04-संत सुंदर दास-(ओशो)
भारत के सतं-ओशो
ज्योत से ज्योत जले-(सुंदर दास)
सुंदर दास थोड़े से कलाकारों में एक है जिन्होंने इस ब्रह्मा को जाना। फिर ब्रह्म को जान लेना एक बात है, ब्रह्म को जनाना और बात। सभी जानने बाले जना नहीं पाते। करोड़ों में कोई एक आध है, ब्रह्म को जानता है और सैकड़ों जानने वालों में कोई एक जना पात है। सुंदर दास उन थोड़े से ज्ञानियों में एक है, जिन्होंने निशब्द को शब्द में उतारा, जिन्होंने अपरिभाष्य की परिभाषा की, जिन्होंने अगोचर को गोचर बनाया। अरूप को रूप दिया। सुंदर दास थोड़े सद् गुरूओं में से एक है। उनके एक-एक शब्द को साधारण मत समझना। उनके एक-एक शब्द अंगारे है। और जरा सी चिंगारी तुम्हारे जीवन में पड़ जाये तो तुम भी भभक उठ सकते हो परमात्मा से। तो तुम्हारे भीतर भी विराट का आविर्भाव हो सकता है। पडा तो है ही विराट, कोई जगाने वाली चिंगारी चाहिए।
चकमक पत्थरों में आग दबी होती है। फिर दो पत्थरों को टकरा देते है। आग प्रगट हो जाती है। ऐसी ही टकराहट गुरु और शिष्य के बीच होती हे। उसी टकराहट में ज्योति का जन्म होता है। और जिसकी ज्योति जली है वहीं उसको ज्योति दे सकता है। जिसकी ज्योति अभी जली नहीं है। जले दीये के पास हम बुझते दीये करे लाते है। बुझे दीये की सामर्थ्य भी दीया बनने की है। लेकिन लपट चाहिए। जले दीये से लपट मिल जाती है। जले दीये का कुछ भी खोता नहीं है; बुझे दीये को सब मिल जाता है। सर्वस्व मिल जाता है।
यही राज है गुरु और शिष्य के बीच। गुरु का कुछ खोता नहीं है और शिष्य को सर्वस्व मिल जाता है। जो तुम्हारे पास है, अगर दोगे तो कम हो जायेगा। रोकना, बचाना। साधारण अर्थशास्त्र कंजूसी सिखाता है। कृपणता सिखाता हे। अध्यात्म के जगत में जिसने बचाया उसका नष्ट हुआ; जिसने लुटाया उसका बढ़ा। वहां दान बढ़ाने का उपाय है। वहां देना और बांटना—विस्तार है। वहां रोकना, संग्रहीत कर लेना, कृपण हो जाना—मृत्यु हे।
इसलिए जिनके जीवन में रोशनी जन्मती है, वे बांटते हैं, वे बांटते है। लुटाते है। कबीर ने कहा है: दोनों हाथ उलीचिए। लुटाई ये। अनंत स्त्रोत पर आ गये हो, लुटाने से कुछ चुकेगा नहीं। और नयी धाराएं और नये झरने फूटते आयेंगे। ऐसे एक ही ज्योति जल जाये तो अनेक की ज्योति जलती है। सुंदर दास के सत्संग में बहुतों के दीये जले। ज्योति से ज्योति जले।
यहां जीवन के साधारण अर्थशास्त्र के नियम काम नहीं करते। साधारण अर्थशास्त्र कहता हैः जो तुम्हारे पास है, अगर दोगे तो कम हो जाएगा। रोकना, बचाना। साधारण अर्थशास्त्र कंजूसी सिखाता है, कृपणता सिखाता है। अध्यात्म के जगत् में जिसने बचाया उसका नष्ट हुआ; जिसने लुटाया उसका बढ़ा। वहां दान बढ़ाने का उपाय है। वहां देना और बांटना--विस्तार है। वहां रोकना, संगृहीत कर लेना, कृपण हो जाना-मृत्यु है।
इसलिए जिनके जीवन में रोशनी जन्मती है, वे बांटते हैं, लुटाते हैं। कबीर ने कहा हैः दोनों हाथ उलीचिए। लुटाओ! अनंत स्रोत पर आ गए हो, लुटाने से कुछ चुकेगा नहीं। और नयी धाराएं, और नए झरने फूटते आएंगे। ऐसे एक की ज्योति जल जाए तो अनेक ज्योति जलती हैं। सुंदरदास के सत्संग में बहुमतों के दीए जले। ज्योति से ज्योति जले!
इन अपूर्व वचनों को ऐसे ही मत सुन लेना जैसे और बातें सुन लेते हो। और बातों की तरह सुन लिया तो सुना भी-और सुना भी नहीं। इन्हें तो गुनना! इन्हें सिर्फ कानों से मत सुनना। कानों के पीछे अपने हृदय को जोड़ देना, तो ही सुन पाओगे। सुनो तो जागना बहुत दूर नहीं है।
मुख के झरौखे मैं वचन न उचार होत,
जीभ हू कौ षटरस स्वाद न विशेखिए।
सुंदर कहत कोऊ कौन विधि जानै ताहि।
तब सुंदर कहते हैं फिर किस विधि उसे जानें? अगर आंख से दिखाई पड़ता तो देख लेते। कान से सुनाई पड़ता तो सुन लेते। हाथ की पकड़ में आता, पकड़ लेते। पैर की यात्रा के बस में होता तो कितने ही दूर होता, पहाड़ों को, समुद्रों को लांघ जाते। अब इसको हम कैसे पहुंचें? हमारे पास कोई विधि नहीं है। किस विधि इसे जानें?
सब विधियां छोड़कर वह जाना जाता है। विधि-मात्र के त्याग से जाना जाता है। उसे पाने की कोई विधि नहीं होती। विधि हमेशा पराए पर ले जाती है। निर्विधि, निरुपाय. . .।
ओशो
ज्योत से ज्योत जले
दिनांक: 11 जुलाई 1977;
श्री रजनीश आश्रम पूना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें