ब्रह्मचर्य—(प्रवचन—सातवां)
दिनांक
11 नवंबर 1970,
क्रास
मैदान, बंबई
प्रश्नोत्तर
:
आचार्य
श्री, आपने
कहा है कि
आत्म-अज्ञान
ही हिंसा का
स्रोत है और
कल आपने कहा
कि
हिंसा-वृत्ति
के लिए मनुष्य
स्वयं
जिम्मेदार है,
तो क्या
आत्म-अज्ञान
के लिए भी
मनुष्य स्वयं जिम्मेदार
है? क्यों
और कैसे, इसे
स्पष्ट करें।
अंधेरी
रात हो अमावस
की, और कोई
अपनी गुहा में
बैठा हो
अंधकार में
डूबा हुआ, तो
आंखें बंद रखे
या आंखें खुली
रखे, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है।
आंखें बंद हों,
तो भी
अंधकार होगा;
और आंखें
खुली हों, तो
भी अंधकार
होगा। लेकिन
फिर सुबह हो
जाये, सूर्य
निकल आये, सूर्य
की किरणों का
जाल उस गुहा
के द्वार पर फैल
जाये, पक्षी
गीत गाने लगें;
और फिर भी
वह आदमी अपनी
आंखें बंद किए
बैठा रहे, तो
फर्क पड़ता है।
रात के
अंधकार में
आंखें बंद थीं
या खुली थीं, इससे कोई
अंतर न पड़ता
था। और रात के
अंधकार की कोई
भी
जिम्मेवारी
उस गुहा में बैठे
हुए आदमी की न
थी। अंधकार था;
वह स्थिति
थी। लेकिन
सुबह जब सूरज
निकल आया हो, तब भी अगर वह
आदमी आंखें
बंद किए बैठा
रहे, तो जो
अंधकार उसे
दिखायी पड़ेगा,
वह उसकी
अपनी
जिम्मेवारी
होगी। वह चाहे
तो आंख खोल
सकता है और
अंधकार से
मुक्त हो सकता
है।
पशु का
जीवन, अमावस
की अंधेरी रात
जैसा जीवन है।
आत्म-ज्ञान की
वहां संभावना
नहीं है। पशु
को कोई बोध नहीं
है, स्वयं
के होने का; और कोई
विकल्प भी
नहीं है, कोई
स्वतंत्रता
भी नहीं है कि
वह स्वयं को
जान सके। वह
संभावना ही
नहीं है। इसलिए
पशु को
आत्म-अज्ञान
के लिए
जिम्मेवार नहीं
कहा जा सकता।
वह अंधेरी रात
में है और अंधेरे
के लिए
जिम्मेवार
नहीं है।
इसलिए
पशु अगर
आत्म-ज्ञान न
खोजे, तो
उसे दोषी भी
नहीं ठहराया
जा सकता।
लेकिन आदमी
पशु की यात्रा
से उस जगह
प्रवेश कर गया
है, चेतना
के उस लोक में
जहां सूर्य का
प्रकाश है। और
अब भी अगर कोई आदमी
अंधेरे में है,
तो उसकी
जिम्मेवारी
सिवाय उसके और
किसी पर नहीं
हो सकती।
हम यदि
आत्म-अज्ञानी
हैं, तो अपनी
आंखें बंद
रखने के कारण
हैं; वह
हमारी स्थिति
नहीं है, वह
हमारा चुनाव
है। प्रकाश
चारों तरफ
मौजूद है। आदमी
उस जगह खड़ा हो
गया है विकास
के दौर में, जहां से वह
स्वयं को जान
सकता है। अगर
नहीं जानता है,
तो स्वयं के
अतिरिक्त और
कौन
जिम्मेवार
होगा?
इसका
यह अर्थ नहीं
कि मैं कह रहा
हूं, वह
आत्म-अज्ञान
का पैदा
करनेवाला है।
नहीं, आत्म-अज्ञान
तो है; लेकिन
आदमी उसका
विध्वंस नहीं
कर रहा है, तो
भी
जिम्मेवारी
उसकी है। वह
आत्म-अज्ञान
को पैदा
करनेवाला
नहीं है, लेकिन
विध्वंस
करनेवाला बन
सकता है और
नहीं बन रहा
है। इसलिए
रिस्पांसबिलिटि,
जिम्मेवारी
आदमी की है।
आदमी
आत्म-अज्ञानी
हो तो यह उसका
अपना ही निर्णय
है। आंख उसने
ही बंद रखी
है। रोशनी की
अब कोई कमी
नहीं है।
सार्त्र
का एक बहुत
प्रसिद्ध वचन
मुझे स्मरण आता
है, प्रसिद्ध
भी और अनूठा
भी। सार्त्र
का वचन है: मैन
इज कंडेम्ड टु
बी फ्री, आदमी
स्वतंत्र
होने को विवश
है; मजबूर
है। सिर्फ एक
स्वतंत्रता
आदमी को नहीं है,
बाकी सब
स्वतंत्रताएं
उसे हैं।
चुनाव करने के
लिए आदमी
मजबूर है। सिर्फ
एक चुनाव आदमी
नहीं कर सकता।
वह इतना भर नहीं
चुन सकता कि
"चुनाव न करना'
चुन ले। यह
भर नहीं चुन
सकता। ही कैन
नाट चूज नाट
टु चूज, बाकी
तो उसे सब
चुनाव करना ही
पड़ेगा। इसलिए
"न करने' की
बात नहीं चुन
सकता, क्योंकि
यह भी चुनाव
ही होगा।
आदमी
को प्रतिपल
चुनना ही
पड़ेगा; क्योंकि
आदमी चुनाव की
एक यात्रा है,
पशु चुनाव
की यात्रा
नहीं है। पशु
जो है, वह
है। और अगर
पशु जैसा भी
है उसकी
जिम्मेवारी
किसी पर होगी
तो परमात्मा
पर होगी। आदमी
परमात्मा की
जिम्मेवारी
के बाहर है।
पशु के होने
की
जिम्मेवारी
परमात्मा पर
होगी। पशु जैसा
है, है।
वृक्ष जैसे
हैं, हैं।
उनको हम दोषी
नहीं ठहरा
सकते और न ही
हम उन्हें
प्रशंसा के
पात्र बना
सकते हैं। पर
आदमी बाहर हो
गया है उस
वर्तुल के, जहां से वह
चुनाव के लिए
स्वतंत्र है।
अब अगर
मैं
आत्म-अज्ञानी
हूं, तो यह
मेरा चुनाव है;
और
आत्म-ज्ञानी
हूं, तो यह
मेरा चुनाव
है। अब अगर
मैं दुखी हूं,
तो यह मेरा
चुनाव है; और
आनंदित हूं, तो यह मेरा
चुनाव है।
आंखें खुली
रखूं या बंद, यह मेरा
चुनाव है।
चारों ओर
प्रकाश मौजूद
है। अब अंधकार
में रहना मेरे
हाथ की बात है,
और प्रकाश में
रहना भी मेरे
हाथ की बात
है।
इसलिए
मैंने कहा कि
आत्म-अज्ञान
के लिए भी मनुष्य
जिम्मेवार
है। अब मनुष्य
अपनी
जिम्मेवारी
से मुक्त नहीं
हो सकता। अब
वह प्रतिपल
ज्यादा से
ज्यादा
जिम्मेवार
होता चला
जायेगा। मनुष्य
की यह
जिम्मेवारी
ही, उसकी
गरिमा और गौरव
भी है; यही
उसकी
मनुष्यता भी
है। यहीं से
वह पशुता के बाहर
निकलता है।
इसलिए
यह भी मैं
आपसे कहना
चाहूंगा कि
जिन चीजों में
हम बिना चुनाव
किये बहते हैं, उन चीजों
में हम पशु के
तुल्य ही होते
हैं।
यह भी
बहुत मजे की
बात है कि
हिंसा आमतौर
से हम चुनते
नहीं, अतीत
की आदत के कारण
करते चले जाते
हैं। अहिंसा
चुननी पड़ती है।
इसलिए अहिंसा
एक
उत्तरदायित्व
है और हिंसा
एक पशुता है।
अहिंसा
मनुष्यता की
यात्रा पर एक
मंजिल है, हिंसा
सिर्फ पुरानी
आदत का प्रभाव
है।
मैंने
निश्चित ही
कहा है कि
हिंसा
आत्म-अज्ञान
से पैदा होती
है। और इन
दोनों बातों
में कोई विरोध
नहीं है।
आत्म-अज्ञान
भी हमारा
चुनाव है, हिंसा भी
हमारा चुनाव
है। हम होना
चाहें अहिंसक,
तो अब कोई
हमें रोक नहीं
सकता। मनुष्य
जो भी होना
चाहे, हो
सकता है।
मनुष्य का
विचार ही उसका
व्यक्तित्व
है; उसका
निर्णय ही, उसकी नियति
है; उसकी
आकांक्षा ही,
उसकी
अभीप्सा ही, उसका
आत्मसृजन है।
इसलिए
अब कोई आदमी
अपने मन में
यह कभी भूल कर
भी न सोचे कि
वह जो है, उसमें
वह क्या कर
सकता है? क्रोध
है, तो
क्या कर सकता
है? हिंसा
है, तो
क्या कर सकता
है? अज्ञान
है, तो
क्या कर सकता
है? आदमी
को यह कहने का
हक नहीं है।
जैसे ही आदमी
कहता है कि
मैं क्या कर
सकता हूं, वह
यह खबर दे रहा
है कि कर सकता
है, और
अपने को
समझाने की
कोशिश कर रहा
है कि क्या कर
सकता हूं! कोई
पशु नहीं कहता
कि मैं क्या
कर सकता हूं? यह सवाल ही
नहीं है।
आदमी
जिस दिन कहता
है, मजबूरी
है, मैं
क्या कर सकता
हूं? हिंसक
मुझे होना ही
पड़ेगा! उस दिन
वह यह कह रहा है
कि मैं चुन भी
रहा हूं और
चुनाव की
जिम्मेवारी
भी छोड़ रहा
हूं। मैं
हिंसक हो भी
रहा हूं और हिंसक
होने का दोष
किसी और के
कंधों
पर--प्रकृति
के, परमात्मा
के कंधों पर
छोड़ रहा हूं।
जिस
आदमी ने अपनी
आदमियत का बोझ
किसी और पर
छोड़ा, वह
पशुता की
दुनिया में
वापस गिर जाता
है। असल में
वह आदमी होने
से इनकार कर
रहा है। जो
आदमी चुनने से
इनकार कर रहा
है, वह
आदमी होने से
इनकार कर रहा
है। वह यह कह
रहा है कि
नहीं, हम
पशु
बेहतर--जहां न
कोई चुनाव है,
न कोई
जिम्मेवारी
है, न कोई
निर्णय है, न कोई
परेशानी है।
जो है, वह
है। हम वापस
लौटते हैं।
शराब
पीकर आदमी पशु
में वापस लौट
जाता है। हिंसा
करके आदमी पशु
में वापस लौट
जाता है।
क्रोध करके
आदमी पशु में
वापस लौट जाता
है।
इसलिए
क्रोध से भरे
व्यक्ति को
अगर देखें तो
उसमें सिर्फ
आदमियत की
रूपरेखा भर दिखाई
पड़ती है, आत्मा
दिखाई नहीं
पड़ती। हिंसा
से भरी हुई
आंखें देखें,
तो उसमें
आदमी की आंखें
नहीं दिखाई
पड़तीं, तत्काल
आंखों में एक
मेटामार्फोसिस
हो जाती है।
आंखें बदल
जाती हैं।
भीतर से कोई
छिपा हुआ पशु
तत्काल प्रगट
हो जाता है।
इसलिए क्रोध
में, हिंसा
में आदमी पशु
जैसा व्यवहार
करता है; काटता
है, चीखता
है, नोचता
है।
आदमी
के नाखून छोटे
पड़ गए हैं, क्योंकि
उनकी बहुत
जरूरत नहीं रह
गई है। जंगली
जानवर के पास
नाखून हैं, जो आपकी
हड्डियों तक
के मांस को
बाहर खींच लायें।
लाखों वर्षों
से आदमी को अब
किसी की हड्डियों
तक के मांस को
खींचने की
जरूरत नहीं रह
गई, तो
नाखून छोटे हो
गए हैं। तो
फिर आदमी को
छुरी, भाले,
बर्छियां
बनानी पड़ी
हैं। वे
सब्स्टीटयूट
हैं, जिनसे
वह जानवर का
काम ले लेता
है। क्योंकि
नाखून उसके
पास छोटे पड़
गये हैं। दांत
उसके अब ऐसे
नहीं रहे कि
वे किसी के
मांस को काटकर
बाहर निकाल
लें, तो
उसने हथियार,
औजार बनाए;
गोलियां
बनाई हैं जो
आदमी की छाती
में धंस जायें।
आदमी
ने जितने
अस्त्र-शस्त्र
खोजे हैं, वह अपनी खो
गई पशुता को
सब्स्टीटयूट
करने के लिए, परिपूरक
करने के लिए
खोजे हैं। जो
जानवरों के पास
है वह हमारे
पास नहीं है, तो हमें
बनाना पड़ा है।
निश्चित
ही, जब हमने
बनाया है तो
जानवरों से
बेहतर बना लिया
है।
किस
जानवर के पास
एटम-बम है? किस जानवर
के पास सैकड़ों
मील दूर बम
फेंकने के
उपाय हैं? नहीं,
जानवर के
पास बड़े
प्रकृति-प्रदत्त
साधन हैं। और
आदमी ने अपनी
सारी
बुद्धिमत्ता
का उपयोग करके--करोड़ों
जानवरों को
इकट्ठा करके
भी जो न हो सके,
वह एक आदमी
कर सकता है।
यह आदमी का
अपना चुनाव है।
जिस
दिन किसी आदमी
को यह बात
स्पष्ट दिखाई
पड़ जाती है कि
जो भी मैं हूं, उसकी
जिम्मेवारी
मेरी है, उसी
दिन से
परिवर्तन और
रूपांतरण
शुरू हो जाता
है। जिस आदमी
की जिंदगी में
अभी यह खयाल
है कि जो मैं
हूं, हूं; उसमें मेरा
कोई वश नहीं, उस आदमी की
जिंदगी में
धर्म के मंदिर
का द्वार कभी
भी नहीं खुल
सकता।
उत्तरदायित्व
मेरा है, और
मैं ही
निर्णायक हूं
अपनी नियति का,
इस बात का
बोध मनुष्य की
जिंदगी को
परिवर्तित करता
है।
इसलिए
मैंने कहा कि
आत्म-अज्ञान
के लिए मनुष्य
स्वयं
जिम्मेवार
है।
जिम्मेवार इन
अर्थों में कि
वह तोड़ सकता
है, और नहीं
तोड़ रहा है; मिटा सकता
है, और
नहीं मिटा रहा
है; मुक्त
हो सकता है, और नहीं
मुक्त हो रहा
है।
आचार्य
श्री, कृपया
समझाएं कि
ध्यान-साधना
में
हिंसक-वृत्तियों
का विसर्जन और
उदात्तीकरण
अर्थात डिजोल्यूशन
और सब्लीमेशन
किस प्रकार
घटित होता है?
हिंसा
की वृत्ति
अकेली वृत्ति
ही नहीं है, हिंसा की
वृत्ति के साथ
हिंसा के अनेक
वेगों का दमन
भी संयुक्त है,
सप्रेशन भी
संयुक्त है।
हिंसा की
वृत्ति तो है
ही, हिंसा
करने की
आकांक्षा भी
है। लेकिन
हजार मौकों पर
हिंसा करने का
उपाय नहीं
होता है। हिंसा
करना चाहते
हैं और नहीं
कर पाते हैं।
क्योंकि
संस्कृति है,
सभ्यता है,
जीवन की
व्यवस्था है,
परिस्थितियां
हैं, प्रतिकूलताएं
हैं। ऐसा आदमी
खोजना
मुश्किल है, जिसने किसी
क्षण में किसी
दूसरे को मार
डालने का
विचार न किया
हो! ऐसा आदमी
भी खोजना
मुश्किल है, जिसने किसी
क्षण में अपने
को ही मार
डालने का विचार
न किया हो! दिन
में न किया
होगा, तो
रात सपने में
किया होगा।
लेकिन सभी
आदमी दूसरों
को मार नहीं
डालते, और
सभी आदमी
आत्महत्याएं
नहीं कर लेते।
सोचते हैं, प्रतिकूलताएं
हैं...संभव
नहीं हो पाता।
और जब
एक बार हिंसा
का भाव मन में
उठ जाये और प्रगट
न हो पाए, तो
हिंसा की
वृत्ति तो
रहती ही है, हिंसा के
भाव का वेग भी
दमित हो जाता
है। यह भी इकट्ठा
होने लगता है।
हिंसा की
वृत्ति तो
भीतर बनी ही
रहती है, और
न की गई हिंसा
की, की गई
भावनाएं भी
संग्रहीत
होती चली जाती
हैं। एक जन्म
की नहीं, अनेक
जन्मों की भी
इकट्ठी हो
जाती हैं। उस
संग्रह को भी
हम अपने साथ
लेकर चल रहे
हैं। वृत्ति
तो साथ है ही, दबाए हुए
वेग भी साथ
हैं। इधर
वृत्ति रोज
नये वेग पैदा
करती है और
उधर पुराने
वेगों का संग्रह
बढ़ता चला जाता
है। और किसी
भी क्षण
विस्फोट हो
सकता है।
इसलिए
हिंसा की
वृत्ति से जो
मुक्ति है, उस मुक्ति
के लिए दो
बातें समझ
लेनी जरूरी
है: हिंसा की
वृत्ति का तो
विसर्जन होना
ही चाहिए, हिंसा
के दबे हुए, दबाए गए
वेगों का
विसर्जन भी
जरूरी है।
हिंसा की
वृत्ति
मिटेगी, तो
मैं आने वाले
भविष्य में
हिंसा के
वेगों को पैदा
नहीं करूंगा,
लेकिन
मैंने जो अतीत
में वेग दबाये
हैं, उनका
विसर्जन, उनका
रेचन, उनकी
कैथार्सिस भी
होनी जरूरी है।
महावीर
ने बहुत सुंदर
शब्द
कैथार्सिस के
लिए प्रयोग
किया है।
पश्चिम में
मनसशास्त्री
जिसे
कैथार्सिस
कहते हैं, रेचन कहते
हैं, महावीर
ने उसे
"निर्जरा' कहा
है। वह बहुत
अदभुत शब्द
है।
निर्जरा
का अर्थ है, विदरिंग
अवे। निर्जरा
का अर्थ है, किसी चीज का
झड़ जाना। कोई
चीज जो इकट्ठी
है, उसका
बिखर जाना।
निर्जरा का
अर्थ है, अगर
ऊपर धूल
इकट्ठी हो गई
है, तो धूल
के कणों को
फेंककर अलग कर
देना।
बहुत
वेग हमारे
भीतर इकट्ठे
हैं। ध्यान
में इनकी
निर्जरा, इनकी
कैथार्सिस की
जा सकती है; और सिर्फ
ध्यान में ही
की जा सकती
है। और कोई उपाय
मनुष्य के दबे
हुए वेगों की
निर्जरा का नहीं
है।
ध्यान
में कैसे की
जा सकती है?
जब
आपके मन में
किसी को घूंसा
मारने की
इच्छा पैदा
होती है, तब
आप एक छोटा सा
प्रयोग करके
देखेंगे और
बहुत हैरान
होंगे और यह
प्रयोग मैं
मजाक में नहीं
कह रहा हूं।
अमेरिका में
एक बड़ी
वैज्ञानिक
प्रयोगशाला
इस प्रयोग को
आज कर रही है।
केलिफोर्निया
में एक संस्था
है, इसालेन
इंस्टीटयूट।
शायद अमेरिका
में एक बहुत
कीमती ऋषि आज
मौजूद है।
उसका नाम है, पर्ल्स। वह
जिन लोगों के
मन में बड़ी
हिंसा है, उनकी
आंखों पर
पट्टियां
बंधवा देता है,
तकिए उनके सामने
रख देता है, और कहता है, मारो घूंसे
और समझो कि
दुश्मन सामने
है। जिसे तुम्हें
मारना है, उसी
को मारो!
पहले
तो आदमी हंसता
है कि तकिए को
कैसे मारें! लेकिन
किसी दूसरे
आदमी को मारने
में और तकिए को
मारने में हाथ
को कोई भी
फर्क नहीं
पड़ता है। और
किसी आदमी को
मारने में और
किसी तकिए को
मारने में, खून में जो
विष पैदा हो
गया है, उसके
निकलने में भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता है। दूसरा
आदमी भी तकिए
से ज्यादा और
क्या है?
तो
पर्ल्स अपने
हिंसक मरीज को
कहेगा कि मारो
तकिए को!
पहले
मरीज हंसेगा, लेकिन
पर्ल्स कहेगा,
हंसो मत, मारो! मरीज
कहेगा, आप
भी क्या मजाक
करते हैं!
लेकिन पर्ल्स
कहेगा, थोड़ा
मजाक ही सही, लेकिन मारो!
मरीज तकिए को
मारना शुरू
करेगा और थोड़ी
ही देर में
आस-पास खड़े
लोग देखकर
हैरान होंगे
कि न केवल
मारने में
उसकी गति आ गई,
न केवल वह
तकिए से जूझने
लगा, न
केवल तकिए से
वह दुश्मनी
निकाल रहा है,
बल्कि वह
तकिए को
चीरेगा, फाड़ेगा,
मुंह से काट
डालेगा; तकिए
के
टुकड़े-टुकड़े
कर देगा! और
जिन लोगों को भी
इन प्रयोगों
से गुजरना पड़ा
है, वे
प्रयोग के बाद
कहते हैं कि
मन बहुत हल्का
हो गया है।
इतना हल्का
कभी भी नहीं
था।
ये
पर्ल्स क्या
कह रहा है? ये यह कह रहा
है कि तुमने
अब तक हिंसा
सकारण निकाली
है, किसी
पर निकाली है।
अब तुम हवा
में निकाल लो,
किसी पर मत
निकालो; क्योंकि
जब भी किसी पर
निकाली
जायेगी, तो
उसकी
प्रतिक्रियाएं
होंगी।
अगर
मैं किसी को
घूंसा
मारूंगा, तो
यह घूंसा आकाश
में खो नहीं
जायेगा, अंतरिक्ष
इसको एबजार्ब
नहीं कर लेगा।
जिसको घूंसा
मारूंगा, वह
इसका उत्तर
देगा। आज देगा,
कल देगा, परसों
देगा--प्रतीक्षा
करेगा, लेकिन
उत्तर देगा।
और जब मैं
किसी को घूंसा
मारूंगा, तो
हो सकता है वह
बुद्ध जैसा, महावीर जैसा
कोई आदमी हो, और उत्तर न
भी दे, तो
भी जैसे ही
मैं किसी को
घूंसा
मारूंगा, तो
मेरे मन में
भी
प्रतिक्रिया
और पश्चाताप होगा।
और
ध्यान रहे!
क्रोध ही बुरा
नहीं है, पश्चात्ताप
भी उतना ही
बुरा है।
क्योंकि पश्चात्ताप
उल्टा हो गया
क्रोध है, पश्चात्ताप
शीर्षासन
करता हुआ
क्रोध है। पश्चात्ताप
भी उतना ही
बुरा है। असल
में
पश्चात्ताप
करके आदमी फिर
से क्रोध करने
की तैयारी के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
करता है। जब
एक आदमी
रिपेंट करता
है और कहता है,
बहुत बुरा
हुआ कि मैंने
क्रोध किया, तब वह अपने
मन को यह समझा
रहा है कि मैं
इतना बुरा
आदमी नहीं हूं,
एक बुरा काम
हो गया है, यह
दूसरी बात है।
पश्चात्ताप
करके वह अपने
अच्छे आदमी को
वापस पुनर्स्थापित
कर रहा है। वह
रीइस्टेबलिश
कर रहा है
अपनी पुरानी
इज्जत को, अपनी ही
आंखों में। और
जैसे ही वह
पुनर्स्थापित
हो जायेगा, कल फिर
घूंसा मारने
के लिए तैयार
हो जायेगा। परसों
फिर
पश्चात्ताप, फिर घूंसा।
क्रोध और
पश्चात्ताप
का एक दुष्ट-चक्र
घूमता रहेगा।
और जब
हम किसी
व्यक्ति को
घूंसा मारते
हैं, तो न केवल
पश्चात्ताप
होता है, बल्कि
वह घूंसे का
उत्तर देगा, इसकी पुनः
तैयारी भी
शुरू हो जाती
है। इसलिए हिंसा
फिर एक
दुष्ट-चक्र बन
जाती है, जिसके
बाहर निकलना
मुश्किल हो
जाता है।
लेकिन
तकिए को अगर
एक आदमी घूंसा
मार रहा है, तो ऐसा कुछ
भी नहीं घटता।
तकिए को घूंसा
मारने में
निर्जरा हो
रही है।
पर्ल्स तकिए
को घूंसा
मारने को कह
रहा है, क्योंकि
जिस दुनिया
में हम रह रहे
हैं, वह
बहुत
आब्जेक्टिव
हो गई है।
महावीर
पच्चीस सौ साल
पहले थे। वे कहते,
हवा में ही
घूंसा मार दो,
तकिए की
क्या जरूरत है?
लेकिन हम
कहेंगे, हवा
में घूंसा? तकिए को तो
फिर भी मारने
जैसा लगता है।
वह कम से कम
आदमी की पीठ
जैसा लगता है,
पेट जैसा
लगता है! तकिए
को घूंसा
छुयेगा तो ऐसा
ही लगेगा कि
किसी को छुआ, थोड़ा-सा तो
तकिया भी
उत्तर देगा।
दुनिया
पच्चीस सौ साल
में महावीर के
बाद वस्तुगत
हो गई है।
महावीर ने जिस
ध्यान की बात
की है, उस
ध्यान में
तकिए की भी
कोई जरूरत
नहीं है। मैं
भी जिस ध्यान
की बात करता
हूं, उसमें
भी तकिए की
कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन शायद
अमेरिका में
तकिए के बिना
घूंसा मारना
और भी मुश्किल
हो जायेगा।
वस्तुगत कुछ तो
होना ही
चाहिए। आदमी न
सही, तो
तकिया ही सही।
महावीर
तो तकिए को भी
मारने को मना
करेंगे। वे तो
कहेंगे...पर्ल्स
को वे तो
कहेंगे, इसमें
भी थोड़ी-सी
हिंसा हो रही
है। यह आदमी तकिए
में अपने
दुश्मन को
प्रोजेक्ट कर
रहा है। कोई
दुश्मन नहीं
है, जिसको
चोट पहुंच रही
है, लेकिन
इस आदमी को
किसी को मारने
का मजा और रस आ रहा
है। यह रस भी
हिंसा की धारा
को थोड़ा-बहुत
जारी रखेगा।
इससे हिंसा की
पूर्ण
निर्जरा नहीं
हो जायेगी।
इसलिए
पर्ल्स की
लेबोरेटरी से
गए लोग
दो-चार-छह
महीने बाद फिर
वापस आ जाएंगे
और कहेंगे कि
हिंसा फिर मन
में इकट्ठी हो
गई। अब फिर
उनको तकिया
चाहिए और फिर
उनको मारना
पड़ेगा।
ध्यान
की प्रक्रिया
कहती है कि आप
किसी की फिक्र
छोड़ दें, सब्जेक्टिव
वायलेंस कर
लें।
सब्जेक्टिव
वायलेंस का
मतलब अपने साथ
हिंसा करना
नहीं है।
सब्जेक्टिव
वायलेंस का
मतलब है, सिर्फ
हिंसा को हो
जाने
दें--बिना
किसी आब्जेक्ट
के, बिना
किसी विषय के,
बिना किसी
वस्तु के।
एक
आदमी अगर
ध्यान में चीख
मारकर
चिल्लाये, घूंसे मारे,
नाचे, कूदे,
तो उसके
भीतर जो हिंसा
के दबे हुए
वेग हैं, उनकी
निर्जरा होती
है। वे गिर
जाते हैं। एक
घंटे भर के
किसी भी दिन
के प्रयोग के
बाद आप इस बात
का अनुभव कर
सकते हैं कि
आपके भीतर के
दबे हुए वेग
उड़ गए, आप
हल्के होकर
कमरे के बाहर
आ गए। उस दिन
दिनभर आप
क्रोध न कर
पायेंगे, उतनी
आसानी से
जितनी आसानी
से कल किया
था। उतनी
आसानी से किसी
को घूंसा न
बांध पायेंगे,
जितनी
आसानी से सदा
बांधा था। वे
ही कारण, जो
कल आपकी आंखों
को लाल खून से
भर देते, आज
आपकी आंखों को
झील की तरह
नीला ही छोड़
जायेंगे। और
एक हंसी भी
अपने पर आनी
शुरू होगी कि
जिस हिंसा की
ऐसे ही
निर्जरा हो
सकती थी, उसके
लिए अकारण ही
मैंने दूसरों
को पीड़ा देकर दुष्ट-चक्र
निर्मित किये,
विसीयस
सर्किल बनाए।
महावीर
एक गांव के
पास खड़े थे और
कुछ लोगों ने आकर
उन्हें बहुत
पीटा। किसी ने
उनके कान में
खीलें ठोंक
दीं। वे खड़े
देखते रहे।
पीछे किसी ने
उनसे पूछा, आपने कुछ भी
न कहा? आप
कुछ तो बोलते,
इतना तो
कहते कि अकारण
मुझे क्यों
मार रहे हो?
तो
महावीर ने कहा, अकारण वे
नहीं मार रहे
थे। उनके भीतर
मारने की बात
का जरूर ही
कोई कारण रहा
होगा। हो सकता
है, मुझसे
संबंधित न हो
कारण, लेकिन
उनके भीतर तो
कारण रहा ही
होगा। और फिर मैंने
सोचा कि वे
मुझे ही मार
लें तो बेहतर
है, वे
किसी दूसरे को
मारेंगे, तो
बिना मार का
उत्तर पाए
वापस न
लौटेंगे। उनकी
हिंसा की
निर्जरा हो
जाये। तो
मुझसे बेहतर आदमी
उन्हें खोजना
मुश्किल है।
महावीर
तकिए की तरह
ही व्यवहार
किये उन लोगों
के साथ।
ध्यान
में, दबे हुए
समस्त-वेगों
की निर्जरा
होती है--वे
चाहे हिंसा के
हों, चाहे
क्रोध के हों,
चाहे काम के
हों, चाहे
लोभ के
हों--ध्यान
में समस्त दबे
वेगों की
निर्जरा होती
है। और जब
वेगों की
निर्जरा हो
जाये, जब
सप्रेस्ड, दबी
हुई शक्तियां
बिखर जायें, तो वृत्ति
से छुटकारा
पाने में बड़ी
आसानी हो जाती
है। जब किसी
के घर की
तिजोरी का
सारा धन फिंक
जाये, तो
तिजोरी को
फेंकने में
बहुत देर नहीं
लगती। तिजोरी
को तो आदमी
बचाता ही
इसलिए है कि
उसके भीतर जो
धन इकट्ठा है।
अगर तिजोरी का
सारा धन बांट
दिया गया हो, तो तिजोरी
को दान करने
में बहुत
कठिनाई नहीं पड़ती।
हिंसा
की वृत्ति से
छुटकारा पाना
उतना कठिन नहीं
पड़ेगा। हिंसा
के वेग, जो
हिंसा की
वृत्ति को
तिजोरी बनाकर
बैठ गए हैं, उनसे
छुटकारा पाना
ही पहला सवाल
है। और जिस दिन
सारे वेग
मुक्त हो जाते
हैं, उस
दिन हिंसा
अपनी नग्नता
में, अपनी
टोटल
नेकेडनेस में
दिखाई पड़ती
है। और जब कोई
व्यक्ति
हिंसा को उसकी
पूरी नग्नता
में देखने में
समर्थ हो जाता
है, तो वह
एक क्षण भी
हिंसक नहीं रह
सकता।
क्योंकि
हिंसा को उसकी
पूरी नग्नता
में देखना, उससे मुक्त
हो जाना है।
वह इतनी पीड़ा
है, वह
इतनी कुरूपता
है, वह
इतनी गंदगी है,
कि उसमें
कोई एक क्षण
भी रुकने को
राजी नहीं
होगा। वह ऐसा
ही है हिंसा
को उसकी पूरी
नग्नता में
देखना, जैसे
किसी के घर
में आग लग गई
हो, और
लपटों में घर
घिर जाए, और
फिर कोई आदमी
जब लपटों को
देख ले, तो
एक क्षण भी उस
घर में रुकना
संभव न हो। वह
छलांग लगाये
और बाहर निकल
जाये। ठीक ऐसे
ही हिंसा की
लपटों में
घिरा आदमी
बाहर कूद पड़ता
है। लेकिन
हिंसा की
लपटें दिखाई
नहीं पड़तीं, क्योंकि
हिंसा की
वृत्ति और
स्वयं के बीच
में न-मालूम
कितनी पर्तें
हैं दबे हुए
वेगों की। उन
वेगों के कारण
हिंसा की
वृत्ति का
दर्शन नहीं हो
पाता। उसके
कारण नेकेड
वायलेंस
दिखाई नहीं
पड़ती। उसके
कारण हमेशा ही
हमें यही
दिखाई पड़ता है
कि हिंसा भी
हमारी मित्र
है, क्योंकि
हिंसा का हमें
उपयोग करना
है। कल कोई दुश्मन
होगा, कल
कोई हमला
करेगा, तो
जवाब कैसे
देंगे? वे
जो बीच में
दबे हुए वेग
हैं, उनकी
लंबी धुएं की
पर्तों के
कारण हिंसा की
नग्नता दिखाई
नहीं पड़ती।
ध्यान, वेगों से
मुक्ति
दिलाकर हिंसा
का आमना-सामना,
एनकाउंटर
करा देता है।
और जिस आदमी
ने भी हिंसा
को देख लिया, वह अहिंसक
हो गया। जिस
आदमी ने भी
हिंसा को पहचान
लिया, उसके
हिंसक होने के
फिर उपाय नहीं
रह जाते। क्योंकि
कोई भी आदमी जान
कर नर्क में
उतरने को कभी
राजी नहीं
होता है। और
अगर कभी कोई
नर्क में
उतरता है, तो
वह नर्क को
स्वर्ग समझकर
ही उतरता है।
कोई आदमी कभी
आग की लपटों
में नहीं
उतरता और अगर
उतरता है तो
आग की लपटों
को स्वर्ग का
द्वार समझकर
ही उतरता है।
ध्यान
विसर्जन है, निर्जरा है,
कैथार्सिस
है। ध्यान का
अर्थ है: आपके
भीतर जो हो
रहा है, उसे
अकारण प्रकट
हो जाने
दें--किसी पर
नहीं, शून्य
में। उसे
शून्य को
समर्पित कर
दें।
अब जब
क्रोध आये, तो एक
छोटा-सा
प्रयोग करके
देख लें। जब
क्रोध आये, तो द्वार
बंद कर लें और
खाली कमरे में
क्रोधित हो
जायें। पूरा
क्रोध कर लें
खाली कमरे
में। बहुत
हंसी आयेगी, क्योंकि बड़ा
अजीब मालूम
पड़ेगा, एबसर्ड
मालूम पड़ेगा।
सदा क्रोध
दूसरों पर किया
है, लेकिन
एक बार अकेले
में करके देख
लें और तब दूसरे
पर करना
मुश्किल होता
जायेगा। पहली
दफे अकेले में
हंसी आयेगी और
दूसरी दफे से
दूसरे पर करने
में हंसी आने
लगेगी। क्योंकि
जो पागलपन आप
अकेले में भी
नहीं कर सकते,
वह पागलपन
आप सबके सामने
कैसे कर सकते
हैं? और जो
पागलपन अकेले
में भी हंसी
लाता है, वह
चार आदमियों
के सामने करके
लोगों के मन
में आपकी क्या
तस्वीर बनाता
होगा? इसकी
कल्पना कमरे
में आईना रखकर
और दिल खोलकर
क्रोध कर के देख
लें। तोड़ना ही
हो, तो
आईने को तोड़
देना। और उस
सारे विध्वंस
के बीच खड़े
होकर देखना कि
आपके भीतर किस
तरह के जहर
हैं! इनकी
निर्जरा
होगी। इनकी
कैथार्सिस होगी।
ये गिर
जायेंगे। और
इनके गिरने के
बाद आप अपनी
हिंसा को देखने
में समर्थ हो
सकेंगे।
हिंसा
से मुक्ति के
लिए हिंसा का
दर्शन अनिवार्य
है।
आचार्य
श्री, आपने
कहा है कि
काम-क्रीड़ा
में सूक्ष्म
हिंसा है।
लेकिन क्या
संभोग दो
व्यक्तियों
के परस्पर
संपर्क से
बायोलाजिकल
सुख पैदा करने
का आयोजन नहीं
है? क्योंकि
इस घटना के
सुख में दोनों
भागीदार होते
हैं, इसलिए
क्या इसमें
म्युचुअल, परस्पर
सहानुभूति और
प्रेम आधार
नहीं है?
ऋषभ
से लेकर
पार्श्व तक, धर्म को चार
सूत्र दिए गए
थे। कहें कि
धर्म का रथ
चार
पहियोंवाला
था। या कहें
कि धर्म के
पास चार पैर
थे। चतुर्यान
था धर्म।
महावीर ने एक पांचवां
सूत्र
जोड़ा--ब्रह्मचर्य।
महावीर के पहले
पार्श्व तक
किसी ने
ब्रह्मचर्य
को धर्म का सूत्र
नहीं बताया
था।
यह बड़े
मजे की बात है
और काफी समझ
लेने की। यह आश्चर्यजनक
मालूम होगा कि
ऋषभ से लेकर
पार्श्व तक के
चिंतकों ने, अनुभवियों
ने
ब्रह्मचर्य
को धर्म का
सूत्र नहीं
बताया।
क्योंकि
पार्श्व तक
यही समझा जाता
रहा कि जो
अहिंसा को पा
लेगा, उसके
जीवन में
ब्रह्मचर्र्य
अनायास ही उतर
जायेगा।
क्योंकि काम
अपने आप में
एक गहरी हिंसा
है, सेक्स
अपने आप में
एक गहरी हिंसा
है।
काम को
हिंसा क्यों
कहा जा सकता
है, इस संबंध
में दो-चार
सूत्र समझ
लेने उपयोगी
हैं। और
महावीर ने क्यों
ब्रह्मचर्य
को अलग सूत्र
दिया, यह
भी थोड़ा सोच
लेना उचित
होगा।
महावीर
का नाम अहिंसा
के साथ गहराई
से जुड़ा है; इतना कोई
दूसरा नाम
नहीं जुड़ा है।
लेकिन आश्चर्य
होगा आपको यह
जानकर कि
महावीर को
अहिंसा से
ब्रह्मचर्य
को अलग कर
देना पड़ा। और
अलग कर देने
का कुल कारण इतना
है कि महावीर
जिन लोगों के
बीच बात कर
रहे थे, वे
बहुत गहरी
अहिंसा समझने
में असमर्थ थे,
वे बहुत ही
उथली अहिंसा
समझ पाते थे।
इतनी उथली
अहिंसा में
काम नहीं आता।
अहिंसा जब
बहुत गहरी
होती है, तभी
पता चलता है
कि काम-वासना
भी हिंसा का
एक रूप है।
लेकिन पार्श्व
तक चर्चा नहीं
करनी पड़ी, क्योंकि
अहिंसा बड़े
गहरे अर्थों
में ली जाती रही।
क्यों? दो
तीन बातें
हैं।
एक तो
जैसा मैंने
कहा कि जैसे
ही किसी
व्यक्ति को
दूसरे की चाह
पैदा होती है, वह आदमी
दुखी है, इसका
सबूत हो गया।
जैसे ही कोई
व्यक्ति कहता
है कि मेरा
सुख दूसरे से
मिलेगा, वैसे
ही वह व्यक्ति
दुखी है, यह
तय हो गया। और
जो अपने से भी
सुख नहीं पा
सका, वह
दूसरे से सुख
पा सकेगा, यह
असंभव है।
भ्रम पा सकता
है, सुख
नहीं पा सकता;
धोखा पा
सकता है, सत्य
नहीं पा सकता;
सपने देख
सकता है, लेकिन
जाग-जागकर
रोयेगा।
दूसरे
की आकांक्षा
ही इस बात का
सबूत है कि अभी
सुख का सूत्र
नहीं मिला। और
दूसरे की
आकांक्षा के
बिना तो काम
नहीं हो सकता, सेक्स नहीं
हो सकता! वह
दूसरे की
आकांक्षा में
छिपा है।
इसलिए भी काम
हिंसा है। और
इसलिए भी, कि
एक व्यक्ति के
पास जो
वीर्य-कण हैं,
वे जीवित
हैं।
आज
पृथ्वी पर
साढ़े तीन अरब
लोगों की
संख्या है। एक
साधारण
व्यक्ति के
जीवन में
जितने वीर्य-कण
बनते हैं, उतने
वीर्य-कणों से
इतनी संख्या
पैदा हो सकती है,
सारी
पृथ्वी की। और
एक व्यक्ति
जीवन भर इन
वीर्य-कणों का
काम के लिए
उपयोग करता
रहता है।
संभोग के दो
घंटे के
भीतर...जितने वीर्य-कण
शरीर से बाहर
जाते हैं, वे
दो घंटे के
भीतर मर जाते
हैं। अगर एकाध
वीर्य-कण
स्त्री के
अंडे तक पहुंच
गया, तो वह
नए जीवन की
यात्रा पर
निकल जाता है,
और शेष
वीर्य-कण दो
घंटे के भीतर
मर जाते हैं। एक
संभोग में लाखों
वीर्य-कण मरते
हैं। ये
वीर्य-कण
बीज-रूप में
जीवन हैं।
इनमें से
प्रत्येक
वीर्य-कण एक मनुष्य
बन सकता है।
इसलिए एक
संभोग में
लाखों व्यक्तियों
की हत्या तो
हो ही रही है।
यह लाखों
व्यक्तियों
की हत्या
हिंसा है।
तीसरी
बात और खयाल
में ले लेनी
जरूरी है। जिस
एक व्यक्ति के
पैदा होने की
संभावना है, अहिंसा को
जिन्होंने
बहुत गहरे
जाना है, वे
कहेंगे कि
जिसको तुमने
जन्म दिया, उसे तुमने
मरने के लिए
पैदा किया है।
असल में जन्म,
मरने की
शुरुआत है।
जन्म एक छोर
है, मौत
दूसरा छोर
होगी।
यदि
पिता जन्म के
लिए ही
जिम्मेवार है, तो आधी
जिम्मेवारी
ही ले रहा है।
मरने की
जिम्मेवारी
किसकी होगी? मां अगर
जन्म देने की
ही
जिम्मेवारी
ले रही है, तो
आधी
जिम्मेवारी
ले रही है।
मरने की
जिम्मेवारी
किसकी होगी? यह तो बड़ा
बेईमानी का
सौदा हुआ कि
जन्म की जिम्मेवारी
मां ले ले, पिता
ले ले, और
मरने की...?
असल
में जन्म एक
छोर है, मौत
उसी का ही
दूसरा छोर है।
इसलिए
पूर्ण-अहिंसक
चित्त पिता और
मां बनने की
जिम्मेवारी
लेने में
असमर्थ होता
है। उसका गहरा
कारण है। वह किसी
की मृत्यु का
कारण नहीं बन
सकता। जन्म देना,
किसी की
मृत्यु का
कारण बनना है।
भले ही सत्तर
साल बाद वह
मृत्यु हो। इस
टाइम गैप से
कोई फर्क नहीं
पड़ता। समय के
अंतराल से कोई
फर्क नहीं
पड़ता है। तो
काम-क्रीड़ा
में जो
वीर्य-कण दो
घंटे बाद मर जायेंगे,
वे तो मर ही
जायेंगे, जो
वीर्य-कण
बचेगा, वह
भी सत्तर वर्ष
बाद, अस्सी
वर्ष बाद मर
जायेगा।
काम-क्रीड़ा
जन्म के रूप में
मृत्यु को ही
जन्माती चली
जाती है।
लेकिन जीवन का
सारा धोखा यही
है कि पहले
दरवाजे पर लिखा
होता है--जन्म, और पिछले
दरवाजे पर
लिखा होता
है--मृत्यु।
जब आप भीतर
प्रवेश करते
हैं, तो
जन्म का
दरवाजा देखकर
प्रवेश करते
हैं; और जब
बाहर निकाले
जाते हैं, तब
मृत्यु के
दरवाजे से
निकाले जाते
हैं। जीवन का
धोखा यही है
कि पहले
दरवाजे पर, एंटें्रस पर
लिखा होता है,
सुख। और
पीछे के
दरवाजे पर
लिखा होता है,
दुख। जब
प्रवेश करते
हैं, तब
सुख की
आकांक्षा में,
और जब बाहर
निकलते हैं, तो
फ्रस्ट्रेटेड,
दुख से
विक्षिप्त और
पागल।
मैंने
एक मजाक सुना
है। मैंने
सुना है कि
न्यूयार्क में
एक आदमी ने
बहुत-सी अजीब
चीजें इकट्ठी
कर ली थीं और
एक अजायबघर
बना रखा था।
लेकिन चीजें
इतनी अजीब थीं
कि जो भी आदमी
अजायबघर में
देखने आते थे, वे देखते ही
रहते थे, निकलने
को राजी नहीं
होते थे! और जब
तक वे न निकल
जायें, तब
तक दूसरे लोग
टिकट ले कर
द्वार पर खड़े
रहते, उनके
भीतर आने का
सवाल न होता।
तो बड़ी
मुश्किल हो गई
थी। आखिर भीतर
के लोगों को
बाहर निकालना
ही पड़ेगा, क्योंकि
दरवाजे पर
दूसरे लोग
दस्तक दे रहे
हैं कि उनको
भी भीतर आने
दिया जाये! और
जो भीतर आता
वह बाहर
निकलता ही
नहीं।
तो उन
अजीब चीजों को
संग्रहीत
करनेवाले
आदमी ने एक
कारीगिरी, एक कुशलता
की। शायद वह
कुशलता उसने
प्रकृति से ही
सीखी होगी!
कोई दस-बारह
कमरे थे उस
अजायबघर में।
एक कमरे से
दूसरे कमरे
में जाने की
तख्ती लगी थी
और तीर बना
था। पहले कमरे
पर तीर लगा होता
था--और भी
अदभुत चीजें
हैं--और तीर
अगले कमरे में
ले जाता था।
और बारहवें
कमरे पर सबसे
बड़ा तीर लगा
था और उस पर
लिखा था--और भी
सबसे अधिक
अदभुत चीजें
हैं, जो न
कभी देखी हैं,
न कभी सुनी
हैं! और जब
आदमी उस कमरे
में से निकलता,
तो सीधा सड़क
पर पहुंच
जाता! और पीछे
लौटने का उपाय
नहीं था।
दरवाजे पर
संतरी खड़ा था।
फिर लौटना हो,
तो टिकट
लेकर पहले
दरवाजे से ही
वापस लौटना पड़ता
था। जिस दिन
से यह तख्ती
लगायी गई, उस
दिन से उस
म्यूजियम में
कभी भीड़ नहीं
हुई, क्योंकि
वह "और भी
अदभुत चीजें'
देखने आदमी
सड़क पर पहुंच
जाता!
जन्म
की तख्ती सामने
के द्वार पर
है, मृत्यु
की तख्ती पीछे
के द्वार पर
है। अहिंसा को
जिन्होंने
गहरे जीया है,
जिन्होंने
जाना है, वे
यह भी कहेंगे
कि जन्म देना
भी हिंसा है।
इन तीन
कारणों से
काम-क्रीड़ा
हिंसा का ही
एक रूप है। और
दुखी
मनुष्य--जैसा
मैंने पहले
कहा--दूसरे से
सुख पाना
चाहता है।
लेकिन क्या
कभी आपने सोचा
कि वह दूसरा
आदमी जो आपसे
काम-क्रीड़ा
में संलग्न हो
रहा है, वह
भी दुखी है, और आपसे सुख
पाना चाहता
है! ये दो
भिखमंगे एक दूसरे
से भीख मांग
रहे हैं।
मैंने
सुना है कि एक
गांव में दो
ज्योतिषी थे।
वे रोज सुबह
अपना ज्योतिष
का काम करने
बाजार जाते
थे। और रास्ते
में जब भी मिल
जाते, तो एक
दूसरे को अपना
हाथ दिखा लेते
थे कि क्या खयाल
है, आज
धंधा कैसा
चलेगा?
हम
सारी जिंदगी
ऐसा ही कर रहे
हैं। सब दुखी
हैं और एक
दूसरे से सुख
मांग रहे हैं।
जिससे मैं सुख
मांगने गया
हूं, वह मुझसे
सुख मांगने
आया है!
स्वभावतः, इन
दो दुखी
आदमियों का
अंतिम परिणाम
दुगुना दुख
होगा, सुख
नहीं। दुख
दुगुना हो
जायेगा।
बल्कि दुगुना
कहना ठीक नहीं,
क्योंकि
जिंदगी में
जोड़ नहीं होते,
गुणनफल
होते हैं।
यहां चीजें
जुड़ती नहीं, गुणित हो
जाती हैं।
यहां चार और
चार मिलकर आठ नहीं
होते, सोलह
हो जाते हैं।
जिंदगी में जब
दो दुखी आदमी
मिलते हैं, तो उनका दुख
सिर्फ जुड़
नहीं जाता, उनका दुख कई
गुना हो जाता
है।
मैं
दूसरे को दुख
देने का कारण
बनूं--हिंसा
है। और जब तक
मैं दुखी हूं, तब तक मेरे
सभी संबंध--जो
मैं निर्मित
करूंगा--दुख
देनेवाले ही
होंगे। इसलिए
अहिंसक कहेगा,
जब तक हिंसा
है चित्त में,
दुख है
चित्त में, तब तक संग ही
मत बनाओ, संबंध
ही मत बनाओ, क्योंकि सब
संबंध दुख को
ही
फैलायेंगे।
असंग हो जाओ, संबंध के
बाहर हो जाओ!
जिस दिन आनंद
भर जाये, उस
दिन संबंधित
हो जाना!
लेकिन
कठिनाई यही है
जिंदगी की कि
जो दुखी हैं, वे संबंधित
होना चाहते
हैं; और जो
आनंदित हैं, उन्हें
संबंध का पता
ही नहीं रह
जाता! ऐसा नहीं
कि वे संबंधित
नहीं होते, लेकिन
उन्हें पता
नहीं रह जाता;
कोई
आकांक्षा
नहीं रह जाती।
अगर उनसे
लोगों के
संबंध भी बनते
हैं, तो
सदा वन वे
ट्रैफिक होते
हैं। दूसरे
लोग ही उनसे
संबंधित होते
हैं। वे तो
असंग, अनरिलेटेड
खड़े रह जाते
हैं। दूसरे ही
उन्हें छूते
हैं, वे
दूसरों को
नहीं छू पाते।
हां, उनका
आनंद जरूर जो
उनके निकट आता
है उन पर बरसता
रहता है। वह
वैसे ही बरसता
रहता है, जैसे
सूरज की
किरणें बरसती
हैं। वह वैसे
ही बरसता रहता
है, जैसे
वृक्षों में
खिले हुए फूल
बरसते रहते हैं।
किसी के लिए
नहीं, वृक्ष
के पास बहुत
हो गए हैं
इसलिए ओवर
फ्लोइंग है।
चीजें बाढ़ में
आ गयी हैं और
बरसती रहती हैं।
दुखी
आदमी संबंध
खोजता है, और जिनसे
संबंध खोजता
है, सिर्फ
उन्हें दुखी
छोड़ पाता है।
किस आदमी ने
संबंध बनाकर
सुख पाया? किस
आदमी ने
संबंधित होकर
किसी को सुख
दिया? कोई
नहीं दे पाता
है। यह सारी
पृथ्वी दुखी
लोगों की
पृथ्वी है। और
यह सारी
पृथ्वी दुखी
लोगों के
प्रयास
से--सुख पाने
के और सुख
देने के प्रयास
से--करोड़-गुना
दुखी होकर
नर्क बन गई
है।
काम-क्रीड़ा
हिंसा का एक
रूप है, क्योंकि
दुखी चित्त की
खोज है।
अहिंसा आनंदित
चित्त का बहाव
है। हिंसा
दुखी चित्त का,
विक्षिप्त
रोगों का
दूसरों में
संक्रमण, इनसैक्सन
है। इसलिए
पार्श्व तक
ब्रह्मचर्य को
अलग सूत्र ही
नहीं गिना।
महावीर
को गिनना पड़ा।
क्योंकि
महावीर जिस
समाज में पैदा
हुए, वह एक
डेकाडेंट
सोसाइटी थी।
वह एक मरता
हुआ समाज था।
महावीर जिस
समाज में पैदा
हुये वह भारत
में उन्नति के
शिखर पर
पहुंचा हुआ
समाज था और जब
उन्नति के
शिखर पर कोई
समाज पहुंच
जाता है, तो
पतन शुरू हो
जाता है। सब
शिखर पर
पहुंचे हुए समाज,
पतित होते
हुए समाज होते
हैं। जैसे
अमरीका आज एक
डेकाडेंट
सोसाइटी है।
उसने एक शिखर
छू लिया है।
अब पतन होगा।
सब चीजों में
बिखराव होगा।
जहां-जहां
शिखर छू लिया
जायेगा, वहां-वहां
बिखराव होगा।
महावीर
जिस समय भारत
में पैदा हुए, उस समय, विशेषकर
बिहार अपनी
उन्नति के
स्वर्ण-शिखर
पर था। सब तरफ
स्वर्ण था। सब
तरफ उन्नति
ऊंचाई पर थी।
सब चीजें सड़
रही थीं और
गिर रही थीं।
इस समाज के
बीच महावीर
जैसे व्यक्ति
को अहिंसा की
बात करनी पड़ी।
इस बात को
बहुत गहरे तक
ले जाना
मुश्किल था, क्योंकि जो
कान थे, वे
बहरे थे।
ऋषभ को
जो लोग मिले
थे वे
सीधे-सरल लोग
थे। विकासमान
समाज था--डिकाडेंट
नहीं। इवाल्व
हो रहा था।
विकसित हो रहा
था। लोग
बच्चों की तरह
भोले थे, सरल
थे, सीधे
थे। उनसे बहुत
गहरी बात की
जा सकती थी और वे
गहरी बात सुन
सकते थे। अभी
वे बहरे नहीं
हो गए थे। अभी
सभ्यता और
संस्कृति के शोर
ने उनके कानों
को फोड़ नहीं
डाला था। अभी
उनकी आत्माओं
में बच्चों की
सरलता और
ताजगी थी। अभी
वहां गीत
पहुंच सकते
थे। अभी वहां
स्वर पहुंच
सकते थे।
इसलिए
उन्होंने
ब्रह्मचर्य की
बात ही नहीं
की। क्योंकि
अहिंसा में ही
ब्रह्मचर्य
अपने आप
समाविष्ट हो
जाता था।
लेकिन
महावीर को
सूत्र पांच कर
देने पड़े। चार
की जगह एक
सूत्र और
बढ़ाना पड़ा।
क्योंकि उन
लोगों को यह
समझाना
मुश्किल हुआ
कि अहिंसा
इतनी गहरी हो
सकती है कि
काम, सेक्स भी
हिंसा हो
जाये। और
इसीलिए तो
महावीर के
आधार पर जो
विचार की
परंपरा चली, वह परंपरा
अहिंसा की उन
गहराइयों को
नहीं छू पाई, जो ऋषभ और
पार्श्व के मन
में थीं।
महावीर के आधार
पर जो विचार
चला, वह
विचार--चींटी
मत मारो, पानी
छान कर पीयो, हिंसा मत
करो, किसी
को मारो मत, दुख मत दो, मांस मत
खाओ--इस तरह की
ऊपरी अहिंसा
बनकर रह गई।
इसके
जिम्मेवार
महावीर नहीं
हैं। महावीर
के आस-पास जो
लोग थे, जिनसे
उन्हें बात
करनी थी, वे
लोग
जिम्मेवार
हैं। इसलिए वह
परंपरा बहुत साधारण
होकर रह गई।
सोचें, कैसे अदभुत
लोग रहे होंगे
ऋषभ और
पार्श्व, जिन्होंने
ब्रह्मचर्य
की बात ही
नहीं की! क्योंकि
उन्होंने कहा,
अहिंसक हो
जाओ, तो
ब्रह्मचर्य
तो आ ही
जायेगा। उसकी
कोई अलग से
व्यवस्था
देने की जरूरत
नहीं थी।
कनफ्यूसियस
एक बार
लाओत्से के
पास गया और
लाओत्से से
उसने कहा, लोगों को
धर्म सिखाना
पड़ेगा। तो
लाओत्से ने कहा
कि तुम्हें
पता है वह
जमाना, जब
लोग इतने
धार्मिक थे कि
धर्म की कोई
बात ही नहीं
करता था?
धर्म
की बात सिर्फ
अधार्मिक
समाज में करनी
पड़ती है।
धार्मिक समाज
में धर्म की
बात करने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। लाओत्से
ने कहा, जमाना
था जब लोग
धार्मिक थे, तब धर्म की
बात करनी
व्यर्थ थी।
क्योंकि जब लोग
धार्मिक हों,
तो धर्म की
बात नहीं करनी
पड़ती। बीमार
आदमी के सिवाय
स्वास्थ्य की
चर्चा और कोई
भी नहीं करता।
बीमार आदमी
चौबीस घंटे
स्वास्थ्य की
चर्चा करता
है। अकसर
बीमार आदमी
खुद ही
धीरे-धीरे डाक्टर
हो जाते
हैं--स्वास्थ्य
की चर्चा
करते-करते!
बीमार आदमी
स्वास्थ्य की
पत्रिकाएं पढ़ते
हैं, नेचरोपैथी
की किताबें
पढ़ते हैं! बीमार
आदमी
स्वास्थ्य की
बहुत चर्चा
करता है, क्योंकि
उस बेचारे को
बीमारी इतना
सचेतन बनाए
रखती है कि
स्वास्थ्य की
चर्चा से मन
को भुलाए रखता
है। अनैतिक
समाज नीति की
चर्चाएं करते
हैं, कामुक
समाज
ब्रह्मचर्य
की चर्चाएं
करते हैं, पतित
समाज उत्थान
की चर्चाएं
करते हैं, गरीब
समाज धन की
चर्चा करते
हैं। जो नहीं
होता, हम
उसकी ही चर्चा
करते हैं।
महावीर
के वक्त में
हिंसा बहुत थी, अहिंसा बहुत
गहरे नहीं जा
सकती थी, इसलिए
ब्रह्मचर्य
की चर्चा अलग
करनी पड़ी। ऋषभ
को अहिंसा की
चर्चा ही काफी
हुई। और शायद
ऋषभ के पहले
अहिंसा की
चर्चा की भी
जरूरत न रही
हो। क्योंकि
अहिंसा की चर्चा
भी तभी शुरू
होती है, जब
हिंसा जोर से
चित्त को पकड़
लेती है।
इसलिए
मैंने कहा कि
काम भी हिंसा
का एक रूप है, और अकाम
अहिंसा का खिल
जाना है।
आचार्य
श्री, हम
एक बड़ी मुसीबत
में पड़ गए हैं!
और वह मुसीबत
हमारे लिए यह
है कि अभी तक
हमारी यह
धारणा रही थी
कि सहानुभूति,
सिंपैथी ही
अहिंसा का एक
अंग है। और हम
बहुत दिनों से
बराबर इसे
मानते रहे थे।
लेकिन पंच-महाव्रत
प्रवचनमाला
के अंतर्गत
आपने अहिंसा के
संदर्भ में
बताया कि
सहानुभूति
में हिंसा छिपी
है, क्योंकि
इसमें दूसरा
मौजूद है। फिर
आपने इसको और
आगे बढ़ाया और
आपने समानुभूति
का उदाहरण
देते हुए
परमहंस
स्वामी रामकृष्ण
का जिक्र
किया। और
जिसमें आपने
यह भी बताया
कि एक किसान
पर जब कोड़े लग
रहे थे, उस
समय उन कोड़ों
के निशान
स्वामी
रामकृष्ण परमहंस
की पीठ पर भी
दिखाई पड़ रहे
थे।
तो
ये सहानुभूति
और
समानुभूति--ये
दो चीजें
हिंसा-वृत्ति
के संदर्भ में
क्या इनमें
सूक्ष्म
भिन्नता है, यह बताने की
कृपा करें। और
साथ ही साथ यह
बताने की कृपा
भी करें कि
जिसे आपने
समानुभूति का नाम
दिया है, क्या
वह मानसिक तल
की घटना है या
आध्यात्मिक तल
की बात है?
सहानुभूति, सिंपैथी
साधारणतः बड़ी
मूल्यवान और
कीमती चीज
समझी जाती रही
है--है नहीं।
सहानुभूति का
अर्थ है, कोई
आदमी दुखी है
और आप उसके
दुख में दुख
प्रकट करते
हैं; दुखी
होते हैं।
सहानुभूति का
अर्थ है, सह-अनुभूति;
दूसरे के
साथ-साथ अनुभव
करना। लेकिन
जो आदमी दूसरे
के दुख में
दुख अनुभव
करता है, वह
आदमी दूसरे के
सुख में कभी
सुख अनुभव
नहीं कर पाता!
अगर किसी के
बड़े मकान में
आग लग जाये, तो आप दुख
प्रगट करते
हैं; लेकिन
किसी का बड़ा
मकान बन जाये,
तो सुख नहीं
प्रगट कर
पाते!
इस बात
को समझ लेना
जरूरी है।
इसका मतलब
क्या हुआ? इसका मतलब
यह हुआ कि
सहानुभूति एक
धोखा है।
सहानुभूति
तभी सच्ची हो
सकती है, जब
दूसरे के दुख
में दुख अनुभव
हो और दूसरे
के सुख में
सुख अनुभव हो।
लेकिन
दुख में तो
दुख अनुभव हम
कर पाते हैं
या दिखा पाते
हैं, सुख में
सुख अनुभव
नहीं कर पाते।
इसलिए, कर
पाते हैं, कहना
ठीक नहीं होगा,
दिखा पाते
हैं, कहना
ठीक होगा। जब
दूसरा दुखी
होता है, तो
हम दुख प्रगट
कर पाते हैं।
अगर हम दूसरे
के सुख में भी
सुखी हो पायें,
तब तो हमारा
दुख प्रगट
करना
वास्तविक
होगा। अन्यथा
दूसरे के दुख
में भी हमें
थोड़ा-सा रस आता
है; दूसरे
के दुख में भी
हमें थोड़ा मजा
आता है; दूसरे
के दुख में भी
हम रस भोर
होते हैं।
इसलिए
जब आप किसी
दूसरे के दुख
में दुख प्रगट
करने जायें, तब जरा अपने
भीतर टटोलकर
देखना कि कहीं
आपको मजा तो
नहीं आ रहा है!
एक तो मजा यह
आता है कि हम
सहानुभूति
प्रगट
करनेवाले हैं
और दूसरा आदमी
सहानुभूति
लेने की
स्थिति में पड़
गया है। जब
कोई दूसरा
आदमी
सहानुभूति
लेने की
स्थिति में पड़
जाता है, तो
याचक हो जाता
है और आप
मुफ्त में
दाता हो जाते
हैं। दूसरा
आदमी जब
सहानुभूति
लेने की स्थिति
में पड़ जाता
है, तो आप
विशेष और वह
दीन हो जाता
है। और अपने
भीतर आप
खोजेंगे, तो
अपने दुख
प्रकट करने
में भी आपको
एक रस की उपस्थिति
मिलेगी।
मिलेगी ही!
इसलिए मिलेगी,
कि अगर न
मिले तो आप
दूसरे के सुख
में भी पूरी तरह
सुखी हो
पायेंगे।
लेकिन
दूसरे के सुख
में तोर्
ईष्या भर जाती
है, जेलसी भर
जाती है, जलन
भर जाती है!
दूसरा
पहलू इस बात
की खबर देता
है कि दूसरे
के दुख में हम
दुखी नहीं हो
सकते, लेकिन
इसी को हम
सहानुभूति
कहते रहे हैं।
इसी को मैं
सहानुभूति
कहकर बात कर
रहा हूं।
इसलिए मैंने
दूसरा शब्द
चुनना उचित
समझा, वह
है--समानुभूति,
एंपैथी।
सहानुभूति
एक तो झूठी
होती है, वंचना
होती है, और
अगर हम यह भी
समझ लें कि
किसी आदमी की
सहानुभूति सच्ची
ही हो; वह
दूसरे के दुख
में दुख अनुभव
करे और दूसरे
के सुख में
सुख अनुभव करे,
तो भी हिंसा
ही रहती है; अहिंसा नहीं
हो पाती। झूठी
हो, तब तो
निश्चित ही
हिंसा होती है;
सच्ची हो, तब भी हिंसा
ही होती है; अहिंसा नहीं
हो पाती।
क्योंकि जब तक
दूसरा मौजूद
है, तब तक
अहिंसा फलित
नहीं होती।
अहिंसा
अद्वैत की
अनुभूति है।
अहिंसा इस बात
का अनुभव है
कि वहां दूसरा
नहीं, मैं
ही हूं।
जब
दूसरा दुखी हो
रहा है, तब
ऐसा अनुभव हो
कि दूसरा दुखी
हो रहा है और
मैं भी दुख
अनुभव कर रहा
हूं--यह अगर
झूठा है, तब
तो हिंसा होगी
ही--अगर सच्चा
ही है, तो
भी मैं मैं
हूं और दूसरा
दूसरा है; दोनों
के बीच का
सेतु नहीं टूट
गया है; और
जहां तक दूसरा
दूसरा है, वहां
तक अहिंसा
संभव नहीं है।
दूसरे को
दूसरा जानना
भी हिंसा है।
क्यों? क्योंकि
जब तक मैं
दूसरे को
दूसरा जान रहा
हूं, तब तक
मैं अज्ञान
में जी रहा
हूं; दूसरा,
दूसरा है
नहीं।
समानुभूति
का अर्थ है कि
दूसरे को दुख
हो रहा है, ऐसा
नहीं--मैं ही
दुखी हो गया
हूं। दूसरा
सुखी हो गया
है, ऐसा
नहीं--मैं ही
सुखी हो गया
हूं। ऐसा नहीं
कि आकाश में
चांद
प्रकाशित हो
रहा है--मैं ही
प्रकाशित हो
गया हूं। ऐसा
नहीं कि सूरज
निकला है-- बल्कि
मैं ही निकल
आया हूं। ऐसा
नहीं कि फूल खिले
हैं--बल्कि
मैं ही खिल
गया हूं।
एंपैथी
का अर्थ है, अद्वैत।
समानुभूति का अर्थ
है, एकत्व।
अहिंसा, एकत्व
है।
तो ये
तीन
स्थितियां
हुईं: झूठी
सहानुभूति, फाल्स
सिंपैथी--जो
हिंसा है।
सच्ची
सहानुभूति--जो
हिंसा का बहुत
सूक्ष्मतम
रूप है। और
समानुभूति--जो
अहिंसा है।
हिंसा
हो या हिंसा
का सूक्ष्म
रूप हो, सच्ची
सहानुभूति हो,
झूठी
सहानुभूति हो,
वे सब
मानसिक तल की
घटनाएं हैं।
समानुभूति, एंपैथी
आध्यात्मिक
तल की घटना
है।
मन के
तल पर हम कभी
एक नहीं हो
सकते। मेरा मन
अलग है, आपका
मन अलग है।
मेरा शरीर अलग
है, आपका
शरीर अलग है।
शरीर और मन के
तल पर ऐक्य असंभव
है--हो नहीं
सकता। सिर्फ
आत्मा के तल
पर ऐक्य संभव
है; क्योंकि
आत्मा के तल
पर हम एक हैं
ही।
जैसे
एक घड़े को हम
पानी में डुबा
दें, भर जाये
घड़े में पानी,
तो घड़े के
भीतर पानी और
घड़े के बाहर
पानी एक ही है।
सिर्फ बीच में
एक घड़े की
मिट्टी की
दीवाल है, जो
टूट जाये, तो
पानी एक हो
जाये।
मन और
शरीर की एक दीवाल
है, जो दूसरे
से मिलने से
रोकती है, जो
दूसरे के साथ
एक नहीं होने
देती। हम सब
घड़े हैं
मिट्टी के, चेतना के
बड़े सागर में।
घड़े तो अलग
होंगे, लेकिन
घड़े के जो
भीतर है, वह
अलग नहीं है।
और जो अहिंसा
को अनुभव करता
है, या जो
आत्मा को
अनुभव करता है,
वह अनुभव कर
लेता है कि
घड़े कितने ही
अलग हों, घड़े
के भीतर एक ही
विराजमान है।
इस एक
का अनुभव
अहिंसा है।
इसलिए इसमें
सहानुभूति
नहीं हो सकती।
सहानुभूति
में दूसरा जरूरी
है। इसमें
समानुभूति हो
सकती है।
दूसरा इसमें
नहीं बचा है।
समानुभूति, चित्त और मन
के पार है। वह
बियांड माइंड
है। वह मन के
भीतर और मन के
नीचे नहीं--मन
के ऊपर और मन
के पार है।
यह जो
मन के पार
घटना घटती है, यही
अध्यात्म है।
सिर्फ
आध्यामिक कह
सकता है, वही
जो तुम हो, वही
मैं हूं।
सिर्फ
आध्यात्मिक
कह सकता है कि सूरज
में जो जल रही
है ज्योति, वही इस
छोटे-से
मिट्टी के दीए
में भी जल रही
है। सिर्फ
आध्यात्मिक
कह सकता है कि
कण में जो है
वही विराट में
भी है। सिर्फ
आध्यात्मिक
कह सकता है कि
बूंद और सागर
एक ही चीज के
दो नाम हैं।
समानुभूति
का अर्थ
है--बूंद और
सागर एक हैं।
और जिसने एक
बूंद को भी
पूरा जान लिया, उसे सागर
में जानने को
कुछ बाकी नहीं
रह जाता। एक
बूंद जान ली
तो पूरा सागर
जान लिया।
जिसने अपने
भीतर की बूंद
जान ली, उसने
सबके भीतर के
सागर को भी
जान लिया। फिर
वह मरता नहीं।
कैसे मरेगा, क्योंकि वह
बचा नहीं। फिर
वह अहंकार, वह "मैं' विदा
हो गया, क्योंकि
कोई "तू' नहीं
मिला कहीं। जब
तक "तू' मिले,
तभी तक "मैं'
बच सकता है।
जब "तू' न
मिले तो "मैं'
भी नहीं बच
सकता। वह "तू'
और "मैं' की
जोड़ी साथ-साथ
है।
मार्टिन
बूवर ने आई
ऐण्ड दाऊ, एक किताब
लिखी है।
कीमती किताब
है। मैं और
तू। मार्टिन
बूवर के खयाल
से जीवन के
सारे संबंध मैं
और तू के
संबंध हैं।
लेकिन एक और
जगत भी है, जो
मैं और तू के
बाहर है, बियांड
आई ऐण्ड दाऊ।
एक और जगत है, वास्तविक
जीवन
का--संबंधों
का
नहीं--जीवन-ऊर्जा
का, परमात्मा
का, जहां
मैं और तू
नहीं हैं।
बंगाली
में एक
छोटा-सा नाटक
है, जिसमें
कथा है कि एक
यात्री
वृंदावन गया
है। रास्ते
में, उसके
पास जो सामान
था, सब
चोरी हो गया।
पर सोचा उसने,
अच्छा ही है
कृष्ण के पास
खाली हाथ जाऊं,
यही उचित
है। क्योंकि
भरे हाथ को वे
भी कैसे भर
पायेंगे! अगर
कृष्ण से भरना
है, तो
खाली हाथ ही
लेकर जाऊं, यही उचित
है। शायद
कृष्ण ने ही
चोर भेजे
होंगे! उसने
धन्यवाद दिया
और आगे बढ़
गया।
फिर वह
मंदिर के
द्वार पर
पहुंचा, लेकिन
द्वारपाल ने
उसे रोक लिया
और कहा, भीतर
न जा सकोगे।
पहले सामान
बाहर रख दो।
तो उसने कहा, अब तो सामान
बचा भी नहीं, वह तो कृष्ण
के चोर पहले
ही छीन चुके।
नहीं, द्वारपाल ने
कहा, पहले
सामान बाहर रख
दो, फिर
भीतर जा सकते
हो। यहां तो
सिर्फ खाली
हाथ ही जा
सकते हो।
उस
आदमी ने अपने
हाथ देखे, वे खाली थे।
उसने
द्वारपाल के
सामने हाथ किए,
वे खाली थे।
द्वारपाल ने
कहा, नहीं,
भरे हाथ
नहीं जा सकते
हो।
पर
आदमी ने कहा
कि मैं तो अब
बिलकुल खाली
हाथ ही हूं!
उस
द्वारपाल ने
कहा, जब तक तुम
हो, तब तक
कैसे खाली हाथ
हो सकते हो? जब तक तुम
कहते हो, मैं
तो बिलकुल
खाली हाथ हूं,
तब तक तुम
खाली हाथ कैसे
हो सकते हो? कम से कम
"मैं' तो
तुम्हारे
हाथों में भरा
ही है। इस "मैं'
को बाहर छोड़
दो।
मैं को
बाहर छोड़े
बिना कोई
परमात्मा के
मंदिर में प्रवेश
नहीं पा सकता।
मैं को छोड़कर
जो जीता है, वह एंपैथी
को, समानुभूति
को उपलब्ध
होता है।
जिसका मैं मर
जाता है, उसके
लिए, दूसरों
को जो हो रहा
है वह भी उसे
ही हो रहा है। या
उसे का भी
सवाल नहीं है,
बस हो रहा
है। कहीं भी
कांटा गड़ता है,
तो उसकी
पीड़ा उसे भी
पहुंच जाती
है। कहीं आनंद
की बांसुरी
बजती है, तो
वे भी उसके
अपने ही स्वर
हो जाते हैं।
अब कुछ भी
पराया नहीं, अब कुछ भी
अजनबी नहीं, अब कुछ भी
दूसरा नहीं।
समानुभूति
अध्यात्म की
श्रेष्ठतम
ऊंचाई है।
सहानुभूति
हमारी
कामचलाऊ
दुनिया की
व्यवहारिकता
है। उस
सहानुभूति
में अक्सर तो
निन्यान्बे
प्रतिशत झूठी
होती है सहानुभूति।
हम सिर्फ धोखा
देते
हैं--दूसरों
को ही नहीं, अपने को भी।
कभी एक
प्रतिशत सच
होती है, तब
भी मैं और तू
कायम रह जाते
हैं, घड़े
मौजूद रहते
हैं। शायद
झांककर एक घड़े
से दूसरे घड़े
में हम देख
लेते हैं, लेकिन
फिर भी दोनों
के बीच एक ही
है, एक ही
प्रवाहित
है--इसका कोई
पता नहीं चल
पाता है।
समानुभूति
मैंने उस तत्व
को कहा है, जहां एक ही
शेष रह जाता
है, जहां
दूसरा नहीं
है। अद्वैत
कहें, ब्रह्म
कहें, परमात्मा
कहें, और
कोई नाम दें; अस्तित्व
कहें, एक्जिस्टेंस
कहें, कोई
और नाम दें; एक ही जहां
रह जाता है, वहां जीवन
अपनी परम
ऊंचाइयों पर,
अपने पीक
एक्सपीरिएंस
पर परम
अनुभूति को
उपलब्ध होता
है। गिराना
होता है तू को
और मैं को।
उस दिन
मैंने यह भी
कहा कि मैं और
तू का संबंध ही
हिंसा है।
कठिन होगा
थोड़ा, क्योंकि
मैं और तू के
अतिरिक्त हम
कोई भी क्षण
नहीं जानते।
लेकिन थोड़ा
प्रयोग करें,
तो शायद
क्षणों की झलक
मिल जाये।
कभी
रेत में, नदी
के किनारे
बैठकर। लेट
जायें, दोनों
हाथ-पैर पसार
कर। छाती में
भर लें रेत को।
बंद कर लें
आंखें। छिपा
लें अपने
चेहरे को भी
रेत में। भूल
जायें यह कि
आप हैं और रेत
है। तोड़ दें
वह बीच की जगह,
वह फासला जो
रेत को आपसे
अलग करता है।
रेत की ठंडक
को प्रवेश कर
जाने दें
स्वयं में।
स्वयं की
गर्मी को
प्रवेश कर
जाने दें रेत
में। अनुभव
करें कि फैल
गए हैं और एक
हो गए हैं उस
रेत से।
कभी
खुले आकाश में
हाथ फैलाकर
खड़े हो जायें।
आलिंगन कर लें
खुले आकाश का, शून्य का।
कभी घड़ी भर
मौन रह जायें
खुले आकाश के
साथ। छोड़ दें
यह खयाल कि
शरीर की सीमा
पर मैं समाप्त
हो जाता हूं।
बढ़ायें अपनी
सीमा को। हो
जाने दें इतनी
ही बड़ी, जितनी
आकाश की है।
कभी
रात के तारों
के साथ, लेट
जायें जमीन
पर। और रात के
तारों को आने
दें अपने तक।
और जाने दें
अपने को तारों
तक। और भूल
जायें कि वहां
तारे हैं और
यहां आप हैं।
तारे और आपके
बीच जो
लेन-देन रहे, वही बाकी रह
जाये। वह जो
कम्युनिकेशन
हो, वह जो
संवाद हो, वही
बाकी रह जाये।
तो
बहुत जल्दी, बहुत शीघ्र
धीरे-धीरे, अचानक जीवन
में एक्सप्लोजन
होने लगेंगे।
और एहसास होने
लगेगा कि न तो
उस तरफ कोई तू
है और न ही इस
तरफ कोई मैं
है। शायद एक
ही है दोनों
तरफ। एक के ही
बायें और दायें
हाथ दो छोरों
पर हैं। एक ही
हवा की लहर, जो इधर आई थी,
उधर चली गई
है।
आप जो
श्वास ले रहे
हैं, मेरे पास
आ जाती है, फिर
मेरी हो जाती
है। और मैं ले
भी नहीं पाता
कि निकल जाती
है और आपकी हो
जाती है। अभी
वृक्ष लेता था
उसे, अभी
पृथ्वी लेती
थी उसे, अभी
आपने लिया था
उसे, अभी
मैंने लिया
उसे!
जीवन
एक सतत प्रवाह
है, जीवन एक
अखंड धारा है।
जीवन एक है, लेकिन हम उस
एकता का अनुभव
नहीं कर पाते;
क्योंकि हम
सब ने अपने
आसपास परकोटे
खींचे हैं, हमने अपनी
दीवालें
बनायी हैं, हमने सब तरफ
से अपने को
रोका है और सब
तरफ सीमाएं
बनायी हैं। ये
सीमाएं हमारी
कल्पित बनाई गई
सीमाएं हैं, ये सीमाएं
कहीं हैं
नहीं। ये
सीमाएं हमने
बना रखी हैं, ये सीमायें
कामचलाऊ हैं,
इन सीमाओं
का कहीं कोई
अस्तित्व
नहीं है।
अगर एक
वैज्ञानिक से
पूछें, तो
वह भी कहेगा, नहीं है; और
अगर एक
आध्यात्मिक
से पूछें, तो
वह भी कहेगा, नहीं है।
आध्यात्मिक
इसलिए कहेगा
कि आत्मा के
फैलाव को देखा
है उसने। और
वैज्ञानिक
इसलिए कहेगा
कि सब सीमाएं
खोजीं और
सीमाओं को
कहीं पाया
नहीं उसने।
वैज्ञानिक
से पूछें कि
आपका शरीर
कहां समाप्त
होता है? तो
वह कहेगा, कहना
मुश्किल है।
हड्डियों पर
समाप्त होता है?
हड्डियों
पर समाप्त
नहीं होता, क्योंकि
हड्डियों पर
मांस है। मांस
पर समाप्त
होता है? मांस
पर समाप्त
नहीं होता, क्योंकि
मांस पर चमड़े
की पर्त है।
चमड़े की पर्त
पर समाप्त
होता है? चमड़े
की पर्त पर
समाप्त नहीं
होता, क्योंकि
बाहर हवा की
अनिवार्य
पर्त जरूरी है।
अगर वह न रह
जाये, तो न
हड्डी होगी, न मांस
होगा। हवा की
पर्त पर
समाप्त होता
है? नहीं, हवा की पर्त
तो दो सौ मील पृथ्वी
के पूरे होने
पर समाप्त हो
जाती है। लेकिन
अगर सूरज की
किरणें इस हवा
के पर्त को न
मिलती रहें, तो यह हवा की
पर्त भी न रह
जायेगी। सूरज
तो दस करोड़
मील दूर है।
तो मेरा शरीर
सूरज पर
समाप्त होता
है? दस
करोड़ मील दूर?
तो सूरज भी
ठंडा पड़
जायेगा अगर
महासूर्यों से
उसे प्रकाश की
किरण निरंतर न
मिलती रहे। तो
मेरा शरीर
समाप्त कहां
होता है?
वैज्ञानिक
कहता है, सब
सीमाएं खोजीं
और सीमाओं को
नहीं पाया।
आध्यात्मिक
कहता है, भीतर
देखा और असीम
को पाया।
आध्यात्मिक
कहता है, असीम
को पाया; वैज्ञानिक
कहता है, सीमाओं
को नहीं पाया।
वैज्ञानिक
नकार की भाषा
बोलता है, निगेटिव
की। वह कहता
है, सीमा
नहीं है।
आध्यात्मिक
पाजिटिव की, विधेय की
भाषा बोलता है;
वह कहता है,
असीम है।
लेकिन उन
दोनों बातों
का मतलब एक
है। और आज
विज्ञान और
धर्म बड़े निकट
आकर खड़े हो गए हैं।
उनकी सारी
घोषणाएं निकट
आकर खड़ी हो गई
हैं। आज
वैज्ञानिक
नहीं कह सकता
कि आपका शरीर
कहां समाप्त
होता है। यह
शरीर वहीं
समाप्त होता
है, जहां
ब्रह्मांड
समाप्त होता
होगा। इसके
पहले समाप्त
नहीं होता।
इस
अनुभव को मैं
समानुभूति
कहता हूं, जब तारे दूर
नहीं रह जाते,
मेरे भीतर
घूमने लगते
हैं; जब
मैं तारों से
दूर नहीं रह
जाता और उनकी
किरणों पर नाचने
लगता हूं; और
जब सागर की
लहरें दूर
नहीं रह जातीं,
मेरी ही
लहरें हो जाती
हैं; और जब
मैं दूर नहीं
रह जाता, सागर
की लहरों पर
झाग बन जाता
हूं; और जब
वृक्षों पर
खिले फूल मेरे
ही फूल होते हैं,
और वृक्षों
से गिरे सूखे
पत्ते मेरे ही
सूखे पत्ते
होते हैं; तब
मैं अलग नहीं
रह जाता हूं।
अलग हम
हैं भी नहीं।
अलग होने से
ज्यादा कोई भ्रम
नहीं है।
सेप्रेटनेस, अलग होने का
खयाल सबसे बड़ा
इलूजन है, सबसे
बड़ा भ्रम है; लेकिन उसे
हम पालकर जीते
हैं। उपयोगी
है, अगर
उसे हम न
पालें, तो
कठिनाई होगी।
आपका
धन है, तो
उसे मैं मेरा
नहीं कह सकता।
आपके कपड़े हैं,
और उन्हें
मैं उतार कर
मेरे नहीं बना
सकता। जीवन के
व्यवहार में
आपकी दुकान है,
वह मेरी
नहीं है; और
आपका मकान है,
वह मेरा
नहीं है।
हालांकि आपके
घर मेहमान होता
हूं तो आप
कहते हैं, सब
आपका ही है!
लेकिन उसको
गंभीरता से
लेने की कोई
भी जरूरत नहीं
है।
जीवन
के व्यवहार
में सीमाएं
काम करती
मालूम पड़ती
हैं, लेकिन
जीवन सिर्फ
व्यवहार का
नाम नहीं है।
जीवन सिर्फ
दूकान नहीं है;
मकान और
कपड़े नहीं है।
जीवन केवल
आजीविका के उपाय
नहीं है। जीवन
तिजोरियों
में नहीं है, वस्त्रों
में नहीं है।
जीवन बड़ी बात
है। जीवन सिर्फ
उपयोगिता, युटीलिटी
नहीं है। जीवन
आनंद भी है।
जीवन लीला भी
है, जीवन
अपार रहस्य भी
है। इसलिए जो
उपयोगिता को सब
मान लेगा, वह
मुश्किल में
पड़ जायेगा।
उपयोगिता में
हम बहुत झूठी
बातें करते
हैं, पर
उनसे काम चलता
है, चल
जाता है; क्योंकि
सारी
उपयोगिता
माने हुए
सत्यों पर चलती
है।
मैं
किसी के घर
रुकता हूं, और कहता हूं,
पानी का एक
गिलास ले
आयें। और वह
गिलास में पानी
ले आता है! अब
तक कोई "पानी
का गिलास' लाता
हुआ मिला
नहीं। काम चल
जाता है, पर
झूठ है
बिलकुल। पानी
का गिलास
लाइएगा भी
कैसे? पानी
का गिलास लाया
नहीं जा सकता।
लेकिन समझें,
हम दोनों
समझ गए। वह
पानी का गिलास
तो नहीं लाता--गिलास
तो कांच का
लाता है, तांबे
का लाता है, पीतल का
लाता
है--उसमें
पानी ले आता
है। न तो मैं
उससे झगड़ा
करता हूं कि
आपने मेरी बात
मानी नहीं, न वह मुझसे
झगड़ा करता है
कि आप बड़ी
आध्यात्मिक भाषा
बोल रहे हैं।
काम चल जाता
है।
लेकिन
जिंदगी
कामचलाऊ नहीं
है, जिंदगी
कामचलाऊपन से
ऊपर है। हमारी
सब भाषा कामचलाऊ
है, उससे
इशारे हो जाते
हैं, गैस्चर्स
हैं; और
काम चल जाये, बात पूरी हो
जाती है।
लेकिन जिसने
कामचलाऊपन को,
व्यवहार को
जिंदगी समझ
लिया, वह
आदमी जिंदगी
के बड़े
रहस्यों से
वंचित रह जाता
है। उसके लिए
जिंदगी के परम
रहस्य के
द्वार खुल ही
नहीं पाते।
उसके लिए
जीवन-वीणा का
संगीत बज ही
नहीं पाता।
उसके लिए
परमात्मा
पुकारता रहता
है, उसे
उसकी पुकार
सुनायी ही
नहीं पड़ती।
यह जो
अद्वैत, यह
जो असीम-अनंत
जीवन है, उपयोगिता
में उसे खो मत
देना। उसे
उपयोगिता के
बाहर खोजते ही
रहना। उसे
मेरेत्तेरे
के बाहर
अन्वेषण करते
ही रहना। उसे
उस दिन तक
खोजना है, जब
तक वह मिल ही
नहीं जाता है।
उसके मिलन को
मैंने
समानुभूति
कहा है। वही
अहिंसा है, वही प्रेम
है, वही
अद्वैत है, वही मुक्ति
है।
एक
आखिरी सवाल और
पूछ लें।
आचार्य
श्री, हिंसा
और सामाजिक
न्याय का क्या
संबंध है? कभी
ऐसी चर्चा की
जाती है कि
अहिंसा और
हिंसा दोनों
सामाजिक
न्याय की रीति
ही हैं और माओ,
स्टैलिन, हिटलर वगैरह
ऐतिहासिक
अनिवार्यता थी।
आपका इस पर
क्या मंतव्य
है?
अहिंसा
सामाजिक नीति
और नियम नहीं
है। और अगर अहिंसा
सामाजिक नीति
और नियम है, तो हिंसा से
कभी छुटकारा
नहीं हो सकता।
अहिंसा
आध्यात्मिक
नियम है, सामाजिक
नहीं; सोशल
नहीं, स्प्रिचुअल।
अगर
सामाजिक नियम
बनायें हम
अहिंसा को, तब तो फिर
कभी हिंसा भी
जरूरी मालूम
होगी। और ऐसा
उपद्रव है कि
कभी तो अहिंसा
की रक्षा के
लिए भी हिंसा
जरूरी हो
जायेगी। एक
आदमी अगर किसी
पर हिंसा कर
रहा है, तो
अदालत उस आदमी
पर हिंसा
करेगी; क्योंकि
वह हिंसा कर
रहा था। एक
राष्ट्र अगर दूसरे
के साथ हिंसा
करेगा, तो
वह राष्ट्र
उसे हिंसा से
उत्तर देगा; क्योंकि
हिंसा का
उत्तर देना
न्यायसंगत है;
हिंसा को
झेलना अन्याय
है, और
अन्याय को
झेलना उचित
नहीं है।
अहिंसा
के जिस सूत्र
की मैं बात कर
रहा हूं, वह
आध्यात्मिक
नियम है। और
अगर सामाजिक
अहिंसा की हम
बात करना
चाहें, तो
सामाजिक अहिंसा
का सदा
सापेक्ष, रिलेटिव
नियम होगा।
उसमें
हिंसा-अहिंसा
दोनों की जगह
होगी। उसमें
हिंसा भी
चलेगी, अहिंसा
भी चलेगी।
उसमें वे
दोनों
मिश्रित होंगी।
वह मिक्स्ड
इकानामी
होगी। उसमें
अहिंसा और
हिंसा एक
दूसरे के साथ
ही खड़ी रहेंगी,
और पहलू
बदलते
रहेंगे।
समाज
के तल पर
पूर्ण अहिंसा
अभी नहीं पायी
जा सकती; अभी
तो एक-एक
व्यक्ति के तल
पर ही पूर्ण
अहिंसा पायी
जा सकती है।
समाज के तल पर
कभी हम पा सकेंगे,
इसकी आशा भी
शायद करनी
उचित नहीं है।
यह वैसे ही
उचित नहीं है,
जैसे कि
आत्मज्ञान हम
किसी दिन समाज
के तल पर पा
सकेंगे, यह
आशा करनी उचित
नहीं है।
किसी
दिन सारे
मनुष्य
आत्मज्ञान को
उपलब्ध हो
जायेंगे, ऐसी
आशा करना भी
उचित नहीं है।
क्योंकि
चुनाव है, और
कोई अगर
आत्म-अज्ञानी
रहना चाहेगा
तो उसे आत्मज्ञान
के लिए मजबूर
नहीं किया जा
सकता। आत्मज्ञान
की सदा ही
स्वतंत्रता
रहेगी, चुनाव
रहेगा, कोई
होना
चाहेगा...। हां,
हम यह आशा
कर सकते हैं
कि धीरे-धीरे
ज्यादा से ज्यादा
लोग
आत्मज्ञान को
उपलब्ध होते
जायेंगे।
लेकिन
एक और खतरा है, वह भी मैं आप
से कहूं। कि
जो व्यक्ति भी
आत्मज्ञान को
उपलब्ध हो
जाता है, वह
हमारे इस समाज
में वापस
लौटना बंद हो
जाता है। वह
वापस नहीं
लौटता। उसके
नए जन्म असंभव
हो जाते हैं।
क्योंकि नए
जन्म के लिए
आकांक्षा और
तृष्णा और
कामना जरूरी
है। वही लौटता
है नए जन्म के
लिए, जिसकी
कोई कामना शेष
रह गई है, और
जिसे वह पूरा
करना चाहता
है। अगर
महावीर और
बुद्ध भी
लौटते हैं
एक-एक जन्मों में,
तो वे भी
इसीलिए लौटते
हैं कि कम से
कम एक कामना
उनकी शेष रह
गई कि
उन्होंने जो
जाना है, उसे
वे दूसरों से
कहना चाहते
हैं। वह भी
काफी वासना
है! अगर मेरे
पास कुछ है, और मैं
दूसरों को
कहना चाहता
हूं, तो भी
लौट आऊंगा।
लेकिन वह भी
वासना
है--आखिरी वासना
है। वह भी
तिरोहित हो
जाती है, फिर
लौटना कैसे
होगा?
जो
आत्मज्ञान को
उपलब्ध होते
हैं, वे
तिरोहित हो
जाते हैं
अंतरिक्ष
में। वे किसी
विराट
कास्मास में,
किसी विराट
चेतना के साथ
एक हो जाते
हैं। जो नहीं
उपलब्ध होते,
वे वापस
लौटते चले आते
हैं।
इसलिए
समाज कभी-कभी आत्मज्ञान
के फूल को
खिलाता है।
लेकिन वह फूल खिला, मुर्झाया कि
उसकी सुगंध
आकाश में खो
जाती है। और
फिर समाज चलता
रहता है।
समाज
आत्मज्ञानी
नहीं हो सकेगा, समाज
आत्म-अज्ञानी
ही बना रहेगा।
लेकिन इस आत्म-अज्ञानी
समाज में
आत्मज्ञानी
व्यक्ति का फूल
खिलता रहेगा,
खिलता रह
सकता है, खिलता
रहना चाहिए।
समाज
के तल पर
अहिंसा कभी
पूर्ण सत्य
नहीं हो सकती।
इसलिए जिन
लोगों ने
सामाजिक तल पर
अहिंसा की बात
की है, वे
हिंसा को भी
स्वीकृति
देते हैं; और
देनी ही
पड़ेगी। हिंसा
जारी रहेगी।
तब हिंसा-अहिंसा
दो पहलू होंगे
समाज के, जब
जो जरूरी हो।
जब अहिंसा से
काम चले, तो
अहिंसा; और
जब हिंसा से
काम चले, तो
हिंसा; जिससे
भी काम चल
जाये।
हिंदुस्तान
में आजादी की
लड़ाई चलती थी, तो आजादी की
लड़ाई
लड़नेवाला
अहिंसक था।
फिर वही
सत्ताधिकारी
बना तो हिंसक
हो गया। आजादी
की लड़ाई
अहिंसा से चल
सकती थी, क्योंकि
हिंसा से चलने
का कोई उपाय
नहीं दिखाई
पड़ता था। तो
उसने आजादी की
लड़ाई अहिंसा
से चला ली। लेकिन
सत्ता में आने
के बाद उसने
नहीं सोचा कि
अब सत्ता
अहिंसा से
चलाई जाये। अब
सत्ता हिंसा से
चल रही है।
अंग्रेजों ने
इतनी गोली कभी
नहीं चलायी थी
इस मुल्क में,
जितनी उन लोगों
ने चलाई, जो
अहिंसक हैं।
तो जो
अहिंसा को
नीति समझता है, समाज की एक
कनवीनिएंस
समझता है, एक
सुविधा समझता
है, जरूरत
पड़ने पर हिंसक
हो जायेगा।
हिंसक-अहिंसक
होना उसकी
सुविधा की बात
होगी। लेकिन
महावीर को
किसी भी भांति
हिंसक नहीं
बनाया जा
सकता। उनके
लिए अहिंसा सामाजिक
नीति-नियम
नहीं, आध्यात्मिक
सत्य है। वह
कनवीनिएंस
नहीं है। वह
कोई सुविधा की
बात नहीं है
कि हम कुछ भी
हो जायें। वह
उनकी परम
नियति है, वह
उनकी
डेस्टिनी है।
अहिंसा
के लिए सब
खोया जा सकता
है--स्वयं को
भी खोया जा
सकता है।
अहिंसा किसी
के लिए नहीं
खोयी जा सकती।
पर ऐसा अहिंसक
होना व्यक्ति
के लिए ही संभव
है। और अगर
कभी किसी समाज
ने ऐसे अहिंसक
होने की भूल
की, तो वह
सिर्फ कायर हो
जायेगा, अहिंसक
नहीं हो
पायेगा। और
ऐसा हुआ भी।
महावीर
की अहिंसा को
समाज ने समझा
कि हम अपनी अहिंसा
बना लेंगे, तो अहिंसक
समाज पैदा हो
गये! अहिंसक
समाज हो नहीं
सकता। महावीर
की अहिंसा का
समाज नहीं हो
सकता। महावीर
की अहिंसा के सिर्फ
इंडिविजुअल
व्यक्ति हो
सकते हैं। इसलिए
जो समाज
महावीर की
अहिंसा को
मानकर अहिंसक होने
की कोशिश
करेगा, वह
सिर्फ कायर, कावर्ड हो
जायेगा और कुछ
भी नहीं हो
सकेगा। लेकिन
वह अपनी
कायरता को
अहिंसा
कहेगा। हिंसा
न करने की
हिम्मत को वह
अहिंसा कहे
चला जायेगा।
लेकिन उसकी भी
चमड़ी को जरा
उखाड़ें, तो
भीतर हिंसा के
झरने फूटते
हुए मिल
जायेंगे।
कायर भी बड़ा
हिंसक होता है,
लेकिन मन ही
मन में होता
है। समाज अभी
अहिंसक नहीं
हो सकता--कभी
हो सकता है, ऐसा भी मैं
नहीं कहता।
बहुत मुश्किल
है; असंभव
ही है।
व्यक्ति ही
अहिंसक हो
सकता है। जिस
अहिंसा की मैं
बात कर रहा
हूं, वह
अहिंसा
सामाजिक सत्य
नहीं, व्यक्तिगत
उपलब्धि है।
और
दूसरी बात
पूछी है कि
"क्या हिटलर, मुसोलिनी, स्टैलिन या
माओ सामाजिक
अनिवार्यताएं
हैं?'
अगर वे
सामाजिक
अनिवार्यताएं
हैं, तो वे
व्यक्ति नहीं
हैं। व्यक्ति
है ही वही, जो
समाज की
अनिवार्यता
के ऊपर उठता
है; जो
समाज की
विवशता के ऊपर
उठता है; जो
स्वतंत्र है;
जो चुनाव
करता है; जो
निर्णय करता
है। लेकिन, अगर वे सोशल
इनएवीटेबिलीटीज
हैं, सामाजिक
अनिवार्यताएं
हैं, मजबूरी
हैं समाज की, तब फिर वे
व्यक्ति नहीं
हैं। और समाज
जिस भांति
हिंसक होता है,
उस भांति वे
भी हिंसक
होंगे। और अगर
वे व्यक्ति
नहीं हैं, तो
वे मनुष्य के
तल पर नहीं
होंगे, वे
पशु के तल पर
वापस गिर जाते
हैं।
मनुष्य
के तल पर होने
के लिए सामाजिक
अनिवार्यता
से ऊपर उठना
जरूरी है। सिर्फ
वही व्यक्ति
मनुष्य है, जिसके पास
व्यक्तित्व
है। जो यह कह
सकता है कि जो
भी मैं हूं, वह मेरा
निर्णय है, समाज का
नहीं। जो भी
मैं कर रहा
हूं, वह
मैं कर रहा
हूं, समाज
मुझसे करवा
नहीं रहा है।
लेकिन
कम्युनिज्म
ऐसा मानता है
कि व्यक्ति तो
है ही नहीं, समाज ही है।
कम्युनिज्म
ऐसा मानता है
कि व्यक्ति
इतिहास
निर्मित नहीं
करते हैं, इतिहास
व्यक्तियों
को निर्मित
करता है। कम्युनिज्म
ऐसा मानता है
कि इट इज नाट द
कांशसनेस
व्हिच
डिटरमिंस
सोशल कंडीशंस,
बट आन द
कंट्रेरी, सोशल
कंडीशंस आर द
बेस व्हिच
डिटरमिंस
कांशसनेस।
समाज की स्थितियां
ही चेतना को
निर्धारित
करती हैं, चेतना
समाज की
स्थितियों को
निर्धारित
नहीं करती।
तो
कम्युनिज्म
के हिसाब से
तो व्यक्ति है
ही नहीं। माओ
नहीं है, हिटलर
नहीं है, मुसोलिनी
नहीं है, महावीर
नहीं हैं, बुद्ध
नहीं हैं।
लेकिन पता
नहीं
कम्युनिज्म
किस तरह की अवैज्ञानिक
बातें
विज्ञान के
नाम पर कहे
चला जाता है!
कोई सामाजिक
परिस्थिति
महावीर को पैदा
नहीं कर सकती।
और अगर
सामाजिक
परिस्थिति महावीर
को पैदा करती
है, तो यह
सामाजिक
परिस्थिति
महावीर के लिए,
अकेले के
लिए
परिस्थिति थी?
बिहार में
और लाखों लोग
थे। यह
सामाजिक
परिस्थिति ही
अगर महावीर को
पैदा करती, तो और
पचासों
महावीर क्यों
पैदा नहीं
करती? अगर
रूस की
परिस्थिति
लेनिन को पैदा
करती है, तो
कितने लेनिन
पैदा करती है?
नहीं, सामाजिक
परिस्थितियां
व्यक्तियों
को पैदा नहीं
करतीं। और
करती हों, तो
वे व्यक्ति
नहीं हैं, सिर्फ
सामाजिक
घटनाएं हैं।
और सामाजिक
घटनाएं
अहिंसक नहीं
हो सकतीं, हिंसक
होंगी; क्योंकि
वह पशु के तल
पर वापस लौट
गई बात है।
व्यक्ति
चुनाव है। मैं
भी इतने से
राजी हो जाऊंगा
कि माओ या
स्टैलिन
मनुष्य के तल
पर बहुत ऊपर
नहीं उठते, पशु के तल पर
बहुत नीचे चले
जाते हैं।
लेकिन आप
कहेंगे, "मनुष्य
के कल्याण के
लिए ही वे
हिंसा कर रहे
हैं!'
सदा
हिंसाएं जब भी
की गई हैं, तो कल्याण
के लिए ही की
गई हैं।
मध्यऱ्युग
में ईसाई
पादरियों ने
लाखों लोगों
को जलवा
डाला--मनुष्य
के कल्याण के
लिए। मुसलमान
हिंदू को
मारता
है--मनुष्य के
कल्याण के लिए!
हिंदू को
मुसलमान
इसलिए नहीं
मारता कि हिंदू
से उसकी कुछ
दुश्मनी है, इसलिए मारता
है कि हिंदू
बेचारा काफिर
है, भटका
हुआ है, उसे
रास्ते पर
लाना है! और न
आता हो रास्ते
पर तो कम से कम
मारकर उसकी
आत्मा को अगले
जन्म में
रास्ते पर लगा
दें। हिंदू
मुसलमान को
इसलिए नहीं
मारता कि उसका
कुछ बुरा
सोचता है; बल्कि
इसलिए मारता
है कि भटका
हुआ है, रास्ते
पर लाना है!
जैसे गाय को
और दूसरे पशुओं
को, घोड़ों
को, यज्ञों
में चढ़ाया
जाता रहा--कि
यज्ञ में
चढ़ाने से ये
घोड़े, ये
गायें स्वर्ग
चली जायेंगी।
ऐसे ही, धर्म
की बलिवेदी पर,
एक-दूसरे के
धर्मों के
लोगों को लोग
चढ़ाते रहते
हैं--उनके ही
कल्याण के
लिए!
कम्युनिज्म
लाखों लोगों
को काट डालता
है--उनके ही
कल्याण के लिए।
फासिज्म
लाखों लोगों
को काट डालता
है--उनके ही
कल्याण के
लिए।
हिंसा
जब प्रखर-रूप
से फैलना
चाहती है, तो आपके ही
कल्याण का
मुखौटा पहनकर
आती है। चालाक
है, साधारण
भी नहीं है; कनिंग है।
साधारण हिंसा
कहती है कि
मैं आपको अपने
हित में मारना
चाहती हूं; और चालाक
हिंसा कहती है,
आपके ही हित
में आपको
मारना चाहती
हूं।
हर बार
आदमी बहाने
बदल लेता है।
अब इस्लाम और
हिंदू और
कैथोलिक और
प्रोटेस्टेंट
ये सब पुराने
बहाने हो गए
हैं तो
कम्युनिज्म, सोशलिज्म नए
बहाने हैं।
कुछ दिनों में
वे भी पुराने
हो जायेंगे, फिर आदमी और
नए बहाने खोज
लेगा। आदमी को
हिंसा करनी है,
उसके लिए
बहाने खोजता
है। बहाने हैं,
इसलिए
हिंसा नहीं
करता है।
अगर हम
माओ या
स्टैलिन के
चित्त का
विश्लेषण करें, तो हम उनके
भीतर एक
विक्षिप्त
आदमी को
पायेंगे।
लेकिन वह
विक्षिप्त
आदमी बड़ा
होशियार है, वह रेशनलाइज
करता है।
क्रांति, समाज-क्रांति,
ऊटोपिया, भविष्य के
स्वर्णऱ्युग--इनको
लाने के लिए
लाखों-लाखों
लोगों को काट
डाला जाता है।
लेकिन
वे
स्वर्णऱ्युग
कभी नहीं आये, और आदमी सदा
से काटा जा
रहा है। न तो
रूस में आया
वह स्वर्ण युग,
न चीन में
आया; न वह
जर्मनी में
आया, न वह
इटली में आया।
सारी दुनिया
में कितनी क्रांतियां
हो चुकीं, कितने
खून हो चुके, पर वह
स्वर्णऱ्युग
आता ही नहीं!
पुरानी
क्रांतियां
खत्म हो जाती
हैं, नई
क्रांतियां
फिर खून करने
लगती हैं, पर
वह
स्वर्णऱ्युग
नहीं आता है!
हजारों साल का
अनुभव यह कहता
है कि आदमी
हिंसा करना
चाहता है, इसलिए
हिंसा के लिए
फिलासफीज खोज
लेता है, दर्शन
खोज लेता है।
यह इतिहास की
अनिवार्यताएं
नहीं, यह
व्यक्तियों
के भीतर हिंसा
की
अनिवार्यताएं
हैं, जिनके
लिए वह इतिहास
को मोड़ देता
रहता है और इतिहास
को भी आधार
बना लेता है
अपनी हिंसा
का।
मेरे
लिए
अनिवार्यता
को स्वीकार
करना ही मनुष्य
की गरिमा को
खो देना है।
जो यह कहता है
कि कोई
अनिवार्यता
है जिसे मुझे
जीना ही पड़ेगा, वह आदमी
गुलाम है, उसने
अपनी आत्मा को
खो दिया है।
जो आदमी कहता है
कि कोई
अनिवार्यता
नहीं है जिसे
मुझे मजबूरी
में कुछ करना
पड़ेगा, जो
भी मैं करूंगा
वह मेरा चुनाव
है, वह
आदमी आत्मा को
उपलब्ध हो
जाता है।
निर्णय, डिसीजन
ही मनुष्य के
भीतर संकल्प
और आत्मा का
जन्म है।
शेष
कल।
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