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शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-07)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो

प्रवचन-सातवां-(सात शरीरों का अतिक्रमण

(The Psychologe Of The Esoteric)-का हिन्दी रूपांतरण है)

ओशो आपने कहा कि हमारे सात शरीर हैं : एक भाव
शरीर एक मनस शरीर तथा कुछ और शरीर। कभी-कभी
भारतीय भाषा को पाश्चात्य मनोविज्ञान की शब्दावली के
साथ समायोजित कर पाना कठिन हो जाता है। पश्चिमी
विचारधारा में हमारे पास इसके लिए कोई सिद्धांत नहीं हैं
लेकिन आपने कल जिन शरीरों के बारे में बताया उनमें से
कुछ शरीरों को मैंने पहचाना है और उनको अनुभव किया है।
हम अपनी भाषा में इन विभिन्न शरीरों के नामों का
अनुवाद कैसे कर सकते हैं? आत्मिक शरीर के बारे में
कोई समस्या नहीं है; लेकिन भाव शरीर सूक्ष्म शरीर...?

तुम उनका अनुवाद कर सकते हो। पश्चिम ने उस दिशा में खोज नहीं की है, लेकिन पश्चिमी रहस्यवाद के पास इनके लिए नाम हैं शब्द हैं। जहां तक सतही चेतना के पार की खोज का प्रश्न है जुंग फ्रायड से बेहतर है। लेकिन जुंग भी बस एक शुरुआत भर है। तुम एक जर्मन विचारक स्टीनर्स की र-थोपोसॉफी से एक झलक पा सकते हो--और थियोसॉफिकल लेखों से भी कुछ झलक मिल सकती है।
जैसे कि स्लावट्स्की की 'सीक्रेट डॉक्ट्रीन' 'आइसिस अनवेल्ड' और अन्य पुस्तकें। एनीबीसेंट लीड बीटर, कर्नल आल्कॉट की रचनाओं से भी कुछ झलकियां मिल सकती हैं फिर रोसीकुसियन की रचनाएं हैं; और वहां पश्चिम में हरमीस की महान परंपरा है और अति महान हरमीटिक परंपराएं हैं। वहां पर एक और रहस्यवादी परंपरा है जो प्राचीन एसीनीज से संबंधित है--जो कि जीसस के शिक्षक रहे हैं जीसस को उन्हीं के द्वारा दीक्षा दी गई थी। और हाल में ही हुए गुरजिएफ से भी मदद मिल सकती है और पी. डी. ऑस्पेस्की।...इस प्रकार से टुकड़ों में कुछ पाया जा सकता है और इन टुकड़ों को साथ-साथ रखा जा सकता है।
और तुम्हारा खुद का अनुभव बहुत सहायक हो सकता है। मैंने भी तुम्हारी  शब्दावली में बात की है। मैंने सिर्फ एक शब्द का उपयोग किया है जो पश्चिमी भाषाओं में नहीं है सातवां, निर्वाण शरीर। शेष छह--भौतिक भाव, सूक्ष्म, मनस, आत्मिक और ब्रह्म--ये छह शब्द भारतीय नहीं हैं। केवल सातवां, 'निर्वाण' भारतीय है, क्योंकि पश्चिम में सातवें की बात कभी नहीं की गई। ऐसा इसलिए नहीं है कि वहां ऐसे लोग नहीं हुए जो सातवें को न जानते हों बल्कि इसलिए कि सातवां कुछ इस प्रकार का है कि उसके बारे में संवाद कर पाना असंभव है।
अगर तुमको ये शब्द कठिन लगते हों तो तुम बस 'पहला शरीर' 'दूसरा' 'तीसरा' 'चौथा' 'पांचवां' 'छठवां' 'सातवां' इस तरह के शब्दों का प्रयोग कर सकते हो। परंतु किसी भी विशेष शब्द का प्रयोग मत करो। बस पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा--का उपयोग करो और उनका वर्णन कर दो। यह वर्णन उचित होगा, शब्दावली का कोई महत्व नहीं है।
इन सात शरीरों तक बहुत सी दिशाओं से पहुंचा जा सकता है। और जहां तक स्वप्नों का संबंध है फ्रायड, जुंग और एडलर के शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। जिसे वे चेतन रूप में जानते हैं जिसको वे चेतन कहते हैं वही पहला शरीर है। अचेतन दूसरा है--बिलकुल ठीक-ठीक वही नहीं, पर उसके काफी निकट। जिसको वे 'सामूहिक अवचेतन' कहते हैं--वह तीसरा शरीर है ठीक वही नहीं बल्कि कुछ ऐसा जो करीब-करीब वैसा है।
और अगर कोई समतुल्य शब्द व्यवहार में नहीं है तो नये शब्द गढ़े जा सकते हैं। वस्तुत: ऐसा करना सदा बेहतर है क्योंकि नये शब्दों के पास कोई पुरानी धारणा नहीं होती है। इसलिए जब कोई नया शब्द प्रयोग किया जाता है तो क्योंकि कोई पुराना साहचर्य नहीं है इसलिए वह अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है और अधिक गहनता से समझ लिया जाता है। व्यक्ति का मन उस अवस्था में नहीं होता कि उसे पहले से ही पता है। जब किसी अज्ञात शब्द जिसका कोई गुप्त अर्थ हो का प्रयोग किया जाता है तो वह हमारे पुराने शब्दों के आदी मन में कहीं अधिक गहराई तक जाता है। इसलिए तुम नये शब्द गढ़ सकते हो।
भाव का अर्थ है जो आकाश और अंतरिक्ष से संबद्ध है। सूक्ष्म का अर्थ है सबसे छोटा, सूक्ष्म अंतिम परमाणविक जिसके पार पदार्थ का अस्तित्व नहीं रह जाता। मानसिक के लिए कोई परेशानी नहीं है। आत्मिक के लिए भी कोई कठिनाई नहीं है। ब्रह्मांडीय के लिए भी कोई मुश्किल नहीं है।
तब तुम सातवें निर्वाण शरीर पर आते हो। इसे समझ लेना बेहतर रहेगा कि
निर्वाण का क्या अर्थ है। निर्वाण का अर्थ है पूर्णविराम, चरम शून्यता, अब बीज भी नहीं बचा है हर चीज समाप्त हो गई है। भाषाशास्त्र के हिसाब से इस शब्द का अर्थ है लौ का बुझ जाना लौ बुझ गई है रोशनी मिट गई है। तब तुम यह नहीं पूछ सकते कि वह कहां चली गई है। बस इसका होना अब नहीं रहा है।
निर्वाण का अभिप्राय है लौ का बुझ जाना। अब वह कहीं नहीं है या सब कहीं है। अब न तो कोई विशेष स्थान है जहां वह हो, न कोई विशेष समय का क्षण है जिसमें कि उसका अस्तित्व हो। अब वह अपने आप ही स्थान और समय है। अस्तित्व है या अनस्तित्व, अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुम दोनों शब्दों का उपयोग कर सकते हो क्योंकि वह सब कहीं है-- या सब कहीं है या कहीं नहीं है। कहीं पर होने के लिए वह सब कहीं नहीं हो सकती है, और सब कहीं पर होने के लिए वह किसी विशेष स्थान पर नहीं हो सकती है। इसलिए 'कहीं नहीं' और 'सब कहीं' का एक ही अर्थ है। सातवें शरीर के लिए तुम निर्वाण शरीर का उपयोग कर सकते हो, क्योंकि उसके लिए कोई बेहतर शब्द नहीं है।
और अगर तुम अपने स्वयं के अनुभवों में उतर कर देखो और वे तुम्हें कोई इसका समानांतर शब्द बता दें, तो और आसान हो जाता है। क्योंकि अगर तुमने कुछ जाना नहीं है और तुम्हारे पास केवल शब्द हैं खाली, खोखले बिना किसी अर्थ के. शब्दों में कोई भी अर्थ नहीं होता है। केवल अनुभव में अर्थ होता है।
और जब शब्द के पीछे अनुभव होता है, तो शब्द अर्थपूर्ण हो जाता है--वरना वह अर्थहीन और असंगत है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें अर्थ है, तब भी जब कि वहां कोई अनुभव न हो, लेकिन वह केवल प्रतीत होना है--वह भाषा का भ्रम है। तो जब तुम्हें इसका थोड़ा अनुभव हुआ हो, तब तुम उस अनुभव को और गहरा कर सकते हो, और ऐसी विधियां हैं जिनका विशेष तल पर प्रयोग किया जा सकता है।
भौतिक शरीर से आरंभ करो और तब हर अगला कदम तुम्हारे लिए खुल जाता है। जब तुम पहले शरीर पर कार्य कर रहे होते हो तुम्हे दूसरे की झलकें मिलती हैं। इसलिए भौतिक शरीर से शुरू करो। उसके प्रति सजग होओ प्रत्येक क्षण सजग, क्षण-क्षण, और न केवल बाहर-बाहर से--क्योंकि हम अपने शरीर के प्रति बाहर से सजग हो सकते हैं, जैसा कि यह बाहर से दिखाई पड़ता है।
मैं अपने हाथ को देखता हूं मैं इसके प्रति ऐसे सजग हो सकता हूं जैसे कि मैंने इसको बाहर से देखा हो। लेकिन जब मैं अपनी आंखें बंद भी कर लेता हूं तब भी मुझे अपने हाथ की एक अंतर अनुभूति है। अब हाथ दिख नहीं रहा है लेकिन एक अनुभूति है। उसके होने की आंतरिक अनुभूति है। तो अपने शरीर के प्रति उस प्रकार से सजग मत होओ जैसा कि वह बाहर से दिखता है। यह तुमको भीतर की ओर नहीं ले जाएगा। अगर तुम अपने शरीर के प्रति इस प्रकार से सजग होते हो जैसा कि वह बाहर से दिखाई पड़ता है तो तुम उसके साथ कभी विकसित नहीं हो सकते हो क्योंकि भीतर की अनुभूति नितांत भिन्न है।
जब तुम इसे भीतर से अनुभव करते हो कि शरीर के भीतर होने का क्या मतलब है...मैं एक मकान को बाहर से देख सकता हूं यह एक बात है, भीतर से देखना कुछ और बात है। यह वही मकान है। लेकिन भीतर से यह कुछ और है। और भीतर से... बड़ा भेद यह है कि जब तुम इसे सिर्फ बाहर से देखते हो तो तुम इसके रहस्य नहीं जान सकते हो। तुम सिर्फ बाहरी दीवारों को जान सकते हो जैसा कि वे दूसरों को दिखाई पड़ती हैं।
अगर मैं अपने शरीर को बाहर से देखता हूं तो मैं इसको ऐसे ही देखता हू जैसा यह दूसरों को भी दिखाई पड़ता है। और भीतर से देखने का बिंदु केवल मेरे द्वारा ही जाना जा सकता है, और इसे कोई दूसरा नहीं जान सकता है। मेरा हाथ बाहर की ओर से—तुम इसे देख सकते हो और मैं इसे देख सकता हूं। यह कुछ ऐसी चीज है जो वस्तुगत हो गई है। जब तुम किसी कार्य में भागीदारी करते हो और मेरे साथ जानकारी को बांटते हो, तब उस दिशा से देखा गया हाथ मेरा ही नहीं रहा है। यह एक सार्वजनिक संपदा बन गया है। तुम भी इसे उतना ही जान सकते हो जितना कि मैं इसे जान सकता हूं।
जिस पल मैं इसे भीतर से देखता हूं केवल उस पल यह मेरा होता है और यह अनुभूति ऐसी होती है जिसे बांटा नहीं जा सकता है। तुम यह नहीं जान सकते हो कि मुझे भीतर से कैसा लग रहा है। सिर्फ मैं ही यह जान सकता हूं। इसलिए वह शरीर जिसे हम जानते हैं, वही शरीर नहीं है जो हमारा है। यह तो वह शरीर है जिसको सभी लोग बाहर से जानते हैं। यह वह शरीर है जिसको चिकित्सक प्रयोगशाला में जान सकते हैं। यह वह शरीर नहीं है जिसे जानने के लिए केवल मैं ही अधिकृत हूं।
यह निजी अनुभूति ही तुम्हें भीतर ले जा सकती है; जानकारी का सार्वजनिक आयाम तुम्हें भीतर की ओर नहीं ले जा सकता है। यही कारण है कि जीवविज्ञान या मनोविज्ञान, जो बाहर से किए गए निरीक्षण हैं हमारे भीतरी शरीरों की जानकारी की ओर हमें नहीं ले जा सकते--क्योंकि यह शरीर पहला शरीर ही एक मात्र शरीर है जिसकी जानकारी को बांटा जा सकता है। दूसरा शरीर पूरी तरह से निजी है। और इस भौतिक शरीर की जैसा कि इसे भीतर से जाना गया है जानकारी भी बांटी नहीं जा सकती है। बाहर से प्राप्त ज्ञान को ही परिधि की जानकारी को ही बांटा जा सकता है।
तो इसी कारण से अनेक दुविधाएं खड़ी हो जाती हैं। किसी को अपने भीतर सौंदर्य का बोध हो सकता है जो कि एक अंतरिक अनुभूति है। वह अपने आप को सुंदर व्यक्ति की भांति सोच सकता है और हो सकता है कि उससे कोई भी सहमत न हो। तब बड़ी दुविधा हो जाती है। आमतौर से प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को सुंदर समझता है कोई भी अपने आप को कुरूप नहीं मानता है। हम किसी व्यक्ति को यह मानने के लिए मजबूर कर सकते हैं कि वह कुरूप है और अगर हम सामूहिक रूप से इस पर सहमत हैं तो वह भी हमसे राजी हो सकता है। किंतु भीतर से कोई भी अपने आप को कुरूप अनुभव नहीं करता है? क्योंकि भीतर से शरीर सदा सुंदर है। भीतरी अनुभव सदा सौंदर्य का है।
बाहर का अनुभव कोई अनुभव नहीं है, बल्कि एक फैशन है बाहर से आरोपित एक कसौटी है। जो व्यक्ति एक समाज में सुंदर है दूसरे समाज में कुरूप हो सकता है। इतिहास के किसी एक काल में चेहरे का कोई विशेष आकार-प्रकार सुंदर हो सकता है लेकिन दूसरे काल में सुंदर नहीं हो सकता है। ये बाहर से थोपी गई कसौटियां हैं। लेकिन अंतर्तम अनुभूति सदा सौंदर्य की है।
इसलिए अगर बाहर की कसौटी न हो कसौटी ही न हो, तो कुरूपता भी नहीं
होगी--बाहर से देखने पर भी नहीं। हमारे पास सौंदर्य की एक निश्चित प्रतिमा है और प्रत्येक व्यक्ति की इससे तुलना की जाती है। यही कारण है कि कुरूपता है और सौंदर्य है अन्यथा वे नहीं होते। अगर हम सभी अंधे हो जाएं तो कोई भी कुरूप नहीं होगा हर व्यक्ति सुंदर होगा। कोई नहीं कह सकता कि इससे नुकसान होगा, यह एक बड़ा लाभ भी सिद्ध हो सकता है।
शरीर की भीतर से अनुभूति पहला कदम है। और तुम इसके प्रति किसी भी
परिस्थिति में सजग हो सकते हो। और विभिन्न परिस्थितियों में तुम भीतर से सदा एक सा अनुभव नहीं करोगे। जब तुम प्रेम में होते हो तो भीतर की अनुभूति भिन्न होती है जब तुम घृणा में होते हो तो भीतर की अनुभूति भिन्न होती है। इसलिए अगर तुम किसी बुद्ध से पूछो तो वे कहेंगे 'प्रेम सौंदर्य है।' ऐसा नहीं है...सोच-विचार के हमारे ढंगों में ऐसा नहीं है लेकिन यह उनकी आंतरिक अनुभूति है। उन्हें पता है कि जब वे प्रेममय होते हैं तो वे सौंदर्यमय भी होते हैं
शरीर की भीतरी अनुभूति सौंदर्य की होती है। जब भीतर घृणा हो जब भीतर क्रोध हो जब भीतर ईर्ष्या हो तब भीतर सब कुरूप हो जाता है। तुम विभिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न क्षणों में मन की विभिन्न अवस्थाओं में इसको अनुभव कर सकते हो।
जब तुम आलस्य अनुभव करते हो तो अलग अनुभव होता है। जब तुम सक्रियता अनुभव करते हो तो अलग अनुभव होता है। जब तुम नींद अनुभव करते हो तो अलग अनुभव होता है। इन भेदों को स्पष्टता से जानना होगा। केवल तब तुम अपने शरीर के भीतर के जीवन से--बीमारी में जवानी में बुढ़ापे में बचपन में--परिचित होते हो। तब तुम अपने शरीर का भीतरी इतिहास भीतरी भूगोल जानते हो। और जिस पल कोई भीतर से अपने शरीर के प्रति बोधपूर्ण हो जाता है दूसरा शरीर स्वत: उसकी दृष्टि में आ जाता है।
अब यह दूसरा शरीर बाहर से जाना जाएगा। अगर तुम पहले शरीर को भीतर से जानते हो तो तुम दूसरे शरीर के प्रति बाहर से बोधपूर्ण हो जाओगे। जैसे कि हमने पहले शरीर को बाहर से जाना था।
प्रत्येक शरीर के दो आयाम होते हैं बाहरी और भीतरी। ठीक वैसे ही जैसे कि प्रत्येक दीवाल की दो सतहें होती हैं--एक जो बाहर से दिखती है और दूसरी जो भीतर से दिखती है--इसी तरह से प्रत्येक शरीर की एक दीवाल होती है। जब तुम पहले शरीर को पार कर लेते हो और उसे भीतर से जान लेते हो, तो तुम दूसरे शरीर के प्रति बाहर से सजग हो जाते हो। अब तुम बीच में हो पहले शरीर के भीतर और दूसरे शरीर के बाहर। पहले शरीर के बाहर से तुम दूसरे शरीर को कभी न जान पाओगे। यह दूसरा वर्तुल है।
बाहर से जाना गया यह दूसरा शरीर भाव शरीर है। इसका भौतिक अस्तित्व नहीं है। यह घनीभूत हो गए धुएं जैसा है। तुम बिना किसी अवरोध के इसके पार जा सकते हो। लेकिन यह ऐसा नहीं है जिसके आर-पार देखा जा सके इसीलिए मैं 'घनीभूत धुआं' कह रहा हूं 'पारदर्शी' नहीं। तुम बिना किसी रुकावट के इससे होकर निकल सकते हो। लेकिन तुम बाहर से इसमें देख नहीं सकते हो। पहला शरीर न तो पारदर्शी है न ही धुएं जैसा है। यह ठोस है। दूसरा शरीर जहां तक आकृति का संबंध है ठीक पहले शरीर जैसा है-ठीक वैसा ही उसकी एक विरल छाया है।
जब पहला शरीर मर जाता है दूसरा शरीर नहीं मरता। यह तुम्हारे साथ यात्रा करता है। लेकिन तेरह दिनों में यह भी मर जाता है मिट जाता है विसर्जित हो जाता है। इस दूसरे शरीर को--अगर पहले शरीर की उपस्थिति में उसके जीवित रहते हुए तुमने जान लिया है तो तुम सुस्पष्टता से उसे देख सकते हो।
यह दूसरा शरीर तुम्हारे भौतिक शरीर से बाहर जा सकता है। कभी-कभी ध्यान करते समय दूसरा शरीर ऊपर या नीचे चला जाता है और तुम्हें ऐसा अनुभव होता है कि तुम्हारे ऊपर गुरुत्वाकर्षण का कोई खिंचाव न रहा। तुम्हारी आंखें बंद हैं तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम ऊपर उठ गए हो तुमने धरती को छोड़ दिया है। लेकिन जब तुम अपनी आंखें खोलते हो, तो तुम धरती पर ही होते हो और तुम जानते हो कि तुम सारे समय धरती पर ही थे। यह अनुभूति दूसरे शरीर के कारण आई पहले के कारण नहीं। दूसरे के लिए गुरुत्वाकर्षण नहीं है जिस क्षण तुम इसे जान लेते हो तुम एक खास किस्म की आजादी अनुभव करते हो जो कि भौतिक शरीर के लिए अनजानी थी। बाहर की ओर से तुम पर एक विराट स्वतंत्रता का अवतरण हो जाता है। अब गुरुत्वाकर्षण नहीं रहा। तुम अपने शरीर से बाहर जा सकते हो और लौट कर वापस आ सकते हो।
तो यह दूसरा कदम है अगर तुम अपने दूसरे शरीर को भीतर से जानना चाहते हो, तो तुम्हें शरीर से बाहर होने का अनुभव होना चाहिए। और विधि कठिन नहीं है—बस अपने शरीर से बाहर होने की इच्छा करो और तुम शरीर से बाहर होते हो। इच्छा करने से ही वह पूरी हो जाती है। दूसरे शरीर के लिए कोई भी प्रयास नहीं करना पड़ता है क्योंकि वहां गुरुत्वाकर्षण का कोई खिंचाव नहीं है। पहले शरीर के साथ गुरुत्वाकर्षण बल के कारण कठिनाई है। अगर मैं तुम्हारे घर आना चाहता हूं तो मुझे गुरुत्वाकर्षण के साथ संघर्ष करना पड़ेगा। यही कारण है कि प्रयास, परिश्रम करना पड़ता है। लेकिन अगर कोई गुरुत्वाकर्षण बल न हो तो बस मामूली सी इच्छा ही काफी होगी और घटना घट जाएगी।
इसलिए, जब तुम अपने पहले शरीर के भीतर और अपने दूसरे शरीर के बाहर होते हो तो बस इच्छा पर्याप्त है बस प्रतीक्षा भर करनी है। केवल एक बात समझ लेनी
चाहिए. इच्छा परिपूर्ण होनी चाहिए। इसमें कोई भी अंतर-विरोध नहीं होना चाहिए। इसमें कोई भी संदेह नहीं होना चाहिए। इस इच्छा में जरा भी 'यह-वह' नहीं होना चाहिए। यह नहीं होना चाहिए 'मैं बाहर हो जाऊंगा,' अगर इसके साथ 'मैं बाहर न निकल पाऊं' ऐसा खयाल भी आ गया, तो ये दोनों इच्छाएं एक-दूसरे को काट देंगी।
भाव शरीर ही वह शरीर है जिस पर सम्मोहन में काम किया जाता है। सम्मोहन में पहला शरीर शामिल नहीं होता है। सम्मोहन से उत्पन्न तंद्रा में दूसरे शरीर की भूमिका होती है। यही कारण है कि जिस व्यक्ति की आंखें पूरी तरह से ठीक हैं, जब सम्मोहनविद कहता है 'तुम अंधे हो गए हो' तो वह अंधा हो जाता है। अब वह देख नहीं सकता है। यह दूसरा शरीर है, यह भाव शरीर है जो प्रभावित हो गया है। और सम्मोहन करने वाले के सुझाव भाव शरीर द्वारा सुने जाते हैं।
यही कारण है कि सम्मोहन में पहले तुम्हें गहन तंद्रा में होना चाहिए--केवल तब ही तुम्हारे दूसरे शरीर तक पहुंचा जा सकता है। कोई व्यक्ति जो बिलकुल ठीक है, स्वस्थ है उसे बस इस सुझाव से कि वह पंगु हो गया है, पंगु किया जा सकता है। सम्मोहन करने वाले को ऐसी भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए जो संदेह उत्पन्न करती हो। यदि वह यह कहता है, 'मैं सोचता हूं ऐसा लगता है कि तुम अंधे हो गए हो' तो यह काम नहीं करेगा। उसे इस बारे में निश्चित सुस्पष्ट और पूरी तरह से संदेहरहित होना चाहिए कि तुम अंधे हो। केवल तभी वह सुझाव कार्य करता है।
दूसरे शरीर में बस इच्छा करो कि 'मैं शरीर के बाहर हूं।' और तुम शरीर से बाहर होगे। सम्मोहन की तंद्रा यहां सहायक हो सकती है। अगर तुम्हारा पहला शरीर सो गया है, तो सम्मोहन की निद्रा... सामान्य निद्रा नहीं, क्योंकि सामान्य निद्रा में तुम्हारा पहला शरीर अभी भी महत्वपूर्ण होता है। सामान्य निद्रा, दिन-प्रतिदिन की नींद पहले शरीर से संबद्ध है। इसका दूसरे शरीर से संबंध नहीं है। यह तो बस ऐसे है कि पहला शरीर दिन भर के परिश्रम कार्य और तनाव से थक गया है। तो यह विश्रांति है। सम्मोहन की निद्रा में सम्मोहन में दूसरे शरीर को सुला दिया जाता है। और अगर इस दूसरे शरीर को सुला दिया जाए, तो तुम उसके साथ कार्य कर सकते हो।
और ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो इसके माध्यम से कार्य कर सकती हैं क्योंकि जब तुम बीमार पड़ते हो तो पचहत्तर प्रतिशत बीमारियां इस दूसरे शरीर से आती हैं और वे पहले पर प्रकट होती हैं। केवल पच्चीस प्रतिशत बीमारियां पहले शरीर में आती हैं और दूसरे पर पहुंचती हैं।
दूसरा शरीर सुझावों के प्रति इतना अधिक ग्रहणशील होता है कि प्रत्येक मेडिकल कॉलेज में पहले साल के विद्यार्थी हमेशा उसी रोग से बीमार पड़ते हैं...उन्हें वही बीमारी हो जाती है जो उन्हें उस समय पढ़ाई जा रही होती है। उनमें वही लक्षण उभरने लगते हैं। अगर सिरदर्द पर चर्चा चल रही हो और उसके लक्षण बताए जा रहे हों, तो हर व्यक्ति अनजाने में भीतर उतर जाता है और उन लक्षणों के बारे में विचार करने लगता है—कहीं उसी को तो सिरदर्द नहीं है? क्योंकि यह भीतर उतर जाना भाव शरीर को प्रभावित करता है सुझावों को ग्रहण कर लिया जाता है और सिरदर्द निर्मित प्रक्षेपित हो जाता है।
प्रसव का दर्द प्रसव-पीड़ा पहले शरीर का दर्द नहीं है, यह दूसरे शरीर की अनुभूति है। इसलिए सम्मोहन के माध्यम से प्रसव-पीड़ा को बिलकुल पीड़ा रहित बनाया जा सकता है--मात्र सुझाव के द्वारा। ऐसे समाज हैं जहां प्रसव-पीड़ा को, प्रसव के दर्द को कोई महसूस ही नहीं करता है, यह उन लोगों के मन में नहीं है। किंतु हर प्रकार की सभ्यता कुछ आम सुझाव निर्मित करती है वे सुझाव प्रत्येक व्यक्ति की जीवन-शैली का अनिवार्य भाग बन जाते हैं।
सम्मोहन के प्रभाव में कोई दर्द नहीं होता है। सम्मोहन के प्रभाव में शल्यक्रिया, बहुत दर्द देने वाली शल्यक्रिया भी बिना किसी दर्द की अनुभूति के की जा सकती है, क्योंकि यह दूसरा शरीर यदि यह दूसरा शरीर इस सुझाव को ग्रहण कर ले कि दर्द नहीं होगा तो दर्द नहीं होगा। जहां तक मेरी समझ है हर प्रकार की पीड़ा और हर प्रकार का सुख दोनों ही दूसरे शरीर से आते हैं। यह अनुभूति बस पहले पर प्रकट होती है। इसलिए अगर सुझाव बदल जाते हैं, तो वही बात पीड़ादायक बन सकती है, और वही बात सुखदायक बन सकती है--वही बात!
सुझाव को बदलो, ईथरिक माइंड भाव-मन को बदलो और सब-कुछ बदल जाएगा। बस समग्रता से इच्छा भर करनी है। जब इच्छा समग्र हो जाती है, तो यह संकल्प बन जाती है, इन दोनों में बस यही अंतर है। अगर तुमने पूर्णता से, समग्रता से, अपने सारे मन से इच्छा की है, तो वह संकल्प बन जाती है, वह संकल्प शक्ति बन जाती है। और तुम अपने पहले शरीर के बाहर जा सकते हो।
जब तुम पहले शरीर के बाहर जाते हो तभी दूसरे शरीर को भीतर से जानने की संभावना बनती है, अन्यथा नहीं--क्योंकि जब तुम अपने भौतिक शरीर के बाहर जाते हो तो तुम्हारी स्थिति बदल जाती है। अब तुम पहले शरीर के भीतर और दूसरे शरीर के बाहर--इन दोनों के बीच में नहीं हो। अब तुम दूसरे शरीर में हो...क्योंकि तुम पहले शरीर से बाहर हो। अब पहला शरीर नहीं है।
अब तुम अपने दूसरे शरीर के साथ भीतर से वही व्यवहार कर सकते हो जैसा कि तुमने अपने पहले शरीर के साथ किया था। अब दूसरे शरीर की भीतरी कार्यप्रणाली, इसके तरिक अवयवों, इसकी भीतरी यांत्रिकताओं, इसकी भीतरी संरचना के प्रति सजग हो जाओ। अब तुम इसके प्रति सजग हो सकते हो। और एक बार बाहर हो गए, फिर कोई कठिनाई नहीं है। उस समय भी जब कि तुम इसके भीतर हो तुम इसके प्रति सजग हो सकते हो। पहला अनुभव कठिन है, इसके बाद तुम सदा दो शरीरों के भीतर अनुभव करोगे पहला शरीर, दूसरा शरीर और तुम। अब तुम्हारा ध्यान दो पर्तों के, दो परिधियों के भीतर आएगा।
जब तुम दूसरे शरीर के भीतर होते हो, तब तुम तीसरे, सूक्ष्म शरीर के बाहर होते हो। और जहां तक सूक्ष्म शरीर का प्रश्न है वहां किसी संकल्प की भी जरूरत नहीं है। बस इच्छा ही पर्याप्त है। वहां अब किसी समग्रता का प्रश्न नहीं है। बस एक अभिलाषा और तुम तीसरे शरीर के भीतर जा सकते हो, क्योंकि यह पारदर्शी है। बाहर से भी तुम भीतर देख सकते हो। यह बस एक कांच की दीवाल की तरह है-- तुम बाहर हो और तुम भीतर देख सकते हो।
इसलिए अब इच्छा की भी जरूरत नहीं है। अगर तुम भीतर जाना चाहते हो तुम जा सकते हो। यह वैसा ही तरल है जैसा दूसरा शरीर लेकिन यह पारदर्शी भी है। तो यह गाढ़े धुएं की तरह नहीं है बल्कि आया की तरह है--ऐसा धुआं जो प्रकाश के कणों की भांति है। प्रकाशित धुआं, पारदर्शी। तुम भीतर जा सकते हो--किसी इच्छा के बिना तुम चले जाओगे। जैसे तुम बाहर होते हो, वैसे तुम भीतर हो जाओगे। पहली बार ऐसा होगा कि तुम अंदर हो या बाहर हो-- इसका भेद तुम नहीं जान पाओगे-- क्योंकि यह अंतराल पारदर्शी है।
जब तुम पहले तीन शरीरों को पार कर लेते हो, तो चौथा शरीर तो एक प्रकार से पूरी तरह से दीवालरहित है।

तीसरे शरीर का आकार क्या है?

वही आकार है, आकार वही होगा। केवल छठवें शरीर के साथ आकार बदल जाएगा। पांचवे शरीर तक आकार वहीं रहेगा। वह पदार्थ जिससे ये शरीर बने है, बदलेगा। लेकिन पांचवें शरीर तक आकार वही रहेगा। छठवें शरीर के साथ आकार
ब्रह्मांडीय हो जाएगा। और सातवें के साथ कोई भी आकार नहीं होगा, ब्रह्मांडीय भी नहीं। तीसरे शरीर के भीतर, चौथे शरीर की कोई दीवाल नहीं है। बस एक सीमा-रेखा है पारदर्शी दीवाल भी नहीं है। यहां कोई दीवाल नहीं है। यह दीवालरहित है। इसलिए यहां कोई कठिनाई नहीं है और कोई विधि नहीं है, किसी विधि की जरूरत भी नहीं है। जिस व्यक्ति ने तीसरे को उपलब्ध कर लिया है सरलता से चौथे शरीर को उपलब्ध कर सकता है।
लेकिन चौथे के पार जाने में काफी कठिनाई है जैसी कि पहले के पार जाने में थी क्योंकि अब मनस क्षेत्र मिट जाता है। पांचवां आत्मिक शरीर है। यहां पुन: एक दीवाल है, उन पुराने अर्थों में दीवाल नहीं जैसी दीवालें पहले शरीर, दूसरे शरीर.. आदि के बीच में थीं। अब यह दीवाल दो आयामों के मध्य है, दो भिन्न तलों के मध्य है।
ये चारों शरीर चार हैं, लेकिन एक ही तल पर, एक ही धरातल पर संबद्ध हैं। अब तुम तल बदलते हो यह आयाम अलग है। इसके पहले विभाजन हॉरिजटल क्षैतिज था। अब यह विभाजन वर्टिकल, ऊर्ध्वाधर है। अब विभाजन 'ऊपर' 'नीचे' की भांति है। तो यहां एक दीवाल है--चौथे शरीर और पांचवें शरीर के बीच की दीवाल एक विराट दीवाल है क्योंकि हमारे देखने के तरीके हॉरिजटल क्षैतिज हैं।
हम सामने देखते हैं हम पीछे देखते हैं हमारी आंखें क्षैतिज हैं हमारी दृष्टि क्षैतिज है। यह नीचे से ऊपर की ओर नहीं है। यही कारण है कि हमारी आंखें क्षैतिज हैं क्योंकि ये आंखें चौथे शरीर, मनस शरीर का एक हिस्सा हैं। इसीलिए मानसिक अंधेपन की भी पूरी संभावना होती है जिस व्यक्ति की आंखें पूरी तरह से ठीक हैं-- उनमें शरीर शास्त्रीय दृष्टि से कोई समस्या कोई दोष नहीं है--लेकिन फिर भी वह अंधा हो सकता है। मानसिक अंधापन संभव है। ऐसा होता है।
अगर मन के ध्यान की दिशा बदल जाए तो आंखें अंधी हो जाती हैं। क्षण भर के लिए हम सभी अंधे हो सकते हैं। तुम्हारे घर में आग लग गई हो और तुम सड़क पर दौड़ते हुए जा रहे हो और कोई व्यक्ति तुम्हारी बगल से गुजर रहा है तुम उसको नहीं देखते हो वह नहीं दिखाई पड़ता है क्योंकि तुम्हारे मन का ध्यान कहीं और है। आंखें काम नहीं कर रही हैं। तुमको दिखता है लेकिन तुम वहां नहीं हो। तुम देख पा रहे हो और फिर भी तुम अंधे हो सकते हो, क्योंकि तुम्हारा ध्यान वहां नहीं है। आंखें खाली हो सकती हैं। भय में वे खाली हो जाती हैं उनको दिखता है और वे कुछ नहीं देखती हैं।
चौथे शरीर से पांचवें शरीर में तल का परिवर्तन हो जाता है। अब चौथे शरीर में तुमको बाहर की ओर तथा भीतर की ओर नहीं देखना है बल्कि ऊपर की ओर तथा नीचे की ओर देखना है। अभी जब तुम चौथे शरीर में हो, तो तुम नीचे
की ओर देखना है। अभी जब तुम चौथे शरीर में होते हो, तो तुम नीचे की ओर देख रहे होते हो, मन सदा नीचे की ओर देखता है। यही कारण है कि योग मन के विरुद्ध है। यह अधोगामी प्रवाह है नीचे की ओर बहने वाला बिलकुल पानी की तरह। पानी नीचे की ओर जाता है नीचे की और प्रवाहित होता है, यह उसका अंतर्तम स्वभाव होता है। नीचे की और बहना कभी अपने आप से ऊपर की ओर नहीं जा सकता है।
इसलिए पानी कभी किसी आध्यात्मिक व्यवस्था का प्रतीक नहीं बनाया जा सका। अग्नि को अनेक व्यवस्थाओं में प्रतीक बनाया जा सका--क्योंकि अग्नि ऊपर की ओर जाती है। यह कभी नीचे की ओर नहीं जाती। यह एक प्रतीक बन गई। चौथे से पांचवें शरीर में जाने के लिए अग्नि प्रतीक है। व्यक्ति को ऊपर की ओर देखना है और उसे नीचे की और देखने से रोकना है।

इसकी क्या विधि होगी? ऊपर की ओर कैसे देखा जाए?
मार्ग क्या है?

तुमने सुना होगा कि ध्यान में आंखों को ऊपर की ओर केंदित होना चाहिए, उन्हें ऊपर की ओर के केंद्र, आज्ञा-चक्र पर केंदित होना चाहिए। आंखों को बंद और ऊपर की ओर देखती हुई होना चाहिए जैसे कि तुम अपनी खोपड़ी के भीतर झांकने जा रहे हो, उन्हें नीचे की ओर नहीं देखना है। तुम्हारी आंखों को ऊपर की ओर देखते हुए खोपड़ी के भीतर झांकती हुई होना चाहिए।
आंखें बहुत प्रतीकात्मक हैं। असली सवाल देखने का है। लेकिन हमारी दृष्टि
हमारे देखने की व्यवस्था आंखों के साथ जुड़ी हुई है इसलिए आंखों का दृष्टि-क्षेत्र हमारा दृष्टि-क्षेत्र बन जाता है। यदि तुम्हारी आंखें ऊपर की ओर देखती हैं तो तुम्हारी दृष्टि भी ऊर्ध्वगामी हो जाती है।
यह चौथा शरीर है--और अनेक व्यवस्थाएं चौथे शरीर से ही आरंभ होती हैं।
राजयोग आदि विधियों चौथे शरीर से आरंभ होती हैं। सिर्फ हठयोग पहले शरीर से शुरू होता है। दूसरे प्रकार के योग...वे कहीं और से शुरू होते हैं। जैसे कि थियोसॉफी दूसरे शरीर से शुरू होती है हठयोग पहले शरीर से शुरू होता है। कुछ ऐसी व्यवस्थाएं हैं जो तीसरे शरीर से शुरू होती हैं। राजयोग चौथे शरीर से शुरू होता है। जैसे-जैसे सभ्यता प्रगति करते हुए चौथे शरीर पर पहुंची है तो इसका चुनाव किया जा सकता है। तब अनेक लोग यहां से शुरू कर सकते हैं।
अगर उन्होंने अपने पिछले जन्मों में पहले, दूसरे और तीसरे शरीर पर कार्य कर लिया हो केवल तभी वे ऐसा कर सकते हैं। अगर उन्होंने इन तीन शरीरों की साधना पूरी कर ली हो केवल तभी चौथे से यात्रा आरंभ की जा सकेगी। तो ऐसे लोग जो शास्त्रों से, या स्वामियों से या गुरुओं से राजयोग सीख लेते हैं बिना यह जाने कि उन्होंने अपने पहले तीन शरीरों पर कार्य कर लिया है अथवा नहीं उनका देर-अबेर भ्रम टूट ही जाता है--क्योंकि वे चौथे से शुरू नहीं कर सकते हैं। पहले तीन शरीरों को पार करना ही पड़ेगा, केवल तभी चौथे से यात्रा शुरू होगी।
और चौथा ही वह अंतिम पड़ाव है यहां से तुम यात्रा शुरू कर सकते हो। कोई व्यक्ति पांचवें शरीर से यात्रा का आरंभ नहीं कर सकता है। चौथा अंतिम पड़ाव है। तो इस तरह चार योग हैं प्रथम शरीर के लिए हठयोग, दूसरे शरीर के लिए मंत्रयोग, तीसरे के लिए भक्तियोग और चौथे के लिए राजयोग। चारों शरीरों के अनुसार योग के ये विभाजन हैं। इसलिए पुराने दिनों में प्रत्येक व्यक्ति को पहले शरीर से शुरू करना पड़ता था। लेकिन अब बहुत प्रकार के लोग हैं। किसी ने अपने पिछले जन्म में दूसरे शरीर तक का कार्य कर लिया है, कोई तीसरे तक का कार्य कर चुका है तो ये अंतर हो सकते हैं। लेकिन जहां तक स्वप्नों का संबंध है, व्यक्ति को पहले शरीर से ही शुरू करना चाहिए। केवल तब ही तुम इसके पूरे विस्तार को, इसके पूरे वर्णक्रम को जान सकोगे।
चौथे शरीर में तुम्हारी चेतना को अग्नि के समान हो जाना चाहिए--ऊपर की ओर जाती हुई--और इसकी जांच की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए चौथे शरीर में यदि मन कामुकता की ओर जाता है तो यह ठीक वैसे है जैसे कि पानी नीचे की ओर जा रहा हो। काम-केंद्र नीचे की ओर है। अगर मन कोई प्रेम-संबंध निर्मित करता है, तो प्रेम-संबंध का केंद्र-हृदय-नीचे की ओर है। अब व्यक्ति को आंखों से ऊपर की ओर देखना शुरू कर देना चाहिए आंखों से नीचे की ओर नहीं।
अगर चेतना को ऊपर की ओर जाना हो तो उस केंद्र से शुरू करना चाहिए जो आंखों से ऊपर है आंखों से नीचे के केंद्र से नहीं। और ऐसा केवल एक ही केंद्र है वह है आज्ञा-चक्र तुम्हारी दोनों आंखों के मध्य में--जिसे तीसरी आंख के रूप में जाना जाता है। अब दोनों आंखों को ऊपर की ओर तीसरी आंख की ओर देखना चाहिए।
इस तीसरी आंख को बहुत से उपायों से याद रखा गया है। भारत में कुंआरी और विवाहिता लड़की के मध्य अंतर विवाहिता की तीसरी आंख पर रंगीन बिंदी लगा कर किया जाता है। कुंआरी लड़की ऊपर की ओर नहीं देख सकती है। वह काम-केंद्र की ओर देखने के लिए बाध्य है। लेकिन जब उसका विवाह हो गया है, उसे ऊपर की ओर देखना आरंभ कर देना चाहिए। अब कामुकता को बदल जाना चाहिए। अब उसको मां बनना है। अब उसकी यात्रा अकाम या कामुकता से परे की ओर है। उसे तीसरी आंख को याद रखना चाहिए, इसलिए एक रंगीन चिह्न, एक बिंदी का उपयोग किया जाता है। जिससे उसे याद रहे कि अब वह कुंआरी नहीं है अब वह केवल एक लड़की भर नहीं है। उसे ऊपर की ओर देखना है।
मस्तक पर लगाए जाने वाले ये तिलक टीके अनेक प्रकार के होते हैं। संन्यासी के भक्त के--इनके रंग भी भिन्न-भिन्न होते हैं। और वे भी अगर संभव हो तो चंदन के होते हैं, क्योंकि यह चक्र उत्तप्त चक्र है। इसे हमेशा शीतल रहना चाहिए। जब तुम्हारी दोनों आंखें तीसरी रख की ओर देखने लगती हैं वहां पर अग्नि का एक महत केंद्र निर्मित हो जाता है वहां जलने की संवेदना होती है। तीसरी आंख खुलना शुरू कर रही है, इसलिए उसे शीतल रखा जाना है। भारत में चंदन का प्रयोग किया जाता है यही एकमात्र चीज है जिसका उस समय उपयोग किया जा सकता है।
अब भी इससे बेहतर और कुछ भी नहीं है इसके कई कारण हैं यह शीतल है, और इसमें एक विशेष तरह की गंध है। यह गंध भी चौथे शरीर और इसके अतिक्रमण से संबंधित है। यह सुगंध विशिष्ट है.. हमने अवश्य सुन रखा होगा कि चंदन के वृक्षों के चारों ओर सांप लिपटे रहते हैं। चंदन की सुगंध आकर्षण का केंद्र ऊर्ध्वमुखी आकर्षण का केंद्र बन जाती है--इस तरह से सुगंध भी ऊर्ध्वमुखी आकर्षण, एक स्मृति बन जाती है--उसकी शीतलता, उसकी गंध और वह विशेष स्थान जहां उसे लगाया गया है।
अगर तुम अपनी आंखें बंद कर लो--अब तुम देख नहीं रहे हो--और मैं अपनी अंगुली तुम्हारी तीसरी आंख पर रखूं मैं उसे स्पर्श नहीं कर रहा हूं मेरी अंगुली उसे छू नहीं रही है फिर भी तुम इसे अनुभव करोगे। कोई चीज सक्रिय हो जाएगी। इतना सा दबाव भी पर्याप्त है। स्पर्श भी नहीं बस अंगुली दिखाना इतना भी काफी है। इसलिए सुगंध, उसका सूक्ष्म स्पर्श और उसकी शीतलता पर्याप्त है। तब तुम्हारा ध्यान सदा तुम्हारी आंखों से तुम्हारी तीसरी आंख के बिंदु की ओर प्रवाहित होता रहता है।
तो चौथे शरीर पर--इसको पार करने के लिए केवल एक विधि एक उपाय है,
और वह है ऊपर की ओर देखना। इसी के लिए शीर्षासन को एक उपाय के रूप में प्रयोग किया गया था। शीर्षासन सिर को नीचे टिका कर उलटे खड़े हो जाने का उपयोग इसके लिए एक विधि के रूप में किया गया था क्योंकि सामान्यत: हमारी आंखें नीचे की ओर देखती हैं। अगर तुम सिर के बल खड़े हो जाओ तो तुम अब भी नीचे की ओर देख रहे होगे। लेकिन अब जो नीचे की ओर है वही ऊपर की ओर है। तुम्हारा नीचे की ओर का प्रवाह ऊपर की ओर के प्रवाह में बदल जाएगा।
यही कारण है कि ध्यान करते समय कुछ लोग इसे जाने बिना ही उलटी स्थिति में चले जाएंगे। वे अचेतन के प्रभाव से शीर्षासन करना शुरू कर देंगे क्योंकि ऊर्जा का प्रवाह बदल चुका है। और उनका मन नीचे की ओर जाने वाले प्रवाह का अभ्यस्त हो चुका है आदी हो चुका है। तो अब यह पूरा मामला अलग है जिसकी उन्हें आदत नहीं है इसलिए अब वे सिर के बल खड़े हो जाएंगे। तब उन्हें राहत मिलेगी क्योंकि उन्होंने वही अवस्था पा ली है। फिर अधोगामी प्रवाह है-- यद्यपि यह अधोगामी नहीं है यह ऊर्ध्वगामी है--क्योंकि जहां तक अधोगामी और ऊर्ध्वगामी का संबंध है इसका भौगोलिक अवस्था से कोई संबंध नहीं है यह तुम्हारे चक्रों के संदर्भ में ऊर्ध्वगामी है।
चौथे शरीर से पांचवें शरीर में जाने की विधि के रूप में शीर्षासन का उपयोग किया गया था। एक मात्र बात जो याद रखनी है और जिस पर जोर दिया जाना है वह है—ऊपर की ओर देखना। इसको अनेक ढंगों से किया जा सकता है--त्राटक से सूर्य पर एकाग्रता से और भी कई विधियां हैं जिनसे करके इसे किया जा सकता है। लेकिन इसको भीतर से किया जाना बेहतर है। बस अपनी आंखें बंद कर लो।
लेकिन पहले-पहले के चार शरीरों को पार करना पड़ेगा। केवल तभी यह सहायक हो सकता है, अन्यथा नहीं। अन्यथा यह गड़बड़ी पैदा कर सकता है, इससे अनेक प्रकार के मानसिक रोग निर्मित हो सकते हैं, क्योंकि तुम्हारे मनोदैहिक तंत्र के समायोजन अस्तव्यस्त हो जाएंगे। तुम्हारे चारों शरीर बाहर की ओर देख रहे हैं, तुम्हारा मन तुम्हारे पहले शरीर के बाहर खड़ा हुआ है, और अपने भीतरी मन से तुम ऊपर की यात्रा आरंभ कर देते हो... तो इस बात की पूरी संभावना है कि इस प्रयास का परिणाम स्किजोफ्रेनिया, खंडित मानसिकता हो।
और मेरे लिए खंडित मानसिकता ऐसी ही बातों का परिणाम है। यही कारण है कि सामान्य मनोविज्ञान खंडित मानसिकता के गहरे कारण नहीं खोज पाता। खंडित मानसिकता वाले व्यक्ति के पास ऐसा मन होता है जो विपरीत दिशाओं में एक साथ कार्य कर रहा हो-- बाहर खड़े हुए भीतर देखना नीचे खड़े होना? ऊपर की ओर देखना बाहर खड़े होकर ऊपर की ओर देखना।
तुम्हारा सारा मनोदैहिक तंत्र एक लयबद्धता में होना चाहिए। अगर तुम नीचे की ओर जा रहे हो तो तुम्हें बाहर की ओर होना चाहिए। यही स्वास्थ्यप्रद है। तब तुम एकजुट हो एक प्राकृतिक इकाई बस पशुवत शरीर में जीते हुए लेकिन यह समायोजन उचित है। तुम्हें बहिर्गामी मन को कभी ऊपर की ओर ले जाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। अन्यथा खंडित मानसिकता, स्किजोफ्रेनिया, विभाजित व्यक्तित्व ही इसका परिणाम होगा।
मनुष्य-जाति के विभाजित व्यक्तित्व का मूलभूत कारण हमारी सभ्यताएं और हमारे धर्म हैं। उन्होंने परिपूर्ण लयबद्धता की ओर ध्यान नहीं दिया है। ऐसे धर्मोपदेशक हैं जो बहिर्गामी लोगों को ऐसी बातें सिखा रहे हैं जो ऊर्ध्वगामी हैं। ये शिक्षाएं बहिर्गामी व्यक्ति पर कार्य करना आरंभ कर देंगी। एक भाग उसके शरीर के बाहर बना रहेगा, दूसरा भाग ऊपर की ओर जाएगा। और दोनों के मध्य एक खाई बन जाएगी। वह दो व्यक्ति बन जाएगा कभी यह, कभी वह; कभी राम, कभी श्याम।
इस बात की बहुत संभावना है कि एक व्यक्ति एक साथ सात व्यक्ति बन जाए। तब विभाजन पूर्ण हो जाता है। तब हम कहते हैं कि उसके भीतर अनेक भूत हैं। अपने आप ही वह सात भूत बन गया है। एक भाग कहीं और है दूसरा कहीं और। एक भाग पहले शरीर से चिपक कर नीचे की ओर जा रहा है दूसरा भाग दूसरे शरीर से चिपका हुआ है तीसरे शरीर से एक और भाग चिपका हुआ है। एक और भाग ऊपर की ओर जा रहा है, कोई और भाग कहीं और जा रहा है। वह एक केंद्रहीन व्यक्ति बन गया है। उस व्यक्ति में अब कोई केंद्र नहीं है।
गुरजिएफ कहा करता था कि ऐसा व्यक्ति उस मकान की भांति है जिसका मालिक अनुपस्थित है और हर नौकर अपने आप को मालिक होने का दावा करता है। उस मकान का प्रत्येक नौकर खुद को मालिक की भांति पेश करता है। कोई उसकी बात से इनकार नहीं कर सकता है क्योंकि मालिक अनुपस्थित है। जब कोई इस मकान में आता है और दरवाजा खटखटाता है तो संयोगवश जो नौकर उस समय पास में होता है वह मालिक बन बैठता है। वह व्यक्ति पूछता है यह मकान किसका है? वह नौकर कहता है : मेरा। किसी और दिन वही व्यक्ति फिर आता है फिर वह दरवाजा खटखटाता है दूसरा नौकर जो वहां से गुजर रहा होता है वह दावा करता है कि वही मालिक है। तब वह अतिथि उलझन में पड़ जाता है कि मालिक कौन है। बिना केंद्र वाले व्यक्ति की दशा इसी प्रकार की हो जाती है।
हम इसी तरह के हैं। लेकिन फिर भी काम चला रहे हैं। हमारा केंद्र अक्रिय है, अवधान छिन्न-भिन्न है मालिक अनुपस्थित है या सो रहा है और हमारा हर भाग मालकियत का दावा करता है। जब कामवासना उठती है तो कामवासना मालिक हो जाती है। तब यह एक मात्र संपूर्ण मालिक होती है। तब यह अन्य सभी को इनकार कर देगी। तुम्हारी नैतिकता, तुम्हारा परिवार तुम्हारा धर्म--सभी कुछ को नकार दिया जाएगा। कामवासना पूरी मालिक हो जाती है, यह मकान मालिक है। यह मकान का मालिक की भांति उपयोग करेगी, नौकर की तरह से नहीं। और जब कामवासना चली जाती है, और इसके पीछे हताशा आ जाती है...। और तब उस हताशा में तुम्हारा तर्क प्रकट होता है और कहता है 'मैं मालिक हूं। यह पड़ता है, यह गलत है और यह पूरे मकान के ऊपर अपना दावा करेगा। यह कामवासना को कोई स्थान नहीं देगा। नैतिकता सिद्धांतों के साथ शिक्षाओं के साथ संस्कारों के साथ वापस लौट आएगी। वे मकान पर मालकियत का दावा करेंगे।
हरेक पूरे मकान पर अपना दावा करता है। जब क्रोध उठता है, तुम क्रोध हो जाते हो क्रोध मालिक हो गया है। अब वहां कोई तर्क नहीं है अब वहां कोई चेतना नहीं है, अब वहां और कुछ भी नहीं है। वही कठिनाई है। इसी बात के कारण हम व्यक्तियों को समझ नहीं पाते हैं। जो व्यक्ति बहुत अधिक प्रेमपूर्ण है जब क्रोधित हो जाता है तो वहां कोई प्रेम नहीं दिखता। और हम यह समझ नहीं पाते कि वह प्रेमपूर्ण है या प्रेमपूर्ण नहीं है। लेकिन प्रेम भी एक नौकर था और क्रोध भी एक नौकर था, मालिक या तो अनुपस्थित है या सोया हुआ है। इसलिए आमतौर से तुम किसी व्यक्ति पर भरोसा नहीं कर सकते, क्योंकि वह खुद अपना मालिक नहीं है, कोई भी नौकर मालिक बन जाएगा। वह एक नहीं है वह एक इकाई नहीं है।
तो मैं यह कह रहा हूं कि जब तक तुमने अपने पहले चार शरीरों को पार न कर लिया हो, तुम्हें ऊपर देखने की विधियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अन्यथा एक ऐसा विभाजन निर्मित हो जाएगा, जिसे मिटाना असंभव होगा, एक ऐसा अंतराल जिसको पाटना करीब-करीब नामुमकिन है और व्यक्ति को अंतर्यात्रा को आरंभ कर पाने के लिए अपने अगले जन्म तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। इसलिए यही बेहतर है कि अंतर्यात्रा को पहले कदम से शुरू किया जाए फिर धीरे- धीरे आगे बढ़ा जाए।
अगर तुमने कुछ शरीर पार कर लिए थे--उदाहरण के लिए, यदि तुमने अपने पिछले जन्म में पहले तीन शरीरों को पार कर लिया था तो तुम इन तीनों को अब एक क्षण में पार कर लोगे। तो इसमें कोई कठिनाई नहीं है, और यह पूछने की जरूरत भी नहीं है कि कहां से आरंभ किया जाए। पहले शरीर से आरंभ करो अगर तुमने अपने पिछले जन्मों में अपना कोई सा भी शरीर पार किया था तो अब तुम उसे एक क्षण में पुन: पार कर लोगे। दुबारा उसको पार करने में जरा भी मुश्किल न आएगी। तुम्हें उसकी सीमा पता है तुम रास्ते को जानते हो। जिस क्षण वे तुम्हारे सामने आते हैं तुम उनको पहचान लेते हो, और तुम उनसे होकर निकल जाते हो। तब तुम भीतर जा सकते हो। तो मेरा जोर सदा पहले शरीर से आरंभ करने पर है--सभी के लिए।
चौथा शरीर है ऊपर की ओर देखना, और यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि
चौथे शरीर के बाद तुम अतिमानव हो जाते हो। चौथे शरीर तक तुम मनुष्य हो। पहले शरीर तक तुम पशु हो। केवल दूसरे शरीर से मनुष्यता अस्तित्व में आती है। और चौथे शरीर में यह पूरी तरह से खिल जाती है।
अपने शिखरों पर पहुंच कर भी हमारी सभ्यता कभी चौथे शरीर के पार नहीं गई है। अब भी कोई सभ्यता चौथे शरीर के पार नहीं जा पाई है। मनुष्य के लिए यह उसका चरम उत्कर्ष है। चौथे शरीर के पार होना मनुष्य के पार होना है। यही कारण है कि हम क्राइस्ट को मनुष्य के रूप में परिभाषित नहीं कर सकते हैं। बुद्ध, महावीर, कृष्ण--वे सभी मनुष्य के पार कुछ और हो जाते हैं--अतिमानव।
चौथे शरीर से ऊर्ध्वमुखी दृष्टि एक आयाम से दूसरे में छलांग है। जब मैं अपने भौतिक शरीर को देख रहा हूं अपने पहले शरीर को बाहर से देख रहा हूं--तो मैं बस एक पशु हूं जिसमें मनुष्य होने की संभावना है। यही एक मात्र अंतर है। मेरी तुलना पशु से की जा सकती है दोनों में काफी समानताएं हैं। एक मात्र अंतर यह है कि मैं मनुष्य हो सकता हूं और पशु मनुष्य नहीं हो सकता है। लेकिन जहां तक अवस्था का संबंध है हम दोनों समान हैं पशु जगत के आयाम में हैं मनुष्यता से नीचे हैं अवमानवीय हैं। दूसरे शरीर से तीसरे में होते हुए चौथे शरीर में मनुष्यता की खिलावट घटित होती है। तो चौथे शरीर वाला व्यक्ति भी हमें अति मानवीय लगता है--वह होता नहीं है।
कोई आइंस्टीन कोई एडीसन रूसो या वाल्टेयर वे अतिमानवीय लगते हैं। वे
अतिमानवीय नहीं हैं। वे मानवता की संपूर्ण खिलावट हैं। लेकिन हम लोग मानव से नीचे हैं इसलिए वे अतिमानव प्रतीत होते हैं। हम मानव से नीचे हैं वे हमसे ऊपर हैं लेकिन मानव से ऊपर नहीं हैं। केवल कोई बुद्ध, कोई क्राइस्ट, कोई जरथुस्त्र मन की सीमा को पार कर लेते हैं। ऊपर की ओर देखने से मनस शरीर को पार कर लिया जाता है।
यहां कुछ प्रतीक समझने जैसे हैं। मोहम्मद ऊपर की ओर आकाश की ओर देखते हुए कहते हैं कि ऊपर से कुछ आया है इलहाम हुआ है। हम इसकी भूगोल के अनुसार व्याख्या करते हैं, तो आकाश खुदा का निवास स्थान बन जाता है। हमारे लिए ऊपर की ओर का अर्थ है आकाश; नीचे की ओर का अर्थ है नरक पृथ्वी से नीचे। लेकिन उस दृष्टांत को, उस प्रतीक को नहीं समझा गया है।
ऊपर की ओर देखते हुए मोहम्मद आकाश की ओर नहीं देख रहे हैं, ऊपर की ओर देख रहे मोहम्मद आज्ञा-चक्र की ओर देख रहे हैं। चौथे मन के लिए यही आकाश है। यह ऊर्ध्वमुखी विस्तार आकाश है। और जब मोहम्मद अनुभव करते हैं कि उनके पास 'ऊपर' से कुछ आया है, तो उनकी अनुभूति सही है। किंतु ऊपर की ओर उठती हुई आग के अर्थ अलग हैं।
ऊपर की ओर देखता हुआ जरथुस्त्र...अपने हर चित्र में वह ऊपर की ओर देख रहा है। उसकी आंखें कभी नीचे की ओर देखती हुई नहीं हैं। वे ऊपर की ओर देख रही हैं। और जब उसने पहली बार दिव्यता को देखा था, तो वहां बस आग की लपटें थीं। दिव्यता उसके पास अग्नि के रूप में आई थी। यही कारण है कि पारसी लोग अग्निपूजक बन गए हैं। अग्नि की अनुभूति आज्ञा-चक्र से आती है। जब तुम ऊपर की ओर देखते हो तो तुम्हें लपट का-- सभी कुछ जल रहा है का अनुभव होता है। उस जलने में उस अग्नि में तुम रूपांतरित हो जाते हो। मृण्मय जल जाता है, भस्मीभूत हो जाता है, और चिन्मय का जन्म होता है। 'आग से गुजर जाने का' यही अर्थ है।
केवल पांचवें शरीर तक जाने के लिए ही... पांचवें शरीर से एक और लोक एक और आयाम खुल जाता है। पहले से चौथे शरीर में बाहर की ओर से भीतर की ओर का आयाम था चौथे से पांचवें शरीर में यह आयाम नीचे की ओर से ऊपर की ओर हो जाता है; पांचवें शरीर से यह अहंकार से निर- अहंकार की ओर हो जाता है। अब आयाम भिन्न है। अब भीतर या बाहर का, और ऊर्ध्वमुखी या अधोमुखी का कोई प्रश्न नहीं है। अब 'मैं' और 'न-मैं' का प्रश्न है। अब प्रश्न केंद्र से संबंधित है--कोई केंद्र है या नहीं। मैं इस शब्द का उपयोग दूसरे संदर्भ में करता हूं व्यक्ति के भीतर केंद्र है या नहीं।
पांचवें शरीर तक व्यक्ति बिना किसी केंद्र के होता है--कई खंडों में बंटा हुआ।
केवल पांचवें शरीर में केंद्र का जन्म होता है अब एक केंद्र का आरंभ होता है। केवल पांचवें शरीर में एक केंद्र अखंडता, एकत्व होता है। किंतु यह केंद्र अहंकार बन जाता है। अब यह केंद्र आगे के विकास के लिए एक रुकावट होगा। पांचवें शरीर तक यह एक सहायक था--और हर सहायक कदम आगे के विकास के लिए रुकावट बन सकता है। प्रत्येक पुल को पार करना है तो तुम्हें उसे छोड़ देना पड़ेगा। पार करने के लिए वह सहायक था, लेकिन यदि तुम उसी पर रुके रहे तो वही अवरोध बन जाएगा।
पांचवें शरीर तक केंद्र निर्मित करना पड़ता है। गुरजिएफ कहता है कि यह पांचवां केंद्र क्रिस्टलाइजेशन, एकीकरण है। यह क्रिस्टल है। व्यक्ति एक बन जाता है। अब वहां कोई नौकर न रहे मालिक ने उत्तरदायित्व सम्हाल लिया है। अब मालिक ही स्वामी है। वह जाग गया है, वह वापस लौट आया है। अब कोई नौकर नहीं कह सकता कि वह मालिक है। जब मालिक उपस्थित है तो नौकर हट जाते हैं वे खामोश हो जाते हैं।
पांचवां शरीर अखंड है, केंद्रीभूत है। लेकिन अब आगे के विकास के लिए इस केंद्र को फिर से खोना है--एक दूसरे आयाम में, इस एकता में नहीं खोना है, बल्कि शून्यता में, आकाश में खो देना है। और केवल वही खो सकता है, जिसके पास है। इसलिए पांचवें शरीर से पहले अहंकार-शून्यता की बात करना मूर्खता है। पांचवें शरीर से पहले अहंकार-शून्यता की चर्चा करना असंगत है। तुम्हारे पास कोई अहंकार है ही नहीं, तो तुम खो कैसे सकते हो? तब तक बहुत से अहंकार होते हैं; प्रत्येक नौकर का एक अहंकार है। तुम बहु-अहंकारी, बहु-व्यक्तित्ववान, और बहु-चित्तवान हो। तुम्हारे भीतर अनेक चित्त हैं।
इसलिए जब तुम अहंकार छोड़ने का विचार करते हो, तो तुम कभी छोड़ नहीं सकते क्योंकि तुम्हारे पास वह है ही नहीं। उसको छोड़ने के योग्य होने के लिए, पहली बात है कि वह तुम्हारे पास हो। एक धनी आदमी अपनी संपदा को छोड़ सकता है, लेकिन कोई गरीब ऐसा नहीं कर सकता--उसके पास छोड़ने के लिए, त्यागने के लिए कुछ भी नहीं है। लेकिन ऐसे गरीब हैं जो त्याग के बारे में सोचते रहते हैं। धनी व्यक्ति छोड़ने से डरता है, क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ है, गरीब आदमी हमेशा छोड़ने के लिए तैयार है। क्योंकि उसके पास छोड़ने के लिए कुछ भी नहीं है।
पांचवां शरीर समृद्धतम है। पांचवां शरीर उन सभी बातों का चरम उत्कर्ष है जो मनुष्य में एक बीज के रूप में संभव हैं। यह शिखर है, पांचवां शरीर व्यक्तित्व का शिखर है--प्रेम का शिखर है करुणा का शिखर है हर सार्थक चीज का शिखर है। लेकिन अब कांटे खो चुके हैं तो फूलों को भी खो जाना चाहिए। अब बस सुगंध ही होगी, फूल नहीं। छठवां शरीर सुगंध का, ब्रह्मांडीय सुगंध का आयाम है--न कोई फूल न कोई केंद्र। परिधि तो है परंतु कोई केंद्र नहीं हैं--या हर कहीं केंद्र है या प्रत्येक चीज केंद्र बन गई है या अब कोई केंद्र नहीं है। बस एक विस्तार की अनुभूति है। कोई विभाजन नहीं है। अब वहां कोई विभाजन नहीं है। व्यक्ति का विभाजन भी नहीं है--'मैं' और 'मैं नहीं' तथा 'मैं' और 'दूसरा'--वहां किसी प्रकार का कोई विभाजन नहीं है।
इस प्रकार व्यक्ति दो तरह से मिट सकता है एक स्किजोफ्रेनिक खंड-खंड अनेक व्यक्तित्यों में बंटा हुआ, दूसरा ब्रह्मांडीय-परम में खोया हुआ, वृहत्तर महत्तम, ब्रह्म में खोया हुआ, विस्तीर्णता में विसर्जित। अब फूल नहीं है लेकिन सुगंध है।
और फूल भी एक बाधा है। जब केवल सुगंध होती है, तो वह परिपूर्ण है। अब इसका कोई स्रोत नहीं है तो यह मिट नहीं सकती। यह अमर है। जिसकी शुरुआत है उसका अंत होगा, जिसका जन्म है उसकी मृत्यु होगी। अब फूल नहीं है इसलिए कोई स्रोत भी नहीं है। सुगंध अकारण है इसलिए न तो इसका अंत है और न ही इसकी सीमा है। फूल की सीमा होती है सुगंध असीमित होती है। इसके लिए कोई अवरोध नहीं है। यह पार जाती है पार करती है और पार चली जाती है।
तो पांचवें शरीर से आगे प्रश्न अब ऊर्ध्वगामी अधोगामी पार्श्वगामी-अग्रगामी
अंतर्गामी, बहिर्गामी का नहीं है। अब प्रश्न केंद्र के साथ होने या बिना केंद्र के होने का है, अहंकार के साथ या अहंकार के बिना होने का है। और अहंकार खोना सबसे दुष्कर चीज है। पांचवें शरीर तक संकेद्रित होना, केंद्रित हो जाना कठिन नहीं है क्योंकि यह अहंकार को तृप्त करने वाला था। प्रत्येक साधक प्रत्येक खोजी पांचवें शरीर तक जा सकता है। यह अहंकार के लिए तृप्तिदायी है। कोई भी व्यक्ति स्किजोफ्रेनिक खंडित व्यक्तित्व का होना पसंद नहीं करता है। प्रत्येक व्यक्ति क्रिस्टलाइव्ह पर्सनैलिटी, एकीकृत व्यक्तित्व- इसकी महिमा, इसकी समृद्धि, इसकी प्रसन्नता ऐसा होने की अनुभूति को पसंद करेगा। हर व्यक्ति यह चाहता है।
अब एक और बड़ा प्रश्न खड़ा होता है--जो किसी विधि से संबंधित नहीं है, क्योंकि पांचवें शरीर से कोई विधि नहीं है। क्यों? क्योंकि प्रत्येक विधि अहंकार से बंधी हुई है। जब तुम किसी विधि का उपयोग करते हो, तुम शक्तिशाली हो जाते हो। इसलिए जो पांचवें शरीर और उससे ऊपर की बात करते हैं, वे अ-विधि की बात करते हैं; वे विधि- रहितता की बात करते हैं, वे-कोई टेकनीक नहीं है-- इसकी बात करते हैं। वे 'कैसे' की बात नहीं करते हैं। अब वहां कोई ' कैसे' नहीं है। पांचवें शरीर से विधि खो जाती है।
पांचवें शरीर तक तुम विधि का प्रयोग कर सकते हो। अब विधि किसी काम की नहीं है क्योंकि करने वाले को ही मिट जाना है। अगर तुम कुछ भी प्रयोग करो तो प्रयोग करने वाला सशक्त होगा, ताकतवर होगा, उसकी ताकत बढ़ जाएगी, वह और अधिक संकेंद्रित हो जाएगा, और अधिक ठोस हो जाएगा। उसका क्रिस्टलीकरण, क्रिस्टलीकरण क्रिस्टलीकरण होता रहेगा और एक अति सूक्ष्म परमाणविक क्रिस्टलीकरण हो जाएगा। जो लोग पांचवें शरीर पर रुक गए हैं, वे कहेंगे कि अनंत आत्माएं हैं अनंत प्रकार की रूहें हैं।
वे लोग परमाणुवादी हैं--आध्यात्मिक परमाणुवादी, उनका भरोसा परमाणुओं में है। दो परमाणु मिल नहीं सकते। उनके पास अपने पड़ोसी के यहां जाने के लिए कोई झरोखा नहीं है उनमें न तो खिड़की है और न ही कोई द्वार वे पूरी तरह से अपने में बंद हैं, अपने में खोए हुए, बाहर के प्रति बंद, ऊपर के प्रति बंद हर दूसरी चीज के लिए बंद। ये झरोखारहित अहंकार हैं। तुम उनके लिए लीबनित्व के एक शब्द 'मोनाड' का प्रयोग कर सकते हो। वे मोनाड हैं--झरोखारहित परमाणु। अब कोई पड़ोसी नहीं है। अब वहां दूसरा कोई भी नहीं है। तुम अकेले अकेले और बस अकेले ही हो।
फिर इसे खोना है। जब कोई विधि नहीं है, तो इसे खोया कैसे जाए? जब कोई रास्ता ही नहीं है, तो इसके पार कैसे हुआ जाए? जब कोई झरोखा ही नहीं है तो इसे पार कैसे करें? जहां कोई द्वार ही नहीं है वहां से बाहर कैसे आएं? झेन साधु द्वार-विहीन-द्वार के बारे में बात करते रहे हैं। अब वहां कोई द्वार नहीं है और फिर भी व्यक्ति को इसके पार जाना है।
तो करना क्या है? इस क्रिस्टलाइजेशन इस एकीकरण के साथ तादात्म्य मत करो। इसके प्रति सजग हो जाओ। इस परमाणु परिवृत्त अहंकार के घेरे-- 'मैं' के इस बंद घर के प्रति सजग हो जाओ--बस इसके प्रति बोधपूर्ण हो जाओ। बस सजग हो जाओ और कुछ भी मत करो--और एक विस्फोट होता है तुम उस पार होते हो।
झेन में उनके पास एक कहानी है, हंस का एक अंडा एक बोतल में है। फिर चूजा अंडे से बाहर आ जाता है और बड़ा होने लगता है। बोतल का मुंह इतना छोटा है कि चूजा बाहर नहीं निकल सकता है। अब वह बढ़ रहा है बढ़ रहा है बढ़ता ही जा रहा है और बोतल इतनी छोटी पड़ गई है कि या तो बोतल को तोड़ देना पड़ेगा और हंस की जान बच जाएगी या हंस मर जाएगा और बोतल बचा ली जाएगी। और वे पूछते हैं वे साधकों से पूछते हैं 'क्या करें? हम दोनों को नहीं खोना चाहते। हंस को भी बचाना है और बोतल को भी। क्या करें?'
यह पांचवें का पांचवें शरीर का प्रश्न है जब बाहर निकलने का कोई रास्ता न
हो और हंस बड़ा हो रहा हो और संकेंद्रित होने की प्रक्रिया घनीभूत हो चुकी हो अब
क्या करें?
वे ध्यानियों को इस पर ध्यान करने के लिए कहते हैं। साधक एक कमरे के भीतर चला जाता है। दरवाजा बंद कर लेता है और अब वह इस पर चिंतन करना आरंभ कर देता है क्या किया जाए? केवल दो रास्ते हैं या तो बोतल तोड़ देनी पड़ेगी और हंस को बचा लिया जाएगा, या हंस को मर जाने दें और बोतल को बचा लें। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है इसलिए मन सोचता है, सोचता है, और सब तरह से सोचता है। साधक विचार करता है और विचार करता है और फिर वह बाहर आकर कोई उपाय सुझाएगा, पर फिर वह बात अस्वीकृत कर दी जाएगी क्योंकि इसमें कोई भी उपाय नहीं है। गुरु उसे सोचने के लिए फिर से वापस भेज देगा।
दिन-रात साधक वह ध्यानी इसके बारे में विचार करता रहता है विचार करता रहता है और समाधान का कोई रास्ता नहीं है। एक क्षण आता है जब विचार प्रक्रिया ठहर जाती है। और वह भागता हुआ आता है और कहता है हंस बाहर है! हंस बाहर है! वह बाहर आता है और कहता है हंस बाहर है--यूरेका! मैंने पा लिया है! और गुरु कभी नहीं पूछता, कैसे? क्योंकि उसका कोई अर्थ नहीं है हंस बाहर है।
पांचवें शरीर से समस्या एक कोआन है; यह एक पहेली है। व्यक्ति को सजग
होना इस एकीकृत के प्रति बस सजग हो जाना है--और हंस बाहर है। एक क्षण आता है जब तुम जानते हो कि तुम बाहर हो कोई ' मैं ' नहीं है। घनीभूत अहंकार खो दिया गया है--अर्जित किया गया और खो दिया गया। एक मार्ग की तरह एक पुल के रूप में एक रास्ते की भांति यह आवश्यक था पांचवें शरीर को पार करने के लिए घनीभूत अहंकार आवश्यक था वरना पांचवां शरीर पार नहीं किया जा सकता है। पांचवें शरीर के लिए एक सघन केंद्र अहंकार आवश्यक था।
ऐसे लोग हैं जिन्होंने चौथे से गुजरे बिना पांचवें शरीर को उपलब्ध कर लिया है। जिस व्यक्ति ने बहुत समृद्धि अर्जित कर ली है वह जो अहंकारी है, एक प्रकार से उसका अहंकार सघन हो गया है। जो व्यक्ति किसी देश का राष्ट्रपति हो गया है एक प्रकार से उसका अहंकार सघन हो गया है। कोई हिटलर कोई मुसोलिनी-- एक प्रकार से उनका अहंकार अत्यंत सघन हो गया है। लेकिन यह क्रिस्टलाइजेशन पांचवें शरीर की है और पांचवें शरीर से आई है। पहले के चार शरीर इसके साथ लयबद्धता में नहीं हैं, इसलिए यह एक रुग्णता बन जाती है। यह एक रोग बन जाता है। महावीर और बुद्ध भी एक प्रकार से क्रिस्टलाइल्ड हैं, लेकिन एक भिन्न ढंग से।
हम सभी अहंकार को परिपूर्ण करने की कामना रखते हैं क्योंकि पांचवें शरीर तक पहुंचने की अंतर्तम आवश्यकता है। लेकिन यदि तुम शॉर्टकट चुनते हो तो तुम खो जाओगे। यह शॉर्टकट धन-संपदाओं से, शक्ति से, राजनीति के माध्यम से है। अहंकार को सघन किया जा सकता है लेकिन यह नकली क्रिस्टलाइजेशन है-- यह क्रिस्टलाइजेशन तुम्हारे संपूर्ण व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं है। यह क्रिस्टलाइजेशन तुम्हारे पैर में होने वाले कोने, गोखरू की तरह है! तुम्हारे पैर में कुछ पत्थर जैसी रचना घनीभूत हो जाती है और जब तुम चलते हो यह चुभती है--तो यह इसी गोखरू जैसा क्रिस्टलाइजेशन है।
अगर पांचवें शरीर में हंस बाहर है तो तुम छठवें शरीर में हो। पांचवें शरीर से छठवें की ओर रहस्य का आयाम है। पांचवें तक विज्ञान मदद कर सकता है पांचवें तक वैज्ञानिक विधियों का उपयोग किया जा सकता है। या विधियों का एक विज्ञान निर्मित किया जा सकता है। योग पांचवें शरीर तक सहायक है। पांचवें शरीर के बाद योग व्यर्थ है? क्योंकि योग एक विधि, एक उपाय, एक विज्ञान है।
पांचवें शरीर से झेन सहायक है पांचवें से झेन बहुत मददगार है।

और उसके पहले

उसके पहले योग सहायक है। उसके पहले झेन इतना सहायक नहीं है। झेन पांचवें शरीर से छठवें शरीर में जाने की विधि है। तो झेन एक पुष्प है। जड़ें अलग- अलग हैं। झेन जापान में फूल बना इसे भारत में बोया गया था। जड़ें योग की थीं उसमें से झेन पुष्पित हुआ।
पांचवें शरीर से छठवें की यात्रा झेन है। यही कारण है कि पश्चिम में झेन का इतना आकर्षण है। क्यों? इसका इतना अधिक आकर्षण है क्योंकि पश्चिमी व्यक्तित्व गलत ढंग से क्रिस्टलाइल्ड है; अहंकारी है। यह विशेष ढंग का अहंकार गलत स्रोतों से निर्मित हुआ है चार उचित स्रोतों से नहीं। पश्चिम का अहंकार एक गलत प्रक्रिया द्वारा घनीभूत हुआ है। पश्चिमी लोग संसार के मालिक थे वे इसके स्वामी थे। वे समृद्धतम लोग थे। उनके पास विज्ञान है उनके पास तकनीक है उनके पास सब-कुछ है इसलिए वे क्रिस्टलाइल्ड, सघन हो गए। उनके पास रॉकेट है वे चांद पर जा सकते हैं। एक अर्थ में पश्चिमी अहंकार अति सघन है।
इसलिए उनके लिए झेन आकर्षक है। लेकिन यह उनकी सहायता नहीं कर सकता। यह सहायता नहीं कर सकता क्योंकि उनका क्रिस्टलीकरण गलत है। इसलिए गुरजिएफ पश्चिम के लिए अधिक सहायक है क्योंकि वह पहले शरीर से पांचवें तक जाता है। पांचवें शरीर के बाद वह सहायक नहीं है। पांचवें तक क्रिस्टलाइजेशन तक... तुम उसके साथ रह कर क्रिस्टलाइज हो सकते हो।
झेन बस एक फैशन भर सिद्ध होगा क्योंकि पश्चिम में इसकी जड़ें नहीं हैं। पूरब में यह एक लंबी प्रक्रिया एक बहुत लंबी प्रक्रिया थी--जो हठयोग से शुरू होकर और बुद्ध में अपने शिखर पर पहुंची। विनम्र चित्त के हजारों-हजार साल; अहंकार के नहीं, समर्पित भाव-दशा के सकारात्मक कृत्य के नहीं, ग्राहकता के, आक्रामकता के नहीं। बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि स्त्रैण-चित, ग्रहणशील चित्त की लंबी परंपरा रही। पूरब रुपए रहा है। पश्चिम पुरुष है आक्रामक, सक्रिय। पूरब एक स्वीकार भाव, एक ग्रहणशीलता रहा है। इसलिए झेन सहायक हो सका, क्योंकि चारों प्रक्रियाएं भीतर- भीतर कार्य कर रही थीं--झेन यहां पुष्पित हो सका।
अब जापान में भी आज यह अर्थहीन हो गया है क्योंकि जापान पूरब का एकमात्र ऐसा देश है जो अब पूरब का नहीं रहा है। वह पश्चिमात्य हो चुका है। जापान सर्वाधिक
विनम्र देशों में से एक था लेकिन अब उसकी विनम्रता बस एक दिखावा है। अब वह जापान का अंतर्तम नहीं है बस एक औपचारिकता है क्योंकि विनम्र होने के अपने लाभ हैं। विनम्र होना सफलता दिलाता है, विनम्र होकर अहंकार को उपलब्धियां मिलती हैं। इसलिए झेन की जड़ें जापान से उखड़ गई हैं और अब वह पश्चिम में जड़ें खोज रहा है क्योंकि वहां नकली क्रिस्टलाइच्छ अहंकार की सहायता मिल रही है।
पांचवें शरीर से छठवें की यात्रा के लिए झेन बहुत सहायक है। लेकिन केवल पांचवें शरीर से छठवें के लिए; चौथे शरीर में नहीं न ही उसके पहले।

किंतु क्या वह आरंभ के लिए नितांत अनुपयोगी है?

नितांत अनुपयोगी है बल्कि हानिकारक बल्कि हानिकारक भी हो सकता है। क्योंकि चौथी कक्षा के विषय में पहली कक्षा में बातें करना प्राथमिक पाठशाला में विश्वविद्यालय स्तर की बातें करना न केवल अनुपयोगी है, बल्कि हानिकारक भी है। केवल पांचवें शरीर से छठवें की यात्रा में झेन किसी काम का हो सकता है। वरना इससे सतोरियां निर्मित होंगी समाधि नहीं।
यह सतोरियां झूठी समाधियां, समाधि के स्वप्नों को निर्मित करेगा और यह सब चौथे शरीर मनस शरीर में अनुभव होगा। यह कलात्मक सौंदर्यबोधयुक्त होगा, यह तुममें सौंदर्य का एक बोध निर्मित करेगा, एक अच्छेपन का भाव निर्मित करेगा। किंतु क्रिस्टलाइजेशन निर्मित नहीं करेगा।
झेन केवल क्रिस्टलाइजेशन के बाद ही सहायक होगा। झेन कोआन--बिना किसी 'कैसे' के हंस का बाहर आ जाना--केवल तभी इसका अभ्यास हो सकता है जब कि बहुत से 'कैसे' का अभ्यास किया जा चुका हो। बहुत सारी विधियों के अभ्यास के बाद ही यह होता है। एक चित्रकार बंद आंखों से चित्र बना सकता है; एक चित्रकार चित्र को ऐसे बना सकता है जैसे कि कोई खेल हो। कोई अभिनेता इस तरह से अभिनय कर सकता है जैसे कि वह अभिनय नहीं कर रहा है, और अभिनय तभी परिपूर्ण होता है जब वह अभिनय जैसा नहीं दिखाई पड़ता हो। लेकिन इस के पीछे बहुत परिश्रम किया गया है परिश्रम के अनेक वर्ष अभ्यास के कई साल। अब अभिनेता पूरी तरह से विश्राम में है, लेकिन यह विश्राम की अवस्था एक दिन में उपलब्ध नहीं कर ली गई है। इसकी अपनी विधियां हैं और इसकी अपनी प्रक्रियाएं हैं।
हम चलते हैं, पर हम कभी नहीं जानते कि हम कैसे चलते हैं। अगर कोई तुमसे पूछे कि तुम कैसे चलते हो, तो तुम कहोगे, 'मैं बस चलता हूं। वहां इसके लिए कोई 'कैसे' नहीं होगा।' लेकिन जब कोई बच्चा चलना शुरू करता है, तो वहां विधि होती है वह सीखता है। लेकिन अगर कोई व्यस्क किसी बच्चे से बात करे, उससे कहे कि चलने के लिए किसी विधि की जरूरत नहीं है--'तुम बस चलो'-- तो यह असंगत बात हो जाती है। बच्चा इसे समझ नहीं सकता है।
कृष्णमूर्ति इसी तरह की बात करते रहे हैं बच्चों से वयस्क मन की बातचीत। यह कहना 'तुम चल सकते हो तुम बस चलो। हंस बाहर है। जाओ और चलने लगो।'और वे लोग सुन रहे हैं। वे प्रभावित हो रहे हैं खुश हो रहे हैं क्योंकि यह आसान मालूम होता है--बिना किसी विधि के चलना आसान मालूम होता है। तब तो हर व्यक्ति चल सकता है।
इसी कारण से कृष्णामूर्ति भी पश्चिम में आकर्षक हो गए हैं। क्योंकि पश्चिम यदि हठयोग, या भक्तियोग, मंत्रयोग या तंत्रयोग, या राजयोग की ओर देखता है, तो यह बहुत लंबा, बहुत दुर्गम बहुत कठिन सा प्रतीत होता है। सदियों-सदियों के परिश्रम, अनेकानेक जन्मों की आवश्यकता है। इसे नहीं किया जा सकता है। कुछ ऐसा हो जो जल्दी से हो जाए कोई छोटा रास्ता। कुछ ऐसा जो क्षण भर में फल दे, त्वरित उपलब्धि होनी चाहिए। इसलिए कृष्णमूर्ति उन्हें प्रसन्न करते हैं आकर्षित करते हैं। वे कहते हैं 'बस चलो। परमात्मा की ओर चल पड़ो। इसकी कोई विधि नहीं है।' जब कोई विधि नहीं है, तो हम सोचते हैं कि अब तो जरा भी कठिनाई नहीं है। लेकिन अ-विधि को उपलब्ध कर पाना सर्वाधिक दुष्कर कार्य है। इस तरह से कार्य करना जैसे कि कोई कार्य न कर रहा हो, इस प्रकार से बोलना जैसे कि कोई न बोल रहा हो इस प्रकार से प्रयास-रहित होकर चलना जैसे कि कोई न चल रहा हो, इसके आधार में इसकी जड़ों में लंबा प्रयास, दीर्घकाल का परिश्रम समाया हुआ है।
लेकिन परिश्रम प्रयास उनकी एक सीमा है--पांचवें शरीर तक उनकी जरूरत है। पांचवें शरीर से वे अर्थहीन हो जाते हैं। अगर तुम परिश्रम करते ही चले जाओ अगर तुम सीखते ही चले जाओ, अगर तुम पांचवें शरीर से छठवें में जाने के लिए अभ्यास करते जाओ तो तुम कहीं नहीं पहुंचोगे। हंस भीतर ही रहेगा, हंस कभी बाहर नहीं आएगा।
इस देश के योगियों के साथ यही समस्या है। वे पांचवें शरीर में अटक जाते
हैं। उन्हें इसे पार करना कठिन लगता है, क्योंकि वे विधियों से आसक्त हैं, विधियों से सम्मोहित हैं। उन्होंने हमेशा विधि के साथ कार्य किया है। पांचवें शरीर तक सुस्पष्ट विज्ञान है, वहां तक सब कैसे हुआ, यह सुस्पष्ट है। वे पांचवें शरीर तक आराम से पहुंच गए। वहां तक प्रयास था--और वे इसे कर पाए। उसके लिए जितनी भी त्वरा की जरूरत हो--वह उनके लिए जरा भी समस्या न थी। वे समग्र प्रयास कर सकते थे। जितने अधिक प्रयास की जितने अधिक परिश्रम की आवश्यकता हो, उन्होंने की। अब पांचवें शरीर में उन्हें विधि से अ-विधि के आयाम में जाना है। अब वे एक उलझन में पड़ जाते हैं। वे यहां ठहर जाते हैं, और यह पांचवां शरीर अनेक खोजियों के लिए यात्रा का अंत हो जाता है। यही कारण है कि पांच शरीरों की बात होती है सात की नहीं। पांच पड़ाव पांच शरीर, लेकिन सात की बात नहीं होती है। क्योंकि जो पांचवें तक गए हैं वे सोचते हैं कि यही अंत है। यह अंत नहीं है। अब यह एक नया आरंभ है। अब फिर से एक नया आरंभ है वैयक्तिक से निर्वैयक्तिक की ओर। झेन यहां सहायक हो सकता है झेन जैसी विधियां-अ-विधियां-झेन की तरह से प्रयासरहित प्रयास सहायक हो सकता है।
झाझेन का अर्थ है? मात्र बैठना, कुछ न करना। जिस व्यक्ति ने बहुत कुछ किया है, इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता है। बस बैठे रहना, कुछ भी न करना! यह अकल्पनीय है। गांधी जी इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। उन्होंने बहुत कुछ किया है। बस बैठे रहना! वे कहेंगे? तब तो मैं अपना चरखा चलाऊंगा। कुछ तो करना चाहिए। यही मेरी प्रार्थना है, यही मेरा ध्यान है। न करने का अर्थ है. कुछ भी नहीं। न करने का अपना एक आयाम है, अपना एक आनंद है, अपना निजी अस्तित्व है। लेकिन वह पांचवें शरीर से छठवें शरीर तक है। उसके पहले इसे नहीं समझा जा सकता।
और छठवें शरीर से सातवें की ओर अ-विधि भी नहीं है। पांचवें शरीर में विधि छूट जाती है और छठवें शरीर में अ-विधि भी खो जाती है। एक दिन तुम पाते हो कि तुम सातवें शरीर में हो। ब्रह्म भी जा चुका है केवल ' ना-कुछपन ' है। यह घटना घटती है। छठवें शरीर से सातवें में यह बस एक घटना है, यह बस एक घटना है।

वह चुनता है...?

तुम ऐसा कह सकते हो ऐसा तुम कह सकते हो। लेकिन अगर तुम ऐसा कहते हो तो फिर से यह छठवें शरीर की बात हो जाती है। वहां न तो कोई चुनने वाला होता है न कोई चुनाव। यह बस होता है-- बिना किसी कारण के अज्ञात ढंग से। केवल जब यह अकारण होता है तब ही यह पिछले शरीर के सातत्य में नहीं होता है। अगर इसका कारण होगा तब एक सातत्य होगा तब होने को खोया नहीं जा सकता है। छठवें शरीर तक चाहे तुम कुछ करो या कुछ भी न करो एक सातत्य है-- और यह सातत्य बना रहता है। लेकिन सातवां शरीर पूर्णत: शून्य है पूरी तरह से अनस्तित्व निर्वाण खालीपन नॉन-एक्सिस्टेंस।
इसलिए वहां पर कोई सातत्य नहीं है। अस्तित्व से अनस्तित्व में सातत्य होने की कोई संभावना नहीं है। यह बस एक छलांग है, और अकारण है। अगर इसका कोई कारण हो तो वह कारण छठवें शरीर से जुड़ा हुआ होगा, और तब वहा एक सातत्य होगा। इसलिए छठवें शरीर से सातवें शरीर तक जाने के बारे में बात नहीं की जा सकती है। छठवें शरीर से सातवें शरीर तक तुम जा सकते हो लेकिन इस के बारे में बात नहीं कर सकते हो। यह एक असातत्य, एक छलांग है। कुछ था और अब कुछ है-- और दोनों के बीच में कोई भी संबंध नहीं है।
कुछ था जो अब नहीं बचा है, और कुछ नया आ गया है। दोनों के बीच में कोई संबंध नहीं है। एक मेहमान इस द्वार से बाहर चला गया है, और दूसरा मेहमान दूसरी ओर से अंदर आ गया है। ये दो मेहमान संबंधित नहीं हैं असंबद्ध हैं। एक के जाने में और दूसरे के आने में कोई संबंध नहीं है। वहां पर एक अंतराल है असंबंधित।
सातवां शरीर परम है, क्योंकि अब तुमने कार्य-कारण सिद्धांत की दुनिया पार कर ली है--कार्य-कारण की संबंधता पार कर ली है। अब तुम स्रोत पर पहुंच गए हो, मूल- स्रोत पर--वह जो सृष्टि के पूर्व था और जो प्रलय के बाद भी रहेगा, और वह जो सदैव पीछे है, वह जो सदा वहां खड़ा है प्रतीक्षा में प्रतीक्षा करता हुआ प्रतीक्षारत। इसलिए छठवें शरीर से सातवें केलिए कोई अविधि भी नहीं हैं। यहां पर अविधि भी सहायता नहीं कर सकती है। यहां पर कुछ भी सहायक नहीं है, सभी कुछ रुकावट है। ब्रह्मांडीय अस्तित्व से ना-कुछपन की ओर यह एक घटना है-- अकारण अज्ञात, बिना तैयारी के बिना चाही हुई घटना है।
यह अचानक घटित होता है। केवल एक बात अपरोक्ष रूप से याद रखी जानी है तुम्हें छठवें शरीर से आसक्त नहीं होना है। यह आसक्ति अपरोक्ष होगी। सातवें तक जाने से रोकेगी। सातवें तक जाने का कोई विधायक रास्ता नहीं है लेकिन उसमें एक अपरोक्ष अवरोध हो सकता है। तुम छठवें शरीर से आसक्त हो सकते हो। तुम ब्रह्म, ब्रह्मांडीय अस्तित्व से आसक्त हो सकते हो और कह सकते हो 'मैं पहुंच गया हूं।' इसलिए जिन्होंने कहा है मैं पहुंच गया हूं वे सातवें शरीर तक नहीं जा सकते हैं।
तो जो कहते हैं मैंने जान लिया है छठवें शरीर में रुके रहते हैं। इसलिए वेदांत छठवें में रुका रहता है। केवल बुद्ध छठवें शरीर को पार करते हैं क्योंकि वे कहते हैं, 'मैं नहीं जानता।' परम प्रश्नों के उत्तर देने से वे इनकार कर देते हैं। वे कहते हैं मैं नहीं जानता हूं। वे कहते हैं 'कोई नहीं जानता है।' वे कहते हैं 'किसी ने नहीं जाना।' लेकिन उनको नहीं समझा जा सका।
जिन्होंने उनको सुना... उन्होंने कहा नहीं हमारे शिक्षकों ने जाना है। वे कहते हैं ब्रह्म है। लेकिन बुद्ध सातवें शरीर की बात कर रहे हैं। कोई शिक्षक नहीं कह सकता कि उसने सातवें शरीर के बारे में जाना है--कोई नहीं कह सकता है क्योंकि जिस पल तुम इसे कह देते हो तुम्हारा इसके साथ संपर्क खो जाता है। और एक बार तुमने इसे जान लिया है तो तुम इसे कह नहीं सकते हो।
छठवें शरीर तक प्रतीकों से अभिव्यक्ति हो सकती है लेकिन सातवें शरीर के लिए कोई प्रतीक नहीं है। यह मात्र एक शून्यता है।
चीन में एक मंदिर है, जो बस खाली है। उसके भीतर कुछ भी नहीं है--न कोई प्रतिमा, न कोई शास्त्र कुछ भी नहीं। वह बस खाली है नंगी दीवालें। और अगर तुम वहां पर जाओ और पुजारी से पूछो--जो कि मंदिर के भीतर नहीं रहता है जो बाहर रहता
है--पुजारी तो हमेशा मंदिर के बाहर ही रह सकता है। वह भीतर नहीं हो सकता है—अगर तुम उससे पूछो? इस मंदिर के देवता कहां हैं? तो वह कहता है देखो।--और वहां खालीपन है। वह कहता है देखो! यहां है वह। और वहां पर कोई भी नहीं है, न कोई प्रतिमा, न कोई शास्त्र-रिक्त नग्न, खाली मंदिर। यहीं, अभी। और तुम चारों ओर देखते हो क्योंकि हम किसी वस्तु को देखना चाहते हैं।
अगर तुम किसी वस्तु को देखना चाहते हो, तो तुम छठवें शरीर को पार करके
सातवें तक नहीं पहुंच सकोगे। तो उसकी अपरोक्ष तैयारियां हैं। पांचवें शरीर तक विधायक तैयारियां होती हैं, छठवें शरीर से ऊपर अपरोक्ष तैयारियां होती हैं। एक शून्य मन की जरूरत होती है, शून्य मन जो किसी चीज की भी अभिलाषा नहीं कर रहा है-- मोक्ष की भी नहीं, मुक्ति की भी नहीं, निर्वाण की भी नहीं, जिसे किसी चीज की अभिलाषा नहीं है जो कुछ भी खोज नहीं रहा है--सत्य भी नहीं। जो किसी की प्रतीक्षा नहीं कर रहा है--भगवत्ता की, ब्रह्म की भी नहीं। वह बस है, बिना किसी अभीप्सा के बिना किसी इच्छा के बिना किसी मांग के बिना किसी कामना के। बस 'है-पन।' तब घटना घट जाती
है। तब यह घटित होता है और वह पाता है कि ब्रह्म भी जा चुका है।
क्रमश: तुम सातवें शरीर तक पहुंच सकते हो। भौतिक शरीर से आरंभ करो और भाव शरीर के लिए प्रयास करो। फिर सूक्ष्म शरीर, और फिर मनस शरीर। तुम पांचवें शरीर तक प्रयास से पहुंच सकते हो, और पांचवें शरीर से तुम्हें सजग हो जाना चाहिए।
तब प्रयास महत्वपूर्ण नहीं है तब चेतना महत्वपूर्ण है। छठवें शरीर से सातवें तक चेतना भी महत्वपूर्ण नहीं है। बस 'है-पन’ होना।
हम जो बीज लिए चल रहे हैं, उसकी यह क्षमता है। यह संभावना है।

आज इतना ही





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