कुल पेज दृश्य

शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

07-संत रज्‍जब दास-(ओशो)

भारत के संत -(ओशो)

संत रज्‍जब दास—सातवाां
रज्जब तैं त किया गज्‍जब......
आज हम जिस अनूठे आदमी की बाणी में यात्रा करेंगे, वह आदमी निश्‍चित अनूठा रहा होगा। कभी ऐसे अनूठे आदमी होते है। और उनके जीवन से जो पहला पाठ मिल सकता है वह यही है।
      संत रज्‍जब की जिंदगी बड़े अद्भुत ढंग से शुरू होती है। तुमने सोचा भी न होगा कि ऐसे भी कहीं जिंदगी बदलती है। वह भी कोई जिंदगी के बदलने का ढंग है। रज्‍जब मुसलमान थे। पठान थे। किसी युवती के प्रेम में थे। विवाह का दिन आ गया। बारात सजी। बारात चली। रज्‍जब घोड़े पर सवार। मौर बाँधा हुआ सिर पर। बाराती साथ है,बैंडबाजा है इत्रका छिड़काव है, फूलों की मालाएँ है। और बीच बाजार में अपनी ससुराल के करीब पहुंचने को ही थे। दस पाँच कदम शेष‍ रह गये थे। सूसराल के लोग स्‍वागत के लिए तैयार थे सूसराल के लोग—और यह क्रांति घटी। कि
अचानकघोड़े के पास एक आदमी  आया उसका पहनाव बड़ा अजीब था। कोई फक्‍कड़ दिखाई दे रहा था।बारात के सामने आ कर खड़ा हो गया। और उसने गौर से रज्‍जब को देखा।

आँख से आँख मिली। वे चार आंखें संयुक्‍त हो गयी। उस क्षण में क्रांति घटी। वह आदमी रज्‍जब को होने वाला गुरु था—दादू दयाल। और जो कहा दादू दयाल ने वे शब्‍द बड़े अद्भुत है। उन छोटे से शब्‍दों में सारी क्रांति छिपी है। दादू दयाल ने भर आँख रज्‍जब की तरफ देखा, आँख मिली ओर दादू ने कहा—
      रज्‍जब तैं गज्‍जब किया, सिर पर बांधा मौर।
      आया था हरी भजन कुं, करे नरक की ठौर।।
     बस इतनी सी बात। देर न लगी, रज्‍जब घोड़े से नीचे कूद पड़ा, मौर उतार कर फेंक दिया, दादू के पैर पकड़ लिए। और कहा कि चेता दिया समय पर चेता दिया। और सदा के लिए दादू के हो गये। बाराती यों ने बहुत समझाया—भीड़ इकट्ठी हो गयी, सारा गांव इकट्ठा हो गया। ससुराल के लोग आ गये, पर रज्‍जब तो बस एक ही बात दोहराने लगा बार-बार....
      रज्‍जब तैं गज्‍जब किया......
      सोचो जरा, कितनी आशायें न बाँदी होंगी रज्‍जब ने। अपनी प्रेयसी को मिलने जा रहा था। कितने सपने ने देखे होंगे। क्‍या-क्‍या मनसूबे, क्‍या–क्‍या ताशों के महल कितने सुहावनें गीत न रचे होंगे मन में। और एक क्षण‍ में ऐसे झटके में सब तोड़ दिया। और एक फक्‍कड़ से आदमी के आँख डालने से यह बात हो गयी। इस लिए कहता हूं। रज्‍जब गजब का आदमी था।
      कोई मुकाबला नहीं रज्‍जब का। बहुत संत हुए है पर रज्‍जब सब में निराले है। ऐसा त्‍वरा, ऐसी तीव्रता, ऐसी सघनता, वर्षो सोचते है लोग। विचारते है। चिंतन मनन करते है। आगा पीछा देखते है, हिसाब किताब लगाते, हजार बहाने मन में पैदा करते है। तर्क जुड़ाते है—तब कहीं लोग हजारों लाखों में कोई चलने का साहस कर सकता है।
      दादू को देखना। और रज्‍जब को उनके चरणों में गिर जाना। कोई पुराना साथी-संगी, कोई पुराना शिष्‍य। पहले भी कभी बैठ चुका होगा दादू की संगत में। फिर चला उलझनें। फिर चला गड्ढे की और। पीछे बहुत रोया होगा, शायद किसी और जन्‍म में बहुत रोया होगा कि अब क्‍या करुँ।  पत्‍नी है, बच्‍चे है,फकीरी करनी होगी। और  इस परिवार का क्‍या होगा। इनकी शिक्षा देनी और आप कहते हो जागों। क्‍या यह वक्त है जागने का। इस के थोड़ा इंतजार करना होगा। मैं अभी अधूरा-अधूरा हूं। थोड़ा पक्‍का हों जाने दो। आऊँगा जरूर,आना तो है। लेकिन समय नहीं आया है।वह जो आंखे थी जब उसके सामने आई होगी दबी हुई स्‍मृतियों को जगाने को काम कर गई।
      जब गुरु शिष्‍य कि आँख में आँख डाल कर देखता है। तो जिन बातों का शिष्‍य को भी पता नहीं रह गया है। जो उसके अचेतन के गर्भ में दबी पड़ी है। उनको सक्रिय कर देता है। याद दाश्तें भूली-बिसरी पुनरुज्जीवित हो उठती है। बीज जो पड़े रह गये थे, वह अंकुरित हो गये है। आकांशाए, अभीप्‍साएं, जाग उठती हे। प्रबल बेग से।    
      दो चार आठ दि के बाद दादू ने खूद रज्‍जब को कहा देख,तू अभी जवान है,तूने मेरी बात मानी सो ठीक; अब मुझ थोड़ा पछतावा होता है। तूने मुझे झंझट में डाला है तू मुझे माफ कर। यह मेरी भूल थी। जो मैं तुझे बीच बारात में रोका।
      शायद दादू ने भी सोचा नहीं था कि यह हो जाएगी बात। लोग ऐसे काहिल, ऐसे सुस्‍त,ऐसे कायर, होते हे। ऐसी बात, दादू दयाल ने सोचा होगा आऊँगा बीच होते-होते होगी वर्षा लगेंगे, सालों साल जब तक अंकुरित हो जायेगा। आये होंगे लड़की बाले। रोंए कल्‍पेने होंगे। लड़की भी आकर रोयी होगी। मेरा क्‍या कसूर है। क्‍यों प्रेम कियाथा। क्‍यों सपने दिखायें थे। और ऐन उस वक्‍त आपने हमारी जीवन में सब खत्‍म कर दिया। डराया धमकाया होगा लोगों ने। कोई चुप तो बैठे नहीं होगें। किसी का जवान लड़का यू चला जाये तो चुप तो कोई रहा नहीं होगा। पर दादू दयाल ने इतना भी नहीं सोचा होगा। अब दादू को भी लगने लगा कि मेंने क्‍या कर दिया। भोले जवान को देखते होंगे रोज, हरिभजन में बैठे, तो खुद ही सोचते होंगे कि यह मैंने और एक उपद्रव कर दिया। अभी उसे कुछ दिन भोग ही लेने देना था। फिर यह भी मन में लगता होगा—अभी जवान है, कहीं डाँवा डोल हो जाए, भूल-चूक हो जाए गिर जाए......। इतनी तेजी से छलांग ले ली है। इतनी ही तेजी से गिर भी सकता है।
      कहते है, दादू ने कुछ महीनों के बाद उसे कहा की रज्‍जब, तूने ठीक किया कि मेरी बात मान ली,अब मेरी एक बात और मान ले--तू संसार में उतर जा।
      रज्‍जब ने जिस आँख से दादू की आँख में देखा, तो दादू तिल मिला गये होंगे। फिर दुबारावह बात नहीं उठाई। वह चमक वह लपट, वे चलती हुई दो आंखें। कहतेहै, रज्‍जब ने एक शब्‍द नहीं कहां, सिर्फ गुरु की आँख में देखा। और सब कह दिया।और आप से सुनु यह बात। सारेलोग समझा रहे है, यह ठीक है बात। नासमझ हे। उनको समझाने दा; मगर आप से ये सुनु बात, यह बात दुबारा उठाना ही मत। लेकिन यह कहा भी नहीं, बस उन आंखों की चमक ने कहा दिया।  
      छाया की तरह दादू दयाल के साथ रहा रज्‍जब। उनकी सेवा में लगा रहा। वे चरण उसके लिए सब कुछ हो गये। उन चरणों में उसने सब पा लिया। अद्भुत प्रेमी था रज्‍जब। जब दादू दयाल अंतर्धान हो गये। जब उन्‍होंने शरीर छोड़ा,तो तुम चकित हो जाओगे.....शिष्‍य हो तो ऐसा हो। उसने आँख बंद कर लीं। तो फिर कभी आँख नहीं खोली। लोग कहते कि आंखे क्‍यों नहीं खोलते, तो वह कहता देखने योग्‍य जो था उसे देख लिया, अब देखने को क्‍या है?
      कई वर्षों तक रज्‍जब जिंदा रहा, दादू दयाल के मरने के बाद। लेकिन कभी आँख नहीं खोली। देखने योग्‍य देख लिया। जो दर्शनीय था, उसका दर्शन कर लिया। उन आंखें में पूर्णता का सौंदर्य देख लिया। अब देखने योग्‍य क्‍या है इस संसार में। अब आँख का काम खत्‍म हो गया। क्‍या करना खोल कर, क्‍या देखना है।
      एक तरह से देखो तो लगता है दादू दयाल ने भी बड़ा बेमौका चुना। दूसरी तरफ से देखो तो लगता है इससे सुंदर कोई मौका हो नहीं सकता है। क्‍यों क्‍योंकि प्रेम से भरा हुआ यह ह्रदय,प्रेम से भरी हुई यह धारा…….रज्‍जब के प्राण प्रेम से आंदोलित थे। प्रेयसी से मिलने जा रहा था। प्रेम तो तैयार था, जरा सा रूख बदलने भर की बात थी। यह मौका ठीका मौका है। लोहा जब गर्म हो तब चोट करनी चाहिए। एक तरह से देखो तो यह मौका एक दम ठीक था। एक तरह से लगेगा कि मौजूं नहीं थी यह बात। यह जरा फक्‍कड़पन की बात मालूम पड़ती है। दादू दयाल ने कुछ संगत बात नहीं की। लेकिन और गहरे झांक कर देखो तो लगेगा। इसके पीछे एक पूरा मनोविज्ञान है।
      यह जानकर तुम हैरान होओगे कि दूनिया में जब भी कोई धर्म जिंदा होता है। नया-नया पैदा होता है। तो उसके प्रति जो लोग आकर्षित होते हे। वे जवान होते हे। और जब कोई धर्म बूढा हो जाता है। मर जाता है। मुर्दा हो जाता है। तो मंदिर-मसजिदों और गिरजों में केवल बूढ़े ही दिखाई देंगे। क्‍याकारण होगा? कारण है, जीवन ऊर्जा, जिनका प्रेम ही सूख गया हो उनको परमात्‍मा की तरफ भी कैसे मोड़ोगे। प्रेम तो प्रेम है—चाहे किसी स्‍त्री की तरफ बहता हो और चाहे किसी पुरूष की तरफ बहता हो, यही मूड जाए तो उस परम प्‍यारे की तरफ बहने लगता है।
      रज्‍जब बड़े भाव से भार होगा। उस घड़ी की जरा कल्‍पना करो। रज्‍जब के ह्रदय का थोड़ा चित्र उभारों।
      आ कि वाबस्ता हैं, उस हुस्‍न की यादें मुझसे
      जिसने इस दिल को परी खान बना रक्‍खा है।
      जिसकी उल्फ़त में भुला रखी है दुनिया हमने,
      दहर को दहर का अफसाना बना रक्‍खा है।।

      प्रेम को मत मार डालना, और जिन लोगों ने कहा है, प्रेम को नष्‍ट कर दो, वे तुम्‍हारे दुश्‍मन है। उन्‍होंने तुम्‍हारे जीवन को मरुस्थल कर दिया है। प्रेम को मारना नहीं, प्रेम की दशा-रूपांतरण करना है। प्रेम की यात्रा बदलनी है। भक्‍ति के मार्ग का इतना हीं अर्थ है।
      रज्‍जब अद्भुत प्रेमी है। एक लपट में यात्रा बदल गई। तूफ़ान रहा होगा प्रेम का। बड़ी भयंकर उर्जा रही होगी। निश्‍चित है। संसार में उतरा होता तो बड़ा फैलाव किया होता, बड़ा पसार किया होता, बड़ा पसारी बना होता। नहीं गया संसार में तो परमात्‍मा में उतरा और खूब गहरा उतरा।
राम राय, महा कठिन यहु माया।
जिन मोहि सकल जग खाया।।
ओशो
संतों, मगन भया मन मेरा,
पहला प्रवचन,
12 मई, 1978, श्रीरजनीशआश्रम,पूना।   (9,346)

1 टिप्पणी: