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सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-09)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो

प्रवचन-नौवां (ज्ञान का भ्रम)

 (The Psychologe Of The Esoteric)-का हिन्दी रूपांतरण है)
किसी सिद्धांत की शिक्षा देना अर्थहीन है। मैं कोई दर्शनशास्त्री नहीं हूं मेरा मन दर्शनशास्त्र का विरोधी है। क्योंकि दर्शनशास्त्र कहीं नहीं ले गया है और न कहीं ले जा सकता है। वह मन जो सोच-विचार करता है और वह मन जो प्रश्न उठाता है जान नहीं सकता है।
बहुत से सिद्धांत हैं और अन्य बहुत से सिद्धांतों के लिए अनंत संभावनाएं हैं। लेकिन सिद्धांत एक कल्पना है एक मानवीय कपोल-कल्पना। कोई खोज नहीं, बल्कि एक आविष्कार। आदमी का मन बहुत सी व्यवस्थाएं और सिद्धांत निर्मित करने में समर्थ है, लेकिन सत्य को सिद्धांतों के द्वारा जान पाना असंभव है। और जौ मन जानकारी से भरा हुआ है वह ऐसा मन है जो अज्ञानी ही बना रहेगा।
जिस पल जानना बंद हो जाता है तभी ज्ञान का आगमन होता है। अज्ञात के होने के लिए जाने हुए को मिट जाना चाहिए। और सत्य और वास्तविकता अज्ञात है। यहां पर दो संभावनाएं हैं या तो तुम इसके बारे में विचार कर सकते हो या हम अस्तित्वगत रूप से इसमें प्रवेश कर सकते हैं। सोच विचार करना उस के आस पास, उसके चारों ओर होता है, लेकिन यह कभी वास्तविकता नहीं होता। कोई युगों तक सोच-विचार करता रह सकता है। जितना अधिक तुम विचार करते हो उतना ही दूर तुम चले जाते हो। वह जो है यहीं और अभी है। और इसके बारे में विचार करना इससे संपर्क खो देना है।

इसलिए मैं क्या सिखाता हूं--मैं अ-सिद्धातीय अ-दर्शनशास्त्रीय, अ-परिकल्पित
अनुभव सिखा रहा हूं। कैसे 'हुआ' जाए बस 'हुआ' जाए। इस पल में जो अभी और
यहीं है कैसे हुआ जाए? खुला हुआ उपलब्ध उसके साथ एक। इसी को मैं ध्यान कहता हूं।

 ओशो क्या आप सोचते हैं कि ज्ञान परिकल्पित ज्ञान
सिद्धांत या नीति को अनुभव के साथ जोड़ पाना संभव है?
क्या ऐसा हो सकता है कि दोनों ओर से प्रयास किया जाए
और केवल एक और से नहीं?


दोनों ओर से प्रयास किया जाना संभव नहीं है क्योंकि वे दोनों परस्पर विरोधी दिशाएं हैं। तुम दोनों का एक साथ प्रयास नहीं कर सकते हो।

क्या यह संभव नहीं है कि ज्ञान को निम्नतर स्तर पर रख
दिया जाए? इसे अनुभव से निम्नतर माना जाए। लेकिन
मनवीय मन की एक सभावना के रूप इसे बाहर न रखा जाए?

यह एक संभावना है मानवीय मन की यह संभावना है लेकिन एक संभावना जो कपोल-कल्पना में ले जाती है।

अगर यह हावी हो जाए...

अगर यह सभी कुछ हो जाए! यह कपोल-कल्पना में ले जाता है। यह मन को वस्तुओं की कल्पना पर ले जाता है। यह स्वप्न की ओर ले जाता है यह कल्पना की ओर ले जाता है। इसलिए दोनों संभव नहीं हैं। लेकिन एक बार तुमने सत्य को जान लिया, तो तुम ज्ञान का उपयोग इसकी अभिव्यक्ति के लिए कर सकते हो-- लेकिन यह सत्य को उपलब्ध करने का माध्यम नहीं हो सकता है। ज्ञान सत्य को उपलब्ध करने का वाहन नहीं हो सकता है किंतु जब सत्य को जान लिया गया है, तो यह वाहन बन सकता है। यह संवाद के माध्यम के रूप में उसका वाहन बन सकता है।
एक बार तुम किसी ऐसे व्यक्ति के साथ संवाद करना चाहो कुछ बांटना चाहो जो नहीं जानता है तब ही तुम्हारा ज्ञान तुम्हारे शब्द तुम्हारी भाषा तुम्हारी नीतियां और सिद्धांत माध्यम बन सकते हैं। किंतु अब भी ये पर्याप्त नहीं हैं। अब भी ये असमर्थ माध्यमहै, एक ऐसा माध्यम जो झूठा होने के लिए बाध्य है क्योंकि वह कुछ ऐसा है जिसे अस्तित्वगत रूप से जाना गया है उसे पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है। केवल संकेत कर सकते हो। तुम इसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति कर सकते तुम हो। लेकिन तब प्रतीक चला जाता है--प्रतीक का संवहन हो जाता है और अर्थ पीछे छूट जाता है। जो भी मैंने जान लिया है जिस पल मैं इसे अभिव्यक्त करता हूं शब्द तुम तक पहुंच जाता है। लेकिन अर्थ पीछे छूट जाता है--एक शब्द जो मुर्दा है एक अर्थ में अर्थहीन है, केवल ऊपर-ऊपर से अर्थपूर्ण है क्योंकि अर्थवत्ता तो स्वयं अनुभव थी।
इसलिए ज्ञान अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकता है लेकिन उपलब्धि का, आत्म-साक्षात्कार का साधन नहीं बन सकता है। और दोनों एक साथ नहीं चल सकते हैं। जानने वाला मन अवरोध है। वह मन जो ज्ञान के संदर्भ में विचार करता है रुकावट बन जाता है। यह रुकावट बन जाता है क्योंकि जब तुम जान लेते हो तब तुम विनम्र नहीं रह पाते हो। जब तुम ज्ञान से भर जाते हो तो तुम्हारे भीतर अज्ञात को ग्रहण करने के लिए कोई स्थान नहीं होता। इसलिए मन को खाली शून्य, एक गर्भ की तरह, एक ग्राहकता, एक पूर्ण ग्राहक भाव दशा में होना चाहिए, जिसके पास कोई जानकारी न हो, जान लेने की कोई अभिवृत्ति न हो। जहां तक सत्य का अस्तित्वगत सत्य का संबंध है, तुम अपने अभी के ज्ञान के साथ वहां जी नहीं सकते हो।
तुम्हें संचित ज्ञान को इनकार कर देना चाहिए क्योंकि...यहां पर बहुत सी चीजें हैं पहली, ज्ञान तुम्हारा अतीत है। यह वह है जो तुमने जाना है। यह तुम्हारी स्मृति है, यह तुम्हारा संचय है, यह तुम्हारे स्वामित्व में है। यह संचय अवरोध बन जाता है। वह तुम और उस नये के बीच में जो तुम तक आ रहा है आ ही जाता है। इसे नकारना पड़ेगा। इसको तुम्हारे और अज्ञात के बीच में नहीं आना चाहिए।
तुम्हें अज्ञात के प्रति खुला होना चाहिए और तुम खुले हुए केवल तब हो सकते हो जब कि तुम अपने अज्ञान में विनम्र होओ। इसलिए अपने अज्ञान के प्रति, सजग हो जाओ लगातार सजग बने रहो, लगातार इस बात के प्रति सजग बने रहो कि अब भी कुछ है जिसे जाना नहीं गया है और मेरे और उस कृत्य के उस अशात के बीच जानकारी को नहीं आना चाहिए। लेकिन वह मन जिसने स्मृतियों सूचनाओं शास्त्रों सिद्धांतों मतों संप्रदायों पर स्वयं को आधारित कर रखा हो वह अहं-केंद्रित हो जाता है विनम्र नहीं होता है। जानकारी तुम्हें विनम्रता नहीं दे सकती है। केवल विराट अशात ही तुम्हें विनम्र बनाता है तुम्हें अपने प्रति ग्रहणशील बनाता है और तुम्हारा अपने प्रति समर्पण करवा सकता है।
इसलिए स्मृति को रुक जाना पड़ेगा। यह ऐसा नहीं है कि तुम बिना किसी स्मृति के हो जाओगे बल्कि जानने के क्षण में अनुभूति के क्षण में स्मृति को वहां नहीं होना चाहिए। उस क्षण में एक खुला मन, एक उपलब्ध मन की जरूरत होती है। खालीपन के इस क्षण में मेडिटेशन है, ध्यान है।

यहां पर बहुत सी बातें हैं। आप इस खालीपन को कैसे
अनुभव करते हैं कैसे पहचानते हैं? प्रत्येक व्यक्ति के लिए
इस प्रकार के अनुभव को कर पाने की संभावना है जिसको
आप हमें ज्ञान के माध्यम से बता रहे हैं--सिद्धौत का प्रति-
सिद्धौत ज्ञान को संवाद की भांति प्रयोग करना -- और
खतरनाक ढंग से जैसा कि आपने इसे बताया है। शब्दों के
पीछे से शून्य मन का सत्य समझाना आप इसका साक्षात
कैसे कर सकते हैं? क्या इसको शब्दों में समझाना संभव है?


जानकारी के नकारात्मक अर्थ निकल सकते हैं। शब्दों के माध्यम से भाषा के माध्यम से और प्रतीकों के माध्यम से विधायक अनुभव को बताया नहीं जा सकता है लेकिन नकारात्मक रूप से इसे समझाया जा सकता है। मैं यह नहीं कह सकता कि यह क्या है लेकिन मैं यह कह सकता हूं कि यह क्या नहीं है। जहां तक नकारात्मक का संबंध है भाषा इसे व्यक्त करने का साधन बन सकती है। जब मैं कहता हूं कि भाषा इसे अभिव्यक्त नहीं कर सकती तब भी मैं इसे अभिव्यक्त कर रहा हूं। जब मैं कहता हूं इसके बारे में कोई सिद्धांत संभव नहीं है, तब भी मैं सिद्धांत का उपयोग कर रहा हूं। लेकिन यह नकारात्मक है। मैं बस इनकार कर रहा हूं मैं कुछ कह नहीं रहा हूं। मैं कुछ नहीं कह रहा हूं मैं किसी बात से इनकार कर रहा हूं। इस ' न ' को तो कहा जा सकता है इस 'हां' को नहीं। इस 'हां' को तो उपलब्ध करना पड़ेगा इस न को कहा जा सकता है।।
एक बात संभावना की...यह पूछना बहुत व्यक्तिगत प्रश्न है शून्य का यह क्षण कैसे उपलब्ध किया जा सकता है? यह सर्वाधिक मूल्यवान और महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस शून्य को उपलब्ध किया जा सकता है, तो सुस्पष्ट है कि जीवन-शैली के माध्यम से। पहले तो ज्ञान की व्यर्थता को इसकी पृष्ठभूमि के रूप में समझ लिया जाना चाहिए। अगर ज्ञान के प्रति मन में कोई विश्वास छाया हुआ है तो यह शून्य को उपलब्ध करने में बाधा बन जाएगा। इसलिए समझ लेने के लिए पहली बात है अतीत की, ज्ञात की, ज्ञान की व्यर्थता जो स्मृतियों से भरा हुआ है उस मन की व्यर्थता। जहां तक अज्ञात का संबंध है सत्य का संबंध है...यह हो सकता है यह बोधपूर्ण होना हो सकता है मन में जो कुछ भी जाना है उसके प्रति बोधपूर्ण हो जाना।
यहां पर दो संभावनाएं हैं।
या तो तुम जो तुमने जाना है उसके साथ तादात्म्य जोड़ सकते हो, या तुम, जो कुछ तुमने जाना है उसके प्रति साक्षी हो सकते हो। अगर तुम इसके साथ तादात्म्य जोड़ लेते हो--ऐसा नहीं है कि तुमने उसको जान लिया है बल्कि तुम जानकारी बन गए हो--तुम और तुम्हारी स्मृति तादात्म्म के कारण एक हो गए हैं। अगर मन ने तादात्म्य कर लिया है चेतना ने ज्ञान की विषय-वस्तु के साथ अपना तादात्म्य कर लिया है तो शून्य को जानना कठिन हो जाएगा। लेकिन अगर वहां पर कोई तादात्म्य नहीं है, अगर तुम अपनी स्मृतियों से भिन्न बने रहे वे स्मृतियां जो तुम्हारे संचय का एक भाग हैं, लेकिन तुम उनसे अलग भिन्न हो तुमने उनसे तादात्म्य नहीं किया हुआ है--अपनी स्मृतियों से कुछ अलग की भांति तुम सजग हो। यह सजगता शून्य की ओर एक पथ बन जाती है।
जितना अधिक तुम सजग हो जाते हो, उतना अधिक तुम अपने ज्ञान के प्रति साक्षी हो जाते हो। जितना कम तुम जानकार होते हो, उतनी ही कम संभावना है कि तुम्हारा अहकार जानने वाला, मालिक बन जाए। अगर तुम अपनी स्मृतियों से भिन्न हो, और व्यक्ति भिन्न है ही, तो स्मृतियां एक प्रकार से एकत्रित धूल की तरह हो जाती हैं। वे अनुभवों के माध्यम से आई हैं और हमारे मन का आधारभूत भाग बन गई हैं, लेकिन फिर भी चेतना अलग है। वह जो स्मरण करता है उससे अलग है जिसका स्मरण किया गया है। वह जिसने जाना है उससे अलग है जिसको जाना गया है। अगर यह भेद स्पष्ट हो जाता है और एक सुस्पष्टता उपलब्ध कर ली जाती है तो शून्य निकटतर और निकटतर आ जाता है। बिना तादात्म्य के तुम खुल सकते हो तुम स्वयं अपने और अशात के बीच आने वाली स्मृति के बिना हो सकते हो।
शून्य को उपलब्ध किया जा सकता है, लेकिन इस शून्य को निर्मित नहीं किया जा सकता है। अगर तुम इसे बनाते हो तो यह तुम्हारे पुराने मन, तुम्हारे पुराने ज्ञान द्वारा बनाया जाने के लिए बाध्य होगा। इसलिए यहां पर कोई विधि नहीं हो सकती है क्योंकि कोई विधि केवल तुम्हारी संचित सूचना से ही आ सकती है, और शून्य को विकसित करने के लिए कोई अगर विधि होगी, तो यह तुम्हारे पुराने मन के सातत्य में होने के लिए बाध्य है। यह कोई ऐसा अनुभव नहीं होगा जो उसके सातत्य में न हो। और नये, अज्ञात को तुम तक एक सातत्य के रूप में नहीं आना चाहिए बल्कि एक सातत्यविहीन अंतराल के रूप में आना चाहिए। केवल तब ही यह तुम्हारी जानकारी से परे होता है।
इसलिए इस तरह की कोई विधि नहीं हो सकती, कोई विधि विज्ञान नहीं हो सकता, केवल एक समझ, केवल सजगता हो सकती है कि जिसको मैंने एकत्रित किया है उससे मैं अलग हूं। अगर इसे समझ लिया गया है तो शून्य को विकसित करने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन चीजें घटित हो जाएंगी। मेरा तादात्म्य नहीं है इसलिए मैं ही शून्य हूं। अब इसे निर्मित करने की कोई जरूरत नहीं है।
और कोई शून्य को निर्मित नहीं कर सकता है क्योंकि बनाया गया शून्य, शून्य नहीं होगा, यह तुम्हारी रचना होगी। तुम्हारी रचना कभी शून्यता, रिक्तता खालीपन नहीं हो सकती है। यह वह आकाश नहीं हो सकती है जो अनंत है--क्योंकि मेरी रचना, तुम्हारी रचना एक सीमित रचना होगी कुछ ऐसी जिसकी सीमाएं हैं। मैंने इसे बनाया है।
शून्य को मुझ तक आना चाहिए। मैं केवल एक ग्राहक हो सकता हूं। और इसलिए मैं केवल एक नकारात्मक ढंग से तैयार हो सकता हूं--तैयार इस अर्थ में कि मैंने ज्ञान के साथ तादात्म्य नहीं बनाया हुआ है--तैयार इस अर्थ में कि जो कुछ मैंने जान लिया है, उसकी निरर्थकता, उसकी अर्थहीनता को मैं समझ गया हूं।
विचार-प्रक्रिया के प्रति केवल यही सजगता मुझको और दूसरों को--एक छलांग की ओर एक अंतराल की ओर ले जा सकती है, जहां पर 'वह जो है' मेरे ऊपर छा जाता है, वह जो, सदा उपस्थित है मुझ तक आता है और मैं उस तक पहुंच जाता हूं और मेरे तथा उसके बीच में अब कोई अवरोध नहीं है। अब यह एक अनंत क्षण एक शाश्वतता, एक असीम बन गया है।
लेकिन जिस क्षण तुमने इसको जान लिया है फिर से तुम इसको ज्ञान में रूपांतरित कर दोगे। फिर से यह तुम्हारी स्मृति का आधारभूत भाग बन जाएगा, फिर से यह खो जाएगा। इसलिए कोई कभी कह नहीं सकता कि ' मैंने जान लिया है। ' अशात सदा अनजाना बना रहता है। कोई इसे कितना ही जान ले, अज्ञात वैसा ही बना रहता है। इसका आकर्षण, इसका सौंदर्य इसका खिंचाव, इसकी पुकार में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
इसलिए जानने की प्रक्रिया शाश्वत है। कोई कभी उस बिंदु पर नहीं आ सकता, जहां पर वह कह सके, 'मैं पहुंच गया हूं।' और अगर कोई यह कहता है, तो वह स्मृति के जाल में, जानकारी के ढांचे में दुबारा से फंस जाता है जो उसका अंत बन जाता है। जिस क्षण कोई जानकारी का दावा करता है, यह उसकी मृत्यु का क्षण है। जीवन रुक जाता है क्योंकि जीवन सदा अशात से अज्ञात की ओर है। सदा और सदा, पार और पार। धार्मिक व्यक्ति को जानने का अर्थ उस व्यक्ति को जानना नहीं है जो ज्ञान का दावा करता हो। वह व्यक्ति जो ज्ञान का दावा करता है, वह धर्मशास्त्री हो सकता है, दर्शनशास्त्री हो सकता है, लेकिन उसके पास एक धार्मिक मन कभी नहीं होता है। धार्मिक मन परम रहस्य को, परम अशेयपन को, अज्ञान के आत्यंतिक आनंद को, परम प्रमुदिता को स्वीकार कर लेता है।
इस क्षण को निर्मित नहीं किया जा सकता, इसको प्रक्षेपित नहीं किया जा सकता है। तुम अपने मन को स्थिर नहीं बना सकते, अगर तुमने इसे स्थिर बना दिया है तो या तो तुमने इसे नशा दे दिया है या तुमने इसे सम्मोहित कर दिया है। लेकिन यह शून्य नहीं है। शून्य जो आता है, और उसे कभी लाया नहीं जा सकता।
इसलिए इस अर्थ में मैं कोई विधि नहीं सिखा रहा हूं कि विधियां, तरकीबें और नीतियां होती हैं। मैं कोई शिक्षक नहीं हूं।

सबसे पहले आपने नकारात्मक तैयारी की बात की ज्ञान
का दर्शनशास्त्र और वह दूरी जो आपको इससे बना कर
रखनी है सच्चे खोजी की ओर घूम जाना--नकली खोजी
के विपरीत सच्चा खोजी आपने सच्चे खोजी की ओर
इंगित किया। इसलिए जब आप ज्ञान के दर्शनशास्त्र के
बारे में बात कर रहे हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से ज्ञान की मृत्यु से
जुड़ा हुआ है जो मैं सोचता हूं कि हम में से अधिकतम की
समस्या हो सकती है वह है कि हम शब्दों को पहले से ही
जानते हैं हम मंत्रों को जानते हैं हम बौद्धिक ज्ञान के
खतरों के प्रति सजग हैं। बौद्धिक रूप से हो सकता है कि
हम ज्ञान के खतरे के प्रति सजग हों परंतु यह अब भी
बौद्धिक तल पर है।

उचित 'ज्ञान' को कैसे रूपांतरित किया जाए? आप कह रहे
हैं और मैं आपके साथ सहमत हो सकता हूं कि ज्ञान
खतरनाक है लेकिन आप किसी विश्वास को कैसे
रूपांतरित कर सकते हैं?

मुझे यह दिखाई पड़ सकता है कि आप सही हैं लेकिन मेरे
विश्वास को गहरे ज्ञान के रूप में या जो शब्द आप बोल
रहे हैं 'शून्य' में कैसे रूपांतरित किया जाए? इन विश्वासों
को सत्य के प्रति गहन ग्रहणशीलता में कैसे बदला जाए?
शून्य से कैसे संबंधित हुआ जाए?


अगर तुम्हें भरोसा आ गया हो, तो किसी रूपांतरण की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन हमें भरोसा नहीं आया है और हमें भरोसा आ भी नहीं सकता है। हम भरोसा नहीं कर सकते हैं--किसी को कैसे भरोसा आ सकता है?
व्यक्ति जान सकता है और उसे भरोसा आ सकता है लेकिन भरोसा किसी और के माध्यम से मेरे माध्यम से कैसे आ सकता है। तुम्हें भरोसा कैसे आ सकता है? और अगर तुम्हें भरोसा आ गया है, तो इस भरोसे का अस्तित्व बौद्धिक होने के लिए बाध्य है। लेकिन एक बौद्धिक भरोसा वास्तव में कोई भरोसा नहीं है।
मैं तुम्हें भरोसा दिलाने का प्रयास नहीं कर रहा हूं। मैं तो बस तुम्हें कुछ बता रहा हूं मैं तुम्हें तथ्य संप्रेषित कर रहा हूं। मैं तुम्हें कोई भरोसा दिलाने का प्रयास नहीं कर रहा हूं।

विश्वास करने और अनुभव में क्या संबंध है? क्योंकि मैं
आपसे सहमत हूं कि अगर आप पहले से ही किसी ऐसी
चीज के बारे में बात नहीं कर रहे हैं जिसका आप अनुभव
कर चुके हैं तो आपको विश्वास नहीं आ सकता है। इस
प्रकार के सत्य का रूपांतरण कैसे किया जाए जिससे मैं
कह सकूं : यह सत्य है?


मैं समझता हूं। यहां पर कोई 'कैसे' नहीं है। क्योंकि कैसे का अर्थ है कोई विधि है। यहां पर एक जागरण है। यहां पर कोई कैसे नहीं है। अगर तुम मुझे सुन रहे हो और तुम्हारे द्वारा कुछ अनुभव किया जाता है कि यह सत्य हो सकता है--अगर तुम्हारे साथ यह घटित हो जाता है, यह अनुभूति इसका अर्थ है कि यह सत्य हो सकता है। यह तुम्हारे साथ क्यों घटित होता है? क्योंकि यहां पर दो संभावनाएं है या तो तुम मेरे तर्क से संतुष्ट हो गए हो या तुम इसे अपने भीतर एक तथ्य के रूप में देखते हो। ये दो बातें हैं।
अगर मेरा तर्क एक संतुष्टि बन जाता है तो तुम पूछोगे कैसे? यदि जो मैं कह रहा हूं तुम्हारे द्वारा एक तथ्य के रूप में अनुभव किया जा चुका है कि हां ज्ञान मुझ से भिन्न कोई चीज है। मैं ज्ञान नहीं हूं। अगर यह एक अनुभव की तरह घटित होता है तो जब मैं यह बोल रहा हूं तब इसके घटने की संभावना है। यहां पर यह संभावना भी है कि मेरा तर्क तुम्हारे मन में जा रहा हो। अगर मेरा तर्क वहां चला जाता है तब किसी कैसे का कोई प्रश्न नहीं उठेगा।
जब बुद्धि संतुष्ट हो जाती है तो यह पूछती है ' कैसे? इसे जानने की क्या विधि है?' लेकिन मैं तुम्हें कोई तर्क नहीं दे रहा हूं। मैं तुम्हें सिद्धांत नहीं दे रहा हूं। मैं तो बस अपना अनुभव बता रहा हूं। और मैं भली भांति जानता हूं कि यहां पर दोनों संभावनाएं होती हैं।
जब तुम मुझे सुन रहे हो तो तुम मुझे ऐसे भी सुन सकते हो जैसे कि कोई व्यक्ति तुम से कोई बात कह रहा हो, या तुम इस तरह से सुन सकते हो जैसे कि तुम्हारे भीतर कुछ घटित हो रहा हो। जब मैं कहता हूं कि स्मृति एक संचय है जो मुझ. से भिन्न है कि स्मृति कुछ ऐसी है जो मृत है, यह अतीत की छाया मात्र है, वह जिसको मैंने जाना है कि अतीत से कुछ जो मेरे साथ लटका हुआ है लेकिन मैं इससे भिन्न हूं--जब मैं इसके बारे में बात कर रहा हूं अगर यही तुम्हें एक अनुभूति के रूप में घटित होता है, या तुम अपनी स्मृति की प्रक्रिया और अपने बारे में और अपनी चेतना के बारे में कोई झलक पा जाते हो—तब वहा पर कोई 'कैसे' नहीं होता है। तब कुछ घटित हो गया है, और यह 'कुछ' तुम्हारे भीतर प्रविष्ट होता चला जाएगा किसी विधि के द्वारा नहीं बल्कि तुम्हारी सजगता के माध्यम से दिन प्रतिदिन, पल-पल तुम्हारे ज्ञान के बारे में तुम्हारी स्मृति के बारे में और तुम्हारे स्व के बारे में--यह स्मरण यह सतत स्मरण, किसी ऐसी चीज के चारों ओर जो उससे अलग है जिसे मैं जान चुका हूं।
चेतना की विषय-वस्तु से चेतना कुछ भिन्न है। अगर यह हर पल का बोध बन जाता है--जब तुम चल रहे हो जब तुम बातचीत कर रहे हो जब तुम देख रहे हो, जब तुम खा रहे हो जब तुम सोने जा रहे हो-- अगर यह सतत सजगता बन जाता है कि मैं उस स्मृति से जो निर्मित की गई संचित की गई है, अलग कुछ और हूं कि यह मन में बनाई गई है, यह मन एक कंप्यूटर है, कंप्यूटरीकृत पूर्व-निर्मित प्रणाली है... अगर यह एक सतत जागरूकता बन जाती है विधि नहीं, अगर तुम इसके प्रति सजग हो गए हो तो कुछ घटित हो जाएगा।
कोई नहीं कह सकता कि कब कोई नहीं कह सकता है कि कैसे, कोई नहीं कह सकता है कि कहां यह घटित होगा। अगर यह सजगता जारी रहे चलती रहे चलती चली जाए तो यह स्वत: ही गहरी से और गहरी हो जाती है। यह एक अपने आप चलने वाली प्रक्रिया है। यह और गहरी हो जाती है बुद्धि से यह तुम्हारे हृदय में चली जाती है, और बुद्धिमत्ता से यह तुम्हारे भाव मन पर चली जाती है, चेतन से यह धीरे- धीरे अवचेतन में चली जाती है। किसी दिन तुम पूरी तरह से जागे हुए होते हो। कुछ घटित हो गया है--विकास की भांति नहीं, बल्कि एक तथ्य के स्मरण की सह-उत्पत्ति के रूप में। किसी कपोल-कल्पना सिद्धांत नीति, उपाय के कल्टीवेशन संवर्धन से नहीं बल्कि भीतर के एक तथ्य भीतर के विभाजन के प्रति जाग जाने से जो तुम्हारे भीतर कुछ गहराई तक चला गया है।
जब यह क्षण आता है तो पूरी तरह से अप्रत्याशित अज्ञात एक विस्फोट की तरह आता है। और विस्फोट के उस क्षण में तुम पूरी तरह से खाली हो--तुम नहीं हो। तुम्हारा होना मिट चुका है। वहां कोई बुद्धि नहीं है वहां कोई तर्क नहीं है वहां कोई स्मृति नहीं है। वहां पर बस सरल चेतना है' 'ना-कुछ' के प्रति चेतना। और उस ना-कुछ में उसका साक्षात है उसी ना-कुछ में उपलब्धि है उसी ना-कुछ में ज्ञान है, लेकिन नितांत भिन्न अथई में ज्ञान। अब वहां जानने वाला कोई नहीं है अब वहां जाना गया भी कुछ नहीं है। वहां पर बस सरल प्रवाहमान ज्ञान है केवल जानने का अस्तित्व है। यह अस्तित्वगत बात है।
और इसको बताया नहीं जा सकता है। ना-कुछ में क्या है वह ना-कुछ कैसा है इसे कहा नहीं जा सकता है। लेकिन उसके सिवाय सभी कुछ कहा जा सकता है। निस्संदेह यह कहना नकारात्मक होगा क्योंकि अंतर्तम, वह सर्वाधिक यथार्थ वह परम उसके बारे में बात नहीं की जा सकती है--केवल उस ओर का पथ प्रक्रिया को बताया जा सकता है। और उस प्रक्रिया की एक विधि के रूप में कल्पना नहीं की जा सकती है, क्योंकि विधि का अभ्यास करना पड़ता है। स्मरण का अभ्यास नहीं किया जा सकता है। या तो तुम्हे याद है, या तुम्हें याद नहीं है।

जैसा कि मुझे समझ में आया है : सजगता के द्वारा
अनुभूति। जब आप नकारात्मक रूप से इसे वर्गीकृत करते
हैं या इसे परिभाषित नहीं करते लेकिन नकारात्मक रूप
से संकेत कर देते हैं तो सच्चे अनुभव से विचारों को हटा
देने से आया परिणाम क्या होता है? कभी-कभी आप
योग का उल्लेख करते हैं... क्या आप इस प्रकार के किसी
अभ्यास को करते हैं या आप उसे करने का निर्देश देते हैं
या यह पूरी तरह से अंतरात्मा की खोज का एक ढंग है?
क्या आप सोचते हैं कि एक विशिष्ट प्रकार की जीवन-
शैली या जीने का कोई विशेष ढंग इसकी उपलब्धि या इस
ओर विकास के लिए आवश्यक है?


नहीं। विशिष्ट जीवन-शैली की जरूरत नहीं है, लेकिन जिस क्षण तुम सजग हो जाते हो तुम्हारा जीने का ढंग बदल जाता है तुम्हारा जीवन बदल जाएगा। लेकिन वे परिवर्तन तुम पर आएंगे उनका अभ्यास नहीं करना है। जिस पल तुम किसी बात का अभ्यास करते हो तो उसमें जो महत्वपूर्ण होता है वह खो जाता है। इसे सहज स्कूर्त रूप से तुम पर आना चाहिए।

लेकिन सहजस्कूर्त के साथ कैसे हुआ जाए क्योंकि कोई
सजगता के प्रति सजगता रखने की इच्छा कर सकता है?


नहीं इच्छा मत करो। यहां पर इच्छा करने का कोई प्रश्न नहीं है। इच्छा मत करो। बस होओ इच्छा मत करो।

नहीं... क्योंकि जो आप कह रहे हैं इच्छा करना उससे
विपरीत बात है। यह शब्दों में विरोधाभासी होगा ऐसी
राय दे देना--कि अगर तुम ना-कुछ को चाहते हो तो
उसकी इच्छा मत करो। इसलिए मैं आपसे पूरी तरह से
सहमत हूं। लेकिन क्या थोड़ा-थोड़ा करके जानते रहना


और ना-कुछ को पा लेना ठीक होगा बिना उसकी इच्छा
या चाहत के और बिना कुछ किए हुए? यह मुझे समझ में
आता है। लेकिन इच्छा को किस प्रकार से रोकें?


नहीं नहीं नहीं। इच्छा को रोकने का यहां कोई सवाल ही नहीं है। यहां पर केवल समझ का सवाल है। यहां पर किसी चीज को रोक देने या किसी बात का अभ्यास करने का कोई सवाल ही नहीं है। सवाल तो बस यह समझ लेने का है कि तुम ना-कुछ की इच्छा नहीं कर सकते। यह कोई शब्दों का विरोधाभास भर नहीं है, बल्कि यह अस्तित्वगत विरोधाभास भी है। अगर यह केवल शब्दों का विरोधाभास होता तो इस बात की पूरी संभावना थी कि यह इतना गंभीर मामला न होता लेकिन अगर यह अस्तित्वगत रूप से विरोधाभासी है तो
तुम इसकी इच्छा नहीं कर सकते, क्योंकि इच्छा कैसे भी आए यह तुम्हारे पुराने मन, तुम्हारी जानकारी से आती है--यह इच्छा तुम से आती है। और तुम्हें वहां नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम इच्छा नहीं कर सकते। तुम केवल समझ सकते हो, और समझ के द्वारा तुम्हारा होना मिट सकता है। तुम बस यही समझ सकते हो कि यह एक तथ्य है कि मैं इसके लिए इच्छा नहीं कर सकता मैं इसके लिए अभीप्सा नहीं कर सकता, मैं इसको चाह नहीं सकता। वह सब-कुछ जो मैं कर सकता हूं वह है 'मैं क्या हूं' के प्रति सजग होना।
अगर मैं इसके प्रति सजग हो जाऊं कि मैं क्या हूं तो मैं दो बातों के प्रति सजग हो जाता हूं। एक जो मैं सोच रहा था कि मैं हूं वह मैं नहीं हूं। और दो यह मैंने कभी नहीं जाना था। जब मैं अपने प्रति जैसा मैं इस क्षण में था सजग हो गया तो, वहां एक बंटवारा, एक अलगाव, एक विभाजन घटित हो जाता है। मेरे भीतर के कुछ के प्रति मैं तादात्म्य रहित हो जाता हूं।
तब वहां पर दो होते हैं मैं और मेरा। यह 'मेरा' स्मृति है, वह मेरा मन है और वह 'मैं' चेतना है वह मैं आत्मा है। इसलिए मुझे कुछ नहीं करना है मुझे जो मैं इस क्षण में हूं उसके प्रति सजग हो जाना है। बिना किसी विधि के बस सजग।
कोई तुम्हारे पास आ सकता है और वह तुम्हारी छाती पर छुरा रख सकता है। उस क्षण में--उस क्षण के एक छोटे से अंश में-- तुम सजग हो जाते हो उसके प्रति जो है। उसकी कोई विधि नहीं है। तुम नहीं पूछते हो मैं इसके प्रति सजग कैसे हो सकता हूं? तुम बस उस परिस्थिति के प्रति सजग हो जाते हो। और उस क्षण में वहां पर कोई ध्यान नहीं है। उस क्षण में वहां पर अ-मन है। उस क्षण में वहां पर कोई मैं नहीं है। उस क्षण में मैं है और वह छुरा है, और वह परिस्थिति है, और बीच में कुछ भी नहीं है। लेकिन यह क्षण सेकंड के एक भाग के लिए रहता है--और फिर मेरा भीतर आ जाता है और कार्य करने लगता है क्या किया जाए?
खतरे के क्षणों में कभी-कभी तुम सहजस्कूर्त रूप से सजग हो जाते हो। इस बात की पूरी संभावना है कि इसी के कारण खतरे में एक आकर्षण हो जाएगा। तब खतरे की खोज की जाएगी उस क्षण के कारण इस क्षण के उस अंश के कारण उस सजगता के कारण खतरे की तलाश की जाती है।
अगर तुम मुझे सुन रहे हो और इस बारे में नहीं सोच रहे हो कि बाद में क्या किया जाना है, बल्कि बस मुझे सुन रहे हो तो कुछ समय बाद तुम सजग हो जाते हो। और यह मत पूछो कि कैसे क्योंकि एक असंभव बात है यह। जो मैं कह रहा हू उसके प्रति एक आंतरिक प्रक्रिया की भांति सजग हो जाओ-- तब तुम इसे देखते रहो तब यह एक विश्वास बन जाता है, मेरे तर्क के माध्यम से नहीं बल्कि एक तथ्य के तुम्हारे द्वारा किए गए स्मरण के माध्यम से।
तुम्हें मुझे सुनना चाहिए और साथ ही साथ अपने अंतर्मन को भी सुनना चाहिए। यह प्रक्रिया पूरे समय चलती रहनी चाहिए। जो मैं कह रहा हूं वह तुम्हारे 'मैं' का भाग बन रहा है, यह तुम्हारे मैं का भाग बन रहा है--यह तुम्हारी जानकारी का भाग बन रहा है। यह जानकारी पूछेगी कि रूपांतरण कैसे हो, यह जानकारी और अधिक जानकारी की मांग करेगी--'कैसे' के बारे में, विधि के बारे में। और अगर कोई विधि बता दी जाती है) तो वह भी तुम्हारी जानकारी का हिस्सा बन जाती है। तुम्हारा 'मैं' मजबूत हो जाएगा यह और अधिक जानकार बन जाएगा।
मेरा जोर तुम्हारे 'मैं' पर नहीं है। मैं तुम्हारे 'मैं' से बात नहीं कर रहा हू। अगर तुम्हारा 'मैं' बीच में आ जाता है तो वार्तालाप संप्रेषण नहीं बन सकता है। यह बस एक वार्तालाप है एक परिचर्चा है संवाद नहीं। यह संवाद बन जाता है अगर वहां पर कोई 'मैं न हो। यदि तुम वहां पर हो--नहीं अगर तुम अपने मैं' के माध्यम से यहां पर नहीं हो, तब वहां पर 'कैसे' का कोई प्रश्न नहीं उठता। जो मैं कह रहा हूं वह यह है कि या तो इसे एक सत्य की भांति देखा जा सकेगा या असत्य की भांति या तो एक तथ्य के रूप में या किसी अनर्गल सिद्धांत के रूप में। अगर यह एक तथ्य है तो कुछ घटित हो चुका है अगर यह एक कपोल कल्पना भर है तो इसका कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।
इसलिए मेरी रुचि तो बस एक स्थिति निर्मित करने में है--या तो बोल कर या मौन के द्वारा या तुम्हें इस प्रकार से शिक्षित करके ऐसी स्थिति निर्मित कर देनी है जहां तुम्हारा 'मैं' किसी प्रकार से बाहर आ जाए...तुम्हारा 'मैं' बाहर निकल आए तुम्हारा मैं तुम्हारे 'मेरे' को पार कर ले। इसलिए मैं अपने मित्रों के साथ जो कर रहा हूं वह है अनेक स्थितियां निर्मित करने का प्रयास।

किस प्रकार की स्थितियां?

यह भी एक प्रकार की स्थिति है; यह भी एक तरह की स्थिति है। मैं तुमसे असंगत बातें कह रहा हूं, वेबूझ बातें। क्योंकि मैं कुछ उपलब्ध करने के लिए कह रहा हूं और फिर भी किसी विधि से इनकार कर रहा हूं। यह बात असंगत है। अब मैं कुछ कह रहा हू और फिर भी यह कह रहा हूं कि इसे नहीं कहा जा सकता है जो कि असंगत बात है।

लेकिन क्या यही एक मात्र संभव उपाय है?

यही एक मात्र संभव उपाय है। यही एक मात्र संभव उपाय है क्योंकि यह अपने आप में खुद ही एक असंगत बात है जो स्थिति को निर्मित कर सकती है। अगर मैं तुम्हें समझा कर संतुष्ट कर दूं, तो इससे यह परिस्थिति निर्मित नहीं होगी। यह तुम्हारे 'मेरा' का तुम्हारी जानकारी का हिस्सा बन जाएगा। नहीं। मुझे इस प्रकार से तुम्हें संतुष्ट कर देना पड़ेगा कि तुम्हारा मेरा संतुष्ट न हो। तुम्हारा ' मेरा ' पूछता रहे कैसे? रास्ता क्या है? मैं रास्ते को इनकार कर दूंगा और फिर भी रूपांतरण की बात करूंगा। केवल तब यह स्थिति असंगत हो जाती है स्थिति इतनी अतर्क्य हो जाती है कि तुम्हारा मन संतुष्ट नहीं होता है। तभी उस पार का कुछ जाग्रत हो सकता है और अर्थवत्ता को उपलब्ध किया जा सकता है।
इसलिए मैं स्थितियां निर्मित कर रहा हूं। सारे समय मैं स्थितियां निर्मित कर रहा हूं। जैसे कि किसी बौद्धिक व्यक्ति से परिचित होता हूं तो बौद्धिक व्यक्ति के लिए, असंगतता ऐसी स्थिति होनी चाहिए। कोई व्यक्ति जो...

एक बौद्धिक व्यक्ति और असंगत यह तो विरोधाभास
हुआ?


नहीं वह एक संभावना है वह एक संभावना है उसमें एक आकर्षण होना ही चाहिए उसमें अभिरुचि उत्पन्न होना चाहिए।
गैर-बौद्धिक व्यक्ति के साथ असंगतता में कोई अर्थ नहीं है। उसे कुछ और आकर्षित करेगा। इसलिए यह व्यक्ति-व्यक्ति के साथ अलग-अलग होता है। जब कोई व्यक्ति मेरे पास आता है इसका अर्थ है कि अगर मैं उससे प्रेम करता हूं तो उसे असंगत परिस्थिति में डाल दिया जाता है। जिससे कि वह सजग हो जाता है। हम केवल तभी सजग होते हैं जब कुछ असंगत घटित हो गया हो, कुछ ऐसा जिसे सातत्य में न रखा जा सके--कुछ ऐसा जिससे एक अंतराल निर्मित हो ही जाए कुछ ऐसा जो झकझोरने वाला हो उलझाने वाला। इसलिए कि यह उलझन--एक उलझन जो तुम्हारे लिए उलझन है, हो सकता है कि मेरे लिए या किसी और के लिए उलझन न हो।
मुझे बुद्ध के जीवन की एक घटना याद आती है।
एक सुबह कोई उनसे पूछता है क्या ईश्वर है? मैं विश्वास करता हूं मैं विश्वासी हूं और मैं सर्वशक्तिमान ईश्वर में भरोसा करता हूं।
बुद्ध ने इससे पूरी तरह इनकार कर दिया, 'कोई ईश्वर नहीं है। कभी कोई ईश्वर नहीं था और उसके होने की कोई संभावना भी नहीं है। तुम कैसी व्यर्थ की बेतुकी बातें कर रहे हो।' वह व्यक्ति हक्का-बक्का रह गया। लेकिन स्थिति निर्मित हो गई।
दोपहर बाद एक और व्यक्ति बुद्ध के पास आता है और कहता है 'मैं एक नास्तिक हूं। मैं किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करता हूं। क्या कहीं कोई ईश्वर है? आप क्या कहते हैं?'
बुद्ध कहते हैं 'केवल ईश्वर है। उसके सिवाय किसी और का अस्तित्व ही नहीं है।' वह व्यक्ति हक्काबक्का रह जाता है।
लेकिन वह भिक्षु जो सदा बुद्ध के साथ रहा करता है और भी अधिक हक्काबक्का रह गया क्योंकि उसने दोनों उत्तर सुने थे। वह समय की तलाश में रहता है कि जब बुद्ध अकेले हों तो उसकी जिज्ञासा शांत हो सके। वह भिक्षु बेचैन है--सुबह बुद्ध ने कहा कोई ईश्वर नहीं है। दोपहर के बाद कहा : केवल ईश्वर है।
शाम को एक तीसरा व्यक्ति आता है और बुद्ध से पूछता है 'मैं अज्ञानी हूं! मैं न तो विश्वास करता हूं और न ही अविश्वास करता हूं। आप क्या सोचते हैं? ईश्वर है या नहीं है? बुद्ध चुप रहे। वह व्यक्ति चौंक गया। लेकिन वह भिक्षु और भी अधिक हक्काबक्का हो गया।
उस रात वह भिक्षु आनंद बुद्ध से पूछता है? हे बुद्ध! कृपया पहले मुझे उत्तर दें। आपने मेरा परम सत्य छीन लिया है। मैं मुसीबत में पड़ गया हूं। इन असंगत उत्तरों से आपका क्या आशय है? ये विरोधाभासी उत्तर?
बुद्ध कहते हैं 'उनमें से कोई भी उत्तर तुम्हें नहीं दिया गया था। तुमने उन्हें क्यों ले लिया है! वे उत्तर उन व्यक्तियों को दिए गए थे जिन्होंने उन्हें पूछा था। तुमने क्यों सुन लिया है?
उस भिक्षु आनंद ने कहा आप मुझे और भी अधिक उलझन में डाल रहे हैं। मैं आपके साथ था इसलिए मैंने दोनों उत्तरों को सुन लिया है, लेकिन इन उत्तरों ने मुझे उलझन में डाल दिया है।
बुद्ध ने कहा. तो अब मैं सोने जा रहा हूं। अपनी उलझन में बने रहो। (यह तुम्हारे लिए उत्तर है।)
एक परिस्थिति निर्मित की जा सकती है। यहां पर यही संभावना है 'एक परिस्थिति निर्मित की जा सकती है। झेन फकीर उसे अपने निजी ढंग से निर्मित करता है। वह तुम्हें दरवाजे से बाहर धक्का दे सकता है, या तुम्हारे चेहरे पर चौटा मार सकता है और एक स्थिति निर्मित हो जाती है जो असंगत है। तुमने कुछ पूछा है और वह कुछ और उत्तर देगा। कोई पूछता है, 'मार्ग क्या है?' और झेन फकीर उत्तर दे देता है--यह। उत्तर मार्ग से जरा भी संबंद्धित नहीं होता। वह कहता है ' नदी को देखो!' या 'वृक्ष को देखो!' यह कितना ऊंचा है! या जरा पत्तियों को देखो, कैसे वे (धूप और हवा) छान रही हैं। यह असंगत है। मन सातत्य खोजता है। यह असंगतता से भयभीत है। यह अतर्क्य से और अज्ञात से और जो उससे परे है उन सभी से डरा हुआ है। यह घुमक्कड़ है। और सत्य बुद्धिकरण का सह-उत्पाद नहीं है। सत्य न तो कुछ घटाना है और न ही कुछ बढ़ाना है। यह तर्क नहीं है। यह कोई तार्किक निष्पत्ति भी नहीं है।
इसलिए मैं तो बस यह कह सकता हूं कि मैं एक परिस्थिति निर्मित कर रहा हूं। मैं तुम्हें कुछ संप्रेषित नहीं कर रहा हूं। मैं बस एक परिस्थिति निर्मित कर रहा हूं और यदि परिस्थिति निर्मित हो जाती है तो कुछ ऐसा जो संप्रेषित नहीं हो सकता है, संप्रेषित किया जा सकता है।
इसलिए मत पूछो, कैसे! बस हो रहो। यदि तुम हो सको तो सजग हो जाओ, यदि तुम न हो सको तो अपने न हो सकने के प्रति सजग हो जाओ। होशपूर्ण हो रहो, यदि तुम होशपूर्ण न हो सको तो अपनी बेहोशी के प्रति होशपूर्ण हो जाओ। जो है उस पर अवधान दो। यदि तुम ऐसा न कर सको तो अपने अवधान न दे पाने के प्रति अवधान दो। और घटना घटेगी। घटना घटती है।

जब आप इसको घटित होते हुए देखते हैं तो आप अनुभव
के कैसा होने की अपेक्षा रखते हैं? क्या ऐसा हो सकता है
कि वहां जो अनुभूति निर्मित होती हो वह अच्छे प्रकार की
न हो जैसा कि आप कह चुके हैं कि यह पहले से ही पूरी
तरह से असंगत है। यह दूसरे लोगों को उलझा देने की
संभावना है--क्या यह एक खतरा नहीं है?


नहीं-नहीं लोग पहले से ही उलझे हुए हैं। लेकिन क्योंकि वे पहले से ही उलझे हुए हैं, इसलिए उन्होंने अपनी उलझनों से तादात्म्य कर लिया है। वे इनके साथ आराम में हो गए हैं। ये उनकी आदत बन चुका है। यह सभी कुछ हो गया है। हम पहले से ही उलझे हुए हैं क्योंकि ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि कोई व्यक्ति उलझा हुआ न हो और सत्य को न जानता हो। उलझन हमारी परिस्थिति है। जब मैं तुम्हें उलझाता हूं तुम्हारी उलझन उलझ जाती है। इसीलिए ठीक उलटा प्रतीत होता है। उलझन का उलझ जाना नकारात्मक है। तब पहली बार तुम शांत हो जाते हो। कारण यह है कि अब वहां उलझन नहीं है। यह कोई परिणाम नहीं है बल्कि यह उस संदेश को संप्रेषित करने का एक ढंग है, जिसको मूलत: संप्रेषित नहीं किया जा सकता।
तुम क्या पूछ रहे हो, तुम पूछ रहे हो : 'क्या उपलब्ध होगा? परिणाम क्या होगा?' कुछ कहा जा सकता है इस शर्त के साथ कि उसे सत्य न समझ लिया जाए। इसे केवल एक प्रतीकात्मक की, काव्य की, पुराण की भांति ग्रहण कर लिया जाए। अगर तुमने इसे एक पुराण कथा के रूप में ग्रहण कर लिया है तो यह संभव है कि किसी चीज की ओर संकेत किया जा सके। अगर तुमने इसे सत्य की भांति ग्रहण कर लिया है तो इस बात की पूरी संभावना है कि उस चीज को जानने में रुकावट आ सकती है।
पुराण के साथ बात यह है कि हर वह शास्त्र जो धार्मिक है उसे पुराण माना जाता है पर हर वह स्वीकारोक्ति जो उस व्यक्ति से आई है जो इस घटना से होकर गुजरा है तो उन अर्थों में यह बात असत्य है--जब तक कि तुम यह न समझ लो कि यह बात केवल संकेत कर सकती है। यह सत्य नहीं है बल्कि केवल एक संकेत है। और इसके पहले कि सत्य को जाना जा सके संकेत को भुला देना चाहिए।
तीन शब्द हैं जो अंतिम रेखा, सीमा रेखा हैं। उनके पार मौन आ जाता है। सीमा के ये तीन शब्द हैं सत्-चित्-आनंद। सत्-चित्-आनंद अस्तित्व-शुद्ध अस्तित्व चैतन्य- शुद्ध चैतन्य; आनंद-शुद्ध आनंद। ये तीन शब्द हैं जो एक को निर्मित करते हैं।
ये तीन शब्द इसके आयाम हैं या आयाम भी नहीं हैं। जब हम इसकी धारणा बनाते हैं तो यह तीन भागों में बंट जाता है। यह एक की भांति अनुभव किया जाता है लेकिन तीन की भांति समझाया जाता है।
ये तीन पूर्ण अस्तित्व परम अस्तित्व, प्रमाणिक है-पन है-पन की प्रमाणिकता। तुम हो केवल तुम हो। न यह है न वह है। मात्र है-पन-तुम न यह हो, न वह। तुम हो, अस्तित्व किसी भी चीज से तादात्म्य के बिना। इसीलिए यह शुद्ध है।
दूसरा आनंद। प्रसन्नता नहीं हर्ष नहीं आनंद। प्रसन्नता में अप्रसन्नता की एक छाया एक स्मृति एक पृष्ठभूमि है। हर्ष में भी एक बिखरता हुआ सा तनाव होता है आराम नहीं लगातार बना रहने वाला तनाव जिसे कम होने के लिए बाहर निकलना ही पड़ता है। लेकिन आनंद आनंद है ऐसी प्रसन्नता जिसमें अप्रसन्नता की कोई भी छाया
नहीं है। आनंद है हर्ष जिसके चारों ओर कोई ऐसी घाटी नहीं है जिसमें नीचे उतरना हो। आनंद द्वैत रहित प्रसन्नता है सच्चा हर्ष है। आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है। यह मध्य-बिंदु है।
विपरीत शब्द सदा अतियां होते हैं--या तो एक छोर की अति या दूसरे छोर की। हर्ष एक है विषाद दूसरी अति है। आनंद उनके बीच का बिंदु है या उनके पार का बिंदु है, या उनका अतिक्रमण है। इसमें विषाद की गहराई और हर्ष की ऊंचाई दोनों हैं। हर्ष कभी भी गहरा नहीं होता है। यह सतह से ऊपर-ऊपर रहता है। इसमें ऊंचाई है, कोई गहराई नहीं है। विषाद गहरा है इसमें गहराई है घाटी जैसी गहराई लेकिन कोई शिखर नहीं है। आनंद दोनों है हर्ष का प्रकाश और विषाद का अंधकार गहराई और ऊंचाई दोनों एक साथ। इसलिए यह दोनों का अतिक्रमण कर लेता है। यह प्रकाश शुद्ध है। केवल अन-अति का मध्य-बिंदु ही अतिक्रमण का बिंदु बन सकता है।
और तीसरा है चैतन्य, चित्त। चित्त हमारा चेतन मन नहीं है। क्योंकि हमारा चेतन मन किसी बड़े अचेतन मन का हिस्सा है। यह कोई ऐसी चेतना नहीं है जिसके साथ में अचेतनता हो। जब तुम चेतन होते हो, तो तुम किसी के प्रति चेतन होते हो। हमारी चेतना सदा वस्तु की ओर है यह किसी के बारे में है। चित्त चेतना बस चैतन्य होना है कुछ नहीं के प्रति चैतन्य। यह चैतन्य होना है और किसी वस्तु के प्रति चैतन्य नहीं होना बस प्रकाश की तरह। हम कभी प्रकाश को नहीं देखते हैं। हम केवल प्रकाशित वस्तुओं को देखते हैं। हम प्रकाश को कभी नहीं देखते हैं प्रकाश को कभी देखा नहीं गया है--केवल वस्तुओं को प्रकाश के द्वारा देखा जाता है। जिस वस्तु पर प्रकाश पड़ता है उसे देखा जाता है प्रकाश को जैसा वह है वैसे कभी नहीं देखा गया है। इसलिए हम कभी चेतना को नहीं जानते हैं हम एक चेतना को जानते हैं जो कि सदा किसी के प्रति होती है। चित्त परम चेतना है, प्रकाश जैसी चेतना प्रकाशित वस्तुओं जैसी चेतना नहीं। चेतना किसी की ओर उन्मुख ही नहीं है। बल्कि यह उन्मुख ही नहीं है। वह प्रकाश अनंत और शुद्ध हो सकता है। इसमें कोई विषय वस्तु नहीं है। कुछ भी इसे अशुद्ध नहीं कर सकता है। यह है और यही है, और बस यही है।
ये तीन शब्द सत्-चित्-आनंद ये शब्द सकारात्मक हैं। तो ये सीमा रेखा के शब्द हैं यह वह अधिकतम बात है जिसे कहा जा सकता है। लेकिन यह अल्पतम है जिसकी अनुभूति की गई है। यह अभिव्यक्ति की अंतिम सीमा है, और अन-अभिव्यक्त में पहली छलांग है। यहां से ऐसा नहीं है कि यहा पर अंत है। यहां से आरंभ है। इस बिंदु से हमारे मन को झलक मिल सकती है। यह झलक भी हमारे संसार की हमारी जानकारी की हमारे मनों की होती है।
तो यह अभिव्यक्ति है वास्तविकता नहीं है। अगर इसे याद रखा जा सके तो कोई हानि नहीं पहुंचती है। लेकिन हमारा मन इसे भूल जाता है और यह अभिव्यक्ति सत्-चित्-आनंद एक सच्चाई बन जाती है। तो हम इसके चारों ओर सिद्धांत और नीतियां निर्मित कर लेते हैं और मन बंद हो जाता है। तब वहां कोई छलांग नहीं लगती है। यह दुर्भाग्य भारत में घटित हो गया है। इस देश में सारी परंपरा इन तीन शब्दों के चारों ओर बना दी गई है--सारे उपनिषद और वेदांत और सांख्य, ये सभी इन तीन शब्दों के चारों ओर हैं। और ये सीमा के शब्द हैं मन की सीमा रेखा। इसलिए वास्तविकता सत्-चित्-आनंद नहीं है यह उसके पार है। लेकिन शब्दों से कितना कुछ कहा जा सकता है तो इसे एक रूपक की भांति समझा जाना चाहिए। सारा धार्मिक साहित्य एक रूपक है, कुछ कहा गया है और उसे शब्द का रूप दिया गया है--उसका शब्दीकरण कर दिया गया है--जिसे आत्यंतिक रूप से शब्दों द्वारा नहीं बताया जा सकता है।
मैं तो सदा इन शब्दों का उपयोग एक पुराणकथा के रूप में करते हुए डरता हूं क्योंकि जिस पल मन जान लेता है कि क्या होने वाला है यह सिद्धांत निर्मित करने लगता है, यह उसकी अभिलाषा करने लगता है। यह उसकी चाह मांग और इच्छा करने लगता है। जब यह सत्-चित्-आनंद को चाहता है, जब यह सत्-चित्-आनंद की मांग करता है, तो ऐसे शिक्षक हैं जो इस मांग की पूर्ति करते हैं। इसमें मंत्र, तंत्र, उपाय और विधियां आ जाती हैं और इन सभी के शिक्षक हैं। हर मांग की पूर्ति कर दी जाएगी। निरर्थक मांग की पूर्ति निरर्थकता से होगी, असंगत मांग की पूर्ति असंगता से होगी। इसी तरह से सारे धर्मशास्त्र और सारी गुरु परंपराएं निर्मित हो जाती हैं।
इसलिए व्यक्ति को सारे समय इस बात के प्रति सजग रहना पड़ेगा कि वह परम को चाहत की वस्तु न बना ले उसे वस्तु की तरह पाने की इच्छा न बना ले उसे दूर की कोई चीज न बना ले कि जिसे उपलब्ध किया जाना है और जहां पर यात्रा करनी है। यह बस अभी और यहीं है। और अगर हम दूसरी आंतरिक प्रक्रियाओं के प्रति सजग हो सकें तो विस्फोट घटित हो सकता है। यह पहले से ही पास में है यह हमारे निकटतम है लेकिन हम बहुत दूर चले जाते हैं। यह ठीक हमारी बगल में है और हम लंबी तीर्थयात्रा पर जाते हैं। यह सदा हमारा छाया की भांति अनुगमन करता है, लेकिन हम इसे कभी नहीं देखते, क्योंकि हमारी आंखें दूर पर लगी हैं। हमारी आंखें बहुत दूर देख रही हैं। हम सदा दूर की कामना किए रहते हैं।
अगर व्यक्ति होना हो जाता है, और इच्छा मिट जाती है, जीवन वर्तमान में होना बन जाना चाहिए। लाओत्सु का एक वचन है : 'खोजो और तुम खो दोगे। मत खोजो और पा लो। 'वह जो खोजता है दूर चला जाता है। वह व्यक्ति जो है और खोज नहीं रहा है पास में ही पा लेता है। 'पास में भी' कहना असंगत है, क्योंकि पास में भी दूरी है। यह मैं है, पड़ोसी भी नहीं है, बल्कि खुद घर का मालिक है। पड़ोसी भी दूरी पर है। यह आतिथेय है। और आतिथेय बाहर चला गया है।

आज इतना ही 

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