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बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

तंत्र-अध्यात्म और काम-(प्रवचन-04)

तंत्र, अध्यात्म और काम-(ओशो) 

चौथा-प्रवचन-(तांत्रिक काम-क्रीडा की आध्यात्मिकता)

(Tanta Spituality And Six-का हिन्दी अनुवाद)
 सिगमंड फ्रायड ने कहीं कहा है कि मनुष्य जन्म-जात स्नायु-रोगी है। यह अर्द्ध सत्य है। मनुष्य स्नायु-रोगी नहीं पैदा होता, लेकिन स्नायुरोग-ग्रस्त मनुष्यता में जन्म लेता है; और चारों तरफ का सामाजिक प्रवेश प्रत्येक व्यक्ति को देर-अबेर सायुरोगी बना देता है। आदमी जब पैदा होता है वह प्राकृतिक वास्तवकि सामान्य होता है। लेकिन जैसे
ही नवजात शिशु इस समाज का हिस्सा हो जाता है उस पर स्नायुरोग का प्रभाव पड़ना शुरू हो जाता है।


जैसे हम है स्नायु-रोगी ही हैं। स्नायुरोग आदमी को बहुत गहरे खंड-खंड कर देता है। तुम एक नहीं हो तुम दो हो या अनेक हो। इस बात को गहराई से समझ लें तो ही तंत्र में गति हो सकती है। तुम्हारी भावनाएं और विचार दो अलग-अलग चीजें हैं यही मूलरूप में स्नायुरोग है। तुम्हारे विचार और तुम्हारे भाव दो अलग-अलग खंड हो गए हैं और तुमने भावों के साथ नहीं विचारों से तादात्म्य कर लिया है। और विचार की अपेक्षा भाव पक्ष अधिक वास्तविक है भाव विचारों से अधिक प्राकृतिक हैं। तुम एक भाव-भरा हृदय लेकर पैदा होते हो विचार अर्जित, कल्टिवेट किए जाते हैं विचार समाज द्वारा दिए जाते हैं। और तुम्हारे भाव-भावनाओं पक्ष का दमन कर दिया जाता है। जब भी तुम कहते हो कि तुम महसूस कर रहे हो तब भी तुम सोचते हो कि तुम महसूस कर रहे हो। भावनाएं मृत हो चुकी हैं और ऐसा किसी विशेष कारण से हुआ है।
जब बच्चा पैदा होता है वह भावशील प्राणी होता है वह चीजों को महसूस करता है वह अभी विचार शील प्राणी नहीं होता। वह प्राकृतिक है ठीक उसी तरह जैसे इस प्रकृति में सब कुछ प्राकृतिक है--पेड़-पौधों की तरह या पशु पक्षियों की तरह। लेकिन हम उसे एक ढांचे में ढालना और संवारना शुरू कर देते हैं। उसे अपने मनोभावों को दबाना पड़ता है क्योंकि बिना उन्हें दबाए वह हमेशा अपने लिए मुसीबतें खड़ी करता रहेगा। जब वह रोना चाहता है वह रो नहीं सकता, क्योंकि उकसे माता पिता को यह अच्छा नहीं लगेगा इससे उसकी निंदा की जाएगी उसको प्रशंसा नहीं मिलेगी, प्यार नहीं मिलेगा। वह जैसा है वैसा ही स्वीकृत नहीं। उसका व्यवहार शिष्ट होना चाहिए। उसे विशेष आदर्शों और सिद्धांतों के अनुसार आचरण करना पड़ेगा तभी उससे प्रेम किया जाएगा।
जैसा वह है वह प्रेम का पात्र नहीं। जब वह कुछ विशेष नियमों का पालन करता है तभी उससे प्रेम किया जा सकता है। जो नियम उस पर थोपे जा रहे हैं वे अप्राकृतिक हैं। जो प्राकृतिक है उसका दमन प्रारंभ हो जाता है और जो अप्राकृतिक है अवास्तविक है उसको थोप दिया जाता है। यह अप्राकृतिक अवास्तविक ही तुम्हारा मन है। एक
ऐसी घड़ी आ जाती, जब यह फासला इतना बढ़ जाता है कि उसे मिटाना मुश्किल हो जाता है। तुम पूरी तरह भूलते चले जाते हो कि तुम्हारी वास्तविक प्रकृति क्या थी और क्या है? तुम्हारा चेहरा झूठा है असली चेहरा खो गया है और तुम अपने असली चेहरे को अनुभव करने से डरते हो क्योंकि जैसे ही तुम्हें इसका अनुभव होगा, सारा समाज
तुम्हारे विरुद्ध हो जाएगा। इसलिए तुम स्वयं भी अपनी वास्तविक प्रकृति के विरुद्ध हो।

इसी से तनाव की स्थिति पैदा होती है। तुम नहीं जानते कि तुम्हें क्या चाहिए तुम नहीं जानते कि तुम्हारी वास्तविक प्रामाणिक आवश्यकताएं क्या है? और फिर आदमी अपनी अवास्तविक आवश्यकताओं को ही पूरा करने में लग जाता हैं क्योंकि भाव-प्रवण हृदय ही तुम्हें समझ दे सकता है एक दिशा दे सकता है... तुम्हारी वास्तविक आवश्यकता क्या है? जब इसका दमन कर दिया जाता है तुम प्रतीकात्मक आवश्यकताएं पैदा कर लेते हो। उदाहरण के लिए तुम चाहे तो अधिक से अधिक खाते चले जाओ अपने पेट को भोजन से ठूंसते चले जाओ लेकिन तुम्हें ऐसा कभी नहीं अनुभव होगा कि तुम तृप्त हो गए हो। जरूरत प्रेम की है भोजन की नहीं लेकिन भोजन और प्रेम की जरूरत महसूस नहीं होती या दबा दी जाती है तब भोजन की एक झूठी आवश्यकता को पैदा कर लिया जाता है। और तुम खाए चले जा सकते हो। क्योंकि आवश्यकता अवास्तविक है इसे पूरा नहीं किया जा सकता। और हम अवास्तविक आवश्यकताओं में जिए चले जाते है इसीलिए यहा कोई तृप्ति नहीं है।
तुम चाहते हो लोग तुमसे प्रेम करें यह मूलभूत नैसर्गिक आवश्यकता है लेकिन इसे झूठी दिशा की ओर नहीं मोड़ा जा सकता। उदाहरण के लिए प्रेम की तुम्हारी जरूरत एक झूठी जरूरत का रूप ले सकती है अगर तुम दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करते तो तुम चाहते हो कि दूसरे तुम्हारी तरफ ध्यान दें। हो सकता तुम एक राजनेता हो जाओ--भारी-भीड़ तुम्हारी तरफ ध्यान दे रही है--लेकिन असली जरूरत है कि तुम्हें प्रेम मिले। और अगर सारी दुनिया भी तुम्हारी तरफ ध्यान दे तो भी बुनियादी आवश्यकता पूरी नहीं होगी। मूलभूत आवश्यकता केवल एक व्यक्ति के प्रेम करने से केवल एक व्यक्ति के ध्यान देने से ही पूरी हो सकती है।
जब तुम किसी से प्रेम करते हो तुम उसकी तरफ ध्यान ही दे रहे हो। प्रेम और ध्यान देना दोनों बड़े गहरे में एक दूसरे से जुड़े हैं। यदि तुम प्रेम की इस जरूरत को दबा लेते हो तब वह प्रतीक-आवश्यकता बन जाती है—दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की आवश्यकता। तुम्हारी यह आवश्यकता पूरी भी हो सकती है लेकिन इससे तृप्ति न होगी। जरूरत झूठी है प्राकृतिक बुनियादी जरूरत से अलग है।
तंत्र बहुत ही क्रांतिकारी विचारधारा है--प्राचीनतम होते हुए भी नवीनतम। तंत्र प्राचीनतम परंपरा होते हुए भी अपरंपरावादी है यहां तक कि परंपरा विरोधी है। क्योंकि तंत्र कहता है ''जब तक तुम पूर्ण और एक नहीं हो जाते, तुम जीवन से ही वंचित रह जाते हो। तुम खंडों में ही विभाजित मत रहो एक हो जाओ।''
एक होने के लिए क्या किया जाए? तुम इस संबंध में चिंतन कर सकते हो लेकिन इससे कोई लाभ नहीं होगा, क्योंकि चिंतन विभाजित करने की विधि है। चिंतन विक्षेषण मूलक है। वह खंड़ों में विभाजित करता है। मनोभावनाए मूलक है। वह खंड़ों में विभाजित करता है। मनोभावनाए जोड़ती हैं चीजों को एक करती हैं। इसलिए तुम सोचते रहो, चिंतन-मनन करते रहो अध्ययन करते रहो। उससे तब तक कुछ न होगा जब तक कि तुम अपने भाव-केंद्र पर नहीं लौट आते। लेकिन यह बहुत कठिन है क्योंकि जब भी हम भाव केंद्र के विषय में सोचते हैं हम सोचते ही तो हैं।
जब तुम किसी से कहते हो, मैं तुमसे प्रेम करता हूं तब जरा गौर से देखो कि यह मात्र विचार है या भाव है। अगर यह सिर्फ ख्याल है तो तुम कुछ चूक रहे हो। अगर यह अहसास पूर्ण का है तुम्हारा पूरा शरीर मन, सब कुछ जो भी तुम हो इसमें लगा है। विचार में केवल तुम्हारा मस्तिष्क ही काम में लगा है और वह भी पूरा नहीं--केवल
उसका एक ही अंश एक गुजरता हुआ विचार ही काम में लगा है। हो सकता है वह विचार अगले क्षण न रहे। केवल एक ही अंश काम करता है और जीवन में कितना दुख पैदा कर देता है क्योंकि उस एक विचार-खंड के लिए तुम कितने वायदे कर देते हो जो तुम पूरे नहीं कर पाते।

तुम यह कह तो सकते हो ''मैं तुम्हें प्रेम करता हूं और सदा करता रहूंगा। '' अब इस वक्तव्य का पिछला भाग एक दिया गया वचन है जिसे तुम निभा नहीं सकते क्योंकि यह एक विचार-खंड के द्वारा दिया गया है। तुम्हारे पूरे प्राण इसमें सम्मिलित नहीं हैं। और कल जब यह विचार-खंड नहीं बचेगा तब तुम क्या करोगे? अब वह वचन बंधन बन जाएगा। सार्त्र ने कहीं कहा है कि प्रत्येक वायदा झूठा सिद्ध होने वाला है। तुम वचन दे नहीं सकते क्योंकि तुम पूर्ण नहीं हो, एक नहीं हो। मेरा एक खंड वचन देता है और जब वह खंड सिंहासन पर नहीं होता तो दूसरा खंड उसका स्थान ले लेता है तब मैं क्या करूंगा? कौन वचन निभाएगा? जब मैं उसे निभाने का प्रयत्न करता हूं पांखड, हिवोसी का जन्म होता है मैं उसे पूरा करने का दिखावा करता हूं तब सब झूठ हो जाता है।
तंत्र कहता है '' भाव-केंद्र में गहरे उतर जाओ। उसके लिए क्या करना होगा और कैसे उसमें पीछे लौटना होगा?'' अब हम सूत्रों में प्रवेश करेंगे। ये सूत्र प्रत्येक सूत्र तुम्हें पूर्ण, तुम्हें एक बनाने की चेष्टा है।

पहला सूत्र: संभोग के प्रारंभ में ध्यान आरंभिक अग्नि पर रखो और उसे जारी रखते हुए अंत में अंगारों से बचो।

काम, सेक्स एक गहन तृप्ति हो सकता है और कई कारणों से तुम्हें तुम्हारी पूर्णता में, तुम्हारी प्रकृति में, तुम्हारी वास्तविकता में वापस ले जा सकता है। उन कारणों को समझ लेना जरूरी है। एक काम एक पूर्व समग्र कृत्य है। तुम तुम्हारे मन के उसके संतुलन के बाहर फेंक दिए जाते हो। इसी कारण काम-वासना से तुम्हारा इतना भय है। तादात्म्य मन के साथ है और काम अ-मन का कृत्य है। तुम बुद्धिहीन हो जाते हो। उस समय तुम्हारी बुद्धि काम नहीं करती। कोई तर्क नहीं होता कोई बौद्धिक प्रक्रिया नहीं होती। और अगर बुद्धि काम कर रही है तो वहां वास्तविक प्रामाणिक काम-कृत्य नहीं होगा। तब वहां कोई काम-संवेग न होगा, कोई आर्गाजम नहीं होगा कोई तृप्ति न होगी। तब काम-कृत्य मस्तिष्क क्रिया बनकर रह जाएगा केवल किसी अंग विशेष तक ही सीमित रह जाएगा।
पूरी दुनिया में इतनी कामातुरता का कारण यह नहीं है कि दुनिया अति कामुक हो गई है। इसका कारण है कि तुम काम को उसकी समग्रस्ता में भोग भी नहीं सकते, उसका आनंद नहीं ले सकते। पहले दुनिया अधिक कामुक थी। इसीलिए काम की लालसा से यही प्रकट होता है कि हम असली को चूक रहे हैं और झूठ को स्वीकार कर रहे हैं। सारा आधुनिक चित्त काम-ग्रस्त हो गया है क्योंकि कामकृत्य का स्थानांतरण मस्तिष्क में हो गया है यह बौद्धिक हो गया है इसके बारे में तुम सोचते हो।
कई लोग मेरे पास आते हैं वे कहते हैं कि वे हमेशा काम-वासना के बारे में सोचते ही रहते हैं। वे इसके बारे में पढ़कर सोचकर अशलिल चित्रों को देखकर ही सुख ले लेते हैं। और जब काम वासना को भोगने की वास्तविक स्थिति पैदा होती है तो अचानक उन्हें महसूस होता है कि उनकी रुचि इसमें नहीं है। उन्हें ऐसा भी लगता है कि जैसे वे नपुंसक हैं। उस के बारे में सोचते समय वे अपने भीतर एक प्रबल ऊर्जा को अनुभव करते हैं। जब वे वास्तव में उस कृत्य को करना चाहते हैं तब उन्हें ऐसा महसूस होता कि जैसे उनमें कोई शक्ति नहीं कोई वासना भी नहीं। उन्हें लगता है जैसे उनका शरीर मर गया है।
उन्हें क्या हो गया है? काम-कृत्य भी बौद्धिक हो गया है। वे केवल उसके संबंध में सोच सकते हैं वे उसे कर नहीं सकते, क्योंकि करने में पूरे प्राण चाहिए तुम्हारी पूरी बीइंग उसमें सम्मिलित होगी। और जब भी पूरी बीइंग की आवश्यकता पड़ती है बुद्धि बेचैन होने लगती है--क्योंकि तब यह मालिक नहीं रहती तब बात उसके नियंत्रण से बाहर हो जाती है।
तंत्र तुम्हें पूर्ण बनाने के लिए संभोग का उपयोग करता है लेकिन तब तुम्हें उसे ध्यान की विधि बनाना पड़ता है। तब तुमने जो कुछ भी काम के संबंध में सुना है पड़ा है समाज धर्म और गुरुओ ने जो कुछ सिखाया है—उसे भुलाकर उसमें प्रवेश करना पड़ता है। सब कुछ भूल जाओ और समग्रस्ता से उसमें सलग हो जाओ। सब नियंत्रण भूल जाओ! नियंत्रण बाधा है बल्कि तुम उसके वशीभूत हो जाओ उसे अपने वश में मत करो।
उसमें इस भांति सलग हो जाओ जैसे तुम पागल हो गए हो अ-मन पागलपन जैसा ही दिखाई देता है। शरीर ही हो जाओ पशु हो जाओ; क्योंकि पशु अविभाजित है पूरा है। आधुनिक मानव जैसा है उसे देखते हुए लगता है कि उसे पूर्ण बनाने के लिए काम ही एक सरलतम संभावना है क्योंकि काम तुम्हारे भीतर एक गहरे से गहरा जैस-केंद्र है। तुम इससे ही उत्पन्न हुए हो। तुम्हारी प्रत्येक कोशिका काम-कोशिका है। तुम्हारा सारा शरीर काम-ऊर्जा का चमत्कार है।
पहला सूत्र कहता है: -
यहीं से सारी बात भिन्न हो जाती है। तुम्हारे लिए संभोग मात्र छुटकारा है इसलिए जब तुम उसमें सजग होते हो, तुम उतावले हो जाते हो। तुम्हें मुक्ति चाहिए। उमड़ती हुई ऊर्जा बाहर बह जाएगी और तुम्हें एक राहत अनुभव होगी। यह राहत एक प्रकार की कमजोरी है। अध्यधिक ऊर्जा से तनाव पैदा होता है उत्तेजना पैदा होती है।
तुम्हें लगता है कि कुछ करना चाहिए। जब ऊर्जा निर्मुक्त हो जाती है तुम दुर्बलता अनुभव करते हो। तुम चाहे तो इस दुर्बलता को चैन समझ सकते हो क्योंकि अब कोई उत्तेजना नहीं, उमड़ती, ऊनती ऊर्जा नहीं। तुम शांत और शिथिल हो सकते हो! लेकिन यह शिथिलता नकारात्मकता है। अगर ऊर्जा को बाहर फेंककर तुम्हें विश्रांति मिल सकती है तो यह विश्रांति महंगी पड़ेगी। और यह विश्रांति केवल शारीरिक हो सकती है। यह गहरी नहीं हो सकती यह आध्यात्मिक नहीं हो सकती।

पहला सूत्र कहता है जल्दी मत करो, और समाप्ति के लिए लालयित मत होओ। प्रारंभ में ही बने रहो। संभोग के दो भाग हैं। आरंभ और अंत। आरंभ में ही रुके रहो। आरंभ में अधिक उत्तेजना नहीं विश्रांति है उष्मा है। अंत की ओर जाने की जल्दी मत करो। अंत को तो बिल्कुल भूल ही जाओ।
संभोग के प्रारंभ में ध्यान आरंभ कि अग्नि पर रखो
जब तुम लबालब भरे हो मुक्त होने की बात ही मत सोचो। बाहर बहने को आतुर इस ऊर्जा के साथ बने रहो। वीर्य-स्खलन की जल्दी मत करो। उसे बिल्कुल ही भूल जाओ! उस ऊष्मा भरी आरंभिक स्थिति के साथ पूरी तरह हो जाओ। अपने प्रेमी या प्रेमिका के साथ एक हो जाओ। एक वर्तुल निर्मित करो।
इसकी तीन संभावनाएं हैं। दो प्रेमियों का मिलन तीन आकृतियां बना सकता है--रेखा गणित की तीन आकृतियां। संभवत: तुमने इस संबंध में पड़ा भी हो या एक पुराना चित्र देखा होगा जिसमें एक पुरुष और एक स्त्री तीन रेखागणितीय आकृतियों के बीच नग्न खड़े हैं। एक आकृति चतुर्भुज है दूसरी त्रिकोण और तीसरी वर्तुलाकार। यह संभोग के तांत्रिक विक्षेषणा में से एक पुराना विक्षेषण है। साधारणत: जब तुम संभोग कर रहे होते हो वहां चार व्यक्ति होते हैं दो नहीं--यह चतुर्भुज है। चार कोण होते हैं क्योंकि तुम दो खंडों में विभाजित हो--विचारखंड और भाव खंड--तुम्हारा सहभागी भी दो खंडों में विभाजित है। तुम चार व्यक्ति हो। उस समय वहां दो व्यक्तियों का नहीं चार व्यक्तियों का मिलन होता है। यह एक भीड़ है। और वास्तव में ऐसे मिलन में कोई गहराई नहीं होती। वहां चार कोण हैं मिलन संभव नहीं। मिलन हो रहा है ऐसा दिखाई पड़ता है पर होता नहीं। वहां मिलन हो ही नहीं सकता क्योंकि तुम्हारा कुछ गहनतर अंश छिपा हुआ है और तुम्हारी प्रेमिका का भी गहनतर अंश छिपा हुआ है। केवल दो दिमागों का मिलन हो रहा है केवल दो विचार-प्रक्रियाओं का मिलन हो रहा है। दो भाव-प्रक्रियाओं का नहीं। वे तो छिपी हुई हैं।
दूसरे प्रकार का मिलन त्रिभुज की तरह हो सकता है। तुम दो हो-आधार के दो कोण। अचानक किसी क्षण में तुम एक हो जाते हो, त्रिज के तीसरे कोण की भांति। लेकिन अचानक एक क्षण के लिए... द्वैत खो जाता है और तुम एक हो जाते हो। यह चतुर्भुजाकार मिलन से बेहतर है क्योंकि कम से कम एक क्षण के लिए तो ऐक्य घटित होता है। वह ऐक्य तुम्हें स्वास्थ्य एवं शक्ति प्रदान करता है। तुम पुन: जीवंत और युवा अनुभव करते हो।
लेकिन तीसरे प्रकार का मिलन सबसे अच्छा है तीसरा तंत्र-मिलन है: तुम एक वर्तुल बन जाते हो। तब कोई कोण नहीं होते, और मिलन केवल एक क्षण के लिए ही नहीं होता। मिलन अल्पकाल के लिए नहीं होता समय उसमें बचता ही नहीं। और यह तभी संभव है जब तुम यह नहीं चाहते कि स्खलन हो। अगर तुम स्खलन ही चाहते
हो, तो यह त्रिकोण-मिलन ही होगा- क्योंकि जैसे ही वीर्य-स्खलन होगा, मिलन-बिंदु खो जाएगा।

आरंभिक अवस्था में रुके रहो अंत की ओर गति मत करो। आरंभ में कैसे रुके रहें? बहुत सी बातें ध्यान में रखनी होंगी।
पहली बात, संभोग को इस तरह मत लो जैसे कि कहीं और पहुंचना है। इसे साधन की भांति मत लो—यह अपने में ही साध्य है। इसका कोई लक्ष्य नहीं यह कोई माध्यम नहीं। दूसरी बात भविष्य की मत सोचो, वर्तमान में स्थित रहो। अगर तुम काम-कृत्य के आरंभिक भोग में वर्तमान में नहीं हो सकते तो तुम कभी भी वर्तमान में नहीं टिक सकते, क्योंकि इस कृत्य की प्रकृति ही ऐसी है कि तुम वर्तमान में फेंक दिए जाते हो।
वर्तमान में स्थित रहो। दो शरीरों दो आत्माओं के मिलन का सुख भोगो और एक दूसरे में लीन हो जाओ... एक दूसरे में पिघल जाओ। भूल जाओ कि तुम्हें कहीं पहुंचना है। उस क्षण में स्थित रहो कहीं जाना नहीं है पिघल जाओ। प्रेम की उष्मा पिघल कर एक दूसरे में विलीन हो जाने की परिस्थिति बनाओ।
इसी कारण अगर प्रेम नहीं है तो संभोग शीघ्रता में किया गया एक कृत्य है। तुम दूसरे का उपयोग कर रहे हो दूसरा साधन मात्र है। और दूसरा तुम्हारा उपयोग कर रहा है। तुम दोनों एक दूसरे का शोषण कर रहे हो एक दूसरे में विलीन नहीं हो रहे। प्रेम में तुम एक दूसरे में खो जाते हो। प्रारंभ में यह एक दूसरे में खो जाना एक नई दृष्टि
देगा।

अगर तुम इस कृत्य को समाप्त कर देने की जल्दी में नहीं हो तो धीरे-धीरे यह कृत्य कामुक कम, और आध्यात्मिक अधिक हो जाता है। जननेंद्रिय भी एक दूसरे में विलिन हो जाती हैं। दो शारीरिक ऊर्जाओं के बीच एक घनिष्ठ सहभागिता स्थापित हो जाती है और घंटों तुम्हारा साथ बना रह सकता है। जैसे-जैसे समय बीतता है इस साथ में और-और गहराई आती जाती है। लेकिन सोच-विचार में मत पड़ना। उस क्षण के साथ रहो उसकी गहराई में डूब जाओ। वह क्षण परमानंद बन जाता है समाधि बन जाता है। अगर तुम उसे अनुभव कर सको स्पष्ट अनुभव कर सको, तुम्हारे चित्त की कामुकता-विलीन हो जाएगी। और उसके माध्यम से ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकेगा।
यह विरोधाभासी प्रतीत होता है क्योंकि हम हमेशा इस ढंग से सोचते रहे हैं कि अगर किसी व्यक्ति को ब्रह्मचारी ही बने रहना है तो उसे अपने विपरीत यौन की तरफ आंख उठाकर भी उससे किसी प्रकार का संबंध नहीं बनाना चाहिए... उससे बचो, भाग जाओ! तब एक झूठा ब्रह्मचर्य घटता है। मन विपरीत यौन आपोजिट सेक्स, के बारे में निरंतर सोचता रहता है। और जितना तुम दूसरे से भागते हो उतना ही ज्यादा तुम उसके बारे में सोचने के लिए विवश हो जाते हो, क्योंकि वह तुम्हारी बुनियादी गहरी जरूरत है।
तंत्र कहता है ''पलायन की चेष्टा मत करो--पलायन संभवन नहीं। बल्कि इससे पार होने के लिए प्रकृति का उपयोग करो। संघर्ष मत करो। अतिक्रमण के लिए प्रकृति को स्वीकार करो। प्रेमी या प्रेमिका से तुम्हारा यह संपर्क बिना अंत के अगर इसे लंबाया जा सके बस, आरंभ में ठहरकर...। उत्तेजना शक्ति है। तुम इसे गंवा सकते हो तुम
शिखर तक पहुंच सकते हो और फिर ऊर्जा नष्ट हो जाती है और पीछे आती है एक कमजोरी, एक खिन्नता। तुम इसे एक प्रकार की विश्रांति, रिलैक्सेशन की तरह ले सकते हो- यह नकारात्मक है।'’

तंत्र तुम्हें उच्चतर विश्रांति का एक आयाम प्रदान करता है जो विधेयात्मक है। दोनों साथी एक दूसरे में खो जाते है एक दूसरे को प्राणदाई शक्ति देते हैं वे एक वर्तुल बन जाते हैं और उनकी ऊर्जा एक वर्तुल में संचारण करने लगती है। वे दोनों एक दूसरे को जीवन की नव-शक्ति देते हैं कोई ऊर्जा नष्ट नहीं होती बल्कि और शक्ति प्राप्त होती है क्योंकि विपरीत यौन, के संपर्क से तुम्हारी प्रत्येक कोशिका को चुनौती मिलती है प्रत्येक कोशिका उत्तेजित हो जाती है। और अगर तुम उस उत्तेजना को शिखिर तक पहुंचने से रोककर उसमें विलीन हो सको आरंभ में थिर रह सको, अग्नि को भड़कने न दो ऊष्मा बनाए रखते हो तो दो उष्माओं का मिलन होगा।
तुम इस काम-कृत्य को, संभोग को दीर्धकालिक बना सकते हो। बिना स्खलन के बिना ऊर्जा को बाहर फेंके यह कृत्य ध्यान बन जाता है। और इसके द्वारा तुम्हारा खंडित व्यक्तित्व अखंडित हो जाता है।
सभी प्रकार के स्नायु-तनाव का कारण व्यक्तित्व का खंड-खंड हो जाना है। अगर ये खंड पुन: जुड़ जाएं तो तुम फिर एक निर्दोष बच्चे हो सकते हो। एक बार जब तुम निर्दोष्ता को पहचान लेते हो तुम जैसा समाज को व्यवहार चाहिए तुम करते जाते हो, लेकिन अब यह व्यवहार केवल अभिनय है एक नाटक है। तुम इसमें उलझे नहीं हो। यह एक जरूरत है इसलिए तुम करते हो, लेकिन तुम उसमें नहीं हो। तुम सिर्फ अभिनय कर रहे हो। तुम्हें नकली चेहरे लगाने ही पड़ेंगे, तुम एक ऐसी दुनिया में रहते हो जो झूठ है; नहीं तो यह दुनिया तुम्हें कुचल डालेगी और मार डालेगी।
हमने अनेक असली चेहरों की हत्या कर दी है। हमने जीसस को सूली लगाई क्योंकि वह एक वास्तविक सच्चे मनुष्य की भांति आचरण करने लगा। अवास्तविक झूठा समाज इसे सहन नहीं कर सकेगा। हमने सुकरात को जहर पिलाया क्योंकि वह एक वास्तविक की भांति व्यवहार करने लगा।
उसी तरह आचरण करो जैसा समाज चाहता है अपने और दूसरों के लिए अनावश्यक समस्याएं मत खड़ी करो। लेकिन एक बार जब तुम्हें अपनी वास्तविकता और संपूर्णता का बोध हो जाता है अवास्तविक समाज तुम्हें पागल नहीं बना सकता।
संभोग के स्खलन में ऊर्जा नष्ट होती है। तब आग बचती नहीं। तुम सिर्फ बिना कुछ प्राप्त किए अपनी ऊर्जा से छुटकारा पा लेते हो।

दूसरा सूत्र:
हम इससे भी भयभीत हैं... संभोग करते समय अपने शरीरों को हिलने-डुलने भी नहीं देते--क्योंकि अगर तुम्हारे शरीरों को अधिक हिलने-डुलने दिया जाए तो काम-वासना सारे शरीर पर छा जाती है। अगर केवल काम-केंद्र तक ही सीमित रहती है तो इस पर नियंत्रण किया जा सकता है मन पर भी काबू रखा जा सकता है। जब यह सारे शरीर में फैल जाती है तब तुम इसे अपने नियंत्रण में नहीं रख सकते। हो सकता है तुम कांपने लगो चीखना चिल्लाना शुरू कर दो और एक बार यह सारे शरीर में व्याप्त हो जाए तो तुम अपने शरीर पर नियंत्रण न रख सकोगे।
हमने सारी दुनिया में, विशेष रूप से स्त्रियों की सारी चेष्टाओं को दबा दिया है। वे हिल-जुल भी नहीं सकतीं। वे मृत शव की भांति पड़ी रहती हैं। पुरुष ही उनके साथ कुछ करते हैं वे उनके साथ कुछ नहीं करती। वे मात्र निष्क्रिय निश्चेष्ट भागीदार हैं। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि सारी दुनिया में पुरुष ही इस प्रकार स्त्रियों को दबाते हैं?
भय है--क्योंकि अगर एक बार काम-वासना स्त्री के पूरे शरीर में व्याप्त हो गई तो स्त्री को तृप्त करना पुरुष के लिए कठिन हो जाएगा। क्योंकि स्त्री को एक के बाद एक काम-संवेग, ऑरगॉज्म होंगे, पुरुष को ऐसा नहीं होगा। किसी भी स्त्री को एक के बाद एक कम-से-कम तीन ऑरगॉज्म हो सकते हैं लेकिन पुरुष को केवल एक ही बार काम-संवेग होता है जब पुरुष की काम-उत्तजना शिखर पर होती है वह ऑगॉज्म अनुभव करता तब उस समय स्त्री में काम उत्तेजित होना शुरू होता है वह आर्गाजम के लिए तैयार होती है। तब बात मुश्किल हो जाती है। कैसे इसके लिए कुछ किया जाए।
उसे तुरंत दूसरे पुरुष की आवश्यकता अनुभव होती है और सामूहिक यौन-संबंध वर्जित हैं। पूरी दुनिया में हमने एक विवाहित समाज बनाए हैं। इसलिए उचित है कि स्त्री को दबा दिया जाए। इसलिए वास्तव में अस्सी से नब्बे प्रतिशत स्त्रियों को कभी पता ही नहीं चलता काम का अंत्यत संवेग क्या है? वे बच्चों को जन्म दे सकती हैं यह दूसरी बात है। वे पुरुष को तृप्त कर सकती हैं यह भी दूसरी बात है। लेकिन वे स्वयं की तृप्ति को अनुभव नहीं कर सकतीं। अगर सारी दुनिया में तुम आंखों में ऐसी कडुवाहट देखते हों- उदासी, खीझ, चिड़चिड़ापन देखते हो—यह स्वाभाविक है। उनकी बुनियादी आवश्यकता पूरी नहीं होती।
यह कंपन बड़ा अनूठा है क्योंकि संभोग में जब तुम कांपते हो ऊर्जा पूरे शरीर में प्रवाहित होने लगती है; पूरा शरीर आंदोलित हो जाता है। शरीर की प्रत्येक कोशिका इसमें सम्मिलित है। प्रत्येक कोशिका जीवंत हो जाती है क्योंकि प्रत्येक कोशिका काम-कोशिका है।
जब तुम पैदा हुए थे, दो काम-कोशिकाओं का मिलन हुआ था और तुम अस्तित्व में आए थे तुम्हारा शरीर निर्मित हुआ था। वे, दो काम-कोशिकाएं तुम्हारे शरीर में सर्वत्र हैं। वे गुणा होती गई बढ़ती गई बढ़ती गई लेकिन कोशिका ही तुम्हारी मूल इकाई रहती है। जब तुम्हारा सारा शरीर कांप उठता है तब केवल तुम और तुम्हारा प्रेमी ही नहीं मिलते, तुम्हारे शरीर में एक-एक कोशिका विपरीत कोशिका से मिलन होता है। यह कंपन इसी बात की खबर देता है। देखने में यह जानवरों जैसा लगेगा लेकिन आदमी भी तो एक जानवर है और इसमें कुछ बुराई भी नहीं।

यह दूसरा सूत्र कहता है: जब ऐसे आलिंगन में तुम्हारी इंद्रियां पत्तों की भांति कांपने लगती हैं...
अंधी-तूफान चल रहा है और पेड़ कांप रहा है यहां तक कि जड़ें भी हिल उठी हैं पत्ते भी कांप रहे हैं। बस, सिर्फ पेड़ की भांति हो जाओ। प्रचंड आधी चल रही है और काम एक आधी ही है--तुम्हारे भीतर महा ऊर्जा प्रवाहित हो रही है। कांटों दलित हो उठो! अपने शरीर की प्रत्येक कोशिका को नाचने दो। और ऐसा दोनों के लिए होना चाहिए। प्रेमिका भी नाच उठी है उसकी भी प्रत्येक कोशिका दोलित हो उठी है। केवल तभी दोनों का मिलन संभव है। तब बौद्धिक का मानसिक तल पर मिलन नहीं होता यह तुम्हारी जैविक -ऊर्जाओं का मिलन होता है।
इस कंपन में प्रवेश करो। कांपते समय स्वयं किनारे पर ही खड़े मत रहना केवल द्रष्टा ही मत बने रहना क्योंकि बुद्धि दर्शक है। एक ओर हटकर मत खड़े हो जाना! कंपन ही हो जाना। सब कुछ भुलाकर कंपन ही हो जाना। यह तुम्हारा शरीर ही नहीं कैप रहा तुम्हारे पूरे प्राण, तुम्हारा होना कांप उठा हैं। तुम स्वयं कंपन ही हो गए हो। तब वहां दो शरीर नहीं दो मन नहीं। प्रारंभ में कांपती हुई दो ऊर्जाएं. और अंत में एक वर्तुल दो नहीं।
इस वर्तुल में क्या घटना घटेगी? एक तुम अस्तित्वरात शक्ति के अंश हो जाओगे- सामूहिक चित्त के नहीं अस्तित्वरात ऊर्जा के अंश हो जाओगे। तुम संपूर्ण ब्रह्मांड के अंश हो जाओगे उस कंपन में तुम संपूर्ण ब्रह्मांड के अंश हो जाओगे। वह एक महान सृजन का क्षण है। तुम्हारे ठोस शरीर पिघल जाते हैं तुम तरल होकर एक दूसरे में प्रवाहित होने लगते हो। बुद्धि विसर्जित हो जाती है। विभाजन मिट जाताहै। तुम एक हो जाते हो।
यही अद्वैत है। दो नहीं बचे। अगर तुम इस अद्वैत को अनुभव नहीं कर सकते तो अद्वैत के सभी बाद सभी सिद्धांत व्यर्थ है। वे मात्र शब्द हैं। एक बार अगर तुम्हें अस्तित्वगत अद्वैत के इस क्षण का बोध हो जाए तो केवल तभी तुम उपिनष्दों को समझ पाओगे, तभी तुम समझ सकोगे कि रहस्यविदित किस ब्रह्मांडीय एक्य की संपूर्णता की बात करते हैं। तब तुम जगत से अलग नहीं हो, उसके शत्रु नहीं हो। तब सारा असितत्व तुम्हारा घर है।
और इस भाव के उत्पन्न होते ही कि अस्तित्व मेरा घर है सभी चिंताएं समाप्त हो जाती हैं। तब कोई पीड़ा नहीं, दुख नहीं, संघर्ष नहीं, शत्रुता नहीं। लाओत्सु इसे ताओ कहते हैं शंकराचार्य इसे अद्वैत कहते हैं। आप इसको अपना शजगता दे सकते हैं लेकिन इसका अनुभव एक प्रगाढ़ प्रेम आलिंगन में होना आसान है। लेकिन जीवंत बनो
दोलित होओ शरीर को कांपने दो स्वयं कंपन ही हो जाओ।


तीसरा सूत्र:--बिना आलिंगन में बंधे, केवल मिलन की स्मृति से ही रूपांतरण।

एक बार जब तुम उसे जान लेते हो, तब दूसरे साथी की भी जरूरत नहीं रहती। तुम सिर्फ उस कृत्य को स्मरण करके ही उसमें प्रवेश कर सकते हो। लेकिन तुम्हें पहले उसकी अनुभूति होनी जरूरी है। अगर तुम उस अनुभूति से परिचित हो तो तुम बिना दूसरे साथी के ही उस कृत्य में प्रवेश कर सकते हो। यह जरा मुश्किल लगती है बात, लेकिन ऐसा घटता है। और जब तक ऐसा घटित न हो तुम दूसरे पर निर्भर ही बने रहते हो--एक निर्भरता बन जाती है। ऐसा कई कारणों से होता है।
अगर तुम्हारे पास उसकी अनुभूति है अगर तुमने उस क्षण को जाना है जब तुम नहीं बचे थे लेकिन वहां एक दोलित ऊर्जा थी जिसमें तुम एक हो गए थे और वहां एक वर्तुल निर्मित हो गया था और उस घड़ी में कोई दूसरा साथी नहीं था। केवल तुम हो और साथी के लिए तुम नहीं हो; केवल वही है।
क्योंकि एक-एक का भाव तुम्हारे भीतर है वहां दूसरा साथी नहीं है। स्त्री के लिए यह अनुभूति सरल है क्योंकि संभोग करते समय वे सदा अपनी आंखों बंद कर लेती हैं।
इस विधि को करते समय अच्छा है कि तुम अपने आंखों बंद रखो। केवल तभी तुम्हें उस वर्तुल की आंतरिक अनुभूति हो सकती है केवल तभी ऐक्य की आंतरिक अनुभूति हो सकती है। तब सिर्फ इसे स्मरण करो। आंखों बंद कर लो, ऐसे लेटे रहो जैसे तुम अपने साथी के साथ हो केवल स्मरण करो और इसे महसूस करना शुरू करो।
तुम्हारा शरीर दोलित हो उठेगा और कंपने लगेगा।

ऐसा होने दो। भूल जाओ कि दूसरा वहां नहीं है। ऐसे हिलो-डुलो जैसे दूसरा उपस्थित है। केवल शुरू-शुरू में जैसे का भाव रहता है। एक बार जब तुम्हें पता चल जाता है कि यह जैसा नहीं है तब दूसरे की उपस्थिति यथार्थ बन जाती है। ऐसे व्यवहार करो जैसे यथार्थ में तुम काम-क्रीड़ा करने जा रहे हो। वे सब कुछ करो जो-जो तुमने अपने सहभागी के साथ किया होता। चीखो-चिल्लाओ शरीर को हिलाओ-डुलाओ कंपो। शीघ्र ही वर्तुल बन जाएगा—और यह वर्तुल चमत्कारी है। शीघ्र ही तुम महसूस करोगे कि वर्तुल निर्मित हो गया है। और अब यह वर्तुल स्त्री और पुरुष के संयोग से नहीं बना। अगर तुम पुरुष हो तो सारा अस्तित्व तुम्हारे लिए स्त्री हो गया है। अगर तुम स्त्री हो तो सारा अस्तित्व पुरुष हो गया है। अब अस्तित्व के साथ तुम्हारा गहरा संबंध जुड़ गया है और अब द्वार अर्थात दूसरा वहां नहीं बचा।
दूसरा मात्र द्वार है। स्त्री को प्रेम करते समय तुम वास्तव में अस्तित्व को ही प्रेम कर रहे हो। स्त्री तो सिर्फ द्वार है पुरुष भी सिर्फ द्वार है। दूसरा उस पूर्ण के लिए द्वार मात्र ही है। लेकिन तुम इतनी जल्दी में होते हो कि तुम्हें कभी इसकी अनुभूति नहीं होती। अगर घंटों तक तुम इस मिलन में इस प्रगाढ़ आलिंगन में स्थित रहते हो तो तुम दूसरे को भूल ही जाओगे और दूसरा पूर्ण का विस्तार ही हो जाएगा।
एक बार जान लेने पर तुम इस विधि का अकेले प्रयोग कर सकते हो। और जब तुम इसका अकेले प्रयोग कर सको तो तुम्हें एक नई मुक्ति प्राप्त होती है- दूसरे से मुक्ति। सच ऐसा ही होता है सारा अस्तित्व दूसरा हो जाता है। --तुम्हारा प्रेमी, तुम्हारी प्रेमिका। और तब इस विधि का निरंतर प्रयोग किया जा सकता है। और व्यक्ति निरंतर अस्तित्व से जुड़ा रह सकता है।
और तब तुम इसका प्रयोग दूसरे आयामों में भी कर सकते हो। प्रात: काल की सैर करते समय भी कर सकते हो। तब तुम हवा के साथ, उदित होते हुए सूर्य के साथ और आकाश के साथ और पेड़ों के साथ संपृक्त हो सकते हो रात्रि में आकाश के सितारों की ओर निहारते समय इसे कर सकते हो। एक बार यदि तुम्हें पता चल जाए कि यह
किस प्रकार घटिता होता है तो तुम सारे अस्तित्व के साथ काम-संभोग कृत्य कर सकते हो।

लेकिन यही उचित है कि पहले उसे मनुष्यों के साथ ही किया जाए क्योंकि वे तुम्हारे निकटतम हैं—अस्तित्व के निकटतम अंश। लेकिन उन्हें छोड़ा भी जा सकता है। तुम द्वार को छोड़ कर छलांग लगा सकते हो। और तुम रूपांतरित हो जाओगे, तुम नए हो जाओगे। तंत्र साधन की भांति काम का उपयोग करता है। यह शक्ति है इसका
साधन की भांति उपयोग हो सकता है। यह तुम्हें रूपांतरित कर सकती है यह तुम्हें भावातीत अवस्था में पहुंचा सकती है।

लेकिन जिस ढंग से हम काम-वासना का उपयोग करते हैं यह बात हमें मुश्किल मालूम होती है; क्योंकि हम इसका उपयोग बहुत गलत ढंग से करते हैं। और गलत ढंग प्राकृतिक नहीं होता, हमसे तो पशु ही अच्छे हैं। वे प्राकृतिक ढंग से इसका उपयोग करते हैं हमारे ढंग अप्राकृतिक हैं विकृत हैं। काम-वासना पाप है लगातार मन पर
इस बात की चोट ने भीतर गहरे में काम के लिए अवरोध खड़ा कर दिया है। तुम कभी भी पूरी तरह स्वयं को इसके साथ बहने नहीं देते। कुछ भीतर ऐसा है जो हमेशा एक ओर किनारे पर खड़ा इसकी निंदा करता रहता है।

नई पीढ़ी युवा भी वे भले ही कहें कि वे यौन संबंधी वर्जनाओं के बोझ से मुक्त हैं वे काम-ग्रस्त नहीं है लेकिन तुम अपने अचेतन मन इतनी आसानी से इस बोझ से मुक्त नहीं कर सकते। सदियों-सदियों से इसे ऐसा बनाया गया है। इसके पीछे मनुष्य का पूरा इतिहास है। इसलिए चेतन मन से इसे पाप कह कर तुम भले ही इसकी निंदा न करो लेकिन अचेतन मन सदा इसकी निंदा करने के लिए वहां मौजूद है। तुम कभी भी इसमें समग्र रूप से इसमें नहीं होते। कुछ न कुछ अंश छूट ही जाता है। वह छूटा हुआ अंश सब विभाजित कर देता है।
तंत्र कहता है समग्रस्ता से इसमें सजग होओ। भूल जाओ स्वयं को भूल जाओ तुम्हारी संस्कृति, तुम्हारा धर्म, तुम्हारी सभ्यता तुम्हारे सिद्धांत--सब भूल जाओ। बस, समग्रस्ता से इसमें गति करो। कुछ भी मत बचाओ। बस पूरी तरह विचार शून्य हो जाओ। सिर्फ तभी तुम्हें पता चलता है कि तुम किसी के साथ एक हो गए हो।
और इसी एकात्मकता के भाव को अपने प्रेमी से हटाकर पूरे विश्व के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। तुम पेड़ों के साथ, चांद तारों के साथ किसी के भी साथ संभोग कर सकते हो। एक बार तुम्हें यह पता चल जाए कि किस प्रकार यह वर्तुल निर्मित किया जा सकता है तब यह किसी के साथ भी निर्मित किया जा सकता है-- यहां तक कि बिना किसी के भी निर्मित हो सकता है।
तुम यह वर्तुल अपने ही भीतर निर्मित कर सकते हो क्योंकि पुरुष दोनों है स्त्री भी और पुरुष भी, और स्त्री भी पुरुष और स्त्री दोनों है। तुम दोनों हो क्योंकि तुम्हारा सृजन पुरुष और स्त्री दोनों के संयोग से हुआ है इसलिए तुम्हारा भाग दूसरा है। एक बार जब तुम्हारे भीतर यह वर्तुल बन जाता है--तुम्हारे पुरुष का तुम्हारी स्त्री से मिलन
होता है- आंतरिक स्त्री का आंतरिक पुरुष से मिलन होता है- तुम अपने भीतर अपने से ही आलिंगन करते हो। और जब यह वर्तुल निर्मित हो जाता है तभी वास्तविक ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। नहीं तो सभी प्रकार के ब्रह्मचर्य केवल विकृतियां है और वे अपनी समस्याएं खड़ी कर लेते हैं।

यह वर्तुल जब अपने भीतर निर्मित हो जाता है तुम मुक्त हो जाते हो। यही तो तंत्र कहता है: काम गहरे से गहरा बंध है लेकिन फिर भी यह परम स्वतंत्रता का माध्यम बन सकता है। तंत्र कहता है विष का भी औषधि के रूप में उपयोग किया जा सकता है--केवल बुद्धिमत्ता की जरूरत है।
इसलिए किसी की भी निंदा मत करो बल्कि उसका उपयोग करो। और किसी का विरोध मत करो। खोजो कि किस तरह उसका प्रयोग किया जा सकता है और कैसे रूपांतरण किया जा सकता है। तंत्र जीवन का गहरा पूर्ण स्वीकार है। एक मात्र मार्ग- पूरी दुनिया में, उतनी सदियों में जितनी बीत चुकी है तंत्र अनूठा है। वह कहता है:
किसी का भी परित्याग मत करो किसी के भी विरुद्ध मत होओ और किसी से भी संघर्ष मत करो--क्योंकि कोई भी संघर्ष तुम्हारे स्व को नष्ट कर देगा।

सभी धर्म काम-वासना के विरोधी हैं इससे भयभीत है क्योंकि यह एक महाशक्ति है। अगर एक बार तुम इसकी पकड़ में आ गए तो बचोगे नहीं और तब धारा तुम्हें कहीं भी बहाकर ले जाएगी इसी कारण भय है। इसलिए अवरोध खड़े करो ताकि तुम और धारा दो हो जाओ! और इस प्रबल शक्ति को अपने ऊपर हावी मत होने दो--इसके स्वामी हो जाओ।
केवल तंत्र ही यह कहता है कि यह स्वामित्व एक झूठ एक रोग सिद्ध होगा, क्योंकि वास्तव में तुम इस धारा से अलग नहीं हो सकते। तुम वही हो। इसलिए सभी विभाजन झूठ होंगे अपनी मर्जी से किए होंगे। और मूलरूप से कोई विभाजन संभव नहीं है क्योंकि तुम ही धारा हो--उसके अंगी-संगी, केवल उसकी एक लहर। तुम जमकर बर्फ
हो सकते हो, और स्वयं को धारा से पृथक कर सकते हो लेकिन यह जम जाना मृत्यु है। और मनुष्यता मुर्दा हो चुकी है। कोई यथार्थ रूप में जीवित नहीं है- केवल धारा में बहते हुए मुर्दे। पिघलो। तंत्र कहता है ''पिघलने की चेष्टा करो। '' हिमशीला की भांति मत बनो। पिघलो और नदी के साथ एक हो जाओ।

नदी के साथ एक होकर नदी के साथ एक हो जाने को अनुभव करते हुं उसी में विलीन होते हुए सजग हो जाओ और रूपांतरण घटित होगा-रूपांतरण हो ही गया। रूपांतरण संघर्ष से नहीं होश से सजगता से होता है। ये तीनों विधियां बहुत ही वैज्ञानिक है तब कामवासना वही नहीं रह जाती जिसे तुम जानते हो। तब वह कुछ समय के लिए मिलने वाली राहत नहीं है। तब वह ऊर्जा का बाहर फेंकना नहीं है। तब उसका कोई अंत नहीं है। तब वह ध्यानगत वर्तुल बन जाती है।

इसी से संबंधित कुछ और विधियां! :

चौथी विधि- दीर्धकाल से बिछुड़े मित्र को प्रसन्नता पूर्वक देखते हुए, उस प्रसन्नता को व्यास हो जाने दो इस प्रसन्नता में प्रवेश करो और उसके साथ एक हो जाओ - किसी भी हर्ष के साथ किसी भी सुख के साथ। यह तो एक उदाहरण है।

दीर्ध काल से बिछुड़े मित्र को प्रसन्नता पूर्वक देखते हुए...
अचानक तुम अपने मित्र को देखते हो जिसे कई दिनों या कई वर्ष से नहीं देखा था। अचानक एक प्रसन्नता तुम्हें घेर लेती है। लेकिन तुम्हारा ध्यान मित्र पर होगा प्रसन्नता पर नहीं होगा तब तुम कुछ चूक रहे हो। यह हर्ष क्षणिक है और तुम्हारा ध्यान मित्र पर केंद्रित है। तुम बातें करने लगोगे, बीती बातों को याद करने लगोगे और तुम इस खुशी को चूक जाओगे और यह खुशी चली जाएगी।
जब तुम अपने किसी मित्र को देखते हो। और सहसा अपने हृदय में उमड़ती प्रसन्नता को अनुभव करते हो उस प्रसन्नता पर चित्त को एकाग्र करो। उसे महसूस करो और वही हो जाओ। और मित्र से मिलते समय होशपूर्ण रहो और प्रसन्नता से भर जाओ। मित्र को परिधि पर रहने दो और तुम स्वयं खुशी की अनुभूति में केंद्रित हो जाओ। ऐसा कई दूसरी परिस्थितियों में भी किया जा सकता है। सूर्य उदय हो रहा है और तुम सहसा महसूस करते हो कि तुम्हारे भीतर भी कुछ उदित हो रहा है। तब तुम सूर्य को भूल जाओ उसे परिधि पर रहने दो। तुम अपने भीतर उठती हुई ऊर्जा की अनुभूति में केंद्रित हो जाओ। जैसे ही तुम उस पर ध्यान दोगे वह फैलना शुरू हो जाएगी। वह तुम्हारा समूचा शरीर हो जाएगी वह तुम्हारे पूरे प्राण हो जाएगी और तुम केवल उसके द्रष्टा ही मत बने रहना- उसमें डूब जाना। बहुत कम ऐसी घड़ियां होती हैं जब तुम प्रसन्न होते हो आनंदित होते हो। लेकिन हम उन्हें चूकते चले जाते हैं क्योंकि हम विषय में केंद्रित हो जाते हैं।
जब भी प्रसन्नता होती है तुम्हें लगता है कि यह बाहर से आ रही है। तुमने मित्र को देखा है निश्चित ही ऐसा प्रतीत होता है कि यह खुशी को देखने पर उससे मिल रही है। वास्तव में ऐसा नहीं है। प्रसन्नता का भाव सदा तुम्हारे भीतर विद्यमान है। मित्र तो केवल एक परिस्थिति बन गया है; मित्र इसे बाहर प्रकट करने में सहायक हुआ है
लेकिन वह पहले से ही वहां है। ऐसा केवल प्रसन्नता के साथ ही नहीं है लेकिन क्रोध, उदासी, दुख सुख- सबके साथ ऐसा ही है।

दूसरे केवल परिस्थितियां हैं जिनके कारण तुम्हारे भीतर जो भी छिपा है वह प्रकट हो जाता है। वे कारण नहीं हैं उनके कारण तुम्हारे भीतर कुछ नहीं हो रहा। जो कुछ भी हो रहा है वह तुम्हें ही हो रहा है। वह सदा से वहां था मित्र से यह मिलन एक परिस्थिति बन गया है जिसके कारण जो कुछ तुम्हारे भीतर था वह प्रकट हो गया
है। प्रच्छन्न स्रोतों से प्रकट होकर सामने आ गया है साकार हो गया है।

जब भी ऐसा घटित हो अंतरानुभूति में केंद्रित रहो। और तब जीवन में सभी चीजों के प्रति तुम्हारे रुख में अंतर आ जाएगा। निषेधात्मक मनोभावों के साथ भी ऐसा ही करो। जब तुम क्रोध में हो तुम उस व्यक्त्ति में केंद्रित मत हो जाना जिसके कारण क्रोध जगा है। उसे मन की परिधि पर ही रहने देना। तुम मात्र क्रोध ही हो जाना उसे उसकी समग्रस्ता में अनुभव करना, उसे अपने भीतर उठने देना। उसकी कोई बुद्धि-संगत व्याख्या मत करना; ऐसा मत कहना, ''इस आदमी ने इसे उत्पन्न किया है। '' उस आदमी को दोषी मत ठहराना। वह तो केवल एक परिस्थिति बन गया है। उसको धन्यवाद देना कि जो भीतर छिपा था वह प्रकट हो गया है। उसने कहीं ऐसी चोट की है घाव नहीं भीतर छिपा था। अब तुम्हें उसका पता है--घाव ही हो जाओ।
साकारात्मक या नकारात्मक कोई भी मनोभाव हो, उसका उपयोग करो और तुम में एक महान परिवर्तन होगा। अगर भाव निषेधात्मक है इसके प्रति सजग होते ही कि यह तुम्हारे भीतर है तुम उससे मुक्त हो जाओगे। अगर मनोभाव विधेयात्मक है तुम वह भाव ही हो जाओगे। अगर यह हर्ष-उल्लास का भाव है तुम हर्ष-उल्लास ही
हो जाओगे। अगर यह क्रोध है तो क्रोध विलीन हो जाएगा।

और यही अंतर है विधेयात्मक और निषेधात्मक मनोभावों में। अगर तुम किसी विशेष मनोभाव के प्रति सजग हो जाओ और यह मनोभाव सजगता के कारण विलीन हो जाए तो यह निषेधात्मक है। अगर किसी मनोभाव के प्रति सजग होने से, तुम वह मनोभाव ही हो जाते हो और वह मनोभाव फैलकर तुम्हारे प्राण बन जाता है वह
विधेयात्मक है।

सजगता, होश इन दोनों प्रकार के मनोभावों पर भिन्न-भिन्न रूप में काम करती है। अगर वह विषैला है तो सजगता के कारण तुम उससे मुक्त हो जाते हो। अगर वह सुखपूर्ण है आनंदपूर्ण है तुम उसके साथ एक हो जाते हो होश उसे गहरा बना जाता है।
इसलिए मेरी दृष्टि में यही माप दंड है अगर तुम्हारे होश से कुछ गहरा होता है वह शुभ है और अगर तुम्हारी सजगता के कारण कुछ विदा हो जाता है वह अशुभ है। जो होश में बच नहीं पाता वह पाप है और जो होश में विकसित होता है वह पुण्य है। पाप और पुण्य सामाजिक मान्यताएं नहीं हैं वे आंतरिक बोध हैं।
अपनी होश का उपयोग करो। यह ऐसे हैं--अगर अंधेरा है और तुम प्रकाश लाते हो अंधेरा वहां नहीं टिकेगा। केवल भीतर प्रकाश लाते ही अंधेरा विलीन हो जाएगा क्योंकि वास्तव में वह वहां था ही नहीं। वह नकारात्मक था, केवल प्रकाश की अनुपस्थिति। लेकिन बहुत-सी चीजें जो वहां थी वे साकार हो जाएंगी मात्र प्रकाश के लाते ही, ये शेल्फ, ये पुस्तकें, ये दीवारें।
अंधेरे में वे नहीं थी, तुम उन्हें देख नहीं पाए। अगर तुम प्रकाश भीतर लाते हो, अंधेरा तो वहां नहीं बचेगा, लेकिन जो वास्तव में वहां है, वह प्रकट हो जाएगा।

पांचवीं विधि: -खाते या पीते समय खाद्य या पेय पदार्थ का स्वाद ही हो जाओ और भर जाओ।

हम चीजें खाए चले जाते हैं हम उनके बिना जी नहीं सकते लेकिन हम उन्हें बड़ी मूर्च्छा में यंत्रवत, रोबोट की तरह खाए चले जाते हैं। हम उनका स्वाद नहीं लेते बस हंसते चले जाते हैं। धीरे-धीरे खाओ और स्वाद के प्रति होश से भरो। और जब तुम धीरे-धीरे खाते हो तभी तुम्हें स्वाद का पता चलता है। चीजें केवल निगलते ही मत
जाओ। उनका स्वाद लो, जल्दी मत करो, और स्वाद ही हो जाओ। तुम मिठास को अनुभव करो मिठास ही हो जाओ। तब सारे शरीर में इसे अनुभव किया जा सकता है- केवल मुंह में नहीं, केवल जीभ पर ही नहीं। पूरे शरीर में स्वाद की अनुभूति होगी। एक विशेष मिठास की तरंगे फैल रही है... या किसी और की। जो भी तुम खा रहे हो
उसके स्वाद को महसूस करो और स्वाद ही हो जाओ। यही कारण है कि तंत्र दूसरी धार्मिक परंपराओं के इतना उलट है।

जैन कहते हैं '' अस्वाद''। महात्मा गांधी के आश्रम में यही नियम था: ''अस्वाद किसी चीज का स्वाद मत लो। खाओ पर स्वाद न लो स्वाद को भूल ही जाओ। खाना एक आवश्यकता है इसे यंत्रवत पूरा करो। स्वाद तृष्णा है इसलिए स्वाद मत लो। तंत्र कहता है ''जितना संभव हो उतना स्वाद लो; ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील बनो
जीवंत बनो।''

अस्वाद से तुम्हारी इंद्रियां मर जाएगी। उनकी संवेदन शक्ति कम होती जाएगी। और कम संवेदन शक्ति से तुम अपने शरीर को अनुभव नहीं कर सकोगे, तुम अपने अनुभूतियों को अनुभव न कर सकोगे। तब तुम केवल विचारों में केंद्रित हो जाओगे। विचारों में केंद्रित होना खंडों में विभाजित हो जाना है।
तंत्र कहता है ''अपने भीतर कोई विभाजन मत निर्मित करो। स्वाद लेना सुंदर है संवेदनशील होना सुंदर है। जितने अधिक तुम संवेदनशील हो अनुभवग्रही हो, उतने ही अधिक जीवंत हो जाओगे और जितने जीवंत हो उतना ही जीवन तुम्हारे अंतरतम में प्रवेश कर जाएगा। तुम अधिक खुल जाओगे।''
तुम बिना स्वाद लिए चीजें खा सकते हो यह बहुत कठिन नहीं। ऐसा भी हो सकता है कि तुम किसी को छूकर भी न छ सको, यह कठिन नहीं है। हम ऐसा ही कर रहे हैं। तुम किसी से हाथ मिलाते हो बिना उसे स्पर्श किए क्योंकि स्पर्श करने के लिए तुम्हें हाथों तक आना पड़ता है- जैसे तुम, तुम्हारी आत्मा हाथ में आ गई हो। सिर्फ तभी तुम स्पर्श कर सकते हो। तुम किसी का हाथ अपने हाथ में ले सकते हो और स्वयं को वहां से हटा सकते हो तब वहां एक मृत हाथ होगा। वह स्पर्श कर रहा है ऐसा प्रतीत होता है लेकिन वह स्पर्श नहीं कर रहा।
हम स्पर्श नहीं कर रहे! हम किसी को छूने से भी डरते हैं क्योंकि छूना प्रतीकात्मक रूप से कामुकता है। तुम भीड़ में खड़े हो, ट्रेन में खड़े हो, कई लोगों से छ रहे हो लेकिन तुम उन्हें नहीं छ रहे और न वे तुम्हें छ रहे हैं। केवल शरीर स्पर्शित हो रहें है लेकिन तुम वहां से हट गए हो। तुम अंतर महसूस कर सकते हो। यदि भीड़ में तुम वास्तव में किसी को छ रहे हो तो वह बुरा मान जाएगा। तुम्हारा शरीर छ सकता है लेकिन तुम्हें शरीर में नहीं होना चाहिए। तुम एक ओर अलग खड़े रहो जैसे तुम शरीर में नहीं हो केवल एक मृत शरीर छ रहा है।
यह संवेदनहीनता बुरी है। यह बुरी इसलिए है क्योंकि तुम जीवन के विपरीत अपना बचाव कर रहे हो। हम मृत्यु से इतना भयभीत है और सच्चाई यह है कि हम मरे ही हुए हैं। वैसे हमें भयभीत होने की जरूरत नहीं क्योंकि कोई भी मरने वाला नहीं है- तुम पहले ही मरे हुए हो। और इसीलिए हम डरते हैं क्योंकि हम जिए ही नहीं। हम
जीवन को चूकते रहे हैं और मृत्यु आ रही है।

जो व्यक्ति जीवित है वह मौत से डरेगा नहीं क्योंकि वह जीवन जी रहा है। जब तुम सच्चे अर्थों में जी रहे हो तब मौत का कोई डर नहीं। तुम मौत को भी जी सकते हो। जब मौत आएगी, तुम इतने संवेदी, इतने अनुभव ग्राही होओगे कि उसका भी आनंद उठा सकोगे। यह एक महान अनुभव होगा। अगर तुम जीवित व्यक्ति हो तुम मौत को
भी जी सकते हो, और तब मौत वहां होगी ही नहीं। अगर तुम मौत को भी जी सको मर रहे शरीर के प्रति भी संवेदी हो सको, और तुम अपने केंद्र को लौट रहे हो और विलीन हो रहे हो, अगर तुम इसको भी जी सको तो तुम अमर हो गए।

खाते या पीते समय खाद्य या पेय पदार्थ का स्वाद ही हो जाओ और भर जाओ... और स्वाद से भर जाओ पानी पीते समय ठंडक को महसूस करो। अपनी आंखों बंद कर लो... धीरे-धीरे पीओ स्वाद लो। ठंडक महसूस करो और महसूस करो कि तुम ठंडक ही हो गए हो--क्योंकि पानी से ठंडक तुम तक पहुंच रही है। वह तुम्हारे शरीर का
अंग बन रही है। तुम्हारे ओंठ इसे स्पर्श कर रहे हैं तुम्हारी जिह्वा इसे छ रही है और ठंडक पहुंच रही है। इसे सारे शरीर में होने दो। इसकी तरंगों को फैलने दो और तुम सारे शरीर में एक ठंडक अनुभव करोगे। इस तरह तुम्हारी संवेदनशीलता बढ़ सकती है; और तुम अधिक जीवंत हो सकते हो और ज्यादा भर सकते हो।

हम कुंठित व्यक्ति हैं एक खालीपन महसूस करते हैं और कहे चले जाते हैं कि जीवन खोखला है। लेकिन हम ही इस खालीपन के जिम्मेवार हैं। न तो हम इसे भर रहे हैं और न ही इसे भरने देते हैं। हमने सुरक्षा के लिए एक कवच पहन रखा है हम असुरक्षित होने से डरते हैं इसलिए हम अपने को सबसे बचाते चले जाते हैं। और तब हम एक कब बन कर रह जाते हैं- एक मृत वस्तु।
तंत्र कहता है ''जीवंत बनो, अधिकाधिक जीवंत क्योंकि जीवन ही परमात्मा है। जीवन के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है। अधिकाधिक जीवंत बनो और तुम और अधिक दिव्य हो जाओगे। समग्र रूपेण जीओ और तब तुम्हारे लिए कोई मृत्यु नहीं होगी।''

आज इतना ही



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