बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो
प्रवचन-आठवां (बनाना और होना)
(The Psychologe Of The Esoteric)-का हिन्दी रूपांतरण है)ओशो कृपया हमें सात शरीरों के तनावों और विश्रांतियों
के बारे में कुछ बताइए।
सारे तनाव का मूल-स्रोत कुछ और हो जाने की चाहत है। व्यक्ति सदा कुछ और होने की कोशिश कर रहा है। कोई भी जैसा वह है उसके साथ विश्राम में नहीं है। होना स्वीकृत नहीं है, होने से इनकार किया गया है और कुछ और बन जाने को, होने के आदर्श के रूप में ले लिया गया है। इसलिए मूलभूत तनाव सदा ही जो तुम हो और जैसे तुम हो जाना चाहते हो, के बीच है।
तुम कुछ और हो जाने की इच्छा रखते हो। तनाव का अभिप्राय है कि तुम उसके साथ प्रसन्न नहीं हो जैसे कि तुम हो, और जो तुम नहीं हो वह बन जाने की अभिलाषा रखते हो। तनाव इन दोनों के बीच निर्मित हो जाता है। तुम क्या हो जाना चाहते हो, वह महत्व नहीं रखता। अगर तुम धनवान प्रसिद्ध शक्तिशाली हो जाना चाहते हो, या तुम मुक्त, स्वतंत्र, दिव्य, अमर्त्य हो जाना चाहते हो या तुम मुक्ति मोक्ष की अभिलाषा रखते हो, तब भी तनाव मौजूद होगा।
कुछ भी, जिसकी किसी ऐसी चीज के रूप में इच्छा की गई है जो भविष्य में पर्णू हो जाए और जैसे कि तुम हो उसके स्थान पर वह हो जाए तो इससे तनाव निर्मित होता है। जितना अधिक असंभव आदर्श होता है उतना ही अधिक तनाव होगा। इसलिए वह व्यक्ति जो पदार्थवादी है आमतौर पर उतना तनावग्रस्त नहीं होता जितना वह व्यक्ति जो धार्मिक है क्योंकि धार्मिक व्यक्ति असंभव की अभिलाषा कर रहा है वह जो बहुत दूर है उसकी अभिलाषा कर रहा है। दूरी इतनी अधिक है कि केवल एक बड़ा तनाव ही अंतराल को भर सकता है।
तनाव का अभिप्राय है एक अंतराल जो जैसे कि तुम हो और तुम जो हो जाना चाहते हो, के बीच में होता है। अगर अंतराल अधिक हो तो तनाव भी बड़ा होगा। अगर अंतराल छोटा हो, तो तनाव भी छोटा होगा। और अगर कोई भी अंतराल न हो, इसका अर्थ है कि जैसे तुम हो तुम इससे संतुष्ट हो। दूसरे शब्दों में तुम उससे अलग कुछ भी होना नहीं चाहते जो तुम हो। तब तुम्हारा मन इसी क्षण में होता है। तब वहां तनावग्रस्त हो पाने के लिए कुछ भी नहीं होता, तुम अपने साथ आराम में हो। तुम ताओ में हो। मेरे अनुसार, अगर कोई अंतराल नहीं है तो तुम धार्मिक हो, तुम धर्म में हो।
अंतराल में बहुत सी पर्तें हो सकती हैं। अगर अभिलाषा भौतिक है, तो तनाव
भौतिक होगा। जब तुम एक विशेष शरीर, एक विशेष आकार खोजते हो, अगर तुम भौतिक तल पर किसी अन्य चीज की अभिलाषा करते हो, जो तुम हो उससे अलग कुछ और की चाहत--तब तुम्हारे भौतिक शरीर में तनाव होता है। कोई और अधिक सुंदर होना चाहता है, अब तुम्हारा शरीर तनावग्रस्त हो जाता है। यह तनाव तुम्हारे पहले शरीर, जैविक शरीर से शुरू होता है, लेकिन अगर यह प्रबल है, सतत है यह गहराई में जा सकता है और तुम्हारे अस्तित्व के अन्य तलों पर फैल सकता है।
अगर तुम मानसिक शक्तियों की अभिलाषा कर रहे हो तो तनाव मानसिक तल पर शुरू होता है और फैल जाता है। यह फैलना ऐसे ही है जैसे कि तुम झील में एक पत्थर फेंकते हो। यह एक विशेष स्थान पर गिरता है लेकिन इसके द्वारा निर्मित तरंगें अनंत में फैलती चली जाती हैं। इसलिए तनाव तुम्हारे सात शरीरों में से किसी भी एक शरीर से शुरू हो सकता है लेकिन मूलस्रोत सदा वही होता है एक स्थिति जो है तथा एक स्थिति जिसकी अभिलाषा है, के बीच का अंतराल।
अगर तुम्हारे पास एक विशेष तरह का मन है और तुम इसको बदलना, रूपांतरित करना चाहते हो--यदि तुम अधिक चतुर अधिक बुद्धिमान हो जाना चाहते हो—तब तनाव निर्मित होता है। अगर हम केवल अपने आप को पूरी तरह से स्वीकार कर लें तब कोई तनाव नहीं होता है। यह समग्र स्वीकार चमत्कार है, एक मात्र चमत्कार। किसी ऐसे व्यक्ति को पा लेना जिसने अपने आप को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है, एक मात्र आश्चर्यजनक बात है।
अस्तित्व अपने आप में तनावग्रस्त नहीं है। तनाव सदा काल्पनिक और अस्तित्वहीन संभावनाओं के कारण है। वर्तमान में कोई तनाव नहीं है तनाव सदा भविष्य उन्मुख है। यह कल्पना से आता है। तुम जैसे हो अपने आप की कल्पना उससे हट कर किसी अन्य रूप में कर सकते हो। यह संभावना जिसकी कल्पना की गई है तनाव उत्पन्न करेगी। इसलिए कोई व्यक्ति जितना अधिक कल्पनाशील होगा उतने ही अधिक तनाव की संभावना है। तब कल्पना विध्वंसक हो गई है।
कल्पना रचनात्मक सृजनात्मक भी बन सकती है। अगर तुम्हारी कल्पना की सारी क्षमता वर्तमान में, उसी पल में केंद्रित है भविष्य में नहीं तब तुम अपने अस्तित्व को काव्य की भांति देख सकते हो। तुम्हारी कल्पना अभिलाषा निर्मित नहीं कर रही है, यह जीने में प्रयुक्त हो रही है। वर्तमान में यह जीना तनाव से परे है।
पशु तनावग्रस्त नहीं हैं वृक्ष तनावग्रस्त नहीं हैं? क्योंकि उनके पास कल्पना की क्षमता नहीं है। वे तनाव के तल से नीचे हैं, इसके ऊपर नहीं। उनका तनाव बस एक संभावना है यह साकार नहीं हुआ है। वे विकसित हो रहे हैं। एक पल आएगा जब तनाव उनके अस्तित्व में स्फुटित होगा और वे भविष्य की अभिलाषा करने लगेंगे। यह होगा ही--कल्पना सक्रिय हो जाती है।
वह पहली बात जिसके प्रति कल्पना सक्रिय होती है भविष्य है। तुम प्रतिमाएं निर्मित करते हो और क्योंकि वहां पर कोई समतुल्य वास्तविकताएं नहीं हैं, तुम और-और प्रतिमाएं बनाते चले जाते हो। लेकिन जहां तक वर्तमान का संबंध है आमतौर से तुम इससे संबंधित कल्पना न कर सकोगे। वर्तमान में तुम कल्पनाशील कैसे हो सकते हो, उसकी कोई जरूरत भी प्रतीत नहीं होती। यह बात समझ लेनी चाहिए।
अगर तुम वर्तमान में सचेतन रूप से उपस्थित रह सको तुम अपनी कल्पना में नहीं रहोगे। तब कल्पना वर्तमान के भीतर अपने आप को निर्मित करने के लिए स्वतंत्र रहेगी। केवल सही ढंग से केंद्रित होने की जरूरत है। अगर कल्पना वास्तविक पर केंद्रित है, तो यह सृजन करने लगती है। सृजन कोई भी रूप ले सकता है। अगर तुम एक कवि हो, तो यह काव्य का प्रस्फुटन बन जाता है। यह काव्य भविष्य के लिए अभिलाषा नहीं होगा, बल्कि वर्तमान की एक अभिव्यक्ति होगा। या अगर तुम एक चित्रकार हो, तो चित्रकला का प्रस्कुटन होगा। चित्र किसी ऐसी चीज का नहीं होगा जैसे कि तुमने इसकी कल्पना की है, बल्कि जैसे कि तुमने इसको जीया है और जाना है।
जब तुम कल्पना में नहीं जी रहे होते हो तो वर्तमान का क्षण तुम्हें दे दिया जाता है। तुम इसको अभिव्यक्त कर सकते हो या तुम मौन में जा सकते हो।
लेकिन अब यह मौन कोई अभ्यास किया हुआ मुर्दा मौन नहीं होता है यह मौन भी वर्तमान के क्षण की एक अभिव्यक्ति है। अब यह क्षण इतना गहरा है कि केवल मौन के द्वारा ही इसकी अभिव्यक्ति की जा सकती है। अब न तो काव्य पर्याप्त है, न चित्रकारी पर्याप्त है। कोई भी अभिव्यक्ति संभव नहीं है। मौन ही एकमात्र अभिव्यक्ति है। यह मौन कोई नकारात्मक वस्तु नहीं है, बल्कि तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो विधायक रूप से पुष्पित होना है। तुम्हारे भीतर कुछ खिल गया है मौन का पुष्प और इस मौन के माध्यम से वह सभी कुछ जो तुम जी रहे हो अभिव्यक्त होता है।
एक दूसरी बात भी समझ लेनी है। वर्तमान की कल्पना के द्वारा की गई यह अभिव्यक्ति न तो भविष्य की कल्पना है और न ही अतीत के विरोध में कोई प्रतिक्रिया है। यह किसी ऐसे अनुभव की अभिव्यक्ति भी नहीं है जो जाना हुआ है यह अनुभूति का अनुभव है--जैसे कि तुम इसे जी रहे हो जैसा कि यह तुम्हारे भीतर घटित हो रहा है। जी लिया हुआ अनुभव नहीं बल्कि अनुभव करने की जीवंत प्रक्रिया।
तब तुम्हारा अनुभव और अनुभूति दो बातें नहीं होती हैं, वे एक और एक समान होती हैं। तब वहां पर कोई चित्रकार नहीं होता। अनुभूति अपने आप ही चित्र बन जाती है और अनुभूति ने स्वत: ही अपने आप को अभिव्यक्त कर दिया है। तुम सृष्टा नहीं होते। तुम सृजनात्मकता, एक जीवंत ऊर्जा होते हो। तुम कवि नहीं होते, तुम काव्य होते हो। अनुभव न तो भविष्य के लिए है और न अतीत के लिए, यह न तो भविष्य से है और न अतीत से। क्षण स्वयं ही शाश्वत हो गया है और सभी कुछ इससे निकलता है। यह एक खिलावट है।
जिस तरह तनाव की सात पर्तें होती हैं ऐसे ही इस खिलावट की भी सात पर्तें होंगी, यह हर शरीर में होगा। उदाहरण के लिए, यदि जैविक तल पर ऐसा घटित हो जाए, तो तुम बिलकुल एक नये अर्थ में सुंदर हो जाओगे। यह सौंदर्य रूप का नहीं बल्कि रूपातीत का होता है दृश्य का नहीं बल्कि अदृश्य का होता है। और अगर तुम अपने शरीर में इस तनाव-शून्य क्षण को अनुभव कर सको तो तुम एक ऐसे अच्छेपन को जानोगे जिसे तुमने पहले कभी न जाना था, एक विधायक प्रसन्नचित्तता।
हमने अच्छेपन की उन दशाओं को जाना है जो नकारात्मक हैं इस अर्थ में नकारात्मक कि जब हम स्थ्या नहीं होते हम कहते हैं कि हम स्वस्थ हैं। यह स्वास्थ्य बस बीमारी का न होना है। इसमें इस के बारे में कुछ भी विधायक नहीं है बात बस इतनी ही है कि रुग्णता वहां नहीं है। स्वास्थ्य की चिकित्सकीय परिभाषा यह है कि यदि तुम बीमार नहीं हो, तो तुम स्वस्थ हो। लेकिन स्वास्थ्य का एक विधायक आयाम भी है। यह केवल रुग्णता की अनुपस्थिति नहीं है यह स्वास्थ्य की उपस्थिति है।
तुम्हारा शरीर केवल तब तनाव-शून्य हो सकता है जब तुम क्षण- क्षण अस्तित्व में जी रहे होओ। अगर तुम भोजन कर रहे हो और यह पल शाश्वत बन गया हो, तो वहां पर न अतीत होता है और न ही भविष्य। खाना खाने की प्रक्रिया ही सभी कुछ है। तुम कोई कृत्य नहीं कर रहे हो, तुम कृत्य हो गए हो। वहां पर कोई तनाव न होगा तुम्हारा शरीर परितृप्ति महसूस करेगा। या अगर तुम कामकृत्य में हो और यह बस कामवासना के तनाव से छुटकारा भर न हो बल्कि यह प्रेम की विधायक अभिव्यक्ति बन गया हो--अगर क्षण समग्र पूर्ण हो गया हो और तुम पूरी तरह इसमें हो, तब तुम अपने शरीर की एक विधायक प्रस्न्नचित्तता को जानोगे।
अगर तुम दौड़ रहे हो और दौड़ तुम्हारे अस्तित्व की समग्रता बन गई हो, अगर तुम वे संवेदनाएं बन गए हो जो तुम्हें मिल रही हैं, तुम उनसे अलग नहीं हो, बल्कि उनके साथ एक हो गए हो अगर वहां पर कोई भविष्य न हो इस दौड़ने का कोई लक्ष्य न हो, दौड़ना ही अपने आप में लक्ष्य हो--तब तुम एक विधायक अच्छेपन को जानते हो। तब तुम्हारा शरीर तनाव-शून्य होता है। शरीर के तल पर तुमने तनाव-शून्य जीवन का एक क्षण जान लिया है।
और यही बात सात शरीरों में से प्रत्येक के लिए सत्य है। पहले शरीर में तनाव-शून्य पल को समझना सरल है, क्योंकि हम पहले से ही इस शरीर में होने वाली दोनों बातों--रुग्णता, सकारात्मक बीमारी और नकारात्मक रूप से परिभाषित स्वास्थ्य बीमारी की अनुपस्थिति को जानते हैं। इतना हम पहले से ही जानते हैं, इसलिए हम तीसरी संभावना की कल्पना कर सकते हैं वह है विधायक प्रसन्नचित्तता स्वास्थ्य। लेकिन दूसरे शरीर भाव शरीर में तनाव-शून्यता क्या है इसे समझना कुछ अधिक कठिन है क्योंकि तुमने इसके बारे में अभी कुछ नहीं जाना है। फिर भी कुछ चीजें समझी जा सकती हैं।
स्वप्न मूलत: दूसरे शरीर, भाव शरीर से संबद्ध हैं। इसलिए आमतौर से जब हम स्वप्नों के बारे में बात करते हैं, तो हम जिनकी बात कर रहे हैं वे भाव शरीर के स्वप्न हैं।
लेकिन अगर तुम्हारा भौतिक शरीर तनाव में जी रहा हो, तो इसके द्वारा बहुत से स्वप्न निर्मित होंगे। उदाहरण के लिए अगर तुम भूखे हो या उपवास पर हो, तो एक विशेष प्रकार का स्वप्न निर्मित होता है। यह भौतिक शरीर का स्वप्न है। यह भाव शरीर से संबंद्धित नहीं है।
भाव शरीर के अपने निजी तनाव हैं। हम भाव शरीर को सिर्फ स्वप्नों में जानते हैं इसलिए अगर भाव शरीर तनावग्रस्त है स्वप्न दुखस्वप्न बन जाता है। अब तुम अपने स्वप्न में भी तनावग्रस्त होओगे तनाव तुम्हारा अनुगमन करेगा।
भाव शरीर का पहला तनाव तुम्हारी इच्छाओं के पूरा होने से जुड़ा हुआ है। हम सभी प्रेम के बारे में स्वप्न देखते हैं। काम वासना शारीरिक है, प्रेम नहीं। प्रेम को भौतिक शरीर से कुछ लेना-देना नहीं है यह भाव शरीर से जुड़ा हुआ है, लेकिन अगर प्रेम परितृप्त न हो, तो तुम्हारा भौतिक शरीर भी इसके कारण परेशान हो सकता है। न सिर्फ तुम्हारे भौतिक शरीर के पास आवश्यकताएं हैं? जिनकी परितृप्ति होनी है बल्कि तुम्हारे भाव शरीर की भी जरूरतें हैं। इसकी अपनी भूखे हैं, इसे भी भोजन की जरूरत है प्रेम वह आहार है।
हम सभी प्रेम के स्वप्न देखते रहते हैं, लेकिन हम कभी प्रेम में नहीं होते। हरेक व्यक्ति प्रेम का स्वप्न देखता है--यह कैसा होना चाहिए, किसके साथ होना चाहिए—और हरेक व्यक्ति इसमें हताश है। या तो हम भविष्य के बारे में स्वप्न देख रहे हैं या हताश होकर अतीत के बारे में लेकिन हम कभी प्रेमपूर्ण नहीं होते।
भाव शरीर में और तनाव भी हैं लेकिन प्रेम उनमें से एक है जिसे सबसे आसानी से समझा जा सकता है। अगर तुम इसी क्षण में प्रेम कर सको तब भाव शरीर में तनाव-शून्य स्थिति निर्मित हो जाती है। लेकिन अगर तुम्हारी मांगें हैं अपेक्षाएं हैं प्रेम की शर्तें हैं तो तुम इस क्षण में प्रेम नहीं कर सकते क्योंकि मांगें अपेक्षाएं और शर्तें भविष्य से संबद्ध हैं।
वर्तमान हमारी अपेक्षाओं से परे है। यह जैसा है वैसा है। लेकिन तुम भविष्य के बारे में अपेक्षाएं रख सकते हो इसे कैसा होना चाहिए। प्रेम भी 'होना चाहिए' बन गया है, यह सदा ' जो होना चाहिए ' के बारे में होता है। तुम वर्तमान में केवल तभी प्रेमपूर्ण हो सकते हो जब कि तुम्हारा प्रेम एक अपेक्षा एक मांग न हो जब यह बेशर्त हो।
और अगर तुम केवल एक व्यक्ति विशेष को ही प्रेम कर रहे हो किसी और से नहीं तब तुम कभी वर्तमान में प्रेम नहीं कर पाओगे। अगर तुम्हारा प्रेम मात्र एक संबंध है और मन की एक दशा नहीं तुम वर्तमान में प्रेम नहीं कर सकते हो क्योंकि बहुत सूक्ष्म तल पर वह भी एक शर्त है। अगर मैं कहूं कि मैं सिर्फ तुम्हारे प्रति प्रेमपूर्ण हूं र तब जब तुम यहां नहीं होओगे तो मैं प्रेमपूर्ण नहीं होऊंगा। तो तेईस घंटों लिए मैं अप्रेमपूर्ण दशा में होऊंगा और बस एक घंटे के लिए जब मैं तुम्हारे साथ हूं तब मैं प्रेमपूर्ण होऊंगा। यह असंभव है। तुम किसी एक क्षण के लिए प्रेम की दशा में और दूसरे क्षण प्रेम न होने की दशा में नहीं हो सकते।
अगर मैं स्वस्थ हूं मैं चौबीस घंटों के लिए स्वस्थ हूं। ऐसा असंभव है कि एक घंटे के लिए मैं स्वस्थ होऊं और बाकी तेईस घंटे अस्वस्थ होऊं स्वास्थ्य संबंध नहीं है, यह होने की एक दशा है।
प्रेम दो व्यक्तियों के बीच का संबंध नहीं है। यह तुम्हारे भीतर के मन की दशा है। अगर तुम प्रेमपूर्ण हो तो तुम प्रत्येक के प्रति प्रेमपूर्ण हो। और न केवल व्यक्तियों के प्रति, साथ ही साथ तुम वस्तुओं के प्रति भी प्रेमपूर्ण हो। प्रेम तुम से वस्तुओं की ओर भी बहता है। भले ही तुम जब अकेले हो, जब वहां कोई न हो तुम प्रेमपूर्ण होते हो। यह श्वास लेने की तरह है। अगर मैं कसम खा लूं कि मैं सिर्फ तभी श्वास लूंगा जब तुम्हारे साथ होऊं, तब केवल मौत ही आएगी। श्वास लेना संबंध नहीं है, यह किसी संबंध से नहीं बंधा है। और भाव शरीर के लिए प्रेम श्वास लेने की भांति है। यह इसकी श्वास है।
इसलिए या तो तुम प्रेमपूर्ण हो या तुम प्रेमपूर्ण नहीं हो। मानव-जाति ने जिस तरह का प्रेम निर्मित किया है वह बहुत खतरनाक है। रुग्णता ने भी इतनी पड़ता निर्मित नहीं की है जितनी इस तथाकथित प्रेम ने निर्मित कर दी है। प्रेम की गलत अवधारणा के कारण सारी मनुष्यता रुग्ण हो गई है।
अगर तुम प्रेम कर सको और बिना पात्र की चिंता में पड़े प्रेमपूर्ण हो सको तब तुम्हारा दूसरा शरीर प्रसन्नचित्तता की दशा में हो सकता है विधायक रूप से विश्रांत हो सकता है। तब दुखस्वप्न नहीं आते हैं। स्वप्न काव्य हो जाते हैं। तब तुम्हारे दूसरे शरीर में कुछ घटता है और इसकी सुगंध न सिर्फ तुम पर बल्कि दूसरों पर भी छा जाती है। तुम जहां कहीं भी होते हो, तुम्हारे प्रेम की सुगंध फैलती है। और निस्संदेह इसके अपने प्रति संवेदन, अपनी प्रतिध्वनिया होती हैं।
वास्तविक प्रेम अहंकार का कृत्य नहीं है। अहंकार सदा शक्ति मांगता है, इसलिए जब तुम प्रेम में भी होते हो--क्योंकि तुम्हारा प्रेम वास्तविक नहीं है, क्योंकि यह मात्र अहंकार का एक हिस्सा है, तो यह भी हिंसक होने के लिए बाध्य है। जब भी हम प्रेम करते हैं, तो यह हिंसा होता है, एक प्रकार का युद्ध होता है। पिता और पुत्र, मां और बेटी, पति और पत्नी—वे प्रेमी नहीं हैं, हमने उनको शत्रुओं में बदल दिया है। वे सदा झगड़ते रहते हैं, और जब वे लड़ते नहीं होते सिर्फ तब हम कहते हैं कि यह प्रेम है। यह परिभाषा नकारात्मक है। दो लड़ाइयों के बीच जो अंतराल है, शांति का समय है, हम उसे प्रेम कहते हैं।
लेकिन दो युद्धों के बीच वास्तव में शांति की कोई संभावना नहीं होती है। यह तथा कथित शांति बस आने वाले युद्ध की तैयारी है। पति और पत्नी के बीच कोई शांति नहीं है न प्रेम है। वह बीच का समय जिसे हम प्रेम कहते हैं आने वाली लड़ाई की तैयारी भर है। हम सोचते हैं कि जब हम दो बीमारियों के मध्य होते हैं, तो यह स्वास्थ्य है और हम सोचते हैं कि जब हम दो झगड़ों के बीच में होते हैं तो यह प्रेम है। यह प्रेम नहीं है। यह दो लड़ाइयों के बीच का अंतराल मात्र है। तुम चौबीसों घंटे लड़ते हुए नहीं रह सकते हो इसलिए किसी समय तुम अपने शत्रु को भी प्रेम करने लगते हो।
प्रेम किसी एक संबंध के रूप में कभी संभव नहीं है बल्कि यह मन की एक दशा के रूप में ही संभव है। अगर तुम पर प्रेम मन की एक दशा के रूप में आता है तब तुम्हारा दूसरा शरीर भाव शरीर विश्रांत, तनाव-शून्य हो जाता है। यह विश्रांत हो जाता है। दूसरे शरीर में तनाव के कई अन्य कारण भी हैं पर मैं उस एक कारण की बात कर रहा हूं जो सबसे आसानी से समझा जा सकता है। क्योंकि हम सोचते हैं कि हम प्रेम को जानते है तो इसके बारे में बात की जा सकती है।
तीसरा शरीर सूक्ष्म शरीर है। इसके पास अपने निजी तनाव हैं, वे न सिर्फ तुम्हारे इस जीवन से बल्कि पिछले जन्मों से भी संबद्ध हैं। वह प्रत्येक चीज जो तुम थे और जो तुम हो जाना चाहते हो उन सभी के इकट्ठा हो जाने के कारण तीसरे शरीर का तनाव है। तुम्हारी सारी अभिलाषा, हजारों-हजारों जन्म और उनकी बार-बार होने वाली अभिलाषाएं सूक्ष्म शरीर में हैं। और तुम सदा अभिलाषा करते रहे हो। इससे मतलब नहीं किस बात की अभिलाषा-अभिलाषा वहां है।
सूक्ष्म शरीर तुम्हारी सारी अभिलाषाओं, तुम्हारी सारी इच्छाओं का संग्रहालय है। यही कारण है कि तुम्हारे अस्तित्व का सर्वाधिक तनावग्रस्त भाग यही है। जब तुम ध्यान में जाते हो तब तुम सूक्ष्म शरीर के तनावों के प्रति जागरूक हो जाते हो, क्योंकि ध्यान तीसरे शरीर से शुरू होता है। वे लोग जो ध्यान के माध्यम से इन तनावों के प्रति सजग होने लगते हैं, मेरे पास आते हैं और कहते हैं, 'जब से मैंने ध्यान करना शुरू किया है तनाव बढ़ गए हैं।' वे बढ़ नहीं गए हैं, लेकिन अब तुम उनके प्रति सजग हो गए हो। अब तुम कुछ ऐसा जानते हो जिसके प्रति तुम पहले जागरूक नहीं थे।
तो ये सूक्ष्म शरीर के तनाव हैं। क्योंकि वे बहुत सी जिंदगियों के परिणाम हैं, इसलिए उनको किसी विशेष शब्द के द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता है। उनके बारे में ऐसा कुछ नहीं कहा जा सकता है जिसे समझा जा सके। उनको केवल जीया और जाना जा सकता है।
इच्छा करना अपने आप में एक तनाव है। हम कभी भी किसी न किसी चीज की इच्छा के बिना नहीं होते। ऐसे लोग भी हैं जो इच्छारहितता की भी इच्छा करते हैं। यह एक ऐसी बात बन जाती है जो पूरी तरह से असंगत है। तीसरे शरीर, सूक्ष्म शरीर में तुम इच्छारहितता की इच्छा कर सकते हो। वास्तव में, इच्छारहित होने की चाहत सर्वाधिक शक्तिशाली इच्छाओं में से एक है। यह इच्छा जो तुम हो और जो तुम हो जाना चाहते हो के बीच बड़ा अंतराल निर्मित कर सकती है।
इसलिए अपनी इच्छाओं को जैसी वे हैं स्वीकार कर लो और जान लो कि तुम्हारे पास अनेक जन्मों में अनेक इच्छाएं रही हैं। तुमने बहुत सारी इच्छाएं की हैं और सारी बातें एकत्रित हो गई हैं। इसलिए तीसरे शरीर, सूक्ष्म शरीर के लिए अपनी इच्छाओं को जैसी वे हैं स्वीकार कर लो। उनके साथ संघर्ष मत करो, इच्छाओं के विरुद्ध इच्छा मत निर्मित करो। बस उन्हें स्वीकार कर लो। जानो कि तुम इच्छाओं से भरे हुए हो और उनके साथ विश्रांत हो जाओ। तब तुम सूक्ष्म शरीर में तनाव-शून्य हो जाओगे।
अगर तुम अपने भीतर की इच्छाओं की अनगिनत भीड़ को बिना उन इच्छाओं के विरुद्ध इच्छा किए स्वीकार कर सको अगर तुम इच्छाओं की भीड़ में रह सकी—वे तुम्हारा सारा संचित अतीत हैं--और वे जैसी हैं उन्हें वैसा ही स्वीकार कर लो, अगर यह स्वीकृति समग्र हो जाए तब एक क्षण में सारी भीड़ खो जाती है। वे वहां और अधिक समय तक नहीं रहतीं, क्योंकि यह इच्छा की पृष्ठभूमि के साथ जो नहीं है, उसके लिए एक सतत इच्छा के विरोध में ही, अस्तित्व में बनी रह सकती है।
इच्छा के विषय से अंतर नहीं पड़ता यह असंगत है। इच्छारहितता की भी इच्छा करो और पृष्ठभूमि उपस्थित हो जाती है सारी भीड़ वहां होगी। अगर तुम अपनी इच्छा को स्वीकार कर लो, तो इच्छारहितता का एक क्षण निर्मित हो जाता है। अपनी इच्छा को जैसी वह है तुम स्वीकार कर लो। अब वहां पर इच्छा करने के लिए कुछ नहीं बचता है इच्छा वहां पर नहीं होती है। तुम हर चीज को वैसा ही स्वीकार कर लेते हो जैसी कि वह है अपनी इच्छाओं को भी स्वीकार कर लो। तब इच्छाएं वाष्पीभूत हो जाती हैं, उनके साथ कुछ नहीं किया जाना है। सूक्ष्म शरीर विश्रांत हो जाता है, यह विधायक प्रसन्नचित्तता की दशा में आ जाता है। केवल तब तुम चौथे शरीर की ओर बढ़ सकते हो।
चौथा शरीर मनस शरीर है। जैसे कि सूक्ष्म शरीर में इच्छाएं हैं, मनस शरीर में विचार होते हैं, परस्पर विरोधी विचार, उनकी सारी भीड़ हर विचार अपने को सभी कुछ की तरह प्रस्तुत करता हुआ हर विचार तुम्हारे ऊपर इस तरह से छाता हुआ जैसे कि यही सब-कुछ है। इसलिए चौथे शरीर में तनाव विचारों द्वारा निर्मित होता है। विचारों के बिना होना सोए हुए नहीं अचेत नहीं बल्कि एक विचार-शून्य चेतना चौथे शरीर का स्वास्थ्य है, इसकी प्रसन्नचित्तता है। लेकिन कोई सचेतन और विचार-शून्य कैसे हो सकता है?
हर क्षण नये विचार निर्मित हो रहे हैं। हर क्षण तुम्हारे अतीत का कुछ भाग तुम्हारे वर्तमान के कुछ हिस्से के साथ संघर्ष में है। तुम एक कम्युनिस्ट थे और अब तुम एक कैथोलिक हो और किसी अन्य बात में विश्वास करते हो लेकिन तुम्हारा अतीत अब भी वहां है। तुम कैथोलिक हो सकते हो लेकिन तुम अपनी कम्युनिज्म को बाहर नहीं फेंक सकते। यह तुम्हारे भीतर बना रहता है। तुम अपने विचार बदल सकते हो लेकिन छोड़ दिए गए विचार सदा प्रतीक्षारत रहते हैं। उनको तुम अनसीखा नहीं बना सकते। वे तुम्हारे मन की गहराइयों में पहुंच जाते हैं, वे अचेतन में चले जाते हैं। अपने आप को वे तुम्हारे सामने प्रदर्शित नहीं करेंगे क्योंकि तुमने उनका परित्याग कर दिया है पर वे वहां मौजूद रहेंगे अपनी बारी आने की प्रतीक्षा करेंगे। और उनकी बारी आ जाएगी। चौबीस घंटे के समय में भी कुछ पल ऐसे भी होंगे जब तुम फिर से कम्युनिस्ट हो जाओगे और फिर तुम दुबारा से कैथोलिक हो जाओगे। इसी तरह चलता चला जाएगा पिछला फिर अगला और इसका कुल प्रभाव होगा-संशय। '
इसलिए मनस शरीर के लिए तनाव का अर्थ है विभ्रम, विरोधाभासी विचार, विरोधाभासी अनुभव विरोधाभासी अपेक्षाएं--और अंतिम रूप से इसका परिणाम होता है संशयग्रस्त मन। और संशयग्रस्त मन, अगर यह संशयग्रस्तता के पार जाने की कोशिश करे तो केवल और संशयग्रस्त हो जाएगा क्योंकि संशय की दशा में से असंशय को उपलब्ध नहीं किया जा सकता है।
तुम संशयग्रस्त हो। आध्यात्मिक खोज तुम्हारे संशय के लिए नये आयाम निर्मित करेगी। तुम्हारे दूसरे सभी संशय अभी भी वहां हैं और अब एक नया संशय जुड़ गया है। तुम इस गुरु से मिलते हो, फिर उस गुरु से, फिर किसी और से और हर गुरु तुम्हारे लिए नये संशय लेकर आता है। पुराने संशय वहां हैं और एक नया संशय और जुड़ जाएगा।
तुम एक पागलखाना हो जाओगे। चौथे शरीर, मनस शरीर में जो घटित होता है वह यही है। वहां पर संशय ही तनाव है।
कोई व्यक्ति संशयग्रस्त होना कैसे रोके? तुम संशयग्रस्तता को केवल तभी मिटा सकते हो जब तुम किसी एक विशिष्ट विचार को, किसी एक विशिष्ट विचार के पक्ष में इनकार न करो, यदि तुम कुछ भी इनकार न करो-- अगर तुम धार्मिकता का पक्ष लेकर कम्युनिज्म को इनकार न करो, अगर तुम नास्तिकता के पक्ष में ईश्वर को इनकार न करो। प्रत्येक उस बात को जिसे तुम सोचते हो अगर तुम स्वीकार कर लो, तब कोई चुनाव नहीं रहता और तनाव खो जाते हैं। अगर तुम चुनाव करते रहे, तो तुम अपने तनाव बढ़ाते चले जाओगे।
होश को चुनावरहित होना चाहिए। तुम्हें अपनी सारी विचार प्रक्रिया के प्रति, सारे संशय के प्रति होशपूर्ण होना पड़ेगा। जिस पल तुम इसके प्रति होशपूर्ण हो जाते हो तुम जान लोगे कि यह सब संशय है। कुछ चुना नहीं जाना है, पूरे घर को छोड़ना पड़ेगा। एक बार तुमने जान लिया कि यह बस एक संशय है तो सभी कुछ को किसी भी समय छोड़ा जा सकता है, इसे छोड़ने में कोई कठिनाई नहीं होती है।
इसलिए अपने पूरे मन के प्रति होशपूर्ण होना आरंभ करो। चुनो मत चुनावरहित हो जाओ। यह मत कहो मैं नास्तिक हूं या मैं आस्तिक हूं। यह मत कहो मैं ईसाई हूं या मैं हिंदू हूं। चुनी मत। बस होशपूर्ण हो जाओ कि किसी समय तुम एक आस्तिक हो और किसी समय नास्तिक किसी समय तुम ईसाई हो और किसी समय कम्युनिस्ट कभी संत और कभी पापी। किसी समय एक विचारधारा तुम्हें आकर्षित करती है और कभी दूसरी किंतु ये सभी क्षणिक आकर्षण हैं।
इसके प्रति पूरी तरह से होशपूर्ण हो जाओ। जिस पल तुम अपने मन की संपूर्ण प्रक्रिया के प्रति होश से भरते हो, यह अतादात्म्य का पल होता है। तब तुम अपने मन से तादात्म्य किए हुए नहीं होते। पहली बार तुम अपने को मन की भांति नहीं बल्कि चेतना की भांति जानते हो। मन भी अपने आप तुम्हारे लिए विषय वस्तु बन जाता है। जैसे कि तुम दूसरे लोगों के प्रति होशपूर्ण होते हो, जैसे कि तुम अपने घर के फर्नीचर के प्रति होशपूर्ण हो जाते हो, अपने मन के प्रति मानसिक प्रक्रिया के प्रति तुम होशपूर्ण हो जाते हो। अब तुम यह होश हो जाते हो--अपने मन से अतादात्म्य किए हुए।
चौथे शरीर मनस शरीर के साथ कठिनाई यही है कि हम अपने मन से तादात्म्य किए हुए हैं। अगर तुम्हारा शरीर बीमार हो जाए और कोई कहे कि तुम बीमार हो तो तुम्हें अपमान महसूस नहीं होगा, लेकिन अगर तुम्हारा मन बीमार हो जाए और कोई कह दे कि तुम्हारा मन बीमार है ऐसा लगता है कि तुम पागल होने वाले हो,…तब तुम अपमानित महसूस करते हो। क्यों?
जब कोई कहता है, तुम्हारा शरीर बीमार मालूम पड़ता है तो तुम्हें लगता है कि उसने तुम्हारे साथ सहानुभूति की है। लेकिन अगर कोई मानसिक बीमारी के बारे में कुछ कहता है--कि जहां तक तुम्हारे मन का संबंध है, तुम असामान्य प्रतीत होते हो तुम विक्षिप्त जान पड़ते हो--तब तुम अपमानित महसूस करते हो, क्योंकि शरीर की तुलना में मन के साथ तुम्हारा कहीं गहरा तादात्म्य है।
तुम अपने आप को शरीर से अलग महसूस कर सकते हो। तुम कह सकते हो यह मेरा हाथ है। पर तुम यह नहीं कह सकते कि यह मेरा मन है। क्योंकि तुम सोचते हो, मेरे मन का अर्थ है 'मैं।' मैं तुम्हारे शरीर में कोई शल्य-क्रिया करना चाहें, तो तुम मुझे अनुमति दे दोगे पर तुम मुझे अपने मन की शल्य-क्रिया करने की अनुमति नहीं दोगे। तुम कहोगे नहीं यह बहुत हो गया। मेरी स्वतंत्रता खो जाएगी। मन के साथ तुम्हारा कहीं बहुत गहरा तादात्म्म है। हम यही हैं। इसके पार हम कुछ नहीं जानते हैं इसलिए हमने इससे तादात्म्म बना लिया है।
इस शरीर के पार हम कुछ जानते हैं मन। यही कारण है कि शरीर से तादात्म्य हटा लेने की संभावना होती है। पर मन के पार हम कुछ भी नहीं जानते हैं। अगर तुम विचारों के प्रति सजग हो जाओ केवल तब तुम यह जान सकोगे कि मन और कुछ नहीं बल्कि एक प्रक्रिया एक संचय एक यांत्रिकता है, एक भंडारग्रह है तुम्हारे पुराने अनुभवों, तुम्हारी पुरानी सीखों पुरानी जानकारी का संगणक है। यह 'तुम' नहीं हो तुम इसके बिना भी हो सकते हो। मन की भी शल्य-क्रिया हो सकती है। इसे बदला जा सकता है, इसे तुम्हारे भीतर से निकाल कर फेंका जा सकता है।
और अब नई संभावनाएं बन रही हैं। एक दिन तुम्हारा मन भी किसी और को प्रत्यारोपित किया जाने योग्य हो जाएगा। जैसे कि हृदय प्रत्यारोपित किया जा सकता है। आज नहीं तो कल स्मृति का प्रत्यारोपण भी संभव हो जाएगा। तब जो व्यक्ति मर रहा है वह पूरी तरह से नहीं मरेगा। कम से कम उसकी स्मृति बचाई जा सकती है और नये बच्चे में प्रत्यारोपित की जा सकती है। बच्चा उस व्यक्ति की सारी स्मृति को ग्रहण कर लेगा। वह उन अनुभवों की बात करेगा जिनसे वह होकर नहीं गुजरा है लेकिन वह कहेगा मैंने जान लिया है। जो कुछ भी वह मृत व्यक्ति जानता था वह बच्चा जान लेगा, क्योंकि मृत व्यक्ति का सारा मन उसको दे दिया गया है।
यह खतरनाक प्रतीत होता है और हो सकता है कि हम ऐसा होने की अनुमति न दें क्योंकि हमारी पहचान खो जाएगी। हम अपने मन ही तो हैं! लेकिन मेरे लिए इस संभावना में बहुत क्षमता है। इससे एक नई मानवता जन्म ले सकती है।
हम मन के प्रति बोधपूर्ण हो सकते हैं क्योंकि हम मन नहीं हैं, यह 'मैं' नहीं है। मेरा मन मेरे शरीर का उतना ही एक हिस्सा है जितना कि मेरा गुर्दा। जैसे कि मुझे एक नया गुर्दा दिया जा सकता है और मैं बिना कुछ परिवर्तित हुए वही व्यक्ति बना रहूंगा इसी तरह मैं एक प्रत्यारोपित मन के साथ बिना कुछ बदले रह सकता हूं। मैं पुराना 'स्व' रह सकता हूं जैसा कि मैं था, पर एक नये मन के साथ जो मुझमें जुड़ गया है। मन भी एक यांत्रिकता है। लेकिन इसके साथ हमारे द्वारा बना लिए गए तादात्म्य के कारण तनाव निर्मित होता है।
इसलिए चौथे शरीर के साथ होश स्वास्थ्य है और बेहोशी रुग्णता है, होश तनाव-शून्यता है और बेहोशी तनाव है। अपने विचारों के कारण, उनसे तुम्हारे तादात्म्य के कारण तुम अपने विचारों में जीते हो, और तुम तथा तुम्हारे अस्तित्वगत 'होने' के बीच एक अवरोध निर्मित हो जाता है।
तुम्हारी पहुंच के भीतर एक फूल हो, पर तुम इसे कभी नहीं जान सकोगे, क्योंकि तुम इसके बारे में सोच रहे हो। फूल मर जाएगा और तुम इसके बारे में सोचते ही रह जाओगे। सोचने ने तुम्हारे और अनुभव के बीच एक दीवाल निर्मित कर दी है--पारदर्शी, पर बहुत पारदर्शी नहीं, बस पारदर्शिता का एक भ्रम।
उदाहरण के लिए, तुम मुझे सुन रहे हो। लेकिन यह हो सकता है कि वास्तव में तुम मुझे न सुन रहे हो। जो मैं कह रहा हूं अगर तुम उसके बारे में सोच रहे हो, तो तुमने सुनना बंद कर दिया है। तब तुम या तो आगे चले गए या पीछे चले गए, तुम मेरे साथ नहीं हो। या तो यह अतीत है जो तुम अपने मन में दोहरा रहे हो या यह अतीत के माध्यम से प्रक्षेपित भविष्य होगा लेकिन यह वह नहीं होगा जो मैं कह रहा हूं।
यह भी संभव है कि मैंने जो कहा तुम उसे अक्षरश: दोहरा दो। तुम्हारी यांत्रिकता इसे अंकित कर रही है। जो मैंने कहा यह उसको दोहरा सकती है, फिर से प्रस्तुत कर सकती है। तब तुम दावा करोगे, अगर मैंने आपको नहीं सुना है, तो मैं इसे दुबारा प्रस्तुत कैसे कर सका? किंतु एक टेप-रिकॉर्डर मुझे नहीं सुनता है। तुम्हारा मन एक यंत्र की तरह काम करता रह सकता है। तुम उपस्थित हो सकते हो या तुम उपस्थित नहीं हो सकते हो। तुम्हारी जरूरत नहीं है। तुम सोचते रह सकते हो और फिर भी सुनते रह सकते हो। मन--चौथे शरीर, मनस शरीर का--अवरोध बन गया है।
'तुम' और वह जो 'है' के बीच एक अवरोध है। जिस पल तुम स्पर्श करने आते हो तुम अनुभव से परे हट जाते हो। जिस पल तुम देखते हो तुम दूर हो जाते हो। मैं तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेता हूं। यह एक अस्तित्वगत बात है। लेकिन यह हो सकता है कि तुम वहां न होओ। तब तुम चूक गए। तुमने जान लिया-- तुमने छुआ और अनुभव किया है--पर तुम अपने खयालों में थे।
इसलिए चौथे शरीर पर व्यक्ति को अपनी विचार-प्रक्रिया संपूर्ण विचार-प्रक्रिया के प्रति बोधपूर्ण हो जाना है। बिना चुने बिना निश्चय किए, बिना फैसला किए बस उसके प्रति बोध। अगर तुम बोधपूर्ण हो जाते हो तो तुम तादात्म्य से मुक्त हो जाते हो। और मन की यांत्रिकता से अ-तादात्म्म तनाव-शून्यता है।
पांचवां शरीर आत्मिक शरीर है। जहां तक आत्मिक शरीर का संबंध है, अपना ज्ञान न होना ही तनाव है। सारे समय तुम होते हो, पर तुम यह अच्छी तरह से जानते हो कि तुम अपने आप को नहीं जानते। तुम जीवन से होकर गुजर जाओगे तुम यह करोगे और वह करोगे तुम इसे उपलब्ध कर लोगे और उसे उपलब्ध कर लोगे लेकिन आत्म-अज्ञान का भाव तुम्हारे साथ सतत रूप से रहेगा। यह तुम्हारे पीछे छिपा होगा, यह एक स्थायी साथी रहेगा चाहे तुम इसे भुलाने का कितना ही उपाय करो इससे भागने का तुम कितना ही प्रयास करो। तुम अपने अज्ञान से नहीं भाग सकते। तुम जानते हो कि तुम्हें नहीं पता है। यह पांचवें तल की रुग्णता है।
वे लोग जिन्होंने डेल्की के मंदिर के ऊपर लिखा था 'अपने आप को जान लो' पांचवें शरीर से संबंद्ध थे। वे इस पर कार्य कर रहे थे। सुकरात ने लगातार दोहराया 'अपने को जानो। 'वह पांचवें शरीर से संबद्ध था। पांचवें शरीर के लिए आत्म-ज्ञान—अपनी जानकारी ही एकमात्र ज्ञान है।
महावीर ने कहा 'अपने को जानने से व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है।' पर ऐसा नहीं है। अपने को जान कर कोई सभी कुछ नहीं जान सकता है। पर उलटी बात सही है। अपने को जाने बिना कोई कुछ नहीं जान सकता। इसलिए इसको संतुलित करने के लिए महावीर ने कहा 'अपने को जान कर तुम सबको जान लोगे।' अगर मैं सभी कुछ जानता हूं लेकिन अगर मैं अपने को नहीं जानता हूं तो इसका क्या प्रयोजन है? मैं मूलभूत को, आधारभूत को चरम को कैसे जान सकता हूं अगर मैंने अपने को भी नहीं जाना हो? यह असंभव है।
इसलिए पांचवें शरीर में तनाव ज्ञान और अज्ञान के मध्य है। लेकिन स्मरण रखो, मैं कह रहा हूं ज्ञान और अज्ञान मैं जानकारी और अनभिज्ञता नहीं कह रहा हूं। जानकारी शास्त्रों से एकत्रित की जा सकती है ज्ञान कहीं से भी एकत्रित नहीं किया जा सकता। बहुत से लोग इसी भ्रम में पड़े हैं यह ज्ञान और जानकारी के बीच की गलतफहमी है। ज्ञान सदा तुम्हारा होता है। मैं अपना ज्ञान तुम्हें स्थानांतरित नहीं कर सकता मैं सिर्फ अपनी जानकारी स्थानांतरित कर सकता हूं। शास्त्र जानकारी का संवहन करते हैं ज्ञान का नहीं। वे कह सकते हैं तुम दिव्य हो, तुम आत्मा हो तुम स्व हो पर यह ज्ञान नहीं है।
अगर तुम इस जानकारी से चिपकोगे बहुत तनाव उत्पन्न होगा। अनभिज्ञता वहां
होगी झूठी सीखी हुई जानकारी, और सूचनाओं के साथ, उधार ज्ञान के साथ। तुम अनभिज्ञ होओगे पर तुम्हें लगेगा कि तुम जानते हो। तब वहां बहुत तनाव होता है। यह बेहतर है कि अनभिज्ञ रहो और ठीक से जान लो कि मैं एक अज्ञानी व्यक्ति हूं। तब तनाव होगा पर इतना अधिक नहीं। अगर तुम दूसरों से एकत्रित की गई जानकारी से अपने आप को धोखा न दो, तब तुम अपने भीतर खोज और अनुसंधान कर सकते हो, और ज्ञान संभव है।
क्योंकि तुम हो--इसलिए इतना तो निश्चित है कि जो भी हो तुम हो। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। दूसरी बात, तुम कुछ हो जो जानता है। यह हो सकता है कि तुम दूसरों को जानते हो यह भी हो सकता है कि तुम बस भ्रमों को जानते हो यह हो सकता है कि जो तुम जानते हो वह ठीक न हो लेकिन तुम जानते तो हो। इसलिए ये दो बातें तो हैं ही. तुम्हारा अस्तित्व और तुम्हारी चेतना।
लेकिन तीसरी चीज का अभाव है। मनुष्य का मूलभूत व्यक्तित्व तीन आयामों के
माध्यम से समझा जा सकता है. अस्तित्व चेतना और आनंद-सत्-चित्-आनंद। हम जानते हैं कि हम स्वय अस्तित्व हैं हम जानते हैं कि कोई है जो जानता है--स्वयं चेतना है। बस आनंद की ही कमी है। लेकिन अगर तुम अपने भीतर खोजो तुम तीसरे को भी जानोगे। यह वहां है। आनंदमयता, अपने अस्तित्व का परमानंद, वहां है। और जब तुम उसे जानोगे तुम पूरी तरह से अपने को जान लोगे-- अपने अस्तित्व को, अपनी चेतना को अपने आनंद को।
जब तक कि आनंद न जान लिया जाए तुम अपने आप को पूरी तरह से नहीं जान सकते, क्योंकि जो व्यक्ति आनंदमय नहीं है, अपने आप से भागता रहेगा। हमारा सारा जीवन अपने आप से पलायन है। दूसरे हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि भागने में वे हमारी सहायता करते हैं। यही कारण है कि हम अन्य-उन्मुख हैं। अगर कोई धार्मिक भी हो जाता है, तो वह ईश्वर को अन्य की तरह निर्मित कर लेता है। फिर से वह अन्य-उन्मुख हो जाता है वही भ्रम दोहरा दिया जाता है।
इसलिए पांचवें तल पर व्यक्ति को भीतर से अपनी खोज में होना पड़ता है। यह खोज नहीं है बल्कि खोज में होना है। तुम्हारी जरूरत केवल पांचवें शरीर तक ही है। पांचवें शरीर के बाद चीजें आसान और स्वस्फूर्त हो जाती हैं।
छठवा शरीर ब्रह्म शरीर है। यहां पर तुम्हारी निजता की सीमाबद्धता की अनुभूतियों और असीम ब्रह्म के मध्य तनाव होता है। पांचवें तल पर भी तुम अपने आत्मिक शरीर में समाए हुए होगे। तुम एक व्यक्ति होगे। वह 'व्यक्ति' होना छठवें के लिए तनाव है। इसलिए ब्रह्म के साथ तनाव-शून्य अस्तित्व उपलब्ध करने के लिए, ब्रह्म के साथ उसी की लय में होने के लिए तुम्हें व्यक्ति होना बंद करना पड़ेगा।
जीसस कहते हैं 'जो अपने को खोता है वह अपने को पा लेगा।' यह वक्तव्य छठवें शरीर से संबंद्धित है। पांचवें तक इसे नहीं समझा जा सकता, क्योंकि यह पूरी तरह से गणित के खिलाफ है। लेकिन छठवें शरीर से, यही एक मात्र गणित, एकमात्र तर्कपूर्ण संभावना है अपने आप को खो देना।
हम अपने आप को बढ़ाते रहे हैं, क्रिस्टलाइजिंग करते रहे हैं। पांचवें शरीर तक क्रिस्टलाइजेशन आत्मपन निजता को ले जाया जा सकता है लेकिन अगर कोई व्यक्ति बने रहने पर जोर दे तो वह पांचवें शरीर के साथ रह जाता है। इसलिए बहुत सी आध्यात्मिक व्यवस्थाएं पांचवें पर समाप्त हो जाती हैं। वे सभी लोग जो कहते हैं कि आत्मा की अपनी निजता है और यह निजता मुक्त अवस्था में भी रहेगी--कि तुम एक व्यक्ति होओगे--अपने 'स्व' में सिमटे हुए--जो भी व्यवस्था ऐसा कहती है वह पांचवें पर ठहरी हुई है। इस तरह की व्यवस्था में ईश्वर की कोई अवधारणा नहीं होगी। इसकी जरूरत नहीं है।
ईश्वर की अवधारणा छठवें शरीर के साथ ही आती है। ईश्वर का अभिप्राय है ब्रह्मांडीय व्यक्ति या यह कहना उत्तम रहेगा ब्रह्मांडीय अ-व्यक्तित्व। ऐसा नहीं है कि 'मैं' अस्तित्व में हूं यह मेरे भीतर की समग्रता है जिसने मेरा अस्तित्व में हो पाना संभव किया है। मैं बस एक बिंदु हूं अस्तित्व के अनंत सूत्रों में से एक सूत्र। अगर कल सूर्य न उगे मैं नहीं होऊंगा। मैं अस्तित्व से मिट जाऊगा, मेरे जीवन की लौ बुझ जाएगी। मैं यहां पर हूं क्योंकि सूर्य का अस्तित्व है। यह बहुत अधिक दूर है लेकिन फिर भी यह मुझसे जुड़ा हुआ है। अगर पृथ्वी मर जाए जैसे कि बहुत से ग्रह मर चुके हैं तो मैं जी नहीं सकता, क्योंकि मेरा जीवन पृथ्वी के जीवन के साथ एक है। हर चीज का होना अस्तित्व की एक श्रृंखला में है। ऐसा नहीं है कि हम द्वीप हैं। हम सागर हैं।
छठवें शरीर पर सागर सी अनुभूति के विरुद्ध निजता का अनुभव एक मात्र तनाव है--बिना सीमाओं की एक अनुभूति एक ऐसी अनुभूति जिसका न आरंभ है और न ही अंत 'मुझ' की अनुभूति नहीं बल्कि 'हम' की अनुभूति। और इस 'हम' में सब-कुछ समाहित है। न केवल व्यक्ति न केवल जीवित जीवधारी, बल्कि वह सभी कुछ जिसका अस्तित्व है। 'हम' का अभिप्राय है स्वयं अस्तित्व।
इसलिए छठवें शरीर पर 'मैं' तनाव होगा। तुम 'मैं' को कैसे खो सकते हो? तुम अपने अहंकार को कैसे खो सकते हो? अभी तुम इस बात को समझने योग्य नहीं होओगे लेकिन अगर तुम पांचवें तल को उपलब्ध कर लो तो यह आसान हो जाएगा। इसे एक बच्चे के उदाहरण से समझो जो एक खिलौने से आसक्त है और कल्पना भी नहीं कर सकता कि वह इसे कैसे फेंक सकेगा। लेकिन जिस पल बचपन जाता है खिलौना फेंक दिया जाता है। वह बच्चा दुबारा कभी इस पर नहीं लौटता। पांचवें शरीर तक अहंकार बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन पाचवें के पार यह एक खिलौने की भांति हो जाता है, जिससे एक बच्चा खेलता रहा था। तुम बस इसे फेंक देते हो। कोई कठिनाई नहीं होती।
एक मात्र कठिनाई तब होगी जबकि तुमने पांचवें शरीर को क्रमिक प्रक्रिया द्वारा उपलब्ध किया हो न कि अचानक बोध द्वारा। तब छठवें शरीर में 'मैं' को पूरी तरह से फेंकना मुश्किल हो जाता है। इसलिए पांचवें शरीर के पार वे सभी विधियां जो अचानक विधियां हैं सहायक हो जाती हैं। पांचवें शरीर से पहले क्रमिक विधियां आसान प्रतीत होती हैं, लेकिन पांचवें के बाद वे रुकावट बन जाती हैं।
इसलिए छठे शरीर पर तनाव निजता और सागर जैसी चेतना के मध्य है। बूंद को सागर बनने के लिए स्वय को खो देना पड़ेगा। वास्तव में यह स्वयं को खोना नहीं है, लेकिन बूंद की दृष्टि से ऐसा लगता है। लेकिन इसके विपरीत जिस पल बूंद खो जाती है सागर उपलब्ध हो जाता है। वास्तव में बूंद ने स्वयं को खोया नहीं है। अब यह सागर हो गई है।
सातवां शरीर निर्वाण-शरीर है। सातवें शरीर में तनाव अस्तित्व और अनअस्तित्व के मध्य है। छठवें शरीर में खोजी ने 'स्वयं' को खो दिया है पर अस्तित्व को नहीं। वह है--व्यक्ति की भांति नहीं बल्कि ब्रह्मांडीय अस्तित्व की भांति। अस्तित्व वहां है। ऐसी तत्वमीमासाएं और व्यवस्थाएं हैं जो छठवें पर समाप्त हो जाती हैं। सातवें का अर्थ है अस्तित्व को भी अस्तित्वहीन में खो देना। यह स्वय को खो देना नहीं है। यह मात्र खो देना है। जो अस्तित्ववान था वह अस्तित्वहीन हो जाता है। तब तुम मूलस्रोत पर आ जाते हो, जिससे सारा अस्तित्व आता है और जिसमें यह चला जाता है। अस्तित्व इससे उत्सर्जित होता है, अनअस्तित्व फिर से इसमें विलीन हो जाता है।
अस्तित्व अपने आप में बस एक दशा है इसे वापस लौटना पड़ेगा। जैसे कि दिन आता है और रात उसका अनुगमन करती है जैसे कि रात जाती है और दिन उसका अनुगमन करता है। उसी तरह से अस्तित्व का आगमन होता है और अनअस्तित्व उसका अनुगमन करता है अनअस्तित्व आता है और उसके पीछे से अस्तित्व आ जाता है। अगर किसी को पूरी तरह से जानना हो तब उसे अनअस्तित्व से भागना नहीं चाहिए। अगर उसे समस्त वर्तुल को जानना हो तो उसको अस्तित्वविहीन होना पड़ेगा। ब्रह्मांडीय भी संपूर्ण नहीं है क्योंकि उसके पार अनअस्तित्व है। इसलिए भगवत्ता भी संपूर्ण नहीं है। भगवत्ता भी बस ब्रह्म का भाग है, भगवत्ता स्वयं ब्रह्म नहीं है। ब्रह्म का अर्थ है सभी कुछ एक साथ प्रकाश और अंधकार संयुक्त अस्तित्व और अनअस्तित्व संयुक्त। भगवत्ता मृत्यु नहीं है यह बस जीवन है। भगवत्ता अनअस्तित्व नहीं है भगवत्ता बस अस्तित्व है। भगवत्ता अंधकार नहीं है भगवत्ता केवल प्रकाश है। वह संपूर्ण अस्तित्व का बस एक भाग है, संपूर्ण नहीं।
समस्त को जानना ना-कुछ हो जाना है। केवल ना-कुछपन ही समग्र को जान सकता है। संपूर्णता ना-कुछपन है और ना-कुछपन एकमात्र संपूर्णता है--सातवें शरीर के लिए।
तो ये सातों शरीरों के तनाव हैं, भौतिक शरीर से शुरू होकर बाकी सभी शरीरों के। अगर तुम अपने भौतिक शरीर के तनाव को समझ लो इसकी विश्रांति को, इसकी प्रसन्नचित्तता को समझ लो तो तुम बहुत आसानी से सातों शरीरों को पार कर सकते हो। पहले शरीर की विश्रांति दूसरे शरीर के लिए सीढ़ी का पत्थर बन जाती है। और अगर तुम दूसरे शरीर में कुछ अनुभव कर लो--अगर तुम तनाव-शून्य भाव शरीर के एक क्षण का अनुभव कर लो, तो तीसरे शरीर की ओर कदम बढ़ा दिया गया है।
प्रत्येक शरीर में अगर तुम प्रसन्नचित्तता से आरंभ करो तो अगले शरीर के लिए द्वार स्वत: खुल जाता है। लेकिन अगर तुम पहले शरीर में ही मात खा गए, तो यह बहुत कठिन करीब-करीब असंभव ही हो जाता है कि आगे के द्वार खुले।
इसलिए पहले शरीर से शुरू करो और बाकी छह शरीरों के बारे में जरा भी मत सोचो। भौतिक शरीर में समग्रता से रहो, और अचानक तुम जानोगे कि एक नया द्वार खुल गया है। तब और आगे जारी रखो। लेकिन दूसरे शरीरों के बारे में मत सोचो अन्यथा यह रुकावटें पैदा करेगा और तनाव निर्मित कर देगा।
इसलिए जो भी मैंने कहा है--उसे भूल जाओ।
आज इतना ही
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