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रविवार, 20 अक्तूबर 2019

समग्रता-पूरी त्वरा से जीओ-(प्रवचन-01)

ओशो के अंग्रेजी साहित्य से अनुवादित विभिन्न प्रवचनांश

(समग्रता से और पूरी त्वरा से जीओ)

दि ट्रार्नसमिसल आफ दा लेंप--30 

(The Transmission of the Lamp, Chapter #30, Chapter title: This chair is empty, 10 June 1986 am in Punta Del Este, Uruguay)

प्रवचन-पहला

समग्रता से और पूरी त्वरा से जीओ

समग्रता से जीओ, और पूरी त्वरा से जीओ, ताकि प्रत्येक क्षण स्वर्णिम हो उठे और तुम्हारा पूरा जीवन स्वर्णिम क्षणों की एक माला बन जाये।
ऐसा व्यक्ति कभी नहीं मरता क्योंकि उसके पास मिदास का स्पर्श होता हैः वह जो भी छूता है, स्वर्णिम हो उठता है।
सही अर्थ में एकमात्र जिम्मेदारी तुम्हारी अपनी सम्भावनाओं के प्रति, तुम्हारी अपनी बुद्विमत्ता और सजगता के प्रति है- और फिर उनके अनुसार व्यवहार करने के प्रति है।

तुम जन्म के साथ वृक्ष की भांति पैदा नहीं होते, तुम केवल बीज की भांति पैदा होते हो। तुम्हें उस बिंदु तक विकसित होना है जहां तुममें फूल खिलने लगें, और वही खिलावट तुम्हारी परितृप्ति होगी, कृतार्थता होगी।
इस खिलावट का पद से कोई संबंध नहीं, धन से कोई संबंध नहीं, राजनीति से कोई संबंध नहीं। इसका संबंध केवल और केवल तुमसे है, यह निजी विकास है।
तुम्हें अपने आप में एक महोत्सव बन जाना है।
उटोपिया (आदर्श राज्य) की अभीप्सा मूल रूप से व्यक्ति के भीतर और समाज के भीतर लयबद्वता की अभीप्सा है। लयबद्धता आज तक कभी नहीं रही हैः हमेशा एक अव्यवस्था ही रही है।
समाज विभिन्न संस्कृतियों में, विभिन्न धर्मों में, विभिन्न राष्ट्रों में विभाजित रहा है- और इनका आधार रहे हैं अंधविश्वास, इनमें से कोई भी विभाजन तर्क संगत नहीं है। लेकिन ये विभाजन दर्शाते हैं कि मनुष्य स्वयं के भीतर ही विभाजित है। ये उसके आंतरिक द्वंद्व के ही फैलाव हैं। मनुष्य भीतर एक नहीं है, इसीलिये वह बाहर एक समाज, एक मानवता निर्मित नहीं कर सका है। कारण बाहर नहीं है। बाह्य तो केवल आंतरिक मनुष्य का प्रतिफलन है।
किसी ने आज तक व्यक्ति पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है। और यही समस्त समस्याओं का मूल कारण है। लेकिन चूंकि व्यक्ति इतना छोटा लगता है, और हम और समाज इतने बड़े लगते है, लोग सोचते हैं, कि हम समाज को बदल सकते हैं और तब व्यक्ति बदल जायेंगे।
ऐसा होनेवाला नहीं है- क्योंकि समाज केवल एक शब्द है। केवल व्यक्ति होते हैं, समाज नहीं होते। समाज के कोई प्राण नहीं होते; तुम उसमें कुछ बदल नहीं सकते। तुम केवल व्यक्ति को बदल सकते हो, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न लगता हो। और एक बार तुम व्यक्ति को बदलने का विज्ञान जान लेते हो तो वह सभी व्यक्तियों पर सब कहीं लागू होता है।
मुझे ऐसा लगता है, कि एक दिन हम ऐसे समाज को निर्मित कर लेंगे जो लयबद्ध होगा, जो उन कल्पनाओं से भी कहीं बेहतर होगा जो हजारों वर्षां से आदर्श-राज्यवादी करते आए हैं।
वास्तविकता कहीं अधिक सुन्दर होगी। तुम जो हो उससे, और अस्तित्त्व ने जो तुम्हें दिया है उससे, तुम कभी पूरी तरह संतुष्ट नहीं होते हो, क्योंकि तुम्हारा ध्यान कहीं और लगा दिया गया है। तुम्हें वहां जाने के निर्देश मिले हैं जहां अस्तित्त्व ने चाहा ही न था कि तुम हो। तुम अपनी ही सम्भावनाओं की ओर नहीं बढ़ रहे हो।
दूसरे जैसा चाहते है तुम हो, तुम वैसा होने की कोशिश कर रहे हो, लेकिन उससे तृप्ति नहीं मिल सकती है। जब तृप्ति नहीं मिलती, तो तर्क कहता है, ‘शायद यह पर्याप्त नहीं है, और प्रयास करो।’ तब फिर तुम और अधिक के पीछे दौड़़ने लगते हो, तब फिर तुम चारों तरफ देखना शुरू कर देते हो।
और हर व्यक्ति मुखौटा लगाकर प्रगट हो रहा है जो कि मुस्कुरा रहा है, प्रसन्न दिख रहा है और इस तरह हर व्यक्ति, हर दूसरे को धोखा दे रहा है। तुम भी मुखौटा लगाकर सामने आते हो, तो दूसरे सोचते हैं कि तुम ज्यादा आंनदित हो। तुम सोचते हो कि दूसरे ज्यादा आनंदित है।
अहाते के उस पार की घांस हमेंशा ज्यादा हरी दिखती है। वे तुम्हारी घांस को देखते हैं और यह ज्यादा हरी दिखती है। वह सचमुच ही ज्यादा हरी, घनी और सुन्दर मालूम होती है। दूरी इस भ्रम को जन्म देती है। जब तुम पास आते हो, तब तुम्हें दिखना शुरु होता है कि ऐसा नहीं है। लेकिन लोग एक-दूसरे को थोड़े अन्तर पर ही रखते हैं। यहां तक कि मित्र भी, यहां तक कि प्रेमी भी एक-दूसरे को थोड़े अन्तर पर ही रखते हैं। बहुत ज्यादा निकट आना खतरनाक होगा, लोग तुम्हारी असलियत देख सकते हैं।
और प्रारंभ से ही तुम्हें गलत मार्गदर्शन दिया गया है, तो जो भी तुम करोगे दुखी रहोगे। तुम बहुत पैसे वाले को देखते होः तुम्हें लगता है, शायद पैसा आनन्द लाता है। देखो जरा उस व्यक्ति को, कैसा आनन्दित लगता है। तो पैसे के पीछे दौड़ो। कोई व्यक्ति अधिक स्वस्थ है, तो स्वास्थ के पीछे दौड़ो। कोई व्यक्ति कुछ और कर रहा है और बडा तृप्त दिखता है- तो उसका अनुकरण करो। लेकिन है ये सदा दूसरे ही हैं।
समाज ने ऐसी व्यवस्था बना रखी है कि तुम कभी अपनी संभावनाओं के बारे में सोचोगे ही नहीं। और सारा दुख यह है कि तुम, तुम नहीं हो रहे हो। सिर्फ स्वयं जैसे हो जाओ, और फिर कोई दुख नहीं हैं, कोई प्रतिस्पर्धा नहीं हैं, और कोई परेशानी नहीं है कि दूसरे के पास ज्यादा हैं, कि तुम्हारे पास ज्यादा नहीं हैं।
यदि तुम ज्यादा हरी घांस ही पसंद करते हो, तो अहाते के दूसरी और देखने की जरूरत नहीं हैं, अपनी ओर की घांस को ही ज्यादा हरी बनाओ। इतनी आसान बात है। घांस को हरी बनाना।
मनुष्य की जड़े उसकी अपनी संभावनाओं में रहनी चाहिये, चाहे वे संभावनायें जो भी हों। और तब दुनिया इतनी तृप्त होगी कि तुम भरोसा नहीं कर सकते हो।
जीवित होने का अर्थ है तुम्हारे पास हास्य-बोध का होना, गहरे प्रेमपूर्ण ढंग का होना और हंसते-खेलते जीना।
मैं समस्त जीवन-विरोधी प्रवृतियों के विरोध में हूं; लेकिन आज तक दिव्य के प्रति आस्था प्रकट करने का ढंग हमेशा जीवन विरोधी ही रहा है। उसे जीवन समर्थक बनाने के लिये हंसते-खेलते रहने की कला को, प्रेम को, सम्मान को एक साथ जोड़ना पड़ेगा।
जीवन का सम्मान ही दिव्य के प्रति एकमात्र श्रद्धा है, क्योंकि जीवन से ज्यादा दिव्य और कुछ भी नहीं हैं।
मनुष्य बड़े खजानों के साथ पैदा होता हैं, लेकिन वह अपनी पूरी पाशविक विरासत भी साथ लाता है। किसी भी प्रकार हमें इस पाशविक विरासत से स्वयं को मुक्त करना होगा और एक खाली जगह निर्मित करनी होगी ताकि यह खजाना हमारे चेतन तक उभर सके और उसे हम सबके साथ बांट सकें- क्योंकि उस खजाने का एक गुण यह भी हैंः जितना ज्यादा तुम उसे बांटोगे, उतना ज्यादा वह बढ़ेगा।
हमारी कई समस्यायें इसलिये हैं कि हमने कभी उन पर गौर ही नहीं किया हैं, कभी अपनी दृष्टि ही उन पर केन्द्रित नहीं की है यह देखने के लिये, कि वे क्या हैं।
जीवन उन चीजों के हाथों में सौंपो जो सुन्दर हैं। जीवन कुरूप चीजों के हवाले मत करो। तुम्हारे पास बरबाद करने के लिये ज्यादा समय, ज्यादा ऊर्जा नहीं हैं। इतने छोटे से जीवन के साथ, इतने छोटे से ऊर्जा-त्रोत के साथ उसे क्रोध में, घृणा में, उदासी में, ईर्ष्या में गंवाना मूढ़ता ही है।
उसका उपयोग प्रेम के लिए करो, किसी सृजनात्मक कार्य के लिए करो, मित्रता के लिए करो, ध्यान के लिए करो। अपनी ऊर्जा का कुछ ऐसा उपयोग करो कि जो तुम्हें ऊंचाइयों पर ले जाती हो। और जितने ऊंचे तुम जाओगे, उतने ही ज्यादा ऊर्जा के स्त्रोत तुम्हें उपलब्ध होंगे।
सब तुम्हारे हाथ में हैं।
कोई भी मनुष्य अलग द्वीप नहीं हैं। इसे जीवन के एक आधारभूत सत्य की तरह स्मरण रखना है। मैं इस बात पर इसलिये इतना जोर दे रहा हूं क्योंकि हम इसे बार-बार भूलने लगते हैं।
हम सब एक ही जीवन-शक्ति के अंश हैं- एक ही सागर समान अस्तित्त्व के अंश है। मूलतः चूंकि गहरी जड़ों में हम सब एक हैं, इसीलिये प्रेम के उपजने की संभावना भी हैं। यदि हम एक न होते, तो प्रेम की संभावना भी न होती।
मनुष्य अभी भी अपने भीतर अधिकांश पाशविक प्रवृत्तियों को ढोए चला जाता है। उसका क्रोध, उसकी घृणा, उसकी ईर्ष्या, उसकी अधिपत्य की भावना, उसकी धूर्तता, मनुष्य में जिन बातों की निदां की गयी हैं, वे सब उसके गहरे अचेतन से जुड़ी हुअी लगती हैं। और अध्यात्म की कुल कीमियां इतनी है कि कैसे इस पाशविक अतीत से छुटकारा पाया जाए? बिना इस पाशविक अतीत से छुटकारा पाए, मनुष्य हमेशा विभाजित रहेगा। पाशविक अतीत और मनुष्यता एक होकर नहीं रह सकते, क्योंकि मनुष्यता के गुणधर्म बिल्कुल विपरीत हैं। तो मनुष्य क्या करता है कि वह एक ढोंगी बन जाता है।
जहां तक औपचारिक व्यवहार का प्रश्न है, वह मानवता के गुणों का अनुसरण करता है- प्रेम का, सत्य का, स्वतंत्रता का, गैर-मालकियत की भावना का, करुणा का। लेकिन यह सब ऊपरी-ऊपरी और उथला ही रहता है, और किसी भी पल भीतर छिपा पशु उभर सकता है; कोई भी आकस्मिक घटना उसे प्रगट कर देती है; और वह बाहर उभरे न या उभरे, भीतर चेतना तो विभाजित ही रहती है।
यह खंडित चेतना ही इस प्रश्न को, इस अभीप्सा को जन्म देती रही है, कि कैसे व्यक्ति एक हारमोनियस होल; एक लयबद्ध इकाई में बदल जाए और यही पूरे समाज के लिये भी सच हैः कैसे हम समाज को एक लयबद्ध इकाई बना सकें- जहां कोई युद्ध न हो, जहां कोई द्वंद न हो, जहां कोई स्वर्ग न हो; जाति, रंग, धर्म, और राष्ट्र के कोई भेद न हों।
हमें क्रांति और समाज को बदलने की भाषा में सोचने के बजाय ध्यान तथा व्यक्ति को बदलने के बारे में अधिक-अधिक सोचना चाहिये।
यही एकमात्र संभव उपाय है जिसके द्वारा किसी दिन हम समाज के सारे भेद मिटा सकेंगे। लेकिन पहले ये भेद व्यक्ति के चित्त से छूटने चाहिये- और वे छूट सकते हैं।
ऐसी कोई चीज नहीं है जिस पर ‘सत्य’ का लेबिल चिपका हो- कि एक दिन तुम्हें वह डिब्बा मिल जायेगा और तुम उसे खोलोगे, भीतर रखा सामान देखोगे और कहोगे, ‘अहा! मुझे सत्य मिल गया।’
ऐसा कोई डिब्बा नहीं हैं।
कारण स्पष्ट है कि क्यों लोग सत्य के बारे में बातें करते हैं और झूठ की दुनिया में जीये चले जाते हैं। उनके हृदय में सत्य के लिये अभीप्सा है; वे स्वयं के प्रति ही शर्मिंदा रहते हैं कि वे सच्चे नहीं हैं, इसलिये वे सत्य की बातें करते हैं। लेकिन ये केवल बातें हैं। उसके अनुसार जीना खतरनाक हैं, उतना खतरा वे नहीं उठा सकते।
और स्वतंत्रता के मामले में भी यही बात है। हर व्यक्ति स्वतंत्रता चाहता हैं-जहां तक बातचीत का सवाल है लेकिन सचमुच में कोई स्वतंत्र नहीं है। और कोई सचमुच स्वतंत्र होना चाहता भी नहीं, क्योंकि स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारी आती है, वह अकेली नहीं आती और आश्रित रहना आसान है; जिम्मेदारी तुम पर नहीं होती, जिम्मेदारी उस व्यक्ति पर होती है जिस पर तुम आश्रित हो।
तो लोगों ने जीने का बड़ा खंडितमना ढंग अपना लिया है। वे सत्य की बातें करतें हैं, वे स्वतंत्रता की बातें करते हैं, और जीते वे झूठ में हैं, जीते वे गुलामी में हैं...  बहुत तरह की गुलामियों में, क्योंकि प्रत्येक गुलामी तुम्हें किसी जिम्मेदारी से मुक्त करती है।
जो व्यक्ति सचमुच स्वतंत्र होना चाहता है, उसे विशाल जिम्मेदारियां स्वीकार करनी होती हैं। वह अपनी जिम्मेदारियां किसी अन्य पर नहीं थोप सकता। जो भी वह करता हैं, जो भी वह है, वह स्वयं जिम्मेदार है।
सच्चा अहिंसक व्यक्ति वही है जो किसी की हत्या नहीं करता, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता, क्योंकि वह हत्या करने के या किसी को नुकसान पहुंचाने के खिलाफ है। लेकिन यदि कोई उसे नुकसान पहुंचाने लगे, तब भी वह नुकसान पहुंचाने के खिलाफ है। यदि कोई उसकी हत्या करने लगे, तब भी वह हत्या के खिलाफ है; वह स्वयं की भी हत्या नहीं होने देगा।
वह कभी कोई हिंसा शुरू नहीं करेगा, लेकिन यदि कोई हिंसा उसके खिलाफ शुरू की जाती है, तो वह जी जान से लड़ेगा। केवल तभी अहिंसक व्यक्ति स्वतंत्र रह सकता है; नहीं तो वह हमेशा गुलाम रहेगा, दरिद्र रहेगा, हमेशा उसका शोषण होता रहेगा।
स्वयं हो जाना तुम्हें वह सब दे देता है जो तुम्हें परितृप्त कर दे, वह सब जो तुम्हारे जीवन को अर्थपूर्ण और महत्त्वपूर्ण बना दे। सिर्फ स्वयं हो जाना और अपने स्वभाव के अनुसार विकास करना तुम्हारी नियति को परितृप्त कर देगा।
हमेशा परिवर्तनशील रहो और ऐसे रहो कि तुम्हारे बारे में पहले से कुछ न कहा जा सके। कभी बदलाहट को मत रोको और पुरानी आदतों के अनुसार मत जीओ; तभी जीवन एक हर्षोल्लास बन सकेगा।
जैसे ही तुम यूं जीते हो कि तुम्हारे बारे में भविष्यवाणी की जा सके, तुम यंत्रवत हो जाते हो।
यंत्र के व्यवहार तय होते हैं। वे कल भी वैसे ही थे, वे आज भी वैसे ही हैं, वे कल फिर वैसे ही रहोंगे। वे बदलते नहीं। यह केवल मनुष्य की महिमा है कि वह हर पल बदल सकता है।
जिस दिन तुम बदलना छोड देते हो, सूक्ष्म अर्थो में तुम मर चुके।
हर चीज को दांव पर लगा दो। जुआरी हो रहो! सारे खतरे मोल लो, क्योंकि अगला पल पक्का नहीं, तो चिंता क्यों करे? फिकर क्यों करे?
खतरों के साथ जीओ, हर्षोल्लासपूर्वक जीओ। निर्भय होकर जीओ, बिना किसी अपराध-भाव के जीओ। बिना किसी नर्क के भय के और बिना किसी स्वर्ग के लालच के जीओ।
सिर्फ जीओ।
प्रत्येक भूल सीखने का एक मौका है। केवल इतना कि एक ही भूल बार-बार मत करो- वह मूढ़ता है। लेकिन जितनी नयी गलितयां तुम कर सको करो, डरो मत-क्योंकि केवल यही तरीका है, जो प्रकृति तुम्हें सीखने के लिये देती है।
धार्मिकता का सरल-सा अर्थ इतना है कि यह तुम्हारे विकास के लिये चुनौती है, यह बीज के लिये चुनौती है कि वह अपनी परम खिलावट को अभिव्यक्ति दे सकें; वह हजारों फूलों में खिल उठे और अपने भीतर छिपी सुगन्ध को बिखेर दे।
उस सुगन्ध को मैं धार्मिकता कहता हूं।
प्रत्येक व्यक्ति इतना दुःखी है कि वह खुद को ही समझाने के लिए कहीं कुछ कारण ढूंढना चाहता है कि वह इसलिए दुःखी है। और समाज ने तुम्हें इसके लिए एक अच्छा व्यूह प्रदान किया हैः राय बनाना।
स्वभावतः पहले तुम प्रत्येक बात में अपनें संबंध में राय बनाते हो। कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं है और न कोई व्यक्ति कभी पूर्ण हो सकता है- परिर्पूणता कहीं होती नहीं- तो धारणाएं कायम करना बड़ा आसान है। तुम अधूरे हो, तो कई चीजें ऐसी है जो तुम्हारे अधूरेपन को झलकाती हैं। और फिर तुम नाराज हो, खुद से नाराज और पूरी दूनिया से नाराजः कि मैं पूर्ण क्यों नहीं हूं? और तब फिर तुम केवल एक ही विचार से देखने लगते हो- सब में अपूर्णता खोजना।
और फिर तुम अपने हृदय को खोलना चाहते हो- स्वभावतः क्योंकि जब तक तुम अपने हृदय खोल नहीं देते, तुम्हारे जीवन में कोई उत्सव नहीं, तुम्हारा जीवन लगभग मृत है। लेकिन तुम अपने हृदय को सीधा नहीं खोल सकते। तुम्हें अपनी इस पूरी आरम्भिक शिक्षा को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा।
तो पहली बात हैः स्वयं के बारे में राय बनाना छोड़ो।
राय बनाने के बजाय स्वयं को स्वीकार करना शुरू करो, अपनी सारी अर्पूणताओं के सहित, अपनी सारी दुर्बलताओं के सहित, अपनी सारी गलितयों के सहित, अपनी सारी असफलताओं के सहित। स्वयं से पूर्ण होने की मांग मत करो। यह मांग केवल असंभव की मांग है, और फिर तुम कुंठाग्रस्त होते हो।
आखिर तुम इन्सान ही हो।
जरा पशु-पक्षियों को देखोः कोई भी चिंतित नहीं है, कोई उदास नहीं है, कोई निराश नहीं है, कोई कुंठित नहीं है। तुम किसी भैंस को सनक गयी नहीं देखते हो। वह रोज वही घांस चबाती हुई तृप्त है। वह करीब-करीब बुद्धत्व को उपलब्ध है! कहीं कोई तनाव नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ, स्वयं के साथ, जो बुद्ध जैसा है वैसे ही उसके साथ एक गहरी लयबद्धता है।
भैंसें कोई पार्टियाँ नहीं बनाती दुनिया में क्रांति लाने के लिये, भैंसों को महा-भैंसों में बदल देने के लिये, भैंसों को धार्मिक पुण्यात्मा बनाने के लिये। किसी पशु को मनुष्य की धारणाओं से जरा भी मतलब नहीं हैं।
और वे सब हंसते होंगेः तुम्हें हो क्या गया है? तुम स्वयं क्यों नहीं हो सकते, जैसे हो वैसे हो? किसी और जैसे बनने की जरुरत क्या है?
तो पहली बात है- स्वयं का गहरा स्वीकार।
ऐंद्रिकता की निंदा मत करो।
सारी दुनिया द्वारा इस की निंदा की गयी है, और उनकी निन्दा के कारण ऊर्जा जो ऐंद्रिकता में खिल सकती है वह विकृतियों में, ईर्ष्या में, क्रोध में, घृणा में बहने लगती है- ऐसा जीवन जो रुखा-सुखा है, जिसमें कोई रस नहीं।
इंद्रियरस मनुष्यता के लिये बड़े से बड़ा वरदान है। यह तुम्हारी संवेदनशीलता है, यह तुम्हारी चेतना है, जो तुम्हारे शरीर तक छन- छन कर आ रही है।
सदियों-सदियों से मां-बाप यह धारणा ढोते रहे हैं कि बच्चे उनके हैं और बच्चों को बस उनकी प्रतिलिपि (कार्बन कॉपी) भर बनना है। प्रतिलिपि कोई सुन्दर बात नहीं है, और अस्तित्त्व प्रतिलिपि में भरोसा नहीं रखता है- मौलिकता में हर्षोल्हासित होता है।
तुम्हें बच्चों की तुम से आगे विकसत हो जाने में मदद करनी है।
तुम्हें उनकी तुम्हारी नकल न करने में मदद करनी है। वास्तव में माता- पिता का यही कर्तव्य है- बच्चों को नकल में न पड़ने देनें में सहायता पहुंचाना। बच्चें नकलची होते हैं, और स्वभावतः, किसकी वे नकल करने वालें हैं? माता-पिता ही सबसे करीब होते हैं।
अब तक मां-बापों ने इस बात का बड़ा आनन्द लिया है कि उनके बच्चे ठीक उनके जैसे हैं। बाप को गर्व महसूस होता है क्योंकि उसका बेटा उस जैसा ही है। तब एक जीवन बरबाद हुआ; तब उसके लड़के की जरुरत ही न थी, वही पर्याप्त थे।
बच्चों द्वारा नकल किये जाने में गर्व महसूस करने की गलत अवधारणा के कारण, हमनें नकलचियों का समाज खड़ा कर दिया है।
आज्ञाकारिता में बुद्धिमत्ता की जरुरत नहीं है। सभी यंत्र आज्ञाकारी हैं। किसी ने कभी नहीं सुना कि कोई यंत्र अवज्ञाकारी है।
आज्ञाकारिता सरल भी है। यह तुम पर से सारे दायित्व का बोझ हटा देता है। इसमें प्रतिक्रिया की कोई जरुरत नहीं हैं, तुम्हें तो सिर्फ वही करना है जो तुमसे कहा जा रहा है। दायित्व उस स्रोत पर है जहां से आज्ञा आ रही है। एक प्रकार से तुम बहुत स्वतंत्र होः तुम्हारे कृत्य के लिये तुम्हारी निंदा नहीं की जा सकती।
धार्मिकता कोई ऐसी बात नहीं है जिसमें विश्वास किया जाना है, बल्कि कुछ ऐसी बात है जिसे जीया जाना है, जिसे अनुभव किया जाना है...  तुम्हारे मन का एक विश्वास नहीं बल्कि तुम्हारे पूरे प्राणों की सुगंध।
मन राय न बनाने वाला, सही-गलत, अच्छे-बुरे की धारणा न बनाने वाला नहीं रह सकता। यदि तुम मन को राय न बनाने के लिए विवश करो तो तुम्हारी बुद्धिमत्ता में अवरोध खड़ा हो जाएगा। फिर मन ठीक से काम नहीं कर सकता।
राय बनाने वाला न होना कोइ ऐसी बात नहीं है जो मन के कार्यक्षेत्र में आती हो। केवल वही व्यक्ति राय न बनानेवाला हो सकता जो मन के पार चला गया हो; अन्यथा जो तुम्हें तथ्यात्मक लगता है, एक तर्कसंगत वक्तव्य की तरह, वह केवल तथ्य का आभास मात्र है।
मन जो भी तय करता है, या कहता है, वह उसके संस्कारों द्वारा, उसके पूर्वाग्रहों द्वारा, प्रदूषित रहता है- ये ही वे बातें हैं जो उसे राय बनाने वाला बनाती हैं।
उदाहरण के लिये, तुम किसी चोर को देखते हो। यह एक तथ्य है कि वह चोरी करता रहा है, उसके बारे में सवाल ही नहीं- और तुम चोर के संबंध में एक वक्तव्य देते हो। और निश्चित ही चोरी अच्छी बात तो नहीं है; तो जब तुम किसी व्यक्ति को चोर कहते हो, तुम्हारा मन कहता है, तुम बिल्कुल ठीक बात कह रहे हो, तुम्हारा वक्तव्य बिल्कुल ठीक है।
लेकिन चोर बुरा क्यों है- और बुराई क्या है? वह चोरी करने पर मजबूर क्यों हो गया है? और चोरी का कृत्य अकेला एक कृत्य है; इस एक कृत्य के आधार पर तुम पूरे व्यक्ति के संबंध में निर्णय ले रहे हो। तुम उसे चोर कह रहे हो। वह केवल चोरी ही नहीं करता है, अन्य बहुत से काम भी करता है।
हो सकता है वह एक अच्छा चित्रकार हो, हो सकता है वह एक अच्छा बढ़ई हो, हो सकता है वह एक अच्छा गायक हो, एक अच्छा नर्तक हो, हजारों गुण उस व्यक्ति में हो सकते हैं। पूरा मनुष्य बड़ी चीज है, चोरी करना अकेला एक कृत्य है।
एक कृत्य के आधार पर तुम पूरे व्यक्ति के संबंध में वक्तव्य नहीं दे सकते। तुम उस व्यक्ति को जरा भी जानते नहीं हो, और तुम उस कृत्य तक के बारे में नहीं जानते हो कि किन परिस्थितियों में यह कृत्य हुआ है। शायद उन परिस्थितियों में तुमने भी चोरी ही की होती। शायद उन परिस्थितियों में चोरी करना बुरी बात न थी... । क्योंकि हर कृत्य परिस्थितियों पर निर्भर है। यदि तुम पूरी दुनियां में चारों और देखो और तुम अलग-अलग लोगों के संस्कार देखो, और उनकी अच्छे और बुरे, सही और गलत की धारणाएं देखो, तो पहली बार तुम्हें पता चलेगा कि शायद तुम्हारा मन भी मनुष्यता के एक किसी स्वर्ग विशेष का हिस्सा भर है। वह सत्य के संबंध में कोई खबर नहीं देता, वह केवल उस वर्ग विशेष के संबंध में खबर देता है।
और इस मन के माध्यम से जो कुछ भी तुम देखते हो, वह केवल तुम्हारी धारणा मात्र है।
अस्तित्त्व एक है। उसकी अभिव्यक्तियां लाखों हैं, लेकिन उनमें जो भाव अभिव्यक्त हो रहा है वह एक है। यह एक भगवत्ता है, सृजन की अनंत विविधताओं सहित।
पैसा बड़ी अजीब चीज है। यदि तुम्हारे पास पैसा है ही नहीं, तो यह आसान बात है, तुम्हारे पास है ही नहीं तो कोई जटिलता नहीं है। लेकिन यदि तुम्हारे पास पैसा है, तो वह निश्चित ही जटिलताएं पैदा करता है।
सबसे बड़ी समस्या जो पैसा पैदा करता है, वह यह है कि तुम्हें यह पता नहीं चलता कि लोग तुम्हें चाहते हैं या तुम्हारे पैसे को चाहते हैं। और इसे तय करना इतना मुश्किल होता है कि लगता है, पैसे पास न होना ही बेहतर होता। कम से कम जीवन आसान तो होता।
अब पैसा, जो इतना बड़ा आनन्द हो सकता था, गहन संताप का कारण बन गया है। लेकिन संताप का कारण पैसा नहीं है, तुम्हारा मन है।
पैसा उपयोगी है; पैसा पास होने में कोई पाप नहीं हैं, इसमें कोई अपराध भाव महसूस करने की कोई जरुरत नहीं हैं।
अब, मन ऐसी समस्याएँ खड़ी करता है।
तुम्हारे पास पैसा है, उसका आनन्द लो। और यदि कोई तुम्हें प्रेम करता है, तो ऐसे प्रश्न मत उठाओ, क्योंकि तुम उस व्यक्ति को बड़ी उलझन में डाल रहे हो। यदि वह कहता है कि वह तुम्हें प्रेम करता है, तो तुम विश्वास नहीं करने वाले। यदि वह कहता है कि वह तुम्हारे पैसे को प्रेम करता है, तो तुम विश्वास लेने वाले हो। लेकिन यदि वह तुम्हारे पैसे को प्रेम करता है, तो सारा प्रेम-संबंध ही खत्म हुआ। गहरे में तुम्हें संदेह बना ही रहेगा कि वह तुम्हें नहीं, तुम्हारे पैसे को प्रेम करता है।
लेकिन इसमें कोई बुराई नहीं हैः पैसा भी तुम्हारा है, ठीक जैसे कि तुम्हारी नाक तुम्हारी है, तुम्हारी आंखे तुम्हारी हैं, तुम्हारे बाल तुम्हारे हैं। और वह व्यक्ति तुम्हें, तुम्हारी समग्रता में प्रेम करता है। पैसा भी तुम्हारा अंग है। उसे अलग मत करो, फिर कोई समस्या नहीं है।
जीवन को यथासंभव कम से कम जटिलताओं और न्यूनतम समस्याओं के साथ जीने की कोशिश करो- और यह तुम्हारे हाथ में है।
अपने जीवन के अंतरतम रहस्यों को जानना कुछ भी नहीं हैं।
तुलना की पूरी धारणा ही मिथ्या है।
प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है, क्योंकि कोई उसके जैसा नहीं है। तुलना ठीक होती यदि सभी व्यक्ति एक समान होते- लेकिन वे एक समान नहीं। जुड़वां बच्चे भी एकदम एक जैसे नहीं होते। एक भी व्यक्ति खोज पाना असंभव है जो ठीक तुम जैसा हो। तो हम अनूठे व्यक्तियों की आपस में तुलना कर रहे हैं, उसी से सारी मुसीबत पैदा होती है।
जीवन की सबसे कठिन, लेकिन सबसे सारभूत बात यह है कि जीवन को सुन्दर बातों में और मूढतापूर्ण बातों में विभाजित न किया जाये, जीवन को विभाजित ही न किया जाये। वे सारी बातें एक ही पूर्ण के अंश हैं।
बस जरा से हास्य-बोध की जरुरत है। और मेरे अनुसार व्यक्ति को पूरा होने के लिये हास्य-बोध का होना एकदम जरुरी है।
छोटी-छोटी मूढ़तापूर्ण बातों में गलत क्या है? तुम उन पर हंसकर उनका आनन्द क्यों नहीं ले सकते? सारे समय तुम तय करते रहते हो, कि क्या सही है, क्या गलत है। सारे समय तुम न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे हो- और वह तुम्हें गंभीर बना देता है।
फिर, फूल सुन्दर हैं, लेकिन कांटों का क्या हों? वे भी फूलों के ही अस्तित्त्व के हिस्से हैं। फूल कांटों के बिना नहीं हो सकेंगे; कांटे रक्षक हैं। उनका भी कुछ काम है, कुछ उद्देश्य, कुछ अर्थ।
लेकिन तुम विभाजित करते हो- तब फूल सुंदर हैं और कांटे कुरुप हो जाते हैं। लेकिन स्वयं वृक्ष के भीतर वही रस जो फूलों में जा रहा है, वही कांटों में भी जा रहा है। वृक्ष तो कोई भेद नहीं करता, कोई राय नहीं बनाता। फूलों का पक्ष नहीं लिया जाता और कांटों को केवल बर्दाश्त भर नहीं किया जाता, दोनों का पूरा स्वीकार है। और हमारे जीवन में हमारा भी यही झुकाव होना चाहिए।
जीवन में चीजें हैं, छोटी चीजें, जिनके बारे में यदि तुम राय बनाते हो तो वे मूढ़तापूर्ण दिखेंगी, बेवकूफी भरी लगेंगी। लेकिन वह तुम्हारी धारणा बनाने की दृष्टि के कारण है; अन्यथा वे भी कुछ आवश्यक कार्य संपादित करने के लिए हैं।
मन का पूरा कार्य है तोड़ते जाना। हृदय का काम है जोड़नेवाली कड़ी को देखना, जिसके प्रति मन बिल्कुल अंधा है।
मन उसको समझ नहीं सकता जो शब्दों के पार है; वह केवल उसी को समझ सकता है जो भाषा से और तर्क से समझ में आता हो। उसका अस्तित्त्व से, जीवन से, और सत्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। मन स्वयं एक कल्पना है।
तुम मन के बिना नहीं जी सकते। तुम हृदय के बिना नहीं जी सकते। और जितनी ज्यादा गहराई से तुम जीते हो, उतना ही ज्यादा तुम्हारे हृदय का उसमें हाथ है।
जीवन बहाव है, जीवन एक नदी है, एक सतत प्रवाह!
लोग स्वयं को ठहरा हुआ सोचते हैं। केवल वस्तुएं ठहरी हुई होती हैं, केवल मृत्यु मैं बदलाहट नहीं होती- जीवन लगातार बदल रहा है। जितना ज्यादा जीवन होगा- उतनी ज्यादा बदलाहट होगी। भरपूर जीवन, और हर पल एक तीव्र बदलाहट।
कोई श्रेष्ठ नहीं है, कोई हीन नहीं है और कोई समान भी नहीं है। हर व्यक्ति अनूठा है।
समानता मनोवैज्ञानिक रूप से गलत है। प्रत्येक व्यक्ति अलबर्ट आइन्स्टीन नहीं हो सकता और प्रत्येक व्यक्ति रवींन्द्रनाथ टैगोर भी नहीं हो सकता। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि रवींन्द्रनाथ टैगोर श्रेष्ठ हैं, क्योंकि तुम रवीन्द्रनाथ टैगोर नहीं हो सकते। रवीन्द्रनाथ के लिए भी ‘तुम’ बनना संभव नहीं है।
मेरे कहने का पूरा अभिप्राय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अनूठी अभिव्यक्ति है। हमें श्रेष्ठता की, हीनता की, समानता की, असमानता की पूरी विचारधारा को ही समाप्त कर देना चाहिये, और उसके स्थान पर नई अवधारणा अनूठेपन की रखनी चाहिये।
और प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है।
प्रेम से देखो और तुम पाओगे कि प्रत्येक व्यक्ति में कुछ है, जो किसी और में नहीं है।
जो कुछ भी मनपसंद हो बस वही करो- मनपसंद तुम्हारे लिए और मनपसंद तुम्हारे आसपास के वातावरण के लिए; बस कुछ ऐसा करो जो तुम्हें गीतों से भरे और तुम्हारे आसपास उत्सव का एक संगीत पैदा करे। ऐसे जीवन को मैं धार्मिक जीवन कहता हूं।
इसमें कोई सिद्धांत नहीं होते, इसमें कोई अनुशासन नहीं होता। उसका अकेला एक ही रुख होता है- और वह है, बुद्धिमत्ता से जीना।
आज्ञाकारिता में एक सरलता है; अनाज्ञाकारिता के लिये थोड़े ऊंचे स्तर की बुद्धिमत्ता की जरुरत होती है। कोई भी मूढ़ आज्ञाकारी हो सकता है- सच तो यह है कि केवल मूढ़ ही आज्ञाकारी हो सकते हैं।
बुद्धिमत्तापूर्ण व्यक्ति निश्चित ही पूछनेवाला है, क्यों? क्यों मुझे ऐसा करना है? और जब तक मुझे इसके कारणों और परिणामों का पता नहीं, मैं इसमें सम्मिलित नहीं होने वाला। तब वह जिम्मेदार बन रहा है।
संत के लिये दुष्ट होना सर्वथा असंभव है, लेकिन एक दुष्ट व्यक्ति संत हो सकता है।
मनुष्य ने अभी तक अकेलेपन के सौंदर्यबोध को पहचानना नहीं सीखा है।
वह हमेशा किसी से संबंध बनाने के लिए तड़प रहा है, किसी के साथ होने के लिए; मित्र के साथ, पिता के साथ, पत्नी के साथ, पति के साथ, बच्चे के साथ...  किसी न किसी के साथ।
उसने समाज बनाये हैं, क्लब बनाये हैं; लायंस क्लब, रोटरी क्लब। उसने पार्टियाँ बनायी हैं; राजनैतिक, आदर्शवादी। धर्म बनाये हैं; चर्च, मंदिर। लेकिन इन सबके पीछे मूल जरुरत यह है कि तुम किसी तरह यह भूलना चाहते हो कि तुम अकेले हो। इतनी सारी भीडों के साथ जुड़कर तुम कोई बात भुलाने का प्रयास कर रहे हो जो अंधेरे में तुम्हें एकाएक याद आ जाती है कि तुम अकेले पैदा हुए थे, तुम अकेले मरोगे, चाहे तुम कुछ भी करो, तुम अकेले जीते हो।
अकेलापन तुम्हारे अस्तित्त्व का इतना आवश्यक अंग है, कि उसे टालने का कोई उपाय नहीं है।
अकेलेपन; अलोननेस को टालने के लिये, किया गया हर प्रयत्न असफल हुआ है, और वह असफल होगा क्योंकि वह जीवन के मूलभूत नियमों के विपरीत है। जरुरत उस बात की नहीं है जिसमें तुम अपने अकेलेपन को भूल सको, जरुरत यह है कि तुम अपने अकेलेपन के प्रति- जो कि एक वास्तविकता है सजग हो सको।
और इसे महसूस करना, इसे अनुभव करना इतना सुन्दर है, क्योंकि यह भीड़ से, दूसरों से तुम्हारी मुक्ति है। यह एकाकी होने के भय से हमारा मुक्त होना है। ‘एकाकी’ शब्द मात्र तुम्हें तत्क्षण याद दिलाता है कि यह एक घाव की तरह हैः उसे भरने के लिये किसी चीज की जरुरत है। यह एक खाली जगह है, और यह चोट पहुंचाता है। इसमें कुछ भरा जाना जरुरी है।
”अकेलेपन”- इस शब्द में किसी खालीपन का, किसी घाव का बोध नहीं है जिसे भरा जाना है। अकेलापन’ का सीधा सा अर्थ होता है- परिपूर्णता। तुम सपूर्ण हो; तुम्हें पूर्ण करने के लिये किसी अन्य की जरुरत नहीं है।
तो अपने उस अंतरतम केंद्र को पाने की कोशिश करो, जहां तुम सदा अकेले हो, सदा से अकेले रहे हो। जीवन में, मृत्यु में, जहां-कहीं भी तुम हो तुम अकेले रहोगे। लेकिन यह इतना भरा-पूरा है, यह खाली नहीं है- यह इतना भरा-पूरा, इतना परिपूर्ण, इतना लबालब, जीवन के सभी रसों से, अस्तित्त्व के समस्त सौंदर्य से, स्व वरदानों से कि एक बार तुमने अपने अकेलेपन का स्वाद लिया कि हृदय के सारे दर्द विदा को जायेंगे। उसके बजाय असीम माधुर्य की, शांति की, उल्लास की, स्व-आनंद की एक नई लय होगी वहां।
इसका अर्थ यह नहीं है कि जो व्यक्ति अपने अकेलेपन में केन्द्रित है, अपने-आप में पूर्ण है, वह मित्र नहीं बना सकता। सच तो यह है, केवल वही मित्र बना सकता है। क्योंकि अब यह उसकी जरुरत नहीं है, अब यह एक बांटना है। उसके पास इतना अधिक है कि वह बांट सकता है।
हम एक ही अस्तित्त्व के हिस्से है। किसी को भी चोट पहुंचाने में तुम स्वयं को ही चोट पहुंचा रहे हो। आज चाहे तुम इसे महसूस न करो, लेकिन एक दिन जब तुम ज्यादा सचेत हो ओगे, तुम कहोगे, हे भगवान! यह घाव मैंने ही किया था स्वयं पर। तुमने किसी दूसरे को चोट दी थी यह सोचकर कि लोग अलग-अलग हैं।
कोई अलग-अलग नहीं है। पूरा अस्तित्त्व एक है, एक सुव्यवस्थित इकाई! इसी समझ से अहिंसा का जन्म होता है।
जब तुम क्रोध में होते हो, तुम अपने आपको सजा दे रहे हो। तुम जल रहे होते हो, तुम अपने हृदय को और उसके श्रेष्ठ गुणों को नष्ट कर रहे होते हो- और तुम घृणा से भरे होते हो।
मनुष्य तभी पूर्ण होता है, जब वह अस्तित्त्व से लयबद्ध हो। यदि वह अस्तित्त्व से लयबद्ध नहीं है, तो वह खाली है, पूरी तरह से खाली; और उस खालीपन से, उस रिक्तता से पैदा होता है लोभ।
लोभ इस खालीपन को भरने के लिये है- पैसे से, मकानों से, फर्नीचर से, मित्रों से, प्रेमियों से, किसी भी चीज से- क्योकि तुम खालीपन की तरह नहीं जी सकते। यह भयंकर लगता है। जीवन भूत जैसा लगने लगता है। यदि तुम खाली हो और तुम्हारे भीतर कुछ भी नहीं है, तो जीना असभंव है। अपने भीतर भराव को महसूस करने के दो ही उपाय हैं। या तो तुम अस्तित्त्व के साथ समवर हो जाओ...  तब तुम पूर्ण से भर उठते हो, सारे समस्त फूलों से और समस्त सितारों से। यह वास्तविक भराव है, वास्तविक परितृप्ति।
लेकिन यदि तुम वैसा न करो- और लाखों लोग वैसा नहीं कर रहे हैं- तो फिर दूसरा उपाय है, अपने को बस किसी भी तरह के कूड़ा-कचरे से भर लो।
लोभ का ही अर्थ है कि तुम भीतर बहुत खाली महसूस कर रहे हो और तुम इसे जो भी संभव हो उसी चीज से भरना चाहते हो; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह चीज क्या है?
एक बार यह तुम्हारे समझ में आ जाए तो फिर लोभ के साथ तुम्हें कुछ नहीं करना है। तुम्हें पूर्ण के साथ परिसंवाद में होने के लिए कुछ करना पड़ता है। ताकि तुम्हारा भीतरी खालीपन विदा हो जाए।
मनुष्य का पूरा अतीत दरिद्रता की प्रशंसा करता रहा है और उसे अध्यात्म के बराबर स्थान देता रहा है, जो कि बिल्कुल बकवास है।
अध्यात्म मनुष्य को घटनेवाली महानतम समृद्धि है। शेष सारी समृद्धियां उसमें समाहित है, यह किसी अन्य समृद्धि के विरोध में नहीं है, यह तो बस सभी प्रकार की दरिद्रता के विरोध में है।
एक तरफ तो लोग गरीबी को सम्मान देंगे, और दूसरी तरफ कहते हैं, गरीबों की सेवा करो। अजीब है! यदि गरीबी इतनी आध्यात्मिक बात है तो हर अमीर आदमी को गरीब बना देना सर्वाधिक आध्यात्मिक कृत्य होगा। अमीर व्यक्ति की सहायता करो गरीब होने में, ताकि वह आध्यात्मिक हो सके। तब गरीबों की मदद क्यों करते हो? क्या तुम उसकी आध्यात्मिकता को नष्ट करना चाहते हो?
प्रचुरता में जीना ही जगत में एकमात्र आध्यात्मिक बात है।
पैसा बहुत बोझिल विषय है, सिर्फ इस कारण से हम आज तक कोई स्वस्थ व्यवस्था नहीं दे पाये जिसमें पैसा पूरी मनुष्यता का सेवक हो, कुछ लालची लोगों का मालिक भर नहीं।
पैसा बोझिल विषय है क्योंकि मनुष्य की पूरी मानसिकता लालच से भरी हुई है। वरना पैसा वस्तुओं के आदान-प्रदान का एक सीधा-सादा माध्यम है, उत्तम माध्यम; उसमें कुछ गलत नहीं है। लेकिन जिस ढंग से हमने पैसे की व्यवस्था बनायी है, सब कुछ उसमें गलत प्रतीत होता है।
यदि तुम्हारे पास पैसा नहीं है, तो तुम निन्दित किये जाते हो, तुम्हारा पूरा जीवन अभिशाप बन जाता है। और पूरे जीवन भर तुम किसी भी तरीके से पैसा पाने की कोशिश में लगे रहते हो।
यदि तुम्हारे पास पैसा है, तो वह मूल बात को तो बदलता नहीं- तुम और अधिक चाहते हो, और अधिक चाहने का कोई अंत नहीं है। और अंततः जब तुम्हारे पास बहुत पैसा हो जाता है- यद्यपि वह पर्याप्त नहीं होता, वह पर्याप्त होता ही नहीं; वह उससे ज्यादा है जितना किसी दूसरे के पास हो- तब तुम अपराध भाव महसूस करने लगते हो, क्योंकि तरीके जो तुमने पैसा जमा करने के लिये अपनाये थे वे गंदे थे, अमानवीय थे, हिंसक थे। तुम शोषण कर रहे थे, तुम लोगों का खून चूस रहे थे, तुम परजीवी थे। तो अब पैसा तो तुम्हारे पास हो गया है, लेकिन वह तुम्हें उन सब अपराधों की याद दिलाता है जो तुमने उसे हासिल करने में किए हैं।
उससे दो तरह के लोग पैदा होते हैः एक जो अपराधभाव से छुटकारा पाने के लिये धर्मार्थ संस्थाओं को दान करने लगते हैं; और दूसरे जो इतना अपराधभाव महसूस करता है कि या तो वह पागल हो जाता है या आत्महत्या कर लेता है। उसका स्वयं का अस्तित्त्व एक संताप बन जाता है। हर सांस बोझिल हो जाती है। और अजीब बात यह है कि उसने अपने पूरे जीवन इस सारे पैसे को पाने के लिए ही काम किया क्योंकि समाज अमीर होने की, शक्तिशाली होने की इच्छा को, महत्त्वकांक्षा को उकसाता है।
और पैसा शक्ति लाता है; वह सबकुछ खरीद सकता है, केवल उन कुछ चीजों को छोड़कर जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती हैं। लेकिन उन चीजों की कोई फिक्र नहीं करता।
ध्यान नहीं खरीदा जा सकता, प्रेम नहीं खरीदा जा सकता, मित्रता नहीं खरीदी जा सकती, अहोभाव नहीं खरीदा जा सकता- लेकिन इन सब बातों में किसी का कोई रस नहीं हैं।
जरा अस्तित्त्व को और उसकी प्रचुरता को देखो इतने सारे फूलों की क्या जरुरत है दुनिया में? बस गुलाब पर्याप्त होते। लेकिन अस्तित्व प्रचुर है; लाखों-करोड़ों फूल, लाखों-करोडों पक्षी, करोडों जानवर, हर चीज प्रचुरता में।
प्रकृति कोई त्यागी- तपस्वी नहीं है, वह हर ओर नृत्य में लीन है- सागर में, वृक्षों में। वह हर ओर गीत गा रहा है- देवदार के वृक्षों से गुजरती हवा में, पक्षियों में... ।
क्या जरुरत है लाखों-लाखों सौर-मन्डलों की? हर सौर-मन्डल में लाखों-लाखों तारों की कोई आवश्यकता तो प्रतीत नहीं होती बजाय इसके कि अस्तित्त्व का स्वभाव ही प्रचुरता है; कि समृद्धि ही उसके प्राण हैं; कि अस्तित्त्व दरिद्रता में यकीन नहीं करता।
मैं लोभ को इच्छा के रूप में नहीं देखता। वह कोई अस्तित्त्वगत बीमारी है। तुम पूर्ण (होल) के साथ लयबद्ध नहीं हो; और पूर्ण के साथ वही लयबद्धता ही तुम्हें पवित्र (होली) बना सकती है।
मेरे देखे, लोभ वासना कतई नहीं है, तो तुम्हें लोभ के बारे में कुछ करना नहीं है। तुम्हें उस खालीपन को समझने की कोशिश करनी है, जिसे तुम करने की कोशिश कर रहे हो, और प्रश्न पूछो, मैं रिक्त क्यों हूं? पूरा अस्तित्त्व इतना भरा है, मैं क्यों रिक्त हूं? शायद मैं मार्ग से भटक गया हूं। मैं ठीक दिशा मैं यात्रा नहीं कर रहा हूं। मैं अस्तित्त्वगत नहीं रह गया हूं, यही मेरे खालीपन कारण है।’
तो अस्तित्त्वगत हो, अपने को छोड़ दो, और मौन में, शांति में, ध्यान में अस्तित्त्व के करीब आओ। और एक दिन तुम देखोगे कि तुम इतने भर गये हो, लबालब भर गये हो कि उल्लास, आनन्दमयता, आशीष तुमसे छलक कर बह रहे हैं। तुम्हारे पास ये सब इतने ज्यादा हो गये हैं कि तुम इन्हें पूरी दुनियां को दे सकते हो और फिर भी ये चुकेंगे नहीं।
उस दिन, पहली बार, तुम कोई लोभ नहीं महसूस करोगे-पैसे के लिए, भोजन के लिए, वस्तुओं के लिए, किसी भी चीज के लिए। तुम जीआगे बिना किसी लोभ के जो पूरा नहीं होता, बिना किसी घाव के जो भरता नहीं, तुम जीओगे स्वाभाविक होकर और जिस चीज की जरुरत होगी, वह तुम्हें मिलेगी।
हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में हीन महसूस करता है। और कारण यह है कि हम स्वीकार नहीं करते कि हर व्यक्ति अनूठा है। श्रेष्ठता और हीनता का कोई सवाल नहीं है। हर व्यक्ति अपने जैसा आप ही है। तुलना का प्रश्न ही नहीं उठता।
हमनें लोगों को जैसे वे हैं वैसे ही स्वयं को स्वीकार करने नहीं दिया है। जिस पल तुम स्वयं को जैसे तुम हो वैसे ही स्वीकार करते हो, बिना किसी तुलना के, सारी श्रेष्ठता और सारी हीनता विदा हो जाती है। स्वयं के समग्र स्वीकार में तुम हीनता, श्रेष्ठता की इन ग्रंथियों से मुक्त हो जाते हो। अन्यथा तुम पूरी जिन्दगी उनसे पीड़ित रहोगे।
और मैं उस व्यक्ति की कल्पना नहीं कर सकता, जिसके पास इस जगत में सब कुछ हो। लोगों ने कोशिश की है और बुरी तरह असफल हुए हैं।
बस स्वयं हो जाओ, और वही पर्याप्त है।
सूरज ने तुम्हें स्वीकार किया है, चांद ने तुम्हें स्वीकार किया है, वृक्षों ने तुम्हें स्वीकार किया है, सागर ने तुम्हें स्वीकार किया है, पृथ्वी ने तुम्हें स्वीकार किया है। और अधिक तुम क्या चाहते हो?
तुम इस पूरे अस्तित्त्व द्वारा स्वीकार किये गये हो।
इस बात का आनन्द मनाओ!
समर्थन मिलना और मान्य किया जाना हर व्यक्ति की जरुरत है।
हमारे पूरे जीवन का ढांचा ऐसा है कि हमें सिखाया जाता है कि जब तक मान्यता न हो, हम कुछ नहीं हैं, हमारी कोई कीमत नहीं है। हमारा काम महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि मान्यता। और वह चीजों को उलटा कर देना है।
हमारा काम में महत्त्वपूर्ण होना चाहिये कि वह अपनेआप में एक आनन्द हों। तुम्हें इसलिये काम नहीं करना चाहिए कि मान्यता मिले, बल्कि इसलिये कि सृजनात्मक होना तुम्हारा आनन्द है। तुम काम को काम के लिये ही प्रेम करते हो। तुम काम करो यदि तुम्हें उसे प्रेम हो।
मान्यता की मांग मत करो। यदि वह मिलती है, उसे सहजता से स्वीकार करो। यदि वह नहीं मिलती, उसके बारे में सोच-विचार मत करो। तुम्हारी परितृप्ति तो स्वयं काम में ही होनी चाहिए।
और यदि सभी लोग यह सरल सी कला सीख लें- अपने काम को प्रेम करने की, वह चाहे जो भी काम हो, बिना किसी मान्यता की मांग किये उसका आनन्द लेना- तो यह दुनिया ज्यादा सौंदर्यपूर्ण और उत्सवपूर्ण होगी; अन्यथा इस दुनिया ने तुम्हें एक दुर्भाग्यपूर्ण ढांचे में फंसा रखा है। जो तुम करते हो वह इसलिए नहीं अच्छा है कि तुम उसे प्रेम करते हो, कि तुम उसे ठीक से करते हो, बल्कि इसलिए कि दुनिया उसे मान्यता देती है, उसके लिये पुरस्कार देती है, तुम्हें स्वर्ण-पदक देती है, नोबल प्राइज देती है।
उन्होंने सृजनात्मकता के समूचे अंतस्थ मूल्य को खत्म कर दिया है- क्योंकि तुम लाखों लोगों को तो नोबल प्राइज नहीं दे सकते। और तुमने हर व्यक्ति में मान्यता प्राप्त करने की आकांक्षा जगा दी है, तो कोई व्यक्ति अपने काम का ही आनन्द लेते हुये, शांति से, मौन से काम ही नहीं कर सकता। और जीवन छोटी-छोटी बातों से बना है। उन छोटी बातों के लिये कोई इनाम, कोई पदवी सरकार द्वारा नहीं दी जाती, न हीं विश्वविद्यालयों द्वारा कोई मानद उपाधि दी जाती है।
जिस व्यक्ति को अपनी निजता का कोई भी अहसास है, वह अपने ही प्रेम के साथ, अपने ही काम के साथ जीता है, बिना इसकी जरा भी चिंता किए कि लोग उस काम के बारे में क्या सोचते हैं।
आनन्द किसी चीज को पूरा करने में नहीं है; आंनद इस बात में है कि तुमने उसकी आकांक्षा की, कि तुमने अपनी पूरी त्वरा से उसकी आकांक्षा की, कि जब तुम काम कर रहे थे तुम सब कुछ भूल गये थे, पूरी दुनिया को; केवल वही काम ही तुम्हारे प्राणों का एक मात्र केन्द्र हो गया था। और उसी में तुम्हारा आनन्द और तुम्हारा पुरस्कार है- पूरा करने में नहीं, किसी बात के स्थायी होने में नहीं।
इस अस्तित्त्व की तेज बहती धार में, हमें हर क्षण में ही छिपा उसका पुरस्कार खोज लेना होगा। जो कुछ भी हम कर रहे थे, हमनें अपनी तरफ से सर्वोतम रूप से किया, हमने आधे-आधे मन से नहीं किया। हम कुछ पीछे बचा कर नहीं रख रहे थे, हम उस कृत्य में अपने पूरे प्राण उंडे़ल रहे थे।
वहीं हमारा आनन्द है।
यह बस एक तथ्य है कि हर व्यक्ति अनूठा है, और हर व्यक्ति की एक खास निजता है। हमें बस इस धारणा को छोड़ना पड़ेगा कि लोगों को कैसा होना चाहिये, और इसके स्थान पर इस दर्शन को स्थापित करना होगा कि लोग जैसे भी हैं, सुन्दर हैं। ऐसा होना चाहिये कि कोई सवाल ही नहीं हैं, क्योंकि हम कौन हैं किसी पर कोई ‘चाहिये’ थोपने वाले? यदि अस्तित्त्व तुम्हें वैसे ही स्वीकार करता है जैसे तुम हो, तो हम कौन होते हैं अस्वीकार करने वाले।
तो बस जरा सा रूख में बदलाहट- और यह एक बहुत आसान बात है एक बार तुम्हारे ख्याल में आ जाए तोः हर व्यक्ति अनूठा है, हर व्यक्ति जैसा है वैसा है, और उसे वैसा ही होना चाहिये जैसा वह है। स्वीकृत होने के लिए उसे कोई अन्य होने की जरुरत नहीं हैं। वह पहले ही स्वीकृत है। इसी को मैं कहता हूं निजता का सम्मान, लोगों का सम्मान- जैसे वे हैं।
पूरी दुनिया इतना प्रेमपूर्ण आनंदमय स्थान हो सकती है यदि हम लोगों को वैसा ही स्वीकार कर सकें जैसे वे हैं।
साम्यवाद जो प्रेम से, समझ से, उदारता से आता हैं, सच्चा होगा। साम्यवाद जो जबरदस्ती के माध्यम से आये, वह झूठा होगा।
और इस दुनिया में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, चाहे वह कैसा भी गरीब क्यों न हो, जिसके पास योगदान करने के लिए कुछ न हो।
क्यों न ऐसे जीवन का निर्माण करो जहां पैसा या पद का अनुगमन न पैदा करता हो, बल्कि बस हर व्यक्ति को और-और अवसर प्रदान करता हो।
सत्तात्मक लोग ही वे लोग हैं जो हीनता की ग्रंथि से ग्रसित हैं।
अपनी हीनता को छिपाने के लिये वे अपनी श्रेष्ठता को थोपते हैं। वे सिद्ध करना चाहतें हैं, कि वे कुछ हैं, कि उनका शब्द ही सत्य है, कि उनका शब्द ही नियम है। लेकिन गहरे में वे बड़े हीन प्राणी हैं।
प्रकृति में निश्चित ही कोई पदानुगमन नहीं है। पदानुगमन मनुष्य के मन का खेल है, क्योंकि बिना पदानुगमन के अहंकार को पोषण नहीं मिलता; वह मर जाता है।
प्रकृति में, हर चीज को अवसर है, स्थान है, और वहां कोई भी मालिक नहीं बन रहा होता है। कोई भी मालिक नहीं है और कोई भी गुलाम नहीं हैं। प्रकृति करीब-करीब एक सजीव इकाई की तरह काम करती है जिसमें निजता तो नष्ट नहीं होती, लेकिन जिसमें अहंकार को भी पनपने का मौका नहीं है। इसलिये वृक्षों में अहंकार नहीं है, पक्षियों में अहंकार नहीं है। किसी भी पशु में अहंकार नहीं है। यह समस्या केवल मनुष्य के साथ ही पैदा होती है।
यह मनुष्य का सौभाग्य है- केवल मनुष्य का सौभाग्य है- अकेला होना, पूरी दुनिया के खिलाफ अकेला खड़ा होना यदि उसे लगता है कि वह सत्य के साथ है।
यदि तुम्हें लगता है कि यही है वह रास्ता जो स्वतंत्रता की ओर ले जाता है, तो किसी भी तरह की जिम्मेदारी स्वीकार लो। तब वे जिम्मेदारियाँ तुम पर बोझ नहीं बनने वाली हैं। वे सब तुम्हें ज्यादा परिपक्व, ज्यादा केंद्रित, ज्यादा सदृढ़, ज्यादा सुन्दर व्यक्ति बना देने वाली हैं।
तुम्हारे हाथ में केवल एक ही क्षण होता है-वास्तविक क्षण! और यह क्षण तुम्हें दोबारा नहीं मिलेगा। या तो तुम इसे जीओ या तुम इसे अनजीया छोड़ दो।
हर बच्चा इसे समझता है कि वह दुनिया को अपने मां-बाप से भिन्न दृष्टि से देखता है। जहां तक देखने का सवाल है, यह नितांत सुनिश्चत बात है।
उसके मूल्य भिन्न हैं। वह समुद्र-तट सीपें इकट्ठी कर सकता है और मां-बाप कहेंगे, फेंको इन्हें। क्यों तुम अपना समय नष्ट कर रहे हो? और उसके लिए वे इतनी सुन्दर थीं।
वह इस भेद को देख सकता हैं। वह देख सकता है कि उनके मूल्य भिन्न हैं। मां-बाप पैसों के पीछे भाग रहे हैं; वह तितलियां जमा करना चाहता है। वह समझ नहीं पाता कि उनका पैसों में इतना रस क्यों है? क्या करोगे तुम पैसों का? और उसके मां-बाप की समझ में नहीं आता कि वह तितलियों का अथवा इन फूलों का क्या करेगा?
हर बच्चे को पता चल जाता है कि भेद तो है। समस्या केवल यह है कि वह यह प्रगट करने में डरता है कि वह सही है।
जहां तक उसकी बात है, उसे अकेला छोड़ दिया जाना चाहिये। यह बस थोड़े से साहस की बात है- और साहस की बच्चों में कमी है ऐसा भी नहीं, बात केवल इतनी है कि सारे समाज की व्यवस्था ऐसी है कि बच्चे में साहस जैसा सुन्दर गुण भी निन्दित किया जाएगा।
यदि मां-बाप सचमुच ही बच्चों को प्रेम करते हैं तो वे उन्हें साहसी होने में मदद करेंगे, उनके विपरीत जाने में भी साहसी।
वे उन्हें शिक्षकों के विपरीत, समाज के विपरीत, किसी भी उस व्यक्ति के विपरीत जाने के लिए साहसी होने में मदद करेंगे, जो उनकी निजता को नष्ट करने वाला हो।
याद रहे, समझौता कभी मत करना। समझौता मेरी जीवन दृष्टि के सर्वथा खिलाफ है।
तुम लोगों को देखो, वे दुःखी हैं क्योकि उन्होंने हर बात में समझौता किया है, और वे स्वयं को माफ नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने समझौता किया है। वे जानते हैं कि वे दुःसाहस कर सकते थे, लेकिन वे कायर सिद्ध हुये। वे अपनी ही नजरों में गिर गये हैं, उन्होंने आत्म-सम्मान खो दिया है। समझौते का यही परिणाम होता है।
समझौता क्यों करना? हमारे पास खोने को क्या है? इस छोटे से जीवन में उतनी समग्रता से जीओ जितना संभव हो। अति तक जाने से भी मत डरो। तुम समग्र से ज्यादा कुछ हो ही नहीं सकते, वह अंतिम रेखा है। और समझौता मत करो। तुम्हारा पूरा मन समझौते के पक्ष में बोलेगा, क्योंकि वही ढंग है जिस प्रकार हमारा लालन-पालन हुआ है, जिस प्रकार हम संस्कारित किये गये हैं।
”समझौता’ हमारी भाषा के सर्वाधिक कुरुप शब्दों में से है। इसका अर्थ होता है, आधा मैं छोड़ता हूं, आधा तुम छोड़ो; आधे पर मैं राजी होता हूं, आधे पर तुम राजी होओ। लेकिन क्यों? जब तुम्हें पूरा ही मिल सकता है, जब तुम केक खा भी सकते हो और रख भी सकते हो, तो समझौता क्यों? बस जरा सी निर्भिकता, बस जरा सा दुःसाहस; और वह भी केवल शुरू में। एक बार तुमने समझौता न करने के सौंदर्य को और उससे आनेवाली गरिमा को, अखंडता और निजता को तुमने अनुभव कर लिया तो पहली बार तुम्हें महसूस होगा कि तुम्हारी जड़े हैं, कि तुम उस केन्द्र से जीते हो जो तुम्हारा अपना है।
दुःखी व्यक्ति को आसानी से गुलाम बनाया जा सकता है। आनन्दित व्यक्ति, हंसता-खेलता व्यक्ति गुलाम नहीं बनाया जा सकता।
काम (सेक्स) जीवन का प्रारंभ है और मृत्यु उसी जीवन का अंत है; तो वे एक ही ऊर्जा के दो छोर हैं, एक ही ऊर्जा के दो ध्रुव हैं। उन्हें तोड़ा नहीं जा सकता।
शायद काम (सेक्स) मृत्यु है किश्तों में।
और मृत्यु काम (सेक्स) है थोक में।
लेकिन निश्चित ही दोनों किनारों पर एक ही ऊर्जा कार्यरत है।
क्यों न ऐसे जीवन का निर्माण करें जहां काम (सेक्स) कड़वे अनुभव पैदा न करे, ईर्ष्या, असफलताएं; जहां काम (सेक्स) बस एक मौज-मजा भर रहे- किसी अन्य खेल से ज्यादा नहीं, बस एक जैविक खेल। तुम टेनिस खेलते हो; उसका यह अर्थ तो नहीं कि अपने पूरे जीवन तुम्हें एक ही साथी के संग टेनिस खेलना है।
जीवन ज्यादा समृद्ध हाना चाहिये। केवल थोड़ी समझ की जरुरत है, और प्रेम समस्या नहीं रह जाएगा, काम (सेक्स) वर्जना नहीं रह जाएगा।
मन बस अतीत की स्मृतियों का एक संग्रह भर है, और उन्हीं स्मृतियों के कारण भविष्य के संबंध में कल्पनाओं का संग्रह है।
जीवन में प्रत्येक अवसर का उपयोग अपनी बुद्धिमत्ता को, अपनी चेतना को विकसित करने के लिये करो।
साधारणतः हम क्या करते हैं कि प्रत्येक अवसर का उपयोग अपने लिये नर्क निर्मित करने में करते है। केवल तुम ही दुखी होते हो, और फिर अपने दुःख के कारण तुम औरों को दुःखी करते हो।
और जब इतने सारे लोग साथ-साथ रहते हों, और वे सब एक-दूसरे के लिये दुःख निर्मित करें, तो वे गुणा होते जाते हैं। इसी तरह पूरी दुनिया एक नर्क बन गई है।
यह तत्क्षण बदला जा सकता है, बस केवल मूलभूत बात को समझने की जरूरत हैः बुद्धिमत्ता के बिना कोई स्वर्ग नहीं है।
मेरे अनुसार मां-बाप का काम बच्चों को विकसित होने में मदद करना नहीं है; वे तुम्हारे बिना भी विकसित हो जाएंगे।
तुम्हारा काम है उसे सहारा देना, पोषण देना, मदद करना जो अपने आप ही विकसित हो रहा है, निर्देश मत दो और आदर्श मत दो। उन्हें यह न कहो कि क्या सही है और क्या गलत है- उन्हें अपने अनुभव द्वारा ही उसका पता करने दो।
यह पूरी धारणा ही कि बच्चे तुम्हारे मिल्कियत हैं, गलत है। वे तुमसे पैदा होते है, लेकिन वे तुम्हारे नहीं हैं। तुम्हारे पास एक अतीत है, उनके पास केवल एक भविष्य है।
वे तुम्हारे अनुसार नहीं जीने वाले हैं। तुम्हारे अनुसार जीना प्रायः न जीने के बराबर होगा। उन्हें अपने स्वयं के अनुसार जीना है- स्वतंत्रता में, दायित्व मैं, खतरे में, चुनौती में।
एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाए, कि बच्चे तुम्हारे नहीं हैं, कि वे अस्तित्त्व के हैं और तुम केवल एक मार्ग रहे हो, तो तुम्हें अस्तित्त्व के प्रति धन्यवाद से भर उठने के अलावा कोई उपाय न होगा कि उसने तुम्हें कुछ सुन्दर बच्चों के आने के लिए मार्ग के रूप में चुना है। लेकिन तुम्हें उनकी संभावनाओं में, विकास में दखल नहीं देना है। तुम्हें अपने आपको उन पर थोपना नहीं है।
वे उस समय में नहीं जीने वाले हैं जिस में तुम जीये हो, वे उन्हीं समस्याओं का सामना नहीं करने वाले हैं जिनका सामना तुमने किया है। वे किसी दूसरी दुनिया के हिस्से होंगे। उन्हें इस दुनिया, इस समाज, इस समय के लिये तैयार मत करो, क्योंकि तब तुम उनके लिये मुसीबत खड़ी कर रहे होगे। वे स्वयं को अनुपयुक्त, अयोग्य पाएंगे।
क्रूरता एक गलतफहमी है। यह मृत्यु के भय से हमारे भीतर पैदा होती है। हम मरना नहीं चाहते, इसलिये इसके पहले कि कोई तुम्हें मार दे तुम उसे मार देना चाहोगे- क्योंकि बचाव का सर्वश्रेष्ठ तरीका है आक्रमण। और नहीं जानते कि कौन तुम पर हमला कर देनेवाला है।
पशुओं के राज्य में, मनुष्य के जगत में बड़ी प्रतिस्पर्धा है, तो लोग बस हमला किए ही चले जाते है बिना फिकर किए कि किस पर वे हमला कर रहे हैं, अथवा कि क्या वह सचमुच में हम पर हमला करने वाला था। लेकिन इसे जानने का कोई उपाय भी नहीं है- तो मौका न लेना ही बेहतर है।
और जब तुम किसी पर हमला करते हो, धीरे-धीरे तुम्हारा हृदय कठोर से कठोर होता जाता है, और तुम हमला करने में रस लेने लगते हो। यह घटना पशु-जगत में देखी जा सकती है, क्योंकि भोजन के लिये, सत्ता के लिये, वही प्रतिस्पर्धा ... ।
क्रूरता और कुछ नहीं, प्रथम होने की प्रतिस्पर्धात्मक भावना है। यदि उसका मतलब हिंसा हो तो हिंसा सही; लेकिन प्रथम तो होना ही है। यही पशुओं में है, यही मनुष्य में है। लेकिन प्रथम होने की यह दौड़ क्यों?
उसका अस्तित्त्वगत कारण मृत्यु है।
क्रूरता तभी खत्म हाती है- और इसी में से मुझे सूत्र मिला कि क्रूरता है क्यों- जब तुम जानते हो कि मृत्यु नहीं है।
जब तुम अपने भीतर किसी अमृत तत्त्व का अनुभव करते हो, तभी क्रूरता विदा हो जाती है। तब फिर कोई फर्क नहीं पड़ता; तुम्हें दौड़ने की जरूरत नहीं है, तुम दूसरे को अपने से आगे निकल जाने दे सकते हो क्योंकि उस बेचारे को पता नहीं है कि जगत अनंत है, जीवन अनंत है।
किसी चीज को चूकने का कोई उपाय नहीं; यदि वह आज नहीं होती, तो कल होगी। लेकिन तुम किसी भी चीज से चूक नहीं सकते यदि तुम समझते हो।
दरअसल लड़ने में और एक-दूसरे के प्रति क्रूर होने में तुम बहुत कुछ खो सकते हो, क्योंकि यह प्रक्रिया ही तुम्हें कठोर बना देगी, तुम्हारे हृदय को एक पत्थर में बदल देगी। और हृदय यदि पत्थर बन गया हो तो वह उस सबसे चूकने वाला है जो भी श्रेष्ठ है, जो भी सुंदर है, जो भी आनंदपूर्ण है।
पशुओं को समझाना कठिन है। लेकिन असली समस्या तो यह है कि मनुष्य को समझाना कठिन है कि प्रतिस्पर्धा के जरिए, हिंसक महत्त्वकांक्षा के जरिए, सब कहीं प्रथम पहुंचने के जरिए तुम एक विक्षिप्त दुनिया पैदा कर रहे हो जहां कोई किसी चीज का आनन्द नहीं लेता और हर व्यक्ति दीन रह जाता है।
लोगों को समझाने का एक ही तरीका है, उन्हें अपने अमृतत्त्व को महसूस करने में मदद पहुंचाना, और तुरंत सारी क्रूरता विदा हो जायेगी। यह जीवन का छोटा होना है जो मुसीबत पैदा कर रहा है। यदि तुम्हारे दोनों छोरों पर अनंत हो- अतीत और भविष्य- तो जल्दी में होने की कोई जरूरत नहीं है। प्रतिस्पर्धा तक की कोई जरूरत नहीं है। जीवन इतना अधिक और इतना लबालब है, तुम उसे चुका नहीं सकते।
जो जीवन के संबंध में, जीने के संबंध में, प्रेम के संबंध में केवल सोचना चाहते हैं- उनके लिये अतीत और भविष्य बिल्कुल ठीक है, क्योंकि वे उनको सोचने के लिए अपार विस्तार देते हैं।
वे अपने अतीत को सजा सकते हैं, उसे जितना सुन्दर बनाना चाहें बना सकते हैं- यद्यपि उन्होंने उसे जीया नहीं; जब वह मौजूद था तब वे वहां न थे। तो ये सब केवल छायाएं हैं, प्रतिबिम्ब है। वे लगातार दौड़ रहे थे, और दौड़ते-दौड़ते ही उन्होंने कुछ चीजें देखी हैं जिन्हें वे सोचते हैं कि उन्होंने जीया है।
अतीत में मृत्यु ही वास्तविकता है, जीवन नहीं।
भविष्य में भी, केवल मृत्यु ही वास्तविकता है, जीवन नहीं।
जो जीने से अतीत में चूक गये हैं, वे उस अन्तराल को भरने के लिये अपने- आप ही भविष्य के सपने देखने लगते हैं। उनका भविष्य उनके अतीत का प्रक्षेपण मात्र है। जो कुछ भी वे अतीत तें चूक गये हैं, उसी की आशा वे भविष्य में कर रहे हैं; और दो ऐसे समय के बीच, जिनका अस्तित्त्व ही नहीं है, एक छोटे से क्षण का अस्तित्त्व है, जो कि जीवन है।
समय के तीन काल माने गये हैं- भूत, वर्तमान, भविष्य, जो कि गलत है।
समय केवल भूत और भविष्य है।
यह जीवन है जिसका हिस्सा वर्तमान है।
तो जो जीना चाहते हैं, उनके लिये इस क्षण को जीने के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं हैं।
केवल वर्तमान ही अस्तित्त्वगत है।
अतीत केवल स्मृतियों का संग्रह है, और भविष्य केवल तुम्हारी कल्पना; तुम्हारे सपनों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
वास्तविकता अभी, यहीं है।
वर्तमान का समय से कोई संबंध नहीं है। यदि तुम केवल यहां इस क्षण में हो, तो समय है ही नहीं, परम मौन है, परम शांति है, कोई हलन-चलन नहीं; कुछ भी चल नहीं रहा, सब कुछ अचानक ठहर गया है।
वर्तमान तुम्हें जीवन के जल में गहरा गोता लगाने का अथवा जीवन के आकाश में ऊंची उड़ान भरने का अवसर देता है।
लेकिन दोंनों ओर खतरे हैं- ‘अतीत और भविष्य’ मनुष्य की भाषा के दो सर्वाधिक खतरनाक शब्द हैं। अतीत और भविष्य के बीच, वर्तमान में जीना तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा है; दोनों तरफ खतरें हैं।
लेकिन एक बार तुमने वर्तमान के रस का स्वाद ले लिया, तो तुम खतरों की परवाह नहीं करते। एक बार तुम जीवन के साथ लयबद्धता में हो गये कि फिर किसी बात से फर्क नहीं पड़ता।
और मेरे देखे, जीवन ही सब कुछ है।
जो जीना चाहते हैं- उसके बारे में सोचना नहीं, प्रेम करना चाहते हैं; उसके बारे में सोचना नहीं, बल्कि होना चाहते हैं; उसके बारे सिद्धांत नहीं- उनके लिए दूसरा कोई विकल्प नहीं है बजाय वर्तमान के क्षण का रसास्वादन करने के। उसे पूरी तरह निचोड़ लो, क्योंकि वह फिर वापस नहीं आनेवाला है। एक बार गया कि वह सदा-सदा के लिये गया।
जीवन उसी विशेष के विस्तार में फैला है; मृत्यु एक क्षण में घटती है। वह इतनी घनीभूत है कि यदि तुमने अपने जीवन को ठीक से जीया है, तो तुम मृत्यु के रहस्य में प्रवेश करने में समर्थ होओगे और मृत्यु का रहस्य यह है कि वह केवल आवरण है। भीतर तुम्हारा अमृतत्त्व है, तुम्हारा शाश्वत जीवन।
मैं भविष्य की ज्यादा नहीं सोचता क्योंकि भविष्य वर्तमान से पैदा होता है। यदि हम वर्तमान को संभाल सकें तो भविष्य अपनेआप संभल गया।
भविष्य कहीं शून्य से नहीं आनेवाला, वह इसी क्षण में से पैदा होने वाला है। अगला क्षण इसी क्षण में से पैदा होगा।
यदि यह क्षण सुन्दर है, शान्त है, आनन्दपूर्ण है, अगला क्षण और ज्यादा शान्त, और ज्यादा आनन्दमय होने को बाध्य है।
मेरे अनुसार गंभीरता एक रोग है; और विनोदप्रियता तुम्हें ज्यादा मानवीय बनाती है, ज्यादा विनम्र बनाती है। मेरे अनुसार विनोदप्रियता धार्मिकता का एक अत्यावश्यक अंग है।
मनुष्य को प्रकृति के पार जाने की जरूरत नहीं है। मैं तुमसे कहता हूं, मनुष्य को प्रकृति को परिपूर्ण करना है- जो कोई पशु नहीं कर सकता है और वही फर्क है।
तुम प्राकृतिक प्राणी के रूप में पैदा हुए हो, तुम स्वयं से ऊंचे नहीं उठ सकते। यह अपने ही पैर पकड़कर अपने को ऊपर खींचने जैसा है। तुम थोड़ा-बहुत उचक सकते हो, लेकिन देर-अबेर तुम जमीन पर गिरने वाले हो और हो सकता है कुछ हड्डियां तोड़ लो। तुम उड़ नहीं सकते।
और यही किया जाता रहा है। लोग स्वयं को प्रकृति से ऊपर उठाने का प्रयास करते रहे हैं। जिसका मतलब स्वयं से ऊपर उठने का प्रयास करते रहे हैं। लेकिन वे प्रकृति से भिन्न नहीं हैं।
मनुष्य के पास क्षमता है, बुद्धिमत्ता है, स्वतंत्रता है, अन्वेषण करने की- और यदि तुमने प्रकृति का अन्वेषण पूरी तरह कर लिया, तो तुम घर आ गये।
प्रकृति तुम्हारा घर है।
यह जीवन के सारभूत नियमों में से एक है कि जो भी श्रेष्ठतर है वह बहुत कोमल है। वृक्ष की जड़ें बहुत मजबूत होती हैं, लेकिन फूल नहीं। फूल बहुत कोमल हैं- मात्र तेज हवा का एक झोंका और फूल नष्ट हो सकता है।
यही मनुष्य की चेतना के बारे में सच है। घृणा बहुत मजबूत है, लेकिन प्रेम नहीं। प्रेम बस फूल जैसा है- जो किसी भी पत्थर द्वारा आसानी से कुचल जाता है, किसी भी पशु द्वारा नष्ट हो जाता है।
जीवन के श्रेष्ठ मूल्यों की रक्षा करनी होती है।
निम्नतर मूल्यों की अपने आप में ही एक प्रकार की सुरक्षा है।
एक पत्थर की रक्षा करने की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन उसी के बगल की झाड़ी में गुलाब की सुरक्षा करनी ही पड़ेगी। पत्थर मृत है, वह और अधिक मृत नहीं हो सकता। उसे सुरक्षा की जरूरत नहीं है।
लेकिन गुलाब इतना जीवंत है, इतना सुंदर, इतना रंगीन, इतना आकर्षक। वही खतरा है- वही उसकी शक्ति है। लेकिन वही खतरों को आमंत्रण भी है। कोई भी उसे तोड़ सकता है। पत्थर को तो कोई नहीं उठायेगा, लेकिन फूल तोड़ा जा सकता है।
संभोग उच्चतम शिखर पर ही किया जाना चाहिये- और उसके लिये एक खास अनुशासन की जरूरत है। लोगों ने अनुशासन का उपयोग संभोग न करने के लिए किया है। मैं तुम्हें ठीक प्रेम करने के लिए अनुशासन सिखाता हूं, ताकि तुम्हारा प्रेम मात्र एक जैविक कृत्य न हो, जो कभी भी तुम्हारे मनोवैज्ञानिक जगत तक नहीं पहुंचता।
प्रेम की तो तुम्हारे आध्यात्मिक जगत तक भी पहुंचने की क्षमता है और अपने उच्चतम शिखर पर वह तुम्हारे आध्यात्मिक जगत तक पहुंचेगा।
आर्गाज्म; (शिखरोन्माद) बच्चे पैदा करने के लिये जरूरी हो एैसी कोई बात नहीं है। यह चेतना के उच उच्चतर विकास के लिये झरोखा खोलने के लिए है।
आर्गाज्म (शिखरोन्माद) का अनुभव हमेशा गैर कामुक है।
यदि तुम काम द्वारा भी उसे उपलब्ध हो तो भी स्वयं उसमें कामुकता नहीं है।
इससे यह अंतदृष्टि मिलती है कि उस तक पहुंचने की संभावनाएं काम के अतिरीक्त और मार्गों से भी होंगी, क्योंकि वह स्वयं गैर-कामुक है, इसलिए आवश्यक नहीं कि कामुकता ही एकमात्र उपाय हो।
जिसने भी पहली बार यह अनुभव किया, उसने यह निष्कर्श निकाला होगा कि आर्गाज्म तक पहुंचने के अन्य उपाय भी हो सकते हैं। क्योंकि काम उसका आवश्यक अंग नहीं है। उस में काम का कोई प्रभाव, कोई रंग नहीं छूटता।
फिर उसने गौर किया होगा कि यह कैसे घटता है, और फिर चीजें बड़ी साफ हैंः जिस क्षण आर्गाज्म (शिखरोन्माद) घटता है, समय ठहर जाता है, तुम समय के बारे में भूल जाते हो। तुम्हारा मन ठहर जाता है, विचार रुक जाते हैं। एक गहन शांति और एक गहन होश होता है।
इस अनुभव से गुजरता हुआ कोई भी निरिक्षण करनेवाला स्वाभाविक रूप से सोचेगा, यदि ये सारी बातें बिना काम में गये पायी जा सकें- होश, निर्विचार और समयरहितता- तो तुम कामुकता से बचकर भी आर्गाज्मवाली स्थिति में पहुंच सकते हो। और मेरी समझ है कि इसी तरह मनुष्य ने पहली बार ध्यान खोजा होगा।
स्वतंत्रता तो बस तुम्हें हर उस बात के लिये नितांत रूप से जिम्मेदार बनाती है जो तुम हो अथवा जो तुम होने वाले हो।
लोग हैं जो क्रोधित हो जाते हैं। ये ही वे लोग हैं जो क्रांतियां करते हैं, समाज में, राज्य में बदलाहट करते हैं। लेकिन उनकी सारी क्रांतियां असफल रही हैं, क्योंकि क्रोध से पैदा हुई कोई भी बात अज्ञान से आ रही है। उससे कोई भी असली बदलाहट नहीं होने वाली है।
क्रोध द्वारा कोई भी बदलाहट भले के लिये नहीं हो सकती।
मैं चाहता हूं कि तुम एक बात हमेशा याद रखो- कि दुःख और कुछ नहीं बल्कि शीर्षासन करता हुआ क्रोध है। वह भिन्न नहीं है, वह दमित क्रोध ही है। यदि तुम इस का विश्लेषण करो तो तुम इस तथ्य को देख सकोगे। दुःख आसानी से क्रोध में बदल सकता है; इसी तरह क्रोध दुख में बदल सकता है। ये दो भिन्न बातें नहीं हैं...  संभवतः एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
दुनिया दुखी है, पीड़ा में है। लोगों के हृदयों में गहन पीड़ा है। लेकिन तुम्हें इस बात के लिए दुःखी होने की जरूरत नहीं है; इस सीधे से कारणवश कि दुःखी होकर तुम भी उन्हीं में शामिल हो जाते हो; तुम दुख को और ज्यादा कर देते हो। यह कोई मदद न हुई।
यह ऐसे ही है जैसे कि लोग रुग्ण हैं, और तुम उनकी रुग्णता देखते हो और तुम भी रुग्ण बन जाते हो। तुम्हारी रुग्णता उन्हें स्वस्थ नहीं बनाने वाली; यह तो बस और रुग्णता पैदा करना है। उनके दुःख को महसूस करने का अर्थ होता है कारणों की खोज कि क्या है जो दुःख और पीड़ा पैदा कर रहा है? और फिर उन कारणों को मिटाने के लिए उनकी मदद करना।
और साथ ही साथ तुम्हें जितना संभव हो उतना आनंदित रहना है, क्योंकि तुम्हारा आनंद ही उन्हें मदद करनेवाला है- तुम्हारा विषाद नहीं। तुम्हें प्रसन्नचित्त रहना ही है। उन्हें पता चलना चाहिये कि इस दुःखी दुनिया में भी प्रसन्नचित्त होना संभव है... ।
क्रोध हमेशा कमजोरी का लक्षण है।
संकट के क्षण तुम्हें वास्तविकता का पता देते हैं जैसी वह है। वह हमेशा ही कोमल है, प्रत्येक व्यक्ति हमेशा ही खतरे में है। बात इतनी ही है कि सामान्य समय में तुम गहरी नींद में सोए होते हो, तो तुम इसे देख नहीं पाते। तुम सपने देखे चले जाते हो, आनेवाले दिनों के लिए भविष्य के लिए सुन्दर-सुन्दर बातों की कल्पनाएं किये चले जाते हो।
और उन क्षणों में जब खतरा करीब होता है, तब अचानक तुम्हें बोध होता है कि हो सकता भविष्य न भी हो, कल न भी आये, कि केवल यही क्षण तुम्हारे पास है।
संकट के क्षण बड़े उद्घाटक होते हैं। वे कोई नई बात दुनिया में नहीं लाते; वे तुम्हें केवल दुनिया जैसी है उसके बारे में सचेत करते हैं। यदि तुम इसे नहीं समझते, तो तुम पागल हो सकते हो; यदि तुम इसे समझते हो, तो तुम संबुद्ध हो सकते हो।
चिंता करना किसी काम का नहीं है क्योंकि उससे तुम केवल इस क्षण को चूक रहे होगे, और तुम किसी को मदद न कर पाओगे। तो यही वह राज है कि कैसे खतरे के पार जाना।
राज यह हैः और-और भरपूर जीना शरू करो, और-और ज्यादा समग्रता से, होशपूर्वक ताकि तुम अपने भीतर कुछ ऐसा पा लो जिसे मृत्यु नहीं छू पाती।
यही एक मात्र आश्रय है, एक मात्र सुरक्षा, एक मात्र बचाव।
तो यह सिर्फ हर बात का ठीक से उपयोग करने का सवाल है। वह जो कुछ भी है, उसका ठीक उपयोग करो।
संकट बड़ा है, खतरा बड़ा है, लेकिन अवसर भी उतना ही महान है।
वास्तविकता के विरोध में कोई भ्रम टिक नहीं सकता। वास्तविकता देर-सबेर उसे कुचल ही देने वाली है।
एक माता अथवा पिता का काम बड़ा महान है, क्योंकि वे दुनिया में एक नये मेहमान को ला रहें हैं- जिसे कुछ पता नहीं है, लेकिन जो अपने साथ कुछ संभावनायें ला रहा है। जब तक उसकी संभावनायें विकसित नहीं होती, वह दुःखी रहेगा; और कोई मां-बाप सोच भी नहीं सकते कि उनके बच्चे दुःखी रहें।
वे चाहते हैं कि सुखी हों। बात इतनी ही है कि उनकी सोच गलत है। वे सोचते हैं कि यदि उनके बच्चे डाक्टर बन जायें, प्रोफेसर बन जायें, इंजीनियर या वैज्ञानिक बन जायें, तो वे सुखी होंगे। वे जानते नहीं।
उनके बच्चे केवल तभी सुखी होंगे यदि वे वह बन जाएं जो बनने के लिये वे आये हैं। वे केवल वही बन सकते हैं जिनके बीज वे अपने भीतर लेकर आए हैं।
किसी के बारे में (अच्छे-बुरे का) निर्णय लेना कुरूप है इससे लोगों को चोट पहुंचती है। एक ओर तो तुम उन को चोट पहुंचाते जाते हो, उन्हें घाव देते जाते हो, और दूसरी ओर तुम उनका प्रेम, उनका सम्मान चाहते हो। यह असंभव है।
उन्हें प्रेम करो, उन्हें सम्मान दो, और शायद तुम्हारा प्रेम और सम्मान उन्हें अपनी बहुत सारी कमजोरियों को, बहुत सारी असफलताओं को बदलने में मदद कर सके क्योंकि प्रेम उन्हें नई ऊर्जा, नये अर्थ, नयी शक्ति प्रदान करेगा। प्रेम उन्हें तेज हवाओं में, उत्तप्त धूप में, घनघोर वर्षा में भी खड़े रहने के लिये नई जड़ें प्रदान करेगा।
जब भी चुनाव का सवाल हो, तो हृदय के खिलाफ बुद्धि को नहीं चुना जा सकता। हृदय से अस्तित्व के साथ तुम्हारा संबध है और मन से समाज के साथ तुम्हारा सबंध है।
यदि तुम दुःखी हो तो तुम गलत हो; यदि तुम आनन्दित हो तो तुम ठीक हो।
जब मैं कहता हूं कि प्रसन्नचित्त रहो, आनंदित रहो, इसका आनन्द मनाओ कि तुम दुःखी और पीड़ित होने की स्थिति में नहीं हो, तो इसके पीछे मेरा एक खास अभिप्राय है।
अभिप्राय यह है कि तुम्हें उन लोगों के लिये एक उदाहरण बन जाना है जो पूरी तरह भूल ही चुके हैं कि जीवन एक आनन्द भी हो सकता है। सारे अंधेरों के बावजूद तुम अभी भी अंधेरो से निर्भार रह सकते हो, तुम अभी भी नृत्य कर सकते हो। अंधेरा तुम्हारे नृत्य को नहीं रोक सकता; उसके पास रोकने की शक्ति नहीं है। मेरे अनुसार यही सच्ची सेवा है।
मन को हृदय का सेवक होने के लिए प्रशिक्षण देना चाहिये।
तर्क को प्रेम की सेवा करनी चाहिये।
और तब जीवन प्रकाश का एक उत्सव बन सकता है।
पुरानी कहावत, ‘जैसा ऊपर वैसा नीचे’ या इसका उलटा! इसमें रहस्यवाद का सारभूत सत्य समाया है। इसका अर्थ है कि न ऊपर न नीचे है, अस्तित्त्व एक है।
मन विभाजन खड़े करता है।
अस्तित्त्व अखंड है।
विभाजन हमारे प्रक्षेपण हैं, और हम इन विभाजनों से तादात्म्य जोड़ा लेते हैं कि हमारा पूर्ण से संबध छूट जाता है।
हमारा मन इस विराट अस्तित्त्व की ओर खुलने वाली एक छोटी-सी खिड़की है, लेकिन जब तुम हमेशा खिड़की में से ही देखते हो, तो खिड़की की चौखट बन जाती है। यद्यपि आकाश पर कोई चौखट नहीं है- वह असीम है- लेकिन हमारी आंखें खिड़की की चौखट को आकाश की चौखट मान लेती हैं। यह कुछ इस जैसा है जो लोग चश्मे का उपयोग करते हैं, कभी-कभार उनके साथ ऐसा होता है कि उनका चश्मा उनकी नाक पर चढ़ा और वे उसे ही ढूंढ़ रहे हैं। वे यह भी भूल जाते हैं कि चश्मे के बिना वे देख नहीं सकते, तो यदि वे ढूंढ़ रहे हैं और देख रहे हैं तो यह पक्का है कि चश्मा अपनी जगह पर है।
लेकिन यदि तुम वर्षों से चश्मे का उपयोग करते रहे हो धीरे-धीरे वे तुम्हारा अंग हो जाते हैं; वे तुम्हारी आंखें हो जाते हैं। तुम उन्हें अपने से अलग नहीं समझते। लेकिन चश्मे का हर जोड़ा देखी जाने वाली चींजों को अपना ही रंग दे सकता है। चश्मे के पीछे से देखने वाले तुम हो, चश्मे स्वयं से नहीं देख सकते। और बाहर की वस्तुओं का वह रंग नहीं है जो चश्मा उन पर थोप रहा है, लेकिन चश्मे से तुम्हारा ऐसा तादाम्य हो गया है... ।
मनुष्य का मन भी केवल एक उपकरण है। चश्मा तो खोपड़ी के बाहर है, मन खोपड़ी के भीतर है, इसलिये तुम उसे रोज निकालकर नहीं रख सकते। और भीतर तुम उसके इतने निकट हो कि वह निकटता ही तादाम्य बन गयी है।
तो जो भी मन देखता है लगता है कि वही वास्तविकता है और मन वास्तविकता को देख नहीं सकता; मन केवल अपने पूर्वाग्रहों को ही देख सकता है। वह दुनिया के पर्दे पर अपने ही प्रक्षेपण को देख सकता है।
दुनिया में सत्य का सबसे बड़ा दुश्मन पंडित है, जानकार व्यक्ति- और सबसे बड़ा मित्र है वह जो जानता है कि वह नहीं जानता।
हमें कुछ इस तरह बताया, सिखाया, संस्कारित किया गया है कि प्रेम जैसी चीज को भी बुद्धि की बात बन जाना पड़ता है।
प्रेम मूलतः हृदय की बात है, लेकिन हमारे पूरे समाज ने हृदय से बचकर निकलने की कोशिश की है, क्योंकि हृदय तर्कसंगत नहीं है, युक्तिसंगत नहीं है और हमारे मन इस तरह की शिक्षा में प्रशिक्षित किये गये हैं कि कोई भी बात जो तर्कसंगत नहीं है वह गलत है, कोई भी अयुक्ति संगत बात गलत है, केवल तर्कपूर्ण बात सही है।
और हमारी शिक्षा के संस्कार में हृदय के लिये कोई स्थान नहीं है, वह केवल बुद्धि की है। हृदय को हमारे अस्तित्त्व से लगभग हटा ही दिया गया है, उसे मौन कर दिया गया है। उसे विकसित होने का कभी मौका ही नहीं दिया गया है, उसे अपनी संभावनाओं को वास्तविकता में बदलने का अवसर ही नहीं दिया गया है। तो बुद्धि हावी है।
जहां तक पैसों का संबंध है, जहां तक युद्ध का संबंध है, जहां तक महत्त्वकांक्षाओं का सम्बंध है, बुद्धि ठीक है, लेकिन प्रेमसंबंध में बुद्धि सर्वथा व्यर्थ है।
पैसा, युद्ध, आकांक्षा, महत्त्वकांक्षा, प्रेम को तुम इस कोटि में नहीं रख सकते।
प्रेम का तुम्हारे अस्तित्त्व में अलग ही स्रोत्र है जहां कोई विरोधाभास नहीं है।
वास्तविक शिक्षा केवल तुम्हारी बुद्धि को ही प्रशिक्षित नहीं करेगी, क्योंकि बुद्धि तुम्हें एक अच्छी आजीविका तो दे सकती है, लेकिन अच्छा जीवन नहीं। हृदय तुम्हें अच्छी आजीविका नहीं दे सकता, लेकिन एक अच्छा जीवन दे सकता है। और दोनों में से एक को चुनने का कोई कारण नहीं हैः बुद्धि का उपयोग उसके लिए करो जिसके लिए वह बनी है, और हृदय का उपयोग उसके लिए करो जिसके लिए वह बना है।
धर्म, राजनीतिज्ञ, व्यापारी, योद्धा सब चाहते हैं कि बुद्धि प्रशिक्षित की जाये। और हृदय तो एक बाधा हो सकता है, वह बाधा होने वाला है।
यदि तुम एक सैनिक हो और यदि तुम्हारे पास हृदय है, तो तुम शत्रु की हत्या नहीं कर सकते। जिस क्षण तुम किसी की हत्या के लिये बंदुक उठाओगे, तुम्हारा हृदय कहेगा, जैसे तुम्हारी पत्नी है तुम्हारी प्रतीक्षा करती हुई- तुम्हारे बच्चे, तुम्हारी बूढ़ी मां और बूढे पिता- इस गरीब की पत्नी भी प्रतीक्षा कर रही होगी, इसके बच्चे, इसके बूढ़े मां-बाप अपने बेटे के घर लौटने की प्रतीक्षा कर रहे होंगे।
इसने तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा है और तुम इसकी हत्या करने जा रहे हो। किसलिये? काम में तरक्की पाने के लिये?
जब तुम समाज के, एक आदर्श समाज बनने के, एक स्वर्ग बनने के बारे में सोचते हो, यह बात असंभव प्रतीत होती हैः इतने सारे द्वंद्व हैं, और उन्हें लयपूर्ण करने का कोई उपाय नहीं दिखता।
एक लयबद्ध मानव समाज संभव है, संभव होना चाहिये, क्योंकि वह प्रत्येक के विकसित होने के लिए सर्वश्रेष्ठ अवसर होगा, प्रत्येक के स्वयं होने के लिए श्रेष्ठतम अवसर होगा। प्रत्येक के लिए समृद्धतम संभावनाएं उपलब्ध होंगी।
जिस ढंग से समाज की व्यवस्था आज है, वह बड़ी ही मूढ़तापूर्ण है।
आदर्श राज्य की कल्पना करने वाले लोग (उटोपियन्स) स्वप्न द्रष्टा नहीं हैं, लेकिन तुम्हारे तथाकथित यथार्थवादी मूढ़ हैं जो उनकी निंदा करते हैं। लेकिन एक बात पर दोनों सहमत हैं कि बदलाहट समाज में जरूरी है।
वे सब के सब समाज की फिक्र में हैं और वहीं उनकी असफलता का राज है।
जहां तक मैं देखता हूं, आदर्श समाज की कल्पना कोई न हो सकने वाली बात नहीं है- यह कुछ ऐसी बात है जो असम्भव है, लेकिन हमें कारणों की ओर जाना चाहिए, लक्षणों की ओर नहीं।
और कारण व्यक्ति में हैं, समाज में नहीं।
मनुष्य भूल ही गया है कि सच में वह कौन है?
वह अपने बारे में किसी धारणा से आत्म-सम्मोहित हो गया है, और उस धारणा को वह अपने पूरे जीवन ढोता है, बिना यह जाने कि यह धारणा वह नहीं है, बल्कि केवल छाया है। और तुम अपनी छाया को संतृप्त नहीं कर सकते।
किसी युद्ध की कोई जरूरत नहीं है, किसी झगड़े की कोई जरूरत नहीं, ईर्ष्या की जरूरत नहीं, घृणा की जरूरत नहीं। जीवन इतना छोटा है और प्रेम इतना बहुमूल्य है। और जब तुम अपने जीवन को प्रेम से, समस्वरता से, आनंद से भर सकते हो, जब तुम अपने जीवन को अपने आप में एक गीत बना सकते हो- तब यदि तुम चूकते हो, तो उसके लिए केवल तुम जिम्मेदार हो, अन्य कोई नहीं।
यह केवल समझने का सवाल है; निषेधात्मक, विनाशकारी और अंधेरों की शक्तियों द्वारा नीचे न खींच लिए जाने के लिये केवल जरा सी अंतदृर्ष्टि की जरूरत है।
जरा सी सजगता की जरूरत है अपने को सृजनात्मकता के, प्रेम के और संवेदनशीलता के प्रति समर्पित करने के लिये और इस छोटे से जीवन को गीतों की एक लड़ी बना देने के लिये- ताकि तुम अपने जीवन में नाचो और तुम्हारी मृत्यु तुम्हारे नृत्य का शिखर होगी; ताकि तुम समग्रता से जीओ और समग्रता से मरो, शिकायत के साथ नहीं, बल्कि अहोभावपूर्वक, अस्तित्त्व के प्रति धन्यवादपूर्वक। हर व्यक्ति चाहता है कि प्रेम मिले। और यह एक गलत शरूआत है। और यह इसलिये शुरू होती है क्योंकि छोटा बच्चा प्रेम नहीं कर सकता, कुछ कह नहीं सकता, कुछ कर नहीं सकता, कुछ दे नहीं सकता, वह केवल ले सकता है।
छोटे बच्चे का प्रेम का अनुभव केवल पाने का है- मां से पाने का, पिता से पाने का, भाइयों से, बहनों से, अतिथियों से पाने का, अजनबी लोगों से पाने का लेकिन हमेशा पाने का ही। तो पहला अनुभव उसके गहरे अचेतन में घर कर जाता है- कि प्रेम उसे पाना है।
लेकिन समस्या खड़ी होती है क्योंकि हर कोई बच्चा रह चुका है, और सभी की वही चाह है, प्रेम पाने की कोई भी किसी और तरह से पैदा नहीं हुआ है। तो सब मांगते रहे हैं, हमें प्रेम दो और कोई देने वाला है नहीं, क्योंकि दूसरे व्यक्ति का पालन पोषण भी इसी ढंग से हुआ है।
तो थोड़े होशपूर्ण और सचेत होने की जरूरत है कि जन्म के समय की एक दुर्घटना तुम्हारे मन की सतत भावदशा नहीं बनी रह जानी चाहिए। ‘मुझे प्रेम दो,’ ऐसे मांगने के बजाय प्रेम देना शुरू करो। पाने की बात भूल जाओ, केवल दो; और मैं तुम्हें वचन देता हूं, बहुत मिलेगा तुम्हें।
विकास की प्रक्रिया दो ध्रुव के जरिए चलती काम करती है। जैसे तुम एक पैर से चल नहीं सकते, चलने के लिये तुम्हें दो पैर चाहिये, अस्तित्त्व को भी विपरीत ध्रुवों की जरूरत होती है- पुरुष और स्त्री, जीवन और मृत्यु, प्रेम और घृणा- गति पैदा करने के लिये; अन्यथा केवल मौन होगा।
एक ओर तो विपरीत तुम्हें आकर्षित करता है और दूसरी ओर तुम्हें लगता है कि तुम आश्रित हो रहे हो। और कोई भी आश्रित होना नहीं चाहता; इसीलिए प्रेमियों के बीच एक सतत संघर्ष है। वे एक-दूसरे पर हावी होने की कोशिश कर रहे हैं।
नाम प्रेम है, लेकिन खेल राजनीति का है।
पुरुष की सारी कोशिश स्त्री पर हावी होने की है, उसे हीन बनाने की रहती है, उसे विकसित न होने देने की रहती है ताकि वह मानसिक रूप से सदा अविकसित बनी रहे।
पुरुष की गुलामी से स्त्री की स्वतंत्रता, पुरुष के लिये भी स्वतंत्रता का अनुभव रहेगा।
तो मैं कहता हूं कि नारी-स्वतंत्रता आंदोलन (वूमेन्स लिबरेशन मूवमेंट) में केवल स्त्रियों की ही स्वतंत्रता नहीं है, यह पुरुष-स्वतंत्रता आंदोलन भी है; दोनों स्वतंत्र होंगे।
यह गुलामी दोनों को बांध रही है, और लगातार संघर्ष है। स्त्री ने पतियों को सताने की, तंग करने की, नीचा दिखाने की अपनी चालें खोज ली हैं; पुरुष की अपनी चालें हैं। और इन दो लड़ने वाले गुटों के बीच हम आशा करते रहे हैं कि प्रेम घट रहा है। सदियां बीत गईं, प्रेम पैदा नहीं हुआ, या कभी-कभार हो जाता है।
यह है हालत साधारण प्रेम की, जो बस नाम का प्रेम है, वास्तविकता नहीं।
यदि तुम प्रेम के बारे में मेरी दृष्टि पूछते हो...  तो यह द्वंद्ववाद का, विरोध का प्रश्न ही नहीं है। स्त्री और पुरुष भिन्न और परिपूरक हैं। अकेला पुरुष आधा है, और वैसे ही स्त्री भी। केवल साथ-साथ, गहरी एकता की भावदशा में ही पहली बार वे समग्रता को, पूर्णता को अनुभव करते हैं।
हजारों सालों से पुरुष ने जो स्त्री के साथ किया है, वह बस दानवतापूर्ण है। वह स्वयं को पुरुष के बराबर की सोच ही नहीं सकती। और वह इतने गहरे संस्कारों से कि यदि तुम उसे कहो भी कि वह समान है, तो वह विश्वास नहीं करने वाली। यह बात करीब-करीब उसके मन में बैठ गयी है, यह संस्कार कि वह हर बात में कम है- शारीरिक शक्ति में, बौद्धिक गुणों में।
और पुरुष ने जिसने स्त्री को इस हालत तक नीचे गिराया है, वह भी उसे प्रेम नहीं कर सकता। प्रेम केवल समानता में, मित्रता में ही हो सकता है।
यदि तुम बिना ईर्ष्या के प्रेम कर सको, यदि तुम बिना मोह के प्रेम कर सको, यदि तुम किसी व्यक्ति को इतना प्रेम कर सको कि उसकी खुशी ही तुम्हारी खुशी हो, अगर वह किसी दूसरी स्त्री के साथ भी हो और खुश हो तो यह भी तुम्हें खुश करता हो क्योंकि तुम उसे इतना प्रेम करती होः उसकी खुशी तुम्हारी खुशी है। तुम खुश होगे क्योंकि वह खुश है, और उस स्त्री के प्रति अनुगृहित होगी जिसने उस व्यक्ति को आनंदित किया जिसे तुम प्रेम करती हो- तुम ईर्ष्यालु नहीं होगी। तब प्रेम शुद्धता तक पहुंचा।

ओशो

दि ट्रान्समिसन ऑफ द लैप--प्रवचन-30 

The Transmission of the Lamp, Chapter #30


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