तंत्र, अध्यात्म और काम
पांचवां--प्रवचन-(तंत्र के माध्यम से परम संभोग)
(Tanta Spituality And Six-का हिन्दी अनुवाद) इससे पहले कि मैं तुम्हारा प्रश्न लूं कुछ और बातें स्पष्ट हो जानी चाहिए क्योंकि उनसे तंत्र को समझने में और मदद मिलेगी। तंत्र कोई नैतिक धारणा नहीं है। न तो वह नीति है न अनीति--वह नीति से परे है। तंत्र विज्ञान है--विज्ञान वे दोनों ही नहीं। तुम्हारी नैतिकताएं और नैतिक आचरण संबंधी धारणाएं तंत्र के लिए अप्रासंगिक हैं। कोई किसी तरह का आचरण करे तंत्र का इससे कुछ संबंध नहीं। उसका आदर्शों से कुछ संबंध नहीं। उसका संबंध क्या है और तुम क्या हो, इससे है। इस फर्क को गहराई से समझ लेना जरूरी है।
नैतिकता का संबंध आदर्शों से है--तुम्हें कैसा होना चाहिए तुम्हें क्या होना चाहिए। इसलिए नैतिकता मूल रूप से निंदा है। तुम आदर्श व्यक्ति नहीं हो इसलिए तुम निंदित होते हो। प्रत्येक नैतिकता अपराध-भाव पैदा करती है। तुम कभी आदर्श नहीं हो पाते, तुम पीछे ही पीछे रह जाते हो।
तुममें और आदर्शों में सदा फासला बना रहता है क्योंकि आदर्श होना असंभव है। और नैतिकता के माध्यम से और भी असंभव है। आदर्श कहीं भविष्य में है और तुम यहां हो, जैसे भी हो; और तुम तुलना किये जाते हो। तुम पूर्ण पुरुष नहीं हो पाते कुछ न कुछ कमी है। तुममें अपराध-भाव उत्पन्न होता है तुम आत्म ग्लानि से भर जाते हो।
एक बात: तंत्र निंदा-भाव के विरुद्ध है क्योंकि निंदा का भाव तुम्हें कभी रूपांतरित नहीं कर सकता बल्कि मिथ्याचार हिपोसी को जन्म देता है। इसलिए तुम जो नहीं हो उसे दिखाने का प्रयत्न करते हो। मिथ्याचार का अर्थ है: तुम आदर्श नहीं यथार्थ हो लेकिन तुम आदर्श व्यक्ति होने का ढोंग रच रहे हो। तब तुम भीतर विभाजित हो
जाते हो, तब तुम्हारे पास एक दिखावटी चेहरा होता है। तब एक नकली झूठे व्यक्ति का जन्म होता है और तंत्र असली, वास्तविक व्यक्ति की खोज है अवास्तविक व्यक्ति की नहीं।
प्रत्येक नैतिकता आवश्यकतावश मिथ्याचार को जन्म देती है। ऐसा होगा ही। नैतिकता के साथ मिथ्याचार और पाखंड तो रहेगा ही। यह इसका अंग है इसकी प्रतिच्छाया है। यह विरोधाभासी लगता है। नीतिवादी ही पाखंड की सबसे अधिक भर्त्सना करते हैं और वे ही इसके जन्मदाता भी हैं। और जब तक नैतिकता इस दुनिया से विदा नहीं हो जाती तब तक पाखंड समाप्त नहीं हो सकता। उन दोनों का अस्तित्व एक साथ बना रहेगा। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्योंकि नैतिकता तुम्हें आदर्श देती है। और तुम आदर्श नहीं हो इसलिए तुम्हें आदर्श दिये जाते हैं। तुम्हें ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे तुम गलत हो। और वह गलत प्राकृतिक है वह तुम्हें दिया गया है उसके साथ ही तुम्हारा जन्म हुआ है और उसके साथ तुम इतनी जल्दी कुछ कर भी नहीं सकते। तुम उसे रूपांतरित भी नहीं कर सकते यह इतना सरल नहीं है। तुम उसका दमन कर सकते हो, यह सरल है।
इसलिए तुम दो बातें कर सकते हो तुम नकली चेहरा लगा सकते हो तुम जो नहीं हो उसका अभिनय कर सकते हो। इससे तुम्हारा बचाव हो सकता है। समाज में तुम अधिक सुविधा से जी सकते हो। और भीतर तुम असली को दबाकर रख सकते हो क्योंकि असली का दमन करके ही नकली को थोपा जा सकता है। इस तरह असलियत गहरे और गहरे अचेतन तल में उतरती चली जाती है और कृत्रिमता तुम्हारे चेतन तल पर उभर आती है। तुम्हारा कृत्रिम रूप प्रकट होकर सामने आ जाता है और वास्तविक रूप पीछे हटता जाता है। तुम विभाजित हो जाते हो जितना अधिक छिपाने का प्रयत्न करते हो उतना ही अंतराल बढ़ता जाता है।
बच्चा जब पैदा होता है वह अखंड होता है। इसी कारण प्रत्येक बच्चा इतना सुंदर दिखाई देता है। सौंदर्य संपूर्णता के कारण है। बच्चे में कोई अंतराल नहीं कोई खंड नहीं, कोई विभाजन नहीं। बच्चा एक है। असली और
नकली दो नहीं हैं। वह प्रामाणिक है बस केवल वास्तविक है। तुम यह नहीं कह सकते कि बच्चा नैतिक है वह न तो नैतिक है और न ही अनैतिक है। नीति और अनीति का उसे कुछ बोध नहीं। जैसे ही उसे ज्ञात होता है विभाजन शुरू हो जाता है। तब बच्चा कृत्रिम ढंग से आचरण करने लगता है क्योंकि वास्तविक होना कठिन से कठिनतर हो जाता है।
स्मरण रहे ऐसा जरूरत के कारण होता है क्योंकि परिवार को एक व्यवस्था देनी पड़ती है माता पिता को नियम देने पड़ते हैं। बच्चे को सभ्य बनाना है शिक्षित करना है उसके आचार-व्यवहार को शिष्ट करना है परिष्कृत करना है नहीं तो बच्चे का इस समाज में रहना असंभव हो जाएगा। उसे बताना पड़ता है ''यह करो, वह मत करो''
और जब हम कहते हैं ''यह करो'' हो सकता है बच्चे की प्रकृति उसे करने के लिए तैयार ही न हो। हो सकता है वह अप्राकृतिक हो। हो सकता है उसे करने की नैसर्गिक इच्छा बच्चे में न हो। और जब हम कहते हैं ''यह मत करो, वह मत करो'' बच्चे की प्रकृति उसे करना चाहती है।
हम प्राकृतिक की निंदा करते हैं और कृत्रिम को बलपूर्वक थोपते चले जाते हैं क्योंकि इस ढोंगी समाज में झूठ ही सहायक होगा। जहां सब झूठे और पाखंडी हैं वहां नकलीपन से सुविधा होगी। सत्य से काम नहीं बनेगा। एक असली बच्चे को समाज में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा; क्योंकि सारा समाज झूठा है नकली है। यह एक दुष्ट है। हम किसी समाज में पैदा होते हैं और इस धरती पर आज तक कोई ऐसा समाज नहीं हुआ जो प्राकृतिक हो। यह दुष्ट है। एक बच्चा समाज में पैदा होता है और समाज के पास पहले ही कुछ निश्चित नियम हैं आचरण हैं नैतिकताएं हैं... बच्चे को सब सीखना पड़ेगा।
जब बच्चा बड़ा होगा वह झूठा और नकली हो जाएगा। और फिर उसके बच्चे होंगे और फिर वह उनको झूठ नकली होने में सहायता देगा, और इस तरह चलता जाता है। क्या किया जाए? समाज को हम बदल नहीं सकते। यदि समाज को बदलने का प्रयत्न करते हैं और जब समाज बदल जाएगा तब हम नहीं रहेंगे। इसमें अनंत समय लग जाएगा। फिर क्या करें?
मनुष्य व्यक्तिगत रूप से अपने भीतर इस विभाजन के प्रति सजग हो सकता है कि वास्तविक को भीतर दबा दिया गया है और अवास्तविक को बाहर से थोप दिया गया है। यही पीड़ा है दुख है नरक है। तुम्हें इस अवास्तविक के द्वारा कोई तृप्ति नहीं होगी, क्योंकि झूठ के द्वारा झूठा संतोष ही प्राप्त हो सकता है। केवल सत्य के द्वारा ही वास्तविक संतोष मिल सकता है। झूठ के द्वारा तुम भ्रम में पड़ सकते हो और सपनों में खो सकते हो। और सपनों के द्वारा तुम स्वयं को धोखा दे सकते हो लेकिन संतुष्ट नहीं हो सकते।
उदाहरण के लिए सपने में अगर तुम्हें प्यास लगती है तो तुम सपने में यह सपना भी देख सकते हो कि तुम पानी पी रहे हो। यह नींद को बनाए रखने के लिए सुविधापूर्ण और सहयोगी हो सकता है। यदि तुम सपने में पानी पीने का सपना नहीं देख रहे तो नींद टूट जाएगी। प्यास वास्तविक है। उससे नींद टूट जाएगी, नींद में खलल पड़ जाएगा। सपना मदद करता है वह तुम्हें ऐसा एहसास देता है कि तुम पानी पी रहे हो लेकिन पानी वास्तव में है नहीं। तुम्हारी प्यास को धोखा हो रहा है प्यास बुझ नहीं रही। हो सकता है तुम सोये रहो लेकिन प्यास वहां है दबी हुई।
यह केवल नींद में ही नहीं घट रहा--बल्कि हमारे सारे जीवन में यही हो रहा है। तुम अपने उस झूठे व्यक्तित्व के द्वारा उन चीजों को पाने की चेष्टा कर रहे हो जो हैं नहीं मात्र दिखावा हैं। अगर तुम उन्हें प्राप्त नहीं कर पाते तो भी दुखी होते हो; अगर वे मिल जाती हैं तो भी दुख ही हाथ लगता। अगर वे तुम्हें नहीं मिलती तो दुख कम होगा इसे स्मरण रखना। अगर वे तुम्हें मिल जाती हैं तो दुख और सघन हो जाएगा।
मनोवैज्ञानिको का कहना है कि कृत्रिम व्यक्तित्व के कारण हम वास्तव में लक्ष्य तक पहुंचना ही नहीं चाहते--कभी पहुंचना नहीं चाहते, क्योंकि अगर तुम अपनी मंजिल तक पहुंच गए तो तुम बिल्कुल घबरा जाओगे, कुंठित हो जाओगे। हम आशा में जीते हैं। आशा में ही हमारा अस्तित्व बना रहता है। आशा सपना है। तुम कभी लक्ष्य तक
नहीं पहुंचते, इसलिए तुम कभी नहीं जान पाते कि लक्ष्य असत्य था।
निर्धन व्यक्ति धन पाने के लिए संघर्ष कर रहा है वह इस संघर्ष में अधिक प्रसन्न है; क्योंकि आशा बनी है। और झूठे व्यक्तित्व के साथ आशा ही एक मात्र खुशी है। यदि निर्धन को धन-दौलत मिल जाए तो वह निराश हो जाएगा। और इसका स्वाभाविक परिणाम होगा-- कुंठा, फ्रस्ट्रेशन। धन है पर तृप्ति नहीं है। लक्ष्य तक तो पहुंच गया वह लेकिन हुआ कुछ भी नहीं, उसकी सभी आशाएं मिट्टी में मिल गई। यही कारण है कि जब कोई समाज समृद्ध हो जाता है वह विक्षुब्ध और अशांत हो जाता है।
अगर अमरीका आज इतना अशांत है तो इसलिए कि आशाएं-अकांक्षाएं पूरी हो गई हैं मंजिल पा ली है और अब तुम अपने को और झुठला नहीं सकते। इसलिए अगर अमरीका की युवा पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के सभी लक्ष्यों के प्रति विद्रोह कर रही है तो इसका कुल कारण है: कि वे सभी मूढतापूर्ण सिद्ध हो चुके हैं।
भारत में यह बात हमारी समझ में नहीं आती। हम यह सोच भी नहीं सकते कि युवा पीढ़ी स्वेच्छा से गरीब बन रही है छिपी--अपनी इच्छा से गरीब हो जाना! हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। हम अभी भी आशावान हैं। हम भविष्य में आशा कर रहे हैं कि किसी दिन हमारा देश भी धनी होगा और तब यहां स्वर्ग होगा। स्वर्ग हमेशा आशा में है।
नकली व्यक्तित्व के कारण, जो भी कोशिश करोगे, जो भी करोगे, जो भी खोजोगे--सब नकली हो जाएगा। तंत्र कहता है ''सत्य तुम पर प्रकट हो सकता है अगर तुम फिर से अपनी जड़ें वास्तविकता में सत्य में जमा पाओ।'' लेकिन वास्तविकता में जड़ें जमाने के लिए तुम्हें बहुत साहस जुटाना पड़ेगा, क्योंकि झूठ अति सुविधाजनक है तुम्हारा मन इतना संस्कारित है कि असलियत से भयभीत हो जाएगा।
किसी ने पूछा है कि कल आपने कहा कि संभोग का सुख पाने के लिए उसका आनंद लेने के लिए उसमें टिके रहने के लिए उसे समग्रस्ता से पूरी करो और जब शरीर हिलने-डुलने लगे, तो हिलना-डुलना ही हो जाओ। इसलिए किसी ने पूछा है ''आप हमें क्या सिखा रहे हैं--भोग, असक्ति? यह तो विकृति है।'' यह तुमसे तुम्हारा नकली
व्यक्तित्व बोल रहा है।
नकली व्यक्तित्व हमेशा भोग के विरुद्ध है। वह हमेशा तुम्हारे विरुद्ध है। तुम्हें प्रसन्न नहीं होना चाहिए। वह हमेशा त्याग के पक्ष में है--स्वयं का त्याग करो दूसरों के लिए अपना त्याग करो। ऊपर से देखने पर यह बात बहुत
सुंदर मालूम होती है क्योंकि हम ऐसी ही मान्यताओं के साथ बड़े हुए है : ''दूसरों के लिए अपना त्याग करो—यह परार्थ है परोपकार है। अगर तुम स्वयं को खुश करने का प्रयत्न करते हो तो यह स्वार्थ है।'' और जैसे ही कोई कहता है कि यह स्वार्थ है पाप की भावना पैदा हो जाती है।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं तंत्र का ढंग मूल रूप से भिन्न है। तंत्र कहता है ''जब तक तुम स्वयं प्रसन्न नहीं हो आनंदित नहीं हो दूसरों को प्रसन्न करने में, आनंदित होने में मदद नहीं कर सकते। जब तक तुम वास्तव में अपने से संतुष्ट नहीं हो, तुम दूसरों की सेवा नहीं कर सकते; तुम दूसरों को संतुष्ट होने में सहायक नहीं हो सकते। जब तक तुम स्वयं आनंद से परिपूर्ण नहीं, तुम समाज के लिए खतरा हो, क्योंकि जो आदमी हमेशा दूसरों के लिए त्याग करता है वह आत्मपीड़ित बन जाता है। ''अगर तुम्हारी मां निरंतर यही कहती रहे कि ''मैंने तुम्हारे लिए कितना त्याग किया
है'' तो तुम्हारे लिए वह यातना बन जाएगी। अगर पति पत्नी से यही कहता रहे कि ''मैं त्याग कर रहा हूं तो वह आत्मपीड़ा से अपनी पत्नी को सता रहा है।
त्याग दूसरे को यातना देने की चाल है।
इसलिए जो हमेशा त्याग कर रहे हैं वे बहुत खतरनाक हैं। उनसे बचना और त्याग मत करना। यह शब्द ही भद्दा है। स्वयं को प्रसन्न करो उत्सव मनाओ आनंद से भर जाओ और जब तुम आनंद से इतना भर जाओ कि वह छलकने लगे, तब वह आनंद दूसरों तक पहुंच ही जाएगा। लेकिन सह त्याग नहीं होगा। तुमने किसी का उपकार नहीं किया, किसी को तुम्हें धन्यवाद देने की जरूरत नहीं; बल्कि तुम उन सबके प्रति कृतज्ञता प्रकट करोगे, क्योंकि वे तुम्हारे आनंद में भागीदार बने। त्याग, सेवा, कर्तव्य जैसे शब्द कुरूप हैं हिंसक हैं।
तंत्र कहता है ''जब तक तुम स्वयं प्रकाश से नहीं भर जाते तुम दूसरों को प्रकाशित होने में कैसे सहायक होओगे?'' स्वार्थी हो जाओ--तभी, केवल तभी परार्थी हो सकोगे; नहीं तो परार्थ, परोपकार की धारणा मूर्खतापूर्ण है। आनंदित होओ--तभी तुम दूसरों को आनंदित होने में सहायता दे सकोगे। अगर तुम उदास हो दुखी हो, कड़वाहट
से भरे हो, तुम निश्चित ही दूसरे के प्रति हिंसक हो जाओगे और दूसरों के लिए दुख पैदा करोगे।''
तुम महात्मा बन सकते हो, यह बहुत कठिन नहीं है। लेकिन अपने साधु-माहात्मओं को जरा देखो। वे अपने पास आने वालों को हर तरह से सताने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उनके सताने का ढंग ऐसा है कि तुम धोखा खा जाते हो। वे तुम्हें सताते हैं तुम्हारे लिए; वे तुम्हें यातना देते हैं तुम्हारी भलाई के लिए। क्योंकि वे स्वयं को जो यातना दे रहे हैं। तुम यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकते कि आप हमें उसकी शिक्षा दे रहे हैं जिसका आप स्वयं अनुसरण नहीं करते। वे पहले ही से इसका अन्याय कर रहे हैं वे अपने को सता रहे हैं पीड़ा दे रहे हैं अब वे तुम्हें भी यातना दे सकते हैं। और जब वह यातना तुम्हें तुम्हारी भलाई के लिए दी जा रही है तब वह बहुत खतरनाक है--तुम उससे बच नहीं सकते।
स्वयं को प्रसन्न रखने में क्या बुराई है? सुखी होने में क्या बुराई है? अगर कुछ बुराई है तो वह तुम्हारे दुखी होने में है क्योंकि दुखी व्यक्ति अपने चारों ओर दुख की तरंगें निर्मित कर लेता है। नंदित होओ और काम-कृत्य आनंद प्राप्त करने का गहरे से गहरा उपाय हो सकता है।
तंत्र कामुकता नहीं सिखाता। वह तो केवल यही कहता है कि काम महा सुख का स्रोत हो सकता है। एक बार जब तुम्हें उस महासुख का पता चल जाता है तुम आगे बढ़ सकते हो, क्योंकि अब तुम सत्य की भूमि पर खड़े हो। व्यक्ति को सदा काम में नहीं अटके रहना बल्कि काम का तालाब में कूदने के लिए जंपिंग बोर्ड की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। तंत्र का यही अभिप्राय है: ''तुम इसे जंपिंग बोर्ड समझो।'' और जब एक बार तुम्हें काम-सुख का अनुभव हो जाए तुम समझ सकोगे कि रहस्यदशद किस की बात करते रहे हैं--एक परम संभोग की, एक ब्रह्मांडीय संभोग की।
मीरा नाच रही है। तुम उसे समझ न पाओगे। तुम उसके गीतों को भी समझ न पाओगे। वे कामुकता पूर्ण हैं--उनमें काम-प्रतीक हैं। ऐसा होगा ही, क्योंकि आदमी के जीवन में संभोग ही एक ऐसा कृत्य है जिसमें अद्वैत की प्रतीति होती जिसमें तुम एक गहन-ऐक्य अनुभव करते हो, जिसमें अतीत मिट जाता है और भविष्य खो जाता है और बचता केवल वर्तमान-- केवल सत्य वास्तविक क्षण।
इसलिए उन सभी रहस्यदर्शियों ने जिन्हें परमात्मा के साथ संपूर्ण अस्तित्व के साथ एक हो जाने की अनुभूति हुई है उन्होंने अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए काम-प्रतीकों का उपयोग किया है। और कोई दूसरे प्रतीक नहीं हैं और कोई भी प्रतीक इतने निकट नहीं हैं।
काम केवल प्रारंभ है अंत नहीं। लेकिन अगर तुम प्रारंभ को ही चूक गए तो अंत को भी चूक जाओगे। और तुम अंत तक पहुंचने के लिए आरंभ से बच नहीं सकते।
तंत्र कहता है ''जीवन को उसके प्राकृतिक रूप में, सत्य रूप में ग्रहण करो। अप्राकृतिक झूठ मत होओ। काम-वासना है एक गहनतम संभावना, उसका उपयोग करो। उसका सुख लेने में क्या बुराई है?'' वास्तव में, सभी नैतिकताएं प्रसन्नता-विरोधी हैं। कोई व्यक्ति प्रसन्न है तो तुम्हें लगता है कि जरूर कहीं कुछ गलत है। जब कोई
उदास है तब सब ठीक है। हम एक स्नायु-रोग-ग्रस्त समाज में जीते है जहां हर व्यक्ति उदास है। जब तुम उदास हो दुखी हो, तब सब प्रसन्न है; क्योंकि अब सबको तुमसे सहानुभूति प्रकट करने का अवसर मिलेगा। जब तुम प्रसन्न हो तो उनको समझ नहीं आएगा कि वे क्या करें? जब कोई तुमसे सहानुभूति प्रकट करता है तब उसका चेहरा देखना। चेहरे पर एक चमक होती है एक सूक्ष्म चमक चेहरे पर आ जाती है। वह सहानुभूति दिखाते समय प्रसन्न है। अगर तुम खुश हो, तब कोई संभावना नहीं--तुम्हारी प्रसन्नता दूसरों को उदास कर देती है। यह स्नायुरोग न्यूरोसिस है।
इसका आधार ही पागलपन है।
तंत्र कहता है ''तुम जो हो, प्रामाणिक रूप से वही हो जाओ। तुम्हारी प्रसन्नता बुरी नहीं अच्छी है। वह पाप नहीं। केवल उदासी पाप है केवल दुखी होना पाप है। प्रसन्न होना पुण्य है क्योंकि एक प्रसन्न और प्रफुल्लित व्यक्ति ही दूसरों के लिए दुख पैदा नहीं करेगा। केवल प्रफुल्लित और प्रसन्न व्यक्ति ही दूसरों की प्रसन्नता के लिए भूमि तैयार कर सकता है।''
दूसरी बात--जब मैं कहता हूं तंत्र न तो नैतिक है और न ही अनैतिक तो मेरा मतलब है तंत्र बुनियादी रुप से विज्ञान है। वह तुममें वही देखता है जो तुम हो। तंत्र तुम्हें वास्तविकता के माध्यम से रूपांतरित करना चाहता है। तंत्र और नैतिकता में उतना ही अंतर है जितना जादू और विज्ञान में है। जादू भी चीजों का रूप बदल देता है लेकिन बिना तथ्यो को जाने केवल शब्दो के द्वारा ही रूपांतरित करता है। एक जादूगर कह सकता है कि अब वर्षा बंद हो जाएगी। वास्तव में, वह बंद नहीं हो सकती। या वह कहेगा अब वर्षा होने लगेगी। वह वर्षा करवा नहीं सकता। वह केवल शब्दों का उपयोग कर सकता है।
कभी-कभी संयोग से हो सकता है कि ऐसा हो जाए और तब वह समझने लगेगा कि उसके पास कोई विशेष शक्ति है। और यदि उसकी जादुई भविष्यवाणी के अनुसार कोई बात घटित नहीं होती तो वह हमेशा बहाना बना सकता है ''कहां गलती हुई है?'' उसकी भविष्यवाणी में इस बात की संभावना तो छिपी ही रहती है। जादूगरी में बात ''यदि'' से ही शुरू होती है। वह कह सकता है यदि यहां सभी पुण्यात्मा विद्यमान हैं तब इस विशेष दिन वर्षा होगी। यदि वर्षा हो गई तब तो ठीक है और यदि वर्षा न हुई तो सभी पुण्यात्मा नहीं हैं। इनके बीच जरूर कोई पापी है।
इस सदी में, इस बीसवीं सदी में, जब बिहार में अकाल पड़ा तब महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति ने भी यह कहा ''बिहार के लोगों के पापों के कारण अकाल पड़ा है'' जैसे सारा संसार तो कोई पाप कर ही नहीं रहा केवल बिहार ही कर रहा है। जादू यदि से शुरू होता है और वह यदि बहुत बड़ा है।
विज्ञान कभी यदि से आरंभ नहीं करता क्योंकि विज्ञान पहले यह जानने की कोशिश करता है कि असलियत क्या है? एक बार जब वास्तविक को जान लिया जाता है तब उसे रूपांतरित भी किया जा सकता है। एक बार जब पता चल जाए कि बिजली क्या है? उसे परिवर्तित किया जा सकता है उसे रूपांतरित किया जा सकता है उसका
उपयोग किया जा सकता है। जादूगर को यह पता नहीं कि बिजली क्या है? बिना बिजली को जाने वह उसे रूपांतरित करने की बात सोच रहा है! वे भविष्यवाणियां झूठ हैं केवल भ्रम हैं।
नैतिकता केवल जादू की भांति है। वह पूर्ण मानव की बात ही किए जाती है बिना यह जाने कि आदमी है क्या--असली आदमी। पूर्ण मानव एक स्वप्न मात्र बनकर रह जाता है। उसका उपयोग सिर्फ वास्तविक मनुष्य की निंदा करने के लिए किया जाता है। मनुष्य कभी वहां तक पहुंच नहीं पाता।
तंत्र विज्ञान है। तंत्र कहता है ''पहले जानो कि यथार्थ क्या है वास्तविकता क्या है आदमी क्या है? और पहले से मूल्य निर्धारित मत करो और आदर्श मत स्थापित करो पहले उसे जानो जो है। जो होना चाहिए उसके संबंध में मत सोचो, जो है केवल उसके संबंध में सोचो।'' और जब एक बार उसे जान लिया जाता है जो है तब तुम
उसे रूपांतरित भी कर सकते हो। अब तुम रहस्य समझ गए।
उदाहरण के लिए तंत्र कहता है ''काम के विरुद्ध जाने की चेष्टा मत करो क्योंकि अगर तुम काम के विरुद्ध जाकर ब्रह्मचर्य को, पवित्रता को साधने की कोशिश करते हो तो यह असंभव है। यह मात्र जादू की भांति है। बिना यह जाने कि काम-ऊर्जा क्या है बिना यह जाने कि काम-वासना की उत्पत्ति किस प्रकार होती है बिना उसकी
प्रकृति की गहराई में गए बिना उसके रहस्य को जाने, तुम ब्रह्मचर्य का एक आदर्श अवश्य स्थापित कर सकते हो लेकिन तुम क्या करोगे?'' तुम केवल दमन करोगे। और जो व्यक्ति इसका दमन करता है वह उस व्यक्ति से अधिक कामुक है जो इसका भोग करता है; क्योंकि भोग से ऊर्जा शांत हो जाती है क्योंकि दमन से वह तुम्हारे शरीर-तंत्र
में निरंतर संचार करती रहती है।
जो व्यक्ति काम, सेक्स को दबाना शुरू कर देता है उसे सर्वत्र काम ही काम दिखाई देने लगता है। हर चीज कामुक हो जाती है। ऐसा नहीं है कि हर चीज कामुक है लेकिन अब वह प्रक्षेपण कर रहा है। अब वह प्रक्षेपण करता है। उसकी अपनी प्रच्छन्न ऊर्जा ही प्रक्षेपित हो रही है। उसे सब जगह काम ही दिखाई पड़ेगा। क्योंकि वह स्वयं को धिक्कार रहा है वह हर किसी को धिक्कारने लगेगा निंदा करने लगेगा। तुम एक भी ऐसा नीतिवादी न खोज सकोगे जो हिंसात्मक रूप से निंदा न करता हो सब की निंदा न करता हो--सभी गलत हैं। ऐसा करना उसे अच्छा लगता है उसके अहंकार की पुष्टि होती है। लेकिन हर कोई गलत क्यों है? क्योंकि सबमें उसे वही दिखाई देता है जिसका उसने दमन किया है। उसका चित्त और-और कामुक होता जाएगा और वह और-और भयभीत होता जाएगा। यह ब्रह्मचर्य विकृति है अप्राकृतिक है।
तंत्र का अनुसरण करने वाले साधक पर भिन्न प्रकार के गुणों से युक्त एक भिन्न प्रकार का ब्रह्मचर्य घटित होता है। लेकिन उसकी प्रक्रिया बिल्कुल इसके विपरीत है। तंत्र पहले यह सिखाता है कि किस प्रकार काम सेक्स में किस प्रकार गति करनी है कैसे इसे जाना है कैसे इसे महसूस करना है और कैसे उसकी अप्रकट गहनतम संभावनाओं को प्रकट करना है कैसे इसकी चरम सीमाओं तक पहुंचना है--किस प्रकार इसमें छिपे अनिवार्य सौंदर्य अनिवार्य सुख और आनंद की खोज करनी है।
एक बार जब उसका रहस्य जान लेने पर तुम उसके पार हो सकते हो क्योंकि वास्तव में गहन संभोग के क्षणों में जो आनंद मिलता है वह काम-वासना के कारण नहीं मिलता, वह बिल्कुल ही दूसरे कारण से प्राप्त होता है काम-वासना मात्र एक परिस्थिति है। वह कुछ और ही है जिससे तुम्हें महासुख मिल रहा है। वह कुछ तीन तत्वों में बांटा जा सकता है। लेकिन जब मैं उन तीन तत्वों का वर्णन करूंगा तो तुम ऐसा मत मान लेना कि तुम उन्हें समझ सकते हो। वे तुम्हारे अनुभव का हिस्सा बन जाने चाहिए। सिद्धांत रूप में वे निरर्थक हैं। काम के इन तीन मूलभूत तत्वों के कारण तुम आनंद के उस क्षण तक पहुंचते हो।
वे तीन तत्व है; : --
पहला: समय-शून्यता, टाइमलेसनेस तुम समय का पूरी तरह अतिक्रमण कर जाते हो तुम समय के पार हो जाते हो। वहां कोई समय नहीं। तुम समय को बिल्कुल भूल जाते हो, तुम्हारे लिए समय रुक जाता है। ऐसा नहीं कि समय रुक जाता है तुम्हारे लिए रुक जाता है। तुम समय में नहीं हो। कोई अतीत नहीं कोई भविष्य नहीं। इस क्षण में, यहीं और अभी, सारा अस्तित्व सिमट गया है। यही क्षण वास्तविक हो जाता है। अगर तुम इस क्षण बिना काम के वास्तविक क्षण बना सको तब काम-भोग की कोई आवश्यकता नहीं। ध्यान से ऐसा हो सकता है।
दूसरा. काम में पहली बार तुम्हारा अहंकार खो जाता है तुम निरंहकार हो जाते हो। इसलिए वे सभी जो महा अहंकारी हैं वे काम के बहुत विरुद्ध हैं क्योंकि काम में उन्हें अपना अहंकार छोड़ना पड़ता है। न तुम वहां हो और न ही दूसरा वहां है। तुम और तुम्हारा प्रेमी दोनों ही किसी और में ही खो जाते हैं। एक नया सत्य सामने आता
है एक नई इकाई अस्तित्व में आती है जिसमें पुराने दो खो जाते हैं--पूरी तरह मिट जाते हैं। अहंकार भयभीत है। तुम वहां बचे ही नहीं। अगर बिना काम के तुम उस क्षण को जहां तुम नहीं हो--पा सकते हो, तन काम की कोई जरूरत नहीं।
और तीसरा: पहली बार काम में तुम प्राकृतिक हो पाते हो। नकली खो जाता है मुखौटा उतर जाता है समाज, संस्कृति, सभ्यता सब खो जाते हैं। तुम प्रकृति के अंश हो--जैसे पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, चांद-तारे हैं। तुम प्रकृति के ही एक अंश हो। तुम किसी महान विश्व व्यवस्था में हो ताओ में हो। तुम इसमें बह रहे हो। तुम इसमें तैर भी
नहीं सकते, तुम हो ही नहीं। तुम बस बह रहे हो धारा तुम्हें बहाए लिए जाती है।
यही तीन तत्व तुम्हें परम सुख देते हैं। काम तो केवल एक परिस्थिति है जिसमें यह सहज-स्वाभाविक रूप से घटित होता है। एक बार जब तुम इसे जान लेते हो एक बार जब तुम इन तत्वों का अनुभव कर लेते हो तुम बिना काम के स्वतंत्र रूप से इन्हें निर्मित कर सकते हो। सभी ध्यान निश्चित रूप से बिना काम के काम का अनुभव है।
लेकिन तुम्हें इससे गुजरना होगा। यह तुम्हारा अनुभव होना चाहिए न कि सिद्धांत न कि विचार।
तंत्र काम के पक्ष में नहीं, तंत्र इसके अतिक्रमण के पक्ष में है। लेकिन तुम केवल अनुभव से इसका अतिक्रमण कर सकते हो-अनिवार्य रूप से अनुभव के द्वारा-- सिद्धांतों के द्वार नहीं। केवल तंत्र के माध्यम से ही ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। यह विरोधाभासी प्रतीत होता है लेकिन ऐसा नहीं है। केवल बोध से अतिक्रमण किया जा सकता है। अज्ञान अतिक्रमण करने में सहायक नहीं हो सकता केवल पाखंडी होने में सहायता कर सकता है।
अब प्रश्न। किसी ने पूछा है:
यह प्रश्न इसलिए उठता है क्योंकि हम इसे समझने में गलती करते चले जाते हैं। तुम्हारे संभोग कामकृत और तांत्रिक संभोग कामकृत्य, में बुनियादी भिन्नता है। तुम्हारा संभोग छुटकारा पाने के लिए है। यह वैसे ही है जैसे छींक मारना-- एक अच्छी छींक। ऊर्जा को बाहर निकाल फेंकना है भारमुक्त होना है। यह विनाशात्मक है सृजनात्मक नहीं। यह एक अच्छी चिकित्सा है तुम्हें तनाव-मुक्त करती है लेकिन इससे अधिक और कुछ नहीं।
तांत्रिक संभोग बुनियादी रूप से विपरीत है और भिन्न है। यह छुटकारा पाना नहीं है यह ऊर्जा को बाहर फेंकना नहीं है। यह संभोग में बिना वीर्य-स्खलन के उसमें टिके रहना है-- संभोग के आरंभिक क्षणों में ही रुके रहना है अंत तक पहुंचने का उतावलापन नहीं। इससे मुल संभोग का गुण ही बदल जाता है।
दो बातें समझने जैसी है। दो प्रकार के चरम बिंदु हैं दो प्रकार के ऑरगॉज्म, काम-संवेग हैं। एक प्रकार के ऑरगॉज्म का पता है तुक उत्तेजना के एक शिखर पर पहुंच जाते हो फिर उसके आगे नहीं जा सकते, अंतिम छोर आ गया है। उत्तेजना उस चरम बिंदु तक पहुंच जाती है जहां वह अपनी इच्छा के अधीन नहीं रह जाती। ऊर्जा
तुम्हारे भीतर उछाल लेती है और बाहर निकल जाती है। तुम उससे मुक्त हो जाते हो एक बोझ--सा उतर जाता है। बोझ फेंक दिया जाता है अब तुम शिथिल हो सकते हो और सो सकते हो।
तुम उसका उपयोग नींद की दवा के रूप में कर रहे हो। अच्छी नींद आ जाएगी-- अगर तुम्हारा चित्त धर्म के बोझ से मुक्त है--तभी। नहीं तो नींद की दवा भी प्रभावहीन हो जाएगी व्यर्थ हो जाएगी अगर तुम्हारा चित्त धर्म के बोझ से दबा नहीं जा रहा बस, तभी संभोग नींद की दवा सिद्ध हो सकता है। अगर तुम्हारे मन में अपराध का भाव है तुम्हारी नींद में बाधा पड़ जाएगी तुम एक दबाव का अनुभव करोगे तुम आत्म निंदा करने लगोगे, और तुम प्रतिज्ञा करोगे कि अब और नहीं...। तुम्हारी नींद एक दुखस्वप्र बन जाएगी। अगर तुम सहज स्वाभाविक व्यक्ति हो धर्म और नैतिकता के बोझ से दबे नहीं जा रहे बस, तभी संभोग का दवा के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
यह एक प्रकार का ऑरगॉज्म है--उत्तेजना के परम चरम शिखर पर पहुंचना। तंत्र दूसरे प्रकार के ऑरगॉज्म पर केंद्रित है। अगर एक को हम शिखर कहते हैं उसे तुम घाटी कह सकते हो। उत्तेजना के शिखर पर पहुंचना नहीं है लेकिन शिथिलता की रिलैक्सजेशन की गहरी घाटी में आना है। शुरू-शुरू में उत्तेजना को दोनों प्रकार के
ऑरगॉज्म के लिए इस्तेमाल किया जाना जरूरी है इसीलिए मेरा कहना है कि शुरू-शुरू में दोनों ही एक समान हैं लेकिन अंत में दोनों सर्वथा भिन्न हैं।
उत्तेजना का दोनों के लिए उपयोग करना पड़ेगा। चाहे तुम उत्तेजना के शिखर की ओर जा रहे हो या शिथिलता की घाटी में उतर रहे हो। पहले प्रकार के ऑरगॉज्म के लिए उत्तेजना तीव्र होनी चाहिए--ज्यादा से ज्यादा तीव्र। तुम्हें इसे शिखर की ओर पहुंचने में सहयोग देना पड़ेगा। दूसरे के लिए उत्तेजना सिर्फ आरंभ में ही होती है। और जब आदमी एक बार इसमें प्रवेश कर जाता है प्रेमी और प्रेमिका दोनों शिथिल हो सकते हैं। किसी तरह से भी हिलने-डुलने की जरूरत नहीं। वे प्रेमपूर्ण आलिंगन में बंधे विश्राम कर सकते हैं। जब स्त्री या पुरुष को ऐसा लगे कि काम-वासना शांत होने लगी है तो फिर थोड़ी हिल-जुल और उत्तेजना...लेकिन फिर शिथिल हो जाए। तुम इस प्रगाढ़ आलिंगन को घंटों लंबा सकते हो। वीर्य-स्खलित नहीं होना चाहिए। और फिर दोनों एक गहरी नींद सो सकते हैं। यह घाटी का ऑरगॉज्म, काम-संवेग है। दोनों में कोई तनाव नहीं और वे दोनों शांत और तनाव रहित प्राणियों की भांति मिलते हैं।
साधारण संभोग में तुम दो उत्तेजित प्राणियों की भांति मिलते हो जो तनाव से भरे हैं उत्तेजित है स्वयं को भार मुक्त करने में प्रयत्न शील हैं। साधारण संभोग पागलपन लगता है। तांत्रिक संभोग एक गहरा तनावशून्य ध्यान
है। तब कोई प्रश्न नहीं उठता... कोई कितनी बार संभोग करे? जितनी बार तुम्हें अच्छा लगे, क्योंकि इसमें कोई शक्ति नष्ट नहीं होती, बल्कि शक्ति प्राप्त होती है।
तुम्हें इस बात का ख्याल भी नहीं होगा लेकिन यह एक जैविक जीव-ऊर्जा का एक तथ्य है कि स्त्री और पुरुष दो विपरीत शक्तियां हैं--धन और ऋण; यिन और यैग, या जो कुछ भी तुम उन्हें नाम दो। वे दोनों एक दूसरे के लिए चुनौती हैं और जब वे दोनों गहन शिथिलता में मिलते हैं तो एक दूसरे को पुन: जीवन-शक्ति प्रदान करते हैं। वे दोनों एक दूसरे में जीवन संचार करते हैं वे दोनों और युवा हो जाते हैं वे दोनों और अधिक सजीवता अनुभव करते हैं वे दोनों नव-शक्ति से कांतिमय हो जाते हैं। और नष्ट कुछ भी नहीं होता। दो विपरीत ध्रुवों के मिलन से नव शक्ति का संचार होने लगता है।
तांत्रिक संभोग उतना किया जा सकता है जितना तुम करना चाहते हो। साधारण संभोग उतना नहीं किया जा सकता जितना तुम करना चाहते हो क्योंकि उसमें तुम्हारी ऊर्जा नष्ट हो रही है और तुम्हारे शरीर को उसे पुन: प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। और जब फिर प्राप्त होगी तभी तुम उसे फिर गंवा सकते हो। यह बात अजीब-सी लगती है सारा जीवन इसे खर्च करने और फिर प्राप्त करने में ही व्यतीत हो जाता है। यह केवल ग्रस्तता आब्सेशन है।
दूसरी बात जो स्मरण रखने योग्य है। तुमने इस बात पर गौर किया होगा या नहीं अगर तुम पशु-पक्षियों को देखो। तुम उन्हें मैथुन का आनंद लेते कभी न पाओगे। बंदरों, कुत्तों या किसी भी पशु को देखो--तुम ऐसा कभी नहीं देखोगे कि वे काम-कृत्य करते हुए हर्षित हो रहे हैं आनंदित हो रहे हैं। उनके लिए यह एक यांत्रिक कृत्य है कोई
प्राकृतिक शक्ति उन्हें इस कर्म में धकेल रही है। यदि तुमने बंदरों को मैथुन करते हुए देखा होगा तो पाया होगा कि मैथुन के बाद वे अलग हो जाते हैं। उनके चेहरे देखो। वहां कोई आनंद की झलक नहीं--जैसे कुछ हुआ ही नहीं। जब ऊर्जा विवश करती है जब ऊर्जा अतिशय हो जाती है वे बाहर फेंक देते हैं।
साधारण संभोग ठीक इसी भांति है और नीतिवादी बिल्कुल इसके विपरीत बात करते हैं। वे कहते हैं ''भोग मत करो। आनंदित मत होओ।'' वे कहते हैं ''यह पशुओं जैसा है।'' ऐसा नहीं है। पशु कभी इसका आनंद नहीं उठा सकते--केवल मनुष्य ही इसका मजा ले सकता है। और जितनी गहराई से आनंद उठा सकते हो उतनी ही तुममें
मानवता का जन्म होता है। और अगर कहीं संभोग-कृत्य ध्यान बन जाए तो तुम उच्चतम शिखर को छूने में समर्थ हो जाते हो।
लेकिन याद रखो, तंत्र, घाटी का कामोत्ताप, वैली ऑरगॉज्म है। यह शिखर का अनुभव नहीं है यह घाटी का अनुभव है।
पश्चिम में अब्राहम मस्लो ने इस शब्द पीक एक्कपीरियंस शिखर-अनुभव, को बहुत प्रचलित कर दिया। तुम उत्तेजना में शिखर की ओर बढ़ते हो और फिर धड़ाम से नीचे गिर जाते हो और फिर हाथ आती है खिन्नता। तुम ऊंचे शिखर से गिर पड़ते हो। तंत्र-संभोग तुम ऐसा कभी अनुभव नहीं करते। तुम नीचे नहीं गिर रहे। तुम और इसके आगे नीचे नहीं गिर सकते--तुम घाटी में ही थे। बल्कि तुम ऊपर उठ रहे हो।
जब तुम तांत्रिक संभोग के बाद वापस लौटते हो तुम नीचे नहीं गिरते, तुम ऊपर उठ जाते हो। तुम्हें ऐसा लगता है जैसे तुम ऊर्जा से भर गए हो तुम और सजीव, ओजस्वी, कांतिमय हो गए हो। और वह हर्षेन्मान, वह आनंद कई घंटों तक यहां तक कि कई दिनों तक बना रहेगा। यह सब इस बात पर आश्रित है कि तुम इस कृत्य में
कितना गहरे जा पाए थे।
और अगर तुम देर-अबेर इसमें गति कर सको तो तुम जान सकोगे कि वीर्य-स्खलन से ऊर्जा नष्ट होती है। इसकी आवश्यकता ही नहीं है--जब तक तुम्हें बच्चों की आवश्यकता नहीं है। और सारा दिन तुम एक गहन शिथिलता, एक गहन विश्रांति महसूस करोगे। एक तंत्र-संभोग का अनुभव, और कई दिनों तक तुम्हें एक ऐसे सुख का अनुभव होगा जैसे तुम घर पहुंच गए हो तुम्हें अहिंसा, अविरोध, अखिन्नता की मीठी प्रतीति होगी। ऐसा व्यक्ति दूसरों के लिए कभी कोई खतरा नहीं बन सकता। अगर संभव होगा तो वह दूसरों को प्रसन्न रखने में सहायक होगा। अगर वह ऐसा नहीं कर सकेगा तो कम से कम किसी को दुख न देगा।
केवल तंत्र ही नये मनुष्य का निर्माण कर सकता है। एक ऐसा मनुष्य जिसने समय -शून्यता, निरहंकारिता का जान लिया है और अब अस्तित्व के साथ गहरा अद्वैत विकसित होगा। एक दूसरा आयाम खुल गया है। अब वह घड़ी दूर नहीं जब काम-वासना तिरोहित हो जाएगी। जब काम वासना अनजाने ही विलीन हो जाती है तब अचानक एक दिन तुम्हें ज्ञात होता है कि काम-वासना तिरोहित हो गई है और तब ब्रह्मचर्य का जन्म होता है। लेकिन गलत शिक्षा के कारण कठिन और दुःसाध्य लगती है। और तुम भयभीत भी हो अपने मन के संस्कारों के कारण।
हम दो चीजों से बहुत भयभीत हैं--काम और मृत्यु। लेकिन ये दोनों ही बुनियादी हैं और एक वास्तविक अर्थों में सत्यान्वेष इन दोनों में प्रवेश करेगा। वह काम-वृत्ति को समझने के लिए इसमें प्रवृत्त होगा क्योंकि काम-वृत्ति को समझना जीवन को समझना है। और वह यह भी जानना चाहेगा कि मृत्यु क्या है? क्योंकि जब तक तुम यह न जानोगे कि मृत्यु क्या है? तुम शाश्वत जीवन को नहीं जान सकते। अगर मैं काम के मूल केंद्र
में प्रवेश कर सकूं तो मैं जान सकता हूं कि जिंदगी क्या है? और अगर मैं स्वेच्छा से मृत्यु में, इसके मूल केंद्र में प्रवेश कर सकूं जिस क्षण मृत्यु के केंद्र को स्पर्श करूंगा मैं शाश्वत हो जाऊंगा। अब मैं अमर हो जाऊंगा क्योंकि मृत्यु तो केवल उपर-ऊपर सतह पर घटित होती है।
सत्यान्वेष के लिए काम और मृत्यु दोनों बुनियादी हैं लेकिन साधारण मनुष्यता के लिए ये दोनों वर्जनाएं हैं--उनकी चर्चा ही मत करो। और दोनों बुनियादी हैं और दोनों एक -दूसरे से जुड़ी हैं। उनका परस्पर संबंध इतना घनिष्ठ है कि काम में प्रवेश करते समय तुम एक प्रकार की मृत्यु में ही प्रविष्ट होते हो क्योंकि तुम मर रहे हो। अहंकार मिट रहा है समय विलीन हो रहा है तुम मर रहे हो। काम भी एक सूक्ष्म मृत्यु है। अगर तुम यह जान सको कि काम एक सूक्ष्म मृत्यु है तो मृत्यु एक महान काम-संभोग, बन जाएगा।
कोई सुकरात मृत्यु में प्रवेश करते समय भयभीत नहीं होता। उलटे वह मौत को जानने के लिए अत्यधिक उत्साहित है रोमांचित है उतावला है। उसके हृदय मौत के लिए स्वागत का एक गहरा भाव है। क्यों? क्योंकि अगर तुम ने काम में घटित होने वाली छोटी मृत्यु को जान लिया है और इसके पीछे-पीछे आने वाले आनंद को जान
लिया है तुम उस महान मृत्यु को जानना चाहोगे--उसके पीछे एक महा-आनंद छिपा है। लेकिन हमारे लिए तो ये दोनों ही वर्जनाएं हैं। तंत्र के लिए ये दोनों ही खोज के मूलभूत आयाम है। इसमें से गुजरना अनिवार्य है।
किसी ने पूछा है: --
''अगर कोई व्यक्ति ध्यान में अपनी रीढ़ में ऊर्ध्वगमन करती कुललिनी शक्ति को अनुभव करता है तो क्या उसके लिए काम-संवेग ऑरगॉज्म, को उपलब्ध होने के लिए ध्यान शक्तियों काव्यय न होगा?
ये सभी प्रश्न वास्तव में बिना तंत्र-संभोग को जानने के कारण उठते हैं। साधारणतया तो यह ऐसा ही है। अगर तुम्हारी शक्ति ऊर्ध्व गमन करती है तुम्हारी कुंडलिनी शक्ति को जगाती और मस्तिष्क की ओर गति करती है तो तुम्हें साधारण ऑरगॉज्म, काम-संवेग नहीं हो सकता। और अगर कोशिश करोगे, तो तुम्हारे भीतर एक गहन संघर्ष पैदा हो जाएगा; क्योंकि ऊर्जा ऊर्ध्वगमन कर रही और तुम बलपूर्वक उसे नीचे की ओर ले जाने की कोशिश कर रहे हो। लेकिन तंत्र-संभोग कठिन नहीं है वह बाधा नहीं बनेगा। वह सदुपयोगी होगा।
ऊर्ध्वगमन करती हुई ऊर्जा तंत्र-संभोग के विपरीत नहीं। तुम शिथिल और शांत बने रहते हो और अपने प्रेमी के सहवास में वह शिथिलता ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन में सहायक सिद्ध होगी। साधारण संभोग में यह मुश्किल होगा। इसी कारण वे सभी विधियां जो तांत्रिक नहीं है काम-वासना के विरुद्ध हैं क्योंकि उन्हें यह ज्ञात नहीं कि एक घाटी-काम-संवेग भी संभव है। उन्हें एक ही प्रकार के संभोग का पता है - साधारण संभोग, साधारण कामोत्तेजना का पता है--और तब वह उनके लिए एक समस्या बन जाता है। योग के लिए वह एक समस्या है क्योंकि योग तुम्हारी ऊर्जा को जबर-दस्ती ऊपर की ओर ले जाने की कोशिश करता है। उसे कुंडलिनी शक्ति कहते हैं-- ऊर्ध्व-गमन करती हुई तुम्हारी काम-ऊर्जा।
संभोग में वह नीचे की ओर गमन करती है। योग कहेगा ''ब्रह्मचारी बनो, क्योंकि अगर तुम दोनों एक साथ कर रहे हो तुम अपनी शरीर-व्यवस्था में सब गड़बड़ कर रहे हो। एक तरफ तो तुम ऊर्जा को ऊपर उठा रहे हो और दूसरी तरफ तुम नीचे खींच रहे हो सब गड़बड़ हो जाएगा। इसीलिए योग विधियां काम-विरोधी हैं।''
लेकिन तंत्र काम-विरोधी नहीं है क्योंकि तंत्र में एक भिन्न प्रकार का काम-संवेग है घाटी-काम-संवेग, जो तुम्हारा सहयोगी हो सकता है। कोई अव्यवस्था नहीं कोई संघर्ष नहीं। उलटे वह तुम्हारी मदद करेगा। अगर तुम पलायन कर रहे हो--अगर तुम पुरुष हो और स्त्री से भाग रहे हो या अगर तुम स्त्री हो और पुरुष से बच रही हो--तुम कुछ भी करो मन में दूसरा तो बना ही रहता है और तुम्हें नीचे की ओर खींचने में लगा रहता है। यह विरोधभासी लगता है पर सत्य है।
अपने प्रेमी के प्रगाढ़ आलिंगन में बद्ध तुम यह भूल सकते हो कि दूसरा है। वास्तव में तुम केवल तभी दूसरे को भुला पाते हो। पुरुष भूल जाता है कि कोई स्त्री है और स्त्री भूल जाती है कि कोई पुरुष है। केवल प्रगाढ़ आलिंगन में ही दूसरा नहीं बचता और जब दूसरा नहीं बचा तम्हारी ऊर्जा सरलता से प्रवाहित हो सकती है नहीं तो दूसरा उसे नीचे की ओर खींचता रहता है।
इसलिए योग और साधारण विधियां दूसरे से पलायन हैं विपरीत यौन से पलायन है। उन्हें बचना ही पड़ेगा सावधान रहना पड़ेगा, निरंतर संघर्ष और दमन करना पड़ेगा। लेकिन अगर तुम काम-विरोधी हो तो यह विरोध ही तुम्हारे लिए निरंतर तनाव बना रहता है और निरंतर तुम्हें नीचे की ओर खींचता रहता है।
तंत्र कहता है ''किसी तनाव की जरूरत नहीं। दूसरे के साथ तनाव शून्य विश्राम में रहो। उस शिथिलता के क्षण में दूसरा विलीन हो जाता है और तुम्हारी ऊर्जा ऊपर की ओर बह सकती है। लेकिन वह तभी ऊर्ध्वगमन करती है जब तुम घाटी में हो। वह तभी नीचे की ओर बहती है जब तुम शिखर पर होते हो।''
एक प्रश्न और: -
''गत रात्रि आपने कहा कि संभोग धैर्य पूर्वक धीरे-धीरे करना चाहिए लेकिन साथ ही यह भी कहा कि काम-भोग को किसी प्रकार के नियंत्रण में रखने की जरूरत नहीं और इसमें समग्रस्ता अपेक्षित है।'' मैं दुविधा में पड़ गया हूं।
यह नियंत्रण नहीं है। नियंत्रण बिल्कुल अलग बात है और शिथिलता रिलैक्सजेशन बिल्कुल अलग। तुम इसमें शिथिल होते हो, इसमें स्वयं को ढीला छोड़ देते हो नियंत्रित नहीं करते। अगर तुम इस को नियंत्रण में कर हरे हो तो यह स्वयं को शिथिल छोड़ना न होगा। अगर तुम इसको नियंत्रित करने की चेष्टा कर रहे हो तो देर-अबेर तुम इसे खत्म करने की जल्दी करोगे, क्योंकि नियंत्रण दबाव है। और हर दबाव तनाव पैदा करता है और तनाव छुटकारा पाने की जरूरत पैदा करता है। वह नियंत्रण नहीं है! तुम बाधा नहीं डाल रहे। तुम सिर्फ जल्दी में नहीं हो क्योंकि काम, सेक्स कहीं और जाना नहीं है तुम कहीं और नहीं जा रहे। वह केवल क्रीडा है कोई मंजिल नहीं, कहीं पहुंचना नहीं है फिर जल्दी क्या है?
लेकिन आदमी हमेशा अपने प्रत्येक कृत्य में, पूरी तरह उपस्थित होता है। अगर तुम अपने हर काम में जल्दी करते हो, तुम संभोग में भी जल्दी करोगे- क्योंकि वहां भी तुम ही होओगे। जो व्यक्ति समय का बहुत ख्याल रखता है वह संभोग में भी जल्दी करेगा जैसे कि समय बर्बाद हो रहा है। जैसे हमें (तात्क्षणिक) इनस्टांट काफी चाहिए वैसे ही इनस्टांट सेक्स चाहिए। काफी के मामले में तो ठीक है लेकिन संभोग के साथ यह बात बिल्कुल मूढतापूर्ण है। इनस्टांट सेक्स, तात्क्षणिक काम नहीं हो सकता। यह कोई कर्म नहीं है और न ही यह कुछ ऐसी बात है जिसमें आप जल्दी कर सकते हैं। जल्दी तुम उसे नष्ट कर दोगे, तुम असली बात से चूक जाओगे। इसका आनंद लो क्योंकि उसके माध्यम से समय-शून्यता की अनुभूति होती है। अगर तुम जल्दी में हो तुम्हें समय-शून्यता की अनुभूति संभव नहीं।
जब तंत्र कहता है '' धीरे-धीरे करते हुए उसका उसी तरह आनंद उठाओ जैसे कि तुम प्रात: भ्रमण कर रहे हो'' ऐसे नहीं जैसे कि तुम दफतर जा रहे हो वह बिल्कुल दूसरी बात है। जब तुम दफतर जा रहे हो तुम कहीं पहुंचने के लिए उतावले हो। और जब तुम प्रात: भ्रमण के लिए निकलते हो तुम्हें कोई जल्दी नहीं; क्योंकि तुम्हें कहीं पहुंचना नहीं है। तुम सिर्फ जा रहे हो। कोई जल्दी नहीं कोई उतावलापन नहीं कोई मंजिल नहीं। तुम कहीं से भी लौट सकते हो।
यह जल्दी का न होना ही घाटी बनाता है नहीं तो शिखर निर्मित हो जाएगा। और जब ऐसा कहा जाता इसका अर्थ यह नहीं कि तुम्हें इस पर नियंत्रण रखना है। तुम्हें अपनी उत्तेजना पर नियंत्रण नहीं रखना है कयोंकि वे परस्पर विरोधी है। तुम उत्तेजना को नियंत्रित नहीं कर सके। अगर तुम उस पर अकुंश लगाते हो तुम दुगुणी
उत्तेजना उत्पन्न कर रहे हो। बस सब ढीला छोड़ दो, इसे खेल की भांति लो- किसी मंजिल किसी अंत की मत सोचो। आरंभ ही पर्याप्त है।
संभोग करते समय अपनी आंखों बंद कर लो दूसरे के शरीर को महसूस करो, दूसरे की ऊर्जा को अपनी ओर बहते हुए महसूस करो और उसमें डूब जाओ पिघलो, द्रवित हो जाओ। आरंभ में ऐसा करना कठिन-सा लगेगा, पुरानी आदत है इतनी जल्दी नहीं छूटेगी। हो सकता है कुछ दिन पीछा न छोड़े मजबूर करे...चली जाएगी। लेकिन
उसको विदा करने में शक्ति मत गंवाओ। बस, शिथिल शिथिल और शिथिल होते जाओ। और अगर वीर्य-स्खलित न हो, तो ऐसा मत सोचना कि कुछ गलत हो रहा है क्योंकि पुरुष सोचने लगता है कि कुछ गलत हो गया है। कुछ भी गलत नहीं हुआ है। और ऐसा भी मत सोचो कि तुम कुछ चूक गए हो। तुमने कुछ भी नहीं खोया है।
शुरू-शुरू में कुछ कमी सी महसूस होगी क्योंकि उत्तेजना और शिखर वहां न होंगे। और इससे पहले कि घाटी आए तुम्हें ऐसा प्रतीत होगा जैसे कि कुछ कमी है तुम कुछ खो रहे हो लेकिन यह सिर्फ पुरानी आदत है। कुछ समय के भीतर एक महीना या कुछ सप्ताह के भीतर घाटी प्रकट होने लगेगी। और जब घाटी दिखाई देने लगेगी तुम अपने शिखरों को भूल जाओगे। तब कोई शिखर मूल्यवान न रहेगा। लेकिन तुम्हें प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। और उसके साथ जबदरस्ती मत करना--और उस पर काबू पाने की कोशिश मत करना। बस शिथिल पड़े रहो।
शिथिलता रिलैक्सेशन एक समस्या है- क्योंकि जब हम कहते हैं शिथिल हो जाओ बुद्धि इसका यही अर्थ करती है कि कुछ प्रयत्न करना होगा। ऐसा हमारी भाषा के कारण प्रतीत होता है। मैं एक किताब पड़ता था; उसका शीर्षक है ''यू मस्ट रिलैक्स'' तुम्हें शिथिल होना ही चाहिए यह चाहिए ही तुम्हें रिलैक्स नहीं होने देगा क्योंकि तब
यह लक्ष्य बन जाता है तुम्हें होना चाहिए और अगर तुम नहीं हो सके तुम कुंठित होओ दुखी होओगे। चाहिए इससे तुम्हें ऐसा लगता है जैसे तुम्हें भरपूर प्रयत्न करना चाहिए यात्रा बड़ी कठिन है। अगर तुम चाहिए की भाषा में सोच रहे हो तुम शिथिल नहीं हो सकते।
भाषा एक समस्या है। कुछ चीजों को भाषा हमेशा गलत ढंग से व्यक्त करती है। उदाहरण के लिए--शिथिलता, रिलैक्सेशन। अगर मैं शिथिल होने के लिए कहता हूं तो यह भी एक कोशिश बन जाती है और तुम पूछते हो, ''कैसे शिथिल हों?'' कैसे पूछते ही तुम असली बात से चूक जाते हो। तुम यह नहीं पूछ सकते कि कैसे। तुम विधि
पूछ रहे हो। विधि चेष्टा को जन्म देगी चेष्टा तनाव पैदा करेगी। इसलिए अगर तुम मुझसे पूछते हो कि शिथिल कैसे हों, मैं कहूंगा: कुछ भी मत करो। बस, सब ढीला छोड़ दो। बस, लेट जाओ और प्रतीक्षा करो। कुछ भी मत करो। तुम जो भी करोगे वह सब अवरोधपूर्वक होगा, वह बाधा उत्पन्न करेगा।
अगर तुम एक से सौ तक और फिर वापस सौ से एक तक गिनती शुरू करते हो तुम सारी रात सो न पाओगे। और अगर कभी गिनती के कारण नींद लग जाए तो यह गिनती के कारण नहीं है- यह इसलिए हुआ क्योंकि तुम गिनते-गिनते ऊब गए। यह गिनती के कारण नहीं है यह ऊब के कारण है। तब तुम गिनना भूल गए और नींद आ गई। लेकिन नींद तभी आती है रिलैक्सेशन तभी आती है जब तुम कुछ नहीं करते। यही समस्या है।
जब मैं कहता हूं काम-कृत्य'' तो ऐसा लगता है कि यह प्रयत्न है। ऐसा नहीं हैं। सिर्फ अपनी प्रेमिका के साथ खेलना शुरू करो। बस खेलते जाओ एक दूसरे को महसूस करो एक दूसरे के प्रति संवेदनशील बनो। बस छोटे बच्चों की भांति खेलो या जैसे पशु-पक्षी खेलते हैं जैसे कुत्ते आपस में खेलते हैं। बस सिर्फ खेलते ही जाओ। काम-कृत्य के बारे में बिल्कुल मत सोचो। वह घटे या न घटे।
अगर क्रीडा करते-करते वह घट जाए तो वह तुम्हें सरलता से घाटी की ओर ले जाएगा। अगर तुम इसके बारे में सोचने लगे, तब तुम पहले ही अपने से आगे निकल गए। तुम अपनी प्रेमिका के साथ क्रीडा कर रहे हो लेकिन तुम काम-कृत्य के बारे में सोच रहे हो। तब क्रीडा झूठी है। तुम वहां हो नहीं तुम्हारा मन कहीं भविष्य में है।
जब तुम संभोग करते हो, मन कहीं सोच रहा होता है कि कैसे इसे खत्म करे। यह हमेशा तुम से आगे निकल जाना चाहता है। इसे ऐसा मत करने दो। केवल क्रीडा-रत रहो, भूल जाओ काम-कृत्य को। वह तो घटित होगा ही। इसे घटित होने दो। तब शिथिल होना आसान हो जाएगा। और जब यह घटता है...केवल शिथिल हो जाओ। एक दूसरे के साथ रहो। एक दूसरे की उपस्थिति में प्रसन्नता अनुभव करो।
कुछ नकारात्मक में किया जा सकता है। उदाहरण के लिए--जब तुम उत्तेजित होने लगते हो तुम्हारी सांस तेजी से चलने लगती है क्योंकि उत्तेजना के लिए तेज सांस की आवश्यकता है। शिथिलता के लिए अच्छा है कि तुम धीमी गति से गहरी सांस लो सांस सहजतापूर्वक और सरलतापूर्वक लो। तब काम-कृत्य के समय को बढ़ाया जा
सकता है।
कुछ भी मत कहो, कुछ भी बात मत करो क्योंकि इससे बाधा पड़ती है। बुद्धि का उपयोग मत करो शरीरों का उपयोग करो। केवल यह महसूस करने के लिए कि क्या घट रहा अपने मन का उपयोग करो। जो ऊष्मा प्रवाहित हो रही है जो प्रेम प्रवाहित हो रहा है जिस ऊर्जा से मिलन हो रहा है सिर्फ उसे महसूस करो। इसके प्रति सचेत रहो। और इसे तनाव मत बना लेना इसके साथ बहना-अचेष्टित। तब केवल तब घाटी प्रकट होती है। और एक बार घाटी दिख जाए तुम इसके पार हो गए।
एक बार उस घाटी को शिथिल काम-संवेग रिलैक्कड ऑरगॉज्म को अनुभव कर लेना उसे पहचान लेना ही अतिक्रमण है। वहां काम नहीं। अब वह एक ध्यान एक सामधि बन गया है।
आज इतना ही
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