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मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-04)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो
  

प्रवचन-चौथा-( कुंडलिनी:योग उदगम की ओर वापसी) 

(The Psychology of The Esoteric)--का हिन्दी रूपांतरण है)

 पहला प्रश्न--ओशो कुंडलिनी क्या है? कुंडलिनी योग क्या है और
कुंडलिनी योग पश्चिम की सहायता कैसे कर सकता है?
और कुंडलिनी जागरण की आपकी विधियां परंपरागत
नियंत्रित विधियों के स्थान पर अराजक क्यों हैं?

अस्तित्व ऊर्जा है ऊर्जा अनेक ढंगों और अनेक रूपों में गति है। जहां तक मनुष्य के अस्तित्व का प्रश्न है कुंडलिनी उनमें से एक है। कुंडलिनी मनुष्य के मनस और मनुष्य के शरीर की केंद्रीभूत ऊर्जा है।
ऊर्जा या तो अप्रकट रह सकती है या प्रकट। यह बीज में रह सकती है, या यह प्रकट रूप में अभिव्यक्त हो सकती है। प्रत्येक ऊर्जा या तो बीज में है या प्रकट रूप में है। कुंडलिनी का अभिप्राय है तुम्हारी समग्र क्षमता, तुम्हारी संपूर्ण संभावना। लेकिन यह बीज नहीं है यह संभावना है। यह साकार हो सकती है लेकिन यह साकार नहीं है। कुंडलिनी पर कार्य करने की विधियां तुम्हारी क्षमता को साकार करने की विधियां हैं।

इसलिए पहली बात, कुंडलिनी कोई अनोखी वस्तु नहीं है। यह तो बस मानवीय ऊर्जा ही है। किंतु आमतौर पर यह सक्रिय नहीं होती, या इसका केवल एक भाग एक बहुत छोटा हिस्सा ही कार्यरत होता है। और यह भाग भी लयबद्धता से कार्य नहीं कर रहाहै, यह संघर्ष में है। यही विषाद है यही संताप है। अगर तुम्हारी ऊर्जा लयबद्धता में कार्य कर सके तो तुम आनंद अनुभव करोगे, किंतु अगर यह संघर्ष में हो-- अगर यह स्वयं अपने ही विरोध में हो--तब तुम संताप अनुभव करोगे। समस्त संताप का अर्थ है कि तुम्हारी ऊर्जा संघर्ष में है और सारी प्रसन्नता सारे आनंद का अर्थ है कि तुम्हारी ऊर्जा लयबद्धता में है।
समस्त ऊर्जा मात्र संभावना ही क्यों है, वास्तविक क्यों नहीं है? पहली बात जहां
तक दिन प्रतिदिन के जीवन का प्रश्न है, इसकी जरूरत नहीं होती। पूरी क्षमता की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसे कोई चुनौती नहीं मिलती, इसकी जरूरत नहीं पड़ती। केवल वह भाग जिसकी जरूरत होती है, चुनौती पाता है और सक्रिय हो जाता है। दिन प्रतिदिन का जीवन इसके लिए चुनौती नहीं है, इसलिए एक बहुत छोटा सा हिस्सा प्रकट हो पाता है। यह भाग भी लयबद्ध नहीं है। यह दोहरे ढंग से संघर्ष में है- एक संघर्ष इसके भीतर है, इसके अंदर ही द्वंद है। यह समग्र नहीं है, क्योंकि तुम्हारा दिन-प्रतिदिन का जीवन समग्र नहीं है।
तुम्हारी आवश्यकताओं में संघर्ष है। जरूरतों में संघर्ष है। तुम्हारा समाज एक चीज की माग करता है तुम्हारी मूल प्रवृत्तियां किसी उलटी चीज बिलकुल विपरीत की मांग करती हैं। सुबह एक चीज की मांग होती है दोपहर के बाद तुम इससे बिलकुल उलटी चीज चाहने लगते हो। तुम्हें अब वही चाहिए...दिन-प्रतिदिन की मांगों में संघर्ष है। समाज की जरूरतों और प्राकृतिक जरूरतों में संघर्ष है। समाज और उसकी जरूरतें, नैतिकता, धर्म और उनकी जरूरतें- वे कभी लयबद्ध समग्रता की खोज में नहीं हैं। वे आशिक हैं। अपने आप में प्रत्येक बात अर्थपूर्ण है लेकिन मनुष्य की जैविक एकता के संदर्भ में ऐसा नहीं है।
तुम्हारी पत्नी को तुमसे कोई चीज चाहिए तुम्हारी मां को तुमसे इसकी उलटी चीज चाहिए। तब दिन प्रतिदिन का जीवन तुम्हारे लिए परस्पर विरोधी मांग बन जाता है। वह भाग वह छोटा सा भाग जो तुम्हारे भीतर मूर्तमान हो जाता है वह ऊर्जा वह क्षमता जो साकार हो जाती है- खंडित है अपने साथ संघर्ष में है।
संघर्ष और विरोधों का यह एक तल है। दूसरा तल है वह भाग जो प्रकट हो चुका है सदा उस भाग के साथ जो अभी तक प्रकट नहीं हो पाया है संघर्ष में रहेगा, वास्तविक सदा संभावित के साथ संघर्ष में संलग्न रहेगा, क्योंकि संभावित अपने आप को अभिव्यक्त करना चाहेगा, और वास्तविक इसका दमन करेगा।
मनोवैज्ञानिक शब्दों में कहें तो अचेतन सदा चेतन के साथ संघर्ष में रहेगा। चेतन इस पर मालकियत करने का प्रयास करेगा क्योंकि संभावित से और इसकी अभिव्यक्त होने की अभिलाषा से चेतन सदा खतरे में है क्योंकि चेतन सदा नियंत्रित है और संभावित नहीं है अचेतन नियंत्रण में नहीं है। तुम चेतन को व्यवस्थित कर सकते हो, किंतु अचेतन के विस्फोट के साथ तुम असुरक्षित हो जाओगे। तुम इसे सम्हालने योग्य नहीं रहोगे। यही भय है चेतन को यह भय है--छोटा भाग सदा बड़े भाग से जो अचेतन है और जिसको दबा दिया गया है भयभीत है। इसलिए एक और संघर्ष है-- और बड़ा और जीवंत और गहरा संघर्ष--यह चेतन और अचेतन के बीच है उस ऊर्जा का जो प्रकट हो चुकी है उस ऊर्जा के साथ संघर्ष जो प्रकट होना चाहती है।
ये दो संघर्ष, इन दो संघर्षों के कारण ही तुम लयबद्ध नहीं हो। और अगर तुम जयबद्ध नहीं हो, तो तुम्हारी ऊर्जाएं तुम्हारी शत्रु बन जाएंगी। ऊर्जा को गति चाहिए और गति सदा अप्रकट से प्रकट की ओर बीज से वृक्ष की ओर होती है। यह सदा अंधकार से प्रकाश की ओर होती है।
ऊर्जा को गति चाहिए और गति केवल तभी संभव है जब कोई दमन न हो। अन्यथा गति लयबद्धता, विनष्ट हो जाती है और तुम्हारी ऊर्जाएं तुम्हारे विरोध में शत्रु हो जाती हैं। तब तुम अपने ही विरोध में बंटे हुए एक घर हो जाते हो तब तुम जैविक इकाई नहीं रहते तुम भीड़ बन जाते हो। तब तुम एक नहीं रहे, तब तुम अनेक हो जाते हो।
मनुष्य के अस्तित्व की यह अवस्था है। इसे ऐसा नहीं होना चाहिए, इसी के कारण इतनी कुरूपता है, और इतना संताप है। सारा आनंद जो संभव है और सारा सौंदर्य जिसकी संभावना है, केवल तभी आ सकते हैं, जब तुम्हारी जीवन ऊर्जा गति में हो और सरल गति में हो विश्रांत गति में हो अदमित अखंडित, समग्र हो, टुकड़ों में बंटी हुई न हो, अपने साथ संघर्ष में न हो, बल्कि एक और संयुक्त, परिपूरक, सहयोगी हो। अगर यह घटित हो जाता है तो यही है जिसे कुंडलिनी कहा जाता है।
अगर तुम्हारी ऊर्जाएं इस लयबद्ध जैविक एकता पर पहुंच जाएं तो योग की परिभाषिक शब्दावली में इसे कुंडलिनी कहा जाता है। यह बस एक तकनीकी शब्द भर है, तुम्हारी सारी ऊर्जाएं बिना किसी संघर्ष के एकता में, गति में लयबद्धता में हैं वे सहयोगी हैं परिपूरक हैं और जीवंत हैं। तब...तभी वहां पर रूपांतरण संभव है—अनूठा और अज्ञात।
जब ऊर्जाएं संघर्ष में होती हैं तो तुम उनसे बस छुटकारा पा लेते हो। जब तुम्हारी संघर्षरत ऊर्जाएं बाहर निकल जाती हैं, तब तुम आराम अनुभव करते हो। लेकिन जब भी तुम उनको बाहर फेंक देते हो, उनसे पीछा छुड़ा लेते हो, तुम्हें शांति मिलती है, तुमको आराम अनुभव होता है। केवल तब जब तुम्हारी ऊर्जाएं बाहर फेंक दी जाती हैं। और जब कभी तुम्हारी ऊर्जाएं बाहर फैंक दी जाती हैं तुम्हारा जीवन, तुम्हारी जीवंतता, तुम्हारी जीवन ऊर्जा अधोगामी या बहिर्गामी होती है--दोनों का अभिप्राय एक ही है।
अधोगामी गति बहिर्गामी गति है। और ऊर्ध्वगामी गति अंतर्गामी गति है। तुम्हारी ऊर्जाएं जितना अधिक ऊपर की ओर जाती हैं वे उतनी ही भीतर की ओर जाती हैं। तुम्हारी ऊर्जाएं जितना अधिक नीचे की ओर जाती हैं उतना ही वे बाहर की ओर जाती हैं। तुम अपनी ऊर्जाओं से केवल तभी छुटकारा पा सकते हो जब कि तुम उनको बाहर फेंक दो। यह बस तुम्हारे खुद के जीवन को बाहर फेंक देना है अपने आप को टुकड़ों में खंडों में किस्तों में फेंकने के समान है। यह आत्मघाती है।
लेकिन जब तक हमारी जीवन-ऊर्जाएं एक और लयबद्ध न हो जाएं और उनका प्रवाह अंतर्गामी न हो हम सभी आत्मघाती हैं। यह उसी प्रकार का है जैसे कि ऊर्ध्वगामी गति क्योंकि अंतर्गामी होना ही ऊर्ध्वगामी होना है जितना अधिक तुम भीतर जाते हो उतना ही अधिक तुम ऊपर जाते हो। ये दो आयाम नहीं है एक ही आयाम है—ऊपर और भीतर और दूसरी दिशा है--नीचे और बाहर। जब तक ऊर्जाएं समग्र नहीं होतीं तुम बस उनको बर्बाद कर रहे हो। लेकिन बर्बाद कर के बर्बादी के द्वारा तुम को राहत महसूस होती है।
निस्संदेह यह राहत क्षणिक ही होगी, क्योंकि तुम ऊर्जाओं के सतत स्रोत हो। वे फिर से आ जाएंगी। तुम एक प्रवाह हो, तुम जीवनी शक्तियों के प्रवाह हो। वे दोबारा आएंगी। वे तुम्हारे भीतर फिर से आ जाएंगी और तुम को उनसे दोबारा छुटकारा पाना पड़ेगा।
इसलिए जिसे हम सामान्यत: सुख के रूप में जानते हैं वह बस संघर्ष कर रही ऊर्जाओं को बाहर फेंक देना है। सुख का अभिप्राय है--तुम एक बोझ से मुक्त हो गए हो। इसलिए सुख सदा नकारात्मक होता है, यह कभी सकारात्मक नहीं होता। आनंद विधायक है। यह केवल तब आता है जब तुम्हारी ऊर्जाएं परितृप्त हों।
जब तुम्हारी ऊर्जाएं बाहर नहीं फेंकी जातीं हैं बल्कि उनमें भीतर की ओर खिलावट होती है, जब तुम अपनी ऊर्जाओं के साथ एक हो जाते हो और उनके साथ संघर्ष में नहीं होते, तब भीतर की ओर गति होती है। यह गति अंतहीन है क्योंकि अंदर की ओर कोई अंत नहीं है। यह गति जारी रहती है गहरी और गहरी और यह जितनी गहरी जाती है, उतनी अधिक आनंदपूर्ण और उतनी अधिक आह्वादपूर्ण होती जाती है।
इसलिए ऊर्जाओं की दो संभावनाएं हो सकती हैं। पहली है बस छुटकारा पा लेना, उन ऊर्जाओं को जो तुम पर बोझ बन गई थीं, जिनका तुम उपयोग नहीं कर सके थे, जिनके साथ तुम सृजनात्मक नहीं हो सकते थे जिनके साथ तुम एक और समग्र नहीं हो सकते थे इसलिए तुम्हें उनको खंडों में फेंकना पड़ेगा। मन की यह अवस्था कुंडलिनी विरोधी है। मनुष्यों की सामान्य दशा कुंडलिनी के प्रतिकूल है। यह ठीक ऐसा ही है कि शक्तियां केंद्र से परिधि की ओर जा रही हैं, यह गति परिधि उन्मुख है। कुंडलिनी का अर्थ इसका बिलकुल उलटा है। यह केंद्र उन्मुख है--शक्तियां परिधि से केंद्र की ओर आ रही हैं।
यह केंद्र कोई अंत नहीं है। केंद्र भी वैसा ही अनंत है, इतना जैसी कि परिधि है। अगर तुम अपनी ऊर्जाओं को बाहर की ओर फेंको तो वे और-और फैलती जाएंगी बाहर और बाहर, और इस विस्तार की कोई सीमा नहीं है। अगर ऊर्जाओं को भीतर की ओर गतिमान कर दिया जाए तो भी वहां कोई अंत नहीं है। लेकिन भीतर जाती हुई ऊर्जा की यह गति, यह केंद्राभिमुख गति आनंदपूर्ण है। बाहर की ओर गति दोनों है यह दोनों अनुभव देती है। क्षण भर के लिए यह प्रसन्नता देती है और स्थायी रूप से संताप। यह एक स्थायी संताप होगा। केवल कुछ अंतरालों में...और यह भी वास्तविक रूप से नहीं, बल्कि केवल तब जब तुम आशा करते हो, तुम अपेक्षा करते हो, तब प्रसन्नता का अंतराल। असली परिणाम तो सदा संताप ही है।
प्रसन्नता के क्षण बस अपेक्षा में आशा में, प्रतीक्षा में चाहत में स्वप्न में होते हैं। और जब तुम अपने बोझ से वास्तव में मुक्त हो गए हो तो मन की यह अवस्था पूरी तरह से नकारात्मक है। वहां प्रसन्नता जैसी कोई बात नहीं है बल्कि यह बस संताप की क्षणिक अनुपस्थिति है। यह अनुपस्थिति प्रसन्नता अल। प्रतीत होती है।
अन्य ऊर्जाएं बाहर की ओर प्रवाहित हो रही होंगी क्योंकि गति सदैव बनी रहती है। तुम्हारी दिशा परिधि की ओर है तो अन्य ऊर्जाएं वहां आ रही होंगी। और तुम अपना खुद का शत्रु पैदा कर रहे हो। तुम लगातार नई ऊर्जाएं पैदा कर रहे हो। जीवन का अर्थ यही है जीवन-शक्ति उत्पन्न करते रहने की क्षमता। जिस पल यह क्षमता चली जाती है तुम मृत हो। इसलिए तुम एक सतत दुविधा हो तुम एक सतत रचनात्मक शक्ति हो। लेकिन यह एक विरोधाभास है तुम ऊर्जा को उत्पन्न किए चले जाते हो और तुम यह नहीं जानते कि इसके साथ क्या करना है। जब यह निर्मित हो जाती है तुम इसे बाहर फेंक देते हो और जब यह निर्मित नहीं होती तुम पीड़ित अनुभव करते हो तुम बीमार अनुभव करते हो।
जिस पल जीवन-शक्ति निर्मित नहीं होती तुम बीमार अनुभव करते हो, लेकिन जब यह निर्मित होती है, तो पुन: तुम बीमार अनुभव करते हो। पहली बीमारी कमजोरी से आती है और दूसरी बीमारी आती है…उस ऊर्जा से जो तुम पर एक बोझ बन गई है। तुम इस योग्य नहीं थे कि इसे लयबद्ध कर सको इसे सृजनात्मक बना सको इसे आनंददायी बना सको। तुमने इसे निर्मित किया है और अब तुम यह नहीं जानते कि इसका क्या किया जाए, इसलिए तुम इसे बाहर फेंक देते हो बस इससे पीछा छुड़ा लेते हो। और तुम ही इसे निर्मित कर रहे हो। यह असंगत है लेकिन यही वह असंगतता है जिसे हम आम तौर से मानव अस्तित्व समझते हैं लगातार ऊर्जा निर्मित करते रहना और यह लगातार बोझ बनती जाती है। और तब तुम्हें इससे छुटकारा पा लेना पड़ता है।
यही कारण है कि कामवासना इतनी अधिक अर्थपूर्ण, इतनी महत्वपूर्ण हो गई है--क्योंकि यह तुम्हारे लिए ऊर्जा से छुटकारा दिलाने वाला सबसे बड़ा साधन सबसे बड़ा निकास द्वार है। अगर समाज समृद्ध हो जाता है तो तुम्हारे पास ऐसे और अधिक स्रोत हो जाते हैं जिनके माध्यम से ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है। तब तुम और अधिक कामुक हो जाते हो, क्योंकि तब तुम्हें और अधिक ऊर्जा से छुटकारा पाना पड़ता है; इसे लगातार निर्मित करते रहना और फेंकते रहना!
इसलिए अगर कोई व्यक्ति पर्याप्त बुद्धिमान पर्याप्त संवेदनशील है, तो वह इसकी सारी ऊब इसकी असंगता, इसकी सारी अर्थहीनता अनुभव कर लेगा। तब व्यक्ति को जीवन की प्रयोजनहीनता अनुभव में आएगी। क्या तुम ऊर्जा को उत्पन्न करके उसे बाहर फेंक देने वाले बस एक उपकरण हो? तब जीवन का अर्थ क्या है? फिर जीवित रहने की जरूरत ही क्या है? केवल एक उपकरण हो जाना जिसमें ऊर्जा निर्मित होती है एक यांत्रिक उपाय जिसमें ऊर्जा निर्मित की जाती है और बाहर फेंक दी जाती है? इसलिए कोई व्यक्ति जितना संवेदनशील होगा उतना ही वह इस बात को अनुभव करेगा--जीवन, जैसा कि यह है, जैसा कि इसे जीया जाता है, जैसा कि हम इसे जानते हैं, इसकी पूर्णत: अर्थहीनता।
कुंडलिनी का अभिप्राय है इस अर्थहीन स्थिति को अर्थपूर्ण स्थिति में परिवर्तित कर देना। कुंडलिनी का विज्ञान सबसे सूक्ष्म विज्ञानों में से एक है। क्योंकि जहां तक भौतिक विज्ञानों का संबंध है, उनका संबंध भी ऊर्जा से है, लेकिन पौद्‌गलिक ऊर्जा से मनस ऊर्जा से नहीं। योग का संबंध मनस ऊर्जा से है, जैसी यह है इसी से है। यह पराभौतिक का उसका, जो भौतिक विज्ञान से परे है--मनस ऊर्जा का विज्ञान है।
यह मनस ऊर्जा सृजनात्मक हो सकती है या विध्वंसात्मक हो सकती है। अगर इसका उपयोग न किया जाए तो यह विध्वंसात्मक हो जाती है। अगर इसका उपयोग कर लिया जाए तो यह सृजनात्मक हो जाती है। इसका उपयोग किया जा सकता है और इसे सृजनात्मक बनाया जा सकता है। इसको सृजनात्मक बनाने का उपाय है पहले यह समझ लेना है कि तुम्हें केवल खंड को नहीं जानना है। एक भाग को जान लिया गया है और तुम्हारी संभावना का शेष बचा हुआ वृहत्तर भाग अनजाना रह गया है--तो यह वह स्थिति नहीं है जो सृजनात्मक हो सके।
समग्र को जान लेना चाहिए। तुम्हारी समग्र संभावना को साकार कर लेना चाहिए। इस शेष संभावना को साकार कर लेने के लिए इसे वास्तविक बना देने के लिए इस को जाग्रत कर देने के लिए विधियां हैं। यह सो रही है ठीक वैसे ही जैसे कोई सर्प सो रहा हो। इसीलिए इसका नाम कुंडलिनी. सर्प की शक्ति सोता हुआ सर्प रखा गया है।
अगर तुमने कभी सांप को सोते हुए देखा हो, यह ठीक वैसा होता है जैसे कि मरा हुआ हो। इसमें जरा भी हलचल नहीं होती और यह कुंडलित होता है। तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि कोई सांप खड़ा हो सकता है लेकिन सांप खड़ा हो सकता है। यह अपनी पूंछ पर सीधा लंबवत खड़ा हो सकता है। सांप किसी ऊर्जा-पुंज की भांति खड़ा होता है। यही कारण है कि प्रतीकात्मक रूप से इसका उपयोग किया जाता रहा है। सर्प-शक्ति का प्रतीकात्मक रूप से प्रयोग किया जाता है। तुम्हारी जीवन-ऊर्जा कुंडलित और सुप्त है। किंतु यह खड़ी हो सकती है। और अगर यह अपनी संपूर्ण क्षमता को साकार कर सके जाग सके तो तुम रूपांतरित हो जाओगे।
जीवन और मृत्यु केवल ऊर्जा की दो अवस्थाएं हैं। जीवन का अर्थ है कार्य करती हुई ऊर्जा और मृत्यु का अर्थ है, निष्किय ऊर्जा। जीवन का अर्थ है जागी हुई ऊर्जा और मृत्यु का अर्थ है कि ऊर्जा फिर से सो गई है। इसलिए कुंडलिनी योग के अनुसार सामान्यत: तुम केवल आशिक रूप से जीवित हो। तुम्हारी ऊर्जाओं का एक भाग है जो जीवन में प्रकट हो चुका है। और यह बहुत छोटा भाग ही जीवित है। शेष भाग ऐसा है जैसे कि वह नहीं है।
लेकिन इसको जगाया जा सकता है। और ऐसी बहुत सी विधियां हैं जिनके माध्यम से कुंडलिनी योग संभावना को वास्तविक करने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए प्राणायाम यह उस सोई हुई ऊर्जा पर चोट करके उसे जगाने की विधियों में से एक है। श्वास के द्वारा चोट करना संभव है क्योंकि श्वसन-किया तुम्हारी जीवन-ऊर्जा—तुम्हारे प्राण तुम्हारी जीवंतता का मूलस्रोत--और तुम्हारे वास्तविक अस्तित्व के मध्य एक सेतु है। संभावना और यथार्थ के मध्य श्वास एक सेतु है।
जिस पल तुम अपनी श्वसन-प्रक्रिया बदलते हो तुम्हारा संपूर्ण ऊर्जा-तंत्र बदल जाता है। जब तुम सोए हो तो तुम्हारी श्वास-प्रक्रिया बदल जाती है। जब तुम जागे होते हो तो तुम्हारी श्वास-प्रक्रिया बदल जाती है। जब तुम क्रोधित होते हो तुम्हारी श्वास-प्रक्रिया और ढंग की होती है जब तुम प्रेम में होते हो तुम्हारी श्वास-प्रक्रिया और ढंग की होती है, जब तुम कामवासना के आवेग में होते हो, तुम्हारी श्वास-प्रक्रिया बिलकुल बदल जाती है क्योंकि मन की प्रत्येक भाव-दशा में तुम्हें जीवन-शक्ति की विभिन्न मात्राओं की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए तुम्हारी श्वास-प्रक्रिया बदल जाती है।
जब तुम क्रोधित होते हो तो तुम्हें परिधि पर अधिक ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। केंद्र से परिधि की ओर तुम्हें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अगर तुम खतरे में हो, या तुम्हें आक्रमण करना हो या तुम्हें अपने को बचाना हो--सीमाओं पर और अधिक ऊर्जा की आवश्यकता है तब केंद्र से ऊर्जा उस ओर दौड़ पड़ेगी।
यही कारण है कि क्रोध में तुम कांपने लगते हो। तुम्हारी आखें लाल हो जाती हैं। तुम्हारा रक्तचाप बढ़ जाएगा और तुम्हारी श्वास-प्रक्रिया वैसी हो जाएगी...जैसी श्वास-प्रक्रिया से ऊर्जा को केंद्र से परिधि की ओर जाने में मदद मिले। जब तुम कामावेग में होते हो तो तुम्हें ऊर्जा की जरूरत पड़ती है, परिधि की ओर अधिक ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। यही कारण है कि कामकृत्य के बाद तुम थका हुआ अनुभव करते हो क्योंकि तुमने अपने शरीर से ऊर्जा की एक बड़ी मात्रा--एक असाधारण मात्रा बाहर फेंक दी है।
क्रोध के बाद भी तुम थकान का अनुभव करोगे। किंतु प्रेम के क्षण के बाद तुम कभी थकान का अनुभव नहीं करोगे, तुम्हें ताजगी अनुभव होगी। प्रार्थनापूर्ण होने के बाद तुम ताजगी का अनुभव करोगे। क्यों? यह विपरीत अनुभव क्यों घटित हुआ? जब तुम प्रेमपूर्ण क्षण में होते हो तो परिधि पर ऊर्जा की कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि अब वहां पर आक्रमण या बचाव का प्रश्न ही नहीं है। वहां कोई असुरक्षा नहीं है वहां कोई खतरा नहीं है। तुम आराम से हो विश्रांत हो इसलिए ऊर्जा भीतर की ओर प्रवाहित होती है। जब ऊर्जा भीतर की ओर प्रवाहित होती है, तो तुम ताजगी अनुभव करते हो।
गहरी नींद के बाद तुम्हें ताजगी अनुभव होती है, क्योंकि ऊर्जा भीतर की ओर प्रवाहित होती है। जब कभी भी ऊर्जा भीतर की ओर प्रवाहित होती है, तुम्हें जीवंतता अनुभव होती है तुम्हें परितृप्ति अनुभव होती है। तुम्हें एक अच्छापन अनुभव होता है।
और ध्यान देने योग्य एक दूसरी बात जब कभी भी ऊर्जा भीतर की ओर जा रही होती है तुम्हारी श्वास एक अलग प्रकार की गुणवत्ता ग्रहण कर लेगी। यह विश्रांत, शिथिल लयबद्ध, तालबद्ध होगी। और कुछ ऐसे क्षण होंगे जब तुम इसको जरा भी अनुभव न कर पाओगे। कुछ ऐसे क्षण होंगे जब तुम्हें लगेगा जैसे कि यह रुक गई है। यह अति सूक्ष्म हो जाती है, क्योंकि ऊर्जा की आवश्यकता नहीं है इसलिए संपर्क तोड़ दिया गया है। अब ऊर्जा के बहिर्मुखी प्रवाह की आवश्यकता नहीं रही, इसका वह प्रवाह रोक दिया गया है।
समाधि में परमानंद में व्यक्ति को पूरी तरह से रुकेपन की अनुभूति होती है। भीतर की श्वास भीतर ठहर गई है, बाहर की श्वास बाहर ठहरी हुई है--और वहां पर एक अंतराल है। सभी कुछ ठहर गया है। ऊर्जा के किसी बहिर्मुखी प्रवाह की जरूरत नहीं होती, इसलिए श्वास अनावश्यक हो जाती है।
प्राणायाम के द्वारा इस ऊर्जा को जो प्रसुप्त है व्यवस्थित रूप से जगाया जाता है। योगासनों के द्वारा भी कुंडलिनी की संभावना को साकार किया जा सकता है क्योंकि तुम्हारे शरीर की मुद्राएं भी संबंधित हैं। ऊर्जा के स्रोत से तुम्हारा शरीर हर जगह से जुड़ा हुआ है। तुम खड़े होकर सो नहीं सकते-- तुम्हें यह कठिन प्रतीत होगा--लेकिन यदि तुम थके हुए हो और बहुत दिनों से सो नहीं पाए हो तो तुम खड़े होकर भी सो सकते हो। लेकिन शीर्षासन की अवस्था में उलटे खड़े होकर तुम नहीं सो सकते। शरीर की यह मुद्रा नींद की विरोधी है, क्योंकि रक्त का प्रवाह मस्तिष्क की ओर हो जाता है। यही कारण है कि नींद के लिए व्यक्ति तकियों का उपयोग करता है और कोई व्यक्ति जितना सभ्य और शिक्षित हो जाएगा उतने ही अधिक तकियों की जरूरत उसको पड़ेगी।
असभ्य आदिवासी लोगों को तकियों की जरूरत नहीं पड़ेगी--क्यों? क्योंकि अगर रक्त का प्रवाह तुम्हारे मस्तिष्क की ओर बना रहे और तुम्हारे मस्तिष्क को सक्रिय रहने की यांत्रिक आदत है और अगर रक्त की आपूइrत जारी रहती है तो यह कार्य करता चला जाएगा। तुम सो नहीं पाओगे। इसलिए तुम मुद्रा को बदल लेते हो। तकिया लगाना तुम्हारी मुद्रा को बदल लेना है। अब तुम्हारा सिर तुम्हारे शरीर के तल के समानांतर नहीं है, और सिर की ओर रक्त का प्रवाह कम हो जाएगा और उसकी सक्रियता समाप्त हो जाएगी।
तुम्हारे शरीर की प्रत्येक मुद्रा ऊर्जा के मूल-स्रोत पर अलग-अलग ढंग से प्रभाव डालती है, इसलिए योग आसनों का उपयोग करता है। उदाहरण के लिए, सिद्धासन, वह मुद्रा जिसे बुद्ध उपयोग करते हैं, पद्यासन है। यह मुद्रा उन मुद्राओं में से है जिनमें ऊर्जा की अल्प मात्रा की आवश्यकता होती है, जीवित रहने के लिए जरूरी थोड़ी सी मात्रा। शरीर की किसी भी और मुद्रा में अधिक ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। बुद्ध की मुद्रा सबसे कम ऊर्जा उपयोग करने वाली मुद्रा है। अगर तुम सीधे खड़े हो तो तुम अधिक ऊर्जा का उपयोग करते हो। अगर तुम बैठे हुए हो और तुम्हारी पीठ सीधी नहीं है तो तुम अधिक ऊर्जा का उपयोग करते हो क्योंकि गुरुत्व बल का खिंचाव होता है। लेकिन रीढ़ सीधी करके बैठना संतुलित बैठना है तुम पृथ्वी के साथ एक हो जाते हो। वहां पर कोई गुरुत्वीय खिंचाव नहीं होता। और अगर तुम्हारे हाथ और पैर इस स्थिति में हों कि एक वर्तुल निर्मित हो जाए तो जीवन-ऊर्जा जीवन-विद्युत एक वर्तुल में प्रवाहित होगी।
इसलिए बुद्ध की मुद्रा वृत्तीय मुद्रा है। ऊर्जा वृत्तीय हो जाती है यह बाहर नहीं फेंकी जाती है। ऊर्जा सदा हाथों या पैरों की अंगुलियों के माध्यम से बाहर निकलती है। गोल आकारों से ऊर्जा बाहर नहीं निकल सकती है। गोल आकार ऊर्जा के निकास-द्वार नहीं बन सकते हैं। यही कारण है कि स्त्रियों में बीमारी के प्रति अधिक प्रतिरोध-शक्ति होती है, वे थकावट के प्रति अधिक समर्थ हैं और हर प्रकार से वे पुरुषों से अधिक शक्तिशाली हैं। वे अधिक समय तक जीवित रहती हैं और इसके कारणों में से एक है उनका गोल आकार शरीर का गोल होना--बाहर की ओर कम ऊर्जा बहती है।
जहां तक कामकृत्य का संबंध है तो स्त्रियां कामकृत्य के बाद अपने यौनांग की आकृति के कारण इतना नहीं थकेंगी। यह गोलाकार और गृहणशील है। पुरुष अपने यौनांग की आकृति के कारण अधिक थक जाएगा। अधिक ऊर्जा बाहर फेंक दी गई है—न केवल जीवशास्त्रीय ऊर्जा बल्कि मनस ऊर्जा भी फेंकी गई है।
इसलिए अगर तुम बुद्ध की मुद्रा को देखो तो तुम हैरान हो जाओगे। ऊर्जा के सभी निकास द्वार जुड़े हुए हैं। दोनों पैर आड़े हैं, दोनों हाथ एक पर एक रखे हुए हैं, और हाथ पैरों को छू रहे हैं और पैर कामुकता के केंद्र, काम-केंद्र को स्पर्श करते हैं। बुद्ध की मुद्रा में ऊर्जा के सभी निकास द्वार जुड़ गए हैं--कोई ऊर्जा बाहर की ओर नहीं जा सकती है। और यह मुद्रा सीधी है इसलिए वहां पर कोई गुरुत्वाकर्षण का खिंचाव नहीं है।
और इस मुद्रा में व्यक्ति शरीर को पूरी तरह से भूल सकता है। तुम शरीर को पूरी तरह से केवल उसी समय भूल सकते हो जब कि जीवन-ऊर्जा बाहर की ओर प्रवाहित नहीं हो रही है वरना तुम इसे भूल नहीं सकते। इसलिए व्यक्ति इस मुद्रा में ऊर्जा का वर्तुल बन जाता है और व्यक्ति जीवन को भूल सकता है, व्यक्ति शरीर को पूरी तरह से भूल सकता है। आंखें बंद हैं या आधी बंद हैं क्योंकि आंखें भी मनस ऊर्जा का एक बड़ा निकास  द्वार हैं। वे बंद हैं या आधी बंद हैं दोनों ही अवस्थाओं में परिणाम वही होता है आंख की पुतलियों की गति रुकी हुई है। अगर आंख की पुतलियां गतिशील हैं तो ऊर्जा बाहर फेंकी जा रही है।
स्वप्नों में भी तुम आंखों की गतियों के द्वारा काफी ऊर्जा बाहर फेंकते हो। कोई व्यक्ति स्वप्न देख रहा है या नहीं बाहर से ही इस बात को जानने का एकमात्र उपाय है, उसकी आंख की पुतलियों की गति। अगर तुम उसकी आंखों पर अपनी अंगुलियां रख कर देखो और अगर वे गतिशील हैं तो वह स्वप्न देख रहा है। उसको जगा दो और तुम्हें पता लग जाएगा कि वह स्वप्न देख रहा था। अगर आंख की पुतलियां गतिशील नहीं हैं तो वह गहरी निद्रा सुषुप्ति में है। तब सारी ऊर्जाएं भीतर की ओर जा रही हैं कुछ भी बाहर की ओर नहीं जा रहा है। तब सारी प्रक्रिया अंतर्मुखी है।
आसन प्राणायाम और ऐसी बहुत सी दूसरी विधियां हैं जिनके द्वारा ऊर्जाएं भीतर की ओर प्रवाहित कराई जा सकती हैं। जब वे भीतर की ओर प्रवाहित होती हैं तो वे एक हो जाती हैं क्योंकि केंद्र पर वे अनेक नहीं हो सकती हैं। केवल परिधि पर वे अनेक हो सकती हैं। केंद्र पर वे एक और समग्र होने के लिए बाध्य हैं। परिधि पर वे अनेक होंगी। जितनी अधिक ऊर्जा भीतर की ओर जाती है उतनी ही लयबद्धता हो जाती है। आपसी संघर्ष मिट जाते हैं। और केंद्र पर कोई द्वंद्व नहीं होता है। वहां पर समग्रता की जीवंत एकता है। यही कारण है कि आनंद की अनुभूति होती है।
एक और बात ये आसन और प्राणायाम शारीरिक सहायताएं हैं। और वे महत्वपूर्ण हैं और वे अर्थपूर्ण हैं--लेकिन वे मात्र शारीरिक सहायताएं हैं। अगर तुम्हारा मन संघर्ष में है तो वे अधिक सहायता नहीं कर पाएंगे। तुम्हारा शरीर और मन वास्तव में दो चीजें नहीं हैं। तुम्हारा शरीर और मन एक ही चीज के दो ध्रुव हैं। तुम्हारा शरीर और मन ऐसा अलग-अलग नहीं है, शरीर-मन ऐसा इकट्ठा। तुम साइकोसोमैटिक मनोदैहिक या सोमैटिकसाइको, दैहिकमनस हो।
हमारी भाषा दोषपूर्ण है। हम शरीर का प्रयोग किसी भिन्न चीज के रूप में करते हैं और मन का प्रयोग किसी और चीज के रूप में और हम कभी-कभी शरीर को जो 'मन नहीं है' और मन को जो 'शरीर नहीं है' के रूप में परिभाषित करते हैं। संसार में फैले हुए द्वैतवादी दर्शनशास्त्र के कारण यह गलती संसार की सभी भाषाओं में दिखाई देती है। शरीर स्थूल है और मन सूक्ष्म, किंतु ऊर्जा एक ही है।
इसलिए व्यक्ति को दोनों ध्रुवों की ओर से कार्य करना होगा। शरीर की ओर से तुम्हारे लिए हठयोग है. आसन, प्राणायाम आदि क्रियाएं। वे संभावना के साकार हो पाने में सहायता करते हैं। और मन की ओर से तुम्हें राजयोग, और अन्य योगों का उपयोग करना होगा जो मूलत: तुम्हारी मानसिक वृत्तियों से संबंधित हैं।
उदाहरण के लिए, क्रोध की अवस्था में अगर तुम अपनी श्वास को नियंत्रित
कर सको तो क्रोध मिट जाएगा। अगर तुम लयबद्धता से श्वास लेते रहो, क्रोध तुम पर हावी नहीं हो सकता है। अगर तुम लयबद्धता से श्वास लेते रहे तो कामवासना तुम पर हावी नहीं हो सकती। यह वहां पर होगी परंतु इसका दमन कर दिया जाएगा, क्योंकि यह केवल भौतिक भाग है। यह मूर्तमान नहीं होगा, इसे कोई नहीं जानेगा तुम स्वयं भी इसे नहीं जान सकोगे। श्वास के माध्यम से यह इतनी दमित हो सकती है। लयबद्ध श्वास के द्वारा तुम क्रोध को इतना अधिक दमित कर सकते हो कि तुम स्वयं भी न जान पाओगे कि यह वहां पर है। लेकिन यह वहां होगा, क्योंकि तुमने इसको अपने अस्तित्व, अपने शरीर के सिर्फ एक भाग के द्वारा नियंत्रित किया है। दूसरा भाग वहीं मौजूद है, अनछुआ।
इसलिए व्यक्ति को दोनों के साथ कार्य करना पड़ता है। शरीर को यौगिक विधि-विज्ञान द्वारा प्रशिक्षित किया जाना चाहिए और मन को सजगता से। और अगर तुम योग का अभ्यास करो तो तुम्हें और सजगता की आवश्यकता होगी क्योंकि चीजें और अधिक सूक्ष्म हो जाएंगी।
अगर तुम क्रोधित हो सामान्यत: तुम इसके प्रति सजग हो सकते हो, क्योंकि यह बहुत कठिन नहीं है क्रोध बहुत स्थूल है। लेकिन अगर तुम प्राणायाम का अभ्यास करते हो तो तुम्हें क्रोध के प्रति सजग होने के लिए अधिक बोध और तीव्र संवेदनशीलता की आवश्यकता होगी क्योंकि अब क्रोध अधिक सूक्ष्म हो जाएगा। क्योंकि एक भाग शरीर जो कि इसे स्थूल बना सकता था इसके साथ सहयोग नहीं कर रहा है इसलिए यह बिना किसी भौतिक अभिव्यक्ति के बस मन का एक ढंग होगा। यह अति सूक्ष्म हो जाएगा।
इसलिए वे लोग जो सजगता का अभ्यास कर रहे हैं अगर वे साथ ही साथ यौगिक विधि-विज्ञान का भी अभ्यास करते हैं तो वे जानेंगे कि सजगता के गहरे आयाम हैं। अन्यथा वे केवल स्थूल के प्रति सजग हो जाएंगे। अगर तुम स्थूल को बदल सको और सूक्ष्म को न बदल पाओ तो तुम दुविधा में एक गहन ऊहापोह में पड़ जाओगे क्योंकि अब संघर्ष अपने आप को एक नये ढंग से प्रकट कर देगा। यह संघर्ष अपने आप को तुम्हारे मन और शरीर के बीच में प्रकट करेगा।
इसलिए योग सहायक है, लेकिन यह सब-कुछ नहीं है यह केवल एक भाग है। दूसरा भाग है मानसिक दृष्टिकोण जिसे बुद्ध ने 'माइंडफुलनेस’ सम्यक स्मृति कहा है। योग का अभ्यास करो जिससे शरीर तुम्हारे प्रति शत्रुतापूर्ण न रहे शरीर तुम्हारा विरोधी न रहे, शरीर लयबद्ध हो जाए और तुम्हारा साथ दे। शरीर अंतर उन्मुख गति के साथ सहयोगपूर्ण रहे। तब स्मृति का अभ्यास करो। दोनों को साथ-साथ किया जाना चाहिए। श्वास के प्रति होशपूर्ण हो जाओ। योग में तुम्हें श्वास की प्रक्रिया को बदलना पड़ता है और सजगता में तुम्हें श्वास के प्रति जैसी वह है, होशपूर्ण हो जाना पड़ता है--बस श्वास-प्रक्रिया के प्रति सजगता। अगर तुम श्वास-प्रक्रिया के प्रति सजग हो सको तो तुम अपनी विचार-प्रक्रिया के प्रति भी सजग हो सकते हो, अन्यथा नहीं।
वे लोग जो सीधे ही अपनी विचार-प्रक्रिया के प्रति सजग होने का प्रयास करते हैं, वे उसमें सफल नहीं हो पाएंगे। यह बहुत दूभर होगा, क्योंकि श्वास-प्रक्रिया मन का द्वार है। तुम्हें यह जान कर हैरानी होगी कि अगर तुम अपनी श्वास को एक क्षण के लिए रोक सको, तो तुम्हें दिखेगा कि उसक्षण तुम्हारे विचार भी रुक गए हैं। यहां श्वास-प्रक्रिया रुकी और वहां विचारों की श्रृंखला टूटी। श्वास को रोक दो और विचार रुक जाते हैं विचार-प्रक्रिया को तेजी से जारी रखो और तुम देखोगे कि श्वास तुरंत ही अराजक पूर्ण हो गई। श्वास-प्रक्रिया तुम्हारी विचार-प्रक्रिया को प्रतिबिंबित करेगी।
पहले श्वास के प्रति होशपूर्ण रहो। बुद्ध कहते हैं 'अनापानसतीयोग' भीतर
आती और बाहर जाती श्वास के प्रति सजगता का योग। और वे कहते हैं 'यहां से शुरु करो।' और यही सही शुरुआत है। व्यक्ति को श्वसन-प्रक्रिया से आरंभ करना चाहिए और विचार-प्रक्रिया से कभी नहीं क्योंकि व्यक्ति को स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ना चाहिए। पहले शरीर से आरंभ करो उसके बाद श्वास के प्रति सजगता। जब तुम श्वास के प्रति सजग हो जाते हो और जब तुम श्वास की सूक्ष्म गतियों का अनुभव करते हो, केवल तभी तुम विचार के सूक्ष्म पहलुओं को अनुभव कर पाने में समर्थ हो सकोगे।
विचार-प्रक्रिया के प्रति होश मन की गुणवत्ता को बदल देगा; आसन और प्राणायाम शरीर की गुणवत्ता को बदल देंगे। और वे दोनों लयबद्ध हो जाएंगे और तब एक क्षण आता है जब तुम्हारा शरीर और मन एक हो जाते हैं कोई संघर्ष नहीं है--जरा सा भी संघर्ष नहीं है--जब वे एक हैं तब वे एकाकार होकर गति करते हैं। वे पूरी तरह से एकात्म हुए, लयबद्ध हुए। तब, उस क्षण में तुम न तो शरीर होते हो और न ही मन। एकात्मता के उस क्षण में पहली बार तुम अपने आपको 'स्व' की भांति जानते हो। तुम अतिक्रमण कर जाते हो।
तुम केवल तभी अतिक्रमण कर सकते हो जब कोई संघर्ष न हो; अन्यथा कोई अतिक्रमण न हो सकेगा। इस क्षण, शरीर और मन के इस लयबद्ध क्षण में जब वे दोनों बिना किसी संघर्ष के एक हैं, और ऊर्जा भीतर या ऊपर की ओर आ रही है--तुम दोनों का अतिक्रमण कर लेते हो। तब तुम दोनों नहीं होते। अब तुम कुछ ऐसी चीज हो जो 'वस्तु' है ही नहीं। एक अर्थ में तुम ना--कुछ हो, एक अर्थ में 'कुछ भी नहीं।' अब तुम बस चेतना हो--किसी के प्रति चेतन नहीं, बल्कि केवल चेतना, किसी के प्रति सजगता नहीं बल्कि केवल सजगता।
किसी चीज के प्रति सजग हुए बिना सजगता का यह बोध किसी वस्तु के प्रति चेतन हुए बिना चेतना का यह बोध विस्फोट का क्षण है। तुम्हारी संभावना वास्तविक हो जाती है। तुम एक नये आयाम में परम में विस्फोटित हो जाते हो। यही परम तो सभी धर्मों का गंतव्य है।
और बहुत सारे रास्ते हैं। कोई कुंडलिनी की बात कर सकता है या नहीं भी कर सकता है इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। 'कुंडलिनी' मात्र एक शब्द है। तुम किसी अन्य शब्द का भी प्रयोग कर सकते हो। तुम इसको कोई भी नाम दे सकते हो, इससे जरा भी भेद नहीं पड़ेगा। किंतु कुंडलिनी शब्द से जो इंगित होता है वह तो किसी न किसी भांति वहां पर होगा ही ऊर्जा के अंतर्गामी प्रवाह के रूप में।
यह अंतर्गामी प्रवाह ही एक मात्र क्रांति है, या एक मात्र स्वतंत्रता है। अन्यथा तो तुम और-और नरकों का निर्माण करते चले जाओगे, क्योंकि तुम जितना अधिक बहिर्गामी होते जाओगे उतना ही अधिक तुम अपने आप से दूर होते चले जाओगे। और तुम अपने आप से जितना अधिक दूर होते हो, तुम उतना ही अधिक बीमार और रुग्ण होते हो--क्योंकि सारे जीवन का मूल-स्रोत अनेक उपायों के द्वारा तुमसे असंबद्ध कर दिया गया है। तुम अपने आप के प्रति अजनबी बन जाते हो और तुम यह नहीं जानते कि घर वापस कैसे लौटना है। यह वापस लौटना ही योग का विज्ञान है। और जहां तक मनुष्य के रूपांतरण का संबंध है कुंडलिनी योग सूक्ष्मतम परम विज्ञान है।
और तुमने यह भी पूछा है 'परंपरागत विधियां व्यवस्थित हैं और आपकी विधि अराजक है--ऐसा क्यों है?'
परंपरागत विधियां व्यवस्थित हैं क्योंकि उस समय का व्यक्ति उस समय लोग और वे लोग जिनके लिए उन विधियों को विकसित किया गया था--भिन्न थे।
आधुनिक मनुष्य एक बहुत नवीन घटना है, और किसी भी परंपरागत विधि का, जिस रूप में वह है ठीक उसी रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है, क्योंकि आधुनिक मनुष्य कभी अस्तित्व में था ही नहीं। आधुनिक मनुष्य एक नई घटना है। इसलिए एक प्रकार से तो सारी परंपरागत विधियां असंगत हो चुकी हैं। उनका सार-तत्व असंगत नहीं हुआ है, लेकिन उनका रूप असंगत हो चुका है क्योंकि यह मनुष्य नया है।
उदाहरण के लिए, शरीर काफी बदल चुका है। यह अब उतना प्राकृतिक नहीं रहा जितना यह सदा से था। आज के मनुष्य का शरीर बहुत अप्राकृतिक चीज है। जब पतंजलि ने अपना योग विकसित किया था तब शरीर एक प्राकृतिक घटना था। अब यह प्राकृतिक घटना नहीं है। यह आत्यंतिक रूप से भिन्न है। यह इतना विषाक्त है कि कोई परंपरागत विधि सहायक नहीं हो सकती है।
हठयोगियों के लिए औषधियों को लेने की अनुमति नहीं थी बिलकुल ही नहीं थी, क्योंकि औषधि लेने से हुए रासायनिक परिवर्तन न सिर्फ विधियों को दुष्कर बनाएंगे वरन हानिकारक भी बना देंगे। इसलिए औषधियों का प्रयोग करने की अनुमति नहीं थी, या उनके लिए विशिष्ट औषधियों का विकास किया गया था। अब सारा वातावरण कृत्रिम है वायु प्रदूषित है जल प्रदूषित है समाज में जीने की परिस्थितियां कृत्रिम हैं। कुछ भी प्राकृतिक नहीं है। तुम्हारा जन्म इसी कृत्रिमता में हुआ है तुम इसी में विकसित हुए हो, इसलिए परंपरागत विधियां हानिकारक सिद्ध होंगी। वे जैसी हैं उन्हें वैसा ही उपयोग नहीं किया जा सकता। उनको आधुनिक परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित करना ही पड़ेगा।
एक और बात मन की गुणवत्ता मूलत: बदल चुकी है। पतंजलि के दिनों में, पुराने समय में मनुष्य के व्यक्तित्व का केंद्र मस्तिष्क नहीं था, यह हृदय था। और उससे भी पहले यह हृदय भी नहीं था। यह और नीचे था, नाभि के पास। पतंजलि-पूर्व के समय में पतंजलि से पेहले यह नाभि था--मनुष्य के व्यक्तित्व का केंद्र। इसलिए हठयोग ने उन विधियों का विकास किया जो उस व्यक्ति के लिए अर्थपूर्ण, महत्वपूर्ण थीं, जिसके व्यक्तित्व का केंद्र नाभि था। फिर व्यक्तित्व का केंद्र हृदय हो गया। जब केंद्र हृदय होता है तब केवल भक्ति-योग का उपयोग किया जा सकता है, वरना नहीं। इसलिए मध्य-काल में भक्ति-योग विकसित हुआ- इसके पहले नहीं, क्योंकि केंद्र बदल गया था। और विधि को उन लोगों के अनुसार बदल देना पड़ता है, जिनके लिए इसे प्रयुक्त किया जाना है।
अब भक्ति-योग भी अर्थपूर्ण नहीं रहा है। मुख्य केंद्र अब नाभि से और अधिक दूर हो गया है। अब यह केंद्र मस्तिष्क है। यही कारण है कि कृष्णमूर्ति जैसे लोगों की शिक्षाएं आकर्षित करती हैं क्योंकि केंद्र मस्तिष्क है। अन्यथा उनमें कोई आकर्षण न होता उनमें जरा भी आकर्षण नहीं होता। अब किसी विधि की जरूरत नहीं है, किसी भी उपाय की जरूरत नहीं है, केवल समझ की आवश्यकता है। लेकिन जब हम कहते हैं, 'समझ,' तो यह बौद्धिक बन जाती है और कुछ भी नहीं। यह केवल शाब्दिक समझ है। इससे कोई परिवर्तन नहीं होता, इससे कोई रूपांतरण नहीं होता। फिर से यह जानकारी का संग्रह बन जाता है। फिर से यह स्मृति बन जाता है।
इसीलिए मैं व्यवस्थित विधियों का उपयोग नहीं करता हूं बल्कि अराजक विधियां प्रयोग करता हूं। इस केंद्र को मस्तिष्क से नीचे धकेलने के लिए अराजक विधियां बहुत सहायक होती हैं। किसी भी व्यवस्थित विधि के द्वारा इस केंद्र को मस्तिष्क से नीचे नहीं धकेला जा सकता है क्योंकि व्यवस्थित करना ही मस्तिष्क का कार्य है। तुम हर चीज को मस्तिष्क के माध्यम से व्यवस्थित करते हो। इसलिए अगर तुम व्यवस्थित विधियों का उपयोग करोगे तो मस्तिष्क और अधिक शक्तिशाली हो जाएगा। यह ऊर्जा को अपने में समा लेगा।
इसलिए मैं अराजक विधियों का उपयोग करता हूं क्योंकि अराजक विधियों के माध्यम से मस्तिष्क को शून्य कर दिया जाता है। इसके पास करने के लिए कुछ भी नहीं होता। न तो किसी व्यवस्था का निर्माण करना है और न ही किसी गणितीय सूत्र का उपयोग करना है। यह विधि इतनी अराजकपर्णू है कि केंद्र मस्तिष्क से हट कर स्वत: हृदय की ओर धकेल दिया जाता है--और यह एक बड़ा कदम है--केंद्र को मस्तिष्क से हृदय की ओर धकेल देना। इसलिए अगर तुम मेरी ध्यान-विधि को पूरी ताकत से अव्यवस्थित रूप से, अराजकता पूर्वक करो तो तुम्हारा केंद्र नीचे धकेल दिया जाता है। तुम हृदय पर आ जाते हो।
जब तुम हृदय पर आ जाते हो तो मैं रेचन का उपयोग करता हूं- क्योंकि तुम्हारा हृदय तुम्हारे मस्तिष्क के कारण बहुत दमित है। तुम्हारे मस्तिष्क ने तुम्हारे भीतर का इतना अधिक क्षेत्र घेर रखा है यह तुम्हारे ऊपर इतना अधिक हावी है कि इसने सभी कुछ पर मालकियत कर ली है। हृदय के लिए कोई भी स्थान नहीं बचा है इसलिए हृदय की अभीप्साए दमित हो गई हैं। तुम कभी हृदयपूर्वक नहीं हंसे हो, तुम कभी हृदयपूर्वक नहीं रोए हो, तुमने हृदयपूर्वक कभी कोई कार्य नहीं किया है। मस्तिष्क सदा ही चीजों को व्यवस्थित करने, उन्हें गणितीय बना देने के लिए आ जाता है। मस्तिष्क हिसाब लगाता है, निष्कर्ष निकालता है और हावी हो जाता है। हृदय दमित हो जाता है।
इसलिए पहली बात अराजक विधियों का उपयोग केंद्र को, चेतना के केंद्र को,
मस्तिष्क से हृदय की ओर धकेलने के लिए किया जाता है। तब हृदय को भार-मुक्त करने के लिए दमित भावनाओं को निकाल फेंकने के लिए, इसे हलका करने के लिए रेचन की जरूरत पड़ती है। अगर हृदय हलका और निभार हो जाता है तब चेतना के केंद्र को और नीचे खिसका दिया जाता है यह नाभि पर आ जाता है। और केवल तब जब यह नाभि पर आ जाता है तब मैं तुमसे खोज करने के लिए कहूंगा मैं कौन हूं? वरना यह अर्थहीन है। रमण महर्षि की विधि बहुत सफल नहीं हो सकती है क्योंकि वे सीधे ही पूछ लिया करते थे मैं कौन हूं? तब मस्तिष्क पूछता है मैं कौन हूं? बुद्धि पूछती है मैं कौन हूं? और बुद्धि बहुत चालाक है, यह पूछती है और यह उत्तर दे देती है। यह पूछती है मैं कौन हूं? फिर वहां उत्तर आता है जो स्मृति में पहले से ही था मैं आत्मा हूं मैं ब्रह्म हूं-। मस्तिष्क उत्तर दे देता है। यह दोनों कार्य करता है। यह दोनों ओर से खेल खेलता है--और यह असंगत है, यह सहायता नहीं बन सकता है।
रमण इस विधि के द्वारा उपलब्ध कर सके क्योंकि उनकी चेतना का केंद्र नाभि पर था और यह कभी भी मस्तिष्क नहीं था। वे मस्तिष्क वाले व्यक्ति नहीं थे। एक अर्थ में वे प्राचीनतम व्यक्तियों में से एक थे- पुरातनों में से एक। वे इस शताब्दी के नहीं थे। वे हमारे लिए समकालीन नहीं थे। उनका केंद्र नाभि थी, लेकिन वे...अगर वे दूसरों से कहते कि पूछो मैं कौन हूं? तो यह अर्थहीन हो जाता है क्योंकि केंद्र भिन्न है। वे लोग मस्तिष्क के माध्यम से पूछेंगे और स्वयं को मस्तिष्क के माध्यम से उत्तर दे देंगे।
केवल उस समय जब तुम्हारी चेतना नाभि पर हो और तुम पूछो मैं कौन हूं? तो मस्तिष्क कभी उसका उत्तर नहीं दे पाएगा। यह हृदय को पार नहीं कर सकता है। यह नाभि तक नहीं आ सकता है, इसके पास ऐसा कोई रास्ता नहीं है। इसलिए अगर चेतना नाभि पर हो और तुम पूछो? मैं कौन हूं? तब वहां पर प्रश्न होगा और कोई उत्तर नहीं होगा। तब यह प्रश्न गहराई में जाएगा और गहरे और गहरे प्रविष्ट होता जाएगा और एक क्षण आता है, जब प्रश्न स्वत: ही गिर जाता है। यह नहीं बचता। जब प्रश्न नहीं बचता है, तो उत्तर है। प्रश्न और उत्तर दोनों साथ-साथ नहीं होते हैं। अगर वे दोनों साथ-साथ हों--कि यह रहा सवाल और यह रहा जवाब- तो यह मस्तिष्क का कार्य है। अगर प्रश्न मिट चुका है अब नहीं बचा है और उत्तर आता है तो यह नाभि का कार्य है।
अब यह बिलकुल अलग बात है। यह उत्तर स्रोत से आया है- जीवंतता के स्रोत से--और नाभि जीवंतता का स्रोत है। यह स्रोत है। यह मूल-स्रोत है जिससे प्रत्येक चीज आती है : शरीर, मन और सभी कुछ।
इसलिए मैं इस अराजक विधि का उपयोग बहुत विचार कर के अर्थपूर्ण ढंग से करता हूं। अब व्यवस्थित विधि-विज्ञान सहायता नहीं करेगा, क्योंकि मस्तिष्क इस को अपने स्वयं के उपकरण के रूप में परिवर्तित कर लेगा। अब केवल भजन-कीर्तन से सहायता नहीं मिलेगी क्योंकि हृदय इतना बोझिल हो चुका है कि यह सम्यक कीर्तन में खिल नहीं सकता, यह खिल ही नहीं सकता है। कीर्तन इसके लिए बस एक पलायन हो सकता है, प्रार्थना भी एक पलायन बन सकती है। यह प्रार्थना में नहीं खिल सकता है, हृदय प्रार्थना में नहीं खिल सकता है, क्योंकि यह बहुत बोझिल है। यह इतना अधिक दमित है
कि प्रमाणिक प्रार्थना की भाव-दशा अब असंभव हो चुकी है। मैंने कोई भी ऐसा नहीं देखा जो प्रामाणिक प्रार्थना में गहरा जा सकता हो, क्योंकि प्रेम स्वयं भी असंभव हो चुका है।
चेतना को स्रोत तक जड़ों तक नीचे धकेलना पड़ेगा। केवल तब ही रूपांतरण की संभावना है। इसलिए मैं चेतना को मस्तिष्क से नीचे धकेलने के लिए अराजक विधियों का उपयोग करता हूं। और तुम जब कभी भी अराजकता में होते हो, तो मस्तिष्क कार्य करना बंद कर देता है। यह कार्य कर ही नहीं सकता है।
जब भी तुम अराजकता में होते हो, मस्तिष्क रुक जाता है। तुम कार चला रहे हो और अचानक कोई तुम्हारे सामने आ जाता है। तुम इतनी तेजी से ब्रेक लगाते हो कि यह मस्तिष्क का कार्य हो ही नहीं सकता। ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि मस्तिष्क समय लेता है। यह सोच-विचार करता है क्या करना है और क्या नहीं करना है। इसलिए जब भी दुर्घटना की संभावना होती है और तुम ब्रेक लगाते हो तुम्हें अपनी नाभि के निकट संवेदना महसूस होती है मस्तिष्क के निकट कभी संवेदना नहीं होती। तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम्हारे पेट में कुछ गड़बड़ी है क्योंकि सारी चेतना इस अचानक आई दुर्घटना के कारण नाभि पर धकेल दी गई है। अगर पहले से ही इसकी गणना कर ली गई होती और इसका पूर्व अनुमान हो गया होता तो यह सब न होता तब इसकी जरूरत ही न पड़ती। मन सम्हाल लेता, मस्तिष्क सब ठीक कर लेता। जब कभी भी तुम अनजानी परिस्थिति में दुर्घटना में होते हो तुम्हारे साथ कुछ अज्ञात घटित होता है तब तुम देखोगे कि चेतना नाभि पर आ जाती है।
अगर तुम किसी झेन साधु से पूछो. 'आप कहां से सोचते हैं?' तो वह अपना हाथ पेट पर रख देगा। पश्चिमी लोग जब पहली बार जापानी साधुओं के संपर्क में आए तो वे इसे समझ नहीं सके 'क्या छूता है! पेट से तुम कैसे सोच सकते हो? पेट से कोई भी नहीं सोच सकता है।' लेकिन झेन उत्तर अर्थपूर्ण है। चेतना शरीर के किसी भी केंद्र का उपयोग कर सकती है, और मूल-स्रोत के सर्वाधिक निकट और सर्वाधिक प्राथमिक केंद्र नाभि है। और वह मस्तिष्क से सर्वाधिक दूर भी है इसलिए अगर जीवन-ऊर्जा बाहर की ओर जा रही है तो अंतिम रूप से चेतना का केंद्र मस्तिष्क हो जाएगा। अगर जीवन ऊर्जा भीतर की ओर जाती है तो अंतत: नाभि चेतना का केंद्र बन जाएगी।
यही कारण है कि मैं चेतना को इसकी जड़ों तक धकेलने के लिए रेचक तकनीक के साथ अराजक विधि का उपयोग करता हूं क्योंकि रूपांतरण केवल जड़ों के द्वारा ही संभव है। अन्यथा तुम केवल शब्दीकरण करोगे और शब्दीकरण करते चले जाओगे और वहां पर कोई रूपांतरण कोई परिवर्तन नहीं होगा। अगर तुम यह जान भी लो कि सही बात क्या है तुम रूपांतरित नहीं हो जाओगे क्योंकि सही बातों को जान लेना ही पर्याप्त नहीं है। व्यक्ति को जड़ों तक जाना पड़ता है और व्यक्ति को जड़ों को रूपांतरित और परिवर्तित करना पड़ता है, अन्यथा तुम नहीं बदलोगे।
और कभी-कभी कोई व्यक्ति और अधिक कठिनाई में पड़ जाता है जब उसे सही बात पता होती है और वह कुछ कर नहीं पाता है। उसके भीतर एक नया अधैर्य, एक नया तनाव उठ खड़ा होता है--वह दोगुना तनावग्रस्त हो जाता है। वह समझता है और वह कर नहीं सकता। समझ तभी अर्थपूर्ण हो सकती है, जब तुम नाभि से समझो। अन्यथा यह कभी अर्थपूर्ण नहीं होती। अगर तुम मस्तिष्क से समझो, तो यह रूपांतरण नहीं कर सकती है।
वह परम वह मौलिक वह आतरिक मस्तिष्कीय कार्य के माध्यम से नहीं जाना जा सकता है क्योंकि परम के साथ तुम अपनी जड़ों के माध्यम से, जहां से तुम आए हो उनके माध्यम से संबंधित हो। तुम्हारी सारी समस्या यही है कि तुम नाभि से दूर चले गए हो। तुम नाभि के माध्यम से आए हो और तुम्हारी मृत्यु इसी के माध्यम से होगी। तुम उस द्वार से आए थे और तुम उसी द्वार से होकर गुजरोगे। व्यक्ति को उसी द्वार पर आना पड़ता है। और जब तुम जड़ों पर आ जाते हो तो परिवर्तन होने में जरा भी कठिनाई नहीं होती। परिवर्तन सरल है। लेकिन जड़ों पर लौटना कठिन और दुष्कर है।
कुंडलिनी जीवन-ऊर्जा और इसके अंतर्गामी प्रवाह से और यह शरीर और मन की उन विधियों से संबंधित है जो उन दोनों को उस बिंदु, संश्लेषण के उस क्षण पर ले आए, जहां से अतिक्रमण संभव हो जाता है। तब शरीर भिन्न होता है मन भिन्न होता है, दृष्टिकोण भिन्न होता है। जीवन-शैली भिन्न होती है।
यह उसी तरह से है जैसे कि कोई चीज बैलगाड़ी की भांति उपयोगी है लेकिन अब बैलगाड़ी की आवश्यकता नहीं है। तुम अब कार चला रहे हो, लेकिन वह बैलगाड़ी--उसको चलाने की तरकीबें उसके उपकरण--वे सभी तुम याद रखे हुए हो। अब बैलगाड़ी विदा हो चुकी है लेकिन स्मृति का सातत्य बना हुआ है। तुम अपनी कार में बैलगाड़ी का कोई भी सामान प्रयोग नहीं कर सकते हो। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि वह सामान बैलगाड़ी में उपयोगी नहीं था, उसका उपयोग बैलगाड़ी में हुआ था और वहां पर वह सहायक भी था--यह गलत नहीं था। लेकिन यह सामान कार के साथ असंगत है।
इसलिए एक कठिनाई है परंपरागत विधियां हैं उनमें एक आकर्षण है क्योंकि वे इतनी प्राचीन और पुरातन हैं- उनके साथ परंपरा है अनेक लोगों को उनके माध्यम से ज्ञान उपलब्ध हुआ है। इसका श्रेय उनको मिलता है। तुम परंपरागत विधियों से इनकार कर सकते हो लेकिन तुम बुद्ध के बुद्धत्व से इनकार नहीं कर सकते। तुम पतंजलि और उनकी स्वतंत्रता से इनकार नहीं कर सकते तुम कृष्ण और उनके ज्ञान से इनकार नहीं कर सकते। परंपरागत विधियां हमारे लिए असंगत हो गई हैं, लेकिन वे बुद्ध के लिए या महावीर के लिए या कृष्ण के लिए असंगत नहीं थीं। वे अर्थपूर्ण थीं उनका प्रयोग किया गया था, वे सहायक थीं। अब बुद्ध को और उनके बुद्धत्व को नकारा नहीं जा सकता है लेकिन विधि अब अर्थहीन है। उस विधि में आकर्षण है क्योंकि बुद्ध से इनकार नहीं किया जा सकता है- अगर बुद्ध को इस विधि के माध्यम से उपलब्ध हो गया, तो हमें क्यों नहीं मिलेगा?
हमें भी मिल सकता था, लेकिन एक अलग परिस्थिति में-- पूर्णत: भिन्न अवस्था में।
मन का सारा क्षेत्र, विचारों का सारा परिवेश बदल चुका है। इसलिए परंपरावादी, पुरातनपंथी कहेगा बुद्ध को इस विधि या उस विधि से बोध प्राप्त हो गया था तो हमें क्यों नहीं मिल सकता है? यह विधि सही है। यह भ्रांति विधि में नहीं है बुद्ध में नहीं है बल्कि इस परंपरावादी मन में है। यह मन इस बात को नहीं देख रहा है कि सारी परिस्थिति बदल चुकी है और प्रत्येक विधि किसी विशेष परिस्थिति किसी विशेष मन और किसी विशेष व्यक्ति को रास आती है।
दूसरा अनुभव--वह जो कृष्णमूर्ति का है। वे विधियों से इनकार कर देंगे। और विधियों को इनकार करने के लिए वे बुद्ध और बुद्धत्व से भी इनकार कर देंगे। यह उसी सिक्के का दूसरा पहलू है। यदि तुम बुद्ध के बुद्धत्व से इनकार न करो तो तुम विधि से इनकार नहीं कर सकते हो। यह परंपरावादी दृष्टिकोण है। अगर तुम विधि से इनकार करते हो तो तुम्हें बुद्ध के बुद्धत्व से भी इनकार करना पड़ता है। यह गलत है--उतना ही गलत है जितना कि पहला दृष्टिकोण।
अतियां हमेशा गलत होती हैं। तुम किसी झूठी बात को, उसके विषय में एक
अतिवादी दृष्टि अपना कर नष्ट नहीं कर सकते क्योंकि विपरीत अति अब भी झूठ
ही होगी। यह सदा मध्यम अवस्था है जहां पर सत्य होता है। यह न तो परंपरावादी है...और अगर यह परंपरावादी नहीं है तो यह क्रांतिकारी भी नहीं हो सकता है। यह सदा दो अतियों का मध्य--बिंदु है जहां सत्य हुआ करता है बिलकुल ठीक मध्य का बिंदु ही सदा अतिक्रमण का बिंदु होता है।
इसलिए मेरे लिए विधियां बदल जाएंगी। यहां तक कि अविधि भी एक विधि है। यह भी किसी के लिए उपयोगी हो सकती है। यह संभव है कि किसी व्यक्ति के लिए सिर्फ अविधि ही विधि हो। किसी विशेष परिस्थिति में विधि जैसी कि यह है हानिकारक हो जाएगी, लेकिन ऐसा किसी खास व्यक्ति के संदर्भ में ही होता है, यह कोई सर्वमान्य नियम नहीं है। और जब कभी सत्यों का सामान्यीकरण किया जाता है तो वे झूठे हो जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष व्यक्ति है और कोई व्यक्ति किसी और जैसा नहीं है। इसलिए जब कभी भी किसी चीज का प्रयोग किया जाना है या कोई बात कही जानी है तो वह सदा किसी व्यक्ति विशेष से उसकी परिस्थिति से उसके मन से और उसी से संबंधित होती है किसी अन्य से नहीं।
यह भी आजकल एक कठिनाई बन गई है क्योंकि पुराने दिनों में यह एक से एक का संबंध था--आध्यात्मिक खोज में सदा एक से एक का संबंध था। यह शिक्षक और शिष्य के मध्य एक व्यक्तिगत संबंध और व्यक्तिगत संवाद था।
आजकल ऐसा नहीं है। यह सदा अव्यक्तिगत है। व्यक्ति को भीड़ से बोलना पड़ता है इसलिए उसे सामान्यीकरण करना पड़ता है। और सामान्यीकरण किया हुआ सत्य झूठ हो जाता है। यह सदा किसी विशेष व्यक्ति के लिए अर्थपूर्ण होता है। और मैं इस कठिनाई का सामना रोज करता हूं। अगर तुम मेरे पास आते हो और अगर तुम मुझसे कुछ पूछते हो, तो मैं तुम्हीं को उत्तर देता हूं और किसी को नहीं। किसी और समय पर कोई दूसरा मुझसे कुछ पूछता है और मैं उसी को उत्तर देता हूं किसी और को नहीं। और ये दो उत्तर विरोधाभासी भी हो सकते हैं। क्योंकि ये दो व्यक्ति जिन्होंने पूछा था, विरोधाभासी भी हो सकते हैं।
इसलिए अगर मुझे तुम्हारी सहायता करनी है तो मुझे विशिष्ट होना पड़ता है। और अगर मुझे विशिष्ट होना है तो मुझे विपरीत बातें बोलनी पड़ेगी। केवल वही व्यक्ति जो सर्व-सामान्य से बोल रहा हो एक सी बात कह सकता है लेकिन तब सत्य झूठ हो जाता है। प्रत्येक कथन के सत्य होने के लिए इसका किसी व्यक्ति विशेष को संबोधित होना जरूरी है यह व्यक्ति से संबंधित है।
जैसा कि मैं इस परिस्थिति को देखता हूं आधुनिक मनुष्य काफी कुछ बदल चुका है। उसको नये की जरूरत है नई विधियां, नई तकनीकें। निस्संदेह सत्य सदा शाश्वत है--यह न कभी नया है न कभी पुराना--लेकिन सत्य अनुभूति है साध्य है। साधन सदा किसी विशेष व्यक्ति विशेष मन विशेष अभिरुचि के संदर्भ में संगत या असंगत होते हैं। अराजक विधियां आधुनिक मनुष्य की सहायता करेंगी क्योंकि आधुनिक मन स्वयं में ही अराजक हुआ जा रहा है। वह--वह उपद्रव आधुनिक मनुष्य की विद्रोह की वह भावना--यह वस्तुत: शरीर के अन्य केंद्रों का उसके होने के उसके बीइंग के अन्य केंद्रों का विद्रोह है जिनका अत्यधिक दमन कर दिया गया है। आधुनिक मनुष्य का विद्रोह मस्तिष्क के विरुद्ध हृदय और नाभि का विद्रोह है। अगर तुम इसे योग के संदर्भ में समझो तो आधुनिक विद्रोह मस्तिष्क के विरोध में है।
मस्तिष्क ने मनुष्य की आत्मा के समस्त क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है। इसने एकाधिकार कर रखा है। अब इसे और अधिक सहन नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि विश्वविद्यालय विद्रोह के केंद्र बन चुके हैं। यह आकस्मिक नहीं है। आने वाले दिनों में विश्वविद्यालय विद्रोह के केंद्र बन जाएंगे क्योंकि वे मस्तिष्क के केंद्र हैं। विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया जाए, यह भी संभव है--तथा यह और-और संभव होता जा रहा है--क्योंकि वे मस्तिष्क के केंद्र हैं। समाज में विश्वविद्यालय मस्तिष्क है तुम्हारे शरीर में मस्तिष्क विश्वविद्यालय है। वे एक-दूसरे से संबंधित हैं।
अगर पूरे समाज को एक जैविक इकाई एक पूरा शरीर माना जाए तो विश्वविद्यालय सिर हैं मस्तिष्क हैं। आधुनिक मन अराजकता की ओर उन्मुख रहने के लिए बाध्य है और अराजक विधियां सहायक होंगी। वे दो प्रकार से सहायक होंगी। एक वे चेतना के केंद्र को रूपांतरित कर देंगी। और दो वे तुम्हारे भीतर से विद्रोह को बाहर निकाल देंगी। अगर मेरी विधि का प्रयोग किया जाता है तो वह व्यक्ति कभी विद्रोही नहीं होगा, क्योंकि विद्रोह का कारण परितृप्त हो जाता है। वह विश्वविद्यालय को नष्ट नहीं करेगा क्योंकि चेतना का केंद्र भीतर चला गया है। अब उसे कोई दुर्भावना महसूस नहीं होगी। वह विश्रांति में है।
इसलिए मेरे लिए ध्यान न केवल व्यक्ति के लिए मुक्ति है--व्यक्ति का रूपांतरण है--बल्कि इसका बड़ा महत्व है। यह सारे समाज के जैसी कि मनुष्य-जाति इस समय है उसके रूपांतरण के लिए आधारभूत कार्य कर सकता है। मनुष्य को या तो आत्मघात कर लेना पडेगा या उसे स्वयं को रूपांतरित करना पडेगा।

आज इतना ही।

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