बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(ओशो)
प्रवचन—छट्टवां—(सपनों का मनोविज्ञान)
(The Psychology of The Esoteric)--का हिन्दी रूपांतरण है)
ओशो स्वप्नों के विभिन्न प्रकार क्या हैं?स्वप्नों के अनेक प्रकार होते हैं। हमारे सात शरीर हैं और प्रत्येक शरीर के अपने स्वप्न होते हैं। भौतिक शरीर अपने स्वप्न निर्मित करता है। अगर तुम्हारा पेट गड़बड़ है तो एक विशेष प्रकार का स्वप्न निर्मित होगा। अगर तुम अस्वस्थ हो, अगर तुम ज्वरग्रस्त हो तो भौतिक शरीर अपनी तरह से स्वप्न निर्मित करेगा। एक बात निश्चित है कि स्वप्न किसी स्थ्याता से किसी डिस-ईजृ से निर्मित होता है।
भौतिक रुग्णता अपना अलग स्वप्न-लोक निर्मित करती है इसलिए भौतिक स्वप्न को बाहर से निर्मित किया जा सकता है। तुम नींद में हो अगर तुम्हारी टांगों पर एक भीगा कपड़ा रख दिया जाए तो तुम स्वप्न देखने लगोगे। तुम्हें दिख सकता है कि तुम एक नदी पार कर रहे हो। अगर तुम्हारे सीने पर तकिया रख दिया जाए तो तुम स्वप्न देखने लगोगे। तुम स्वप्न देख सकते हो कि कोई तुम्हारे ऊपर बैठा है या कोई पत्थर तुम पर गिर पड़ा है। ये स्वप्न भौतिक शरीर से पैदा होते हैं।
हमारे सात शरीर हैं--भौतिक भाव सूक्ष्म मनस आत्मिक ब्रह्म और निर्वाण-- इसलिए सात प्रकार के स्वप्नों की संभावना है। दूसरा शरीर-भाव शरीर--अपने ढंग के स्वप्न देखता है। इन स्वप्नों को शरीर के तल पर नहीं समझा जा सकता है-- इन्हें नहीं समझा जा सकता है। और ठीक यही वे स्वप्न हैं जिन्होंने आज के मनोविज्ञान में काफी विभ्रम पैदा कर दिया है--फिर वह चाहे फायडीय विश्लेषण हो या एडलर का हो या चाहे जुंग का मनोविज्ञान हो। भाव शरीर के इन स्वप्नों ने अनेक उलझनें और समस्याएं निर्मित कर दी हैं।
फ्रायड उन्हें दमित इच्छाओं के रूप में समझता है। ये वे स्वप्न हैं जो दमित इच्छाओं से संबंधित हैं लेकिन वे भी पहले शरीर भौतिक शरीर से संबंधित हैं। अगर तुमने अपनी भौतिक इच्छाओं का दमन किया है उदाहरण के लिए अगर तुमने उपवास किया है—तो स्वप्न में इस बात की बहुत संभावना है कि तुम्हें कुछ नाश्ता दिखाई पड़े। अगर तुमने कामवासना का दमन किया है तो कामुक कल्पनाओं के स्वप्नों की पूरी संभावना है।
लेकिन ये भी पहले शरीर से संबद्ध हैं। दूसरा शरीर भाव शरीर, इन मनोवैज्ञानिक खोजों से अछूता रह गया है, या इसे भी भौतिक शरीर के रूप में अभिव्यक्त किया गया है।
भाव शरीर स्वप्नों में यात्रा कर सकता है। इस बात की पूरी संभावना है कि तुम्हारे भौतिक शरीर से तुम्हारा भाव शरीर बाहर निकल जाए। लेकिन जब तुम इसे याद करते हो, तो यह स्वप्न के रूप में याद आता है। लेकिन यह उन अर्थों में स्वप्न नहीं है जिस तरह भौतिक शरीर के स्वप्न हैं। जब तुम सोए हुए होते हो, तो भाव शरीर तुमसे बाहर जा सकता है। तुम्हारा भौतिक शरीर यहीं पर होगा, लेकिन तुम्हारा भाव शरीर बाहर जा सकता है और आकाश में यात्रा कर सकता है। इसके लिए समय और स्थान की कोई सीमा नहीं है। इसके लिए दूरी का भी कोई प्रश्न नहीं है। वे लोग जो इसे नहीं समझते हैं, ऐसा कह सकते हैं कि यह अचेतन का आयाम है, क्योंकि वे मनुष्य के मन को चेतन और अचेतन में बांटते हैं। भौतिक शरीर के स्वप्न चेतन बन जाते हैं, भाव शरीर के स्वप्न अचेतन।
भाव शरीर के स्वप्न अचेतन नहीं हैं। ये उतने ही चेतन हैं जितने भौतिक शरीर के स्वप्न लेकिन एक अन्य तल, अलग स्तर पर चेतन हैं। इसलिए अगर तुम अपने भाव शरीर के प्रति चेतन हो सको, तो उस आयाम के स्वप्न चेतन बन जाते हैं।
और जैसे भौतिक स्वप्नों को बाहर से निर्मित किया जा सकता है वैसे ही भाव शरीर के स्वप्न भी बाहर से उद्दीपित, निर्मित किए जा सकते हैं। और उसके उपाय हैं मंत्र उनमें से एक उपाय है जिससे भाव-दृश्य निर्मित किए जा सकते हैं--वे भाव-स्वप्न हैं। एक विशेष मंत्र, ध्वनि का एक विशेष संयोजन भाव शरीर के स्वप्न निर्मित कर सकता है। एक विशेष ध्वनि--एक विशेष शब्द--अगर उसका भाव-केंद्र पर बार-बार उच्चार किया जाए तो भाव शरीर के स्वप्न निर्मित कर सकता है। इसलिए अपने शिष्यों के सम्मुख गुरुओं का प्रकट हो जाना और कुछ नहीं बल्कि भाव शरीर की यात्रा, भाव शरीर का स्वप्न है।
अनेक विधियां हैं। ध्वनि उनमें से एक है। सुगंध भी एक उपाय है। सूफियों ने भाव-दृश्य निर्मित करने के लिए सुगंध का उपयोग किया है। मोहम्मद सुगंध के बहुत शौकीन थे। एक विशेष सुगंध किसी विशेष स्वप्न को निर्मित कर सकती है।
रंग से भी सहायता मिल सकती है। लीड बीटर ने एक बार एक नीलिमा का, मात्र नीलिमा का एक विशेष ढंग के नीले रंग का भाव-स्वप्न देखा। उसने संसार के सारे बाजारों में उस विशेष नीले रंग की खोज शुरू कर दी। और कई साल की खोज के बाद वह इटली की एक दुकान में मिला--उसी रंग का मखमल। उस मखमल के कपड़े का प्रयोग दूसरों में भी भाव-स्वप्न उत्पन्न करने के लिए किया गया।
शरीर का आभामंडल...प्रत्येक व्यक्ति का एक विशिष्ट आभामंडल होता है, और उसके रंग भाव शरीर के आयाम से आते हैं। जब कोई ध्यान में गहरा उतरता है और अदभुत रंगों को देखता है, और अदभुत सुगंधों का और ध्वनियों का और संगीत का अनुभव करता है जो नितांत अज्ञात हैं, तो वे भी स्वप्न हैं भाव शरीर के स्वप्न। लेकिन क्योंकि हमने मन के रहस्यों को केवल एक तल पर खोजा है, शारीरिक तल पर इसलिए इन स्वप्नों को या तो शरीर के तल पर परिभाषित किया गया या उन्हें नकार दिया गया। या उनकी उपेक्षा कर दी गई--या उन्हें पूरी तरह से अचेतन में ढकेल दिया गया।
किसी चीज को अचेतन में सरका देना असल में उसको नकार देना है। यह कहना कि हम इसके बारे में कुछ भी नहीं जानते--उससे भाग जाने की गुप्त तरकीब है। कुछ भी अचेतन नहीं है किंतु वह प्रत्येक चीज जो किसी गहरे तल पर चेतन है, अपने से पिछले तल पर अचेतन होती है। भौतिक शरीर के लिए भाव शरीर अचेतन है; भाव शरीर के लिए सूक्ष्म शरीर अचेतन है सूक्ष्म शरीर के लिए मनस शरीर अचेतन है। 'चेतन' का अभिप्राय
है, वह जो जाना हुआ है। 'अचेतन' का अभिप्राय है वह जो अभी तक नहीं जाना गया है, अज्ञात है।
तथाकथित ' आत्मिक-दृश्य ' सूक्ष्म शरीर के हैं सूक्ष्म शरीर के स्वप्न। सूक्ष्म शरीर के स्वप्नों में तुम अपने पिछले जन्मों में जा सकते हो। यह तुम्हारे स्वप्नों का तीसरा आयाम है। तुम अपने पिछले जन्म में जा सकते हो। कभी-कभी किसी सामान्य स्वप्न में भी भाव स्वप्न का या सूक्ष्म स्वप्न का अंश हो सकता है। तब वह स्वप्न एक उलझन, एक ऊहापोह बन जाता है, तब तुम उसे समझ नहीं पाते हो। तब उसे समझना असंभव हो जाता है।
क्योंकि तुम्हारे सातों शरीर एक साथ अस्तित्व में हैं, और एक आयाम से कोई चीज दूसरे की सीमा रेखा को पार कर सकती है, प्रवेश कर सकती है अतिक्रमण कर सकती है। कभी-कभी सामान्य स्वप्नों में भी भाव शरीर या सूक्ष्म शरीर के स्वप्नों के अंश होते हैं। सामान्य स्वप्नों में भी कुछ ऐसा आ जाता है जो भौतिक शरीर का नहीं होता।
सूक्ष्म शरीर के तीसरे शरीर के स्वप्नों में तुम न केवल आकाश में यात्रा कर सकते हो बल्कि समय में भी यात्रा कर सकते हो। पहले भौतिक शरीर के स्वप्नों में तुम न तो समय में यात्रा कर सकते हो और न आकाश में। तुम अपनी भौतिक अवस्था और अपने विशिष्ट समय तक ही सीमित हो--जैसे कि रात दस बजे। यह दस बजे का समय तय है, इसी विशेष कमरे में, और इसी फिजियोलॉजिकल स्थान में जो तुमने घेर रखा है। इन्हीं में तुम स्वप्न देख सकते हो, लेकिन इनके पार नहीं। भाव शरीर, दूसरे शरीर में तुम आकाश में यात्रा कर सकते हो, किंतु समय में नहीं। तुम यहां पर सो रहे हो और किसी अन्य स्थान में हो सकते हो--यह आकाश में यात्रा है किंतु समय में नहीं। अभी भी रात के दस ही बजे हैं। तीसरे, सूक्ष्म शरीर में तुम समय के अवरोध का अतिक्रमण कर सकते हो—लेकिन केवल अतीत की ओर, भविष्य की ओर नहीं। सूक्ष्म मन अतीत में जा सकता है--अतीत
की पूरी श्रृंखला में अनंत श्रृंखला में, अमीबा से आदमी तक--संपूर्ण प्रक्रिया में।
जुंग के मनोविज्ञान में सूक्ष्म मन को 'सामूहिक अचेतन' का नाम दिया गया है। मनोविज्ञान में पहले को चेतन दूसरे को अचेतन और तीसरे को सामूहिक अचेतन कहा जाता है। यह सामूहिक अचेतन नहीं है यह तुम्हारे जन्मों का निजी इतिहास है। कभी-कभी यह सामान्य स्वप्नों में प्रविष्ट हो जाता है, लेकिन ऐसा अक्सर बीमारी की अवस्था में होता है। स्वस्थ व्यक्ति के साथ यह नहीं होता। कोई व्यक्ति जो मानसिक रूप से रुग्ण है, उसमें ये तीनों मिले-जुले होते हैं। उसके तीनों शरीर तरल हो जाते हैं। बीमारी की अवस्था में ये तीनों शरीर अपनी सामान्य पृथकता खो देते हैं। इसीलिए बीमार व्यक्ति मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति आमतौर से अपने पिछले जन्मों का स्वप्न देख सकता है, किंतु कोई उसका विश्वास नहीं करेगा। वह स्वयं भी इस पर विश्वास नहीं करेगा। वह कहेगा, यह तो बस एक स्वप्न था।
लेकिन यह साधारण स्वप्न नहीं है। यह सूक्ष्म शरीर का स्वप्न है। और सूक्ष्म शरीर के स्वप्न में बहुत अर्थ है, इसकी बहुत सार्थकता है। लेकिन तीसरा शरीर केवल अतीत के बारे में स्वप्न देख सकता है उसे देख सकता है जो हो चुका है, लेकिन उसे नहीं जो होने वाला है।
चौथा शरीर, मनस शरीर है। यह दोनों ओर की यात्रा करता है। यह एकतरफा नहीं है। यह अतीत में यात्रा कर सकता है यह भविष्य में यात्रा कर सकता है। यह मनस शरीर कभी-कभी भविष्य के बारे में स्वप्न देख सकता है। किसी परम आपातकाल में कोई सामान्य व्यक्ति भी भविष्य के चित्र देख सकता है भविष्य की एक झलक पा सकता है। कोई प्रियजन या तुम्हारा कोई निकटतम व्यक्ति मर रहा है। यह आपातकाल की एक ऐसी अवस्था है कि यह संदेश तुम्हें तुम्हारे सामान्य स्वप्नों में भी दिया जा सकता है क्योंकि तुम स्वप्नों का कोई और आयाम नहीं जानते हो तुम्हें अन्य संभावनाओं का कोई पता नहीं है इसलिए यह संदेश तुम्हारे सामान्य स्वप्न में प्रविष्ट हो जाएगा।
लेकिन यह स्पष्ट नहीं होगा, क्योंकि कुछ ऐसे अवरोध हैं जिन्हें पार किया जाना है। और प्रत्येक अवरोध कुछ काट जाता है हर अवरोध में कुछ बदल जाता है और प्रत्येक मन के अपने प्रतीक होते हैं। इसलिए जब कोई स्वप्न एक शरीर से दूसरे शरीर में जाता है तो वह उस शरीर के प्रतीक के अनुसार बदल जाता है। तब हर बात उलझ जाती अगर तुम स्पष्ट रूप से स्वप्न देखो, जैसे कि चौथे शरीर के स्वप्न होते हैं—दूसरे शरीरों के माध्यम से नहीं बल्कि चौथे शरीर के माध्यम से-- तब तुम भविष्य में झांक सकते हो। किंतु केवल अपने भविष्य में। यह अब भी व्यक्ति के द्वारा उसके अपने भविष्य में झांकना है तुम दूसरों के भविष्य में नहीं झांक सकते हो।
अब चौथे शरीर के लिए समय नहीं होता है, क्योंकि अतीत भी उतना ही वर्तमान है जितना कि भविष्य वर्तमान है। इसीलिए विभाजन अर्थ खो देता है। अतीत भविष्य और वर्तमान वे एक हो जाते हैं। प्रत्येक बात 'अभी' बन जाती है अभी जो पीछे देख रहा है अभी जो आगे देख रहा है। यहां न अतीत है और न भविष्य लेकिन फिर भी समय है। समय 'वर्तमान' के रूप में है। अब भी यह काल का प्रवाह है। अब भी तुम्हें अपने मन को एकाग्र करना पड़ेगा। तुम अतीत की ओर देख सकते हो, किंतु यह एकाग्रता होगी, तब भविष्य और वर्तमान ओझल हो गए होंगे। वे तुम्हारे सामने नहीं होंगे। जब तुम भविष्य की ओर एकाग्र होते हो तब वे दोनों अनुपस्थित होंगे। वहां एक क्रमबद्धता होगी। तुम संपूर्ण को एक साथ नहीं देख सकते हो। समय होगा, किंतु अतीत वर्तमान और भविष्य नहीं होंगे। और यह तुम्हारी निजी स्वप्नावस्था होगी।
पांचवां शरीर, आत्मिक शरीर निजता का आयाम पार कर लेता है। समय का
आयाम पार कर लेता है। अब तुम शाश्वत में होते हो और स्वप्नों को एक अन्य ढंग एक और आयाम मिल जाता है। यह आयाम जैसे तुम हो, उससे संबद्ध नहीं है, बल्कि यह चेतना के साथ जैसी वह है, संबद्ध है। जहां तक चेतना का संबंध है, यह सामूहिक हो जाती है। अब तुम चेतना का संपूर्ण अतीत जानते हो किंतु भविष्य नहीं जानते, चेतना का संपूर्ण अतीत ज्ञात हो जाता है।
इस पांचवें शरीर के माध्यम से सृष्टि की सारी पुराण-कथाएं पैदा हुई हैं। पांचवें शरीर के स्वप्नों के माध्यम से...सृष्टि की पुराण कथाएं...वे सभी एक सी हैं। प्रतीक भिन्न हैं, कहानियां भी कुछ अलग हैं लेकिन ईसाई या हिंदू या यहूदी या मिस्र की परंपराओं की सृजन की सारी पुराण-कथाएं--यह संसार कैसे रचा गया, यह अस्तित्व में कैसे आया--उन सभी में एक सी समानताएं हैं; उन सभी में समानता की एक अंतर-धारा है। पांचवें मन के द्वारा और उसके स्वप्नों के माध्यम से, यह झलक--ऐसे स्वप्न के माध्यम से, यह झलक। विराट जलप्रलय की कहानियां.. सारी दुनिया में प्रचलित हैं! उनका कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं है। लेकिन फिर भी रिकॉर्ड है और यह रिकॉर्ड पांचवें मन आत्मिक शरीर से संबद्ध है। वह मन उनके बारे में स्वप्न देख सकता है।
और तुम भीतर जितना प्रवेश करते जाते हो, स्वप्न उतना वास्तविकता के निकट से निकटतर होता जाता है। भौतिक शरीर का स्वप्न इतना वास्तविक नहीं होता है। उसकी अपनी वास्तविकता है पर वह इतना वास्तविक नहीं है। भाव शरीर के स्वप्न कुछ अधिक वास्तविक हैं सूक्ष्म शरीर के स्वप्न और अधिक वास्तविक हैं मनस शरीर के स्वप्न लगभग वास्तविक ही हैं और पांचवें शरीर में तुम अपने स्वप्नों में प्रामाणिक रूप से यथार्थ को जानते हो। अब वास्तविकता को जानना संभव है। इसलिए अब इसे स्वप्न कहना भी ठीक नहीं है। लेकिन यह स्वप्न ही है क्योंकि वास्तविकता ऑब्जेक्ट के रूप में सामने नहीं है। यह एक सब्जेक्टिव अनुभव के रूप में है लेकिन इसका अपना ऑब्जेक्टिव अस्तित्व भी है।
ऐसे दो व्यक्ति जिन्होंने पांचवें शरीर का साक्षात कर लिया है एक साथ स्वप्न देख सकते हैं जो कि चौथे शरीर तक संभव नहीं है। तुम निजी स्वप्न देखोगे मैं निजी स्वप्न देखूंगा और मिल कर स्वप्न देखने का कोई उपाय नहीं है। चौथे शरीर तक हम स्वप्नों में सहभागी नहीं हो सकते हैं। लेकिन पांचवें शरीर से एक ही स्वप्न अनेक लोगों द्वारा एक साथ देखा जा सकता है। इसीलिए एक अर्थों में वे ऑब्जेक्टिव बन जाते हैं। पांचवें शरीर में हम अपने स्वप्नों की अपने अनुभवों की तुलना कर सकते हैं। यही कारण है कि कैसे अनेक लोगों ने पांचवें शरीर में स्वप्न देखे और उन सभी ने समान पुराण कथाओं को जाना। ये पुराण कथाएं एक-एक व्यक्ति द्वारा नहीं रची गई हैं--सृष्टि रचना की पुराण कथाएं वह विराट प्रलय आदि-आदि। इन्हें उन विशेष विचारधाराओं द्वारा विशेष परंपराओं द्वारा विशेष समूहों के द्वारा निर्मित किया गया है जो एक साथ कार्य कर रहे थे। पांचवें शरीर के स्वप्न आश्चर्यजनक रूप से बहुत कुछ वास्तविक हो जाते हैं।
पिछले चारों प्रकार के स्वप्न एक प्रकार से अवास्तविक हैं। क्योंकि पहली बात वे व्यक्तिगत हैं। दूसरी बात किसी और व्यक्ति के तुम्हारे स्वप्न में सहभागी होने की कोई संभावना नहीं है। इस अनुभव को बांट लेने की कोई संभावना नहीं है, इसकी प्रामाणिकता की जांच कर पाने की कोई संभावना नहीं है--कहीं यह अब भी कोई कल्पना तो नहीं है। और कल्पना और स्वप्नों में भेद होता है। कल्पना ऐसी चीज है जिसे तुमने प्रक्षेपित किया है, और स्वप्न ऐसी चीज है जो अस्तित्व में नहीं है--तुमने इसे जान लिया है। इसलिए जैसे-जैसे भीतर की ओर जाना होगा, स्वप्न देखना कम काल्पनिक कम आभासी और अधिक ऑब्जेक्टिव, अधिक वास्तविक अधिक प्रामाणिक हो जाता है।
सभी धर्मशास्त्रीय अवधारणाएं पांचवें शरीर ने निर्मित की हैं। उनकी भाषा उनके शब्द, उनके प्रतीक उनकी धारणाएं भिन्न हैं, लेकिन मौलिक रूप से वे एक जैसे हैं—और वे पांचवें चक्र के पांचवें शरीर के स्वप्नों के पांचवें आयाम के द्वारा देखे गए हैं।
आगे है छठवां शरीर, कांजिक बॉडी ब्रह्म शरीर। अब तुम चेतना की सीमा पार कर लेते हो। अचेतन चेतन, पदार्थ मन इनके भेद मिट जाते हैं। छठवां ब्रह्म शरीर ब्रह्मांड के स्वप्न देखता है। चेतना के बारे में स्वप्न नहीं देखता, इनसानों के बारे में स्वप्न नहीं देखता अब कोई भी वस्तु सम्मिलित नहीं है। अब तुम चेतना का अतिक्रमण कर जाते हो। ऐसा नहीं कि तुम अचेतन हो जाते हो बल्कि अचेतन संसार चेतन हो जाता है। अब प्रत्येक चीज जीवित और चेतन होती है। यहां तक कि जिसे हम पदार्थ कहते हैं, वह भी पदार्थ नहीं, बल्कि चेतन हो जाता है।
छठवें शरीर में ब्रह्मांडीय सत्यों के स्वप्नों का साक्षात होता है। ब्रह्म और माया के सिद्धांत, अद्वैतवाद अनंत की अवधारणाएं ये सभी छठवें प्रकार के स्वप्नों में प्रत्यक्ष हो जाते हैं। जिन लोगों ने ब्रह्मांडीय आयाम में स्वप्न देखे उन्होंने महान व्यवस्थाओं की रचना की। यहां भी प्रतीकों में भेद है लेकिन कोई बहुत अधिक अंतर नहीं है। स्मृति अब प्रतीकों में बंधी हुई नहीं रहती। भाषा एक आमंत्रण बन जाती है। भाषा किसी की ओर संकेत भर करती है बस स्पर्श करती है, किंतु अब भी यह भाषा विधायक है। हमने निजता को पार कर लिया है, हमने चेतना को पार कर लिया है, हमने समय और आकाश को पार कर लिया है, लेकिन अब भी भाषा विधायक है।
छठवें प्रकार का मन होने के आयाम में स्वप्न देखता है, न होने के आयाम में नहीं विधायक अस्तित्व के स्वप्न देखता है अनअस्तित्व के नहीं। अब भी वहां पर अस्तित्व के प्रति पकड़ है, अब भी अनअस्तित्व से भय है। पदार्थ और मन एक हो चुके हैं किंतु अस्तित्व और अनअस्तित्व एक नहीं हुए हैं होना और न होना एक नहीं हुआ है। वे अभी तक भिन्न हैं। यह अंतिम अवरोध है।
इसके बाद है सातवां शरीर, निर्वाण शरीर जो विधायकता की सीमा पार कर लेता है और शून्यता में छलांग लगा लेता है। सातवें शरीर के पास अपने स्वयं के स्वप्न हैं, अनअस्तित्व के स्वप्न, ना-कुछ के स्वप्न शून्यता के स्वप्न। 'हां' पीछे छूट गई है और 'न' भी अब निष्किय हो जाती है। अब न भी 'न' नहीं रही; ना-कुछ होना भी अब कुछ नहीं है। बल्कि यह ना-कुछपन अब और भी असीम हो गया है। क्योंकि एक अर्थ में विधायक कभी असीम नहीं हो सकता। विधायक की सीमा होगी ही। हम कितना भी विचार कर लें, हम कितनी भी कल्पना कर लें विधायक होने में सीमा होगी ही। केवल न--होना ही सीमा रहित आयाम हो सकता है।
इस तरह सातवें शरीर के अपने स्वप्न होते हैं। अब कोई प्रतीक नहीं है अब कोई रूप नहीं है। अब अरूप है। अब कोई ध्वनि नहीं है बल्कि सन्नाटा है। अब यह मौन-मौन का यह स्वप्न संपूर्ण अनंत है।
तो ये सात शरीर हैं। और सातों शरीरों के अपने स्वप्न हैं। अब एक बात समझ लेने जैसी है कि ये सात शरीर और स्वप्नों के ये सात आयाम वास्तविकता के सात रूपों को जानने में रुकावट बन सकते हैं।
तुम्हारे भौतिक शरीर के पास सत्य को जानने का उपाय है और इसके बारे में स्वप्न देखने का भी। जब तुम भोजन करते हो, तो यह वास्तविकता है। किंतु जब तुम स्वप्न देखते हो कि तुम भोजन कर रहे हो तो यह वास्तविकता नहीं है। बल्कि यह एक विकल्प है वास्तविक भोजन का एक विकल्प। भौतिक शरीर की अपनी वास्तविकता है और स्वप्न देखने की अपनी विधि है। ये दो ढंग हैं, जिनसे भौतिक शरीर कार्य करता है। और ये दोनों ढंग एक-दूसरे से पूर्णत: भिन्न हैं बिलकुल अलग हैं।
तुम जितना अधिक केंद्र की ओर जाओगे वास्तविकता और स्वप्नों की ये रेखाएं एक-दूसरे के निकट और निकटतर होती चली जाएंगी वैसे ही जैसे कि किसी वृत्त की परिधि से वृत्त के केंद्र की ओर खींची गई रेखाएं जैसे-जैसे तुम केंद्र के निकट जाते हो पास और पास आने लगती हैं। अगर तुम परिधि की ओर बाहर की ओर जाओ तो वे दूर और एक-दूसरे से बहुत दूर होती जाती हैं। जहां तक भौतिक शरीर का संबंध है, स्वप्न और सत्य बहुत दूर हैं और उनके बीच की दूरी सर्वाधिक है। इसलिए स्वप्न असत्य हो जाते हैं वास्तविकता असली है और स्वप्न असत्य बन जाते हैं। वे कल्पना बन जाते हैं।
लेकिन दूसरे शरीर, भाव शरीर में यह अलगाव इतना अधिक नहीं होगा। वास्तविकता और स्वप्न और पास आ जाते हैं। क्या वास्तविक है और क्या स्वप्न है यह जानना भौतिक शरीर की तुलना में भाव शरीर में अधिक कठिन है क्योंकि वे निकट आ गए हैं। किंतु फिर भी अंतर जाना जा सकता है।
अगर तुम्हारे भाव शरीर की यात्रा असली यात्रा थी तो तुम तब भी यात्रा कर
लोगे जब तुम जागे हुए हो। और अगर यह स्वप्न था तो यह तब ही घटित होगी जब तुम सो रहे हो। स्वप्न देखने के लिए तुम्हारा नींद में होना जरूरी है और वास्तविक की अनुभूति के लिए तुम्हें जागा हुआ होना चाहिए। जब तुम सच में अपने भाव शरीर में यात्रा करते हो तब तुम पूरी तरह से जागे हुए होते हो। जब तुम स्वप्न में यात्रा करते हो तो तुम जागे हुए नहीं होते तुम सोए हुए होते हो। अंतर जानने के लिए तुम्हें भाव शरीर के तल पर जाग्रत होना पड़ेगा।
और दूसरे शरीर के तल पर जागने की विधियां हैं। मंत्र की पुनरुक्ति की विधि जप की विधि आतरिक कार्यप्रणाली तुम्हें बाहर के संसार से अलग कर देती है। तुम एक भीतरी वर्तुल में होते हो घूमते रहते हो, घूमते रहते हो, और घूमते ही रहते हो, तुम्हें बाहर के संसार से कुछ समय के अवकाश की जरूरत होती है।
अगर तुम इस पुनरुक्ति के कारण सो जाते हो--यह सतत पुनरावृत्ति एक सम्मोहित निद्रा पैदा कर सकती है--अगर तुम सो जाते हो तो तुम स्वप्न देखोगे। किंतु अगर तुम अपने जप के प्रति बोधपूर्ण रह सको और इससे तुम पर कोई सम्मोहक प्रभाव न पड़े तो जहां तक भाव शरीर का संबंध है तुम वास्तविकता को जानोगे।
तीसरे शरीर सूक्ष्म शरीर में वास्तविकता और स्वप्न के अंतर को जान पाना और भी कठिन होता है क्योंकि सीमा-रेखाएं और निकट आ चुकी हैं। असली सूक्ष्म शरीर, यदि तुमने असली सूक्ष्म शरीर को जाना है, तो तुम मृत्यु के भय के पार चले जाओगे, क्योंकि उस बिंदु से व्यक्ति अमरत्व को जान लेता है। लेकिन अगर सूक्ष्म शरीर का यह स्वप्न ही है वास्तविकता नहीं है तो तुम मृत्यु के भय से अत्यंत पंगु हो जाओगे। यही भेद का बिंदु है यही पहचान की कसौटी है मृत्यु का भय।
जो व्यक्ति विश्वास करता है कि आत्मा अमर है और बार-बार इसे दोहराता है और अपने आपको सांत्वना दिए चला जाता है वह यह नहीं जान पाएगा कि सूक्ष्म शरीर में जो यथार्थ है और सूक्ष्म शरीर में जो स्वप्न है उनमें क्या अंतर है। अमरत्व में विश्वास नहीं करना है, इसे जानना है। और जानने से पूर्व, इसके बारे में संदेह होना चाहिए, अनिश्चितता होनी चाहिए। केवल तब जब यह तथ्य तुम पर उदघाटित हो जाता है कि तुम्हें नहीं मारा जा सकता है तभी तुम जानोगे कि तुमने इसे जाना है या बस स्वप्न में प्रक्षेपित कर लिया है। यह तुम्हें पता लग जाएगा।
अगर तुमने अमरत्व को एक विश्वास के रूप में लिया है और इसका अभ्यास किया है तो यह तुम्हारे सूक्ष्म मन तक पहुंच सकता है। तब तुम स्वप्न देखना शुरू कर दोगे। किंतु यह बस एक स्वप्न होगा। अगर तुम्हारे पास ऐसा कोई विश्वास नहीं है, बस जानने की खोजने की एक प्यास है बिना यह जाने कि क्या खोजा जाना है बिना यह जाने कि क्या मिलेगा, बिना किसी पूर्व- धारणा या पूर्वाग्रह के--अगर तुम बस शून्य में खोज रहे हो तो तुम अंतर को जान लोगे। जो लोग ऐसे विश्वास की दशा में होते हैं वे बस सूक्ष्म शरीर में स्वप्न देखते रहते हैं और वास्तविकता को नहीं जानते हैं।
चौथे शरीर में ये दोनों, स्वप्न और वास्तविकता पड़ोसी हो जाते हैं। और उनके चेहरे इतने एक रूप हो जाते हैं जैसे कि वे जुड़वा हों और उनमें एक को दूसरे की तरह समझ लेने की पूरी संभावना है। मनस शरीर ऐसे स्वप्न देख सकता है जो इतने यथार्थ लगें कि वास्तविक जैसे प्रतीत हों। और उन स्वप्नों को निर्मित करने की विधियां हैं। योग की, तंत्र की और बहुत विधियां हैं। अगर कोई व्यक्ति उपवास एकांत, अंधकार आदि का अभ्यास कर रहा हो, तो वह चौथे प्रकार के स्वप्न मानसिक स्वप्न निर्मित कर लेगा। और वे इतने वास्तविक होंगे उस यथार्थ से भी अधिक वास्तविक जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है।
अगर तुम्हें मैं अपने चौथे प्रकार के स्वप्न में देख सकूं तो तुम्हारा असली रूप उस रूप की तुलना में फीका पड जाएगा, क्योंकि वहां पर मन अपनी पूरी सृजनात्मकता में है--बिना किन्हीं बाह्य बाधाओं के बिना किन्हीं बाहरी वर्गीकरणों के बिना किन्हीं मानसिक सीमाओं के। अब मन सृजन करने के लिए पूर्णत: मुक्त है। कवि, चित्रकार, इस तरह के लोग स्वप्नों के चौथे प्रकार में जीते हैं। सभी कलाएं स्वप्नों के चौथे प्रकार द्वारा निर्मित हुई हैं। जो व्यक्ति स्वप्नों के इस चौथे आयाम में स्वप्न देख सकता है वह महान कलाकार हो सकता है परंतु ज्ञानी नहीं।
मन के चौथे आयाम में, चौथे शरीर में व्यक्ति को किसी भी प्रकार के मानसिक सृजन के प्रति होशपूर्ण रहना पड़ेगा। उसे कुछ भी निर्मित नहीं करना चाहिए, वरना वही निर्मित हो जाएगा। उसे कुछ भी प्रक्षेपित नहीं करना चाहिए, वरना वही निर्मित हो जाएगा। व्यक्ति को कोई इच्छा नहीं करनी चाहिए वरना इस बात का पूरा खतरा है कि वह इच्छा पूरी हो जाएगी। और न केवल अंतस के लोक में बल्कि बाह्य जगत में भी इच्छा पूरी हो जा सकती है। चौथे शरीर में मन बहुत शक्तिशाली, बहुत सुस्पष्ट होता है। यह मन के लिए अंतिम घर है। इसके बाद अ-मन आरंभ हो जाता है।
चौथा शरीर मन का, चौथे मन का मूल-स्रोत है इसलिए तुम कुछ भी निर्मित कर सकते हो। व्यक्ति को सजग रहना चाहिए। व्यक्ति को इस बात के प्रति निरंतर सजग रहना चाहिए कि उसके भीतर कोई भी वासना, कोई भी कल्पना, कोई प्रतिमा कोई देवता, कोई देवी, कोई गुरु न हो। वरना वे सभी तुमसे निर्मित हो जाएंगे। तुम उनके सष्टा होओगे। और ये अनुभूतियां इतनी आनंददायी हैं कि तुम चाहोगे उन्हें निर्मित करना।
साधक के लिए यह अंतिम अवरोध है। अगर कोई इसको पार कर लेता है, तो उसे इससे बड़ी कोई और रुकावट नहीं मिलेगी। अगर तुम बोधपूर्ण हो अगर तुम चौथे शरीर में बस एक साक्षी हो, तो तुम यथार्थ को जान लेते हो। अन्यथा तुम स्वप्न देखते रह सकते हो। स्वप्न बहुत अच्छे होंगे कोई वास्तविकता इनसे तुलना न कर पाएगी। वे हर्षविभोर करने वाले होंगे उनसे किसी भी आनंद की तुलना नहीं हो सकती है।
इसलिए व्यक्ति को इस हर्षविभोरता के इस आनंद के इस प्रसन्नता के प्रति
बोधपूर्ण रहना है और उसको किसी भी प्रकार की मानसिक प्रतिमा से सावधान रहना है। जैसे ही कोई प्रतिमा आती है, चौथा मन स्वप्न में बहने लगेगा। प्रतिमा मन को भटका देगी, तुम स्वप्न देखने लगोगे।
चौथे प्रकार के स्वप्नों को सिर्फ तभी रोका जा सकता है, केवल तभी उनसे बचा जा सकता है केवल तभी उन्हें निर्मूल किया जा सकता है जब तुम बस एक साक्षी हो जाओ। इसलिए यह साक्षी होना मूल बात है। साक्षी होने से अंतर निर्मित हो जाता है, क्योंकि अगर यह स्वप्न है तो तादात्म्य होगा। तुम उसके साथ तादात्म्य कर लोगे। जहां तक चौथे शरीर और उसके स्वप्नों का प्रश्न है तादात्म्य ही स्वप्न है। सजगता और साक्षी बन गया मन यथार्थ की ओर जाने वाला पथ है।
पांचवें शरीर में दोनों में कोई अंतर नहीं होता? स्वप्न और यथार्थ एक हो जाते हैं। द्वैत का हर रूप खो जाता है। पांचवें शरीर में अब व्यक्ति बिना होश के भी हो सकता है--सजगता का कोई प्रश्न नहीं है। अगर तुम बेहोश हो, तो भी तुम अपनी बेहोशी के प्रति होशपूर्ण रहोगे। अब स्वप्न और यथार्थ एक-दूसरे के प्रतिबिंब हो जाते हैं। वे एक जैसे होते हैं। पर एक भेद होता है। अगर मैं अपने आप को दर्पण में देखता हूं तो मुझमें और मेरे प्रतिबिंब में कोई अंतर नहीं होता लेकिन एक भेद होता है। मैं वास्तविक हूं और दर्पण में दिख रही छवि वास्तविक नहीं है।
पांचवां मन, यदि उसने कुछ धारणाएं बना ली हैं, तो वह अपने आप को दर्पण में जानने के भ्रम में पड़ सकता है। व्यक्ति अपने आप को जानेगा, किंतु दर्पण के माध्यम से--वैसा नहीं जैसा कि वह है, बल्कि वैसा जैसा कि वह प्रतिबिंबित हो रहा है। यही एकमात्र...एक प्रकार से यह और भी कठिन है, एक प्रकार से इतना खतरनाक नहीं है। भले ही तुम दर्पण में देख रहे हो लेकिन तुम अपने आप को ही देख रहे हो। इस अर्थ में
यहा पर कोई खतरा नहीं है। लेकिन दूसरे अर्थों में इसमें काफी खतरा है। यह हो सकता है कि तुम संतुष्ट हो जाओ और दर्पण में दिख रही छवि को असली समझ बैठो।
जहां तक पांचवें शरीर का प्रश्न है, कोई खतरा नहीं है। लेकिन जहां तक छठवें शरीर का प्रश्न है, खतरा है। अगर तुमने अपने आप को दर्पण में देखा है, तो तुम पांचवें शरीर की सीमा पार नहीं करोगे। तुम छठवें शरीर में नहीं जाओगे, क्योंकि दर्पणों के द्वारा तुम कोई भी सीमा पार नहीं कर सकते हो। ऐसे लोग हुए हैं जो पांचवें में ही रुके रहे--वे लोग जो कहते हैं कि अनंत आत्माएं हैं और प्रत्येक आत्मा की अपनी निजता है--ये लोग पांचवें शरीर में ही ठहरे हुए हैं और वहीं पर रुक गए हैं, क्योंकि उन्होंने अपने आपको जाना तो है, लेकिन प्रत्यक्ष रूप से नहीं जाना है, बल्कि दर्पण के माध्यम से जाना है।
और यह दर्पण आता कहां से है? यह दर्पण धारणाओं से आता है... धारणाओं के माध्यम से आता है 'मैं आत्मा हूं--शाश्वत अमर। मैं एक आत्मा हूं--मृत्यु से परे जन्म से परे। अपने आपको बिना जाने आत्मा के रूप में मान लेने से दर्पण बन जाता है। और अगर दर्पण बन गया है तो तुम अपने आप को जानोगे, लेकिन वैसा नहीं जैसे कि तुम हो, बल्कि तुम्हारा वह रूप जानोगे जो तुम्हारी धारणाओं के माध्यम से प्रतिबिंबित हो रहा है। अंतर केवल यह होगा कि अगर यह ज्ञान दर्पण के माध्यम से आया है तो यह स्वप्न है और अगर यह सीधा है, प्रत्यक्ष है बिना किसी दर्पण के माध्यम से आया है, तो यह वास्तविक है।
यही एक मात्र भेद है किंतु यह भेद विराट है--उन शरीरों के संबंध में नहीं जिनको तुमने पार कर लिया है, बल्कि उन शरीरों के संबंध में जिनको अभी भी पार किया जाना है। कोई व्यक्ति इस बारे में कैसे सजग हो सकता है कि वह पांचवें शरीर में स्वप्न देख रहा है या वास्तविकता में जी रहा है? इसका एकमात्र उपाय है कि व्यक्ति को हर प्रकार के सिद्धांतों को छोड़ देना चाहिए व्यक्ति को हर प्रकार के शास्त्रों का त्याग कर देना चाहिए व्यक्ति को हर प्रकार के दर्शनशास्त्र से मुक्त हो जाना चाहिए। अब कोई गुरु नहीं होना चाहिए, अन्यथा वह गुरु ही दर्पण बन जाएगा। यहां से आगे कोई गुरु नहीं। यहां से आगे तुम अकेले हो, पूरी तरह से अकेले। किसी को अब पथ-प्रदर्शक के रूप में साथ नहीं रखना चाहिए, अन्यथा वह पथ-प्रदर्शक ही दर्पण बन जाएगा।
यहां से आगे एकांत पूर्ण और समग्र होता है। अकेलापन नहीं, वरन एकांत।
अकेलापन सदा दूसरों से संबंधित होता है, एकांत स्वयं से संबंधित है। जब हमें किसी की कमी, किसी के साथ की कमी अनुभव होती है, तो हमें अकेलापन लगता है। हमें अकेलापन तभी लगता है जब किसी की कमी की अनुभूति, साथी के न होने की अनुभूति होती है। हमें एकांत की अनुभूति तब होती है, जब हमें अपने होने की अनुभूति होती है। यहां से व्यक्ति को एकांत में हो जाना है अकेला नहीं। यहां से व्यक्ति को एकांत में हो जाना है। शब्दों अवधारणाओं, सिद्धांतों, दर्शनशास्त्रों, नीतिशास्त्रों, गुरुओं, शास्त्रों ईसाइयत, हिंदू बुद्ध, ईसा, कृष्ण, महावीर सभी से अलग होकर पूर्ण एकांत--अब व्यक्ति को एकांत में हो जाना है। अन्यथा वहां पर जो भी उपस्थित होगा, दर्पण बन जाएगा। बुद्ध अब दर्पण हो जाएंगे--बहुत प्यारे लेकिन बहुत खतरनाक।
अगर तुम एकाकी हो तो यही कसौटी है, क्योंकि अब ऐसा कुछ भी नहीं है जिसमें तुम प्रतिबिंबित हो सको। पांचवें शरीर के लिए उचित शब्द है--ध्यान। ध्यान का अभिप्राय है पूरी तरह से एकाकी हो जाना-- किसी भी प्रकार के मनन से हट कर एकाकी होना। इसका अर्थ है अ-मन होना। अगर मन किसी भी रूप में रह गया, तो वह दर्पण बन जाएगा और तुम उसमें प्रतिबिंबित हो जाओगे। अब व्यक्ति को बिना विचारों के बिना मनन के अ-मन होना चाहिए।
छठवें शरीर में यह भेद भी नहीं रहा। लेकिन फिर भी बीच में कुछ आ जाता है। अब कोई दर्पण नहीं है। अब ब्रह्म है। तुम खो गए हो। तुम अब नहीं बचे स्वप्न देखने वाला नहीं बचा। किंतु स्वप्न अब भी स्वप्न देखने वाले के बिना हो सकता है। और जब स्वप्न देखने वाले के बिना स्वप्न होता है तो वह प्रामाणिक यथार्थ की भांति प्रतीत होता है। वहां मन नहीं है। सोच-विचार करने वाला कोई भी नहीं है। जो कुछ भी जाना गया है जान लिया जाता है और वह ज्ञान बन जाता है। सृजन की वे पुराण-कथाएं आती हैं और तिरती हैं। तुम नहीं हो वस्तुएं बस तिर रही हैं। वहां निर्णय करने वाला कोई नहीं होता स्वप्न देखने वाला कोई नहीं होता।
किंतु वह मन जो नहीं है, वह अभी भी है। वह मन जो विलीन हो गया है, अब भी है--निजी मन की भांति नहीं, वरन ब्रह्मांडीय समग्रता की भांति। तुम नहीं हो, परंतु ब्रह्म है। इसीलिए कहा जाता है कि यह संसार ब्रह्म का, छठवें शरीर का स्वप्न है। यह सारा संसार, यह सारा ब्रह्मांड स्वप्न है माया है। लेकिन हमारा व्यक्तिगत स्वप्न नहीं बल्कि समग्र का स्वप्न। समग्र स्वप्न देख रहा है। तुम नहीं हो लेकिन समग्र है।
अब एकमात्र अंतर होगा क्या यह विधायक है? यदि यह विधायक है, तो यह छलावा है स्वप्न है क्योंकि परम अर्थों में केवल नकार होता है। परम अर्थों में जब सभी कुछ अरूप पर आ चुका है जब सभी कुछ मूल-स्रोत पर वापस आ गया है, तब प्रत्येक चीज है भी और फिर भी नहीं है। बस विधायक ही बचा है। इसके भी पार जाना होगा।
इसलिए अगर छठवें शरीर में विधायक खो जाए तो तुम सातवें में प्रविष्ट हो जाओगे। छठवें की वास्तविकता...छठवें की असलियत सातवें का द्वार है। अगर वहां कुछ भी विधायक नहीं है--न कोई पुराण कथा, न कोई प्रतिमा--तब स्वप्न समाप्त हो चुका है। तब वहां वही है जो है तथाता। अब वहां किसी चीज का अस्तित्व नहीं है सिर्फ अस्तित्व है। चीजें नहीं हैं. बल्कि स्रोत है। वृक्ष नहीं है, पर बीज है।
जिन्होंने जाना है उन्होंने मन के इस प्रकार को बीज सहित समाधि, सबीज समाधि कहा है। प्रत्येक चीज खो चुकी है प्रत्येक चीज अपने मूल-स्रोत, ब्रह्मांडीय बीज, ब्रह्मांडीय अंडे में वापस आ गई है। प्रत्येक चीज वापस लौट आई है किंतु फिर भी बीज है। तो यह समाधि है--सबीज, बीज सहित। वृक्ष नहीं है, विकसित रूप नहीं है लेकिन बीज है। किंतु बीज से स्वप्न देख सकना अब भी संभव है इसलिए बीज को भी नष्ट करना पड़ेगा।
सातवें में न तो स्वप्न है और न वास्तविकता। तुम वास्तविकता को वहां तक देख सकते हो जहां तक स्वप्न देखना संभव हो। अगर स्वप्नों की कोई संभावना न हो, तब न तो यथार्थ बचता है और न ही भ्रम। इसलिए सातवां केंद्र है। अब स्वप्न और वास्तविकता एक हो गए हैं। कोई अंतर नहीं है। या तो तुम 'ना-कुछ' का स्वप्न देखते हो या तुम 'ना-कुछ' को जानते हो, किंतु यह 'ना-कुछपन' वही का वही बना रहता है।
अगर मैं तुम्हारे बारे में स्वप्न देखता हूं तो यह भ्रम है। अगर मैं तुम्हें देखता हूं तो यह वास्तविक है। लेकिन अगर मैं तुम्हारी अनुपस्थिति के बारे में स्वप्न देर्सू या मैं तुम्हारी अनुपस्थिति को देर्सू वहां कोई अंतर नहीं है। अगर तुम किसी चीज की अनुपस्थिति के बारे में स्वप्न देखो, तो वह स्वप्न वैसा ही होगा जैसी कि अनुपस्थिति अपने आप में है। केवल किसी विधायक चीज के बारे में वास्तविक अंतर होता है। इसलिए छठवें शरीर तक अंतर होता है। सातवें शरीर में केवल 'ना-कुछपन' बचता है। यहां बीज भी अनुपस्थित है। यह निर्बीज समाधि, बीजरहित समाधि है। अब यहां पर स्वप्नों की कोई संभावना नहीं है।
इस प्रकार से ये सात प्रकार के स्वप्न और सात प्रकार की वास्तविकताएं हैं। वे आपस में गुंथे हुए हैं। इसी के कारण इतनी उलझन है। किंतु अगर तुम सातों के मध्य अंतर कर लो अगर इसके बारे में स्पष्ट समझ तुम्हारे पास हो तो इससे काफी मदद मिल जाएगी। मनोविज्ञान अभी स्वप्नों के बारे में जानने से काफी दूर है। इसे जो कुछ भी पता है वह केवल भौतिक शरीर के स्वप्नों के बारे में है और कभी-कभी भाव शरीर के स्वप्नों के बारे में। लेकिन भाव शरीर के स्वप्नों की व्याख्या भी भौतिक शरीर के स्वप्नों की भांति की जाती है।
इस बारे में जुंग फ्रायड से कहीं अधिक गहरा गया है। किंतु मानवीय मन के
उसके द्वारा किए गए विश्लेषण को पौराणिक धार्मिक विश्लेषण के रूप में लिया गया है। फिर भी उसके पास बीज है। अगर पाश्चात्य मनोविज्ञान को विकसित तो वह बुर्जग के माध्यम से होगा फ्रायड के माध्यम से नहीं। फ्रायड अग्रदूत था लेकिन अगर उसके विचारों से आसक्ति एक बंधन बन जाए तो हर अग्रदूत आगे के विकास के लिए एक अवरोध बन जाता है। अब यद्यपि फ्रायड तिथिबाह्य हो चुका है पाश्चात्य मनोविज्ञान अब भी अपने फायडीय--आरंभ से बंधा हुआ है। फ्रायड को अब इतिहास का हिस्सा बन जाना चाहिए। मनोविज्ञान को अब और आगे बढ़ जाना चाहिए।
अमरीका में वे प्रयोगशाला की विधियों के माध्यम से स्वप्नों के बारे में सीखने की कोशिश कर रहे हैं। वहां कई स्वप्न-प्रयोगशालाएं हैं। किंतु वहां पर जो विधियां उपयोग की जा रही हैं वे केवल भौतिक शरीर से संबंधित हैं। अगर स्वप्नों का पूरा संसार जानना हो--तो योग तंत्र और अन्य गुहा विधाओं का उपयोग करना पड़ेगा। हर प्रकार के स्वप्न के साथ एक समानांतर वास्तविकता है, और अगर यह सारी माया नहीं जानी गई अगर यह भ्रम का सारा संसार नहीं जाना गया, तो वास्तविकता को जान पाना असंभव है। सिर्फ माया के माध्यम से ही वास्तविक को जाना जा सकता है।
किंतु मैंने जो कुछ कहा है, उसे किसी सिद्धांत या किसी व्यवस्था के रूप में मत लो। बस इसे आरंभ का बिंदु बना लो, और सचेतन मन के साथ स्वप्न देखना शुरू करो। जब तुम अपने स्वप्नों में चेतन होते हो, केवल तभी वास्तविक को जाना जा सकता है।
हम अपने भौतिक शरीर के प्रति भी होशपर्णू नहीं हैं। हम उसके प्रति बेहोश बने रहते हैं। केवल तब जब इसका कोई भाग रुग्ण होता है, हम होशपूर्ण होते हैं। व्यक्ति को स्वस्थ दशा में शरीर के प्रति होशपूर्ण होना चाहिए। रुग्णावस्था में शरीर के प्रति होशपूर्ण होना तो आपातकालीन उपाय है। एक प्राकृतिक व्यवस्था प्रक्रिया है। जब शरीर का कोई हिस्सा रुग्ण हो, तो तुम्हारे मन को उस पर ध्यान देना ही पड़ता है, ताकि उसकी देखभाल की जा सके। लेकिन जिस पल वह अंग ठीक हो जाता है तुम फिर से उसके प्रति सो जाते हो।
तुम्हें अपने शरीर उसकी गतिविधियों उसकी सूक्ष्म संवेदनाओं उसके संगीत उसके मौन के प्रति बोधपूर्ण होना पड़ेगा। कभी शरीर मौन है कभी शोरगुल से भरा हुआ है, कभी विश्रांत है। हर स्थिति में यह अनुभूति इतनी भिन्न होती है कि हम उसके प्रति सजग नहीं हैं यह बात दुर्भाग्यपूर्ण है। जब तुम सोने के लिए जा रहे होते हो तो तुम्हारे शरीर में सूक्ष्म परिवर्तन होते हैं। जब तुम सुबह नींद से बाहर आ रहे होते हो तो पुन: परिवर्तन होते हैं। उनके प्रति व्यक्ति को सजग होना पड़ेगा।
सुबह के समय जब तुम अपनी आंखें खोलने जा रहे हो तो उन्हें एकदम से मत खोल दो। जब तुम सजग हुए कि अब नींद जा चुकी है तो अपने शरीर के प्रति बोधपूर्ण हो जाओ। अभी अपनी आखें मत खोलो। क्या घटित हो रहा है? भीतर एक महत परिवर्तन हो रहा है। नींद जा रही है और जागरण आ रहा है। तुमने सुबह का उगता हुआ सूरज देखा है? किंतु अपने शरीर को कभी जागते हुए नहीं देखा है। इसका अपना निजी सौंदर्य है। वहां तुम्हारे शरीर में भी सुबह और शाम होती है। इसे संध्या, संधिकाल कहा जाता है परिवर्तन और रूपांतरण का क्षण।
जब तुम सोने जा रहे हो, चुपचाप देखो--क्या घटित हो रहा है। नींद आ रही
होगी--बोधपूर्ण हो जाओ। तभी तुम अपने भौतिक शरीर के प्रति वास्तविक रूप से सजग हो सकते हो। और जिस क्षण तुम इसके प्रति सजग हो जाते हो, तुम जान लोगे कि भौतिक शरीर के स्वप्न क्या हैं। तब सुबह तुम याद रखने में समर्थ हो जाओगे कि क्या भौतिक स्वप्न था और क्या नहीं। अगर तुम अपने शरीर की भीतरी अनुभूतियों, भीतरी जरूरतों और भीतरी लयबद्धताओं को जानते हो, तो जब वे तुम्हारे स्वप्नों में प्रतिबिंबित होती हैं, तब तुम उस भाषा को समझने में समर्थ हो जाओगे।
हमने अपने खुद के शरीर की भाषा को नहीं समझा। शरीर के पास अपनी
बुद्धिमत्ता है। इसके पास हजारों-हजारों साल का अनुभव है। मेरे शरीर के पास मेरे पिता और मेरी माता का, और उनके माता-पिता का, और इसी भांति शताब्दियों और शताब्दियों का अनुभव है जिनके दौरान मेरे शरीर का बीज उस रूप में विकसित हुआ है जैसा कि यह इस समय है। इसके पास अपनी भाषा है। सबसे पहले व्यक्ति को इसे समझना पड़ेगा। जब तुम इसे समझ लोगे तभी तुम जानोगे कि भौतिक शरीर का स्वप्न क्या है। और तब, सुबह तुम भौतिक शरीर के स्वप्नों और अ-भौतिक शरीर के स्वप्नों में भेद कर सकते हो।
और तब एक नई संभावना खुलती है अपने भाव शरीर के प्रति बोधपूर्ण हो जाने की। सिर्फ तब उससे पहले नहीं। तुम और अधिक संवेदनशील हो जाते हो। तुम ध्वनियों, सुगंधों प्रकाश के अधिक सूक्ष्म तलों का अनुभव कर सकते हो। तब जब तुम चलते हो, तो तुम जानते हो कि तुम्हारा भौतिक शरीर चल रहा है भाव शरीर नहीं चल रहा है। भेद बिलकुल सुस्पष्ट होता है। तुम भोजन कर रहे हो, भौतिक शरीर भोजन कर रहा है भाव शरीर नहीं कर रहा है। भाव शरीर की प्यास है, भाव शरीर की भूख है भाव शरीर की अभीप्साए हैं परंतु ये सभी केवल तब देखी जा सकती हैं जब भौतिक शरीर को पूरी तरह से जान लिया गया हो। तब धीरे- धीरे अन्य शरीर जाने जाएंगे।
स्वप्न-विज्ञान एक गुहा विषय है। यह अभी तक अनखोजा अगात छिपा हुआ है। यह गुहा ज्ञान का हिस्सा है। पर अब समय आ चुका है कि हर चीज जो गुप्त थी प्रकट कर दी जाए। वह प्रत्येक बात जो अब तक छिपी हुई थी अब और ज्यादा नहीं छिपी रहनी चाहिए अन्यथा यह घातक सिद्ध हो सकता है।
अतीत में कुछ बातों के लिए यह आवश्यक था कि वे गुप्त बनी रहें। क्योंकि
अज्ञानी के हाथों में जानकारी खतरनाक हो सकती है। यही बात पश्चिम में वैज्ञानिक जानकारी के साथ घट रही है। अब वैज्ञानिक इस संकट के प्रति सजग हुए हैं और वे गुप्त विज्ञानों का निर्माण करना चाहते हैं। राजनीतिज्ञों को परमाणु अस्त्रों के बारे में नहीं बताया जाना चाहिए। आगे होने वाली खोजें अज्ञात ही रहनी चाहिए। हमें उस समय की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी जब मनुष्य इतना सक्षम हो जाए कि जानकारी खोली जा सके और वह घातक भी न बने।
इसी प्रकार से अध्यात्म के क्षेत्र में पूरब में बहुत कुछ जाना गया था। किंतु अगर वह अज्ञानी लोगों के हाथ में पड़ जाता तो वह खतरनाक सिद्ध होता, इसलिए कुंजी छिपा दी गई थी। ज्ञान को गुप्त गुहा बना दिया था। उसे एक व्यक्ति से दूसरे को बहुत सावधानीपूर्वक दिया जाना था। लेकिन अब वैज्ञानिक प्रगति के कारण समय आ गया है कि इस ज्ञान को प्रकट कर दिया जाए। अगर आध्यात्मिक गुहा सत्य अब भी अज्ञात रहे तो विज्ञान खतरनाक सिद्ध होगा। उन्हें प्रकट कर देना होगा जिससे कि आध्यात्मिक ज्ञान वैज्ञानिक जानकारी के साथ कदम से कदम मिला कर चल सके।
स्वप्न-विज्ञान गुह्यत्तम आयामों में से एक है। मैंने इसके बारे में कुछ कहा है, जिससे कि तुम इसके प्रति सजग होना शुरू कर दो। किंतु मैंने तुम्हें इसका सारा विज्ञान नहीं कहा है। वह न तो आवश्यक है और न ही उससे कोई सहायता मिलेगी। मैंने अंतराल छोड़ दिए हैं। अगर तुम भीतर उतरोगे, तो वे अंतराल अपने आप भर जाएंगे। जो भी मैंने कहा है वह बस बाहरी पर्त है। यह इसके बारे में सिद्धांत बनाने के लिए काफी नहीं है, परंतु तुम्हारे आरंभ करने के लिए पर्याप्त है।
आज इतना ही
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