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बुधवार, 15 जुलाई 2015

तंत्र--सूत्र--(भाग--1) प्रवचन--14

प्रेम को ध्‍यान बनाओ, ध्‍यान को प्रेम(प्रवचनचौहदवां)

      प्रश्नसार:

      1—समाधि को केंद्रित होना क्‍यों कहते है?
      2—ध्‍यान के बिना कैसे अकेला प्रेम पर्याप्‍त है?
      3—मनुष्‍य संवेदनहीन क्‍यों है?

पहला प्रश्न :

यदि बुद्धत्‍व और समाधि का अर्थ समग्र चैतन्‍य, जागतिक चैतन्‍य, सर्वव्‍यापी चैतन्‍य है, तो आश्‍चर्य होता है कि इस जागतिक चैतन्‍य की अवस्‍था को केंद्रित होना क्‍यों कहा जाता है? क्‍योंकि केंद्रित होना एकाग्र होने जैसा लगता है। इस जागतिक चैतन्‍य या समाधि को केंद्रित होना क्‍यों कहते है?


केंद्रित होना मार्ग है, मंजिल नहीं। केंद्रित होना साधन है, साध्य नहीं। समाधि को केंद्रित होना नहीं कहते हैं, केंद्रित होना समाधि की विधि है। हालांकि दोनों परस्पर विरोधी मालूम होते हैं। क्योंकि जब कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तब कोई केंद्र नहीं बचता है।
जैकब बोहमे ने कहा है कि जब कोई परमात्मा को प्राप्त होता है तो इस बात को दो ढंग से कहा जा सकता है। या तो कहा जाए कि केंद्र सब कहीं है या कहा जाए कि केंद्र कहीं नहीं है। दोनों का अर्थ एक ही है। केंद्रित होना विरोधाभासी मालूम पड़ता है। लेकिन मार्ग मंजिल नहीं है, साधन साध्य नहीं है। और साधन विरोधी भी हो सकता है।
इसे समझना जरूरी है, क्योंकि ये एक सौ बारह विधियां केंद्रित होने की विधियां हैं। लेकिन एक बार जब तुम केंद्रित हो जाते हो तो तुम्हारा विस्फोट हो जाएगा। केंद्रित होने का अर्थ है कि तुम एक बिंदु पर इकट्ठे हो गए। एक बार तुम एक बिंदु पर इकट्ठे हो गए तो वह बिंदु अपने आप ही विस्फोट को प्राप्त हो जाता है। तब कोई केंद्र नहीं रहता है, या केंद्र ही केंद्र रहता है। इसलिए केंद्रित होना विस्फोट का उपाय है। यह उपाय क्यों है?
अगर तुम केंद्रित नहीं हो तो तुम्हारी ऊर्जा लक्ष्यहीन बनी रहती है, उसका विस्फोट नहीं हो सकता है। ऊर्जा बिखरी—बिखरी रहती है, उसका विस्फोट नहीं हो सकता। विस्फोट के लिए बहुत बड़ी ऊर्जा चाहिए। विस्फोट का अर्थ है कि अब तुम छिन्न—भिन्न नहीं हो, छितराए नहीं हो, एक बिंदु पर इकट्ठे हो। तब तुम आणविक हो जाते हो। और तब तुम सच में आध्यात्मिक अणु हो जाते हो। और जब तुम अणु बनने योग्य केंद्र को उपलब्ध होते हो तभी तुम्हारा विस्फोट संभव है। तब आणविक विस्फोट घटता है।
उस विस्फोट की चर्चा नहीं की जाती है, क्योंकि यह चर्चा संभव नहीं है। इसलिए सिर्फ विधि की चर्चा की जाती है। फल की चर्चा नहीं होती है, उसकी चर्चा असंभव है। लेकिन अगर तुम विधि को प्रयोग में लाओ तो फल पीछे—पीछे आएगा। और उस फल का वर्णन नहीं हो सकता है।
तो स्मरण रहे, धर्म अनुभव की बात कभी नहीं करता है, सिर्फ विधि की बात करता है। वह बताता है कि यह कैसे होगा, लेकिन यह नहीं बताता कि क्या। क्या को तुम पर छोड़ दिया जाता है।कैसे' को पूरा करो तो 'क्या' अपने आप ही तुम्हारे पास चला आएगा। और उसको कहने का उपाय नहीं है। उसे कोई जान तो सकता है, लेकिन कह नहीं सकता। वह एक ऐसा अनंत—असीम अनुभव है कि वहां भाषा व्यर्थ हो जाती है। वह इतना विराट है कि कोई शब्द उसे अभिव्यक्ति नहीं दे सकता। इसलिए केवल विधि ही दी जाती है।
बुद्ध निरंतर चालीस वर्षों तक कहते रहे कि मुझसे सत्य, ईश्वर, मोक्ष और निर्वाण के संबंध में प्रश्न मत पूछो, इन चीजों के संबंध में प्रश्न ही मत पूछो। बस, इतना पूछो कि वहां कैसे पहुंचा जाए। मैं तुम्हें मार्ग बता सकता हूं लेकिन यह अनुभव नहीं बता सकता, शब्दों में भी नहीं।
अनुभव व्यक्तिगत है, विधि अवैयक्तिक है। विधि वैज्ञानिक है, अवैयक्तिक है, अनुभव सदा वैयक्तिक है, काव्यात्मक है। जब मैं ऐसा भेद करता हूं तो उससे मेरा क्या प्रयोजन है? विधि वैज्ञानिक है, इसका मतलब है कि अगर तुम प्रयोग करो तो केंद्रित होना फलेगा। केंद्र को उपलब्ध होना निश्चित है, यदि उपाय काम में लाया जाए। और अगर केंद्र नहीं फलित होता है तो समझना कि कहीं चूक हो रही है, तुम कहीं विधि में भूल कर रहे हो, उसका पालन नहीं कर रहे हो। विधि वैज्ञानिक है, केंद्र का फलित होना वैज्ञानिक है, लेकिन जब विस्फोट आता है तो वह काव्य बन जाता है।
काव्य से मेरा मतलब है कि प्रत्येक व्यक्ति को यह अनुभव भिन्न ढंग से होगा। इस अनुभव के लिए कोई समान आधार नहीं है। वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति उसे अभिव्यक्त भी भिन्न ढंग से करेगा।
बुद्ध एक ढंग से कहते हैं, महावीर दूसरे ढंग से कहते हैं, और कृष्ण तीसरे ढंग से। मोहम्मद, मूसा, लाओत्से, सब विधि में नहीं, अभिव्यक्ति में एक—दूसरे से भिन्न हो जाते हैं। सिर्फ एक बात में वे एकमत हैं कि वे जो कहते हैं, वह उसे प्रकट नहीं करता है, जो उन्होंने अनुभव किया है। सिर्फ इस बात में वे सहमत हैं। फिर भी वे प्रयत्न करते हैं कि उस बात की ओर कुछ इंगित करें, कुछ कहें। यह असंभव लगता है, लेकिन अगर तुम्हारा हृदय सहानुभूतिपूर्ण है तो कुछ संप्रेषित हो सकता है। लेकिन उसके लिए प्रगाढ़ सहानुभूति, प्रेम और निष्ठा की जरूरत है।
सच तो यह है कि जब कोई बात तुम तक संप्रेषित हो जाती है तो उसका श्रेय कहने वाले से अधिक तुमको है। अगर तुम उसे गहरे प्रेम से और श्रद्धा से ग्रहण कर सको तो कुछ बात तुम तक पहुंच जाती है। लेकिन अगर तुम उसके प्रति आलोचक का भाव रखो तो कुछ भी नहीं पहुंचता। पहली बात तो उसे कहना कठिन है, लेकिन यदि कहा भी जाए तो तुम्हारी आलोचनात्मक वृत्ति के कारण संवाद असंभव हो जाता है।
संवाद बड़ा नाजुक मामला है। यही कारण है कि इन एक सौ बारह विधियों में अनुभव को बिलकुल बाहर छोड़ दिया गया है, उसकी ओर मात्र इशारा किया गया है। शिव बार—बार कहते हैं, 'यह करो और अनुभव' और तुरंत चुप हो जाते हैं। वे कहते हैं, 'यह करो और आनंद', और फिर चुप हो जाते हैं। आनंद, अनुभव और विस्फोट—और उसके पार तो व्यक्तिगत अनुभव का जगत आता है, जो प्रकट नहीं किया जा सकता है। उसे न प्रकट करना ही अच्छा है, क्योंकि अगर उसको व्यक्त करने की कोशिश की जाए तो वह गलत समझा जाएगा। इसलिए शिव मौन रह जाते हैं। वे सिर्फ विधि की, उपाय की बात करते हैं।
लेकिन केंद्रित होना मंजिल नहीं है, वह महज मार्ग है। और केंद्रित होना विस्फोट में कैसे बदल जाता है? क्योंकि अगर एक बिंदु पर अतिशय ऊर्जा इकट्ठी हो जाए तो वह बिंदु विस्फोट को प्राप्त होगा। बिंदु बहुत छोटा है और ऊर्जा बहुत बड़ी है, इसलिए बिंदु उसे सम्हाल नहीं सकता। विस्फोट अनिवार्य है। जैसे कि इस बल्व में एक खास मात्रा की बिजली समा सकती है, और अगर ज्यादा बिजली हो जाए तो वह फूटेगा। वैसे ही जब तुम्हारे केंद्र पर अतिशय ऊर्जा इकट्ठी हो जाती है तो वह उसे सम्हाल नहीं पाता। फलत: विस्फोट होता है। यह वैज्ञानिक बात है, वैज्ञानिक नियम है।
और अगर केंद्र पर विस्फोट नहीं होता है तो समझना चाहिए कि अभी तुम केंद्रित नहीं हुए हो। एक बार तुम केंद्रित हो गए कि तुरंत विस्फोट घटित होता है। उसमें समय का अंतराल नहीं है। इसलिए अगर विस्फोट घटित नहीं होता है तो समझना कि तुम अभी इकट्ठे नहीं हो, एकाग्र नहीं हुए हो। अभी तुम्हें एक केंद्र नहीं प्राप्त हुआ है, तुम अभी भी बंटे हो, तुम्हारी ऊर्जा नष्ट हो रही है, बाहर जा रही है।
जब ऊर्जा बाहर जाती है तो तुम खाली हो रहे हो, रिक्त हो रहे हो, नष्ट हो रहे हो। और अंत में नपुंसक, निर्जीव हो जाओगे। सच तो यह है कि मृत्यु आती है तो तुम्हें मरा हुआ ही पाती है। तुम एक मृत कोष्ठ हो। तुम निरंतर अपनी ऊर्जा बाहर की तरफ फेंकते हो और तब कितनी भी ऊर्जा हो वह एक अवधि के भीतर चुक जाएगी और तुम रिक्त हो जाओगे। ऊर्जा का बाहर जाना मृत्यु है। तुम प्रत्येक क्षण मर रहे हो, नष्ट हो रहे हो।
कहते हैं कि सूरज भी, जो कि महान ऊर्जा का भंडार है और जो करोड़ों वर्ष का है, निरंतर रिक्त हो रहा है, और चार हजार वर्षों के भीतर वह समाप्त होने वाला है। सूर्य समाप्त होगा, क्योंकि उसके पास फिर विकीरित करने को ऊर्जा नहीं बचेगी। सूर्य प्रतिदिन मर रहा है, क्योंकि उसकी किरणें उसकी ऊर्जा को ब्रह्मांड की सरहदों की ओर—अगर उसकी कोई सरहदें हैं—बहा ले जा रही हैं, उसकी ऊर्जा बाहर जा रही है।
केवल मनुष्य अपनी ऊर्जा को दिशा देने और रूपांतरित करने की क्षमता रखता है। अन्यथा मृत्यु स्वाभाविक घटना है, प्रत्येक चीज मरती है। केवल मनुष्य अमृत को, चिन्मय को जान सकता है।
तो तुम इस पूरी चीज को एक नियम में सीमित कर सकते हो। अगर ऊर्जा बाहर जाती है तो मृत्यु उसका परिणाम है, और तब तुम कभी न जानोगे कि जीवन क्या है! तुम धीरे— धीरे मरना भर जानोगे, जीवित होने की प्रगाढ़ता का तुम्हें पता नहीं चलेगा। अगर किसी चीज की भी ऊर्जा बाहर जाती है तो उसकी मृत्यु अपने आप घटित होती है। और अगर तुम ऊर्जा की दिशा बदल देते हो, बाहर बहने की बजाय वह भीतर को ओर बहने लगे तो रूपांतरण संभव है। तब यह भीतर की ओर बहने वाली ऊर्जा एक बिंदु पर केंद्रित हो जाती है।
वह बिंदु नाभि—केंद्र के पास है, क्योंकि तुम नाभि के रूप में ही जन्म धारण करते हो। तुम अपनी नाभि से ही अपनी मां से जुड़े होते हो। फिर नाभि से ही मां की जीवन—ऊर्जा तुम्हें प्राप्त होती है। और नाभि के विच्छिन्न किए जाने पर ही तुम व्यक्ति बनते हो; उसके 'पहले तुम व्‍यक्‍ति नहीं हो, मां के ही एक अंग हो। असली जन्म तो नाभि—रज्यू के कटने पर ही घटित होता है। तभी बच्चा अपना जीवन शुरू करता है, अपना केंद्र बनता है। वह केंद्र नाभि के पास होगा, क्योंकि नाभि से ही बच्चे को जीवन—ऊर्जा मिलती है। वही सेतु है। और तुम जानो न जानो, अभी भी नाभि ही तुम्हारा केंद्र है।
इसलिए अगर ऊर्जा भीतर बहने लगे, दिशा बदलने पर जब वह भीतर मुडने लगे, तो वह नाभि—केंद्र पर ही चोट करेगी। और जब ऊर्जा इतनी हो जाएगी कि केंद्र उसे अपने में समा न सके तो विस्फोट घटित होगा। उस विस्फोट में तुम पुन: व्यक्ति नहीं रह जाते। जैसे जब तुम मां से जुड़े थे तो व्यक्ति नहीं थे वैसे ही पुन: तुम व्यक्ति न रहोगे।
अब तुम्हारा एक नया जन्म हुआ। तुम ब्रह्मांड के साथ एक हो गए। अब तुम्हारा कोई केंद्र न रहा, अब तुम 'मैं' नहीं कह सकते, क्योंकि अब अहंकार न रहा। बुद्ध, कृष्ण या महावीर 'मैं' का प्रयोग किए जाते हैं, लेकिन वह औपचारिक है। उनका अहंकार जाता रहा है, वे नहीं हैं।
बुद्ध मर रहे थे। जिस दिन उनकी मृत्यु होने को थी, अनेक लोग, उनके शिष्य और संन्यासी उनके पास इकट्ठे थे और रो रहे थे। बुद्ध ने पूछा, क्यों रोते हो? उन्होंने कहा कि शीघ्र ही आप विदा हो जाएंगे, इसलिए हम रोते हैं। बुद्ध हंसे और बोले, मैं तो चालीस वर्षों से नहीं हूं। मैं तो उसी दिन मर गया जिस दिन बुद्धत्व को प्राप्त हुआ। चालीस वर्षों से केंद्र नहीं रहा है। मत रोओ, मत दुखी होओ। अब कौन मरता है? मैं हूं ही नहीं।
लेकिन तो भी शब्द का प्रयोग तो करना ही होगा, यह भी बताने के लिए कि मैं नहीं हूं मैं का प्रयोग करना होगा।
ऊर्जा की अंतर्यात्रा ही धर्म का सारा सार है। धार्मिक खोज का वही अर्थ है, कैसे ऊर्जा को भीतर ले जाया जाए। और ये विधियां सहयोगी हैं। लेकिन स्मरण रहे, केंद्रित होना समाधि नहीं है, अनुभव नहीं है। केंद्रित होना समाधि का द्वार है। और जब अनुभव होता है तो केंद्र भी जाता रहता है। इसलिए केंद्रित होना मात्र मार्ग है।
अभी तुम केंद्रित नहीं हो। अभी तो तुम्हारे बहुत से केंद्र हैं, इसलिए केंद्रित नहीं हो। और जब केंद्रित होगे तब एक ही केंद्र रह जाएगा। तब जो ऊर्जा अनेक केंद्रों में चक्कर लगाती थी, वह लौट आती है। उसे ही घर वापिस आना कहते हैं। तब तुम अपने केंद्र पर हो। और तब विस्फोट घटित होता है। और तब फिर केंद्र खो जाता है। लेकिन तब तुम्हारे बहुत से केंद्र नहीं हैं, तब कोई भी केंद्र नहीं है। तुम ब्रह्मांड के साथ एक हो गए। तब अस्तित्व और तुम एक ही अर्थ रखते हो।
उदाहरण के लिए, एक बर्फ का टुकड़ा सागर में तैर रहा है। उस हिमखंड का अपना एक केंद्र है, उसका अपना अलग व्यक्तित्व है। अभी वह सागर से भिन्न है। बहुत गहरे में तो वह सागर से अलग नहीं है, क्योंकि वह एक विशेष तापमान पर स्थित पानी ही है। स्वभावत: सागर के पानी और हिमखंड के पानी में भेद क्या है? वे एक ही हैं, फर्क सिर्फ तापमान का है। फिर सूरज उगता है और मौसम गर्म हो उठता है। और फिर हिमखंड पिघलने लगता है। तब फिर हिमखंड नहीं रहा, वह पिघलकर पानी हो गया। अब तुम उसे नहीं पा सकते, क्योंकि उसकी वैयक्तिकता नहीं रही, उसका केंद्र नहीं रहा, वह सागर के साथ एक हो गया।
वैसे ही तुम में और बुद्ध में, जीसस को सूली देने वालों में और जीसस में, कृष्ण में और अर्जुन में स्वभाव के तल पर कोई अंतर नहीं है। अर्जुन हिमखंड जैसा है और कृष्ण सागर जैसे हैं। स्वभाव में कोई फर्क नहीं है, वे वही हैं। लेकिन अर्जुन का एक रूप है, नाम है; उसका एक पृथक अस्तित्व है, और वह समझता है कि मैं हूं।
इन केंद्रित होने की विधियों के द्वारा तापमान बदलेगा, हिमखंड पिघलेगा, और तब कोई फर्क नहीं रह जाएगा। सागर होने का भाव समाधि है, हिमखंड होना मन है। सागर सा अनुभव करना अ—मन को उपलब्ध होना है। और केंद्रित होना मार्ग है—मार्ग का वह बिंदु जहां हिमखंड रूपांतरित होगा, हिमखंड नहीं रहेगा। रूपांतरण के पूर्व सागर नहीं था, सिर्फ हिमखंड था। रूपांतरण के पश्चात हिमखंड नहीं होगा, सिर्फ सागर होगा। सागर का भाव समाधि है—अपने को समस्त के भाव के साथ एक करना समाधि है।
लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अपने को समस्त के साथ एक रूप में सोचो। तुम सोच—विचार कर सकते हो, लेकिन सोच—विचार केंद्रित होने के पहले है, वह ज्ञानोपलब्धि नहीं है। तुम स्वयं नहीं जानते हो, तुमने सुना है, पढ़ा है और तुम चाहते हो कि किसी दिन तुम्हें भी यह घटित हो। लेकिन तुम स्वयं इस ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए हो। केंद्रित होने के पहले तुम सोच—विचार कर सकते हो, लेकिन उसका कोई महत्व नहीं है। और केंद्रित होने के बाद विचार करने वाला कहां रहता है! तब तुम जानते हो। तब यह अनुभव घटित हुआ है। तब तुम नहीं हो, केवल सागर है।
केंद्रित होना उपाय है; समाधि मंजिल है। और समाधि में क्या घटित होता है, उसके संबंध में कुछ भी नहीं कहा गया है, क्योंकि कुछ कहा ही नहीं जा सकता। और शिव बहुत वैज्ञानिक हैं। कहने में उनका कोई रस नहीं है, इसलिए वे सूत्रों में बोलते हैं। वे एक भी फिजूल शब्द नहीं उपयोग करेंगे। इसलिए वे इंगित करते हैं, इन शब्दों से इंगित करते हैं—अनुभव, आनंद, घटना। इतना ही नहीं, कभी—कभी तो वे सिर्फ 'तब' कहकर काम चला लेते हैं—'दो श्वासों के बीच केंद्रित हो, और तब।वे 'तब' पर ही रुक जाते हैं। और कभी वे कहेंगे कि दो अतियों के मध्य होओ और 'वह'। ये उनके इशारे है—वह, तब, अनुभव, आनंद, घटना, विस्फोट। और वे वहीं रुक जाते हैं। क्यों त्र: हम तो चाहेंगे कि वे कुछ और कहें। उसके दो कारण हैं।
एक कि उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है। क्यों नहीं व्याख्या की जा सकती? ऐसे विचारक हैं, जैसे कि यूरोप के आधुनिक विधेयवादी, भाषा—विश्लेषक और अन्य, जो कहते हैं कि जो अनुभव किया जा सकता है वह बताया भी जा सकता है।
और उनके कहने में थोड़ी सचाई है। वे कहते हैं कि जिसे तुम अनुभव कर सकते हो उसे कह क्यों नहीं सकते हो? आखिर अनुभव क्या है? तुमने उसको समझा है तो तुम दूसरों को क्यों नहीं समझा सकते हो? इसलिए उनका कहना है कि अगर अनुभव है तो उसे व्यक्त भी किया जा सकता है। और अगर तुम व्यक्त नहीं कर सकते हो तो उसका यही मतलब है कि अनुभव ही नहीं है। तब तुम भ्रम में हो, उलझे हुए हो। जो अभिव्यक्त नहीं कर सकता, वह अनुभव क्या खाक करेगा! इस दृष्टिकोण के कारण वे कहते हैं कि धर्म बकवास है। तुम यह कहते हो कि मैंने अनुभव किया है, तो फिर तुम उसे अभिव्यक्त क्यों नहीं कर सकते?
बहुतों को उनकी बात जमती, लेकिन उनका तर्क निराधार है। धार्मिक अनुभवों की बात छोड़ो, साधारण अनुभव भी, बहुत सरल अनुभव भी नहीं व्यक्त किए जा सकते हैं, न समझाए जा सकते हैं।
समझो कि मेरे सिर में दर्द है। लेकिन अगर तुम्हें कभी सिरदर्द नहीं हुआ हो तो मैं तुम्हें सिरदर्द क्या है, यह नहीं समझा सकता। उसका यह अर्थ नहीं है कि मैं मंदबुद्धि हूं या कि मैं सिर्फ सोचता हूं मैंने अनुभव नहीं किया है। सिरदर्द है और उसे मैं उसकी समग्रता में अनुभव करता हूं उसकी पूरी पीड़ा के साथ अनुभव करता हूं। लेकिन अगर तुम्हें कभी भी सिरदर्द नहीं हुआ है तो मैं मेरा सिरदर्द तुम्हें कभी बता न सकूंगा। ही, अगर तुम्हें भी सिरदर्द का अनुभव है तो कोई समस्या नहीं है, बात बतायी जा सकती है।
बुद्ध की कठिनाई यही है कि उन्हें गैर—बुद्धों के साथ—गैर—बौद्धों के साथ नहीं, क्योंकि गैर—बौद्ध भी बुद्ध हो सकते हैं, जीसस गैर—बौद्ध होकर भी बुद्ध थे—उन्हें गैर—बौद्धों के साथ बात करनी है। बुद्ध को उनसे संवाद करना है जिन्हें अनुभव नहीं हुआ है। यही कठिनाई है। तुम्हें नहीं मालूम कि सिरदर्द क्या है। बहुत हैं जिन्हें सिरदर्द नहीं मालूम है। उन्होंने सिरदर्द का नाम ही सुना है, जिसका कोई मतलब नहीं।
तुम अंधे आदमी को प्रकाश के संबंध में बता सकते हो, लेकिन वह क्या समझेगा? वह प्रकाश शब्द सुनेगा, वह प्रकाश की व्याख्या सुनेगा, वह प्रकाश का पूरा सिद्धात भी समझ सकता है। लेकिन इसके बावजूद प्रकाश शब्द से उस तक कुछ भी संप्रेषित नहीं होगा। जब तक उसे प्रकाश का अनुभव न हो, संवाद असंभव है।
इसलिए यह बात ध्यान में रख लो कि संवाद तभी संभव है जब समान अनुभव वाले दो व्यक्ति परस्पर संवाद करें। हम सामान्य जीवन में परस्पर संवाद कर पाते हैं, क्योंकि हमारे अनुभव समान हैं। लेकिन सामान्य जीवन में भी अगर कोई बाल की खाल उतारने लगे तो कठिनाई होगी।
मैं कहता हूं कि आसमान नीला है। लेकिन यह कैसे निर्णय हो कि नीलेपन के मेरे और तुम्हारे अनुभव एक ही हैं! तय करना संभव नहीं है। मैं नीलेपन की एक छटा देखूं और तुम उसकी दूसरी छटा देखो। लेकिन तब उसे कैसे संप्रेषित किया जाए? मैं इतना ही कहूंगा कि नीला है, तुम भी उतना ही कहोगे। लेकिन नीलेपन की हजार छटाएं हैं; छटाएं ही नहीं, उसके हजार अर्थ हैं। मेरे मन के ढांचे में नीले का एक अर्थ होगा, तुम्हारे मन के ढांचे में दूसरा अर्थ हो सकता है। क्योंकि नीला अर्थ नहीं है, अर्थ तो सदा मन के ढांचे में है।
तो सामान्य अनुभवों में भी संवाद कठिन है। फिर और थोड़े गहन अनुभव हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति प्रेम में पड़ गया है। वह कुछ अनुभव कर रहा है, उसका पूरा जीवन दांव पर है, लेकिन वह बता नहीं सकता कि उसे क्या हो रहा है। वह रो सकता है, वह गा सकता है, नाच सकता है। ये इशारे हैं कि उसे कुछ हो रहा है। लेकिन उसे क्या हो रहा है? जब किसी को प्रेम घटित होता है तो यथार्थत: क्या होता है?
और प्रेम कोई असामान्य घटना नहीं है। किसी न किसी रूप में प्रत्येक व्यक्ति प्रेम के प्रभाव में आता है। लेकिन तो भी हम अब तक व्यक्त नहीं कर पाए कि प्रेम की हालत में प्रेमी के भीतर क्याघटित होता है। ऐसे लोग हैं जिन्हें प्रेम बुखार की तरह, रोग की तरह घेरता है।
रूसो कहता है कि युवावस्था मनुष्य—जीवन का शिखर नहीं हो सकती, क्योंकि युवावस्था प्रेम नामक रोग का शिकार होती है। जब तक कोई इतना पौढ़ न हो जाए कि प्रेम सब अर्थ खो बैठे तब तक आदमी का मन धुएं से भरा रहता है। बहुत वृद्धावस्था में ही विवेक संभव होता है। रूसो का खयाल कि प्रेम बुद्धिमान नहीं होने देता है।
लेकिन दूसरे हैं जो और ही ढंग से सोचते हैं। जो लोग सचमुच बुद्धिमान हैं वे प्रेम के संबंध में चुप रह जाएंगे। वे कुछ नहीं बोलेंगे। क्योंकि प्रेम का भाव इतना असीम है, प्रगाढ़ है कि भाषा वहां व्यर्थ हो जाती है। अगर कोई उसे अभिव्यक्त करे तो उसे अपराध— भाव सताएगा, क्योंकि वह असीम के भाव के साथ न्याय नहीं हो सकता, इसलिए वह चुप रह जाएगा। जितना प्रगाढ़ अनुभव होगा उतनी ही अभिव्यक्ति की संभावनाएं कम होंगी।
बुद्ध ईश्वर के संबंध में इसलिए नहीं चुप रहे कि ईश्वर नहीं है। जो लोग ईश्वर के संबंध में बहुत बात करते हैं वे यही बताते हैं कि उन्हें अनुभव नहीं है। बुद्ध मौन रह गए। जब भी वे किसी नगर में पहुंचते, यह घोषणा करा देते कि कोई ईश्वर के संबंध में उनसे प्रश्न न पूछे। जो भी पूछना हो पूछो, लेकिन ईश्वर के संबंध में मत पूछो।
अनुभवहीन पंडितों ने तो बुद्ध के संबंध में यह अफवाह फैलायी कि बुद्ध चुप हैं, क्योंकि नहीं जानते। जानते होते तो कहते क्यों नहीं? और बुद्ध हंस देते थे। लेकिन उनकी हंसी को बहुत थोड़े लोग समझते थे। जब प्रेम नहीं अभिव्यक्त हो सकता तो ईश्वर को कैसे अभिव्यक्ति दी जा सकती है!
तो एक तो बात यह कि अभिव्यक्ति से हानि हो सकती है। यही कारण है कि शिव अनुभव के संबंध में चुप हैं। वे वहीं तक जाते हैं जहां तक अंगुली का इशारा किया जा सके।तब', 'वह', 'अनुभव', 'आनंद', ये सबके सब इशारे की अंगुलियां हैं।
दूसरी बात कि किसी ढंग से उसकी थोड़ी अभिव्यक्ति तो की ही जा सकती है। माना कि पूरी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती, आशिक ही हो सकती है, लेकिन अभिव्यक्ति हो सकती है। माना कि यथार्थत: उसे अभिव्यक्त न भी किया जा सके तो भी कुछ समांतर बातें तो बताई ही जा सकती हैं। लेकिन शिव उनका उपयोग भी नहीं करते हैं!
उसका कारण है। कारण यह है कि हमारा मन इतना लोभी है कि जब भी उस अनुभव के संबंध में कहा जाता है तो मन उसको पकड़कर बैठ जाता है। और तब मन विधि को भूल जाता है और सिर्फ अनुभव को याद रखता है। विधि तो प्रयत्न मांगती है, लंबा प्रयत्न, जो कभी—कभी कष्टपूर्ण और खतरनाक होता है। एक लंबे और सतत प्रयत्न की जरूरत है। इसलिए हम विधि को भूल जाते हैं और फल को याद रखते हैं। और फिर फल के सपने देखते हैं, उसके संबंध में कल्पना और वासना का जाल फैलाते हैं। और आदमी आसानी से अपने को धोखा भी दे सकता है, वह कल्पना कर सकता है कि फल प्राप्त हो गया।
कुछ दिन पहले एक व्यक्ति यहां आए थे। वे संन्यासी हैं, बहुत वृद्ध व्यक्ति हैं। तीस वर्ष हुए, उन्होंने संन्यास लिया था। अब उनकी उम्र करीब सत्तर वर्ष की है। उन्होंने कहा कि मैं कुछ पूछने आया हूं कुछ जानने आया हूं। मैंने पूछा कि आप क्या जानना चाहते हैं? अचानक वे बदल गए और उन्होंने कहा कि नहीं, मैं जानने नहीं, सिर्फ आपसे मिलने आया हूं क्योंकि जो भी जाना जा सकता है मैं जान चुका हूं।
तीस वर्षों से वे आनंद के लिए, परमात्म—अनुभव के लिए सपने देखते रहे, वासना पालते रहे, और अब इस उम्र में आकर वे दुर्बल हो गए हैं और मृत्यु करीब आ पहुंची है। और अब उन्होंने यह विभ्रम पैदा कर लिया है कि मैं अनुभव को प्राप्त हूं। मैंने उनसे कहा कि यदि अनुभव है तो चुप ही रहें, मेरे पास जरा देर मौन बैठें; कुछ बोलें मत।
तब वे वृद्ध संन्यासी बेचैन होने लगे। और उन्होंने कहा कि यह मानकर आप कुछ कहें कि मुझे अनुभव नहीं है। मैंने कहा कि मेरे साथ कुछ मानने की बात नहीं है, या तो आपने जाना है या नहीं जाना है। इसके बारे में आपको स्पष्ट होना होगा। अगर आपने जाना है तो चुप रहें, यहां जरा देर रुके और जाएं। और अगर नहीं जाना है तो वैसा साफ कहें।
और तब वे उलझन में पड़ गए। वे कुछ विधियों के बारे में पूछने आए थे। और तब उन्होंने कहा कि सचाई यह है कि मुझे अनुभव नहीं है। लेकिन मैंने 'अहं ब्रह्मास्मि' पर इतना विचार किया है, उसको तीस वर्षों तक दिन—रात इतनी बार दोहराया है कि मैं कभी—कभी भूल ही जाता हूं कि यह मेरा विचार ही है, अनुभव नहीं। मैं बिलकुल भूल जाता हूं कि मैंने जाना नहीं है, मैं जो कह रहा हूं वह उधार है।
यह याद रखना कठिन है कि क्या ज्ञान है और क्या अनुभव है। ज्ञान और अनुभव ऐसे घुलमिल जाते हैं कि यह भ्रम आसानी से निर्मित हो जाता है कि तुम्हारा ज्ञान तुम्हारा अनुभव बन गया है। मनुष्य का मन इतना धोखेबाज है, इतना चालाक है कि यह विभ्रम संभव हो जाता है। यह भी एक कारण है कि क्यों शिव अनुभव के संबंध में चुप रहे। वे उसके संबंध में कुछ नहीं बोलते, वे सिर्फ विधियों की बात किए जाते हैं। फल के संबंध में वे बिलकुल चुप हैं मौन हैं। शिव से तुम्हें धोखा नहीं हो सकता।
और यह भी एक कारण है कि यह किताब, जो किताबों में बहुत—बहुत महत्व की किताब है, इतनी अजानी रह गई। यह विज्ञान भैरव तंत्र संसार की एक अत्यंत महत्वपूर्ण किताब है। कोई बाइबिल, कोई वेद और कोई गीता उतनी महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन यह पुस्तक सर्वथा अज्ञात रह गई। कारण? कारण कि यह सिर्फ विधियों की बात करती है। और वह तुम्हारे लोभ को फल की आकांक्षा का मौका नहीं देती है।
मन फल चाहता है। मन विधि में उत्सुक नहीं होता, वह अंतिम फल में उत्सुक होता है। और अगर तुम विधि से बचकर फल तक पहुंच सको तो मन बहुत प्रसन्न होता है।
कोई मुझसे पूछता था. इतनी विधियां क्यों? कबीर तो कहते हैं, सहज समाधि भली, फिर विधियों की क्या जरूरत? मैंने उनसे कहा कि अगर तुम सहज समाधि को उपलब्ध हो गए हो तो वाकई विधियों का कोई उपयोग नहीं है। जरूरत भी नहीं है। लेकिन तब तुम यहां किस लिए आए हो? उसने कहा कि मैं अभी उपलब्ध नहीं हुआ हूं लेकिन समझता हूं कि सहज बेहतर है। फिर मैंने पूछा कि तुम क्यों सहज को बेहतर समझते हो? क्योंकि उसमें कोई विधि नहीं बताई जाती है, इसलिए मन को वह भाता है कि चलो कुछ करना नहीं होगा और सब कुछ हो जाएगा।
यही कारण है कि पश्चिम में झेन एक क्रेज बन रहा है। झेन भी कहता है कि अनायास ही सब कुछ होता है, उपलब्धि के लिए कुछ प्रयत्न नहीं करना है। झेन सही है, प्रयत्न की जरूरत नहीं है। लेकिन याद रहे, इस अप्रयत्न की अवस्था तक पहुंचने के लिए एक लंबे प्रयत्न की जरूरत पड़ती है। जहां प्रयत्न की जरूरत न रहे, जहां तुम अकर्म की स्थिति में रह सको, उस बिंदु को पाने के लिए बड़े लंबे प्रयत्न की जरूरत हे।
लेकिन यह सतही धारणा कि झेन प्रयत्न नहीं मांगता है, पश्चिम में बहुत आकर्षक हो गई है। अगर प्रयत्न जरूरी नहीं तो मन कहता है कि यह ठीक चीज है, क्योंकि बिना किए सब कुछ हो जाता है। लेकिन कोई यह नहीं कर सकता। यह इतना सरल नहीं है।
सुजुकी ने झेन से पश्चिम को परिचित कराया, और उसने ऐसा कर सेवा और कुसेवा दोनों कीं। और कालांतर में कुसेवा ही अधिक होगी। सुजुकी बहुत प्रामाणिक व्यक्ति था, इस सदी के सर्वाधिक प्रामाणिक व्यक्तियों में एक था। झेन के संदेश को पश्चिम में पहुंचाने के लिए उसने जिंदगीभर संघर्ष किए। और उसने अकेले अपने प्रयत्न से झेन को पश्चिम पहुंचा दिया। और अब तो लोग उसके लिए पागल हैं। सारे पश्चिम में झेन के प्रेमी हैं, उन्हें झेन से ज्यादा और कुछ नहीं भाता।
लेकिन पूरी बात ही चूक गई। यह आकर्षण सिर्फ इसलिए है क्योंकि झेन कहता है कि न किसी विधि की जरूरत है, न किसी प्रयत्न की। तुम्हें कुछ करना ही नहीं है, वह सहज ही फलित होता है। यह तो ठीक है, लेकिन चूकि तुम सहज नहीं हो, इसलिए यह तुमको नहीं घटित होगा। सहज होने के लिए—यह बहुत बेतुका और विरोधाभासी मालूम होता है—सहज होने के लिए, तुम्हें शुद्ध और निर्दोष बनने के लिए बहुत उपायों की जरूरत होगी। उसके बिना तुम किसी चीज के प्रति भी सहज नहीं हो सकोगे।
इस विज्ञान भैरव तंत्र का अंग्रेजी अनुवाद पाल रेप्स ने किया था। उसने एक सुंदर किताब लिखी है जिसका नाम है, 'झेन फ्लेश, झेन बोन्स' और उसके परिशिष्ट के रूप में उसने इस 'विज्ञान भैरव तंत्र' को समाविष्ट किया है। उसने परिशिष्ट में इस एक सौ बारह विधियों वाली पुस्तक को सम्मिलित कर लिया और कहा कि यह झेन के भी पूर्व समय की पुस्तक है।
अनेक झेन अनुयायियों को यह बात पसंद नहीं आई। उन्होंने कहा कि झेन तो कहता है कि किसी प्रयत्न की जरूरत नहीं है और इस पुस्तक में तो प्रयत्न ही प्रयत्न हैं। यह पुस्तक केवल उपायों की फिक्र करती है और झेन कहता है कि उपाय जरूरी नहीं हैं। उन्होंने कहा कि यह तो झेन विरोधी बात हो गई, इसे पूर्व—झेन कैसे कहा जाए?
सतही तौर पर उनका कहना ठीक है, लेकिन गहरे में वे गलत हैं। क्यों? क्योंकि सहज जीवन को उपलब्ध होने के लिए लंबी यात्रा की जरूरत होगी।
गुरजिएफ के एक शिष्य, आसपेंस्की के पास जब कोई मार्ग पूछने आता तो वह कहता था कि हम मार्ग के संबंध में कुछ नहीं जानते हैं, हम तो कुछ पगडंडियों की बात सिखाते हैं जो मार्ग तक पहुंचाती हैं। हम मार्ग को नहीं जानते। ऐसा मत सोचो कि तुम मार्ग पर ही हो, मार्ग तो अभी तुमसे बहुत दूर है। जहां तुम हो उस बिंदु से मार्ग अभी बहुत दूर है। इसलिए पहले तो तुम्हें मार्ग पर पहुंचना है।
आसपेंस्की बहुत विनम्र व्यक्ति था। और धार्मिक व्यक्ति का विनम्र होना बहुत कठिन बात है—करीब—करीब असंभव। क्योंकि जैसे ही तुम्हें लगता है कि तुम कुछ जानते हो तुम्हारा दिमाग फिर जाता है। पर वह हमेशा कहता, हम मार्ग के बाबत कुछ नहीं जानते। वह अभी बहुत दूर की बात है और उसकी चर्चा की भी अभी जरूरत नहीं। अभी तुम जहां हो वहां से तुम्हें पहले एक राह, एक सेतु, एक पगंडडी बनानी होगी जो तुम्हें मार्ग तक पहुंचा दे।
अभी सहज योग तुमसे बहुत दूर है। तुम जैसे हो, बिलकुल कृत्रिम, बनावटी और संस्कारित हो, सुसंस्कृत हो। जरा भी सहज तुममें नहीं है। मैं दोहराता हूं जरा भी सहज नहीं है तुममें। जब तुम्हारे जीवन में कुछ भी सहज नहीं है तो धर्म कैसे सहज हो सकता है? जब कुछ भी सहज नहीं है तो प्रेम भी सहज नहीं हो सकता। तुम्हारा प्रेम भी सौदा है, तुम्हारा प्रेम भी गणित है, तुम्हारा प्रेम भी प्रयास है। और तब कुछ भी सहज नहीं हो सकता। और तब अचानक ब्रह्मांड में समाहित होना असंभव है। जिस स्थिति में तुम अभी हो उसमें यह असंभव है।
पहले तो तुम्हें अपनी सारी कृत्रिमता को, झूठी धारणाओं को, सारे पूर्वाग्रहों को, अभ्यास—जनित औपचारिकताओं को हटाकर फेंक देना होगा। तभी सहजता घटित हो सकती है। ये विधियां तुम्हें उस जगह ला खड़ा करेंगी जहां फिर कुछ करने को शेष नहीं रह जाता है। तब तुम्हारा होना काफी है। लेकिन मन धोखा दे सकता है, आसानी से धोखा दे सकता है, क्योंकि उससे सांत्वना मिलती है।
शिव कभी फल की बात नहीं करते हैं, केवल विधियों की बात करते हैं। उनके इस जोर को स्मरण रखो। विधि पर उनका जोर है, यह याद रखो। कुछ करो कि वह क्षण संभव हो जब कुछ करना जरूरी नहीं है, जब तुम्हारा केंद्रीय अस्तित्व ब्रह्मांड में सहज विलीन हो जा सकता है। लेकिन उस क्षण को अर्जित करना है।
झेन का आकर्षण गलत कारणों से है। और वही बात कृष्‍णमूर्ति के लिए सच है। वे कहते हैं कि योग की जरूरत नहीं है। असल में वे यह कह रहे हैं कि ध्यान की कोई विधि नहीं है। और वे सही हैं। लेकिन शिव भी सही हैं, जब वे कहते हैं कि ध्यान की एक सौ बारह विधियां हैं। और जहां तक तुम्हारा संबंध है, शिव ज्यादा सही हैं। और अगर तुम्हें कृष्णमूर्ति और शिव में चुनाव करना हो तो शिव को चुनना। कृष्णमूर्ति तुम्हारे किसी काम के नहीं हैं। तुम्हारी सहायता के लिए यह भी कहा जा सकता है कि कृष्णमूर्ति बिलकुल गलत हैं।
याद रहे, मैं कह रहा हूं तुम्हारी सहायता के लिए। मैं यह भी कहूंगा कि वे हानिकर हैं। यह भी मैं तुम्हारे हित के लिए कह रहा हूं। क्योंकि यदि तुम उनके तर्क में फंस गए तो तुम कभी समाधि को उपलब्ध नहीं होओगे। तब सिर्फ एक निष्पत्ति तुम्हारे हाथ में होगी कि किसी विधि की जरूरत नहीं है। और वह निष्पत्ति खतरनाक है। तुम्हारे लिए विधि जरूरी है।
निश्चित ही एक क्षण आता है जब विधि की जरूरत नहीं रहती है। लेकिन तुम्हारे लिए वह क्षण अभी नहीं आया है। और उस क्षण के आने के पहले उसके बहुत आगे की बात जान लेना खतरनाक है। इसीलिए शिव मौन हैं। वे भविष्य की बात नहीं करेंगे। वे नहीं कहेंगे कि आगे क्या होगा। वे तुम्हें देखते हैं; तुम क्या हो और तुम्हारे साथ क्या करना है, उन्हें बस इससे मतलब है। और कृष्णमूर्ति वे बातें भी बता रहे हैं जिन्हें तुम अभी नहीं समझ सकते।
कृष्‍णमूर्ति के तर्क को समझा जा सकता है। उनका तर्क ठीक है, उनका तर्क सुंदर है। यह अच्छा होगा अगर तुम्हें कृष्णमूर्ति का तर्क याद रहे। वे कहते हैं कि तुम जब किसी विधि का प्रयोग करते हो तो यह तुम्हारा मन ही है जो प्रयोग करता है। और मन के द्वारा किया गया
कोई प्रयोग कैसे मन को विसर्जित कर सकता है? बल्कि वह तुम्हारे मन को और भी मजबूत कर जाएगा। वह भी तुम्हारा संस्कार बन जाएगा, वह भी झूठा ही होगा। ध्यान सहज है, तुम ध्यान के लिए कुछ नहीं कर सकते। क्या तुम प्रेम के लिए कुछ कर सकते हो? क्या प्रेम के लिए किसी विधि का प्रयोग कर सकते हो? और अगर प्रयोग करो तो तुम्हारा प्रेम झूठा होगा। धान को प्रेम

 प्रेम घटित होता, उसका अभ्यास नहीं किया जा सकता। और अगर प्रेम का भी अभ्यास नहीं हो सकता है तो ध्यान का अभ्यास कैसे हो सकता है?
तर्क एकदम सही है, सर्वथा सही है। लेकिन यह तुम्हारे लिए नहीं है। क्योंकि इस तर्क को निरंतर सुनने से तुम इससे कंडीशंड हो जाओगे, तुम इससे बंध जाओगे। जिन लोगों ने कृष्‍णमूर्ति को निरंतर चालीस वर्षों से सुना है, वे मेरे देखे सर्वाधिक कंडीशंड लोग हैं। वे कहते हैं कि विधि जरूरी नहीं है, लेकिन वे अब तक कहीं नहीं पहुंचे हैं।
मैं उनसे पूछता हूं कि तुम किसी विधि का प्रयोग भी नहीं करते हो, लेकिन क्या सहजता तुममें फलित हुई है? वे इसका उत्तर नहीं देते हैं। और तब अगर मैं उनसे कहता हूं कि किसी विधि का अभ्यास करो, तो तुरंत उनका संस्कार आड़े आ जाता है और वे कहते हैं कि विधि जरूरी नहीं है। उन्होंने किसी विधि का अभ्यास नहीं किया है और उन्हें समाधि नहीं मिली। और अगर तुम उन्हें कोई साधना बताओ तो वे कहते हैं कि विधि जरूरी नहीं है। ऐसे वे एक द्वंद्व में फंस गए हैं। उन्होंने एक इंच भी गति नहीं की है। और इसका कारण यह है कि उन्हें वह बात बतायी गई जो उनके लिए थी ही नहीं।
यह ऐसे ही है जैसे किसी बच्चे को कामवासना की शिक्षा दी जाए। तुम उसे कुछ बता तो सकते हो। लेकिन बच्चे के लिए वह अर्थहीन होगा। और तुम्हारी सिखावन खतरनाक हो सकती है। क्योंकि तुम उसे संस्कारित कर रहे हो। यह उसकी जरूरत नहीं है, उसे इससे कुछ लेना—देना नहीं है। उसे कामवासना का पता नहीं है, क्योंकि उसकी कामवासना की ग्रंथियां अभी काम नहीं करतीं। उसका शरीर अभी कामुक नहीं हुआ है। अभी काम—केंद्र पर उसकी ऊर्जा नहीं पहुंची है, और तुम उसे काम की शिक्षा दे रहे हो। क्योंकि उसके कान हैं, इसीलिए क्या उसे कोई भी चीज सिखाई जा सकती है? क्योंकि वह सिर हिला सकता है, इसलिए क्या तुम उसे कुछ भी पढा सकते हो?
तुम पढ़ा तो सकते हो, लेकिन तुम्हारी शिक्षा उसके लिए खतरनाक होगी, हानिकर होगी। अभी कामवासना उसकी जिज्ञासा नहीं बनी है। वह उसकी समस्या नहीं है, क्योंकि वह प्रौढ़ता के उस बिंदु पर नहीं पहुंचा है जहां काम अर्थ ग्रहण करता है।
अभी रुको। जब वह प्रौढ़ होगा, जब वह जिज्ञासा करेगा, प्रश्न पूछेगा, तब कहना। और तब भी उतना ही कहना जितनी उसकी जरूरत होगी, ज्यादा नहीं। क्योंकि वह ज्यादा फिर उसके सिर का बोझ बन जाएगा।
यही बात ध्यान के लिए सही है। तुम्हें सिर्फ विधि सिखाई जानी चाहिए, फल नहीं। फल तो छलांग लेने जैसा है। और विधि की सीढ़ी मिले बिना छलांग लेना महज मानसिक क्रिया होगी। और तब तुम सदा विधि से वंचित रहोगे।
यह तो ऐसे ही है जैसे छोटे बच्चे गणित करते हैं। वे किताब उलटकर उत्तर जान ले सकते हैं। किताब के अंत में उत्तर दिए रहते हैं। वे प्रश्न देखने के बाद उत्तर भी खोलकर देख ले सकते हैं। और एक बार बच्चा उत्तर जान ले तो उसे गणित करने की विधि सीखना कठिन हो जाएगा, क्‍योंकि उसकी जरूरत न रही। जब वह उत्तर जान गया तो विधि की क्या जरूरत है? सच तो यह है कि तब वह पूरा गणित विपरीत क्रम से करेगा। तब वह किसी झूठी गलत विधि से उत्तर पर पहुंच जाता है। उसे उत्तर का पता है, इसलिए वह किसी झूठी विधि खोजकर उत्तर पर आ जाएगा। और उलटी प्रक्रिया धर्म के जगत में इतनी प्रचलित है कि मालूम होता है कि वहां हर आदमी बच्चे का गणित कर रहा है।
उत्तर जानना तुम्हारे लिए श्रेयष्कर नहीं है। प्रश्न है, विधि है; उत्तर तुम्हें स्वयं ढूंढना होगा। कोई दूसरा तुम्हें उत्तर बताए, यह ठीक नहीं है। सदगुरु तुम्हें प्रक्रिया करने के पहले उत्तर नहीं बताएंगे। वे तुम्हें प्रक्रिया से गुजरने में मदद करेंगे। अगर तुमने किसी तरह उत्तर जान भी लिया है, अगर तुमने कहीं से उत्तर चुरा भी लिया है, तो सदगुरु कहेगा कि यह गलत उत्तर है। हो सकता है, उत्तर सही हो, तो भी वे कहेंगे कि यह गलत उत्तर है। इसे फेंको, इसकी जरूरत नहीं है। वे तुम्हें उत्तर जानने से तब तक रोकेंगे जब तक तुम स्वयं उत्तर न जान लो।
यही कारण है कि कोई उत्तर नहीं दिया गया है। शिव की प्रिया पूछती है और शिव सरल विधियां बताते हैं। प्रश्न जुट गया, विधियां जुट गईं; समाधान ढूंढना, समाधान जीना तुम पर छोड़ दिया गया है।
इसलिए स्मरण रहे, केंद्रित होना उपाय है, उत्तर नहीं। उत्तर तो जागतिक अनुभव है—सागर होने का अनुभव। तब केंद्र नहीं है।

 दूसरा प्रश्न:

आपने कहा कि अगर कोई सच में प्रेम कर सके तो मात्र प्रेम पर्याप्त है और तब एक सौ बारह विधियों की जरूरत नहीं है। और सच्‍चा प्रेम क्या है, आपने वह भी समझाया। उससे मुझे विश्वास होता है कि मैं सच में प्रेम करता हूं। लेकिन मुझे जो आनंद ध्यान में अनुभव होता है वह उस परितोष से सर्वथा भिन्न है जो मुझे प्रेम में अनुभव होता है। और मैं ध्यान के बिना रहने की बात भी नहीं सोच सकता। इसलिए यह समझाने की कृपा करें कि ध्यान के बिना प्रेम पर्याप्त कैसे हो सकता है!

 हुत सी बातें समझने जैसी हैं। एक कि अगर तुम सच में प्रेम में हो तो तुम ध्यान के बारे में जिज्ञासा ही नहीं करोगे। क्यों? क्योंकि प्रेम ऐसी समग्र उपलब्धि है, ऐसा परिपूर्ण भराव है कि उससे कभी यह भाव नहीं उठ सकता कि कुछ कमी है कि कुछ खालीपन है कि कुछ भरना है कि कुछ और पाना है। और अगर तुम्हें महसूस हो कि कुछ और चाहिए, कुछ कमी है, कुछ और करना है, अनुभव करना है, तो समझना कि तुम्हारा प्रेम महज भावना है, यथार्थ नहीं। मैं तुम्हारे विश्वास पर संदेह नहीं करता, तुम विश्वास कर सकते हो कि तुम प्रेम करते हो। तुम्हारा विश्वास प्रामाणिक भी हो सकता है, तुम किसी को धोखा नहीं दे रहे हो। तुम महसूस कर सकते हो कि तुम प्रेम में हो, लेकिन लक्षण बताते हैं कि तुम प्रेम में नहीं हो। प्रेम में होने के लक्षण क्या?
तीन लक्षण हैं। पहला लक्षण है, परिपूर्ण संतोष, जिसमें कुछ और की जरूरत नहीं रहती, परमात्मा तक की जरूरत नहीं रहती। दूसरा लक्षण है कि उसमें भविष्य नहीं है। प्रेम का यह एक क्षण शाश्वत के समान है। उसमें दूसरा क्षण नहीं है, भविष्य नहीं है, कोई कल नहीं है। प्रेम वर्तमान में घटित हो रहा है। और तीसरा लक्षण है कि प्रेम में तुम समाप्त हो जाते हो, तुम अब नहीं हो। और अगर तुम अब भी हो तो तुमने प्रेम के मंदिर में प्रवेश नहीं किया है।
 अगर ये तीनों बातें मौजूद हों तो फिर और क्या चाहिए? अगर तुम नहीं रहे तो फिर ध्यान कौन करेगा? अगर कोई भविष्य नहीं रहा तो सब विधियां व्यर्थ हो गईं। क्योंकि विधियां तो भविष्य के लिए हैं, फल के लिए हैं। और यदि तुम इसी क्षण परितुष्ट हो, परम संतुष्ट हो, तो कुछ करने के लिए प्रेरणा या प्रयोजन क्या है?
मनोवैज्ञानिकों की एक धारा है—और वह आधुनिक चिंतन की एक बहुत महत्वपूर्ण धारा है—जिसका आरंभ विलहेम रेख से होता है। उसने कहा कि प्रेम के अभाव के कारण ही सब मानसिक रुग्णताएं पैदा होती हैं। क्योंकि तुम्हें प्रगाढ़ प्रेम का अनुभव नहीं हो सकता, क्योंकि तुम उसमें समग्रता से नहीं उतर सकते, इसलिए यह अतृप्त प्राणी अनेक आयामों में तृप्ति खोजता है।
जब मैं यह कहता हूं कि अगर तुम प्रेम कर सकते हो तो और कुछ जरूरी नहीं है, तो उससे मेरा यह अर्थ नहीं है कि प्रेम पर्याप्त है। मैं यह कहता हूं कि अगर तुम प्रेम की गहराई में उतर सको तो प्रेम द्वार बन जाता है। तब प्रेम किसी भी अन्य ध्यान की भांति द्वार बन जाता है।
ध्यान क्या करता है? ध्यान भी तीन काम करता है। वह संतोष पैदा करता है, वह तुम्हें वर्तमान में जीने की सुविधा देता है और वह तुम्हारे अहंकार को मिटाता है। सो ध्यान किसी विधि के जरिए ये तीन काम संपन्न करता है। इसलिए तुम ऐसा कह सकते हो कि प्रेम स्वाभाविक विधि है। और अगर स्वाभाविक विधि न उपलब्ध हो तो उसकी जगह कृत्रिम विधियां प्रयोग में लायी जा सकती हैं।
लेकिन कोई व्यक्ति समझ सकता है कि मैं प्रेम में हूं। उसके लिए ये तीन चीजें कसौटी का काम करेंगी। उसे जानना होगा कि उसके तीन लक्षण हैं, कसौटी हैं, मापदंड हैं। उसे देखना होगा कि उसके प्रेम के साथ ये तीन बातें घटित होती हैं अथवा नहीं। अगर वे घटित नहीं होती हैं तो वह और कुछ होगा, प्रेम नहीं होगा।
और प्रेम एक बड़ी घटना है, वह बहुत चीजें हो सकता है। वह वासना हो सकती है, वह महज कामवासना हो सकती है, वह मालकियत की वृत्ति हो सकती है, यह भी हो सकता है कि तुम अकेले नहीं रह सकते और तुम्हें कुछ व्यस्तता चाहिए; तुम भयभीत हो और तुम्हें सुरक्षा के लिए किसी का संग—साथ चाहिए। दूसरे का संग—साथ सुरक्षा का भाव देता है। और वह प्रेम महज काम—संबंध भी हो सकता है।
ऊर्जा को निकास की जरूरत है। ऊर्जा इकट्ठी होती जाती है और बोझ बन जाती है। तब तुम्हें उसे निकालना पड़ता है, बाहर फेंकना पड़ता है। तो तुम्हारा प्रेम महज छुटकारे का उपाय हो सकता है। प्रेम अनेक चीज हो सकता है। प्रेम अनेक चीज है। और सामान्यत: प्रेम प्रेम के अतिरिक्त अनेक चीज है।
मेरे लिए प्रेम ध्यान है। इसलिए इसका उपयोग करो। अपने प्रेमी के साथ ध्यान में उतरो। जब भी तुम्हारा प्रेमी या प्रेमिका पास हो, उसके साथ गहरे ध्यान में उतर जाओ। एक—दूसरे की उपस्थिति को प्रेम की अवस्था बना लो।
सामान्यत: तुम ठीक इसके विपरीत चलते हो। जब प्रेमी साथ होते हैं तो लडते होते हैं। जब वे अलग होते हैं तब एक—दूसरे की सोचते हैं और जब साथ होते हैं तब लड़ते हैं। और फिर अलग होकर एक—दूसरे के संबंध में चिंतन करने लगते हैं। यह सिलसिला चलता रहता है। लेकिन यह प्रेम नहीं है।
तो मैं कुछ सुझाव देता हूं। अपने प्रेमी या अपनी प्रेमिका की उपस्थिति को ध्यान की स्थिति बनाओ। मौन हो जाओ। पास—पास रहो, लेकिन मौन। एक—दूसरे की उपस्थिति को मन के विसर्जन का अवसर बनाओ, इसलिए सोचो मत। अगर प्रेमी के साथ रहकर भी तुम सोचते हो तो तुम प्रेमी के साथ ही नहीं हो। कैसे साथ हो सकते हो? दूर हो, अगर तुम अपनी बात सोच रहे हो और तुम्हारा प्रेमी अपनी बात सोच रहा है। तुम साथ—साथ हो, यह दिखता भर है, लेकिन यथार्थत: तुम दूर—दूर हो। क्योंकि जब दो मन विचार में संलग्न हैं तो वे एक—दूसरे से दो ध्रुवों की दूरी पर हैं।
सच्चे प्रेम का अर्थ तो विचार का विसर्जन है। तो अपने प्रेमी या प्रेमिका की सन्निधि में सोच—विचार बिलकुल बंद कर दो। तभी वह सन्निधि है। और तब तुम अचानक एक हो जाते हो। तब शरीर तुम्हें अलग— अलग नहीं रख सकते, शरीर की किसी गहराई में अवरोध टूट गया है। मौन अवरोध को मिटा देता है। पहली बात यह है।
अपने संबंध को धार्मिक बनाओ। जब तुम सच में प्रेम में होते हो तो प्रेम—पात्र परमात्मा हो जाता है। अगर ऐसा न हो तो भलीभांति समझना कि वह प्रेम संबंध नहीं है। यह असंभव है; प्रेम संबंध अधार्मिक संबंध नहीं हो सकता।
लेकिन क्या तुमने कभी अपने प्रेमी के लिए समादर अनुभव किया है? तुमने अनेक अन्य चीजें महसूस की होंगी, लेकिन समादर नहीं। यह विचार के बाहर मालूम पड़ता है। लेकिन भारत ने बहुत—बहुत प्रयोग किए हैं। यही कारण है कि भारतीय दृष्टि रही है कि पुरुष और स्त्री के बीच का प्रेम संबंध धार्मिक संबंध होना चाहिए, सांसारिक संबंध नहीं। प्रेमी और प्रेमिका दोनों ईश्वरीय हो जाते हैं। तुम उन्हें और किसी ढंग से नहीं देख सकते।
बहुत हैरानी की बात है, क्या तुमने अपनी पत्नी के लिए सम्मान अनुभव किया है? यह बात ही बेतुकी मालूम पड़ती है—पत्नी के लिए सम्मान? प्रश्न ही नहीं उठता है। तुम निंदा अनुभव कर सकते हो, कुछ भी अनुभव कर सकते हो, लेकिन सम्मान नहीं। महज सांसारिक संबंध है, तुम एक—दूसरे का उपयोग कर रहे हो। पत्नी कह सकती है कि मैं पति का आदर करती हूं लेकिन मैंने अब तक ऐसी पत्नी नहीं देखी जो पति का आदर करती हो। परंपरा है कि पति का समादर करे, इसलिए पत्नी कहे जाती है कि मैं समादर करती हूं और वह उसका नाम भी नहीं लेगी। आदर से वह नाम नहीं लेती, ऐसी बात नहीं है। क्योंकि नाम छोड्कर वह सब कुछ कह सकती है। लेकिन महज परंपरा के कारण वह नाम नहीं लेती है।
तो दूसरी बात सम्मान है। प्रेमी या प्रेमिका की उपस्थिति में सम्मान अनुभव करो। अगर तुम अपने प्रेमी या प्रेमिका में परमात्मा को नहीं देख सकते हो तो तुम उसे कहीं भी नहीं देख सकते। फिर तुम उसे वृक्ष में कैसे देखोगे जिससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं है? फिर तुम से पत्थर या झाड़ में कैसे देखोगे जिनके साथ तुम्हारी कोई आत्मीयता नहीं है? अगर तुम अपने प्रेमी में परमात्मा को नहीं देख सकते, नहीं महसूस कर सकते, तो तुम उसे कहीं भी महसूस नहीं करोगे।
और अगर तुमने प्रेमी में परमात्मा को देख लिया तो देर—अबेर तुम उसे सर्वत्र देखोगे। क्योंकि एक बार दरवाजा खुल गया और किसी व्यक्ति में तुम्हें परमात्मा की झलक मिल गई तो तुम फिर उस झलक को कभी न भूल सकोगे। और इस कारण तब हर एक चीज द्वार बन जाएगी। यही कारण है कि मैं कहता हूं कि प्रेम स्वयं ध्यान है।
तो विरोध की भाषा में मत सोचो कि प्रेम करूं कि ध्यान। वह मेरा मतलब नहीं है। प्रेम और ध्यान में चुनाव मत करो। ध्यानपूर्वक प्रेम करो या प्रेमपूर्वक ध्यान करो। कोई विभाजन मत करो। प्रेम बहुत ही स्वाभाविक तत्व है और उसका उपयोग एक माध्यम की भांति किया जा सकता है। तंत्र ने यह उपयोग किया है—न सिर्फ प्रेम का बल्कि कामवासना का भी। तंत्र ने उन्हें माध्यम बना लिया है।
तंत्र कहता है कि गहरे काम—संभोग में ध्यान आसानी से घटित होता है, जितनी आसानी से चित्त की किसी अन्य अवस्था में संभव नहीं है। इसका कारण है कि संभोग स्वाभाविक, जैविक समाधि जैसा है। लेकिन जिस काम—संभोग से हम परिचित हैं वह बहुत विकृत है। इसलिए जब ऐसी बात कही जाती है तो तुम्हें बेचैनी होती है, क्योंकि तुमने जिसे सेक्स जाना है वह सेक्स नहीं है, वह उसकी छाया भर है। और इसका कारण है।
पूरे समाज ने तुम्हारे मन को सेक्स के विरुद्ध संस्कारित किया है। इस दिशा में प्रत्येक आदमी दमित है। इससे स्वाभाविक सेक्स असंभव हो गया है। जब कभी तुम संभोग में होते हो तो एक गहरा अपराध— भाव तुम्हें घेरे रहता है। वह अपराध— भाव अवरोध बन जाता है। और एक बहुत बड़ा अवसर खो जाता है। उस अवसर को तुम अपने भीतर गहरे उतरने के लिए उपयोग में ला सकते हो।
तंत्र कहता है कि संभोग में ध्यानपूर्ण होओ। संभोग को पवित्र महसूस करो, अपने को अपराधी मत महसूस करो। इसे सौभाग्य मानो कि प्रकृति ने तुम्हें ऐसा स्रोत दिया है जिसके जरिए तुम आसानी से और शीघ्रता से समाधि में गहरे उतर सकते हो। और फिर संभोग में मुक्त मन से उतरो, उसमें किसी तरह का दमन या प्रतिरोध मत रहने दो। काम—क्रीड़ा में पूरी तरह डूब जाओ। अपने को भूल जाओ और सभी निषेधों को दूर फेंको। बिलकुल स्वाभाविक रहो।
और तब तुम्हारे शरीर में एक गहरा संगीत पैदा होगा। जब दो शरीर लयबद्ध होंगे तब तुम बिलकुल भूल जाओगे कि तुम हो और फिर भी तुम होगे। तब तुम मैं को भूल जाओगे, मैं बचेगा ही नहीं। तब अस्तित्व अस्तित्व के साथ परस्पर खेलेगा, तब दो नहीं रहेंगे, एक हो जाएंगे। तब कोई विचार नहीं रहेगा, भविष्य समाप्त हो जाएगा; और तुम वर्तमान में, इसी क्षण में होओगे।
बिना अपराध— भाव या निषेध के संभोग को ध्यान बनाओ और तब कामवासना रूपांतरित हो जाती है, वह स्वयं ही द्वार बन जाती है। जब काम द्वार बनता है तो काम की कामुकता समाप्त हो जाती है। फिर एक क्षण आता है जब काम भी समाप्त हो जाता है, सिर्फ उसकी सुवास रहती है। वह सुवास ही प्रेम है। और धीरे—धीरे वह सुवास भी जाती रहती हे, और तब जो बचता है वही समाधि है।
तंत्र कहता है कि किसी चीज को भी शत्रु मत समझो। प्रत्येक ऊर्जा मैत्रीपूर्ण है, सिर्फ उसके उपयोग की कला जाननी है। चुनाव मत करो। अपने प्रेम को ध्‍यान में रूपांतरित करो और वैसे ही ध्यान को प्रेम में। तब तुम जल्दी ही शब्द को भूल जाओगे। और उस यथार्थ को जानोगे जो शब्द नहीं है।
प्रेम शब्द प्रेम नहीं है, ध्यान शब्द ध्यान नहीं है, और ईश्वर शब्द ईश्वर नहीं है। वे मात्र शब्द हैं, लेकिन यदि तुम गहरे प्रवेश कर सको तो ईश्वर, ध्यान और प्रेम सब एक हो जाते हैं।

 एक और प्रश्न :

मनुष्य की संवेदहीन्ता के कारण क्या हैं? और उन्हें कैसे दूर किया जाए?

बच्चा जब जन्म लेता है, तो बच्चा असहाय होता है; खासकर मनुष्य का बच्चा तो पूर्णत: असहाय होता है। उसे जीवित रहने के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। यह निर्भरता एक सौदा है। इस सौदे में बच्चे को अनेक चीजें देनी पड़ती हैं। संवेदनशीलता उनमें से एक है।
बच्चा बहुत संवेदनशील होता है। उसका पूरा शरीर संवेदनशील होता है। लेकिन वह असहाय है, वह स्वतंत्र नहीं है। वह मां—बाप पर, परिवार पर, समाज पर निर्भर है। उसे पराधीन रहना है। इस पराधीनता और असहायपन के कारण उसके मां—बाप, परिवार उस पर बहुत सी चीजें लादते हैं और उसे उनके सामने झुकना पड़ता है। अन्यथा वह जीवित नहीं रह सकता; वह मर जाएगा। इसलिए उसे बहुत सी चीजें बदले में खोनी होती हैं। उनमें से सबसे गहरी और महत्वपूर्ण चीज संवेदनशीलता है। वह अपनी संवेदनशीलता खो देता है। क्यों?
क्योंकि बच्चा जितना संवेदनशील होता है वह उतने कष्ट में पड़ता है, वह उतना ही नाजुक और असुरक्षित होता है। छोटी सी उत्तेजना और वह रोने लगता है। यह रोना मां—बाप बंद कराना चाहते हैं, लेकिन वे कुछ कर नहीं सकते। लेकिन अगर बच्चा हर उत्तेजना को जीता जाए तो वह परिवार के लिए उपद्रव बन जाता है। और बच्चे उपद्रव बन ही जाते हैं। फलत: मां—बाप को बच्चे की संवेदनशीलता को घटाना पड़ता है। बच्चे को प्रतिरोध सीखना पड़ता है। बच्चे को नियंत्रण सीखना पड़ता है। धीरे— धीरे बच्चे का मन दो टुकड़ों में बंट जाता है। तब वह अनेक उत्तेजनाओं को महसूस करना छोड़ देता है, क्योंकि वे उत्तेजनाएं अच्छी नहीं मानी जाती हैं। उनके लिए उसे सजा मिलती है।
बच्चे का पूरा शरीर कामुक होता है। वह अपनी अंगुलियों को चूसता है। वह अपने पूरे शरीर से आनंद लेता है। उसका पूरा शरीर कामुक है, वह अपने पूरे शरीर की छानबीन करता है। यह उसके लिए बड़ी बात है। लेकिन इस छानबीन में एक क्षण आता है जब बच्चा अपनी जननेंद्रिय पर पहुंच जाता है और तब वह एक समस्या बन जाती है। समस्या इसलिए खड़ी होती है कि उसके मां—बाप दमित लोग हैं। जिस क्षण बच्चा अपनी जननेंद्रिय को छूता है, मां—बाप छ होने लगते है।
यह बात गहराई से देखने की है। मां—बाप की मुद्रा जैसे ही बदलती है, बच्चे उसे भांप लेते हैं। उन्हें लगता है कि कुछ भूल हो गई। मां—बाप चिल्लाकर कहते हैं, उसे छुओ मत! तब बच्चे को लगता है कि जननेंद्रिय कोई बुरी चीज है और उसे दबाना जरूरी है। और जननेंद्रिय शरीर का सबसे नाजुक, सबसे जीवंत और सबसे संवेदनशील अंग है। और जब बच्चे को जननेंद्रिय को छूने और उसका आनंद लेने से रोक दिया जाता है तो उसकी संवेदनशीलता का स्रोत ही नष्ट हो जाता है।
यह बच्चा संवेदनहीन हो जाएगा। और वह ज्यों—ज्यों बड़ा होगा, उसकी संवेदनहीनता भी बढ़ती जाएगी। इस सौदे में पहली बलि संवेदनशीलता की चढ़ती है। यह सौदा जरूरी है—लेकिन उतना ही बुरा। और जब तुम्हें यह समझ में आने लगे तो सौदे को रह कर संवेदनशीलता को फिर से प्राप्त करना चाहिए।
इस सौदे का एक दूसरा भी कारण है, वह सुरक्षा है।
मैं कई वर्षों तक एक मित्र के साथ उनके घर में रहता था। पहले ही दिन मैंने देखा कि वे अपने नौकर को देखने से कतराते हैं। वे धनी आदमी हैं, लेकिन वे कभी अपने नौकर की तरफ आंखें नहीं उठाते हैं। वैसे ही वे अपने बच्चों को नहीं देखते हैं। वे दौड़ते हुए अपने बंगले में प्रवेश करते थे और वैसे ही बाहर जाते समय दौड़कर बंगले से निकलते थे और कार में घुस जाते थे।
एक दिन मैंने उनसे पूछा कि बात क्या है? उन्होंने कहा कि अगर नौकरों की तरफ देखूं तो वे सोचते हैं कि मेरा रुख दोस्ताना है और वे तुरंत पैसों की या इस—उस चीज की मांग कर बैठते हैं। वही अड़चन बच्चों से बात करने में है। तब तुम उनके मालिक नहीं रह जाते हो। तब तुम उनका नियंत्रण नहीं कर सकते हो।
इस आदमी ने अपने चारों तरफ संवेदनहीनता का जाल खड़ा कर लिया है। उसे डर है कि नौकर से बात करने पर, उसके साथ सहानुभूति दिखाने पर, उसे कुछ धन या और कुछ देना पड़ेगा। ऐसे हर आदमी देर— अबेर सीख जाता है कि संवेदनशील होना उपद्रव में पड़ना है। तो तुम अपने चारों ओर एक अवरोध खड़ा कर लेते हो, एक सुरक्षा की दीवार बना लेते हो। फिर तुम आसानी से बाहर सड़क पर निकल सकते हो। वहां भिखमंगे भीख मांग रहे हैं और दरिद्रों की झोपड़पट्टियां खड़ी हैं। लेकिन अब तुम्हें उन्हें देखकर कोई भाव नहीं उठता है। सच तो यह है कि तुम उन्हें देखते ही नहीं।
इस कुरूप समाज में आदमी को अपने चारों तरफ एक सूक्ष्म दीवार खड़ी करनी पड़ती है, जहां वह छिपा रहे। अन्यथा खुला रहने पर खतरा है, तब जीवित रहना ही मुश्किल हो जाएगा। संवेदनहीनता का एक बड़ा कारण यह है।
संवेदनहीनता तुम्हें इस कुरूप दुनिया में चैन से जीने की सुविधा जुटाती है, लेकिन इसके लिए तुम्हें बड़ी कीमत अदा करनी पड़ती है। यह सौदा बड़ा महंगा है। इस दुनिया में तो तुम शांति से रह लेते हो, लेकिन परमात्मा में, समग्र में तुम प्रवेश करने से वंचित रह जाते हो। तुम्हारा यह जगत तो सम्हल जाता है, लेकिन तुम्हारा दूसरा जगत खो जाता है। इस जगत के लिए संवेदनहीनता भली है और उस जगत के लिए संवेदनशीलता शुभ है।
अगर तुम सच में उस जगत में उत्सुक हो तो संवेदनशीलता को फिर जगाना जरूरी है। और उसके लिए सुरक्षा की दीवारों को तोड़ना होगा। निश्चित ही, तुम असुरक्षित हो जाओगे। तुम्हें बहुत दुख झेलना पड़ सकता है। लेकिन यह दुख उस आनंद के सामने कुछ नहीं है जो संवेदनशीलता के जरिए हासिल होता है। तुम जितने संवेदनशील हो जाओगे तुममें उतनी ही करुणा का उद्वेग होगा।
लेकिन तुम्हें पीड़ा भी होगी, क्योंकि तुम्हारे चारों तरफ नरक फैला है। चूकि अभी तुम बंद हो इसलिए उसका अहसास नहीं होता है। एक बार खुल जाओगे तो दोनों के प्रति खुल जाओगे—इस दुनिया के नरक के प्रति और उस दुनिया के स्वर्ग के प्रति। तुम दोनों की ओर खुल जाओगे। और यह असंभव है कि कोई एक छोर पर बंद रहे और दूसरे छोर पर खुला। सच तो यह है कि या तो तुम बंद रह सकते हो या खुले। बंद रहने की हालत में दोनों ओर ही बंद रहना होगा, और खुलने की हालत में दोनों ओर खुला रहना पड़ेगा।
स्मरण रखो, बुद्ध आनंद से भरे हैं तो दुख से भी भरे हैं। पर उनका यह दुख अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए है। स्वयं तो वे प्रगाढ़ आनंद में हैं, लेकिन दूसरों के लिए दुखी हैं।
महायान बौद्ध कहते हैं कि जब बुद्ध निर्वाण के द्वार पर पहुंचे तो द्वारपाल ने द्वार खोल दिया, लेकिन बुद्ध ने भीतर प्रवेश करने से इनकार कर दिया। यह एक पौराणिक कथा है, लेकिन बहुत सुंदर है। द्वारपाल ने द्वार खोला, लेकिन बुद्ध ने प्रवेश करने से इनकार कर दिया। द्वारपाल ने कहा कि आप भीतर क्यों नहीं जाते हैं! सदियों—सदियों से हम आपकी प्रतीक्षा करते रहे हैं। रोज सुनते थे कि बुद्ध आ रहे हैं, बुद्ध आ रहे हैं। सारा स्वर्ग आपके लिए पलकें बिछाए है। आप प्रवेश करें! आपका स्वागत है! बुद्ध ने कहा कि जब तक प्रत्येक मनुष्य इस द्वार के भीतर प्रवेश नहीं करता तब तक मैं नहीं प्रवेश करूंगा। मैं यहीं प्रतीक्षा करूंगा। जब तक एक भी मनुष्य बाहर है तब तक स्वर्ग मेरे लिए नहीं है।
बुद्ध दूसरों के लिए दुखी हैं, अपने लिए प्रगाढ़ आनंद में हैं। इस समांतर घटना को देखते हो? तुम स्वयं दुख में हो, गहरे दुख में हो और सोचते हो कि सभी दूसरे जीवन के मजे ले रहे हैं। बुद्ध के साथ ठीक उलटा घटित हुआ है। वे स्वयं प्रगाढ़ आनंद में हैं और जानते हैं कि दूसरे दुखी हैं।
ये विधियां संवेदनहीनता को दूर करने की विधियां हैं। इसे कैसे दूर किया जाए, इस पर हम और भी चर्चा करेंगे।

आज इतना ही।

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