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मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

11-धनी धर्मदास-(ओशो)

11-धनी धर्मदास-भारत के संत

का सोवे दिन रैन—जस पनिहार धरे सिर गागर-(ओशो)

धनी धरमदास की भी ऐसी ही अवस्था थी। धन था, पद थी, प्रतिष्ठा थी। पंडित-पुरोहित घर में पूजा करते थे। अपना मंदिर था। और खूब तीर्थयात्रा करते थे। शास्त्र का वाचन चलता था, सुविधा थी बहुत, सत्संग करते थे। लेकिन जब तक कबीर से मिलन न हुआ तब तक जीवन नीरस था। जब तक कबीर से मिलना न हुआ तब तक जीवन में फूल न खिला था। कबीर को देखते ही अड़चन शुरू हुई, कबीर को देखते ही चिंता पैदा हुई, कबीर को देखते ही दिखाई पड़ा कि मैं तो खाली का खाली रह गया हूं। ये सब पूजा-पाठ, ये सब यज्ञ-हवन, ये पंडित और पुरोहित किसी काम नहीं आए हैं। मेरी सारी अर्चनाएं पानी में चली गई हैं। मुझे मिला क्या? कबीर को देखा तो समझ में आया कि मुझे मिला क्या? मिले हुए को देखा तो समझ में आया कि मुझे मिला क्या?

इसलिए तो लोग जिसे मिल गया है उसके पास जाने से डरते हैं। क्योंकि उसके पास जाकर कहीं अपनी दीनता और दरिद्रता दिखाई न पड़ जाए। लोग उनके पास जाते हैं जो तुम जैसे ही दरिद्र हैं। उनके पास जाने से तुम्हें कोई अड़चन नहीं होती, चिंता नहीं होती, संताप नहीं होता।


अब तुम थोड़ा समझना, आमतौर से लोग साधु-संतों के पास संतोष पाने जाते हैं, संताप पाने नहीं। लोग कहते हैं संतुष्ट नहीं हैं हम इसलिए तो जाते हैं। सांत्वना चाहिए। संताप तो वैसे ही बहुत है। लेकिन मैं तुमसे कहूं कि सच्चे साधु के पास जाकर तुम पहली दफा संताप से भरोगे। पहली दफा तुम्हारी जिंदगी में असली चिंता का जन्म होगा। पहली दफा बवंडर उठेगा। पहली दफा आंख खुलेगी कि अब तक जो किया, वह व्यर्थ है। और जो सार्थक है वह तो अभी शुरू भी नहीं हुआ। स्वभावतः प्राण कंप जाएंगे, छाती हिल जाएगी। फिर छाती चाहिए आगे बढ़ने को। लेकिन फिर पीछे भी नहीं लौटा जा सकता है। एक बार किसी ज्ञानी से आंख मिल जाए तो फिर पीछे भी लौटा नहीं जा सकता। इसलिए लोग ज्ञानियों से आंख चुराते हैं, आंख बचाते हैं। जिनके पास कुछ भी नहीं है उनके चरण छूने में कोई अड़चन नहीं है। ज्ञानियों के पास लोग सम्हल-सम्हल कर जाते हैं। उनसे लगाव लगाना खतरे का सौदा है।
जिस साधु के पास जाकर तुम्हें सांत्वना मिलती हो समझ लेना, वह साधु ही नहीं है। साधु सांत्वना देने को थोड़े ही होते हैं! सांत्वना से तो तुम जैसे हो वैसे के वैसे रहोगे; मलहम-पट्टी हो गई। दर्द था थोड़ा, वह भी भूल गया। घाव था, उसे भी छिपा दिया। चिंताएं थीं, उनको भी हल कर दिया। कम से कम ऐसा अहसास दिला दिया कि हल हो गईं चिंताएं। असली साधु के पास तुम्हारी चिंताएं पहली दफा उमगती हैं। पहली दफा फूट पड़ता है तुम्हारा सारे भीतर का सांत्वना का बना-बनाया संसार, सब बिखर जाता है। तुम पहली दफा अपने को खंडहर की भांति देखते हो। तुम्हारे हाथ में जो धन है वह कचरा; तुम्हारे पास जो ज्ञान है वह कचरा; तुम्हारे पास जो चरित्र है वह दो कौड़ी का। तुम्हारा आचरण, तुम्हारी प्रतिष्ठा, तुम्हारा यश किसी मूल्य का नहीं है। स्वभावतः आदमी घबड़ा जाएगा। लेकिन उसी घबड़ाहट से क्रांति की शुरुआत होती है।
साधु के पास सांत्वना नहीं मिलती, संक्रांति मिलती है। और क्रांति हो जाए तो एक दिन सांत्वना आती है। लेकिन वह सांत्वना नहीं है फिर, वह परम संतोष है; वह परितोष है। वह किसी के दिए नहीं आता, वह तुम्हारे भीतर जब कमल खिल जाता है तो सब खिल जाता है। वह ऊपर से आरोपित नहीं होता।
धनी धरमदास खोजते थे। तीर्थ जाते, साधु-सत्संग करते। खूब सांत्वना बटोरते थे। फिर मथुरा में सौभाग्य से--उस दिन तो दुर्भाग्य ही लगा था--कबीर से मिलना हो गया। कबीर ने तो झंझावात की तरह सब झकझोर दिया। मूर्ति मूढ़ता मालूम होने लगी। सगुण की उपासना अज्ञान मालूम होने लगा। वे पूजा-पाठ, वे यज्ञ-हवन, सब अंधविश्वास थे। कबीर की चोट तो ऐसी पड़ी कि धरमदास तिलमिला गए। मथुरा छोड़ कर भाग गए। अपने घर चले गए वापस। बांधवगड़ में उनका घर था।
लेकिन कबीर जैसे व्यक्ति की चोट पड़ जाए तो तुम भाग नहीं सकते। कहीं भागो, कबीर तुम्हारा पीछा करेंगे। कहीं जाओ, तुम्हारे सपनों में छाया आएगी। आदमी, आदमी जैसा होना चाहिए वैसा पहली दफा देखा था, भूलो भी तो कैसे भूलो! बड़ी बेचैनी हो गई। प्रार्थना फिर भी करते लेकिन प्रार्थना में रस जाता रहा, उत्साह जाता रहा। मंदिर में थाली भी सजाते, पूजा भी उतारते लेकिन हाथों में प्राण न रहे। शास्त्र भी सुनते, लेकिन अब दिखाई पड़ने लगा कि सब कूड़ा-करकट है। दूसरों के उत्तर अपने उत्तर नहीं हैं; नहीं हो सकते हैं।
कबीर ने ऐसी चोट मारी कि नींद लेना मुश्किल हो गया। उदास रहने लगे, चिंता से भरे रहने लगे। और फिर यह भी चिंता पकड़ी कि एक ज्ञानी के पास से भाग आया। कमजोर हूं, कायर हूं। फिर कबीर की तलाश में जाना ही पड़ा। काशी में जाकर कबीर से मिले। कबीर से मिलने की घटना उन्होंने अपनी किताब ‘अमर सुखनिधान’ में गाई है। वह घटना बड़ी प्यारी है। वे वचन धनी धरमदास के समझने जैसे हैं।
धरमदास हरसित मन कीन्हा
बहुर पुरुस मोहि दरसन दीन्हा
जिसको देखा था मथुरा में फिर वही पुरुष का दर्शन हुआ। फिर वही ज्योति, फिर वही आनंद, फिर वही नृत्य।
धरमदास हरसित मन कीन्हा
मथुरा से तो लौट गए थे बहुत चिंता लेकर, उद्विग्न होकर।
यहां रोज यह घटता है। कभी कोई आ जाता है भूला-चूका तो उद्विग्न हो जाता है, परेशान हो जाता है। बस जो परेशान हो गया वह आज नहीं कल हर्षित भी हो सकता है। जो यहां से उद्विग्न होकर लौटा, वह आज नहीं कल आएगा। आना ही पड़ेगा। क्योंकि यहां से जो बीमार होकर लौटा उसका इलाज फिर कहीं और नहीं हो सकता।
जाना ही पड़ा कबीर के पास। कहाः ‘धरमदास हरसित मन कीन्हा।’ लेकिन इस बार कबीर को देख कर बड़ा हर्ष हुआ। क्या हो गया? वह जो चार-छह महीने भगोड़ेपन में बिताए कबीर से, उन चार-छह महीनों ने सारी धूल झाड़ दी। कबीर ने जो कहा था उसका सत्य दिखाई पड़ा। उसका स्वयं साक्षात्कार हुआ। आधी यात्रा पूरी हो गई।
व्यर्थ व्यर्थ की तरह दिखाई पड़ जाए तो सार्थक को सार्थक की तरह देखना सुगम हो जाता है। व्यर्थ को जब तक हम सार्थक मानते हैं तब तक सार्थक को देखें तो अड़चन होती है। झूठ को सच माना है, सच सामने खड़ा हो जाए तो बेचैनी होती है, क्योंकि जिसे तुमने सच माना था वह झूठ होने लगता है। इतने दिन उसमें लगाए, इतना धन-मन, समय लगाया। तुम्हारा न्यस्त स्वार्थ हो जाता है उसमें। अगर कोई व्यक्ति तीस साल तक एक बात को पकड़े रहा, फिर अचानक कोई और बात सुनाई पड़े जो तीस साल को गलत करती हो, तो बड़ी हिम्मत चाहिए कि मेरे तीस साल व्यर्थ गए इसे स्वीकार कर लूं। आदमी का मन होता है, मेरे और तीस साल व्यर्थ गए? मैं इतना मूढ़ हूं क्या? आदमी रक्षा करता है, बचाने की कोशिश करता है।
इन चार-छह महीनों में धरमदास ने अपने को बचाने की सब तरह कोशिश की। लेकिन कबीर का टेंडपा ऐसा है कि पड़ जाए तो सिर खुल गया था। चोट भारी थी। सब दिखाई पड़ने लगा। जो कबीर ने मथुरा में कहा था, वह दिखाई पड़ने लगा कि मूर्ति पत्थर है, किसकी पूजा कर रहे हो? ये पंडित-पुजारी, जिनकी तुम सुन रहे हो, खुद दो कौड़ी के नौकर हैं। इन्हें खुद भी कुछ पता नहीं है। ये दूसरों के कान फूंक रहे हैं, इनके कान अभी परमात्मा ने खुद नहीं फूंके हैं। ये दूसरों को मार्ग दे रहे हैं, इन्हें खुद मार्ग मिला नहीं है। इनके हृदय में अभी फूल खिला नहीं। इनके पास खुद भी सुगंध नहीं। ये सत्य बांटने चल पड़े हैं और सत्य की इन्हें कोई भी खबर नहीं है। यह छह महीने तक जो-जो कबीर ने कहा था, एक-एक बात सही मालूम पड़ी। आधी बात तो पूरी हो गई। अब कबीर की बात सुन कर चोट लगने का कोई कारण नहीं था, अब तो हर्षित होने की बात थी।
धरमदास हरसित मन कीन्हा
बहुर पुरुस मोहि दरसन दीन्हा
एक दिन जिससे भाग गए थे भयभीत होकर, आज उसके पास वापस लौटे हैं और इसलिए आनंदित हैं कि कबीर ने उन्हें पुनः दर्शन दिया। कबीर ने फिर वही झलक दी। कबीर ने वही झरोखा फिर खोला।
मन अपने तब कीन्ह बिचारा
इनकर ज्ञान महाटकसारा
इस आदमी के पास कुछ है। असली सिक्के हैं। टकसाल से निकले सिक्के हैं। मैं झूठे नकली सिक्कों में पड़ा रहा हूं।
इनकर ज्ञान महाटकसारा
दोई दिन के करता कहाई
इनकर भेद कोऊ नहीं पाई
आज पहली दफा प्रेम से भर कर, हर्ष से भर कर कबीर को देखा। पहली बार तो झिझक से देखा होगा, डरते-डरते देखा होगा, अपने को दूर-दूर रखा होगा, बीच में फासला रखा होगा, दीवाल रखी होगी। अपनी धारणाएं, अपने पक्षपात, अपना विचार, अपना सिद्धांत, उन सबकी दीवाल स्वभावतः रही होगी। उसके पार से कबीर को देखा था। आज सब हटा कर देखा। छह महीने में वे सब दीवालें अपने आप हट गईं।
गुरु मिल जाए, उसकी भनक भी पड़ जाए कान में तो फिर मिथ्या गुरु की पकड़ ज्यादा देर नहीं चल सकती। थोड़ी-बहुत देर तुम अपने को धोखा दे लो, दे लो।
इनकर भेद कोऊ नहीं पाई
आज पहली दफा आंख भर कर देखा। असीम था सामने। इस छोटी सी देह में जैसे द्वार था असीम का; जैसे अगम का मार्ग खुलता था।
इतना कह मन कीन्ह बिचारा
तब कबीर उन ओर निहारा
पहले कबीर ने जो बातें कही थीं, कह दी थीं। लेकिन गुरु निहार कर तो शिष्य की तरफ तभी देखता है, जब शिष्य हर्ष से प्रमुदित होकर गुरु के पास बैठता है।
जुन्नैद ने कहा है कि मैं अपने गुरु के पास था। तीन साल तक तो उन्होंने मेरी तरफ देखा ही नहीं। बैठा रहता उनके पास मगर वे मेरी तरफ न देखते। और लोग आते, और बातें होतीं, मैं बैठा रहता, बैठा रहता। तीन साल बाद उन्होंने मेरी तरफ निहारा। मैं धन्यभाग हो गया। फिर तीन साल तक ऐसे ही बैठा रहा, बैठा रहा। फिर तीन साल के बाद, उन्होंने मेरी तरफ देख कर मुस्कुराया। फिर और तीन साल बीत गए बैठे-बैठे। फिर एक दिन उन्होंने मुझे छुआ, मेरे कंधे पर हाथ रखा। और तीन साल बीत गए तब उन्होंने अपने गले से मुझे लगाया, आलिंगन किया। बारह साल गुरु के पास बैठे-बैठे आलिंगन की घड़ी आती है।
तब कबीर उन और निहारा
गुरु देखता ही तब है...इस बात को समझना। गुरु के देखने से मेरा मतलब यह नहीं है कि कबीर पहली दफा जब धरमदास को देखे तो आंख बंद रखे होंगे। कि कबीर को नहीं देखा, कि कबीर को दिखाई नहीं पड़े होंगे धरमदास। देखा था, बस यह ऊपर की आंख से देखा था। एक और आंख है गुरु की, उस आंख से तो कोई तभी देखा जाता है जब कोई तैयार हो जाता है। वह आंख तो तुम्हारे भीतर तभी उतर सकती है जब हर्ष तुम्हारे भीतर द्वार खोल दे। तुम्हारे भीतर चिंताएं खड़ी हैं, बेचैनियां खड़ी हैं, फिकरें खड़ी हैं, सही-गलत का हिसाब खड़ा है, संदेह खड़े हैं, अश्रद्धा खड़ी है, अनास्था खड़ी है, तो गुरु अपनी वह आंख खराब नहीं करता। उस आंख की अभी तुम्हें जरूरत नहीं है। उस आंख की जब जरूरत होती है तभी वह आंख तुममें डाली जाती है। वही आंख वास्तविक दीक्षा है। वही है गुरु के साथ जुड़ जाना। उसी आंख एक की झलक, और जोड़ बन जाता है। फिर जोड़ नहीं टूटते।
इतना कह मन कीन्ह बिचारा
इस हर्ष का विचार ही उठा था, यह आनंद का भाव ही उठा था,
तब कबीर उन ओर निहारा
आओ धरमदास पगु धारो
कबीर ने कहा धरमदास को--
आओ धरमदास पगु धारो
चिंहुक-चिंहुक तुम काहे निहारो
ऐसे दूर-दूर से, चिंहुक-चिंहुक! ऐसे डरते-डरते, ऐसे भयभीत...!
आओ धरमदास पगु धारो
कबीर ने कहा, अब रखो पग। यह खुला मार्ग। मैं हूं मार्ग, रखो पग।
आओ धरमदास पगु धारो
अब दूर खड़े रहने से न चलेगा। पहली दफा तो कबीर ने खंडन किया था कि मूर्ति गलत, कि पूजा गलत, कि प्रार्थना गलत, कि शास्त्र गलत। पहली दफे तो सारे आकार और सगुण की धारणा का खंडन ही खंडन किया था। इस बार निमंत्रण दिया।
आओ धरमदास पगु धारो
चिंहुक-चिंहुक तुम काहे निहारो
अब दूर रहने की कोई जरूरत नहीं। अब दूर-दूर से देखने की कोई जरूरत नहीं। आ जाओ पास, निकट आ जाओ। इस निकट आ जाने का नाम सत्संग है। और धन्यभागी हैं वे जिन्हें गुरु बुला ले और कहे--
आओ धरमदास पगु धारो
चिंहुक-चिंहुक तुम कहो निहारो
कहिए छिमा कुसल हो नीके
कबीर कह रहे हैं धरमदास से,
कहिए छिमा कुसल हो नीके?
सब ठीक-ठाक है?
सुरत तुम्हार बहुत हम झींके
कितने-कितने समय से तुम्हारी सूरत की याद कर रहे थे।
सुरत तुम्हार बहुत हम झींके
यह मत सोचना कि शिष्य ही गुरु को खोजता है। गुरु शिष्य से ज्यादा खोजता है। शिष्य की खोज तो अंधी है, अंधेरी है। शिष्य को तो पता नहीं ठीक-ठीक क्या खोज रहा है। गुरु को पता है। इजिप्त के पुराने शास्त्र कहते हैं, जब शिष्य तैयार होता है तो गुरु उसे खोज लेता है। शिष्य तो कैसे खोजेगा? शिष्य तो कैसे पहचानेगा कौन गुरु है? गुरु से मिलन भी हो जाएगा तो भी प्रत्यभिज्ञा नहीं होगी। गुरु सामने भी खड़ा होगा तो भरोसा नहीं आएगा। हजार बाधाएं पड़ेंगी, हजार चिंताएं अड़चन डालेंगी। हजार संदेह उठेंगे। मैं भी इस बात से राजी हूं कि पहला कदम गुरु उठाता है, शिष्य नहीं। पहला निमंत्रण गुरु देता है।
आओ धरमदास पगु धारो
चिंहुक-चिंहुक तुम काहे निहारो
कहिए छिमा कुसल हो नीके?
सुरत तुम्हार बहुत हम झींके
मथुरा में देखा था धरमदास को। तब धरमदास तो नहीं पहचान सका था अपने गुरु को लेकिन गुरु अपने शिष्य को पहचान लिया था। देखा होगा बीज धरमदास का। देखी होगी संभावना इसके वृक्ष बन जाने की, किसी दिन आकाश में फूल खिल जाने की। देखी होगी इसकी अनंत संभावना। गुरु उसी दिन चुन लिया था। धरमदास को तो उस दिन पता भी नहीं था। धरमदास को तो कुछ पता हो भी नहीं सकता था।
सुरत तुम्हार बहुत हम झींके
धरमदास हम तुमको चीन्हा
कबीर कहते हैं कि हमने तुम्हें पहचाना।
बहुत दिनन में दरसन दीन्हा
इतनी देर लगाई और हम राह देखते और राह देखते।
बहुत ज्ञान कहसीं हम तुमहीं
बहुर के तुम अब चीन्हों हमहीं
हम तो तुम्हें चीन्ह लिए, अब तुम हमें चीन्हो। हम तो तुम्हें पहचान लिए, अब तुम हमें पहचानो। गुरु पहले पहचानता है तभी शिष्य के पहचानने की संभावना प्रगाढ़ होती है। गुरु पहले चुनता है, तब शिष्य चुनता है।
भली भई दरसन मिले बहुरि मिले तुम आए
जो कोऊ मोंसे मिले सो जुग बिछुरि न जाए
कबीर कहते हैं, अच्छा हुआ, भली भई दरसन मिले! आ गए तुम। ये बड़े सम्मान से कहे गए वचन हैं। सदगुरु के मन में शिष्य के प्रति बड़ा सम्मान होता है। और जिस गुरु के मन में शिष्य के प्रति सम्मान न हो वह गुरु ही नहीं; उसे पता ही नहीं। क्योंकि शिष्य और गुरु में भेद क्या है? भेद शिष्य की तरफ से होगा, गुरु की तरफ से कुछ नहीं हो सकता। गुरु तो जानता है, जो मेरे भीतर विराजमान है वही शिष्य के भीतर विराजमान है। मेरे भीतर जाग गया, शिष्य के भीतर सोया है। लेकिन सोने-जागने से क्या फर्क पड़ता है? स्वभाव तो एक है।
शिष्य को भेद पता चलता है कि मैं कहां, गुरु कहां! मैं अंधेरा-भरा, गुरु रोशन! मुझे कुछ मिला नहीं, गुरु को सब मिला! लेकिन गुरु को तो यह दिखाई पड़ता है न, कि जैसा मुझे मिला वैसा ही तुझे अभी मिल सकता है, इसी वक्त मिल सकता है। तेरी अपनी संपदा है। कहीं मांगने नहीं जाना। कहीं खोजने नहीं जाना। अभी परदा उठा, अभी भीतर झांक और अभी पा ले। क्षण भर की भी देर करने की जरूरत नहीं है। इसलिए गुरु के मन में शिष्य के प्रति उतना ही सम्मान होता है, जितना शिष्य का गुरु के प्रति होता है।
भली भई दरसन मिले बहुरी मिले तुम आए
फिर से तुम आ गए! मैं राह देखता, मैं प्रतीक्षा करता था।
जो कोऊ मोंसे मिले...
और जो मुझसे मिल जाता है--
...सो जुग बिछुरि न जाए।
फिर बिछुड़ना संभव नहीं है। अब तुम आ गए तो आओ ही मत, मिल ही जाओ ताकि फिर बिछुड़ना न हो सके।
और ऐसा ही हुआ। धरमदास फिर न लौटे। लौट कर नहीं देखा। कायर ही लौट कर देखते हैं। हिम्मतवर आदमी आगे देखता है, पीछे नहीं देखता। वहीं से सब लुटवा दिया। घर भी लौट कर नहीं गए। लुटाने को भी नहीं गए। अब उसके लिए भी क्या जाना! वहीं से खबर भेज दी कि सब बांट दो। जो है सब बांट-बूंट दो। जिनको जरूरत है, ले जाएं। सारे गांव को कह दो जिसको जो ले जाना है ले जाए। लौट कर भी नहीं गए। असल में लौट कर भी जाते तो थोड़ी चूक हो जाती। देने के मजे में भी तो अहंकार भरता है। इतना लुटा रहा हूं, इतना दे रहा हूं, यह मजा लेने भी चले गए होते तो थोड़ा अहंकार घना होता। धन का मूल्य तो फिर भी स्वीकार कर लिया होता कि धन बड़ी कीमती चीज है, जाऊं, लुटाऊं, बांट आऊं। धन का कोई मूल्य ही न रहा। इधर कबीर से आंख क्या मिली, सब मिल गया। वहीं से खबर भेज दी। अपने आदमी भेज दिए होंगे जो साथ आए थे कि भाई जाओ, मैं तो गया। तुम जाओ, जो है, सब बांट-बूंट दो। जैसा है निपटा-सिपटा दो। मेरा अब आना न हो सकेगा।
जब कबीर कहते हैंः सो जुग बिछुरि न जाए! जो मुझसे आ मिला फिर कभी बिछुड़ता नहीं, तो अब इतना भी बिछोह न सहूंगा। फिर धरमदास कबीर की छाया होकर रहे। कबीर के समाधि-उपलब्ध शिष्यों में एक थे धरमदास। और जिस दिन धरमदास ने सब लुटवा दिया, उस दिन से कबीर ने उनको कहा धनी धरमदास।
एक धन है जो बाहर का है। जिससे कोई आदमी धनी नहीं होता, सिर्फ भिखारी बनता है। और एक धन है भीतर का, जिससे आदमी वस्तुतः धनी होता है। धन की परिभाषा क्या है? धन की परिभाषा है जो बांटने से बढ़े। जो बांटने से घट जाए वह धन नहीं। यह भीतर का धन ऐसा है, जितना बांटो उतना बढ़ता है। इसलिए कबीर ने उनको धनी कहा। अब अटूट धन मिल गया, अखूट धन मिल गया। धनों का धन मिल गया।
शिष्य और गुरु का जहां मिलन होता है वहीं परमात्मा प्रकट होता है। उस मिलन की घड़ी में ही परमात्मा प्रकट होता है। तुमने देखा? एक प्रेमी और प्रेयसी मिलते हैं, एक प्रेमी और प्रेयसी के मिलने पर संभोग का क्षणिक सुख पैदा होता है, जहां शिष्य और गुरु मिलते हैं, वह भी प्रेमी और प्रेयसी का मिलना है--किसी बहुत दूसरे आयाम में, तब वहां समाधि फलित होती है। प्रेमी और प्रेयसी मिलते हैं तो जीवन का आविर्भाव होता है, एक बच्चे का जन्म होता है। जहां शिष्य और गुरु मिलते हैं, वहां ईश्वर का आविर्भाव होता है, वहां जीवन के मूल का आविर्भाव होता है।
सब लुटा कर धरमदास धनी हुए। इनके वचन अपूर्व हैं। उन्हीं के वचनों की यात्रा हम आज शुरू करते हैं।
गुरु मिले अगम के बासी।
अगम का अर्थ होता है, जहां बुद्धि की गति न हो। जहां तक बुद्धि की गति है वहां तक तो गुरु की जरूरत भी नहीं है, वहां तक तो तुम्हारी बुद्धि ही गुरु है। जहां बुद्धि हारती, थकती, ठहर जाती, ठिठक जाती, जहां से आगे चलने से बुद्धि इनकार कर देती, वहीं से गुरु की जरूरत है। इसलिए बुद्धिमान आदमी अक्सर गुरु से वंचित रह जाते हैं। उन्हें यह भ्रांति होती है कि उनकी बुद्धि सदा उनके काम आती रहेगी। उन्हें यह भ्रांति होती है कि जहां तक बुद्धि ले जाती है बस वहीं तक यात्रा है। उसके आगे कुछ है ही नहीं। जो आदमी कहता है, ईश्वर नहीं है, वह क्या कह रहा है? वह यह कह रहा है कि मेरी बुद्धि के बाहर है। और जो मेरी बुद्धि के बाहर है वह हो कैसे सकता है? मेरी बुद्धि के भीतर जो है, वही है। मेरी बुद्धि कसौटी है अस्तित्व की।
यह बड़ी मूढ़तापूर्ण बात है। बुद्धि कसौटी नहीं है अस्तित्व की। जीवन में तुम ऐसी बहुत सी बातों को जानते हो जो बुद्धि के बाहर हैं--जैसे प्रेम। तुम्हारा किसी स्त्री से प्रेम हो गया, किसी पुरुष से प्रेम हो गया। बुद्धि के भीतर इसमें कुछ भी नहीं है। बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी जब प्रेम में पड़ता है तो वैसे ही प्रेम में पड़ता है जैसे मूढ़ से मूढ़ आदमी पड़ता है। कुछ भेद नहीं होता। बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी वैसा ही पगला जाता है प्रेम में, जैसा बुद्धू पगला जाता है। इसलिए तो प्रेम को बुद्धिमान अंधा कहते हैं। समझदार प्रेम को नासमझी कहते हैं। लेकिन प्रेम है, इसे तो इनकार न कर सकोगे। बुद्धि के बाहर है, फिर भी है। बुद्धि की पकड़ में नहीं आता, फिर भी है। बुद्धि परिभाषा नहीं कर सकती कि क्या है, फिर भी है। ऐसी ही प्रार्थना है, ऐसा ही परमात्मा है। वे प्रेम के ही और-और ऊंचे रूप हैं। वहां बुद्धि की कोई गति नहीं है। इसलिए उन लोगों को अगम कहा है।
जिस व्यक्ति को यह अनुभव शुरू हो जाता है कि मेरी बुद्धि जहां तक ले जाती है वहां अस्तित्व समाप्त नहीं होता, अस्तित्व आगे भी फैला है, आगे भी गया है, तब गुरु की जरूरत अहसास होती है। तो किसी ऐसे का हाथ पकडूं जो आगे गया हो। बुद्धि जहां तक ले आई, ठीक। मैं बुद्धि का दुश्मन नहीं हूं। बुद्धि जहां तक ले जाए वहां तक बुद्धि के साथ जाना। लेकिन जहां बुद्धि कहे कि बस अब मेरी सीमा आ गई, वहीं मत रुक जाना; उसके आगे बहुत कुछ है। असली उसके आगे है। मूल्यवान उसके आगे है। परम उसके आगे है।
गुरु मिले अगम के बासी।

 ओशो

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