भारत के संत-ओशो
अजहूं चेत गंवार-(संत पलटूबनिया)
पलटू दास के संबंध में बहुत ज्यादा ज्ञान नहीं है। संत तो पक्षियों के जैसे होते है। आकाश पर उड़ते जरूर है, लेकिन पदचिन्ह नहीं छोड़ते जाते है।। संतों के संबंध में बहुत कुछ ज्ञात नहीं रहता है। संत का होना ही अज्ञात है। अनाम। संत का जीवन अन्तर जीवन है। बहार के जीवन के तो परिणाम होते है। इतिहास पर इति वृति बनता है। घटनाएं घटती है। बहार के जीवन की। भीतर के जीवन की तो कहीं कोई रेखा नहीं होती। भीतर के जीवन की तो समय की रेत पर कोई अंकन नहीं होता। भीतर का जीवन तो शाश्वत,सनातन,समयातित जीवन हे। जो भीतर जीते है उन्हें तो वे ही पहचान पाएंगे जो भीतर जायेंगे। इसलिए सिकंदरों हिटलरों चंगैज खां और नादिर शाह इनका तो पूरा इतिहास मिल जाएगा। इनका तो पूरा बहार का होता है । इनका भीतर को कोई जीवन होता नहीं। बाहर ही बाहर का जीवन होता है। सभी को दिखाई पड़ता है।
अगर बाहर का हम हिसाब रखें तो संतों ने कुछ भी नहीं किया होता। तो सारा काम असंतों ने ही किया है दुनिया में। असल में कृत्य ही असंत से निकलता है। संत के पास तो कोई कृत्य नहीं होता। संत का तो कर्ता ही नहीं होता। तो कृत्य कैसे हो सकता है। संत तो परमात्मा में जीता है। संत तो अपने को मिटा कर जीता है। आपा मेट कर जीता है। संत को पता ही नहीं होता कि उसके कुछ किया, कि उससे कुछ हुआ। संत तो होता ही नहीं। तो न तो संत के कृत्य की कोई छाप पड़ती है और न संत के कर्ता का कोई भाव कहीं निशान छोड़ जाता है।
पलटू दास बिलकुल ही अज्ञात संत है। इनके संबंध में बडी थोड़ीसी बातें ज्ञात है—उंगलियों पर गिनी जा सकें। एक—उनके ही वचनों से पता चलता है गुरु के नाम का। गोविन्द दास उनके गुरु थे। संत गोविंद भीखा के शिष्य थे। एक परम संत के शिष्य थे। गोविंद दास पलटू के गुरु थे।
संतों ने अपनी बाबत चाहे कुछ भी न छोड़ा हो। लेकिन गुरु का स्मरण किया हे। जरूर किया है। अपने को तो मिटा डाला है, लेकिन गुरु में हो गए। अपने को पोंछ डाला, सब तरह से अपने को समाप्त कर लिया। उसी समाप्ति में गुरु से तो संबंध जुड़ता है। और परमात्मा की याद की है। लेकिन गुरु की याद को नहीं भूले है। क्योंकि परमात्मा से जिसने जुड़ाया उसे कैसे भूल जाएंगे।
तो गोविंद दास उनके गुरु थे। दूसरी बात, बात जो उनके पदों से ज्ञात होती है वह यक कि वे बणिक थे, वैश्य थे। बनिया थे। वह भी इसलिए ज्ञात होती है कि वैश्य की भाषा का उपयोग किया है। जैसे कबीर जुलाहे थे तो कबीर के पदों में जुला हैं की भाषा का उपयोग है। स्वभाविक। झीनी-झीनी बीना रे चदरिया। अब यह कोई दूसरा नहीं लिख सकता। जो चदरिया बीन सकता है वही ये उपमा देगा। गोरा कुम्हार लिखे गा वह मटके बनाने की बात लिखेगा।ऐसे इनके पदों में इनके वणिक होने के प्रमाण मिलता है। बड़ी मस्ती की बात कही है। कहा है कि ‘’ मैं राम का मोदी ’’–राम का बनिया हूं। राम को बेचता हूं। छोटा-मोटा दुकान नहीं करता।
सुनो ये अद्भुत बचन—
कौन करे बनियाई, अब मोरे कौन करे बनियाई।
त्रिकुटी में है भरती मेरी, सुखमन में है गादी।
दसवें द्वारे कोठी मेरी, बैठा पुरूष अनादि।
इंगला-पिंगला पलरा दूनौं, लागी सुरति की जोति।
सत सबद की डांडी पकरौं, तौलौं भर-भर मोती।
चाँद-सूरज दोउ करें रखवारी, लगी सत ही ढेरी।
तुरिया चढी के बेचन लागा, ऐसी साहिबी मेरी।
सत गुरु साहिब किहा सिपारस, मिली राम मुदियाई।
पलटू के घर नौबत बाजत, निति उठ होति सबाई।
तीसरी बात जो पता है उनके संबंध में वे दो भाई थे। और दोनों ही पलटू हो गये। बाहर के धन की फिक्र छोड़ दी और भीतर का धन खोजने लगे। खोजने ही नहीं लगे खोज ही लिया।
दोनों भाई बदल गए। बदलने के कारण गुरु ने दोनों को पलटू नाम दे दिया। एक भाई को पलटू प्रसाद और दूसरे भाई को पलटू दास। यह शब्द बड़ा प्यारा दिया गुरु ने ‘’पलटू’’ईसाई जिसको कन्वर्शन कहते है। पलट गए। कहीं जाते थे और ठीक उलटे चल पड़े। और ऐसे पलटे कि क्षण में दूसरे हो गये। कोई देर दार नहीं की। सोच-विचार नहीं किया। कहां बाजरा में गादी लगा केर बैठे थे और कहां सूक्ष्म में गादी लगा दी। कहां तोलते थे—आनाज तौलते थे। और कहां ‘सत शब्द की ढेरी’। ये तौलने लगे। और कहां साधारण चीजें बेचते थे और कहां बेचने लगे तुरिया: समाधि बेचने लग गये। ऐसा रूपांतरण था कि गुरु ने कहा कि तुम बिलकुल ही पलट गए। ऐसा मुश्किल से होता है। यह क्रांति थी।
‘पलटू’ नाम का अर्थ होता है क्रांति। एक बड़ी अपूर्व क्रांति हुई। यह नाम भी बड़ा प्यारा है। असली नाम का तो कुछ पता नहीं है। असली नाम यानी मां-बाप ने जो नाम दिया था। उस नाम का तो कुछ पता नहीं है। गुरु ने जो नाम दिया था वह यह था। और गुरु ने खूब प्यारा नाम दिया। बड़ा सांकेतिक नाम दिया। दो-दो चार-चार पैसे के लिए दुकान करते रहे होंगे। और जब पलट गए तो ऐसी क्रांति घटी।
उनके भाई पलटूप्रसाद ने पलटू के संबंधमें कुछ वचन लिखे है:
नंगा जलालपुर जन्म भयो है, बसै अवध के खोर।
कहै पलटू प्रसाद हो भयो,जगत में सोर।।
चार वरण की मेटिके भक्ति चलाई मूल।
गुरु गोविंद गे बाग़ में पलटू फूले फूल।
गरीब गांव में पैदा हुए थे, नाम ही था: नंगा जलाल पुर। तुम सोच ही सकते हो: नंगा जलाल पुर। गरीबों का गांव होगा। बिलकुल नंगों का गांव होगा। और जा कर बस गये अवध में अयोध्या में बस गए। गृहस्थ पैदा हुए थे। फिर संन्यस्त हो गए। धन, पद, मद, में डूबे थे—फिर एक दिन राम की महिमा में उतर गए।
पलटू के शब्द ऐसे है जैसे आग्नेय है। जैसे कबीर दास के। बड़े ऊंचे घाट के शब्द हे और बड़े चोट करने वाले। ठीक अगर कबीर के साथ किसी दूसरे को हम खड़ा कर सकें, तो वह है पलटू बनिया। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं हे। तुम जब उनके पदों में उतरोगे। तुम भी पाओगे। बड़ी ऊंची बात और बड़ी सचोट है। ह्रदयमे उतर जाए। तुम्हारे पोर-पोर में भर जाए—ऐसी बात है। रसपूर्ण भी उतनी ही जितनी सचोट। मस्ती भी उतनी ही जैसी कबीरकी।एक-एक शब्द से खूब शराब झरती है। डुबकी लेना।
ओशो
अजहूं चेत गंवार
पहला प्रवचन दिनांक 21 जुलाई 1977,
श्री रजनीश आश्रम पूना। (7,765)
अजहूं चेत गंवार-(संत पलटूबनिया)
पलटू दास के संबंध में बहुत ज्यादा ज्ञान नहीं है। संत तो पक्षियों के जैसे होते है। आकाश पर उड़ते जरूर है, लेकिन पदचिन्ह नहीं छोड़ते जाते है।। संतों के संबंध में बहुत कुछ ज्ञात नहीं रहता है। संत का होना ही अज्ञात है। अनाम। संत का जीवन अन्तर जीवन है। बहार के जीवन के तो परिणाम होते है। इतिहास पर इति वृति बनता है। घटनाएं घटती है। बहार के जीवन की। भीतर के जीवन की तो कहीं कोई रेखा नहीं होती। भीतर के जीवन की तो समय की रेत पर कोई अंकन नहीं होता। भीतर का जीवन तो शाश्वत,सनातन,समयातित जीवन हे। जो भीतर जीते है उन्हें तो वे ही पहचान पाएंगे जो भीतर जायेंगे। इसलिए सिकंदरों हिटलरों चंगैज खां और नादिर शाह इनका तो पूरा इतिहास मिल जाएगा। इनका तो पूरा बहार का होता है । इनका भीतर को कोई जीवन होता नहीं। बाहर ही बाहर का जीवन होता है। सभी को दिखाई पड़ता है।
अगर बाहर का हम हिसाब रखें तो संतों ने कुछ भी नहीं किया होता। तो सारा काम असंतों ने ही किया है दुनिया में। असल में कृत्य ही असंत से निकलता है। संत के पास तो कोई कृत्य नहीं होता। संत का तो कर्ता ही नहीं होता। तो कृत्य कैसे हो सकता है। संत तो परमात्मा में जीता है। संत तो अपने को मिटा कर जीता है। आपा मेट कर जीता है। संत को पता ही नहीं होता कि उसके कुछ किया, कि उससे कुछ हुआ। संत तो होता ही नहीं। तो न तो संत के कृत्य की कोई छाप पड़ती है और न संत के कर्ता का कोई भाव कहीं निशान छोड़ जाता है।
पलटू दास बिलकुल ही अज्ञात संत है। इनके संबंध में बडी थोड़ीसी बातें ज्ञात है—उंगलियों पर गिनी जा सकें। एक—उनके ही वचनों से पता चलता है गुरु के नाम का। गोविन्द दास उनके गुरु थे। संत गोविंद भीखा के शिष्य थे। एक परम संत के शिष्य थे। गोविंद दास पलटू के गुरु थे।
संतों ने अपनी बाबत चाहे कुछ भी न छोड़ा हो। लेकिन गुरु का स्मरण किया हे। जरूर किया है। अपने को तो मिटा डाला है, लेकिन गुरु में हो गए। अपने को पोंछ डाला, सब तरह से अपने को समाप्त कर लिया। उसी समाप्ति में गुरु से तो संबंध जुड़ता है। और परमात्मा की याद की है। लेकिन गुरु की याद को नहीं भूले है। क्योंकि परमात्मा से जिसने जुड़ाया उसे कैसे भूल जाएंगे।
तो गोविंद दास उनके गुरु थे। दूसरी बात, बात जो उनके पदों से ज्ञात होती है वह यक कि वे बणिक थे, वैश्य थे। बनिया थे। वह भी इसलिए ज्ञात होती है कि वैश्य की भाषा का उपयोग किया है। जैसे कबीर जुलाहे थे तो कबीर के पदों में जुला हैं की भाषा का उपयोग है। स्वभाविक। झीनी-झीनी बीना रे चदरिया। अब यह कोई दूसरा नहीं लिख सकता। जो चदरिया बीन सकता है वही ये उपमा देगा। गोरा कुम्हार लिखे गा वह मटके बनाने की बात लिखेगा।ऐसे इनके पदों में इनके वणिक होने के प्रमाण मिलता है। बड़ी मस्ती की बात कही है। कहा है कि ‘’ मैं राम का मोदी ’’–राम का बनिया हूं। राम को बेचता हूं। छोटा-मोटा दुकान नहीं करता।
सुनो ये अद्भुत बचन—
कौन करे बनियाई, अब मोरे कौन करे बनियाई।
त्रिकुटी में है भरती मेरी, सुखमन में है गादी।
दसवें द्वारे कोठी मेरी, बैठा पुरूष अनादि।
इंगला-पिंगला पलरा दूनौं, लागी सुरति की जोति।
सत सबद की डांडी पकरौं, तौलौं भर-भर मोती।
चाँद-सूरज दोउ करें रखवारी, लगी सत ही ढेरी।
तुरिया चढी के बेचन लागा, ऐसी साहिबी मेरी।
सत गुरु साहिब किहा सिपारस, मिली राम मुदियाई।
पलटू के घर नौबत बाजत, निति उठ होति सबाई।
तीसरी बात जो पता है उनके संबंध में वे दो भाई थे। और दोनों ही पलटू हो गये। बाहर के धन की फिक्र छोड़ दी और भीतर का धन खोजने लगे। खोजने ही नहीं लगे खोज ही लिया।
दोनों भाई बदल गए। बदलने के कारण गुरु ने दोनों को पलटू नाम दे दिया। एक भाई को पलटू प्रसाद और दूसरे भाई को पलटू दास। यह शब्द बड़ा प्यारा दिया गुरु ने ‘’पलटू’’ईसाई जिसको कन्वर्शन कहते है। पलट गए। कहीं जाते थे और ठीक उलटे चल पड़े। और ऐसे पलटे कि क्षण में दूसरे हो गये। कोई देर दार नहीं की। सोच-विचार नहीं किया। कहां बाजरा में गादी लगा केर बैठे थे और कहां सूक्ष्म में गादी लगा दी। कहां तोलते थे—आनाज तौलते थे। और कहां ‘सत शब्द की ढेरी’। ये तौलने लगे। और कहां साधारण चीजें बेचते थे और कहां बेचने लगे तुरिया: समाधि बेचने लग गये। ऐसा रूपांतरण था कि गुरु ने कहा कि तुम बिलकुल ही पलट गए। ऐसा मुश्किल से होता है। यह क्रांति थी।
‘पलटू’ नाम का अर्थ होता है क्रांति। एक बड़ी अपूर्व क्रांति हुई। यह नाम भी बड़ा प्यारा है। असली नाम का तो कुछ पता नहीं है। असली नाम यानी मां-बाप ने जो नाम दिया था। उस नाम का तो कुछ पता नहीं है। गुरु ने जो नाम दिया था वह यह था। और गुरु ने खूब प्यारा नाम दिया। बड़ा सांकेतिक नाम दिया। दो-दो चार-चार पैसे के लिए दुकान करते रहे होंगे। और जब पलट गए तो ऐसी क्रांति घटी।
उनके भाई पलटूप्रसाद ने पलटू के संबंधमें कुछ वचन लिखे है:
नंगा जलालपुर जन्म भयो है, बसै अवध के खोर।
कहै पलटू प्रसाद हो भयो,जगत में सोर।।
चार वरण की मेटिके भक्ति चलाई मूल।
गुरु गोविंद गे बाग़ में पलटू फूले फूल।
गरीब गांव में पैदा हुए थे, नाम ही था: नंगा जलाल पुर। तुम सोच ही सकते हो: नंगा जलाल पुर। गरीबों का गांव होगा। बिलकुल नंगों का गांव होगा। और जा कर बस गये अवध में अयोध्या में बस गए। गृहस्थ पैदा हुए थे। फिर संन्यस्त हो गए। धन, पद, मद, में डूबे थे—फिर एक दिन राम की महिमा में उतर गए।
पलटू के शब्द ऐसे है जैसे आग्नेय है। जैसे कबीर दास के। बड़े ऊंचे घाट के शब्द हे और बड़े चोट करने वाले। ठीक अगर कबीर के साथ किसी दूसरे को हम खड़ा कर सकें, तो वह है पलटू बनिया। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं हे। तुम जब उनके पदों में उतरोगे। तुम भी पाओगे। बड़ी ऊंची बात और बड़ी सचोट है। ह्रदयमे उतर जाए। तुम्हारे पोर-पोर में भर जाए—ऐसी बात है। रसपूर्ण भी उतनी ही जितनी सचोट। मस्ती भी उतनी ही जैसी कबीरकी।एक-एक शब्द से खूब शराब झरती है। डुबकी लेना।
ओशो
अजहूं चेत गंवार
पहला प्रवचन दिनांक 21 जुलाई 1977,
श्री रजनीश आश्रम पूना। (7,765)
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