलकर किसी के
अनुयायी मत
बनना। और न
भूलकर किसी को
अनुयायी ही
बनाना। दोनों
ही खतरनाक
बातें हैं।
समझना दूसरों
को, और अगर
जिंदगी में
कभी आपका भी
फूल खिल जाये,
तो रख देना
बाजार के बीच
सड़क पर कि
दूसरे उसे देख
लें। शायद
उनकी कली को
भी चुनौती मिल
जाये।
लेकिन
उनकी कली जब खिलेगी, तो वह फूल
उनके जैसा
होगा, आप
जैसा नहीं
होगा। और उनकी
वीणा जब बजेगी,
तो संगीत उन
जैसा होगा, आप जैसा
नहीं होगा।
प्रत्येक
व्यक्ति को
परमात्मा के
द्वार पर अपने
ही प्राणों का
नैवेद्य लेकर
पहुंचना होता
है। और
प्रत्येक
व्यक्ति को
परमात्मा के
द्वार पर अपनी
ही आत्मा को
लेकर पहुंचना
होता है। उधार
आत्माएं लेकर
परमात्मा के
द्वार पर कभी
कोई प्रविष्ट
हुआ हो, ऐसी
खबर सदियों
में कभी भी
नहीं सुनी गई
है। वहां तो
पूछा यही
जायेगा कि
प्रामाणिक है?
आथेंटिक है? अपने
को ही लेकर आए
हो? किसी
और का चेहरा
लगाकर तो नहीं
आ गए?
उस
दरवाजे पर
धोखा नहीं
दिया जा
सकेगा। हो सकता
है इस पृथ्वी पर
धोखा भी हो
जाये। हो सकता
है इस पृथ्वी
पर नंगा खड़ा
हुआ कोई आदमी
ठीक महावीर
जैसा दिखाई पड़ने
लगे। हो सकता
है इस पृथ्वी
पर कोई
पीत-वस्त्र
पहने हुए
व्यक्ति ठीक
बुद्ध जैसा
दिखाई पड़ने
लगे। हो सकता
है इस पृथ्वी
पर धोखा हो
जाये। लेकिन
परमात्मा के
सामने सब
वस्त्र गिर
जायेंगे, और
परमात्मा के
सामने सब
खोलें उघड़
जायेंगी।
परमात्मा के
सामने जब सब
नग्न खड़ा हो
जायेगा और
परमात्मा के
दर्पण में जब
अपनी पूरी
नग्नता
दिखायी पड़ेगी,
तो वहां
सिवाए उसके
कोई भी नहीं
मिलेगा, जो
आप थे। वहां
वह नहीं
मिलेगा जो
आपने ओढ़ा;
वह नहीं
मिलेगा जो
आपने संभाला;
वह नहीं
मिलेगा जो
आपने अभ्यास
किया; वहां
तो वही दर्शित
होगा, जो
आप हैं। उस
दिन बड़ा दुख
होगा, बड़ी
पीड़ा होगी कि
कितने जन्म
व्यर्थ ही नकल
में गंवा दिए,
नाटक में
गंवा दिए।
जिंदगी
दूसरे का
अनुसरण नहीं, जिंदगी
स्वयं का
उदघाटन है।
जिंदगी दूसरे जैसे
होने की
प्रक्रिया
नहीं, स्वयं
जैसे होने का
आयोजन है। और
जो इस स्वयं होने
की चुनौती को
स्वीकार करता
है, वह
महावीर का
अनुयायी नहीं
बनेगा, लेकिन
वहीं पहुंच
सकता है; उसी
ऊंचाई पर, जहां
महावीर
पहुंचे हैं; पहुंच सकता
है वहीं, जहां
जीसस पहुंचे
हैं; पहुंच
सकता है वहीं,
जहां बुद्ध
की समाधि
उन्हें ले गई
है। उसी निर्वाण
में, उसी
मोक्ष में, उसी स्वर्ग
में, उसी
प्रभु के
राज्य में
प्रत्येक का
प्रवेश हो
सकता है।
मैं
फिर से
दोहराता हूं
अंतिम बात:
परमात्मा की
वेदी पर अपने
ही प्राणों के
खिले फूल का
नैवेद्य चढ़ाना
पड़ता है। इसके
अतिरिक्त कोई
उपाय नहीं है।
आज
के लिए इतना
ही।
शेष
कल।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें