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शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

05-बाबा-जग जीवन दास-(ओशो)

05-बाबा--जग जीवन दास—भारत के संत 

कुछ संत ऐसे है, जो हमारी परिभाषा और परिचय के परिशमन में नहीं आ पाते, कुछ जंगली फूलों की तरह जिनका सौंदर्य तो अटूट होता है। पर हमारी आंखे जिन्‍हें जानने और देखने की आदि हो जाती है, वह उसके परे है। हम चल तो पड़ते है उस मार्ग पर, उस से परिचित होना सब के बास की बात नहीं है। इसी तरह के संत का आज हम जिक्र करेंगे। वह है संत जग जीवन दास,जग जीवनको समझाने की क्षमता सब में नहीं है। जो लोग प्रेम को समझने में समर्थ है, जो उस में खो जाने को तैयार है, मिटने को तैयार है, वही उस का आनंद अनुभव कर सकेगें। शायद समझ बुझ यहाँ थोड़ी बाधा ही बन जाये।

      जग जीवन प्रमाण नहीं दे सकते,गीत गा सकते है और गीत भी काव्‍य के नियमों के अनुसार नहीं होगा, छंद वद्ध नहीं होगा।उसके तुक नहीं मिले होगें। शायद शब्‍द भी अटपटे हो पर यह रास्‍ता अति मधुर और सुंदर अवश्‍य हो एक पहाड़ी रास्‍ते की तरह, जो उबड़ खाबड़ हा, कष्‍ट कांटों से भरा हो, ऊँचा नीचा हो। पर उस का सौंदर्य देखते ही बनता है। नहीं पद चाप मिलेंगे वहां मुसाफ़िरों के पर अद्भुत होगा वह मार्ग। गांव के बिना पढ़े लिखें थे जग जीवन, गांव की सादगी, मिलेगी, सरलता मिलेगी।
छंद मात्राओं की फिक्र मत करना। नहीं तो चुक जाओगे
बहुत कुछ सार रह जाये छंदो की जाली में और असार ही तुम्‍हारे पास रह जायेगा। जैसे गांव के लोग गीत गाते है। ऐसे वे गीत है।
      जग जीवन का काम था गाय बैल चराना, गरीब के बेटे थे। बाप किसान थे—छोटा-मोटा किसानी। और बेटे का काम था कि गाय बैल चरा लाना। न पढ़ने का मौका मिला न पढ़ने का सवाल उठा। तो जैसे गाय-बैल चराने वाले लोग भी गीत गाते है....गीत तो सबका है। कोई विश्‍वविद्यालय से शोध कर ऊपर उपाधि लेकर आने पर ही गीत गाने का हक नहीं होता।   
      जग जीवन के जीवन का प्रारंभ वृक्षों से होता है, झरनों से नदियों से, गायों से, बैलों से। चारों तरफ प्रकृति छायी रही होगी। और जो प्रकृति ने निकट हो वह परमात्‍मा के निकट हे। जो प्रकृति से दूर है वह परमात्‍मा से भी दूर है।
      अगर आधुनिक मनुष्‍य परमात्‍मा से दूर पड़ रहा है, रोज-रोज तो उसका कारण मनुष्‍य में नास्तिकता बढ़ रही है यह नहीं। आदमी जैसा है वैसा ही है। पहले भी नास्‍तिक हुए हे। और एक हुए है जिनके उपर और कुछ जोड़ नहीं जा सकता। चार्वाक ने जो कहा है, तीन हजार साल पहले न उसमे आप कुछ जोड़ पाओगे जो कहना था सब कह दिया। दिदरो, मार्क्‍स, माओ चार्वाक के शास्‍त्र में कुछ जोड़ नहींपाये वही कहा हाथ भर घुमाया, कान वहीं का वहीं है। प्रकृति और आदमी की बीज जो संबंध टुट गया, लोहा और सीमेंट—उसमें आदमी घिर गया। उसमें फूल नहीं खल सकते है।
      जग जीवन का प्रारंभ जीवन हुआ प्रकृति के साथ। कोयल के गीतों के साथ,पपीहा की पुकार सुनी होगी। चातक को टकटकी लगाये चाँद को देखते देखा होगा। चमत्‍कार देखे होंगे कि वर्षा आती है और सूखी पड़ी हुई पहाडियाँ हरी हो जाती है। गाय बैलों के संग वैसे ही हो गये। याद रखना हम जिस का संग करेंगे जाने अनजान हम उसकी और झुकनेलग जाते है। सरल,निर्दोष,गैर महत्‍वकांशी। गाय को तो भूख लगतीहै तो घास चरती है। थक जाती है तो सो जाती है। बजाते होंगे बांसुरी जब गाय बैल चरतीहोंगी तो जगजीवन बांसुरी बजाते होंगे।
     बैठे-बैठे झाड़ों के नीचे जग जीवन को कुछ रहस्‍य अनुभव हुए होगें। क्‍या है यह सब खली रात आकाश के नीचे,घास पर लेट कर तारों का देखना, आ गई होगी परमात्‍मा की। जब तुम पतझड़ में खड़े सूखे वृक्षों को फिर से हरा होते देखते हो,फैलने लगती है हरियाली, उतर आता है परमात्‍मा चारों और प्रकृति के साथ हम भी कैसे भरे-भरे हो जाते है। परमात्‍मा शब्‍द परमात्‍मा नहीं है। रहस्‍य की अनुभूति में परमात्‍मा है।
      परमात्‍मा क्‍या है? इस प्रकृति के भीतर छिपे हुए अदृश्‍य हाथों का नाम: जा सूखे वृक्षों परपतिया ले आता है। प्‍यासी धरती के पास जल से भरे मेघ ले आता है। पशु पक्षियों की भी चिंता करता है। अगोचर है,अदृश्य है, फिर भी उसकी छाप हर जगह दिखाई दे जाती है। इतना विराट आयोजन करता है। पर देखिये उस की व्‍यवस्‍था, सुनियोजित ढंग से। प्रकृति का नियम कहो की कहो परमात्‍मा कहो।
      सत्‍संग चलने लगा—और एक दिनअनूठी घटना घटी। चराने गये थे गाय-बैल को, दो फकीर—दो मस्‍त फकीर वहां से गूजरें। उनकी मस्‍ती ऐसी थी कि कोयलों की कुहू-कुहू ओछी पड़ गई। पपीहों की पुकार में कुछ भी खास नहीं रहा। गाय की आंखे देखी थी, गहरी थी, मगर उन आंखों के सामने कुछ भी नहीं।  झीलें देखी थी, शांत थीं, मगर वह शांति कुछ और ही थी। यह किसी और ही लोक की शांति दर्श रहीं थी। यह पारलौकिक थी।
      बैठ गये उनके पास वृक्ष के नीचे महात्‍मा सुस्‍ताने थे। उनमें एक था, बाबा बुल्ला शाह—एक अद्भुत फकीर, जिसके पीछे दीवानों का मस्‍तानों का एक पंथ चला। बावरी। दीवाना था पागल था। थोड़े से पागल संत हुए है। इतने प्रेम में थे कि पागल हो गये। ऐसे मस्‍त थे कि डगमगा कर चलने लगे। जैसे शराब पी रखी हो—शराब जो ऊपर से उतरती है। शराब जो अनंत से आती है।
      कहते है बुल्‍लेशाह को जो देखता था दीवाना हो जाता था। जग जीवन राम भी दिवाने हो गये। मां बाप अपने बच्‍चों को बुल्‍लेशाह के पास नहीं जाने देते थे। जिस गांव में बुल्‍लेशाह जाते, लोग अपने बच्‍चो को छुप लेते थे। खबरें थी की वह दीवाना ही नहीं है, उसकी दीवानगी संक्रामक है। उसके पीछे बावरी पथ चला, पागलों का पंथ।
      पागल से कम में परमात्‍मा मिलता भी नहीं। उतनी हिम्‍मत तो चाहिए ही। तोड़कर सारा तर्क जाल छोड़ कर सारी बुद्धि छोड़ दे सारी बुद्धि-बद्धिमत्ताडूबा कर सब चतुराई चालाकी जो चलते है वह ही पहुंचते है। उन्‍हीं को पागल कहते है लोग, दीवान कहते है।
      एक था बुल्लेशाह और दूसरा था गोविंद शाह: बुल्‍लेशाह के ही एक संगी-साथी। दोनों मस्‍त बैठे थे। जग जीवनी भी बैठ गया। छोटा बच्‍चा था। बुल्‍लेशाह ने कहा: बेटे आग की जरूरत है थोड़ी आग ला दे।
      वह भागा। इसकी ही प्रतीक्षा करता था कि कोई आज्ञा मिल जाये, कोई सेवा का मौका मिल जाए। आग ही नहीं लाया जीवन राम, साथ में दुध की एक मटकीभी साथ में भर लाया। भूखे होंगे, प्‍यासे होंगे। दोनों ने अपने हुक्का जलाये। दुध ले आया तो दूध पिया। लेकिन बुल्‍लेशाह ने जग जीवन को कहा कि दूध तो तू ले आया पर मुझे तो ऐसा लगता है तू बिना बताये, चुप से ले आया है।
      बात थी भी सच। जग जीवन चुपचाप दूध ले आया था, माता को कहां भी नहीं था। शायद घर पर कोई नहीं होगा। कहने का मौका नहीं मिला होगा। थोड़ी ग्‍लानि अनुभव करने लगा था। थोड़ा अपराध अनुभव करने लगा था। बुल्ला शाह ने कहा: घबड़ा मत। जरा भी चिंता मत कर, जो देता है उसे बहुत मिलता है।
      वे तो दोनों फकीर आगे की और चले गये। जग जीवन सोचता रहा की घर जाकर मां को क्‍या जवाब दूँगा। और फकीर क्‍या कह गये थे जो देता उसे बहुत मिलता है। घर पहुंचा,जाकर उघाड़ कर देखी मटकी, जिसमे से अभी दूध भर कर ले गया था। आधा दूध तो ले गया था, मटकीआधीखाली छोड़ गया था। लेकिन मटकी तो पूरी की पूरी भर गयी है।
      यह तो प्रतीक कथा है, सांकेतिक है। यह कहती है जो उसके नाम में देते है, उन्‍हें बहुत मिलता है। देने वाले पाते है, बचाने वाले खो जाते है। या मां का व्‍यवहार में कुछ ऐसा अप्रतिशीत घट गया होगा की बेटा जब देना ही था तो मटकी दूध क्‍या दिया कुछ भोजन भी साथ क्‍यों न ले गया। मुझे बताता में भोजन परोसती। यानि जग जीवन को देने के बाद जो पश्‍चाताप था जो गिलानि थी चोरी की उसके बदले जो मिलने की उम्‍मीद थी उसके बदले कुछ ऐसा हुआ जिस की वो कल्‍पना नहीं करता था। जो देता है उसे और मिलता है....
      घर के व्‍यवहार को देख कर—यानि मटकी भरी देख कर, उसे लगा की यह तो अपूर्व लोग थे। भागा। फ़क़ीरों के पीछे, भागता ही रहा,रुका नहीं खोजता ही रहा, मीलों दूर जाकर फ़क़ीरों को पकड़ा। जानते हो क्‍या मांगा। बुल्‍लेशाह से कहा, मेरे सर पर हाथ रख दो। सिर्फ मेरे सर पर हाथ रख दें। जैसे मटकी भर गई है। ऐसे मैं भी भर जाऊँ ऐसा आर्शीवाद दे दें। मुझे अपना चेला बना लो।
      छोटा बच्‍चा था, बहुत समझाने की कोशिश की बुल्ला शाह ने, लौट जा। अभी उम्र नहीं है तेरी। अभी समय नहीं आया है। लेकिन जग जीवन राम नहीं मानें। मैं छोड़ूगा नहीं पीछा। हाथ रखना पडा बुल्‍लेशाह को।   
      गुरु हाथ रखता है जग तुम पीछा छोड़ते ही नहीं। और तब ही हाथ रखने का मूल्‍य है। और कहते है क्रांति घट गई। जो महावीर को बारह साल तप के बाद मिला या बुद्ध को छह साल के बाद मिला वह जग जीवन को हाथ रखते ही क्रांति घट गई। काया पलट गई, चोला कुछ से कुछ हो गया। ऐसी क्रांति तक हो सकती है जब मांगने वाले ने सच में ही मांगा हो। यू ही औपचारीक बात न रही होगी। परिपूर्णता से मांगा हो, रोएं-रोएं से मांगा हो। मांग ही हो, समग्रता में,भर गई हो। रच बस गई हो। प्‍यास ही बाकी रह गई हो। भीतर कोई दूसरा विवाद न बचा हो। निस्‍संदिग्‍ध मांगा हो। मेरे सिर पर हाथ रख दें। मुझे भर दें, जैसे मटकी भर गई।
      छोटा बच्‍चा था; न पढ़ा न लिखा। गांव का गंवार चरवाहा। मगर मैं तुमसे कहता हूं की अकसर सीधे सरल लोगो को जो बात सुगमता से घट जाती है। वह बुद्ध से भरे लोगो के लिए समझना कठिन है।
      उस दिन बुल्लेशाह ने ही हाथ नहीं रखा जग जीवन पर बुल्ला शाह के माध्‍यम से परमात्‍मा का हाथ जग जीवन के सर आ गया। टटोल तो रहा था, तलाश तो रहा थी। बच्‍चे की ही तलाश थी। कोई रहस्‍य आवेष्‍टित किये है सब तरफ से इसकी प्रतीति होने लगी थी।
      आज जो अचेतन में जगी हुई बात थी। चेतन हो गई। जो कल तक कली थी। बुल्‍लेशाह के हाथ रखते ही फूल हो गया। रूपांतरण क्षण में हो गया। कुछ प्रतीक दे जायें।  याद आयेगी बहुत स्‍मरण होगा तुम्‍हारा। कुछ और तो न था, बुल्‍लेशाह ने अपने हुक्के में से एक सूत का धागा खोल कर काला धागा; वह दायें हाथ पर बाँध दिया। और गोविंद दास ने भी अपने हुक्‍के का एक सफेद दागा खोल कर बायें हाथ पर बाँध दिया।
      जग जीवन को मानने वाले लोग जो सत्य नामी कहलाते है—थोड़े से लोग—वे अभी भी अपने दायें हाथ पर काला और बायें पर सफेद धागा बाँधते है। मगर उसमें अब कुछ सार नहीं है। कितने ही  बाँध लो उनसे कुछ होने वाला नहीं है। वह तो जग जीवन ने मांगा था, उसमें कुछ था। और बुल्‍ले शाह ने बांधा था, न तो तुम जगजीवन हो और न बुल्‍ले शाह। इस तरह के मुर्दा प्रतीकों हम हमेशा ढोते रहते हे। यही धर्म का प्रतीक बन जाते है। सचाईतोदब कर मर जाती है।
मतलब की काले और सफेदधागे दोनों ही बंधन है। पाप भी बंधन है, पूण्‍य भी बंधन है। सफेद पूण्‍य और काला पाप। यह उनका मौलिक जीवन मंत्र था।
      उसी दिन से जग जीवन शुभ-अशुभ से मुक्‍त हो गये। उन्‍होंने घर भी नहीं छोड़ा। बड़े हुए, पिता ने कहा शादी कर लो। तो शादी भी कर ली, गृहस्‍थ हो गए। कहां जाना है? भीतर जाना है। बहार कोई यात्रा नहीं है। काम-धाम में लगे रहे और सबसे पार और अछूते बने रहे—जल में कमल वत।
      ऐसे गैर पढ़े लिखे लेकिन असाधारण दिव्‍य पुरूष के विरल ही होते है। जग जीवन विरल है। इन्‍हें समझने के लिए आपको दानों किनारों के पास जाना होगा।

फिर नजर में फूल महकें दिल में फिर शम्‍एं जली।
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम।।
      जिसके भीतर प्‍यास है उन्‍हें तो इस तरह की यात्राओं की बात ही बस पर्याप्‍त है।

ओशो
नाम सुमिर मन बावरे
प्रवचन एक, 1 अगस्‍त 1978,
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

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