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शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

बोध कथा-08

बोध कथा-आठवी--(ओशो) 

एक मित्र ने पूछा है ‘समाज में इतनी हिंसा क्यों हैं?’
हिंसा के मूल में महत्वाकांक्षा है। वस्तुतः तो महत्वाकांक्षा ही हिंसा है। मनुष्य चित्त दो प्रकार का हो सकता है। महत्वाकांक्षी और गैर-महत्वाकाक्षी। महत्वाकांक्षी-चित्त से राजनीति जन्मती है और गैर-महत्वाकांक्षी-चित्त से धर्म का जन्म होता है। धार्मिक और राजनैतिक--चित्त के ये दो ही रूप हैं। या कहें कि स्वस्थ और अस्वस्थ।
स्वस्थ चित्त में हीनता नहीं होती है। और जहां आत्महीनता नहीं है, वहां महत्वाकांक्षा भी नहीं हैं। क्योंकि, महत्वाकांक्षा आत्महीनता के बोध को मिटाने के प्रयास से ज्यादा और क्या है? लेकिन, आत्महीनता ऐसे मिटती नहीं हैं और इसलिए महत्वाकांक्षा का कहीं अंत नहीं आता है। आत्महीनता का अर्थ है आत्मबोध का अभाव। स्वयं को न जानने से ही वह होती है।
आत्म-अज्ञान ही आत्महीनता है। क्योंकि जो स्वयं को जान लेता है, वह सब प्रकार की हीनताओं और महानताओं से मुक्त हो जाता है। ऐसी स्थिति ही स्वस्थ स्थिति है। स्वस्थ यानी स्वयं में स्थित।
और जो स्वयं में नहीं है वही अस्वस्थ है। और जो स्वयं में नहीं होता है, वह निरंतर पर से तुलना में रहता है। पर से जो तुलना है, उसी से हीनभाव और फिर महत्वाकांक्षा का निर्माण होता है। और महत्वाकांक्षा द्वंद्व और हिंसा में ले जाती है। राजनीति इसका साकार रूप है। इसलिए ही राजनीति से विनाश फलित होता है।
स्वस्थ चित्त से होता है सृजन। अस्वस्थ चित्त से विनाश। मनुष्य का दुख यही है कि वह अब तक राजनैतिक चित्त के घेरे में ही जिया है। और धार्मिक चित्त को हम पैदा नहीं कर पाए हैं। धर्म के नाम पर कई संगठन और संप्रदाय हैं, वे भी सब राजनैतिक ही हैं। इससे ही इतनी घृणा है, हिंसा है और इतने युद्ध हैं। और इससे ही जीवन इतना अशांत, अराजक और विक्षिप्त है।

एक छोटी सी नाव में बैठे तीन व्यक्ति विवाद कर रहे थे। उनकी चर्चा का विषय था कि पृथ्वी पर सबसे पहले उनमें से किसका व्यवसाय प्रारंभ हुआ? उनमें से एक सर्जन था, दूसरा इंजीनियर और तीसरा राजनैतिक। सर्जन ने कहा ‘बाइबिल कहती है कि ईव का निर्माण आदम की एक पसली को निकाल कर किया गया था। और क्या इससे यह सिद्ध नहीं हो जाता कि शल्य चिकित्सक का व्यवसाय सर्वाधिक प्राचीन है?’
इस पर इंजीनियर मुस्कुराया और बोला ‘नहीं, साहब, नहीं। उसके भी पूर्व जबकि सब ओर मात्र अराजकता थी, उस अराजकता में से ही पृथ्वी का निर्माण केवल छः दिनों में किया गया था। वह चमत्कार इंजीनियरिंग का ही था। और अब क्या और भी प्रमाणों की आवश्यकता है यह सिद्ध करने को कि मेरा ही व्यवसाय प्राचीनतम है?’
राजनीतिज्ञ अब तक चुप था। वह हंसा और बोला ‘लेकिन मेरे मित्र, यह भी तो बताओ कि अराजकता किसने पैदा की थी?’

वह अराजकता आज भी है। और उसको पैदा करने वाला चित्त भी है। और, शायद वह चित्त अपने चरम विकास को भी पहुंच गया है। वह चित्त युद्ध पर युद्ध पैदा करता आया है। कहते हैं कि विगत 3 हजार वर्षों में सारी पृथ्वी पर कोई 15 हजार युद्ध उसने पैदा किए हैं। और अब वह अंतिम युद्ध की तैयारी कर रहा है। अंतिम इसलिए नहीं कि फिर मनुष्य युद्ध नहीं करेगा, अंतिम इसलिए कि फिर मनुष्य के बचने की कोई संभावना ही नहीं हैं।
लेकिन मैं पूछता हूं कि क्या मनुष्य को युद्धों से नहीं बचाया जा सकता है? क्या जागतिक आत्मघात अपरिहार्य है?
नहीं, मनुष्य को निश्चित ही बचाया जा सकता है। लेकिन सवाल युद्धों का नहीं, सवाल राजनैतिक चित्त से मुक्ति का है। राजनैतिक चित्त से मुक्त हुए बिना मनुष्यता इस अस्वस्थ स्थिति से मुक्त नहीं हो सकती है।

ओशो 

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