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शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

03-बाबा मलूक दास-(ओशो)

भारत के संत-ओशो

राम दुवारे जो मरे-(बाबा मलूक दास) 

      बाबा मलूक दास, यह नाम ही ऐसा प्‍यारा है, तन मन-प्राण में मिसरी घोल दे। ऐसे तो बहुत संत हुए है, सारा आकाश संतों के जगमगाते तारों से भरा है। पर मलूक दास की तुलना किसी और से नहीं की जा सकती। मूलक दास बेजोड़ है। उनकी अद्वितीयता उनके अल्‍हड़पन में है—मस्‍ती में है, बेखुदी में। यह नाम मलूक का मस्‍ती का पर्यायवाची हो गया। इस नाम में ही कुछ शराब है। यह नाम ही दोहराओं तो भीतर नाच उठने लगे।
      मलूक दास ने तो कवि थे, न दार्शनिक है, न धर्मशास्‍त्री है। दीवाने है। परवाने है । और परमात्‍मा को उन्‍होंने ऐसे जाना है जैसे परवाना शमा को जानता है। यह पहचान बड़ी और है। दूर-दूर से नहीं, परिचय मात्र नहीं है वह पहचान—अपने को गंवा कर, अपने को मिटा कर होती है। राम दुवारे जो मरे। राम के द्वारे पर मर कर राम को पहचाना है। कवि हो जाये। लेकिन मलूक की मस्‍ती सस्‍ती बात नहीं है। महंगा सौदा है। सब कुछ दांव पर लगाना पड़ता है। जरा भी बचाया तो चूके। रति भी बचाया तो चूके। निन्यानवे प्रतिशत दांव पर लगाया और एक प्रतिशत भी बचाया तो चूक गए।
क्‍योंकि उस एक प्रतिशत बचाने में ही तुम्‍हारी बेईमानी जाहिर हो गयी। निन्‍न्‍यानवे प्रतिशत दांव पर लगाने में तुम्‍हारी श्रद्वा जाहिर न हुई। मगर एक प्रतिशत बचाने में तुम्‍हारा काइयाँपन जाहिर हो गया। दांव तो हो तो सौ प्रतिशत होता है; नहीं तो दांव नहीं होता,दुकानदारी होती है।
      मलूक के साथ चलना हो तो जुआरी कि बात समझनी होगी। दुकानदार की बात छोड़ देनी होगी। यह दांव लगाने वालों की बात है—दीवानों की।/ धर्म शास्‍त्री नहीं है। नहीं समझ में पड़ता कि वेद पढ़े होंगे। नहीं समझ में पड़ता की उपनिषद जाने होंगे। लेकिन फिर भी वेदों का जो राज है और उपनिषदों का जो सार है, वह उनके प्राणों से बिखरता है। वेद जानकर कभी किसी ने वेद जाने स्‍वयं को जानकर वेद जाने जाते है। चार वेद नहीं है—एक ही वेद है। वह तुम्‍हारे भीतर; वह तुम्‍हारे चैतन्‍य का है। और एक सौ आठ उपनिषद नहीं है। एक ही उपनिषद है, और उपनिषद शास्‍त्र नहीं है; स्‍वयं की सत्‍ता है।
      मूलक दास ज्ञानी नहीं थे। पंडित नहीं है। मलूक दास से पहचान करनी हो तो मंदिर को मधुशाला बनाना पड़े। तो पूजा पाठ से नहीं होगा। औपचारिक आडम्‍बर से परमात्‍मा नहीं सधेगा। हार्दिक समर्पण चाहिए। समर्पण—जो कि समग्र हो , समर्पण ऐसा कि झुको तो फिर उठो नहीं। उसके द्वार पर झुक गये तो फिर उठना कैसा। जो काबा से लौट आता है। वह काबा गया ही नहीं। जो मंदिर से वापिस आ जाता है। वह कही गया होगा मंदिर नहीं गया।
      मूलक दास के जीवन के संबंध में कुछ बातें जान ले। वे प्रतीकात्‍मक है। समझ लेने जैसी है। ऊपर से तो नहीं दिखायी पड़ती कि बहुत कीमती है, लेकिन अगर उन प्रतीकों के भीतर प्रवेश करोगे के भीतर प्रवेश करोगे तो जरूर बड़े राज , बड़े रहस्‍यों के द्वार खुलेंगे।
      जो पहली घटना उनके संबंध में ज्ञात है। वह यह है कि बचपन से ही एक अजीव सी आदत उन्‍हें थी। रास्ते पर कोई कांटा पडा मिल जाये तो हजार काम छोड़कर पहले उस कांटे को हटाते। छोटे थे तब से, कूड़ा-करकट कहीं पडा मिल जाये.......ओर भारत के रास्‍ते कूड़ा-कर्कटक की कोई कमी है। कांटों की कमी है। काम के लिए भेजा जाता तो घंटो लग जाते, क्‍योंकि पहले वे रास्‍ता साफ करें, कूड़ा करकट हटाये, कांटे बीनें। कभी-कभी सुबह घर से भेजे जाएं कि जाकर बाजार से सब्‍जी ले आओ, सांझ लौटें। दिन भर मां उनकी राह देखे कि तुम रहे कहां,गये कहा थे। तो वे कहते: और भी जरूरी काम आ गये, सब्‍जी से भी ज्‍यादा जरूरी काम आ गया, रास्‍ते पर कांटे थे कूड़ा करकट था उसे बीना,हटाया।
      ऐसे तो यह छोटी सी बात है, लेकिन छोटी नहीं है। जीवन भर भी यही किया—लोगों के रास्‍तों पर से कांटे बीनें। लोगो के जीवन से कांटे लोगों के मनों से भरा हुआ कूड़ा-कचरा साफ किया। पूत के लक्षण पालने में।
      एक सद गुरू ने यह उन्‍हें करते देखा था कि वे रास्‍ते पर कांटे बीन रहे हे, कूड़ा-करकट बीन रहे है।  तो वह सद गुरू उनके पीछ हो लिया। दिन भर इस छोटे से बच्‍चे की यह अदभुत जीवनशैली देखता रहा। सांझ को लौटकर उसने मलूक दास के पिता सुंदर दास को कहा: धन्‍य भागी हो तुम। तुम्‍हारे घर एक सद गुरू पैदा हुआ है।
      सुंदर दास ने तो सर ठोक लिया। सुंदर दास ने कहा: हम परेशान है इस सद्गुरू से।  किसी काम का नहीं। छोटे-मोटे काम को भेजो, दिन-भर व्‍यतीत हो जाता है। लौटता ही नहीं। यह तो किसी भंगी के घर पैदा होता तो अच्‍छा था। यह पिछले जन्‍म का भंगी होगा। इसको पता नहीं क्‍या धुन है, मारा, पिटा, धमकाया, सब तरह से समझाया कि यह काम अपना नहीं है। तुझे क्‍या लेना देना है। और कुछ करना है कि रास्‍ते ही साफ करते रहने है?
      मगर छोटा सा बच्‍चा मलूक दास हंसता ओ यह कहता कि यह काम जिन्‍दगी भर मुझे करना है, सो अभ्‍यास करते रहने है।
      लेकिन उस सद्गुरू ने कहा कि मत, मत ऐसा बात कहां। तुम्‍हें पता नहीं तुम क्‍या कह रहे हो। तुम्‍हारे घर ज्‍योति उतरी है। अभी कुछ और नहीं कर सकता छोटा बच्‍चा है, तो बाहर का कूड़ा-कचरा साफ कर रहा है। जल्‍दी ही यह भीतर का कूड़ा कचरा साफ करेगा। बहुत लोगों के जीवन इसके कारण स्‍वच्‍छ और निर्मल होंगे। और देखते ही—सद गुरू ने कहा—यह आजानुबाहु है। इसकी बहाएं कितनी लम्‍बी है। घुटनों तक पहुँचती है। यह तो चक्रवर्ती सम्राट होगा और या एक अद्भुत बुद्ध पुरूष
      यह दुनिया बडी अद्भुत है इसका गणित अनोखा है। यहां जो समझदार साबित होने चाहिए, समझदार साबित नहीं होते। बड़े नासमझ सिद्ध होते है। यहां नासमझ समझदार सिद्ध हो जाते है।
      मलूक दास की गिनती तुम ना समझो में मत करना। उन्‍होंने मालिक को पा लिया और सब पा लिया।
      यह तो बचपन की पहली घटना मलूक दास के संबंध में ज्ञात है कि वे कूड़ा कचरा रास्‍तों से साफ कर देते थे। और एक सद्गुरू ने कहा था उनके पिता को कि घबडाओं मत चिंतित मत होओ तुम्‍हारे घर ज्योति उतरी है; यह बहुतों के जीवन के कूड़ा कचरा दूर करेगा। यह तो केवल बाहर की सूचना दे रहा है। अभी यह प्रतीक वत है।
      दूसरी घटना बचपन के संबंध में—जो रोज-रोज घटती थी, जिससे मां बाप परेशान हो गये थे। वह थी: साधु सत्‍संग। कोई आ जाये साधु कोई आ जाये संत, फिर मलूक दास घर की सुध-बुध भूल जाते। दिनों बीत जाते, घर न लोटते, साधु-संग में लग जाते। घर में जो भी होता साधुओं को दे आते। साधुओं को तो बहुत लोगों ने दिया है। लेकिन जिस ढंग से मलूक दास ने दिया है वैसा किसी ने शायद ही दिया हो। चोरी करके देते। मां-पिता आज्ञा न दें तो घर में से ही चोरी करके, जब रात सब सोये होते, अपने ही घर की चीजें चुराकर साधुओं को दे आते। क्‍योंकि कोई साधु है जिसके पास कम्‍बल नहीं है और सर्दी लगी है उसे और कोई साधु है जिसके पास छाता नही है और वर्षा सिर पर खड़ी है। तो चोरी करके भी बांटते।
      कभी-कभी चोरी भी पुण्‍य हो सकती है। इसीलिए तुमसे कहाता हूं: कृत्‍य नहीं होते पाप और पुण्‍य—कृत्‍यों के पीछे छिपे हुए अभी प्राय। कभी पुण्‍य भी पाप हो सकता है। कभी पाप भी पूण्‍य हो सकता है। जीवन का गणित पहेली जैसा है। सीधी रेखा नही है। जीवन के गणित की कोई नहीं का सकता कि यह ठीक और ऐसा करोगे तो गलत सब कुछ निर्भर करता भीतर की अभीप्‍सा पर। अभी प्राय पर। अब चोरी को कौन पुण्‍य कहेगा। अब मूलक दास की चोरी को मैं कैसे पाप कहूं। मूलक दास की चोरी काक पान नहीं कहा जा सकता। और तुम चोरी भी न करो तो भी क्‍या पुण्‍य हो रहा है। तुम दान भी देते हो तो पाप हो जाता है ; क्‍योंकि मंदिर के द्वार पर भी तुम अपना पत्‍थर लगवा देते हो।
      कुछ चमत्‍कारों की भी घटनायें बाबा मलूक दास के संबंध में जुड़ी है। वैसी घटनाएं करीब-करीब अनेक संतों के साथ जुड़ जाती है। उनके जुड़ जाने के पीछे राज है। उनको तथ्‍य मत समझना। तथ्‍य समझा तो भ्रांति हो जाती है। उनको केवल संकेत समझना। वे सांकेतिक है। जैसे जीसस के संबंध में कथा है कि उन्‍होंने लजारस को मुर्दे से जिला दिया। वापस बुला लिया। वैसी ही कहानी मलूक दास के संबंध में है कि अपने एक शिष्‍य को उन्‍होंने मौत की दुनिया से वापिस बुला लिया था।
      मूलक दास ने किसी शिष्‍य को, मर गया था और जिन्‍दा कर लिया। फिर मलूक दास कहां है? वे भी मर गये। खुद मरते वक्‍त याद न रही अपनी कला, अपना चमत्‍कार, नहीं ये ऐतिहासिक तथ्‍य नहीं है। और जो उनको ऐतिहासिक तथ्‍य मानते है वे बहुत भंयकर भूल कर रहे है। चाहे वे सोचते हों कि हम भक्‍त है, लेकिन वे भक्‍त नहीं है। वे हानि पहुंचाते है। इसी तरह की बातों के कारण धर्म असत्‍य मालूम होने लगता है। धर्म के साथ अगर तुम इस तरह की बातें जोड़ दोगे, तो ये बातें असत्‍य है, इनके साथ धर्म की नाव भी डूब जायेगी। असत्‍य के साथ धर्म को मत जोड़ना।
      लेकिन इस तरह की कहानियों में सार बहुत है।
      सद्गुरू तुम्‍हें पुकारता है तुम्‍हारी कब्र से—उठो, जागों  वह पुकारता है। उसकी पुकार अगर तुम सुन लो तो तुम्‍हारी बहरापन खो जाये। उसका स्‍पर्श तुम अनुभव कर लो तो तुम्‍हारी बंध आंखें खुल जाये। ये सिर्फ प्रतीक है इस बात के कि तुम्‍हारी यह सम्‍भावना है, किसी गुरु के सान्‍निध्‍य में सत्‍य बन सकती है। तुम लंगड़े नहीं हो, तुम जीवन के परम शिखर पर चढ़ने योगय हो।
      शिष्‍य मुर्दा है। सद्गुरू मुद्रों को जगाता है। मगर ये ऐतिहासिक तथ्‍य नहीं है। वे सांकेतिक तथ्‍य है। इनमें बड़ा काव्‍य छिपा है और बड़े रहस्‍य भी ये तथ्‍य नहीं है। तथ्‍य तो दो कोड़ी के होते है। सत्‍यों का मूल्‍य होता है। लेकिन सत्‍य को कहें कैसे, हमारी भाषा नपुंसक है सत्‍य प्रगट नहीं कर पाती। कथाएं चुननी पड़ती है। उँगली उठानी पड़ती है चाँदकी तरफ पर हम ना समझ ऊंगली को ही पकड़ लेते है। चाँद को भूल ही जाते है।

ओशो

(राम दुवारे जो मरे)

प्रवचन  पहला, 11नवम्‍बर 1979;

श्री रजनीश आश्रम;  पूना

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