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बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-10)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो

प्रवचन-दसवां-( सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् दिव्यता के झरोखे) 

 (The Psychologe Of The Esoteric)- का हिन्दी रूपांतरण है)
ओशो भारतीय दर्शन में परम सत्य की प्रकृति को सत्य
'
सत्यम् सौंदर्य सुंदरम: और शुभपन 'शिवम्' के रूप में
परिभाषित किया गया है। क्या ये भगवत्ता के लक्षण हैं?
ये भगवत्ता के गुण नहीं हैं। बल्कि हमारे द्वारा किए गए इसके अनुभव हैं। वे गुण जैसे कि वे हैं उस तरह भगवत्ता से संबद्ध नहीं हैं, वे हमारी अनुभूतियां हैं। भगवत्ता स्वयं में अज्ञेय है। या तो प्रत्येक गुण इसी का है या कोई गुण इसका नहीं है। लेकिन मानवीय मन का निर्माण जिस तरह से हुआ है यह भगवत्ता को तीन झरोखों के माध्यम से अनुभव कर सकता है तुम उसकी झलक या सौंदर्य के माध्यम से या सत्य के माध्यम से या शुभ के माध्यम से पा सकते हो। मनुष्य के मन के ये ही तीन आयाम हैं। ये हमारी सीमाएं हैं। ढांचा हमारे द्वारा दिया गया है भगवत्ता अपने आप में रूप के परे है।

यह इस तरह से है। हम आकाश को खिड़की के माध्यम से देख सकते हैं।
खिड़की आकाश के चारों ओर एक चौखटे की भांति दिखाई पड़ती है लेकिन आकाश के चारों ओर कोई चौखटा नहीं है। यह अनंत है। केवल खिड़की ही इसे चौखटा दे देती है। इसी प्रकार से सौंदर्य सत्य और शुभ तीन झरोखे हैं जिनसे हम भगवत्ता की झलक पा सकते हैं।
मनुष्य का व्यक्तित्व तीन पर्तों में बंटा हुआ है। अगर बुद्धि अधिक प्रभावी हो तो भगवत्ता सत्य का रूप ग्रहण कर लेती है। बौद्धिक रुझान सत्य का झरोखा सत्य का चौखटा निर्मित करती है। अगर मन भावुक है- अगर कोई वास्तविकता की ओर सिर से नहीं बल्कि हृदय के माध्यम से आता है-तो भगवत्ता सौंदर्य बन जाती है। काव्यात्मक गुण तुम्हारे द्वारा दिया गया है। यह बस चौखटा है। बुद्धि सत्य का चौखटा देती है भाव इसे सौंदर्य का चौखटा देता है। और अगर व्यक्तित्व न भावुक हो न बौद्धिक- अगर कर्म प्रभावी हो- तो यह चौखटा शुभ बन जाता है।
इसलिए यहां भारत में हम भगवत्ता के लिए इन तीन शब्दों का प्रयोग करते हैं। भक्ति योग का अभिप्राय है भक्ति का मार्ग और यह भावुक प्रकार के व्यक्ति के लिए है। भगवत्ता को सौंदर्य की भांति देखा गया है। ज्ञान योग शान का मार्ग है। भगवत्ता को सत्य की भांति देखा गया है। और कर्म योग कर्म का मार्ग है। भगवत्ता शुभ है।
गॉड शब्द भी 'गुड' से आता है। इस शब्द का अधिकतम प्रभाव रहा है क्योंकि अधिकतम मानवता, मुख्यत: कर्मप्रधान है, न बौद्धिक न भावुक। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वहां पर कोई बुद्धि या भाव नहीं है, वरन वे प्रभावशाली कारक नहीं हैं। बहुत कम लोग बौद्धिक हैं और बहुत कम लोग भावुक हैं। मानव-जाति की अधिक संख्या
मुख्यत: कर्म प्रधान है। कर्म के माध्यम से गॉड 'गुड' (शुभ) बन जाता है।
लेकिन विपरीत ध्रुव का भी अस्तित्व होना चाहिए इसलिए अगर ईश्वर को 'शुभ' के रूप में देखा गया है, तो शैतान को 'अशुभ' के रूप में समझा जाएगा। क्रियाशील मन शैतान को ' अशुभ ' की भांति देखेगा, भावुक मन शैतान को कुरूप की भांति देखेगा और बौद्धिक मन शैतान को असत्य भ्रम की भांति देखेगा।
ये तीनों विशेषताएं-सत्य शुभ और सौंदर्य, मानवीय श्रेणियां हैं, जो उसने दिव्यता के चारों ओर बना दी है जोकि अपने आप में निराकार है। वस्तुत: वे भगवत्ता की विशेषताएं नहीं हैं। अगर मनुष्य का मन भगवत्ता को किसी चौथे आयाम से देख सके तो यह चौथा आयाम भी भगवत्ता का गुण बन जाएगा। मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि भगवत्ता शुभ नहीं है। मैं तो केवल यह कह रहा हूं यह शुभ एक गुण है जो हमारे द्वारा चुना और देखा गया है। अगर संसार में मनुष्य का अस्तित्व न होता तो भगवत्ता शुभ नहीं होती तो भगवत्ता सौंदर्यवान नहीं होती तो भगवत्ता सत्य नहीं होती। भगवत्ता जैसी है वैसी ही होती, लेकिन ये गुण जो कि हमारे द्वारा चुने गए हैं उसमें नहीं होते। ये बस मानवीय दृष्टियां हैं। हम भगवत्ता में अन्य गुणों को भी देख सकते हैं।
हम नहीं जानते कि पशु दिव्यता को किस प्रकार से देखा करते हैं। हमें नहीं पता कि वे चीजों को किस तरह से अनुभव करते हैं, लेकिन एक बात तो निश्चित है कि वे दिव्यता को मानवीय शब्दावली में नहीं समझेंगे। अगर वे दिव्यता को किसी भी रूप में देखते हैं तो वे इसको हमारे ढंग से नितांत अलग ढंग से समझेंगे और जानेंगे। दिव्यता के जो गुण वे समझेंगे वे वही नहीं होंगे जो हमारे लिए हैं।
अगर कोई व्यक्ति मुख्यत: बौद्धिक है, तो वह यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि तुम कैसे कह सकते हो कि भगवत्ता सुंदर है। उसके मन के लिए यह धारणा ही बिलकुल बाहरी है। और कोई कवि यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि सत्य का सौंदर्य के अतिरिक्त कोई और भी अर्थ हो सकता है। उसके लिए इसका कोई और अर्थ नहीं हो सकता। सत्य सौंदर्य है, बचा हुआ सभी कुछ बस बौद्धिक है। किसी कवि के लिए, किसी चित्रकार के लिए, उस व्यक्ति के लिए जो संसार को हृदय की भावनाओं से समझता है, सौंदर्य के बिना सत्य एक नग्न वस्तु है। यह मात्र एक बौद्धिक व्यवस्था है।
इसलिए अगर कोई विशेष मन मुख्यत: बौद्धिक है तो यह भावुक मन को नहीं समझ सकता है और इसका उलटा भी सच है। यही कारण है कि इतनी अधिक गलत फहमियां और इतनी सारी परिभाषाएं हैं। सारी मनुष्य-जाति द्वारा कोई एक परिभाषा स्वीकार नहीं की जा सकती है। भगवत्ता को तुम्हारे पास तुम्हारी खुद की शब्दावली में आना चाहिए। जब तुम भगवत्ता को परिभाषित करते हो, तो तुम उस परिभाषा का एक हिस्सा हो जाओगे। वह परिभाषा तुम से आएगी, अपने आप में तो वह अपरिभाष्य है। इसलिए उन लोगों ने, जो इस को इन तीन झरोखों के द्वारा देखते हैं, एक प्रकार से अपने आप को, अपनी निजी परिभाषाओं को दिव्यता के ऊपर थोप दिया है।
दिव्यता को देखने के लिए उस व्यक्ति के पास एक चौथे रास्ते की भी संभावना है जिसने अपने व्यक्तित्व के इन तीन आयामों का अतिक्रमण कर लिया है। भारत में हमारे पास चौथे के लिए कोई शब्द नहीं है। हम इसको बस तुरीय, चौथा कहते हैं। चेतना की एक ऐसी अवस्था होती है जहां पर तुम न तो बौद्धिक होते हो न भावुक न सक्रिय, बल्कि मात्र चैतन्य होते हो। तब तुम आकाश को किसी खिड़की के द्वारा नहीं देख रहे हो। तुम अपने मकान से बाहर आ गए हो और तुम खिड़की रहित आकाश को जानते हो। वहां पर कोई ढांचा कोई चौखटा नहीं है।
केवल उसी प्रकार की चेतना जिसने चौथे को जान लिया है, अन्य तीनों की सीमाओं को समझ सकती है। यह दूसरों के द्वारा समझ पाने की कठिनाई को समझ सकती है और सौंदर्य, सत्य और शुभ में अंतर्निहित समानताओं को भी समझ सकती है। केवल चौथे प्रकार की चेतना ही समझ सकती है और सहन कर सकती है। अन्य तीनों प्रकार के लोग सदा झगड़ते रहेंगे।
सारे धर्म इन तीनों श्रेणियों में से किसी एक से संबंधित हैं। और वे सदा से झगड़ते आए हैं। बुद्ध इस संघर्ष में भाग नहीं ले सकते। वे चौथे प्रकार से संबंधित हैं। वे कहते हैं ' यह सब मूर्खता है। तुम दिव्यता के गुणों के बारे में नहीं झगडू रहे हो, तुम अपनी खिड़कियों के बारे में झगड़ रहे हो। किसी भी खिड़की से देखा गया हो परंतु आकाश तो वही है। '
इसलिए ये दिव्यता के गुण नहीं हैं। ये दिव्यता के वे गुण हैं जैसा कि हमने उनको अनुभव किया है। अगर हम खिड़कियां नष्ट कर सकें तो हम भगवत्ता को गुण-विहीन, निर्गुण के रूप में जान सकते हैं। तब हम गुणों के पार जा सकते हैं। केवल तब उसके बारे में मनुष्य द्वारा बनाई गई छवि का हस्तक्षेप नहीं रहता है।
लेकिन तब कुछ भी कहना बहुत कठिन हो जाता है। दिव्यता के बारे में जो कुछ भी कहा जा सकता है वह केवल झरोखों के माध्यम से कहा जा सकता है क्योंकि जो कुछ भी कहा जा सकता है वह वास्तव में झरोखों के बारे में कहा जा रहा है इस आकाश के बारे में नहीं। जब हम झरोखों के पार से देखते हैं तो आकाश इतना विराट, इतना असीम है कि इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता है। सारे शब्द असमर्थ हैं सारे
सिद्धांत अपर्याप्त हैं।
इसलिए वह व्यक्ति जो चौथे में है, सदा इसके बारे में मौन रहता है, और दिव्यता की परिभाषाएं पहले तीनों से आई हैं। इसलिए वह व्यक्ति जो चौथे में है, अगर बोला भी है, तो उसने जो कुछ भी कहा है वह असंगत अतर्क्य, तर्कातीत प्रतीत होता है। वह अपना खंडन कर देता है। विरोधाभास के माध्यम से वह कुछ दिखाने का प्रयास करता है, कुछ कहने का नहीं, कुछ दिखाने का।
विटगिंस्टीन ने इस अंतर को स्पष्ट किया है। उसने कहा ऐसे सत्य हैं जो कहे जा सकते हैं, और ऐसे सत्य हैं जो दिखाए जा सकते हैं पर कहे नहीं जा सकते। किसी चीज को परिभाषित किया जा सकता है क्योंकि इसका अस्तित्व अन्य वस्तुओं के साथ है। इसका अन्य वस्तुओं के साथ संबंध स्थापित किया जा सकता है इसकी उनसे तुलना की जा सकती है। उदाहरण के लिए हम सदा कह सकते हैं कि एक मेज, कुर्सी नहीं है। किसी अन्य के संदर्भ में हम इसकी परिभाषा कर सकते हैं। इसकी एक सीमा है, जहां तक यह फैली हुई है, और उसके बाद कुछ और शुरू हो जाता है। वास्तव में केवल सीमा को परिभाषित किया गया है। परिभाषा का अर्थ है वह सीमा जहां से अन्य सभी कुछ शुरू हो जाता है।
लेकिन हम दिव्यता के बारे में कुछ नहीं कह सकते हैं। दिव्यता सभी कुछ है इसलिए वहां पर कोई सीमा नहीं है, वहां पर ऐसा कोई सीमांत नहीं है जहां से और कुछ शुरू होता हो। वहां पर कोई और कुछ नहीं है। दिव्यता सीमा-विहीन है इसलिए इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता है।
चौथे प्रकार का व्यक्ति केवल दिखा सकता है यह बस संकेत कर सकता है। यही
कारण है कि चौथे प्रकार का व्यक्ति रहस्यपूर्ण रहा है। और चौथे प्रकार का व्यक्ति ही सर्वाधिक प्रमाणिक है, क्योंकि वह मानवीय दृष्टियों द्वारा रंगा नहीं गया है। सारे महान संतों ने संकेत दिए हैं, उन्होंने कुछ कहा नहीं है। भले ही वे जीसस, बुद्ध, महावीर या कृष्ण हों, इससे कोई भेद नहीं पड़ता है। वे कुछ कह नहीं रहे हैं, वे तो बस किसी चीज की ओर इंगित कर रहे हैं--बस चंद्रमा की ओर संकेत करती एक अंगुली।
लेकिन ऐसी कठिनाई सदा से रही है कि तुम अंगुली से आसक्त हो जाओ। यह अंगुली अर्थहीन है, यह किसी और की ओर संकेत कर रही है। तुम्हारी आंख को इसे पकड़ नहीं लेना चाहिए। अगर तुम चांद की ओर देखना चाहते हो, तो अंगुली को पूरी तरह से भूल जाना पड़ेगा।
जहां तक दिव्यता का संबंध है, यही महानतम कठिनाई रही है। तुम संकेत को देखते हो और तुम महसूस करते हो कि यह संकेत स्वयं ही सत्य है। तब सारा प्रयोजन नष्ट हो जाता है। अंगुली चंद्रमा नहीं है, वे पूरी तरह से अलग हैं। चंद्रमा को अंगुली के माध्यम से दिखाया जा सकता है, लेकिन व्यक्ति को अंगुली से चिपकना नहीं चाहिए। अगर कोई ईसाई बाइबिल को न भूल पाए, अगर कोई हिंदू गीता को न भूल पाए, तो सारा प्रयोजन नष्ट हो जाता है। सारी बात उद्देश्य विहीन, अर्थहीन और एक प्रकार से अधार्मिक, धर्म-विरोधी हो जाती है।
जब भी कोई व्यक्ति दिव्यता की ओर उन्मुख होता है तो उसे अपने मन के प्रति बोधपूर्ण होना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति दिव्यता की ओर मन के माध्यम से उन्मुख होता है तो दिव्यता इस मन के द्वारा रंग दी जाती है। अगर तुम दिव्यता की ओर बिना मन के बिना तुम्हारे बिना मनुष्य को भीतर लिए उन्मुख होते हो अगर तुम दिव्यता की ओर एक खालीपन की भांति, एक शून्य की भांति एक ना-कुछपन की तरह किसी पूर्व धारणा के बिना चीजों को एक खास ढंग से देखने के रुझान के बिना उन्मुख होते हो तो तुम दिव्यता की गुणों के पार की अवस्था को जान लोगे वरना नहीं। वरना वे सभी गुण जो हम दिव्यता को दे देते हैं हमारी मानवीय खिड़कियों से संबंधित हैं। हम दिव्यता पर उनको थोप देते हैं।

क्या आप यह कह रहे हैं कि आकाश को देखने के लिए हमें खिडकी का प्रयोग करने की कोई जरूरत नहीं है?

हां। बिलकुल न देखने की तुलना में खिड़की के द्वारा देख लेना बेहतर है, लेकिन खिड़की से देखने की तुलना खिड़की विहीन आकाश से नहीं की जा सकती है।

लेकिन कोई खिड़की के बिना कमरे से आकाश की ओर कैसे जा सकता है?

आकाश की ओर जाने के लिए तुम खिड़की से होकर गुजर सकते हो लेकिन तुम्हें खिड़की पर रुके नहीं रहना चाहिए। वरना खिड़की सदा वहां रहेगी। खिड़की को पीछे छूट जाना चाहिए। इससे होकर गुजरना पड़ेगा और इसे पीछे छोड़ कर आगे बढ़ना पड़ेगा।

एक बार कोई आकाश में हो तो वहां कोई शब्द नहीं होते--जब तक कि वह कमरे में वापस नहीं लौटता। तब कहानी आ जाती है...

हां व्यक्ति वापस लौट सकता है। लेकिन तब वह वैसा ही नहीं हो सकता है जैसा कि वह पहले था। उसने अरूप को अनंत को जान लिया है। तब खिड़की से देखते हुए भी वह जानता है कि आकाश की कोई रूपरेखा नहीं है, वह खिड़की जितना नहीं है। खिड़की के पीछे खड़ा होकर भी वह धोखा नहीं खा सकता है। अगर खिड़की को बंद कर दिया जाए और कमरा अंधकारमय हो जाए तो भी वह जानता है कि अनंत आकाश वहां पर है। अब वह फिर से वही नहीं हो सकता है।
एक बार तुमने अनंत को जान लिया, तो तुम अनंत हो गए हो। हम वही हैं जो हमने जाना है, जो हमने अनुभव किया है। एक बार तुमने बंधन रहित, सीमा रहित को जान लिया तो एक प्रकार से तुम अनंत हो गए हो। किसी चीज को जान लेना वही हो जाना है। प्रेम को जानना, प्रेम हो जाना है प्रार्थना की भावदशा को जानना, प्रार्थनामय
जाना है दिव्यता को जान लेना दिव्य हो जाना है। जानना साक्षात करना है, जानना हो जाना है।

क्या सभी तीनों खिड़कियां एक हो जाती हैं?

नहीं। प्रत्येक खिड़की वैसी ही रहेगी जैसी यह थी। खिड़की नहीं बदली है तुम बदल गए हो। अगर व्यक्ति भावुक है, तो वह उसी खिड़की के माध्यम से बाहर जाएगा और भीतर आएगा, किंतु अब वह दूसरी खिड़कियों से इनकार नहीं करेगा अब वह उनके प्रति शत्रुता पूर्ण नहीं होगा। अब वह दूसरों के प्रति भी समझ से भरा होगा। वह जान लेगा कि दूसरी खिड़कियां भी उसी आकाश में ले जाती हैं।
एक बार तुम आकाश के नीचे जा खड़े हुए, तो तुम जान लेते हो कि दूसरी खिड़कियां भी उसी घर का हिस्सा हैं। अब तुम दूसरी खिड़कियों तक जा सकते हो या नहीं भी जा सकते हो। यह तुम पर निर्भर करता है। तुम्हें जरूरत नहीं है एक खिड़की पर्याप्त है। अगर कोई व्यक्ति रामकृष्ण की भांति है तो वह यह देखने के लिए कि क्या वही आकाश उनके द्वारा भी दिखता है, अन्य खिड़कियों से भी होकर गुजर सकता है! यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है। कोई दूसरी खिड़कियों से होकर भी देख सकता है या नहीं भी देख सकता है।
और वास्तव में इसकी कोई जरूरत नहीं है। आकाश को जानना पर्याप्त है। लेकिन कोई खोज-बीन कर सकता है जिज्ञासु हो सकता है। तब वह अन्य खिड़कियों द्वारा देखेगा। ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने अलग- अलग खिड़कियों से झांक कर देखा है और ऐसे भी हैं जिन्होंने ऐसा नहीं किया है। लेकिन एक बार किसी व्यक्ति ने खुला आकाश जान लिया हो तो वह अन्य खिड़कियों से इनकार नहीं करेगा वह अन्य रास्तों से इनकार नहीं करेगा। वह सुनिश्चित कर देगा कि उनकी खिड़कियां भी उसी आकाश की ओर खुलती हैं। इसलिए वह व्यक्ति जिसने आकाश को जाना धार्मिक हो जाता है सांप्रदायिक नहीं। सांप्रदायिक मन खिड़की के पीछे ही रहता है धार्मिक मन खिड़की के उस पार होता है।
वह व्यक्ति जिसने आकाश को देख लिया है, भ्रमण कर सकता है वह अन्य खिड़कियों पर भी जा सकता है। अनंत खिड़कियां हैं। ये मुख्य प्रकार हैं लेकिन ये ही एकमात्र खिड़कियां नहीं हैं। बहुत से संयोजन संभव हैं।

क्या हर चेतना के लिए हर व्यक्ति के लिए अलग खिडकी है?

हां। एक प्रकार से हर व्यक्ति दिव्यता तक अपनी निजी खिड़की से ही पहुंचता है। और हर खिड़की अन्य किसी दूसरी से मुलत: भिन्न है। अनंत खिड़कियां हैं, अनंत पंथ हैं। हर व्यक्ति का अपना निजी पंथ होता है। दो ईसाई समान नहीं हैं। एक ईसाई दूसरे से इतना अधिक भिन्न हो सकता है जितनी कि हिंदू धर्म से ईसाईयत भिन्न है।
एक बार तुम आकाश तक आ गए तो तुम जानते हो कि सारी भिन्नताएं घर से संबंधित हैं। वे तुमसे कभी संबद्ध नहीं थीं। वे उस घर से संबंधित हैं जिस में तुम रहे हो जिससे तुमने देखा जिसके द्वारा तुमने अनुभव किया है लेकिन वे तुमसे कभी संबद्ध नहीं थीं।
जब तुम आकाश के नीचे आते हो, तो तुम जान लेते हो कि तुम भी आकाश का एक हिस्सा थे--बस दीवालों में रह रहे थे। घर के भीतर का आकाश, घर के बाहर के आकाश से भिन्न नहीं है। एक बार हम बाहर आ जाएं तो हमें पता लग जाता है कि रुकावटें वास्तविक नहीं थीं। यहां तक कि कोई दीवाल भी आकाश के लिए रुकावट नहीं है, इसने आकाश को किसी भी तरह से बांटा नहीं है। इससे ऐसा आभास निर्मित हो जाता है कि आकाश बंट गया है--कि यह मेरा मकान है और वह मकान तुम्हारा है, कि जो आकाश मेरे मकान में है वह मेरा है, और जो आकाश तुम्हारे मकान में है वह तुम्हारा है--लेकिन एक बार तुमने आकाश को जैसा यह है वैसा ही जान लिया, तो कोई अंतर नहीं रहता। तब वहां व्यक्ति नहीं बचते हैं। तब लहरें खो जाती हैं और केवल सागर बचता है। तुम फिर से घर के भीतर लौट आओगे, लेकिन अब तुम आकाश से अलग नहीं होगे।

ऐसा लगता है कि कुछ ईसाई हुए हैं जो आकाश में गए और इस धारणा के साथ वापस आए?

कुछ हैं--संत फ्रांसिस, इकहार्ट, बोहमे......

उन्होंने हमें नहीं बताया कि यह वही आकाश था क्या उन्होंने बताया?

वे नहीं बता सकते थे। आकाश हमेशा से वही है, लेकिन वे एक ही ढंग से आकाश के बारे में नहीं बता सकते हैं। आकाश के बारे में सूचनाएं तो अलग होंगी ही, लेकिन जिसकी सूचना दी जा रही है वह अलग नहीं है। उन लोगों के लिए जिन्होंने बताई गई चीज के बारे में स्वयं कुछ भी न जाना हो यह सूचना ही सभी कुछ होगी। तब अंतर और भी स्पष्ट हो जाते हैं। लेकिन वह सभी कुछ जो सूचित किया गया है मात्र एक चयन है, एक चुनाव है। समग्रता को नहीं कहा जा सकता, समग्रता के एक हिस्से के बारे में ही बताया जा सकता है। और जब इसके बारे में बता दिया जाता है, तो यह मृत हो जाता है।
संत फ्रांसिस वैसी ही सूचना दे सकते हैं जैसी कि एक संत फ्रांसिस दे सकता है। वे मोहम्मद की भांति सूचना नहीं दे सकते क्योंकि सूचना आकाश से नहीं आती है। यह सूचना व्यक्तित्व से, उसके रंग ढंग से आती है। यह मन से आती है : स्मृति, शिक्षा,
अनुभवों से आती है, यह शब्दों से, भाषा, संप्रदाय, जीवन-शैली से आती है। इन सभी से सूचना आती है। यह संभव नहीं है कि सिर्फ संत फ्रांसिस से ही संवाद आए, क्योंकि सूचना कभी निजी नहीं हो सकती है। इसे संप्रेषण के योग्य होना चाहिए वरना यह पूरी तरह से असफल हो जाएगी।
अगर मैं अपनी निजी भाषा में बताऊं तो कोई इसे नहीं समझेगा। जब मैंने आकाश को अनुभव किया था तो मैंने इसे समाज के बिना अनुभव किया था। जानने के उस क्षण में मैं बिलकुल अकेला था। वहां कोई भाषा नहीं थी वहां पर कोई शब्द नहीं थे। लेकिन जब मैं सूचना देता हूं तो मैं उनको सूचित करता हूं जिन्होंने जाना नहीं है। मुझे उनकी भाषा में बोलना चाहिए। मुझे ऐसी भाषा का उपयोग करना चाहिए जो कि अपने ज्ञान से पहले मुझको पता थी।
संत फ्रांसिस ईसाई भाषा का उपयोग करते हैं। जहां तक मेरा संबंध है, धर्म केवल
विभिन्न भाषाएं ही हैं। मेरे लिए ईसाईयत वह विशिष्ट भाषा है जो जीसस क्राइस्ट से निकली है। हिंदू धर्म एक दूसरी भाषा है, बौद्धधर्म एक दूसरी भाषा है। अंतर हमेशा भाषा
का है। लेकिन अगर कोई केवल भाषा को जानता है और उसने अनुभव को अपने आप में नहीं जाना है, तो अंतर विशाल होगा ही।
जीसस ने कहा ' प्रभु का राज्य। ' क्योंकि वे उन शब्दों का उपयोग कर रहे थे जो वहां के सुनने वालों को समझ में आ सके। ' राज्य ' शब्द कुछ लोगों के द्वारा समझा गया और दूसरे लोगों द्वारा गलत समझा गया। तो क्रास आ गया और उनको सूली पर चढ़ाया गया। जिन लोगों ने जीसस को समझा था वे समझ गए कि 'प्रभु के राज्य' का क्या अभिप्राय है, लेकिन वे लोग जो नहीं समझे उन्होंने समझा कि वे पृथ्वी पर के किसी राज्य की बात कर रहे हैं।
लेकिन जीसस बुद्ध के शब्दों का उपयोग नहीं कर सकते थे। बुद्ध ने कभी राज्य शब्द का उपयोग नहीं किया। इस अंतर के बहुत से कारण हैं। जीसस एक गरीब परिवार से आते हैं, उनकी भाषा निर्धन व्यक्ति की भाषा है। निर्धन व्यक्ति के लिए राज्य शब्द बहुत भावों से भरा हुआ है लेकिन बुद्ध के लिए इस शब्द के बारे में कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं था, क्योंकि बुद्ध स्वयं एक राजकुमार थे। यह शब्द बुद्ध के लिए अर्थहीन था पर जीसस के लिए अर्थपूर्ण था।
बुद्ध भिक्षु बन गए और जीसस राजा बन गए। यह होना ही था। दूसरा छोर अर्थपूर्ण बन जाता है। वह अनजाना छोर अज्ञात के लिए अभिव्यक्ति का साधन बन जाता है। बुद्ध के लिए भीख मांगना सर्वाधिक अनजानी बात थी इसलिए उन्होंने अज्ञात का रूप, भिखारी का रूप ग्रहण कर लिया। उनके लिए मिक्स, भिखारी सर्वाधिक महत्वपूर्ण शब्द बन गया।
भारत में भिक्खु शब्द कभी प्रयोग नहीं किया गया था, क्योंकि यहां वैसे ही बहुत से भिखारी हैं। इसके स्थान पर हमने स्वामी, मालिक शब्द का प्रयोग किया था। जब कोई संन्यासी हो जाता है, जब वह त्याग कर देता है, तो वह स्वामी, मालिक बन जाता है। लेकिन जब बुद्ध ने त्याग किया तो वे एक भिक्खु एक भिखारी बन गए। बुद्ध के लिए इस शब्द में कुछ ऐसा था जो इस शब्द में जीसस के लिए नहीं हो सकता था।
जीसस केवल उन्हीं शब्दों में बोल सकते थे जो यहूदी संस्कृति से लिए गए थे। उन्होंने इसमें थोड़ा बहुत इधर उधर परिवर्तन किया, लेकिन पूरी भाषा को वे नहीं बदल सके वरना उनकी बात को कोई भी समझ नहीं पाता। इसलिए एक अर्थ में वे ईसाई नहीं थे। जिस समय तक संत फ्रांसिस का आगमन हुआ, अपनी निजी भाषा के साथ एक ईसाई संस्कृति विकसित हो चुकी थी। इसलिए खुद क्राइस्ट की तुलना में संत फ्रांसिस अधिक ईसाई थे। क्राइस्ट एक यहूदी बने रहे, उनका सारा जीवन यहूदीपन का था। यह और कुछ हो भी नहीं सकता था।
अगर तुम एक जन्मजात ईसाई हो, तो ईसाइयत तुम्हारे लिए भावपूर्ण नहीं हो पाएगी, शायद यह तुम्हें छू भी न सके। तुमने इसे जितना अधिक जाना है, यह उतनी ही अधिक अर्थहीन हो जाती है। रहस्य खो जाता है। ईसाई के लिए हिंदू दृष्टिकोण अधिक अर्थपूर्ण, अधिक महत्वपूर्ण लग सकता है। क्योंकि यह अनजाना है यह अज्ञेय के लिए अभिव्यक्ति हो सकता है।
जहां तक मेरा संबंध है, यह बेहतर होगा कि व्यक्ति अपने जन्म के धर्म के साथ न बना रहे। जन्म के समय उसे जो अभिवृत्तियां और विश्वास दिए गए हैं उन्हें कभी न कभी इनकार करना पड़ता है वरना साहसिक यात्रा कभी आरंभ नहीं होगी। व्यक्ति को वहीं नहीं बने रहना चाहिए जहां उसका जन्म हुआ था। व्यक्ति को अनजाने छोरों तक जाना चाहिए और उसका आनंद अनुभव करना चाहिए।
कभी-कभी हम उसी बात को नहीं समझ पाते हैं जिसे हम सोचते हैं कि हमने सबसे अधिक समझा हुआ है। एक ईसाई सोचता है कि वह ईसाईयत को समझता है। यही रुकावट बन जाता है। एक बौद्ध सोचता है कि वह बौद्ध धर्म को समझता है क्योंकि वह इसको जानता है लेकिन जानने का यही भाव एक रुकावट बन जाता है। केवल अज्ञात ही चुंबकीय, गुप्त रहस्यमय बन सकता है।
व्यक्ति को अपनी जन्मजात परिस्थितियों का अतिक्रमण कर लेना चाहिए। यह मात्र परिस्थिति से हुआ है कि कोई जन्म से ईसाई है। यह मात्र परिस्थिति से हुआ है कि कोई जन्म से हिंदू है। व्यक्ति को अपने जन्म के संस्कारों से बंध कर नहीं रहना चाहिए। जहां तक धर्म का संबंध है उसे दुबारा जन्म लेना चाहिए। व्यक्ति को अनजाने छोरों तक जाना चाहिए। तब वहां रोमांच होता है। अन्वेषण का आरंभ होता है।
धर्म एक अर्थ में एक-दूसरे के पूरक हैं। उन्हें एक दूसरे के लिए कार्य करना चाहिए, उन्हें दूसरे धर्मों को स्वीकार करना चाहिए। एक ईसाई या एक हिंदू या एक यहूदी को धर्मांतरण के रोमांच को जानना चाहिए। धर्मांतरण का यह रोमांच रूपांतरण के लिए पृष्ठभूमि का निर्माण करता है। जब कभी पश्चिम से कोई व्यक्ति पूरब को आता है तो इसमें कुछ नयापन है। पूरब का दृष्टिकोण इतना भिन्न है कि इसको जानी पहचानी श्रेणियों में नहीं रखा जा सकता है। सारा दृष्टिकोण तुम जिससे परिचित हो उससे इतना अलग है कि अगर तुम इसे समझना चाहो तो तुम्हें खुद अपने आपको ही बदलना पड़ जाएगा।
यही घटना उस व्यक्ति के साथ घटती है जो पूरब से पश्चिम को जाता है-- इसे घटना ही चाहिए। व्यक्ति को खुला होना चाहिए जिससे कि यह घट सके। यह अज्ञात अपरिचित ही है जो परिवर्तन निर्मित करेगा।
भारत में हम ईसाइयत जैसा धर्म निर्मित नहीं कर सके। हम धर्मशास्त्र निर्मित नहीं कर सके। हम वेटिकन चर्च निर्मित नहीं कर सके। यहां पर मंदिर हैं लेकिन कोई चर्च नहीं है। पूरब का मन आधारभूत रूप से तर्कातीत है। इसलिए एक अर्थ में यह अराजक होगा ही। यह व्यक्तिगत होने के लिए बाध्य है, यह संगठनात्मक नहीं हो सकता है।
एक कैथोलिक पादरी होना बहुत अलग बात है। उसे एक संगठन का भाग होने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। वह किसी स्तर पर धर्मसत्ता की श्रेणियों से जुड़ा हुआ है। और यह कार्य करता है। एक व्यवस्था, एक श्रेणीयुक्त धर्मसत्ता तर्कयुक्त है इसलिए ईसाइयत सारे विश्व में फैल पाने में समर्थ हो पाई।
हिंदू धर्म ने कभी किसी की आस्था को बदलने की कोशिश नहीं की। अगर किसी ने अपने आप को बदल भी लिया तो हिंदू धर्म को उसके साथ सहज नहीं लगता है। यह धर्म परिवर्तन न करने वाला, संगठन विहीन धर्म है। जिन अर्थों में कैथोलिक धर्म में पुरोहितवाद है ऐसा पुरोहितवाद इसमें नहीं है। हिंदू साधु बस एक घुमक्कड़ व्यक्ति है--बिना किसी धर्मसत्ता के बिना किसी व्यवस्था से जुड़े हुए। वह आत्यंतिक रूप से जड़-विहीन है। जहां तक बाहरी संसार का संबंध है यह रंगा-ढंग असफल होना ही है, लेकिन जहां तक व्यक्ति का संबंध है, जहां तक भीतरी गहराई का संबंध है, इसे सफल होना ही है।
विवेकानंद ईसाइयत से बहुत आकर्षित थे। उन्होंने रामकृष्ण-मिशन की व्यवस्था कैथोलिक पादरियों की प्रणाली पर आधारित की। पूरब के लिए यह बहुत अपरिचित, बहुत बाहरी है। यह पूरी तरह से पश्चिमी है। विवेकानंद का मन जरा भी पूरब का नहीं है। और जैसे कि मैं कहता हूं कि विवेकानंद पश्चिमात्य थे उसी तरह से मैं कहता हूं कि इकहार्ट और संत फ्रांसिस पूरब के थे। मूलत: वे पूरब से जुड़े हुए थे।
जीसस खुद भी पूरब से जुड़े हुए थे। लेकिन ईसाइयत पूरब से नहीं जुड़ी है यह पश्चिम से जुड़ी हुई है। जीसस मूलत: पूरब के थे वे चर्च-विरोधी संगठन-विरोधी थे। यही तो संघर्ष था।
पश्चिमी मन तर्क कारण, व्यवस्था युक्ति के रूप में सोचता है। यह बहुत गहरा नहीं जा सकता है यह सतह पर ही रहेगा। यह बहिर्गामी होगा अंतर्गामी कभी नहीं होगा।

तो संगठित धर्म हमारे लिए पर्दा हैं। उन्हें विदा होना पड़ेगा जिससे कि हम आकाश को देख सकें?

हां, वे खिड़की को ढ़के हुए हैं। वे रुकावटें हैं।

क्या पश्चिमी मन को पूरब की तरह विस्तीर्ण होना पड़ेगा?

जहां तक विज्ञान का संबंध है, पश्चिमी मन सफल हो सकता है, लेकिन धार्मिक चेतना में यह सफल नहीं हो सकता है। जब कभी किसी धार्मिक मन का जन्म होता है, भले ही यह पश्चिम में हो, वह पूरब का है। इकहार्ट में, बोहेमे में, मन की गुणवत्ता पूरब की है। और पूरब में जब कभी कोई वैज्ञानिक मन जन्म लेता है यह पश्चिम का होने के लिए बाध्य है। पूरब और पश्चिम भौगोलिक स्थितियां नहीं हैं। पश्चिम का अभिप्राय है, अरस्तुवादी और पूरब का अभिप्राय है गैर-अरस्तुवादी। पश्चिम का अर्थ है साम्य और पूरब का अर्थ है अ-साम्य। पश्चिम का अर्थ है तार्किक और पूरब का अर्थ है अतार्किक। तुलियन पश्चिम के सर्वाधिक पूर्वीय मनों में से एक था। उसने कहा 'मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं क्योंकि विश्वास करना असंभव है। मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं क्योंकि यह असंगत है।' यह पूरब का मूलभूत दृष्टिकोण है 'क्योंकि यह असंगत है। पश्चिम में कोई इसे नहीं कह सकता है। पश्चिम में वे कहते हैं, तुम्हें किसी बात में केवल तब विश्वास करना चाहिए जब कि यह तर्कयुक्त हो। वरना यह बस एक विश्वास, एक वहम हैं।
इकहार्ट भी एक पूर्वीय मन है। वह कहता है : अगर तुम संभव में विश्वास करते हो तो यह कोई विश्वास नहीं है। अगर तुम तर्क में विश्वास करते हो तो यह कोई धर्म नहीं है। ये तो विज्ञान के हिस्से हैं। केवल अगर तुम असंगत में विश्वास करो, तो ही कुछ ऐसा जो मन के पार है तुम तक आता है। यह धारणा पश्चिम की नहीं है, यह पूरब की है। दूसरी ओर कनक्यूशियस एक पश्चिमी मन है। पश्चिम में वे लोग हैं जो कनक्यूशियस को समझ सके हैं लेकिन वे लाओत्सु को कभी नहीं समझ सकते हैं। लाओत्सु कहता है : ' तुम मूर्ख हो क्योंकि तुम केवल तर्कयुक्त हो। तर्कयुक्त होना, युक्तिपूर्ण होना पर्याप्त नहीं है। तर्कातीत को अस्तित्व के लिए अपना स्वयं का स्थान चाहिए। केवल अगर कोई व्यक्ति तर्कयुक्त और अतर्क्य दोनों है तभी वह उचित है।'
पूरी तरह से तर्कपूर्ण व्यक्ति कभी उचित नहीं हो सकता है। तर्क में अतर्क्य के अपने अंधेरे कोने होते हैं। बच्चे का जन्म अंधेरे गर्भ में होता है। फूल अंधेरे में, जमीन में छिपी जड़ों में जन्म लेता है। अंधेरे से इनकार नहीं किया जाना चाहिए, यह आधार है। यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण, सबसे अधिक जीवन देने वाली चीज है।
पश्चिमी मन के पास संसार को देने के लिए कुछ है यह विज्ञान है धर्म नहीं। पूर्वीय मन केवल धर्म दे सकता है, टेस्नालॉजी या विज्ञान नहीं। विज्ञान और धर्म पूरक हैं। अगर हम उनकी भिन्नताओं और उनके पूरक होने को दोनों को जान सकें तो इससे एक बेहतर विश्व संस्कृति का जन्म हो सकता है।
अगर किसी को विज्ञान की जरूरत हो, उसे पश्चिम चले जाना चाहिए। लेकिन अगर पश्चिम कोई धर्म निर्मित करता है तो यह धर्मशास्त्र से अधिक कभी नहीं हो सकता। पश्चिम में तुम परमात्मा को सिद्ध करने के लिए अपने आप को तर्क देते हो। परमात्मा को सिद्ध करने के लिए तर्क! पूरब में यह अकल्पनीय है। तुम भगवत्ता को सिद्ध नहीं कर सकते हो। यह प्रयास ही अर्थहीन है। वह जिसको सिद्ध किया जा सके कभी परमात्मा नहीं होगा, यह एक वैज्ञानिक निष्पत्ति होगी। पूरब में हम कहते हैं दिव्यता को सिद्ध नहीं किया जा सकता है। जब तुम अपने प्रमाणों से ऊब जाओ, तब इस अनुभव में छलांग लगा दो स्वयं दिव्यता में छलांग लगा दो।
पूरब का मन केवल छद्य वैज्ञानिक हो सकता है ठीक वैसे ही जैसे कि पश्चिम का मन केवल छद्य धार्मिक हो सकता है। तुमने पश्चिम में एक महत धर्मशास्त्र निर्मित कर लिया है, धार्मिक परंपरा नहीं। ठीक इसी प्रकार से पूरब में जब कभी हम विज्ञान की ओर प्रयास करते हैं हम केवल टेस्नीशियंस निर्मित करते हैं वैज्ञानिक नहीं। 'कैसे करें' यह जानकारी रखने वाले लोग, कुछ नया करने वाले, सृजन करने वाले लोग नहीं।
इसलिए पश्चिमी मन के साथ पूरब मत आओ वरना तुम केवल गलत समझोगे। तब तुम अपनी गलत फहमी को अपनी समझ की भांति साथ लिए रहोगे। पूरब का दृष्टिकोण पूरी तरह से विपरीत है। केवल विपरीत ही पूरक होते हैं--स्त्री और पुरुष की भांति।
पूरब का मन स्त्रैण है, पश्चिम का मन पुरुष है। पश्चिम का मन आक्रामक है। तर्क को आक्रामक हिंसक होना पड़ता है। धर्म ग्रहणशील है, ठीक एक स्त्री की भांति। भगवत्ता को केवल ग्रहण किया जा सकता है, इसका कभी अन्वेषण या आविष्कार नहीं किया जा सकता है। व्यक्ति को स्त्री की भांति हो जाना पड़ता है पूरी तरह से ग्रहणशील, बस खुला हुआ और प्रतीक्षारत। यही है ध्यान का अभिप्राय-- खुला और प्रतीक्षारत होना।

रामकृष्ण ने कहा था कि इस युग के लिए भक्ति-योग सर्वाधिक उचित मार्ग है। क्या ऐसा है?

नहीं। रामकृष्ण ने कहा था कि भक्ति-योग सर्वाधिक उचित मार्ग है क्योंकि उनके लिए यह सर्वाधिक उचित था। यही वह मौलिक खिड़की थी जिसके द्वारा वे आकाश के नीचे आए थे। यह किसी विशेष युग के लिए किसी मार्ग के उचित या अनुचित होने का सवाल नहीं है। हम युगों के हिसाब से नहीं सोच सकते हैं।
शताब्दियां समकालिकता में जी सकती हैं--हम इसी समय में जीते हुए प्रतीत हो सकते हैं ऐसा नहीं भी हो सकता है। हो सकता है कि मैं बीस शताब्दी पूर्व में जी रहा होऊं। कुछ भी आत्यंतिक रूप से अतीत नहीं है। किसी के लिए यह वर्तमान है। कुछ भी आत्यंतिक रूप से भविष्य नहीं है। किसी के लिए यह वर्तमान है। और कुछ भी आत्यंतिक रूप से वर्तमान भी नहीं है। किसी के लिए यह अतीत है और किसी के लिए यह अभी आने वाला है। इसलिए किसी युग के लिए इस तरह कोई सुनिश्चित वक्तव्य नहीं दिया जा सकता है।
रामकृष्ण एक भक्त थे। वे प्रार्थना और प्रेम के माध्यम से, भाव के माध्यम से भगवत्ता तक पहुंचे थे। उन्होंने उस ढंग से साक्षात किया था इसलिए उनको ऐसा लगा कि हर व्यक्ति के लिए यही सहायक हो सकता है। वे समझ नहीं सके कि दूसरों के लिए उनके वाला मार्ग कठिन कैसे हो सकता है। हम कितने भी सहानुभूतिपूर्ण क्यों न हों हम सदा दूसरों को अपने निजी अनुभवों के प्रकाश में देखते हैं। इसलिए रामकृष्ण के लिए यह भक्ति योग उपासना का मार्ग प्रतीत होता है।
अगर हम युगों के रूप में सोचना चाहें, तो हम कह सकते हैं कि यह युग सर्वाधिक बौद्धिक सर्वाधिक वैज्ञानिक सर्वाधिक तकनीकों का, सबसे कम भक्ति का सबसे कम भावात्मक युग है। रामकृष्ण जो कह रहे थे वह उनके लिए उचित था जो लोग उनके साथ थे उनके लिए भी उचित हो सकता है लेकिन रामकृष्ण कभी भी संसार के एक बड़े हिस्से को प्रभावित नहीं कर पाए। मूलत: वे गांव से, गैर-तकनीकी अवैज्ञानिक मन से जुड़े हुए थे। वे एक ग्रामीण थे--अशिक्षित, वृहत्तर संसार से अपरिचित--इसलिए उन्होंने जो कहा उसे उनकी ग्रामीण भाषा के अनुसार समझा जाना चाहिए। वे इन दिनों की कल्पना भी नहीं कर सकते थे जो अब हैं। वे मूल रूप से किसानों की दुनिया का हिस्सा थे जहां बुद्धि कुछ भी नहीं थी और भाव सभी कुछ था। वे इस युग के व्यक्ति भी नहीं थे। वे जो कुछ कह रहे थे वह उस जगत के लिए बिलकुल उचित था जिसमें वे रहते थे लेकिन इस संसार के लिए उचित नहीं है जो अब है।
ये तीन प्रकार सदा से रहे हैं बौद्धिक सक्रिय भावुक। इनके बीच सदा एक संतुलन रहेगा, बिलकुल वैसे ही जैसे कि पुरुषों और स्त्रियों के बीच एक संतुलन बना रहता है। यह संतुलन लंबे समय के लिए मिटता नहीं है। अगर यह खो जाता है तो जल्दी ही इसे दुबारा से उपलब्ध कर लिया जाएगा।
पश्चिम में तुम संतुलन खो चुके हो। बुद्धि सबसे अधिक प्रभावशाली बन चुकी है। यह तुम्हें आकर्षित लग सकता है कि रामकृष्ण कहते हैं 'इस युग के लिए भक्ति मार्ग है क्योंकि तुम संतुलन खो चुके हो। लेकिन विवेकानंद इससे उलटी बात कहते हैं। क्योंकि पूरब भी संतुलन खो चुका है वे मुख्यत: बौद्धिक व्यक्ति थे। यह बस वर्तमान
अतियों को संतुलित करने के लिए है। यह एक अर्थ में पूरक है।
रामकृष्ण भावुक प्रकार के थे और उनका मुख्य शिष्य बौद्धिक प्रकार का था। उसे ऐसा होना ही था। यह जोड़ा बनाना है पुरुष और स्त्री। रामकृष्ण पूरी तरह से स्त्रैण थे अनाक्रामक ग्रहणशील। लिंग भेद केवल जीव-विज्ञान में ही नहीं होता यह हर स्थान पर होता है। प्रत्येक क्षेत्र में जहां ध्रुवीयता है वहां लिंग भेद है और विपरीत आकर्षित हो जाता है।
विवेकानंद कभी किसी बौद्धिक व्यक्ति से आकर्षित न हो पाए। वे हो ही नहीं सकते थे वे उनके ध्रुवीय विपरीत नहीं थे। बंगाल में असाधारण बौद्धिक लोग थे। वे उन लोगों से मिलने गए थे और खाली हाथ लौट आए थे। वे उनसे आकर्षित न हो सके। रामकृष्ण कम से कम संभव बौद्धिक व्यक्ति थे। वे वह सब-कुछ थे जो विवेकानंद नहीं थे वह सब-कुछ जिसको वे खोज रहे थे।
विवेकानंद रामकृष्ण से विपरीत थे इसलिए रामकृष्ण के नाम से उन्होंने जो पढ़ाया, वह वही नहीं था जो स्वयं रामकृष्ण की शिक्षा थी। इसलिए रामकृष्ण के पास जो विवेकानंद के माध्यम से आता है वह रामकृष्ण के पास जरा भी नहीं आता है। जो भी विवेकानंद के द्वारा दी गई रामकृष्ण की व्याख्या को समझता है, वह कभी स्वयं रामकृष्ण को नहीं समझ सकता। यह व्याख्या विपरीत ध्रुव से आ रही है।
जब लोग कहते हैं 'विवेकानंद के बिना हमने रामकृष्ण के बारे में कभी जाना भी न होता।' तो एक अर्थ में यह बात सही है। वृहत्तर संसार ने विवेकानंद के बिना रामकृष्ण के बारे में कभी न सुना होता। लेकिन विवेकानंद के साथ रामकृष्ण के बारे में जो भी जाना गया, मूलत: गलत है। यह मिथ्या व्याख्या है। ऐसा इसलिए है कि उनका प्रकार रामकृष्ण के प्रकार का बिलकुल उलटा है। रामकृष्ण ने कभी तर्क नहीं किया विवेकानंद तर्कशील थे। रामकृष्ण अज्ञानी थे विवेकानंद ज्ञानवान व्यक्ति थे। विवेकानंद ने रामकृष्ण के बारे में जो भी कहा वह विवेकानंद के दर्पण के माध्यम से कहा गया था। यह कभी प्रामाणिक नहीं था। यह प्रमाणिक हो भी नहीं सकता है।
ऐसा सदा से होता रहा है। यह होता रहेगा। बुद्ध उन लोगों को आकर्षित करते हैं जो उनसे विपरीत ध्रुव के हैं। महावीर और जीसस उन लोगों को आकर्षित करते हैं जो आध्यात्मिक रूप से विपरीत लिंग के हैं। ये विपरीत लोग उनके बाद संगठन, व्यवस्था का निर्माण करते हैं। ये लोग व्याख्या करेंगे। ये शिष्य ही गलत रूप में प्रस्तुतिकरण करेंगे।

लेकिन यह ऐसा ही है। इसमें कुछ किया नहीं जा सकता है।

आज इतना ही। 

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