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शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

बोध कथा-09

बोध कथा-नौवी--(ओशो)

मैं एक छोटे से गांव में गया था। वहां एक नया मंदिर बन कर खड़ा हो गया था और उसमें मूर्ति प्रतिष्ठा का समारोह चल रहा था। सैकड़ों पुजारी और संन्यासी इकट्ठे हुए थे। हजारों देखने वालों की भीड़ थी। धन मुक्तहस्त से लुटाया जा रहा था। और सारा गांव इस घटना से चकित था। क्योंकि जिस व्यक्ति ने मंदिर बनाया था और इस समारोह में जितना धन व्यय किया था, उससे ज्यादा कृपण व्यक्ति भी कोई और हो सकता है, यह सोचना भी उस गांव के लोगों के लिए कठिन था। वह व्यक्ति कृपणता की साकार प्रतिमा था। उसके हाथों एक पैसा भी कभी छूटते नहीं देखा गया था। फिर उसका यह हृदय परिवर्तन कैसे हो गया था? यही चर्चा और चमत्कार सबकी जुबान पर था। उस व्यक्ति के द्वार पर तो कभी भिखारी भी नहीं जाते थे। क्योंकि वह द्वार केवल लेना ही जानता था। देने से उसका कोई परिचय ही नहीं था। फिर यह क्या हो गया था? जो उस व्यक्ति ने कभी स्वप्न में भी न किया होगा, वह वस्तुतः आंखों के सामने होते देख कर सभी लोग आश्चर्य से ठगे रह गए थे।
एक वृद्ध ने मुझसे भी पूछा ‘इसके पीछे रहस्य क्या है? क्या वह व्यक्ति बिल्कुल बदल गया है?’


मैंने उत्तर में एक घटना बताईः
एक छोटे से बच्चे ने रूपए का एक सिक्का गटक लिया था। उसे निकालने के लिए सब उपाय व्यर्थ हो गए थे। उसकी मां अपने पति से बार-बार कह रही थी ‘जल्दी करो और चिकित्सक को बुलाओ।’ पति ने एक-दो बार सुना और वह सिक्का निकालने की कोशिश करते-करते ही बोला ‘चिकित्सक? नहीं। मैं सोचता हूं कि धर्मगुरु को ही बुला लेना कहीं ज्यादा उचित है?’
पत्नी तो हैरान हो गई और बोली ‘धर्मगुरु? क्या तुम सोचते हो कि मेरा बच्चा बच नहीं सकेगा, जो धर्मगुरु को बुलाना चाहते हो?’
पति ने कहा ‘नहीं। इसलिए नहीं। बल्कि इसलिए कि किसी से भी रूपयानिकलवा लेने में धर्मगुरुओं से ज्यादा कुशल और कोई नहीं होता है।’

फिर मैंने कहा ‘यह मत सोचना कि उस व्यक्ति का लोभ समाप्त हो गया। उसने मुझसे भी जानना चाहा है कि मंदिर बनवाने का परलोक में क्या फल होता है? यह सब दान-धर्म भी उसके लोभ का ही फैलाव है। यह उसकी पूर्व-वृत्ति का विरोध नहीं, वरन उसका ही और विस्तार है। जीवन हाथ में होता है तो लोभ धन जोड़ता है। और जब मृत्यु निकट आती है तो लोभ धर्म जोड़ता है। यह सब एक ही चित्त का खेल है। धर्मगुरु लोभ को नई दिशा दे देते हैं। वे धर्म के सिक्कों का प्रलोभन खड़ा कर देते हैं।
और मरता क्या न करता! लोभ की तृप्ति का और कोई मार्ग न देख वह अदृश्य सिक्कों को ही इकट्ठा करने में लग जाता है। निश्चय ही इसके लिए धर्मपुरोहितों को बदले में दृश्य सिक्के देने पड़ते हैं। ऐसे धर्मगुरु धन जोड़ते हैं और तथाकथित धार्मिक हो गया व्यक्ति धर्म जोड़ता है। और मृत्यु से लौट कर चूंकि कभी कोई नहीं आता, इसलिए यह पता भी नहीं चल पाता है कि खोए दृश्य सिक्कों के बदले में अदृश्य सिक्के मिलते भी हैं या नहीं?
और इस कारण धर्मगुरु का व्यवसाय अखंड बना रहता है। मृत्यु धर्मगुरु की बड़ी सहयोगिनी है। वही उसके धंधे का मूलाधार है। उसकी छाया में ही उसका शोषण चलता है।
वह व्यक्ति जरा भी नहीं बदला है। केवल उसके हाथों से जीवन बह चुका है। वह बूढ़ा हो गया है और मृत्यु की पद-ध्वनि उसे सुनाई पड़ने लगी है। और यह तो सर्वविदित ही है कि जहां मृत्यु है वहां धर्मगुरु है। वे तो मृत्यु के व्यवसायी ही हैं।’

ओशो 

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