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शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

जीवन का अंतिम उपहार-(प्रवचन-04)

जीवन का अंतिम उपहार-(प्रवचन-चौथा) 

ओशो के अंग्रेजी साहित्य से अनुवादित विभिन्न प्रवचनांश

The Book of Wisdom, Chapter #14, Chapter title: Other Gurus and Etceteranandas, 24 February 1979 am in Buddha Hall

प्यारे ओशो,
क्या आप मृत्यु तथा मृत्यु की कला के संबंध में कुछ कहेंगे?
 देव वंदना, मृत्यु के संबंध में सबसे पहली बात समझने जैसी है कि मृत्यु एक झूठ है। मृत्यु होती ही नहीं; यह सर्वाधिक भ्रामक बातों में से एक है। मृत्यु एक और झूठ की छाया है- उस दूसरे झूठ का नाम है अहंकार। मृत्यु अहंकार की छाया है। क्योंकि अहंकार है, इसलिए मृत्यु भी प्रतीत होती है।

मृत्यु को जानने, मृत्यु को समझने का रहस्य स्वयं मृत्यु में नहीं है। तुम्हें अहंकार के अस्तित्त्व की गहराई में जाना होगा। तुम्हें देखना और निरीक्षण करना और ध्यान देना होगा कि यह अहंकार क्या है? और जिस दिन तुम यह पा लोगे कि अहंकार है ही नहीं, कि यह कभी था ही नहीं- यह केवल
प्रतीत होता था क्योंकि तुम सजग नहीं थे, यह प्रतीत होता था क्योंकि तुमने अपने अस्तित्त्व को अंधकार में रखा हुआ था- जिस दिन यह समझ में आ जाता है कि अहंकार अचेतन मन की रचना है, अहंकार विलीन हो जाता है और उसके साथ ही मृत्यु तिरोहित हो जाती है।

तुम्हारा वास्तविक स्वरूप शाश्वत है। जीवन न पैदा होता है न मरता है। लहरें आती हैं और जाती हैं, सागर बना रहता है- लेकिन लहरें हैं क्या? केवल आकृतियां, सागर के साथ हवा का खेल। लहरों का कोई ठोस अस्तित्त्व नहीं है। ऐसे ही हम हैं- लहरें, खिलौने।
लेकिन अगर हम लहरों की गहराई में झांकें तो वहां एक सागर है और इसकी शाश्वत गहराई है और इसका अथाह रहस्य है। अपनी सत्ता की गहराई में झांको और तुम सागर को पाओगे। और उस सागर का अस्तित्त्व है; सागर सदा है। तुम यह नहीं कह सकते यह था और तुम यह भी नहीं कह सकते यह होगा, तुम इसके लिए केवल एक काल का उपयोग कर सकते हो, वर्तमान कालः यह है।
धर्म की पूरी खोज यही है। खोज केवल यही हैः जो वास्तव में है उसको पा लेना। हमने उन चीजों को स्वीकार कर लिया है जो वास्तव में हैं ही नहीं- और उनमें सबसे बड़ी और सबसे केंद्रीय चीज है अहंकार। और निःसंदेह, इसकी सबसे बड़ी छाया बनती है- और वह छाया मृत्यु है।
जो लोग मृत्यु को सीधे समझने जाएंगे, वे कभी भी इसके रहस्य में प्रवेश नहीं कर सकेंगे। वे अंधकार के साथ लड़ रहे होंगे। अंधकार का अस्तित्त्व नहीं है, तुम उसके साथ नहीं लड़ सकते। प्रकाश लाओ, और फिर अंधकार है ही नहीं।
हम अहंकार को कैसे जान सकते हैं? अपने जीवन में थोड़ी और सजगता लाओ। प्रत्येक कृत्य को पहले से कम यांत्रिक ढंग से करो, और तुम्हें कुंजी हाथ लग गयी। अगर तुम चल रहे हो, तो रोबोट की भांति मत चलो। इस भांति मत चलते रहो जैसे तुम सदा चलते रहे हो, इसे यांत्रिक ढंग से मत करो। इसमें थोड़ी सजगता लाओः धीमे हो जाओ, प्रत्येक कदम पूरी सजगता के साथ उठाओ।
छोटे-छोटे कार्यों में इस तरह का प्रयास करो। तुम्हें कोई बहुत बड़ी चीजें नहीं करनी हैं। खाना खाते हुए, स्नान करते हुए, तैरते हुए, चलते हुए, बात करते, सुनते, अपना भोजन पकाते, अपने कपड़े धोते हुए- प्रक्रिया को अ-यांत्रिक कर दो। अ-यांत्रिक इस शब्द को याद रखो; जागरूक होने का इसमें पूर्ण रहस्य है।
मन एक रोबोट है। रोबोट की अपनी एक उपयोगिता है; इसी ढंग से मन कार्य करता है। तुम कुछ सीखते होः जब तुम इसे सीखते हो, प्रारंभ में इसके प्रति सजग रहो। उदाहरण के लिए, अगर तुम तैरना सीखते हो, तो तुम बहुत सजग होते हो, क्योंकि तब जीवन खतरे में है। अथवा अगर तुम कार चलाना सीखते हो, तब तुम बहुत सजग होते हो। तुम्हें सजग होना पड़ता है, तुम्हें बहुत चीजों के प्रति सजग होना पड़ता है। स्टीयरिंग, व्हील, सड़क, गुजरते हुए लोग, एक्सीलरेटर, ब्रेक, क्लच- तुम्हें सब कुछ के प्रति सजग होना पड़ता है।
बहुत सी चीजें हैं जिन्हें तुम्हें याद रखना है, और तुम कांप रहे हो, और अब कोई गलती करना खतरनाक है। यह बहुत खतरनाक है, इसलिए तुम्हें सजगता रखनी पड़ती है। लेकिन जिस क्षण तुमने ड्राइविंग सीख ली, उतनी सजगता की जरूरत नहीं रहेगी। तब तुम्हारे मन का रोबोट इसे सम्हाल लेगा।
यही है हम जिसे सीखना कहते हैं। कुछ सीखने का अभिप्राय है कि अब यह चेतना से रोबोट में स्थानांतरित कर दी गयी है। सीखने का कुल इतना ही मतलब है। एक बार कोई चीज तुमने सीख ली, अब यह तुम्हारे चेतन मन का हिस्सा न रही, यह अचेतन मन को सौंप दी गयी। अब अचेतन इसे कर सकता है; अब तुम्हारी चेतना कुछ और सीखने के लिए स्वतंत्र है।
यह अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण है। अन्यथा, तुम एक ही चीज को पूरा जीवन सीखते रहोगे। मन एक बहुत अच्छा सेवक है, एक बहुत अच्छा कंप्यूटर है। तुम्हें सजग रहने के लिए सदा सक्षम रहना है, कि यह तुम पर पूर्ण रूप से अधिकार न जमा ले, कि यह पूरी तरह सर्वेसर्वा न बन जाए, कि एक द्वार सदा खुला रहना चाहिए जहां से तुम रोबोट के बाहर आ सको।
इस द्वार के खोलने को ध्यान कहते हैं। लेकिन स्मरण रहे, रोबोट इतना कुशल है कि यह ध्यान को भी अपने नियंत्रण में ले सकता है। एक बार तुम्हारे सीख लेने के बाद, मन कहता हैः अब तुम्हें इसकी चिंता की कोई जरूरत नहीं, मैं इसे कर सकता हूं। मैं इसे करूंगा, तुम इसे मुझ पर छोड़ दो।
और मस्तिष्क कुशल है; यह एक बहुत सुंदर मशीन है, कुशलता से कार्य करती है। वास्तव में, हमारा सब विज्ञान, ज्ञान में हमारी संपूर्ण तथाकथित प्रगति के साथ, मानवीय मस्तिष्क जैसी परिष्कृत चीज पैदा नहीं कर पाया। दुनिया में बड़े से बड़े कंप्यूटर भी मस्तिष्क की तुलना में प्राथमिक कक्षा के हैं।
मस्तिष्क तो एक चमत्कार है।
लेकिन जब कोई चीज इतनी ताकतवर होती है, तो उसमें खतरा होता है। तुम इससे और इसकी ताकत से इतने अधिक सम्मोहित हो सकते हो कि तुम अपनी आत्मा खो सकते हो। अगर तुम सजग होना पूर्णतः भूल चुके हो, तब अहंकार निर्मित होता है।
अहंकार आत्यंतिक असजगता की अवस्था है। तुम्हारे पूरे अस्तित्त्व पर मन ने अधिकार जमा लिया है; यह कैंसर की भांति तुम्हारे ऊपर फैल गया है, पीछे कुछ भी नहीं छूटा है। अहंकार कैंसर है भीतर का- आत्मा का कैंसर है।
और एकमात्र इलाज है, एकमात्र इलाज मैं कहता हूं- ध्यान। तब तुम अपने मन से कुछ क्षेत्र वापस लेना शुरू कर देते हो। और यह प्रक्रिया कठिन है, पर आनंददायी भी है। प्रक्रिया कठिन है लेकिन जादू भरी है। प्रक्रिया कठिन है परंतु चुनौतीपूर्ण है, रोमांचक है। यह तुम्हारे जीवन में एक नया आनंद लाएगी। जब तुम रोबोट से अपना अधिकार-क्षेत्र वापस पा लोगे तो तुम हैरान होकर देखोगे कि तुम एक सर्वथा नए व्यक्ति बन रहे हो, कि तुम्हारा अस्तित्त्व फिर से नया हो गया है, कि यह तो एक नया जन्म है।
और तुम चकित होओगे कि तुम्हारी आंखें पहले से अधिक देखती हैं, तुम्हारे कान पहले से अधिक सुनते हैं, तुम्हारे हाथ पहले से अधिक स्पर्श करते हैं, तुम्हारी देह पहले से अधिक अनुभव करती है, तुम्हारा हृदय अधिक प्रेम करता है- हर चीज पहले से अधिक हो जाती है। और अधिक केवल परिमाण में ही नहीं, गुणात्मक रूप में भी। तुम न केवल अधिक वृक्ष देखते हो, बल्कि वृक्षों में और गहरा देखते हो। वह जो वृक्षों में हरा है वह और हरा हो जाता है- इतना ही नहीं, बल्कि यह प्रदीप्त हो उठता है। इतना ही नहीं, बल्कि वृक्ष अपना एक व्यक्तित्व पाने लगता है। इतना ही नहीं, बल्कि अब तुम अस्तित्त्व के साथ सहभागिता की अनुभूति कर सकते हो।
और जितने अधिक अधिकार-क्षेत्र तुम पा लोगे, उतना ही तुम्हारा जीवन अधिकाधिक जगमग और रंगीन हो जाएगा। तब तुम एक इंद्रधनुष बन गए- सभी रंगोंवाले, संगीत के सभी स्वर- पूरी अष्टपदी। तुम्हारा जीवन और समृद्ध हो गया, बहु-आयामी, जिसमें गहराई है, ऊंचाई है, अतिसुंदर वादियां हैं और अति सुंदर सूर्योज्ज्वल शिखर हैं।
तुम फैलना शुरू हो जाते हो। तुम जैसे ही रोबोट से अपने अधिकार वापस ले लेते हो, तुम जीवंत होना शुरू हो जाते हो।
यह ध्यान का चमत्कार है; यह कुछ ऐसी चीज है जिसे चूकना नहीं चाहिए। जो लोग इसे चूक गए हैं, वे जीए ही नहीं हैं। और जीवन को ऐसी सघनता में, ऐसी मस्ती में जानना, यह जानना है कि मृत्यु नहीं है। जीवन को न जानना मृत्यु को पैदा करता है; जीवन का अज्ञान मृत्यु को पैदा करता है।
जीवन को जानना यह जानना है कि मृत्यु नहीं है, कभी थी ही नहीं। मैं घोषणा करता हूंः कोई कभी नहीं मरा, और कोई कभी नहीं मरेगा। चीजों का स्वरूप ऐसा है कि मृत्यु असंभव है- केवल जीवन है। हां, जीवन अपने रूप बदलता रहता हैः एक दिन तुम यह हो, और दूसरे दिन तुम कुछ और ही हो। वह बच्चा कहां गया जो तुम कभी थे? क्या वह बच्चा मर गया? क्या तुम कह सकते हो कि वह बच्चा मर गया? बच्चा मर नहीं गया है, फिर तब बच्चा है कहां? रूप बदल गया है।
 बच्चा अपने सारतत्त्व में अभी भी मौजूद है, लेकिन अब तुम जवान पुरुष अथवा जवान स्त्री बन गए हो। बच्चा अपने पूरे सौंदर्य के साथ विद्यमान है; उसके ऊपर नई समृद्धियां आच्छादित कर दी गयी हैं। और फिर एक दिन तुम बूढ़े हो जाओगे। तब तुम्हारी जवानी कहां गयी? मर गयी? नहीं, फिर कुछ और अधिक घटित हुआ है। बुढ़ापा अपनी फसल ले आया है, बुढ़ापा अपनी बुद्धिमत्ता ले आया है, बुढ़ापा अपनी सुंदरताएं ले आया है।
बच्चा निर्दोष है, वह उसका सारतत्त्व है। जवानी ऊर्जा से लबालब है, वह उसका सारतत्त्व है। और बूढ़े व्यक्ति ने सब देख लिया है, सब जी लिया है, सब जान लिया हैः बुद्धिमत्ता घटित हुई है, वह उसका सारतत्त्व है। परंतु उसकी बुद्धिमत्ता में उसकी जवानी का कुछ अंश मौजूद है; यह भी लबालब है, प्रदीप्त है, तरंगायित है, धड़कती है, जीवंत है। और इसमें बच्चे का भी कुछ अंश है; यह निर्दोष है।
अगर बूढ़ा आदमी जवान भी नहीं है, तब केवल उसकी उम्र बढ़ी है, वह बूढ़ा नहीं हुआ है। वह समय और आयु में बढ़ा है, परंतु परिपक्व (विकसित) नहीं हुआ है। वह चूक गया है। अगर बूढ़ा आदमी बच्चे की भांति निर्दोष नहीं है, अगर उसकी आंखों से बच्चे की भांति स्फटिक स्पष्टता नहीं झलकती, तब उसने अभी तक जीया ही नहीं है।
अगर तुम समग्रता से जीयो तो होशियारी और कुटिलता गायब हो जाएगी और श्रद्धा पैदा होगी। ये सब कसौटियां हैं जिनसे पता चलता है कि तुम जीए कि नहीं। बच्चा कभी मरता नहीं है, उसका केवल रूपांतरण होता है। जवान कभी मरता नहीं है, बस फिर एक नया रूपांतरण होता है। और क्या तुम सोचते हो कि बूढ़ा आदमी मर जाता है? हां, देह गायब हो जाती है, क्योंकि इसका काम पूरा हो गया। किंतु चैतन्य की यात्रा जारी रहती है।
अगर मृत्यु एक सत्य होती, तो अस्तित्त्व बिल्कुल व्यर्थ होता, अस्तित्त्व पागल होता। अगर एक बुद्ध की मृत्यु होती है, उसका अभिप्राय है कि एक ऐसा अपूर्व सुंदर संगीत, ऐसी गरिमा, ऐसी महिमा, ऐसी सुंदरता, ऐसा काव्य अस्तित्त्व से अदृश्य हो गया। तब तो अस्तित्त्व बहुत मूढ़ है। तब प्रयोजन ही क्या हुआ? तब विकास कैसे संभव है? तब क्रमिक विकास कैसे संभव है?
बुद्ध तो एक दुर्लभ हीरे हैं। यह घटना कभी-कभार घटित होती है। लाखो-करोड़ों लोग कोशिश करते हैं, तब कहीं कोई एक व्यक्ति बुद्ध बनता है। और फिर उसकी मृत्यु होती है, और सब समाप्त हो जाता है। फिर क्या प्रयोजन हुआ?
नहीं, बुद्ध मर नहीं सकते। वे विलीन हो जाते हैं, अस्तित्त्व उनको अपने में समा लेता है। बुद्ध बने रहते हैं। अब यह सातत्य देह मुक्त है; क्योंकि अब वे इतने वितीर्ण हो गए हैं कि कोई देह उनको अपने में समाहित नहीं कर सकती सिवाय स्वयं समष्टि के। वे इतने सागर जैसे हो गए हैं कि अब उनके छोटे-छोटे रूप संभव नहीं हैं। अब उनका केवल सारभूत अस्तित्व होता है। अब फूल की भांति नहीं, केवल सुगंध की भांति ही उनका अस्तित्त्व होता है। अब वे आकार नहीं ले सकते, अब वे केवल अस्तित्त्व की एक निराकार प्रज्ञा की भांति रह सकते हैं।
विश्व अधिकाधिक प्रज्ञावान हुआ है। बुद्ध के पहले यह इतना बुद्धिमान नहीं था, कुछ अभाव था। जीसस के पहले यह इतना बुद्धिमान नहीं था, मोहम्मद के पहले यह इतना बुद्धिमान नहीं था। इन सबका योगदान है। अगर तुम ठीक समझो, परमात्मा कुछ ऐसी घटना नहीं है जो घटित हो चुकी, बल्कि जो घटित हो रही है।
परमात्मा प्रतिदिन घटित हो रहा है। बुद्ध ने कुछ सृजन किया है, महावीर ने कुछ सृजन किया है, पतंजली ने कुछ सृजन किया है, लाओत्सु, जरथुत्र, अतीशा, तिलोपा- इन सबका योगदान है।
परमात्मा का सृजन हो रहा है। तुम्हारे हृदयों को पुलकित हो जाने दो कि तुम भी परमात्मा का सृजन कर सकते हो। तुम्हें बार-बार यह बताया गया है कि परमात्मा ने दुनिया को बनाया। मैं तुम्हें बताना चाहूंगाः हम प्रतिदिन परमात्मा का सृजन कर रहे हैं।
और तुम परिवर्तन देख सकते हो। अगर तुम ओल्ड टेस्टामेंट में देखो, तो ओल्ड टेस्टामेंट का ईश्वर जो शब्द बोलता है वे बहुत मूढ़तापूर्ण हैं। ओल्ड टेस्टामेंट का ईश्वर कहता हैः मैं बहुत ईर्ष्यालु ईश्वर हूं। क्या तुम ईश्वर को ईर्ष्यालु सोच सकते हो? जो मेरा अनुकरण नहीं करेंगे उन्हें कुचलकर नरक की अग्नि में फेंक दिया जाए। वे लोग जो मेरी आज्ञा नहीं मानते, उनसे बदला लिया जाएगा।
क्या तुम बुद्ध के मुंह से निकलते ऐसे शब्द सोच सकते हो? नहीं, परमात्मा की धारणा का प्रतिदिन परिष्कार हो रहा है। मोज़ेज़ का परमात्मा आदिम है, प्रारंभिक है, अल्पविकसित है; जीसस का परमात्मा कहीं अधिक परिष्कृत, कहीं अधिक सुसंस्कृत है। जितना अधिक मनुष्य सुसंस्कृत होता है, उतना अधिक उसका परमात्मा सुशिक्षित होता है। जितनी अधिक मनुष्य में समझ बढ़ती है, उतना अधिक उसका परमात्मा समझदार होता है, क्योंकि तुम्हारा परमात्मा तुम्हारा प्रतिनिधित्व करता है।
मोज़ेज़ का परमात्मा नियम है, जीसस का परमात्मा प्रेम है। बुद्ध का परमात्मा करुणा है, अतीशा का परमात्मा एकदम शून्य और मौन है।
हम परमात्मा के नए आयामों की खोज कर रहे हैं, हम परमात्मा में नए आयाम जोड़ रहे हैं, परमात्मा का सृजन किया जा रहा है। तुम केवल खोजी ही नहीं हो, तुम सर्जक भी हो। और भविष्य परमात्मा के और बेहतर दर्शन करेगा।
बुद्ध कभी मरते नहीं, वे हमारी परमात्मा की धारणा में विलीन हो जाते हैं। जीसस हमारे परमात्मा के सागर में समाहित हो जाते हैं। और वे लोग जो अभी जागृत नहीं हुए हैं, वे भी मरते नहीं हैं। उन्हें किसी न किसी रूप में पुनः-पुनः आना पड़ता है, क्योंकि जाग्रत होने की संभावना रूपों के माध्यम से ही केवल होती है।
विश्व एक संदर्भ है जाग्रत होने के लिए- एक अवसर है।
अतीशा को याद करो। वह कहता है- अवसर की प्रतीक्षा मत करो- क्योंकि विश्व ही एक अवसर है; हम पहले से ही इसमें हैं। विश्व एक अवसर है सीखने के लिए। यह विरोधाभासी प्रतीत होता हैः समय एक अवसर है समयातीत को सीखने का, देह एक अवसर है देहातीत को जानने का, पदार्थ एक अवसर है चैतन्य को सीखने का, सेक्स एक अवसर है समाधि को सीखने का। यह पूरा अस्तित्त्व एक अवसर है।
क्रोध एक अवसर है करुणा को सीखने का। लोभ एक अवसर है बांटना सीखने के लिए। और मृत्यु एक अवसर है अहंकार में जाने और देखने के लिए कि मैं हूं कि मैं नहीं हूं। अगर मैं हूं, तब शायद मृत्यु संभव है। अगर तुम यह जान लो कि तुम नहीं हो, केवल शुद्ध शून्य है भीतर, कि भीतर कोई नहीं है- अगर तुम अपने भीतर कोई नहीं अनुभव कर सको, तब मृत्यु कहां है? मृत्यु क्या है? कौन मर सकता है?
वंदना, तुम्हारा प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। तुम पूछती होः क्या आप मृत्यु के संबंध में कुछ कहेंगे?
केवल एक ही बात कि मृत्यु नहीं होती।
और तुम पूछती हो...  और मृत्यु की कला क्या है?
जब मृत्यु है ही नहीं, तुम मृत्यु की कला कैसे सीखोगी? तुम्हें जीने की कला सीखनी होगी। अगर तुम जीवन जीना जानती हो, तो तुम जीवन और मृत्यु के संबंध में सब कुछ जान जाओगी। लेकिन तुम्हें विधायक की ओर जाना होगा।
कभी भी नकार को अपने अध्ययन का विषय मत बनाओ, क्योंकि नकार है ही नहीं। तुम कितना ही उस पर काम करते रहो, तुम कहीं नहीं पहुंचोगे। प्रकाश को समझने की कोशिश करो, अंधकार को नहीं। जीवन को समझने की कोशिश करो, मृत्यु को नहीं। प्रेम को समझने की कोशिश करो, घृणा को नहीं।
अगर तुम घृणा में जाओ, तुम कभी इसे समझ नहीं पाओगे, क्योंकि घृणा प्रेम की अनुपस्थिति है। ऐसे ही अधंकार प्रकाश की अनुपस्थिति है। तुम अनुपस्थिति को कैसे समझ सकते हो?
अगर तुम मुझे समझना चाहते हो, तब तुम मुझे समझो, मेरी अनुपस्थिति को नहीं। अगर तुम इस कुर्सी का अध्ययन करना चाहते हो, तो इस कुर्सी का ही अध्ययन करना होगा- न कि जब आशीष इसे उठाकर लेकर चला गया है, तब तुम अनुपस्थिति का अध्ययन करने लगोगे। तुम किस बात का अध्ययन करोगे?
सदा सजग रहो। कभी किसी नकार में मत फंसो। अनेक लोक नकारात्मक चीजों का अध्ययन करते रहते हैं; व्यर्थ उनकी ऊर्जा नष्ट हो जाती है।
मृत्यु की कोई कला नहीं है। अथवा जीने की कला ही मरने की कला है। जीयो!
परंतु तुम्हारे तथाकथित धार्मिक लोग तुम्हें सिखाते रहे हैं कि जीयो मत। वे मृत्यु के निर्माता हैं। बहुत परोक्ष ढंग से उन्होंने मृत्यु की रचना की है, क्योंकि उन्होंने तुम्हें जीने के प्रति बहुत भयभीत कर दिया है। सब कुछ गलत हैः जीवन गलत है, संसार गलत है, शरीर गलत है, प्रेम गलत है, संबंध गलत है, किसी चीज का मजा लेना गलत है। उन्होंने तुम्हारे भीतर प्रत्येक चीज के प्रति इतना अपराध-भाव भर दिया है, हर चीज की इतनी निंदा कर दी है कि तुम जी नहीं सकते।
और जब तुम जी ही नहीं सकते, तो फिर क्या रह गया? अनुपस्थिति, जीवन की अनुपस्थिति- और वही मृत्यु है। और तब तुम कांप रहे हो, उस चीज के सामने कांप रहे हो, जो है ही नहीं, जो तुम्हारी अपनी ही रचना है। और चूंकि तुम मृत्यु के महान भय में कांपने लगते हो, पुरोहित बहुत शक्तिशाली बन जाता है। वह कहता है, मत चिंता करो, मैं हूं तुम्हारी मदद करने को। मेरा अनुकरण करो। मैं तुम्हें नरक से बचाऊंगा और मैं तुम्हें स्वर्ग में ले जाऊंगा। और जो लोग मेरे साथ हो गए हैं बच जाएंगे, और कोई भी नहीं बचेगा।
ईसाई ऐसी ही बातें लोगों को कहते रहते हैं, जब तक तुम ईसाई नहीं बनते, तुम बच नहीं सकते। केवल जीसस ही तुम्हारी रक्षा करेगा। निर्णय का दिन निकट आ रहा है, और निर्णय के दिन, जो लोग जीसस के साथ होंगे, वह उन्हें पहचान लेगा। वह उनको चुन लेगा। और दूसरे लोग, लाखों-करोड़ों लोग, सदा-सदा के लिए केवल नरक में फेंक दिए जाएंगे। स्मरण रहे, भागने का कोई उपाय नहीं है, वे सनातन काल तक नरक में फेंक दिए जाएंगे।
और ऐसा ही दूसरे धर्मों का रवैया है। लेकिन लोग भय के कारण किसी भी चीज से चिपकने लगते हैं- जो भी उनके एकदम निकट उपलब्ध हो। अगर तुम संयोग से हिंदू, जैन या यहूदी घर में पैदा हो गए हो, तो तुम यहूदी, जैन या हिंदू बन जाते हो, जैसा भी संयोग हो। जो भी निकट में उपलब्ध है, बच्चा उसी से चिपकने लगता है।
मेरा दृष्टिकोण एकदम भिन्न है। मैं नहीं कहता कि भयभीत होओ- वह तो पुरोहित की चाल है, वह तो उसका व्यावसायिक रहस्य है। मैं कहता हूं कि डर की कोई बात नहीं है, क्योंकि परमात्मा तुम्हारे भीतर है। डरने की कोई बात नहीं है। जीवन को भयमुक्त होकर जीयो। प्रत्येक क्षण को जितनी सघनता से जी सकते हो जीयो। सघनता का स्मरण रखो। और अगर तुम किसी क्षण को सघनता से नहीं जीते हो, तब क्या होता है? तुम्हारा मन दोहराने को लालायित रहता है।
तुम एक स्त्री को प्रेम करते हो, तुम्हारा मन उसे दोहराने को लालायित रहता है। क्यों? तुम एक ही अनुभव को फिर-फिर दोहराने के लिए क्यों लालायित रहते हो? तुम एक प्रकार का खाना खाते हो, तुम इसका आनंद लेते हो, अब तुम उसी भोजन के लिए ललचाते हो। क्यों? कारण यह है कि तुम जो भी करते हो, तुम कभी उसे समग्रतापूर्वक नहीं करते। इसलिए तुम्हारे भीतर कुछ अतृप्ति बनी रहती है। अगर तुम इसे समग्रतापूर्वक करो, तो तुम उसकी पुनरावृत्ति के लिए लालायित नहीं होओगे और तुम कुछ नए की खोज करोगे, अज्ञात का अन्वेषण करोगे। तुम एक दुष्चक्र में ही नहीं घूमते रहोगे, तुम्हारा जीवन एक विकास हो जाएगा। आमतौर पर लोग वर्तुल में घूमते रहते हैं। वे आगे बढ़ते दिखाई पड़ते हैं, किंतु वे केवल दिखाई भर पड़ते हैं।
विकास का अभिप्राय है कि तुम वर्तुल में नहीं घूम रहे हो, प्रतिदिन कुछ नया घटित हो रहा है, वास्तव में प्रत्येक क्षण कुछ नया हो रहा है। और यह कब संभव होता है? जब तुम सघनतापूर्वक जीना शुरू कर देते हो।
मैं तुम्हें सिखाना चाहूंगा कि कैसे तल्लीनता और समग्रतापूर्वक खाएं, कैसे सघनता और समग्रतापूर्वक प्रेम करें, कैसे छोटी-छोटी चीजें इतनी मस्ती से करें कि कुछ पीछे न छूट जाए। अगर तुम हंसो, तो वह हंसी तुम्हारी जड़ों को हिला दे। अगर तुम रोओ, तो आंसू हो जाओ; आंसुओं के माध्यम से तुम्हारा हृदय उंडेल दिया जाए। अगर तुम किसी का आलिंगन करो, तो आलिंगन ही हो जाओ। अगर तुम किसी का चुंबन लो, तो ओंठ ही हो जाओ, केवल चुंबन ही हो जाओ। और तुम चकित हो जाओगे कि अब तक तुम कितना चूकते रहे हो, कितना तुम चूक गए हो, कैसे तुम अब तक कुनकुने ढंग से जीते रहे हो।
मैं तुम्हें जीने की कला सिखा सकता हूं। उसी में मरने की कला निहित है; तुम्हें इसे अलग से नहीं सीखना है। जो व्यक्ति जीना जानता है, वह मरना भी जानता है। जो व्यक्ति प्रेम में उतरना जानता है, वह यह भी जानता है कि किस क्षण प्रेम के बाहर आ जाना। वह शालीनता से, अहोभावपूर्वक अलविदा कहते हुए प्रेम के बाहर आ जाता है- किंतु केवल वही व्यक्ति जो प्रेम करना जानता है।
लोग नहीं जानते कि कैसे प्रेम करें? और कैसे अलविदा कहें? जब यह कहने का क्षण आता है। अगर तुम प्रेम करते हो तो तुम यह भी जानोगे कि प्रत्येक चीज का प्रारंभ है और प्रत्येक चीज का अंत भी, यह कि शुरू होने का समय होता है और समाप्त होने का भी समय होता है, और इसमें कोई घाव नहीं है। व्यक्ति को घाव नहीं लगता, व्यक्ति जान लेता है कि मौसम चला गया। व्यक्ति निराश नहीं होता है, व्यक्ति इसे बस समझ लेता है।
और व्यक्ति दूसरे को धन्यवाद देता हैः तुमने मुझे कितने सुंदर उपहार दिए! तुमने मुझे जीवन के नए दृष्टिकोण दिए, तुमने कुछ झरोखे खोले जिन्हें मैं अपने आप शायद कभी न खोल पाता। अब समय आ गया है कि हम अलग हो जाएं और अपने रास्ते अलग कर लें। किसी क्रोध में नहीं, किसी आक्रोश में नहीं, किसी शिकवे-शिकायत में नहीं, बल्कि गहन अहोभाव और बहुत प्रेम के साथ, धन्यवाद से भरे हृदय के साथ।
अगर तुम प्रेम करना जानते हो, तो तुम अलग होना भी जानोगे। तुम्हारे अलग होने में एक सौंदर्य और एक गरिमा होगी। और जीवन के साथ भी ठीक ऐसा ही हैः अगर तुम जानते हो कैसे जीएं, तो तुम मृत्यु की कला भी जानोगे। तुम्हारी मृत्यु अत्यंत सुंदर होगी।
सुकरात की मृत्यु बहुत सुंदर होती है, बुद्ध की मृत्यु बहुत सुंदर होती है। जिस दिन बुद्ध की मृत्यु हुई, उस सुबह उन्होंने अपनी सभी शिष्यों को, सभी भिक्षुओं को एकत्रित किया और उन्हें बताया, अब अंतिम दिन आ गया है, मेरी नौका आ गयी है और मुझे जाना है। यह एक सुंदर यात्रा थी, एक सुंदर संग-साथ था। अगर तुम्हें कोई प्रश्न पूछने हों, तो तुम पूछ सकते हो, क्योंकि आज के बाद मैं तुम्हें भौतिक रूप से उपलब्ध नहीं रहूंगा।
शिष्यों पर एक गहन मौन, एक गहन उदासी उतर आई। बुद्ध हंसे और बोले, उदास मत होओ, क्योंकि यही तो मैं तुम्हें बार-बार सिखाता रहा हूंः जिसका प्रारंभ है उसका अंत है। अब मुझे मेरी मृत्यु के माध्यम से भी तुम्हें सिखा देने दो। जैसे मैं तुम्हें अपने जीवन के द्वारा सिखाता रहा हूं, अब मुझे मेरी मृत्यु के द्वारा भी तुम्हें सिखा देने दो।
किसी को कोई प्रश्न पूछने का साहस नहीं हुआ। उन्होंने पूरा जीवन हज़ारों प्रश्न पूछे थे, और यह कोई प्रश्न पूछने का क्षण न था, उनकी ऐसी मनोदशा न थी, वे तो रो रहे थे।
तो बुद्ध ने कहा, ‘अलविदा।’ अगर तुम्हारे कोई प्रश्न नहीं हैं तो मैं विदा होता हूं। वे आंख बंद करके वृक्ष के नीचे बैठ गए और देह से अदृश्य हो गए। बौद्ध परंपरा में, ऐसे देह से अदृश्य हो जाने को प्रथम ध्यान कहा जाता है। इसका अभिप्राय है अपने शरीर से अपना तादात्म्य तोड़ लेना और समग्रतः, पूर्णतः जान लेना कि मैं शरीर नहीं हूं।
तुम्हारे मन में प्रश्न अवश्य पैदा होगाः क्या यह बुद्ध पहले से नहीं जानते थे? वे इसे पहले से जानते थे, लेकिन बुद्ध जैसे व्यक्ति को तब कोई ऐसी युक्ति निर्मित करनी पड़ती है जिसके द्वारा उनका थोड़ा सा संबंध देह से बना रह सके। अन्यथा वे बहुत पहले ही देह छोड़ देते- बयालीस साल पहले ही वे देह छोड़ दिए होते। जिस दिन उनको संबोधि घटित हुई, उसी दिन। करुणा के कारण उन्होंने एक वासना निर्मित की- दूसरों की मदद करने की वासना। यह भी एक वासना ही है, और यही वासना व्यक्ति को देह के साथ जोड़े रखती है।
उन्होंने लोगों की मदद करने की वासना निर्मित की। मैंने जो कुछ भी जाना है, उसे मुझे बांटना है। अगर तुम बांटना चाहते हो, तो तुम्हें अपने मन और शरीर का उपयोग करना पड़ेगा। वह छोटा सा अंश जुड़ा रहा।
अब वे देह में इस छोटी सी जड़ को भी काट देते हैं; अब उनका देह से तादात्म्य टूट जाता है। प्रथम ध्यान पूरा हुआ, देह छूट गई।
तब दूसरा ध्यानः मन छोड़ दिया गया। उन्होंने बहुत पहले मन को छोड़ दिया थाः एक मालिक की भांति इसे छोड़ दिया था, लेकिन एक दास की भांति इसका अभी भी उपयोग किया जा रहा था। अब तो इसकी एक दास की भांति भी जरूरत न रही, इसे पूरी तरह छोड़ दिया गया है, समग्रतः छोड़ दिया गया है।
और तब तीसरा ध्यानः उन्होंने अपना हृदय छोड़ दिया। अब तक इसकी जरूरत थी, वे अपने हृदय के माध्यम से संचालित हो रहे थे, अन्यथा करुणा संभव न होती। वे हृदय ही थे; अब उन्होंने हृदय से भी अपना संबंध तोड़ दिया।
जब ये तीन ध्यान पूरे होते हैं, तब चौथा घटित होता है। अब वे एक व्यक्ति न रहे, एक आकार न रहे, एक लहर न रहे। वे सागर में विलीन हो गए। वे वही हो गए जो वे सदा से थे। वे वही हो गए जिसे उन्होंने बयालीस वर्ष पूर्व जान लिया था, लेकिन किसी प्रकार से विलंब करने का प्रयास कर रहे थे, ताकि लोगों की मदद कर सकें।
उनकी मृत्यु ध्यान का एक अत्यंत प्रभावकारी प्रयोग है। और कहा जाता है कि अनेक जो वहां उपस्थित थे, केवल उन्हें धीरे-धीरे जाते देखकर...  पहले उन्होंने देखा कि देह पहले जैसी नहीं रही, देह से जीवंतता अदृश्य हो गयी। देह वहीं थी, लेकिन एक बुत की भांति। जो लोग और गहरा देख सकते थे, अधिक ध्यानपूर्ण थे, उन्होंने तुरंत देख लिया कि अब मन को भी छोड़ दिया गया था और भीतर मन नहीं बचा था। जो लोग और भी अधिक गहरा देख सकते थे, वे देख सके कि हृदय भी समाप्त हो गया था। और जो लोग वास्तव में बुद्धत्व के कगार पर खड़े थे, बुद्ध को अदृश्य होते देखकर वे भी अदृश्य हो गए।
जिस दिन बुद्ध की मृत्यु हुई उस दिन उनके अनेक शिष्य संबोधि को उपलब्ध हुए- अनेक, केवल उन्हें मरते देखकर। उन्होंने उन्हें जीते देखा था, उन्होंने उनका जीवन देखा था, लेकिन अब चरमोत्कर्ष आ गया था। उन्होंने उनको मरते देखा, ऐसी सुंदर मृत्यु, ऐसी गरिमा, ऐसी ध्यानमयता। यह देखते हुए अनेक जाग्रस्त हो गए।
एक बुद्ध के साथ होना, एक बुद्ध के साथ जीना, उसके प्रेम की बौछारें प्राप्त करना- एक वरदान है। लेकिन सबसे बड़ा वरदान है तब उपस्थित होना जब एक बुद्ध की मृत्यु होती है। तब तो तुम उस ऊर्जा पर सवार हो सकते हो, तुम उस ऊर्जा के साथ एक महान छलांग ले सकते हो- क्योंकि बुद्ध अदृश्य हो रहे हैं, और अगर तुम्हारा प्रेम महान है और तुम्हारा संबंध गहरा है, तो यह घटना अवश्य घटती है।
ऐसी ही मेरे अनेक संन्यासियों के साथ घटना घटेगी। जिस दिन मैं अदृश्य होऊंगा, तुममें से अनेक मेरे साथ अदृश्य हो जाएंगे।
विवेक मुझे बार-बार कहती है, आपके जाने के बाद मैं एक क्षण भी नहीं जीना चाहती। मैंने उसे कहा, ‘फिक्र मत कर। तुम अगर जीना भी चाहो, तो भी तुम जी न सकोगी।’ अभी कुछ दिन पहले दीक्षा विवेक से कह रही थी, ‘जिस क्षण भगवान गए, मैं भी गई।’
यह सच है। लेकिन यह केवल विवेक और दीक्षा के बारे में ही सच नहीं है, यह तुममें से बहुतों के बारे में सच है। और यह कुछ ऐसा नहीं है कि तुम्हें इसे करना पड़ेगा, यह घटना तो अपने आप घटित होगी। यह तो एक घटना होगी। लेकिन यह केवल तभी संभव है अगर तुम अपने भीतर पूरी श्रद्धा को घटित होने दो।
मेरे जीवित होते हुए, अगर तुम पूरी श्रद्धा को घटित होने दो, तब तुम मेरी मृत्यु में भी मेरे साथ हो सकते हो। लेकिन अगर थोड़ा सा भी संदेह है, तो तुम सोचोगे, लेकिन मैंने अभी तक बहुत सी चीजें नहीं की हैं और मुझे अपना जीवन भी जीना है। मैं जानता हूं कि यह दुखद है कि सदगुरु का जाना हो रहा है, लेकिन मुझे बहुत सी चीजें करनी हैं, मुझे अपना जीवन जीना है...  और हजारों वासनाएं। अगर थोड़ा सा भी संदेह है, इसमें हजारों वासनाओं का जन्म होगा।
लेकिन अगर संदेह नहीं है, तब सदगुरु की मृत्यु इस पृथ्वी पर कभी भी घटित होने वाली सर्वाधिक मुक्तिदायी अनुभूति है।
बुद्ध बहुत सौभाग्यशाली थे कि उनके महान शिष्य थे। जीसस इतने सौभाग्यशाली नहीं थे, उनके शिष्य कायर थे। उनकी जब मृत्यु हो रही थी, वे सब पलायन कर गए। जब वे सूली पर चढ़े थे, वे शिष्य मीलों दूर भाग गए थे- भय से कि कहीं पकड़े न जाएं। तीन दिनों के बाद जहां उनकी देह रखी गयी थी, वहां से जब पत्थर हटाया गया था उस समय, उनके पटशिष्यों में से कोई एक भी वहां मौजूद न था। केवल मैरी मगदलीन, वेश्या और एक दूसरी मैरी- दो स्त्रियों- ने साहस जुटाया।
शिष्यों को यह भय था कि अगर वे देखने गए कि उनके सदगुरु की देह का क्या हुआ है, अथवा वे देह को नीचे उतारने गए, वे पकड़े जा सकते हैं। केवल दो स्त्रियों में पर्याप्त प्रेम था। जब जीसस के शरीर को सूली से उतारा गया, तब भी तीन स्त्रियों ने उनके शरीर को नीचे उतारा। वे सब महान पटशिष्य वहां नहीं थे।
जीसस बहुत सौभाग्यशाली नहीं थे। और कारण साफ हैः वे कुछ नए का प्रारंभ कर रहे थे। पूरब में, लाखों-करोड़ों वर्षों से बुद्ध होते रहे हैं। समय के बारे में पाश्चात्य धारणा सही नहीं है, समय की पाश्चात्य धारणा बहुत छोटी है, और यह ईसाइयत के कारण ही बहुत छोटी है। ईसाई सिद्धांतवादियों ने यहां तक कि गणना कर ली है कि कब दुनिया निर्मित हुईः 19 मार्च को। मैं विस्मित हो रहा था, इक्कीस क्यों नहीं? परमात्मा केवल दो दिन ही चूक गया! क्राइस्ट के चार हज़ार चार सौ वर्ष पहले, दुनिया बनाई गयी। समय की बहुत छोटी सी धारणा है यह।
यह दुनिया लाखों-करोड़ों वर्षों से अस्तित्त्व में है। अब विज्ञान भी समय की पूर्वीय धारणा के अधिकाधिक निकट आता जा रहा है। पूरब में, हज़ारों-हज़ारों वर्षों से बुद्ध होते रहे हैं, इसलिए हम जानते हैं कि एक बुद्ध के साथ कैसे होना- कैसे उनके साथ जीना, कैसे उन में श्रद्धा करना, और जब वे मर रहे हों तब उनके साथ कैसे होना, और कैसे उनके साथ मरना।
ईसाइयत और पाश्चात्य शिक्षा की कृपा से, इसमें से बहुत कुछ भुला दिया गया है। आधुनिक भारतीय तो बिल्कुल भारतीय नहीं हैं। भारत में भारतीयों को ढूंढना बहुत मुश्किल है, लगभग असंभव है। केवल कभी-कभार मुझे कोई भारतीय मिलता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि जो लोग बहुत दूर-दूर देशों से आते हैं वे तथाकथित भारतीयों से कहीं अधिक भारतीय होते हैं। तीन सौ वर्षों के पाश्चात्य आधिपत्य और पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय मानस को पूर्णतः उखाड़ फेंका है।
अब पूर्वीय मन से अधिक पश्चिमी मन बुद्धों को समझने के निकट से निकट आता जा रहा है। और कारण यह है कि पश्चिम टैक्नालॉजी और विज्ञान से ऊबता जा रहा है, और अधिकाधिक निराश होता जा रहा है, और उसने देख लिया है कि विज्ञान ने जो आशा बंधायी थी, उसे वह पूरा नहीं कर पाया है। वास्तव में उसने यह देख लिया है कि सभी क्रांतियां असफल हो गई हैं। और अब केवल एक ही क्रांति बची हैः आंतरिक क्रांति, जो आंतरिक रूपांतरण से घटित होती है।
भारतीय अभी भी आशा कर रहे हैं कि थोड़ी सी बेहतर तकनीक से, थोड़ी सी बेहतर सरकार से, थोड़े से और धन से, थोड़े अधिक उत्पादन से सब कुछ ठीक हो जाएगा। भारतीय मन आशा कर रहा है, यह बहुत भौतिकवादी है। आधुनिक भारतीय किसी और देश के लोगों से कहीं अधिक भौतिकवादी है। भौतिकवादी देश भौतिकता से ऊब गए हैं। यह असफल हो गया है; वे निराश हैं और उनका भ्रम टूट गया है।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूंः मेरे संन्यासी अधिक भारतीय हैं। चाहे वे जर्मन हों, चाहे वे नार्वे के हों, चाहे वे डच हों, चाहे वे इतालवी, फ्रांसीसी, अंग्रेज, अमरीकी, रूसी, चेकोलावाकियन, जापानी, चीनी हों, लेकिन वे कहीं अधिक भारतीय हैं।
पत्रकार यहां बार-बार आते हैं और पूछते हैंः ‘यहां हमें अधिक भारतीय क्यों नहीं दिखाई देते हैं?’ और मैं कहता हूंः ‘वे सब भारतीय हैं! कुछ थोड़े से विदेशी हैं- कुछ थोड़े से जिन्हें तुम भारतीय समझते हो, बस केवल वही विदेशी हैं। अन्यथा वे सभी भारतीय हैं।’
भारतीय होना कोई भौगोलिक बात नहीं है, यह तो सत्य के प्रति आंतरिक दृष्टिकोण की कुछ बात है। आधुनिक भारत बुद्ध का मार्ग भूल गया है और यह भी भूल गया है कि बुद्धों के साथ कैसे जीया जाता है?
मैं उस संपदा को तुम्हारे सामने पुनः प्रकट करने का प्रयास कर रहा हूं। यह तुम्हारे हृदय की गहराई में उतर जाने दोः पहला सूत्र है जीने की कला। विधायक-भाव से जीवन जीयो। जीवन परमात्मा का पर्यायवाची है; तुम परमात्मा शब्द को छोड़ सकते हो। जीवन परमात्मा है। जीवन का आदर करते हुए बहुत अहोभावपूर्वक जीवन को जीयो। तुम इस जीवन के पात्र नहीं हो, सहज एक उपहार की भांति तुम्हें यह जीवन प्राप्त हुआ है। अनुगृहीत हो और प्रार्थना से भरो और जितना इसका स्वाद ले सकते हो लो, इसका रसास्वादन करो।
अपने जीवन को सौंदर्यबोध की एक अनुभूति बनाओ। और इसे सौंदर्यबोध की एक अनुभूति बनाने के लिए बहुत कुछ की आवश्यकता नहीं होती है; बस एक सौंदर्यबोध की चेतना चाहिए, एक संवेदनशील आत्मा चाहिए। और अधिक संवेदनशील बनो, और अधिक सेंसुअल बनो, और इससे तुम अधिक आध्यात्मिक बन जाओगे।
पुरोहितों ने तुम्हारे शरीर को लगभग मृत्यु की अवस्था में ला दिया है। तुम पक्षाघातग्रस्त शरीरों, पक्षाघातग्रस्त मनों और पक्षाघातग्रस्त आत्माओं को ढो रहे होः तुम बैसाखियों के सहारे चल रहे हो। वे सब बैसाखियां फेंक दो। अगर तुम गिर भी जाओ और जमीन पर रेंगना पड़े, तो वह भी बैसाखियों से चिपके रहने से बेहतर होगा।
और जीवन को उसके अच्छा-बुरा, कड़वा-मीठा, अंधकार-प्रकाश, गर्मी-सर्दी- हर संभव रूप में अनुभव करो। सभी द्वंद्वों का अनुभव करो। अनुभव से मत घबराओ, क्योंकि जितना अधिक तुम्हारा अनुभव होगा उतने अधिक तुम परिपक्व बनोगे। सभी संभावित विकल्पों को खोजो, सभी दिशाओं में जाओ, एक घुमक्कड बनो, जीवन और अस्तित्त्व की दुनिया में एक वैगाबांड बन जाओ। और जीने का कोई भी अवसर मत चूको।
पीछे मुड़कर मत देखो। केवल मूर्ख ही अतीत के संबंध में सोचते हैं- मूर्ख, जिनके पास वर्तमान में जीने की प्रतिभा नहीं है। और केवल मूर्ख ही भविष्य की कल्पना करते हैं, क्योंकि वर्तमान में जीने का उनके पास साहस नहीं होता। अतीत को भूल जाओ और भूल जाओ भविष्य को- यही क्षण सब कुछ है। यही क्षण तुम्हारी प्रार्थना, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा जीवन, तुम्हारा मरण, तुम्हारा सब कुछ बनना चाहिए।
बस यही है। और साहसपूर्वक जीयो, कायर मत बनो। परिणामों की मत सोचो; केवल कायर ही परिणामों के बारे में सोचते हैं। बहुत परिणाम-ग्रस्त मत रहो; वे लोग जो परिणाम-ग्रस्त होते हैं, जीवन को चूक जाते हैं। लक्ष्यों की मत सोचो, क्योंकि लक्ष्य सदा भविष्य में और दूर होते हैं, और जीवन अभी यहीं है, करीब है।
और बहुत उद्देश्यपूर्ण भी मत बनो। इसे मुझे दोहराने दोः बहुत उद्देश्यपूर्ण मत बनो, सदा ऐसे ख्याल मत ले आओ, इसका क्या उद्देश्य है? क्योंकि यह चाल है जिसे तुम्हारे दुश्मनों ने, मानवता के दुश्मनों ने, तुम्हारे जीवन के मूल स्रोत को विषाक्त करने के लिए रची है। इसका क्या उद्देश्य है? तुमने यह प्रश्न पूछा और सब सारहीन हो जाता है।
सुबह हुई है, सूरज उग रहा है और सूरज से प्राची लाल है, और पक्षी गीत गा रहे हैं और वृक्ष जाग रहे हैं, और सब ओर मस्ती है। यह एक आनंद है, फिर एक नया दिन आया है। और तुम वहां खड़े होकर प्रश्न पूछ रहे हो, इसका क्या उद्देश्य है? तुम चूक गए, तुम पूरी तरह चूक गए। तुम अलग-थलग हो गए।
गुलाब का एक फूल हवा में नाच रहा है, इतना कोमल और फिर भी इतना मजबूत, इतना कोमल और फिर भी तेज हवा में संघर्ष कर रहा है, इतना क्षणजीवी और फिर भी कितना आत्मविश्वास! देखो गुलाब के फूल कोः तुमने कभी किसी गुलाब के फूल को चिंतित देखा है? कितना आत्मविश्वास, कितना संपूर्ण आत्मविश्वास है, मानो कि यह यहां सदा रहेगा। एक क्षणभर का अस्तित्त्व है, और कितना भरोसा है सनातनता में! हवा में नाच रहा है, हवा से गुफ्तगू कर रहा है, अपनी सुगंध बिखेर रहा है- और वहां तुम खड़े प्रश्न पूछ रहे हो, इसका क्या उद्देश्य है?
तुम एक स्त्री के प्रेम में पड़ते हो और प्रश्न पूछो, इसका क्या उद्देश्य है? तुम अपनी प्रेमिका अथवा अपने मित्र का हाथ हाथ में लेकर बैठे हो और प्रश्न पूछ रहे हो इसका क्या उद्देश्य है? और तुम भले ही हाथ में हाथ लिए बैठे हो, लेकिन अब वहां से जीवन गायब हो गया है, तुम्हारा हाथ मृत हो गया है।
उद्देश्य क्या है? यह प्रश्न उठाते ही सब कुछ नष्ट हो जाता है। मैं तुमसे कहता हूंः जीवन में कोई उद्देश्य नहीं है। जीवन अपना उद्देश्य स्वयं है; यह किसी साध्य का साधन नहीं है, यह अपना साध्य स्वयं है। उड़ता हुआ पक्षी, हवा में झूलता गुलाब, सुबह सूरज का उगना, रात्रि में सितारे, एक पुरुष का एक स्त्री के प्रेम में पड़ना, गली में एक बच्चे का खेलना...  कोई उद्देश्य नहीं है, जीवन मात्र अपना आनंद ले रहा है, अपने होने का आनंद ले रहा है। ऊर्जा उमड़ रही है, नृत्य कर रही है, और कोई भी उद्देश्य नहीं है इसका। यह कोई प्रस्तुति नहीं है, यह कोई व्यवसाय नहीं है।
जीवन एक प्रेम की घटना है, काव्य है, संगीत है। ऐसे कचरा प्रश्न मत पूछो कि जीवन का क्या उद्देश्य है? क्योंकि जैसे ही तुमने यह पूछा कि तुमने अपने को जीवन से काट लिया। दार्शनिक प्रश्न जीवन का सेतु नहीं बन सकते, दार्शनिकता को अलग कर देना है।
जीवन के कवि बनो, गायक, संगीतकार, नर्तक, प्रेमी बनो और तुम जीवन का वास्तविक दर्शन जान लोगेः चिरंतन दर्शन।
और अगर तुम जीना चाहते हो...  और यह एक सरल कला है। वृक्ष जी रहे हैं और उन्हें कोई सिखा नहीं रहा है। दरअसल वे हंस रहे होंगे यह देखकर कि तुमने ऐसा प्रश्न पूछा है, वे खिलखिला रहे होंगे- हो सकता है तुम उनकी खिलखिलाहट न सुन सको।
पूरा अस्तित्त्व गैर-दार्शनिक है। अगर तुम दार्शनिक हो तो तुम्हारे और अस्तित्त्व के बीच एक खाई है। अस्तित्त्व बस है, कोई उद्देश्य-पूर्ति के लिए नहीं। और जो व्यक्ति सच में जीना चाहता है, उसे उद्देश्य की धारणा तो छोड़ देनी होगी। अगर तुम बिना उद्देश्य के जीना शुरू कर दो, सघनता और समग्रता के साथ, प्रेम और श्रद्धापूर्वक, जब मृत्यु आएगी तो तुम जानोगे कैसे मरना- क्योंकि मृत्यु जीवन की समाप्ति नहीं है, बल्कि जीवन का ही एक हिस्सा है।
अगर तुमने अन्य चीजों को जाना है, अगर तुमने अन्य चीजों को जी लिया है, तब तुम मृत्यु को भी जी सकोगे। वास्तविक समझ वाला व्यक्ति अपनी मृत्यु को वैसे ही जी लेता है जैसे वह अपने जीवन को जी लेता है- उसी सघनता के साथ, उसी पुलक के साथ।
जब सुकरात को जहर दिया जाने वाला था, तब वह खूब पुलकित था। उसके कमरे के बाहर जहर तैयार किया जा रहा था; उसके शिष्य एकत्रित हो गए थे। वह अपने बिस्तर पर तैयार लेटा था, क्योंकि समय निकट आ रहा थाः छह बजे, जैसे ही सूरज डूबेगा, उसको जहर दिया जाएगा। लोग तो सांस तक भी नहीं ले रहे थे और घड़ी छह बजे के करीब आती जा रही थी, और यह महिमावान व्यक्ति सदा के लिए विदा हो जाएगा। और उसने कोई पाप नहीं किया था। उसका केवल एक ही पाप था कि वह लोगों को सत्य बताया करता था, कि वह एक सत्य का शिक्षक था, कि वह समझौता नहीं करता था, कि वह किन्हीं मूर्ख राजनेताओं के समक्ष झुकता नहीं था। वही उसका एकमात्र अपराध था; उसने किसी का कोई नुकसान नहीं किया था। और एथेन्स सदा-सदा के लिए गरीब हो जाने वाला था।
वास्तव में, सुकरात की मृत्यु के साथ, एथेन्स मर गया। तब उसके बाद एथेन्स ने कभी उस गरिमा को नहीं पाया, कभी नहीं। यह एक ऐसा अपराध था, सुकरात का कत्ल, कि एथेन्स ने आत्महत्या कर ली। यूनान की सभ्यता ने फिर कभी ऐसी ऊंचाई नहीं छुई।
कुछ दिनों तक यह जारी रहा, सुकरात की मात्र अनुगूंजें- क्योंकि प्लेटो उसका शिष्य था, मात्र एक अनुगूंज। और अरस्तु प्लेटो का शिष्य था, अनुगूंज की एक अनुगूंज। धीरे-धीरे, जैसे-जैसे सुकरात की अनुगूंजें विदा हो गयीं, युनानी संस्कृति भी दुनिया से गायब हो गयी। उसने गरिमा के दिन देखे थे, लेकिन सुकरात का कत्ल करके इसने आत्महत्या कर ली।
उसके शिष्य बहुत बेचैन थे, परंतु सुकरात उमंग में था, ऐसे ही जैसे तुम एक छोटे बच्चे को किसी प्रदर्शनी में ले जाओ और वह हर चीज को देखकर पुलकित हो जाता है, प्रत्येक चीज कितनी अनूठी है। वह बार-बार उठ बैठता और खिड़की की ओर जाता और जो आदमी जहर तैयार कर रहा था, उससे पूछता, तुम क्यों देर कर रहे हो? अब छह बज गए हैं।
और वह आदमी कहता, ‘सुकरात, तुम पागल हो या क्या हो? मैं केवल इसलिए देरी कर रहा हूं ताकि आपके जैसा सुंदर व्यक्ति थोड़ी देर और रुक सके। मैं सदा के लिए देर तो नहीं कर सकता हूं, लेकिन मैं इतना कर सकता हूं। थोड़ी देर और, थोड़ी देर और रुक जाओ। आप मरने के लिए इतनी जल्दी में क्यों हो?’
सुकरात ने कहा, ‘मैंने जीवन को जान लिया है, मैंने जीवन को जी लिया है, मैं जीवन का स्वाद जानता हूं। अब मैं मृत्यु के बारे में जिज्ञासु हूं। इसलिए मैं इतनी जल्दी में हूं। मैं आनंद से खूब तरंगित हूंः यह ख्याल ही कि अब मैं मरने जा रहा हूं और अब मैं देख सकूंगा कि मृत्यु क्या है! मैं मृत्यु का स्वाद लेना चाहता हूं। मैंने और सब चीज का स्वाद ले लिया है, केवल एक चीज अज्ञात बची है। मैंने जीवन को जी लिया है और उस सबको जान लिया है जो जीवन दे सकता है। यह जीवन का अंतिम उपहार है, और मैं वास्तव में विस्मय-विमुग्ध हूं।’
जो आदमी जीया है, सच में जीया है, वह जानेगा कि कैसे मरना।
वंदना, मृत्यु की कोई कला नहीं है। जीवन की कला ही मृत्यु की कला है, क्योंकि मृत्यु कोई जीवन से अलग नहीं है। मृत्यु जीवन का सर्वोच्च शिखर है, एवरेस्ट, सूर्योज्ज्वल एवरेस्ट। अस्तित्त्व में यह सर्वाधिक सुंदर चीज है।
लेकिन तुम मृत्यु का सौंदर्य केवल तभी जान सकते हो अगर तुम जीवन का सौंदर्य जानते हो। जीवन तुम्हें मृत्यु के लिए तैयार करता है। परंतु लोग तो बिल्कुल जी ही नहीं रहे हैं; हर संभव ढंग की बाधा उनके जीने में आती है। इसलिए वे नहीं जानते कि जीवन क्या है, और परिणामतः वे नहीं जान पाएंगे कि मृत्यु क्या है?
मृत्यु एक झूठ है। तुम इसके साथ समाप्त नहीं हो जाते, तुम केवल एक मोड़ लेते हो। तुम एक दूसरे रास्ते पर चल पड़ते होः तुम इस रास्ते से गायब हो जाते हो और किसी दूसरे रास्ते पर प्रकट हो जाते हो। अगर तुम अभी तक जाग्रत नहीं हो, अभी तक संबुद्ध नहीं हुए, तब तुम यहां मरते हो, वहां पैदा हो जाते हो। तुम एक शरीर से गायब होते हो और तुरंत तुम किसी और गर्भ में प्रवेश कर जाते हो, क्योंकि लाखों-करोड़ों मूर्ख लोग पूरी दुनिया में सदा संभोग में संलग्न हैं- वे केवल तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। और वे सच में इतने अधिक हैं कि यह अच्छा है कि तुम अचेतन मरते हो और अचेतन रूप से तुम नए गर्भ को चुन लेते हो। अगर यह एक सजग चुनाव होता, तो तुम पगला जाते। कैसे चुनना? किसको चुनना?
अचेतन तुम मरते हो, अचेतन ही तुम निकटस्थ गर्भ जो तुम्हारे अनुकूल होता है उसके द्वारा पैदा हो जाते हो। केवल शरीर चला जाता है, तुरंत ही दूसरा आकार बन जाता है। लेकिन अगर तुम संबुद्ध हो...  और संबुद्ध से मेरा क्या अभिप्राय है? मेरा अभिप्राय है कि अगर तुमने अपना जीवन बोधपूर्वक जीया है और तुम जागरण के ऐसे बिंदु पर पहुंच गए हो जहां तुम में अचेतन का कोई अंधकार-क्षेत्र नहीं बचा, तो अब तुम्हारे लिए और कोई गर्भ नहीं है। तब तुम परमात्मा के गर्भ में प्रवेश करते हो- स्वयं अस्तित्त्व में। वही मुक्ति है, मोक्ष है, निर्वाण है।

 ओशो

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