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सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

08-संत दादू दयाल-(ओशो)

08-दादू दयाल-भारत के संत

सबै सयाने एक मत-पिव-पिव लागी प्यास-(ओशो)

संकल्पवान परमात्मा को खोजेगा, फिर झुकेगा। पहले उसके चरण खोज लेगा, फिर सिर झुकाएगा। समर्पण से भरा हुआ व्यक्ति, भक्त, सिर झुकाता है; और जहां सिर झुका देता है, वहीं उसके चरण पाता है। गिर पड़ता है, आंखें आंसू से भर जाती हैं। रोता है, चीखता है, पुकारता है, विरह की वेदना उसे घेर लेती है। और जहां उसके विरह का गीत पैदा होता है, वहीं परमात्मा प्रकट हो जाता है।
तुम्हारी मर्जी! जैसे चलना हो। लेकिन दादू दूसरे मार्ग के अनुयायी हैं। उन्हें समझना हो तो एक शब्द है--समर्पण। उसे ही ठीक से समझ लिया तो दादू समझ में आ जाएंगे।

इसलिए दादू कहते हैं, सबै सयाने एकमत।
वह एकमत समर्पण का है। और जिन्होंने भी जाना है उन्होंने वही कहा है। कभी-कभी तो ऐसा हुआ है कि संकल्प से चलने वाले लोगों ने भी अंत में यही कहा है। चले संकल्प से, पहुंचे समर्पण से।


बुद्ध के साथ यही हुआ। क्षत्रिय का खून था, समर्पण आसान नहीं। क्षत्रिय को संकल्प आसान है। लड़ सकता है, मिट सकता है; झुकना उसे नहीं आता। टूट जाना सुगम है, झुकना बड़ा दुर्गम। सारी शिक्षा-दीक्षा, संस्कार क्षत्रिय के--वह भी राजपुत्र के! संघर्ष के। समर्पण के नहीं हो सकते, संघर्ष के ही होंगे।
तो बुद्ध ने छह वर्ष तक अथक तपश्चर्या की। जो-जो कहा है शास्त्रों में, सब पूरा किया। थोड़ा ज्यादा ही पूरा किया। जितना कहा था, उससे भी अति की। क्योंकि कहीं चूक न जाएं, कहीं यात्रा अधूरी न रह जाए। गुरु थक गए। जिन गुरुओं के पास बुद्ध गए, उन्हीं गुरुओं ने कहा कि हम तुमसे अब कुछ भी कह नहीं सकते। क्योंकि जो भी तुमसे हमने कहा करने को, तुमने उसे जरूरत से ज्यादा किया। ऐसा शिष्य पाना दुर्लभ है।
साधारणतः गुरुओं को कठिनाई नहीं आती, क्योंकि शिष्य कभी वह करते ही नहीं जो गुरु कहता है। करते भी हैं, तो उतना नहीं करते, जितना गुरु कहता है। इसलिए सुविधा बनी रहती है गुरु को, कि तुमने किया ही नहीं। अगर नहीं पाया, तो विधि गलत है, यह मत समझना। जब किया ही नहीं तो तुम्हीं गलत हो।
बुद्ध से यह कहना आसान न था। जो कहा था, उसे उन्होंने रत्ती-रत्ती, जरूरत से ज्यादा पूरा किया था। गुरुओं ने हाथ जोड़ लिए। उन्होंने कहा कि इससे ज्यादा अब हमारे पास कुछ है नहीं।
और बुद्ध सस्ते में राजी न थे। छोटी-मोटी उपलब्धि को कोई मूल्य न देते थे। परमात्मा को ही जानना था। और परमात्मा को भी ऐसे नहीं जानना था कि वह दूर खड़ा हो और हम दूर खड़े हों। उसे भी ऐसा जानना था कि वह हमारा अंतरतम हो! तभी तो जानना जानना है। ऐसा देख लिया आंख भर कर, कौन जाने सपना हो! आंख तो सपने को भी सच मान लेती है। उसकी आवाज सुन ली कानों से, कौन जाने सपना हो! क्योंकि सपने में भी तो आवाज सुनी जाती है। नहीं, यह कोई जानना जानना न हुआ, यह तो परमात्मा भी माया का ही हिस्सा हुआ।
दादू इसी अदभुत कहानी की बात कर रहे हैं। उनका एक-एक शब्द समझने जैसा है।
"दादू गैब मांहि गुरुदेव मिल्या पाया हम परसाद।'
"यह शब्द "गैब'--पहली बात समझ लेने जैसी है। इसका अर्थ होता है रास्ते में, लेकिन अनायास।
गुरु अनायास ही मिलता है क्योंकि तुम तो उसे खोजोगे कैसे? अगर इतनी ही तुम्हारे पास रोशनी होती कि तुम गुरु को खोज लो, तो उसी रोशनी में तो तुम अपने को ही खोज लेते। गुरु को खोजने की जरूरत ही न थी। अगर तुम इतने ही जागे हुए होते कि गुरु को पहचान लेते, तो उतने जागरण से तो तुम अपने को ही पहचान लेते, गुरु को पहचानने का सवाल ही न उठता था। अगर तुम इतने ही समझदार थे, कि तुम परख लेते कि कौन गुरु है और कौन गुरु नहीं है, तो उतना विवेक तो पर्याप्त है। उससे तो तुम्हारे जीवन में क्रांति हो जाती।
गुरु को तुम खोज नहीं सकते। सोया हुआ आदमी कैसे उसको खोजेगा, जो उसे जगाए? और अगर सोया हुआ आदमी उसको खोज ले जो उसको जगाए, तो जगाने की जरूरत कहां है? वह आदमी जागा ही हुआ है।
इसलिए गुरु अनायास मिलता है। यह बात तो पहली समझ लेने जैसी है। अनायास का अर्थ है, कि तुम्हें पता भी नहीं होता और मिल जाता है--आकस्मिक! तुम्हें अनायास लगता है। एक बहुत पुरानी इजिप्त में प्रचलित लोकोक्ति है, कि जब शिष्य तैयार होता है, तब गुरु उपलब्ध हो जाता है। ऐसा नहीं है, कि शिष्य उसे खोजता है, गुरु ही उसे खोज लेता है।
ऊपर से देखने पर ऐसा ही लगता हो कि तुम यहां चले आए हो, भीतर से देखने पर तुम पाओगे, कि मैं तुम्हारे पास आया हूं। इसके पहले कि तुम यहां आए, मैं तुम्हारे पास पहुंच गया था, अन्यथा तुम यहां आते कैसे? कोई दूसरा तो उपाय नहीं है आने का। तुम यहां हो--तुम्हारे कारण नहीं; तुम यहां खींच लिए गए हो। शायद तुम्हें आज साफ भी न हो, लेकिन जब भी तुम्हें थोड़ा सा होश आएगा और आंखें खुलेंगी, तब तुम समझ पाओगे।
दादू उसी क्षण की बात कह रहे हैं। "दादू गैब मांहि गुरुदेव मिल्या।'
खोजा भी न था। अपने तरफ से खोजने के लिए कोई क्षमता भी न थी। मिल भी जाता, तो पहचानने का कोई मापदंड न था। सामने भी खड़ा होता, तो आंखें बंद थीं। गले से भी लगा लेता, तो स्वयं का हृदय तो धड़कता ही न था। पहचानते कैसे? प्रत्यभिज्ञा कैसे होती, कि यही गुरु है? नहीं, शिष्य गुरु को नहीं खोजता; गुरु ही शिष्य को खोजता है। भला गुरु रत्तीभर न चलता हो और शिष्य हजार मील चलकर आया हो, लेकिन गुरु ही शिष्य को खोजता है। शिष्य गुरु को खोज ही नहीं सकता।
शिष्य इतना ही कर सकता है, कि उपलब्ध रहे; कि जब गुरु पुकारे तो पुकार सुन ले, इतना ही काफी है; कि जब गुरु खींचे तो खिंच जाए, अड़चन न डाले, इतना ही काफी है। बाधा न खड़ी करे; जब बुलावा आए, तो बुलावे के अनुसार चल पड़े।
तिब्बत में कहावत है, कि हजार बुलाए जाते हैं, एक पहुंचता है। वह भी ठीक है। क्योंकि नौ सौ निन्यानबे तो हर तरह की बाधा डालते हैं। वे आना नहीं चाहते। वे नहीं चाहते कि कोई उन्हें खींच ले। क्योंकि जब कोई उन्हें खींचता है तो उन्हें लगता है, यह तो हम परवश हुए। यह तो अपनी सामर्थ्य गई। यह तो हम एक तरह की गुलामी में पड़े, कि कोई खींचे और हम खिंच जाएं; कोई जगाए और हम जग जाएं; कोई उठाए और हम उठ जाएं। अहंकार बड़ी बाधाएं खड़ी करता है।
बस, शिष्य इतना ही कर सकता है कि बाधाएं खड़ी न करे। कुछ और करने की जरूरत नहीं है। सिर्फ तुम बहने को राजी हो जाओ। तो जब भी तुम बहने को राजी हो, अचानक तुम पाओगे, कि गुरु द्वार पर खड़ा है: या तुम गुरु के द्वार पहुंच गए हो।
जीवन बड़े रहस्यपूर्ण नियमों से बना है। जहां जरूरत होती है, वहां घटना घट जाती है।

मेरी सहायता तुम्हें सदा उपलब्ध है। लेकिन संन्यस्त होकर ही तुम उसे पा सकोगे। मेरे तरफ से उपलब्ध होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारी तरफ से लेने की क्षमता भी तो होनी चाहिए। संन्यस्त होने का कोई और अर्थ नहीं है। दीक्षित होने का कोई और अर्थ नहीं है; इतना ही अर्थ है, कि हम झुकते हैं। बस, इतना ही अर्थ है, कि हम झुकने को राजी हैं। हमारी तरफ से कोई बाधा नहीं है। अगर आप बरसो, तो हमारा पात्र सामने रखा है।
कठिन हो जाता है समझना उन्हें क्योंकि वे सोचते हैं, अगर मैं सहायता करने को तैयार हूं, तो फिर संन्यास, दीक्षा इस सबका प्रयोजन है? क्यों न बिना संन्यस्त हुए, बिना दीक्षित हुए उनको सहायता मिल जाए? शायद उन्हें लगता है, कि मैं थोड़ा पक्षपातपूर्ण हूं।
वे गलती में हैं। मैं उन्हें भी देना चाहता हूं, लेकिन वे लेने को राजी नहीं हैं। वह ऐसे ही हैं, जैसे पहाड़ की चोटी हो; बहती गंगा की धार से कहे, कि क्या तू सागर को ही दिए चली जाएगी? हम भी खड़े हैं। आखिर हमारी तरफ क्यों नहीं चली आती? तो गंगा कहेगी, मैं, तो राजी हूं, लेकिन तुम इतने ऊंचे खड़े हो, कि वहां तक आने का कोई उपाय नहीं है।
जलधार नीचे की तरफ जा रही है। गुरु से शिष्य की तरफ एक जीवंत धार बहती है। अगर तुम ठीक समझो, तो वही स्वर्ग की गंगा है। गुरु की तरफ से एक प्रसाद बहता है, लेकिन उसके लिए तुम्हें झुके हुए होना जरूरी है; तभी तुम उसे झेल पाओगे। अन्यथा वह बरसेगा भी और तुम खाली के खाली रह जाओगे। अगर तुम पहले से ही भरे हुए हो, तो तुम खाली रह जाओगे। अगर तुम खाली हो, तो भर जाओगे।
इसीलिए तो धर्म पहेलियां जैसा लगता है। पहेलियां हैं, लेकिन सीधी-साफ हैं। जरा सी भी समझ हो, तो अड़चन नहीं है।
नदी बह रही है, तुम प्यासे खड़े हो; झुको, अंजलि बनाओ हाथ की, तो तुम्हारी प्यास बुझ सकती है। लेकिन तुम अकड़े ही खड़े रहो, जैसे तुम्हारी रीढ़ को लकवा मार गया हो तो नदी बहती रहेगी तुम्हारे पास और तुम प्यासे खड़े रहोगे। हाथभर की ही दूरी थी, जरा से झुकते, कि सब पा लेते। लेकिन उतने झुकने को तुम राजी न हुए। और नदी के पास छलांग मारकर तुम्हारी अंजलि में आ जाने का कोई उपाय नहीं है। और आ भी जाए, अगर अंजलि बंधी न हो, तो भी आने से कोई सार न होगा।
शिष्यत्व का अर्थ है, झुकने की तैयारी। दीक्षा का अर्थ है, अब मैं झुका ही रहूंगा। वह एक स्थाई भाव है। ऐसा नहीं है, कि तुम कभी झुके और कभी नहीं झुके। शिष्यत्व का अर्थ है, अब मैं झुका ही रहूंगा; अब तुम्हारी मर्जी। जब चाहो बरसना, तुम मुझे गैर-झुका न पाओगे।
"मस्तक मेरे कर धरया देखा अगम अगाध।'
मनुष्य के शरीर में सात चक्र हैं। साधारणतः तुम पहले ही चक्र से परिचित हो पाते हो, क्योंकि प्रकृति उसी चक्र के साथ अपना सारा काम चलाती है--वह है, काम-चक्र, मूलाधार। जहां से कामवासना उठती है, जहां से जीवन का प्रवाह चलता रहता है।
लेकिन वह सबसे नीचा चक्र है। उस चक्र में जीने का अर्थ है, जैसे कोई आदमी महल के होते हुए बस, महल के बाहर पोर्च में ही घर बना ले। पोर्च भी महल का हिस्सा है और सुंदर है। मेरे मन में कोई निंदा नहीं है किसी बात की। पोर्च में कुछ भी बुरा नहीं है। पोर्च बिलकुल सुंदर है, उसकी जरूरत है। बाहर से आए तो पोर्च से गुजरना पड़ेगा। भीतर से गए तो पोर्च से गुजरना पड़ेगा। धूप होगी, वर्षा होगी, तो पोर्च बचाएगा; लेकिन पोर्च कोई रहने की जगह नहीं है कि वहीं रहने लगे।
एक यूनान में बहुत बड़ा विचारक हुआ--झेनो। उसकी विचार-पद्धति का नाम स्टोइक है। ग्रीक भाषा में पोर्च का नाम है "स्टोआ'। वह पोर्च में ही रहता था झेनो, इसलिए उसके पूरे दर्शन-शास्त्र का नाम "स्टोइक' हो गया, "स्टोआ' से। पोर्च में रहने वाला झेनो वह कभी महल के भीतर नहीं गया। वह पोर्च में ही जीया, पोर्च में मरा। और कोई पूछता, कि तुम इस पोर्च में क्यों जी रहे हो? तो वह बताता था, कि वह उसकी त्यागपूर्ण दृष्टि है।
लेकिन ऐसा त्याग मूढ़तापूर्ण है। ऐसा ही त्याग तुम भी कर रहे हो, कि तुम कामवासना में ही जी रहे हो। वह जीवन का पोर्च है, इससे ज्यादा नहीं। महल बहुत बड़ा है। और उस महल में बड़े अनूठे कक्ष हैं और उसके अंतर्गृह में स्वयं परमात्मा विराजमान है। तुम पोर्च में बैठे रहो; तुम यूं ही व्यर्थ जीवन को गंवा दोगे।
सात चक्र हैं; पहला चक्र काम है और सातवां चक्र सहस्रार है। जब शिष्य का सिर झुकता है गुरु के चरणों से, और केवल बाहर का ही सिर नहीं झुकता, भीतर का अहंकार भी झुक जाता है, जब ऐसी मिलन की घड़ी आती है, कि बाहर सिर के साथ भीतर का अहंकार भी झुक जाता है--ध्यान रखना! क्योंकि बाहर का सिर झुकाना तो बहुत आसान है। कम से कम भारत में बहुत ही आसान है। लोग अभ्यस्त हैं, औपचारिक है। सिर झुकाने में उन्हें कुछ लगता ही नहीं। वह केवल परंपरागत है। लेकिन अगर तुम उनके अहंकार की तस्वीर ले सको, तो भारतीय को तुम झुकते हुए देखोगे, सिर तो झुका हुआ आएगा तस्वीर में, अहंकार खड़ा हुआ आएगा तस्वीर में। और यह भी हो सकता है कि सिर झुकाने से भी अहंकार मजबूत हो रहा हो। जीवन जटिल है। एक नई अकड़ पकड़ रही हो, कि मैं तो विनम्र आदमी हूं, देखो कहीं भी सिर झुका देता हूं। देखो मेरी विनम्रता!
जब तुम्हारा सिर भी झुकता है और तुम्हारे भीतर का सिर भी झुक जाता है--अहंकार, जब ऐसी मिलन की घड़ी आती है, जब तुम पूरे ही झुके हुए होते हो, तो गुरु का हाथ अगर उस घड़ी में तुम्हारे सहस्रार पर पड़ जाए, तो उसकी जीवन-धारा तुममें प्रवाहित हो जाती है। और जो काम तुम अपने ही हाथ से जन्मों में न कर पाते, वह क्षण में घटित हो जाता है। वह प्रसाद हो जाता है। तुम्हारी सारी जीवन-ऊर्जा गुरु की जीवन-ऊर्जा के साथ उर्ध्वगामी हो जाती है। तुम्हारा सातवां चक्र सक्रिय हो जाता है।
और यह जो चक्र सक्रिय हो जाए, तो दादू कहते हैं, "देखा अगम अगाध'।
इसलिए वे प्रसाद कहते हैं। अपने बस से यह नहीं हुआ है। अपनी तरफ से कुछ भी न किया था, सिर्फ झुक गए थे। यह भी कोई करता है। लेकिन गुरु का हाथ पड़ गया सिर पर और क्षणभर में एक क्रांति हो गई। गुरु की बहती ऊर्जा ने तुम्हारे जीवन के सारे छिन्न-भिन्न तार जोड़ दिए। खंडित वीणा अखंड हो गई। तो कल तक टूटी धार थी, संयुक्त हो गई। कल तक, क्षणभर पहले तक जिस भीतर के मंदिर का तुम्हें कोई पता न था, उसका कलश दिखाई पड़ने लगा।
इस जीवन को अगर तुमने कामवासना से देखा है, तो यह संसार है। इसी जीवन को अगर तुमने सहस्रार से, समाधि से देखा है, तो यही अगम-अगाध है। संसार यही है, कुछ बदलता नहीं; तुम्हारी दृष्टि, तुम्हारे खड़े होने की जगह बदल जाती है।
और जिस दिन तुम समाधि के केंद्र से संसार को देखते हो, संसार बचता ही नहीं; परमात्मा ही दिखाई पड़ता है। हर फूल-पत्ते में वही, हर कंकड़-पत्थर में वही; आकाश, चांदत्तारों में वही। लोगों में झांको और तुम उसी को पाते हो। हवा के झोंके को स्पर्श करो, उसी का स्पर्श होता है। आंख बंद करो, वही दिखाई पड़ता है। आंख खोलो, वही दिखाई पड़ता है। लेकिन यह जीवन-ऊर्जा जब समाधि के द्वार से देखती है--
"गैब मांहि गुरुदेव मिल्या पाया हम परसाद।

 ओशो

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