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गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

धर्म और राजनीति-(प्रवचन-03)

प्रवचन-तीसरा -(धर्म और राजनीति) ओशो
 The Hidden Splendor, Chapter #6, Chapter title: Only fools choose to be somebody, 15 March 1987 am in Chuang Tzu Auditorium, 

राजनीति सांसारिक है- राजनीतिज्ञ लोगों के सेवक हैं। धर्म पवित्र है- वह लोगों के आध्यात्मिक विकास के लिए पथ-प्रदर्शक है। निश्चित ही, जहां तक मूल्यों का संबंध है राजनीति निम्नतम है, और धर्म उच्चतम है, जहां तक मूल्यों का संबंध है। वे अलग ही हैं।
राजनेता चाहते हैं कि धर्म राजनीति में हस्तक्षेप न करे; मैं चाहता हूं कि राजनीति धर्म में हस्तक्षेप न करे। उच्चतर को हस्तक्षेप का हर अधिकार है, किंतु निम्नतर को कोई अधिकार नहीं।

धर्म मानव-चेतना को सदियों से ऊपर उठाता रहा है। जो कुछ भी मनुष्य आज है, कितनी भी थोड़ी जो चेतना उसके पास है, उसका सारा श्रेय धर्म को है। राजनीति एक अभिशाप रही है, एक विपदा; और जो कुछ भी मानवता में अभद्र है, राजनीति उस सब के लिए जिम्मेवार है।


लेकिन समस्या यह है कि राजनीति के पास शक्ति है, धर्म के पास केवल प्रेम, शांति और दिव्य का अनुभव है। राजनीति धर्म के साथ आसानी से हस्तक्षेप कर सकती है; और वह सदा से हस्तक्षेप करती चली आई है, इस सीमा तक कि उसने बहुत से ऐसे धार्मिक मूल्यों को नष्ट कर डाला है जो पृथ्वी पर मानवता और जीवन के टिके रहने के लिए नितांत आवश्यक हैं।
धर्म के पास पारमाणु हथियार, अणुबम और बंदूकों जैसी सांसारिक शक्तियां नहीं हैं; उसका आयाम बिल्कुल अलग है। धर्म शक्ति की आकांक्षा नहीं है; धर्म खोज है सत्य की, परमात्मा की। और यह खोज ही धार्मिक व्यक्ति को विनम्र, सरल और निर्दोष बना देती है।
राजनीति के पास सारे विध्वंसात्मक हथियार हैं; धर्म नितांत कोमल है। राजनीति के पास हृदय नहीं है; धर्म शुद्ध हृदय है। वह ठीक वैसे ही है जैसे एक सुंदर गुलाब का फूल- जिसका सौंदर्य, जिसका काव्य, जिसका नृत्य जीवन को जीने योग्य बनाता है, उसे अर्थ एवं महत्ता प्रदान करता है। राजनीति पत्थर जैसी है- मृत। किंतु पत्थर फूल को नष्ट कर सकता है और फूल के पास कोई सुरक्षा नहीं है। राजनीति अधार्मिक है।
राजनेता चीजों को उलटा-पलट कर दे रहे हैं। वे चाहते हैं कि धर्म राजनीति में हस्तक्षेप न करे। मनुष्य जाति को गुलामी में रखने के लिए, मनुष्यों को गुलाम बना देने, उनकी स्वतंत्रता नष्ट कर देने, उनकी चेतना नष्ट कर देने के लिए राजनीति के पास समूचा एकाधिकार चाहिए- उन्हें यंत्र-मानव में बदल देने के लिए ताकि राजनीतिज्ञ लोग शक्ति और प्रभुता का मजा ले सकें।
राजनीतिज्ञों के लिए केवल धर्म ही एक समस्या है। वह उनकी पहुंच और उनकी समझ के बाहर है। धर्म अकेला क्षेत्र है जहां राजनीतिज्ञ को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, क्योंकि धर्म ही एकमात्र आशा है।
राजनीति, सदियों से, बस लोगों की हत्या करती रही है, उन्हें विनष्ट करती रही है- राजनीति का सारा इतिहास अपराधियों का, हत्यारों का इतिहास है। तीन हजार वर्षों में राजनीतिज्ञों ने पांच हजार युद्ध पैदा किए हैं। लगता है राजनीतिज्ञ के भीतर बर्बरता की मूल-प्रवृत्ति बहुत शक्तिशाली है; उसका सारा आनंद विनष्ट करने में, आधिपत्य जमाने में है।
धर्म उसके लिए समस्या पैदा करता है, क्योंकि धर्म ने जगत को चेतना के शिखर प्रदान किए हैं- गौतम बुद्ध, जीसस, चवांग्त्सू, नानक, कबीर। ये पृथ्वी के नमक हैं। राजनीति ने जगत को क्या दिया है? चंगेज़ खां? तेमूरलंग? नादिरशाह? सिकंदर? नेपोलियन? इवॉन दि टेरॅबॅल? जोसेफ स्टालिन? एडोल्फ हिटलर? बेनिटो मुसोलिनी? माओत्से तुंग? रोनाल्ड रेगन?- ये सब के सब अपराधी हैं। सत्ता में होने के बजाय इन्हें सींखचों के पीछे होना चाहिए; ये अमानवीय हैं।
और वे आध्यात्मिक रूप से बीमार लोग हैं। शक्ति और आधिपत्य की महत्त्वाकांक्षा बीमार मनों में ही उपजती है। यह हीनता की ग्रंथि से उपजती है। जो लोग हीनता-ग्रंथि से ग्रसित नहीं हैं वे शक्ति की फिक्र नहीं करते; उनका सारा प्रयास शांति के लिए होता है, क्योंकि जीवन का अर्थ केवल शांति में ही जाना जा सकता है- शक्ति मार्ग नहीं है। शांति, मौन, अनुग्रह, ध्यान- ये धर्म के मूलभूत अंग हैं।
मूढ़ राजनीतिज्ञों द्वारा धर्म को नियंत्रित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। स्थिति ऐसी है जैसे कि बीमार लोग चिकित्सकों को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हों, यह बताते हुए कि उन्हें क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। सुन लो उनसे, क्योंकि बीमारों का बहुमत है, किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि चिकित्सक बीमारों द्वारा नियंत्रित हो। चिकित्सक मनुष्यता के घावों को भर सकता है, बीमारियों से छुटकारा दिला सकता है। धर्म चिकित्सक है।
राजनीतिज्ञ लोग पर्याप्त नुकसान पहुंचा चुके हैं, और समूची मानवता को एक सार्वभौम आत्मघात की तरफ ले जा रहे हैं। और इस पर भी राजनेता हिम्मत रखते हैं कहने की कि धर्म को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए- जब कि इस ग्रह पर समस्त जीवन खतरे में है! केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि निर्दोष पक्षी और उनके गीत, मौन वृक्ष और उनके पुष्प- वह सब कुछ जो जीवित है।
पृथ्वी से जीवन को विदा कर देने के लिए राजनीतिज्ञ लोग पर्याप्त विध्वंसक शक्ति निर्मित करने में सफल हो गए हैं; और वे लगातार और-और पारमाणु हथियारों का ढेर लगाए जा रहे हैं। वास्तव में, आज से तीन वर्ष पहले इतने पारमाणु हथियार थे कि प्रत्येक मनुष्य सात बार नष्ट किया जा सके, यह समूची पृथ्वी सात बार नष्ट की जा सके, अथवा ऐसी सात पृथ्वियां नष्ट की जा सकें। एक मनुष्य एक ही बार मरता है; इतनी सारी विध्वंसक शक्ति इकट्ठा करने की कोई जरूरत नहीं है।
सारी राजनीति झूठों पर टिकी है।
अभी हाल ही में- मुझे यकीन नहीं आया कि कोई ऐसा व्यक्ति जो पागल नहीं है, ऐसे वक्तव्य दे सकता है- रोनाल्ड रेगन ने एक वक्तव्य दिया। वे सीनेट के समक्ष इन्कार कर रहे थे- लगातार- कि वे कुछ एक देशों को कोई भी हथियार दिए जा रहे थे। और अब छानबीन से पता चला है कि वे झूठ बोल रहे थे- दो वर्षों से लगातार झूठ बोल रहे थे। गरीब देशों को विध्वंसक हथियार दिए गए हैं, और थोड़ी मात्रा में नहीं- बहुत बड़ा ढेर। अब तथ्य प्रकाश में आ गए हैं और रोनाल्ड रेगन को एक वक्तव्य देना पड़ा, और वक्तव्य जो उन्होंने दिया है, उस पर मुझे हंसी आयी- इतना बेतुका।
उन्होंने कहा, ‘अपने हृदय में, मैं अभी भी जानता हूं कि जो कुछ मैंने कहा वह सत्य था।’ किंतु तथ्य जो प्रकाश में आए हैं, वे बताते हैं कि वह झूठ था। मुझे अभी भी अपने हृदय में विश्वास है कि मैं सच ही बोलता आ रहा था। वे तथ्यों को स्वीकार कर रहे हैं, और फिर भी, साथ-साथ कह रहे हैं, मुझे अभी भी अपने हृदय में विश्वास है कि मैं जो कुछ भी कह रहा था, सच था, यद्यपि तथ्य उसे गलत साबित कर रहे हैं।
राजनीतिज्ञ झूठों पर जीते हैं; राजनीतिज्ञ वायदों पर पलते हैं- किंतु वे वायदे कभी पूरे नहीं किए जाते। वे विश्व में सर्वाधिक अयोग्य लोग हैं। उनकी एकमात्र योग्यता है कि वे निरीह जनता को मूर्ख बना सकते हैं; अथवा गरीब देशों में, उनके मत खरीद सकते हैं। और एक बार वे सत्ता में आ गए तो पूरी तरह भूल जाते हैं कि वे जनता के सेवक हैं; वे ऐसा व्यवहार करने लगते हैं जैसे कि वे जनता के स्वामी हैं।
वे मनुष्य के अंतर्जगत के विषय में क्या जानते हैं? वे आनंदमग्नता के विषय में, भगवत्ता के विषय में क्या जानते हैं? तथापि, वे चाहते हैं कि धर्म को राजनीति में हस्तक्षेप न करने दिया जाए लेकिन उनके संबंध में क्या? क्या उन्हें धर्म के साथ हस्तक्षेप करने दिया जाए? क्या निम्नतर उच्चतर को अधिशासित करने जा रहा है? क्या लौकिक पवित्र को अधिशासित करने जा रहा है? वह मानवता का परम दुर्भाग्य होगा।
जहां तक मेरा ख्याल है, सारे राजनीतिज्ञों को ध्यानी होना चाहिए, अंतर्जगत के संबंध में कुछ पता होना चाहिए; ज्यादा चैतन्य होना चाहिए, ज्यादा करुणापूर्ण, प्रेम के स्वाद से परिचित; अस्तित्त्व के मौन का अनुभव उनके पास हो और इस ग्रह के सौंदर्य का, और अस्तित्त्व के उपहारों का। और उन्हें विनम्र और अनुग्रहपूर्ण होने की कला सीखनी चाहिए।
धर्म को सारे राजनीतिज्ञों का शिक्षक होना चाहिए। यदि राजनीतिज्ञों के पास धार्मिकता की कोई सुगंध नहीं आ जाती, तो मानवता का कोई भविष्य नहीं है। धर्म को राजनीतिज्ञों के साथ हस्तक्षेप करना ही होगा। राजनीतिज्ञों के साथ धर्म के हस्तक्षेप बिना...  राजनीतिज्ञ अंधे हैं, उनके पास आंखें नहीं हैं; वे बहरे हैं, सत्य को सुन पाने के लिए उनके पास शांत चित्त नहीं है।
लेकिन राजीव गांधी चिंतित क्यों हैं कि धर्म और राजनीति को अलग किया जाना चाहिए? राजनीति छोटी बात है। धर्म मनुष्य का समग्र विकास है। राजनीति को धर्म की विशाल अनुभूति का अंशमात्र होना चाहिए। किसी विभाजन की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन राजनीतिज्ञ, क्योंकि वह सत्ता में है, इतना अहंकारी हो जाता है कि वह सोच नहीं सकता उन विनम्र, सरल किंतु बुद्धिमान लोगों के पास जाने के बाबत।
समस्याएँ बढ़ती जाती हैं; राजनीतिज्ञ उन्हें हल करने में नपुंसक सिद्ध हुए हैं। किंतु वे उन लोगों के पास नहीं जाएंगे जो उन्हें दिशा प्रदान कर सकते हैं, जो उन्हें सलाह दे सकते हैं क्योंकि उनके पास स्पष्टता है।
मैं राजनीतिज्ञ नहीं हूं। मैंने अपने जीवन में कभी मतदान नहीं किया है और न करनेवाला हूं- कभी; क्योंकि दो बंदरों के बीच चुनाव करने का अर्थ भी क्या है? क्या सिर्फ इसलिए कि वे दो अलग ढंग के झंडे पकड़े हुए हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि उनके चिन्ह भिन्न हैं? आखिर त बंदर तो बंदर ही हैं।
उनमें धर्म के प्रति, धार्मिक लोगों के प्रति एक गहन सम्मान की जरूरत है, क्योंकि एक बात निश्चित हैः धार्मिक लोग चुनाव लड़ने नहीं जा रहे हैं- कोई धार्मिक व्यक्ति मतों की भीख नहीं मांगनेवाला। मूलतः उसके पास अपने अहंकार के पोषण की कोई आकांक्षा नहीं है क्योंकि छिपाने के लिए कोई हीनता-ग्रंथि नहीं है। अपने मौन में, अपनी शांति में, अपनी आनंदमग्नता में वह परम श्रेष्ठता को जान चुका है। अब उससे आगे और कुछ नहीं है, उसके ऊपर और कुछ नहीं है।
अब वह एक मंदिर बन चुका है; उसका परमात्मा उसके स्वयं के भीतर है। राजनीतिज्ञ का अस्तित्त्व युद्धों पर आधारित है, दंगे पैदा करवाने पर आधारित है, अशांति पर आधारित है- ये सब उसके पोषण हैं। एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा हैः जब तक तुम्हारे दुश्मन न हों तुम एक महान नेता नहीं बन सकते। यदि तुम्हारे दुश्मन न भी हों, तो यह झूठ निर्मित करो कि तुम्हारा देश खतरे में है, क्योंकि लोग जब भयभीत हों तो वे गुलाम बनने को तैयार हैं। जब लोग भयभीत होते हैं, वे राजनीतिज्ञ का अनुसरण करने को राजी हैं।
यद्यपि वह एक विक्षिप्त व्यक्ति था, कभी-कभार उसने ऐसे वक्तव्य दिए जो बहुत अर्थपूर्ण हैं। उसने कहा है, ‘मनुष्य जाति के महानतम नेता युद्धों के दिनों में पैदा होते हैं। तो जब तक एक महान युद्ध न हो, तुम एक महान नेता नहीं बन सकते; एक महान नेता होने की आकांक्षा पूरी करने मात्र के लिए तुम्हें करोड़ों लोगों की हत्या करनी होगी।’
और वह सही हैः शांति के दिनों में, लोगों को किसी का अनुसरण करने की जरूरत नहीं; उन दिनों में लोग किसी नेता को करीब-करीब देवता नहीं बना देते जिससे उसके वचन ही कानून बन जाते हों।
राजनीतिज्ञ हर तरह से उपाय करते हैं अपने देश को भयभीत रखने के लिए। चीन भारत की सीमा पर परमाणु-अस्त्र जमा कर रहा है; पाकिस्तान भारत की सीमा पर फौजें जमा कर रहा है- भारतीय राजनेता जिद किए जाते हैं कि यह सच है। पाकिस्तान में, वे जिदपूर्वक कहे चले जाते हैं कि भारत उनकी सीमा पर फौजें जमा कर रहा है; चीन में, वे जिद किए जाते हैं कि भारत परमाणु-अस्त्र तैयार कर रहा है। पार्लियामेंटों में वे कहे चले जाते हैं, हम कुछ भी ऐसा निर्मित नहीं कर रहे हैं- किंतु वह एक सफेद झूठ है।
चीनी नेता को चीन के लोगों को भयभीत रखना पड़ता है। भारतीय नेता को भारत के लोगों को भयभीत रखना पड़ता है। पाकिस्तानी नेताओं को पाकिस्तान के लोगों को भयभीत रखना पड़ता है।
तुम्हारे भय में उनकी शक्ति है।
जितना ज्यादा वे तुम्हें भयभीत रख पाते हैं, उतने ही ज्यादा वे शक्तिशाली होते हैं। देश के बाहर वे इन कल्पनाओं को गढ़ते चले जाते हैं, और देश के भीतर वे जारी रखते हैः हिंदू-मुस्लिम दंगे, हिंदी- भाषा और गैर-हिंदी-भाषा लोगों के बीच दंगे। वे चाहते हैं कि तुम किसी भी बात के लिये, मगर लड़ते रहो- कोई भी तुच्छ बात के लिये।
यदि तुम लड़ने में संलग्न हो, वे शक्ति और सत्ता में हैं। यदि तुम लड़ना बंद कर दो, उनकी शक्ति विदा हो जाती है। यह एक भद्दा खेल है।
यह धार्मिक लोगों के कर्तव्यों में से एक है कि वे स्वयं को राजनीति से ऊपर रखें और लोगों को सृजनात्मक मूल्यों की और, अधिक-अधिक मानवता की ओर ले चलें। दरअसल, अगर धर्मों की समझ में एक बात आ जाये, कि सारी मनुष्यता एक है और किसी राष्ट्र की कोई आवश्यकता नहीं है, ये सारे बौने राजनीतिज्ञ विदा हो जायेंगे।
किंतु सबसे अनोखी बात यह है कि राजनीतिज्ञ लोग कहे चले जाते हैं कि धर्म और राजनीति को पृथक रहना चाहिये। क्यों? क्यों सत्य को राजनीति से पृथक रहना चाहिये? और क्यों प्रेम को राजनीति से पृथक रहना चाहिये? क्यों ध्यानपूर्ण चेतना को राजनीति से पृथक रहना चाहिये? क्यों एक प्रार्थनापूर्ण हृदय को राजनीति से पृथक रहना चाहिये?
हां, मैं समझता हूं कि इस अर्थ में उसे पृथक रहना चाहिये कि वह उच्चतर है। राजनीतिज्ञ को मनोवैज्ञानिक-उपचार और आध्यात्मिक-उपचार की आवश्यकता है और उसे धार्मिक लोगों के पास सलाह के लिये जाना चाहिये। प्राचीन भारत में ऐसी स्थिति थी। हमने वे दिन देखे है; भिखारियों के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिये जिनके पास कुछ भी न था- और उनकी सलाह लेने के लिए।
सम्राट उनके चरण छुआ करते जिन्होंने आत्मज्ञान उपलब्ध कर लिया था, क्योंकि उनका आशीर्वाद मात्र तुम्हें रूपांतरित कर सकता है। राजनीति कार्यमूलक है; वह उपयोगितावादी है- परंतु उसके पास मनुष्य को उच्चतर चेतना में ले चलने का कोई उपाय नहीं है। और विशेषतः भारत के संदर्भ में, यह एक ऐसी भद्दी स्थिति बनी हुई है कि देखकर पीड़ा होती है।
महात्मा गांधी कहा करते थे, स्वतंत्रता से पूर्व कि भारत का प्रथम राष्ट्रपति किसी महिला को बनाया जायेगा। और न केवल यह महिला होगी वरन शूद्र भी होगी- निम्नतम अस्पृश्य वर्ग से।
लेकिन जैसे ही आजादी आई, वे सारे वायदे जिनकी वे बातें किया करते थे भूल गये और वही पुराने सत्ता के खेल शुरू हो गयेः पंडित जवाहरलाल नेहरू एक ब्राह्मण है; वे महिला नहीं हैं और वे शूद्र नहीं हैं। पुनः ब्राह्मण की ही सत्ता कायम होती है। और चालीस वर्षों से, ब्राह्मणों का एक परिवार भारत पर आधिपत्य जमाये हुए है। उन्होंने करीब-करीब अपना व्यक्तिगत राजवंश बना रखा है। यह प्रजातंत्र नहीं रह गया है।
थोड़ा तथ्यों पर गौर करोः भारतीय जनता पर महात्मा गांधी की पकड़ क्या थी? वे धार्मिक होने का स्वांग कर रहे थे- वे एक धार्मिक व्यक्ति नहीं थे- एक हिंदू संत होने का स्वांग कर रहे थे, क्योंकि हिंदु बहुत हैं, वे ही देश का शासन करने वाले थे। यही कारण था कि वे भारत के अविभाजन की जिद पकड़े हुए थे, क्योंकि एक अविभाजित भारत में, हिंदू सत्ता में होंगे; हिंदुओं के हाथों से कोई सत्ता छीन नहीं सकता क्योंकि बाकी सब लोग अल्पमत में हैं। इस राजनीति पर कोई ध्यान नहीं देता- कि वे धर्म तक का उपयोग भद्दे मंतव्यों के लिये कर रहे थे।
डा. अंबेदकर अस्पृश्यों के लिये अलग मत की मांग कर रहे थे और मैं उस व्यक्ति से पूर्णतः सहमत हूं, इस सीधे से कारण से कि पांच हजार वर्षों से ये लोग दमित किये गये हैं, शोषित किये गये हैं; मनुष्य के रूप में उनकी सारी गरिमा नष्ट कर दी गयी है- और वे हिंदू-जनसंख्या का चौथाई भाग है। और वे गंदा काम करते हैं; उनका सम्मान होना चाहिये, उस के लिये उनकी इज्जत की जानी चाहिए। लेकिन इससे विपरीत, उनकी छाया तक अस्पृश्य है। यदि एक अस्पृश्य की छाया पर पड़ जाता है, आपको स्वयं को शुद्ध करने के लिए तुरंत स्नान करना होगा।
अंबेदकर एकदम सही थे अस्पृश्यों के लिये अलग मत मांगने में, ताकि उन्हें पक्का हो सके कि पार्लियामेंट में एक चौथाई सदस्य उनके होंगे। अन्यथा वे पार्लियामेंट में पहुंचने में कभी सफल न होंगे; वे मन द्वारा निर्मित पांच हजार वर्ष पुराने, भद्दे जाति-व्यवस्था-नियमों को बदलने में कभी सफल न होंगे।
बड़े-बड़े अपराधी हैं, किंतु लगता है मनु उन में सर्वप्रिय हैं। एडोल्फ हिटलर के मन में मनु के प्रति बड़ा सम्मान था, फ्रेडरिक नीत्शे के मन में मनु के प्रति बड़ा सम्मान था- गौतम बुद्ध के प्रति नहीं- और मनु इस देश के लिये एक अभिशाप सिद्ध हुए हैं। उन्होंने करोड़ों लोगों से उनकी सारी मानवी गरिमा छीन ली; वे पशुओं की तरह जी रहे हैं।
अंबेदकर यह कहने में पूर्णतः तर्कसंगत थे, वे सही थे कि इन लोगों को अलग मत का अधिकार मिलना चाहिये, किंतु गांधी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया इस बात के लिए कि अंबेदकर अपना आंदोलन बंद कर दें; अन्यथा, वे कुछ खाएंगे-पीएंगे नहीं जब तक कि मृत्यु ही नहीं आ जाती। अब यह सर्वथा अतर्कपूर्ण है। क्योंकि तुम लोगों को उपवास करके राजी कर लेते हो, इसका अर्थ यह नहीं कि तुम सही हो। यह ब्लैकमेल है; यह धमकाना हैः मैं आत्महत्या कर लूंगा यदि तुम मुझसे राजी नहीं होते।
स्वभावतः सारा देश अंबेदकर पर दबाव डाल रहा था, अपना आंदोलन बंद करो; अन्यथा गांधी की मृत्यु तुम्हारे लिये और अस्पृश्यो के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध होगा। वे जिंदा जला दिये जाएंगे। उनके गांव जला दिये जाएंगे क्योंकि हिंदू लोग बदला लेंगे कि अस्पृश्यों ने गांधी को मार दिया है। जितनी देर संभव हुआ अंबेदकर ने खींचा, किंतु अंततः समर्पण कर दिया- यह देखते हुए कि शायद यदि गांधी की मृत्यु हो ही जाती है... ! यद्यपि यह कोई तर्क नहीं है।
यदि मैं अंबेदकर की जगह होता तो मैंने गांधी को कहा होता, तुम मर सकते हो क्योंकि तुम्हारी मृत्यु कोई तर्क नहीं है। यह उतनी ही मूर्खतापूर्ण कहानी है जैसी कि एक मैंने सुना है।
एक बहुत बदसूरत आदमी एक सुंदर लड़की से विवाह करना चाहता था- और उसकी उम्र लड़की के पिता के जितनी थी। और उसने गांधीवादी तरीका अपनाया; उसने अपना बिस्तर लिया, लड़की के घर के सामने पडा़ रहा और आमरण अनशन घोषित कर दिया, जब तक कि लड़की का पिता लड़की का विवाह उससे कर देने के लिये राजी नहीं हो जाता। अब हर आदमी उस बेचारे के प्रति सहानुभूति अनुभव कर रहा थाः वह मर रहा है। क्या महान प्रेमी है। हमने ऐसे प्रेमियों के बारे सिर्फ कहानियों में सुना है, और वह वास्तव में एक मजनू, एक फरहाद, एक महिवाल है।
पिता भारी कठिनाई में था; लड़की अत्यंत भय में थी। सारे दिन घर पर भीड़ जमा रहती और लोग चिल्लातेः उसकी मृत्यु तुम्हारे लिये खतरनाक होगी। यह व्यक्ति कोई हिंसात्मक व्यवहार नहीं कर रहाः यह तो अहिंसात्मक व्यवहार ही कर रहा है, एक धार्मिक व्यक्ति, उपवासरत।
किसी आदमी ने लड़की के पिता को सलाह दी, तुम किसी पुराने गांधीवादी के पास जाओ यह पता करने के लिये कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिये।
गांधीवादी ने कहा, ‘इसमें कोई समस्या नहीं। एक बहुत बदसूरत वेश्या है, बहुत बूढ़ी...  तुम बस इसे एक सौ रुपये दे दो और वह भी उस आदमी के बगल में अपना बिस्तर लगाकर पड़ी रहे, यह कहते हुए कि यदि तुम मुझसे विवाह नहीं करते तो मैं आमरण अनशन करूंगी। रात में उस आदमी ने अपना बिस्तर समेटा और भाग निकला।
ये तर्क नहीं है।
और अंबेदकर अपना आंदोलन खत्म करने के लिये विवश कर दिये गये और संतरे के रस की गिलास लेकर वे गांधी के पास गये कि वे अपना अनशन समाप्त करें। यह राजनीति की सेवा में धर्म को लगाना है। कोई धार्मिक व्यक्ति वैसा नहीं कर सकता।
भारत के अखंड और एक बने रहने की अवधारणा भी कुछ और नहीं बल्कि राजनीति थी जो हिंदुओं की सेवा में उपयोग की जा रही थी, ताकि मुसलमान अथवा ईसाई अथवा जैन अथवा सिख कभी सत्ता में न आ सकें इसलिये की जा रही थी, इससे हिंदु सत्ता में बने रहेंगे- क्योंकि वे बहुमत में हैं।
जिन्ना, जिसने पाकिस्तान बनाया, जरा भी धार्मिक व्यक्ति न था; किंतु उसने भी धर्म का उपयोग किया। उन्होंने अलग देश बनाने के लिये मुसलमानों का आंदोलन खड़ा किया; अन्यथा वे सत्ता में न आ सकेंगे- कभी। अचानक वह एक महान मुसलमान बन गये, एक महान धार्मिक व्यक्ति और धर्म के नाम पर...  वह सब राजनीति थी- ने महात्मा गांधी धार्मिक थे और न मुहम्मद अली जिन्ना धार्मिक थे। लेकिन दोनों सत्ता चाहते थे।
तब से, चालीस वर्ष बीत चुके हैं- राजनीतिज्ञों ने इस देश के लिये किया क्या है? जब यह देश आजाद हुआ, इसकी आबादी केवल चालीस करोड़ थी। वे जनसंख्या-विस्फोट को रोकने में भी सफल नहीं हुए, जो कि बिना किसी पारमाणु हथियारों के इस देश को नष्ट कर देनेवाला है। अब जनसंख्या दुगुने से भी अधिक है; नब्बे करोड़ लोग! और इस सदी के अंत तक, भारत दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश होगा। अब तक, चीन था, किंतु चीन अधिक वैज्ञानिक व्यवहार कर रहा है और अपनी जनसंख्या कम करने के प्रयास कर रहा है। इस सदी के अंत तक, दुनिया का हर चौथा आदमी भारतीय होगा।
और राजनीतिज्ञ क्या करते हैं? वे संतति-नियमन के पक्ष में, गर्भपात के पक्ष में लोगों से कुछ भी कहने में भयभीत है, क्योंकि उनका रस इस बात में जरा भी नहीं है कि यह देश बचता है या नष्ट हो जाता है; उनका सारा रस इस बात में है कि वे किसी को नाराज नहीं करना चाहते। लोगों के पास अपने पूर्वाग्रह हैं- राजनीतिज्ञ उनके पूर्वाग्रहों को छूना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें उनके मतों की आवश्यकता है। यदि वे उनके पूर्वाग्रहों को चोट पहुंचाते हैं, तो ये लोग उन्हें अपना मत प्रदान करनेवाले नहीं।
केवल एक धार्मिक व्यक्ति ही, जिसके पास स्पष्ट देखने की क्षमता है और जिसे लोगों के मतों की आवश्यकता नहीं है, सत्य को कह सकता है, क्योंकि धार्मिक व्यक्ति को आपसे कुछ भी अपेक्षा नहीं है- राजनीतिज्ञ केवल प्रीतिकर झूठ बोल सकते हैं, दिलासापूर्ण झूठ बोल सकते हैं, ताकि उनके मत प्राप्त कर सकें- उल्टे, सत्य बोलना उसके जीवन के लिये खतरनाक हो सकता है; यह सदा से ऐसा ही रहा है। जब भी सत्य बोला गया है, बोलनेवाले को सूली लगा दी गयी है। राजनीतिज्ञ लोग सता की तलाश में हैं, सूली की नहीं।
दुनिया को अधिक से अधिक ऐसे धार्मिकों की जरूरत है जो सूली लगने की कीमत पर भी सत्य बोलने को तैयार हों। धार्मिक व्यक्ति सूली लगने से नहीं डरता, जिसका सरल सा कारण यह है कि उसे पता है कि मृत्यु एक झूठ है। अधिक से अधिक, वे उसका शरीर नष्ट कर सकते है; लेकिन उसका चैतन्य, उसकी आत्मा, उसके भीतर का परमात्मा तो जिये ही चला जायेगा।
धर्म की प्रतिष्ठा ऊपर रहनी चाहिये, और धार्मिक लोग सुने जाने चाहिये। संसद को सतत धार्मिक लोगों को आमंत्रित करते रहना चाहिये कि वे उन्हें कुछ उपाय सुझा सकें कि कैसे देश की समस्याएं हल की जाएं, क्योंकि वे स्वयं तो कुछ भी हल करने में सर्वथा नपुंसक हैं। समस्याएं बढ़ती जाती हैं, किंतु राजनीतिज्ञ का अहंकार यह नहीं स्वीकार करना चाहता कि कोई उनसे भी ऊपर है। लेकिन चाहो अथवा न चाहो, धार्मिक व्यक्ति तुमसे ऊपर है। तुम लोगों की चेतना में रूपांतरण नहीं ला सकते- वह ला सकता है।
निश्चित ही, धर्म को अपनी पवित्रता से नीचे उतरकर राजनीति के तुच्छ मसलों में नहीं आना चाहिए। वास्तव में मैं इस बात से सहमत हूं कि धर्म और राजनीति को अलग रहना चाहिए। उनमें दूरी विशाल है। धर्म आसमान का एक सितारा है, राजनीतिज्ञ जमीन पर रेंग रहे जंतु हैं।
वे अलग हैं। लेकिन यह सवाल नहीं है कि उन्हें अलग होना चाहिए। राजनीतिज्ञों को यह स्मरण रखना चाहिए कि वे सांसारिक मसलों पर काम कर रहे हैं। और वह मानवता का असली गंतव्य नहीं है।
धार्मिक लोग हर संभव प्रयत्न कर रहे हैं मानवता को उस बिंदु तक ऊपर उठाने का- उसकी चेतना को, उसके प्रेम को, उसकी करुणा को- जहां युद्ध असंभव हो जाते हैं, जहां राजनीतिज्ञ धोखा नहीं दे सकते लोगों को, जहां उनके झूठों और वायदों का भंडाफोड़ किया जा सके। यह राजनीति में हस्तक्षेप नहीं हैः यह मात्र लोगों की सुरक्षा करना है राजनीतिज्ञों के शोषण से। अलग वे पहले से ही हैं। राजीव गांधी को यह धारणा किसने दी कि धर्म और राजनीति अलग-अलग नहीं हैं?
राजनीति कुछ ऐसी बात है जिसका स्थान गंदी नालियों में हैं। धर्म का स्थान उन्मुक्त, स्वच्छ आकाश में है- जैसे कोई उड़ता हुआ पक्षी, जो अस्तित्त्व के केंद्र पर ही पहुंच जाने के लिए सूर्य के आरपार उड़ा जा रहा हो।
निश्चित ही धार्मिक लोग राजनीति में भागीदार नहीं हो सकते; लेकिन राजनीतिज्ञों को विनम्रता सीखनी चाहिए- उनकी शक्ति को उन्हें अंधा नहीं बनाने देना चाहिए। शक्ति भ्रष्ट करती है और आत्यंतिक शक्ति आत्यंतिक रूप से भ्रष्ट करती है; और सारे राजनीतिज्ञ अपनी शक्ति द्वारा भ्रष्ट हैं। और उनके पास शक्ति क्या है? क्योंकि वे तुम्हारी हत्या कर सकते हैं- उनकी शक्ति एक कसाई की है, जिसमें कुछ भी महिमाशाली नहीं, सम्माननीय नहीं।
धार्मिक व्यक्ति के पास एक बिल्कुल अलग किस्म की शक्ति होती हैः यह उसकी उपस्थिति में है, यह उसके महत प्रेम और जीवन के प्रति सम्मान में है; यह अस्तित्त्व के प्रति उसके अनुग्रह भाव में है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि निम्नतर को अपनी सीमाओं के भीतर ही रहना चाहिए; और जितना संभव हो देश के बुद्धिमान लोगों को संसद को उन समस्याओं पर संबोधित करने के लिए बुलाते रहना चाहिए जिनको हल करने में राजनीतिज्ञ समर्थ नहीं हैं- जिन्हें हल करने की समझ ही नहीं है उनके पास।
लेकिन राजीव गांधी के इरादे सर्वथा दूसरे हैं। वे चाहते हैं कि राजनीतिज्ञ धर्म सहित सब पर आधिपत्य जमानेवाली एकमात्र शक्ति हों; और धर्म भी राजनीतिज्ञों के इशारे पर चले।
मैं इस इरादे की समग्रस्तः भर्त्सना करता हूं। धर्म राजनीतिज्ञों के निर्देशों पर नहीं चल सकता। राजनीतिज्ञों को धार्मिकों की सलाह मानने की कला सीखना चाहिए। समस्याएं इतनी छुद्र हैं कि कोई भी समझदार और हितैषी व्यक्ति सरलता से उनका हल कर सकता है। लेकिन राजनीतिज्ञ उन्हें हल करना नहीं चाहता; वह उन्हें हल करने की केवल बात करता है क्योंकि उसकी शक्ति इस बात पर निर्भर है कि आपके पास कितनी ज्यादा समस्याएं हैं। जितनी अधिक समस्याएं होंगी। तुम्हारी, उतने ही दयनीय होगे तुम, उतना ही शक्तिशाली होगा वह।
धार्मिक चेतना के लिए, जितने अधिक आनंदित तुम हो, जितने अधिक प्रेमपूर्ण, जितने अधिक उत्सवपूर्ण...  वह चाहता है कि तुम्हारा जीवन एक गीत हो, एक नृत्य। क्योंकि वही एकमात्र वह ढंग है जिस प्रकार हमें जीवन के स्रोत की उपासना करनी चाहिए- अपने आनंद द्वारा, अपने गीतों द्वारा और अपने नृत्यों द्वारा।
 ओशो

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