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बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

02-लाल नाथ कुंभनाथ-(ओशो)

लाल नाथ कुंभनाथ : (गुरु द्वार जन्‍म)

     श्री लाल नाथ के जीवन में बड़ी अनूठी घटना से शहनाई बजी। संतों के जीवन बड़े रहस्‍य में शुरू होते है। जैसे दूर हिमालय से गंगो त्री से गंगा बहती है। छिपी है घाटियों में, पहाड़ों में, शिखरों में। वैसे ही संतों के जीवन की गंगा भी, बड़ी रहस्‍यपूर्ण गंगोत्रियों से शुरू होती है। आकस्‍मिक, अकस्‍मात, अचानक—जैसे अंधेरे में दीया जले कि तत्क्षण रोशनी हो जाये। धीमी-धीमी नहीं होती संतों के जीवन की यात्रा शुरू। शनै:-शनै: नहीं। संत छलांग लेते हे।
      जो छलांग लेते है, वही जान पाते है। जो इंच-इंच सम्हाल कर चलते है, उनके सम्हालने में ही डूब जाते हे। मंजिल उन्‍हें कभी मिलती नहीं। मंजिल दीवानों के लिए है। मंजिल के हकदार दीवाने है। मंजिल के दावेदार दीवाने हे।

      ‘’लाल’’ दीवानों में दीवाने है। उनके जीवन की यात्रा, उनके संतत्‍व की गंगा बड़े अनूठे ढंग से शुरू हुई। और तो कुछ दूसरा परिचय नहीं है। न देने की कोई जरूरत है; हो तो भी देने की कोई जरूरत नहीं है। कहां पैदा हुए, किस गांव में, किस ठांव में, किस घर-द्वार में,किन मां-बाप से—वे सब बातें गौण है और व्‍यर्थ है। संतत्‍व कैसे
पैदा हुआ,बुद्धत्‍व कैसे पैदा हुआ? राजस्‍थान में जन्‍मे इस गरीब युवक के जीवन में अचानक दीया कैसे जला;
अमावस  कैसे एक दिन पूर्णिमा हो गई—बस यही परिचय है। वही असली परिचय है। न तो संत की जात पूछना, न संत पाँत पूछना। पूछना ही मत सब व्‍यर्थ की बातें है। पता-ठिकाना मत पूछना। उसका पता तो एक है—राम। उसका जन्‍म भी वहीं, उसकी मृत्‍यु भी वहीं। उसके जीवन का सारा उदधोष वहीं है।
      लेकिन संतत्‍व की किरण कैसे उतरी, पहली किरण कैसे उतरी। फिर सूरज तो चला आता है। किरण के पीछे-पीछे चला आता है। मगर पहली किरण का उतरना जरूर समझने योग्‍य है। क्‍योंकि उसकी पहली किरण की तुम तलाश  में हो।
      और तुम्‍हारे पास से भी कहीं ऐसा न हो कि किरण आये और गुजर जाये और तुम पकड़ भी न पाओ; किरण आये और नाचती गुजर जाये और तुम्‍हें उसके पगों में बंधे घुंघरू सुनाई न पड़ें; किरण आये और शहनाई बजाय और तुम बहरे रह जाओ; किरण आये और तुम आँख बंद किये बैठे रहो।
      .....ओर किरण सदा अकस्‍मात आती हे। अनायास आती हे। किरण हमेशा अतिथि है, बिना तिथि बताये आती है। न कोई खबर देती है, न कोई पूर्व-आगमन की सूचना देती है। कब द्वार पर दस्‍तक दे देगा परमात्‍मा, कोई भी नहीं जानता। उसकी कोई भविष्‍यवाणी नहीं हो सकती। सिर्फ इस जगत में एक चीज की भविष्‍यवाणी नहीं हो सकती, वह है परमात्‍मा और तुम्‍हारा मिलन। और सब तो कार्य-कारण में बंधा है। इसलिए उसकी भविष्‍य वाणी हो सकती है। सिर्फ परमात्‍मा प्रसाद है, कार्य कारण के पार है; इसलिए उसकी कोई भविष्‍यवाणी नहीं हो सकती।
      किसी ने सोचा भी न होगा कि लाल के जीवन में ऐसा परमात्‍मा का पदार्पण होगा। लाल गौना कराकर घर लौटते थे। संगी-साथी, बैंड-बाजे, रंग-रौनक, उत्‍सव की घड़ी थी। रास्‍ते में लिखमादेसर गांव पडा। वहां पर एक अनूठे संत थे कुंभ नाथ—परमहंस थे। न कोई धर्म की चिंता न कोई पंथ था। न कोई परंपरा की। धार्मिक थे, मगर किसी धर्म से बंधे हुए नहीं थे। लुटाते थे दोनों हाथ, जो दिया था परमात्‍मा ने। और जो लुटाता है, उसे परमात्‍मा और-और दिये जाता है। यह संपदा ऐसी है कि चुकती नहीं। रोको तो नष्‍ट हो जाती है। लुटाते रहो तो बढ़ती चली जाती है।
      लौटते थे गौना कराकर,रास्‍ते में गांव पडा। सोचा कि दर्शन करते चलें। ऐसे संत के गांव से गुजर रहे है। जिसकी सुगंध दूर-दूर तक पहुंचने लगी थी। और निशचित उसे सुगंध के साथ लपटें भी थी। यह सुगंध फूलों की सुगंध नहीं है—लपटों की सुगंध हे, ज्‍वाला की सुगंध हे। संतत्‍व के साथ ही साथ क्रांति की आग भी जलती है। दूर-दूर तक कुंभनाथ की सुवास भी पहुंच रही थी। जो सुवास पहचान सकते थे। उन्‍हें सुवास मिल रही थी। जो सुवास नहीं पहचान सकते थे, परंपरा से बंधे हुए रूढ़िग्रस्त लोग थे। उन्‍हें बेचैनी हो रही थी। उनके पास आग पहुंच रही थी। सोचा, दर्शन करते चलें। और ऐसे संत का आशीर्वाद ले लेना उचित है। जीवन का प्रांरभ हो रहा है। विवाह हो रहा है। नई दुनिया में प्रवेश हो रहा है। कौन न संत के आशिष लेने चला जाये। पता नहीं था क्‍या आशिष मिलेगा। जब तुम संत के पास जाते हो तो अपने हिसाब से जाते हो। अपनी आकांशा, अपनी अभिलाषा.....। लेकिन संत जब आशिष देता है तो तुम्‍हारी अभिलाषाओं के हिसाब से नहीं देता। न तुम्‍हारी आकांक्षाओं की पूर्ति करता है। संत तो वही देता है जो दे सकता है। कुड़ा-करकट नहीं देता, हीरे देता है। कंकड़ पत्‍थर नहीं देता जवाहरात देता है।
      लाल को अब तक अपने ‘लाल’ होने का पता ही कहां था। अब तक अपने भीतर के हीरे की कोई पहचान थी। किसी ने चौंकाया भी न था। किसी ने जगाया भी न था, किसी ने पुकारा भी न था, चुनौती भी न दी थी। सोये-सोये जिंदगी गयी थी। और अब सोने का एक और बड़ा आयोजन हुआ जा रहा था। नींद की पूरी व्‍यवस्‍था हुई जा रही थी। मूर्च्‍छा, जिंदगी की आपाधापी अब पूरी तरह पकड़ने को थी। गये थे आशिष लेने, स्‍वभाविक—विवाह हो रहा है। नये जीवन का प्रारंभ है। इससे शुभ क्‍या होगा और कि किसी संत के आशीष की छाया मिले।
      लेकिन वहां गये तो कुछ और ही हाल पाय। कुंभनाथ जीवित समाधि लेने की तैयारी कर रहे थे। गड्ढा खोदा जा चुका था। बस प्रवेश की तैयारी थी। अंतिम विदा-वेला...उन्‍होंने प्रसाद बांटा। सबको प्रसाद बांट चुका। लाल को भी प्रसाद मिला। और फिर समाधि में उतरने के पहले, बडी अनूठी बात कुंभनाथ ने कही। जो से पुकारा, चारों तरफ देखा और जोर से पुकारा और कहा—‘’और है कोई लेने हारा?’’
      प्रसाद तो बांट चुके थे। सभी ने ले लिया था। लाल भी ले चुके थे प्रसाद। अब यह किसी और ही प्रसाद की बात थी जो दिखाई नहीं पड़ती। जो लेने-देने में नहीं आती,जो हस्ता रित नहीं होता। मगर फिर भी छलाँगें लेता है, एक ह्रदय से दूसरे ह्रदय में उतर जाता है। हाथों-हाथ तो नहीं जाता, आत्‍माओं में जाता है। खड़े होकर उस गड्ढे पर, जिसमें जल्‍दी ही वे डूब जाने को हैं सदा को, उस मिट्टी में जिसमें मिल जाने को है—पुकारा जोर से: ‘और है कोई लेने हारा?’ लोग तो इधर-उधर देखने लगे। सबको प्रसाद मिल चुका था। कोई बचा भी न था। और प्रसाद भी न बचा था। न तो कोई लेनेवाला बचा था। न प्रसाद बचा था। यह किस प्रसाद की बात हो रही है?
      हो गये होंगे विक्षिप्‍त, सोचा होगा लोगों ने। होंगे ही विक्षिप्‍त, नहीं तो कोई जीवित समाधि लेता है। आदमी जीने के लिए कितने आयोजन करता हे। मरता रहे तो भी जीता है। सड़ता रहे तो भी जीता है। कीड़े पड़ जाऐं शरीर में तो भी जीता है। कैंसर पकड़े, क्षयरोग हो, लूला हो, लँगड़ा हो, कोढ़ी हो, नालियों में पडा रहे—तो भी जीता है, तो भी जीना चाहता है, ऐसी जीवेषणा है, यह होगा ही आदमी विक्षिप्‍त, अपने हाथ से कब्र खोदी है। अपनी कब्र खोदी है, अपनी कब्र में समाने को जा रहा है। जरूर अब इसका मस्‍तिष्‍क बिलकुल खराब हो गया है।
      प्रसाद बंट चुका, सभी को प्रसाद मिल चुका। न प्रसाद है पास, न कोई लेने वाला है अब और। तब यह आदमी चिल्‍ला रहा है कि ‘’और है कोई लेने हारा।‘’
      लोग तो एक दूसरे की तरफ देखने लगे, लेकिन लाल पहुंच गये। हाथ भिखारी की तरह फैलाकर बैठ गये सामने। आंखों से आंसुओं की धार....। कुछ घटा, कुछ वैसा घटा, जैसा बुद्ध और महा काश्यप के बीच घटा की, कि बुद्ध लेकर फूल आये थे सुबह और बैठ गये थे फूल को देखते, ....। लोग थक गये। लोग प्रवचन सुनने आये थे। और ऐसा बुद्ध ने कभी भी न किया था कि हाथ में फूल लेकिर बैठ गये और उसी को देखते रहे और लोगों को भूल ही गये। खेर दो-चार मिनट बीते तो ठीक था, घड़ी बीतने लगीं, घंटा बीतने लगा। लोग बेचैन होने लगे, उद्विग्‍न होने लगे। यह कब तक चलेगी बात, यह समय बहुत लंबा मालूम होने लगा। यह बुद्ध को आज क्‍या हो गया है।
      और तब महा काश्यप हंसा था। और जौर से हंसा था। खिलखिला कर हंसा था। और बुद्ध ने आंखे उठाई थीं और महा काश्यप को कहा थ कि आ, मेरे पास आ। तेरी मुझे तलाश थी। जिसकी मुझे तलाश थी, वह मिल गया। यह फूल ले। जो मैं शब्‍दों से दे सकता था वह मैंने दूसरों को दिया है। जो शब्‍दों से नहीं दिया जा सकता वह मैं तुझे देता हूं।
      जैसा महा काश्यप ओ बुद्ध के बीच कुछ घटा था। जो देखनेवालों को दिखाई नहीं पडा था कि क्‍या बुद्ध ने दिया, क्‍या महा काश्यप ने लिया? सदिया बीत गयी है अब, पच्‍चीस सौ वर्ष बीत गये है, बुद्ध को प्रेम करनेवाले अब भी पूछते है, अब भी विचार करते है कि कौन सा हस्‍तांतरण हुआ था। फूल दिया था, वह तो दिखाई पडा था। मगर बुद्ध ने कहा: ‘’जो मैं नहीं दे सकता शब्‍दों से वह मैं तुझे देता हूं। जो मैं शब्‍दों से दे सकता था वह मैंने दूसरों को दे दिया है। जो शब्‍दों से नहीं दिया जा सकता वह मैं तुझे देता हूं। शब्‍दों के पार, शास्‍त्रों के पास,न कहा जा सके जो, अनिर्वचनीय है जो अव्‍याख्‍य है जो—वह क्‍या है, बुद्ध ने क्‍या दिया था महा काश्यप को? ‘’
      लेकिन कम से कम बुद्ध ने फूल तो दिया था। कुंभनाथ और लाल के बीच तो फूल भी नहीं दिया-लिया गया। कुछ दिया ही लिया नहीं गया। लेकिन प्रसाद बरसा। शहनाई बजी। धूप खो गयी, प्राण शीतल हुए। संगीत जन्‍मा। लाल तो रूपांतरित हो गये—उस झुकने में ही रूपांतरित हो गये। लाल को पहली दफा अपने भीतर का लाल दिखाई पडा। पहली बार अपने भीतर के खज़ाने का अनुभव हुआ। जैसे इस सत्पुरुष की मौजूदगी में इसकी रोशनी में अंधरा टूटा। अपनी पहचान हुई आत्‍म परिचय हुआ, झुक गये चरणों में । मरते-मरते कुंभ नाथ एक दिया जला गये, एक ज्‍योति जला गये—एक मशाल। जाते-जाते पूछते है: ‘’और हे कोई लेने हारा?’’ मिल गया एक लेन हारा, थे बहुत लोग। सैंकड़ो लोग मौजूद थे। मगर एक ने पुकार सुनी। एक ने हाथ फैला ये, एक ने झोली फैलायी। एक झुकने को राज़ी हुआ। तो जो झुका, वह भर गया। एक मिटने को राज़ी हुआ; तो जो मिटा, वह जन्‍म गया।
      लाल की जिंदगी बदल गयीं। या यूं कहो, लाल का पहली दफा जन्‍म हुआ, जिन्‍दगी मिली। अब तक जैसे एक नींद थी; नींद भी क्‍या, दुःस्वप्न, फूल खीलें, कोयल बोली, अमावस मिटी, पूर्णिमा, आयी। अमृत बरसा। मृत्‍यु गयी। गया वह सब जिसे कल तक महत्‍वपूर्ण समझा था। और कल तक जिसकी कोई खबर न ली थी। उस तरफ आँख गयी। उसकी पहचान हुई। अमृत से संबंध जुड़ा। एकदम जैसे भभक उठे। ज्‍योतिर्मय हो गये। हजारों लोगों ने यह चमत्‍कार देखा था। जब उठे तो दूसरा ही व्‍यक्‍ति था; जब हाथ फैलाने बैठे थे तो कोई दूसरा ही व्‍यक्‍ति था। जो बैठा थ, एक साधारण-सा युवक था। जो अभी विवाह करवाकर लौट रहा है। संगी-साथी है, बैंड-बाजा है, बारात है....। तब उठे तो उन आंखों में कोई गहराई थी, जिसे मापने का कोई उपाय नहीं। उस चेहरे पर कुछ आभा भी, जो इस लोक की नहीं है।
      मित्रों को तो बहुत हैरानी हुई। ईर्ष्‍या भी हुई होगी। चोट भी लगा होगी। मित्रों न ताने भी कसे। मित्रों ने कहा कि तब फिर विवाह ही क्‍यों किया। जब यही करना था तो दो दिन पहले कर लेते। जब संन्‍यस्‍त होना था, तो दो दिन पहले हो लेते। जब यह गैरिक रंग में रँगना था तो दो दिन पहले क्‍या बिगड़ा। विवाह क्‍यों किया?
      जवाब था: ‘’बेहड़ा लिखिया न टलै दिया अंट बुलाए।‘’
लाल ने कहा: ‘’विधाता ने जो लिख दिया था, वह कैसे टल सकता हे। फेरे लिखना हो चुका था, सो फेरे हुए। फेरे बदे थे, सो फेरे हुए। जो होना था। सो हुआ। यह भी होना था। फेरों के बाद ही  होना था, सो बाद में हुआ।
      लेकिन जब वास्‍तविक क्रांति घटती है। तो उसके दूरगामी परिणाम होते है। नव वधू लाल में रूपांतरण को देखकर स्‍वयं भी रूपांतरित हो गयी। लाल भी डूब गये ध्‍यान में, नयी-नयी विवाहिता युवती भी डूब गयी ध्‍यान में। भूल गये दोनों संसार। गुरु जाते-जाते एक अपूर्व व्‍यक्‍ति को जन्‍म दे गये।

--ओशो
हंसा तो मोती चुगैं,
प्रवचन—01

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