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बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-05)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो

प्रवचन-पांचवां-(गुहा के खेल विकास में अवरोध)

(The Psychology of The Esoteric)--का हिन्दी रूपांतरण है)

 ओशो क्या शरीर और मन पदार्थ और चेतना भौतिक और आध्यात्मिकता के बीच कोई विभाजन है? आध्यात्मिक चेतना को उपलब्ध करने के लिए कोई शरीर और मन का अतिक्रमण कैसे कर सकता है?
पहली बात तो यह समझ लेनी है कि शरीर और मन के बीच का विभाजन आत्यंतिक रूप से झूठ है। अगर तुम इस विभाजन से आरंभ करते हो तो कहीं नहीं पहुंचोगे; क्योंकि झूठा आरंभ कहीं नहीं ले जाता है। इससे कुछ नहीं आ सकता है क्योंकि प्रत्येक कदम के विकसित होने का अपना गणित है। दूसरा कदम पहले से आएगा, और तीसरा दूसरे से, और ऐसा ही होता चला जाएगा। यह एक तार्किक श्रृंखला है। इसलिए जिस पल तुम पहला कदम उठाते हो तुमने एक प्रकार से सब-कुछ चुन लिया है।
पहला कदम अंतिम से अधिक महत्वपूर्ण है आरंभ अंत की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि अंत तो बस एक परिणाम है, एक विकास है। लेकिन हम सदा अंत के बारे में उत्सुक होते हैं आरंभ के बारे में कभी नहीं। हम सदा साध्य में रुचि रखते हैं, साधन में कभी नहीं। अंत हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि हम बीज के, प्रारंभ के पथ से ही चूक जाते हैं। तब हम सपने देखते रह सकते हैं लेकिन हम वास्तविक पर कभी नहीं पहुंचेंगे।

किसी खोजी के लिए विभाजित व्यक्ति की यह धारणा, दोहरे अस्तित्व की यह धारणा--शरीर और मन का द्वैत भौतिक और आध्यात्मिक का द्वैत--एक झूठा कदम है। अस्तित्व अविभाजित है सारे विभाजन बस मानसिक हैं। मन के देखने का वह तरीका, जिससे वह वस्तुओं को देखता है द्वैत निर्मित करता है। यह मन का कारागृह है जो बांट देता है।
मन और कुछ कर भी नहीं सकता। दो विरोधाभासों के एक होने का दो विपरीत ध्रुवीयताओं के एक होने का अनुमान लगाना भी मन के लिए कठिन है। मन के लिए यह एक अनिवार्यता है बाध्यता है कि वह तर्क संगत रहे। वह यह कल्पना ही नहीं कर सकता कि प्रकाश और अंधकार कैसे एक हो सकते हैं? यह बात तो अतर्क्य है विरोधाभासी है।
मन को विरोध निर्मित करने पड़ते हैं ईश्वर और शैतान, जीवन और मृत्यु, प्रेम और घृणा। तुम प्रेम और घृणा की एक ही ऊर्जा के रूप में कल्पना भी कैसे कर सकते हो? मन के लिए यह कठिन है। इसलिए मन बांट देता है। तब यह कठिनाई नहीं रहती है। घृणा प्रेम के विपरीत है और प्रेम घृणा का विलोम है। अब तुम तर्क संगत हो सकते हो और मन आराम में हो सकता है। इसलिए विभाजन मन की सुविधा के लिए है--यह सत्य नहीं है वास्तविकता नहीं है।
अपने आप को दो में बांट लेना सुविधाजनक रहता है शरीर और तुम। लेकिन जिस पल तुमने बांटा, तुमने एक गलत कदम उठा लिया। जब तक कि तुम वापस न लौट आओ और पहले कदम को न बदलो, तुम अनेक जन्मों में भटकते रह सकते हो, और इससे कुछ भी नहीं होगा क्योंकि एक झूठा कदम और झूठे कदमों की ओर ले जाता है।
इसलिए सही आरंभ से शुरू करो। स्मरण रखो कि तुम और तुम्हारा शरीर दो नहीं हैं। इन का दो होना बस एक सुविधादायक अवधारणा है। जहां तक अस्तित्व का संबंध है एक होना पर्याप्त है।
अपने आप को दो में बांटना एक धोखा है। वस्तुत: तुम सदा अनुभव करते हो कि तुम एक हो लेकिन अगर एक बार तुमने इस बारे में सोचना शुरू कर दिया तो समस्या उठती है। अगर तुम्हारे शरीर में चोट लग जाए तो उस क्षण में तुम कभी यह अनुभव नहीं करते कि तुम दो हो। तुम्हें महसूस होता है कि तुम शरीर के साथ एक हो। सिर्फ बाद में जब तुम इसके बारे में सोचना आरंभ करते हो, तब तुम बांटते हो।
वर्तमान के क्षण में कोई विभाजन नहीं है। उदाहरण के लिए अगर कोई तुम्हारे सीने पर छुरा रख दे ठीक उसी क्षण में वहां पर कोई विभाजन नहीं होता। तुम ऐसा नहीं सोचते हो कि वह तुम्हारे शरीर को मारने जा रहा है तुम सोचते हो कि वह तुम्हें मारने जा रहा है। सिर्फ बाद में जब यह घटना स्मृति का हिस्सा बन चुकी होती है तुम बांट सकते हो। अब तुम चीजों को देख सकते हो उनके बारे में सोच सकते हो। तुम कह सकते हो कि वह आदमी तुम्हारे शरीर को मारने जा रहा था। किंतु उस क्षण में तुम यह नहीं कह सकते थे।
जब भी तुम अनुभव करो तुम्हें एकता अनुभव होती है। जब भी तुम सोचते हो, तुम बांटना शुरू कर देते हो। तब शत्रुता निर्मित होती है। अगर तुम शरीर नहीं हो तो एक खास तरह का संघर्ष विकसित होता है। प्रश्न उठता है, कौन मालिक है? शरीर या मैं? तब अहंकार आहत अनुभव करने लगता है। तुम शरीर का दमन करने लगते हो। और जब तुम शरीर का दमन करते हो तो तुम अपने आप का दमन कर रहे हो। जब तुम शरीर के साथ संघर्ष करते हो, तो तुम अपने आप से संघर्ष कर रहे हो। इस तरह से बहुत सा संशय निर्मित हो जाता है। यह आत्मघाती बन जाता है।
अगर तुम प्रयास भी करो तो भी तुम अपने शरीर को वास्तविक रूप से दबा नहीं सकते। मैं अपने बाए हाथ को अपने दाएं हाथ से कैसे दबा सकता हूं। वे दो की भांति दिखते हैं, पर दोनों में एक ही ऊर्जा बहती है। अगर वास्तव में वे दो हों तब दमन संभव हो सकता था--और केवल दमन ही नहीं बल्कि पर्णू विनाश भी संभव होता--किंतु अगर दोनों में एक ही ऊर्जा बह रही है तो मैं अपने बाएं हाथ का दमन कैसे कर सकता हूं। यह बस एक बनाया हुआ विश्वास है। मैं अपने दाएं हाथ को बायां हाथ नीचे गिराने दे सकता हूं और मैं ऐसा दिखावा कर सकता हूं कि मेरा दायां हाथ जीत गया है, पर अगले क्षण ही मैं अपने बाएं हाथ को ऊपर उठा सकता हूं और वहां उसे रोकने वाला कोई न होगा। यही वह खेल है जो हम खेला करते हैं। यह चलता रहता है। किसी समय तुम कामवासना को नीचे धकेल देते हो और किसी समय कामवासना तुम्हें नीचे धकेल देती है। यह एक
दुष्चक्र बन जाता है। तुम कभी कामवासना का दमन नहीं कर सकते हो। तुम इसका रूपांतरण कर सकते हो, किंतु तुम इसका दमन कभी नहीं कर सकते।
तुम और तुम्हारे शरीर के बीच विभाजन से आरंभ करना दमन की ओर ले जाता है। इसलिए अगर तुम रूपांतरण चाहते हो, तो तुम्हें विभाजन से आरंभ नहीं करना चाहिए। रूपांतरण सिर्फ पूर्ण को पूर्ण की भांति समझने से ही आ सकता है। पूर्ण को विभाजित खंडों में समझने की गलतफहमी से दमन पैदा होता है। अगर मैं जानता हूं कि दोनों हाथ मेरे हैं, तो एक को दबाने का प्रयास असंगत है। तब यह संघर्ष अर्थहीन हो जाता है क्योंकि कौन किसको दबाएगा कौन किससे लड़ेगा? अगर तुम अपने शरीर के साथ विश्रांति अनुभव कर सको तब तुम पहला कदम उठा सकते हो जो ठीक कदम होगा। तब विभाजन दमन नहीं आएगा।
अगर तुम स्वयं को अपने शरीर से अलग करते हो तो बहुत सी बातें अपने आप ही उसके पीछे से आएंगी। जितना अधिक तुम शरीर को दबाओगे उतना ही अधिक तुम हताश होओगे क्योंकि दमन असंभव है। क्षणिक युद्धविराम हो सकता है, किंतु फिर तुम पराजित हो जाओगे। और तुम जितना अधिक हताश होओगे उतना ही विभाजन बढ़ेगा, तुम और तुम्हारे शरीर के बीच की खाई और अधिक चौड़ी हो जाएगी। तुम इसके प्रति और अधिक शत्रु भाव अनुभव करने लगोगे। तुम्हें ऐसा लगने लगेगा कि शरीर बहुत शक्तिशाली है और यही कारण है कि तुम इसका दमन कर पाने में समर्थ नहीं हो पा रहे हो। तब तुम सोचते हो 'अब मुझे और अधिक ताकत से लड़ना होगा।'
यही कारण है कि मैं कहता हूं कि हर बात का अपना तर्क है। अगर तुम गलत प्रस्तावना से शुरू करो तो तुम आगे और आगे, अंत तक चलते रह सकते हो, लेकिन पहुंचते कहीं नहीं हो। प्रत्येक संघर्ष तुम्हें दूसरे संघर्ष में ले जाता है। मन को लगता है, 'शरीर सबल है और मैं निर्बल हूं। मुझे इसका और अधिक दमन करना होगा।' या उसे लगता है कि मुझे अब अपने शरीर को कमजोर कर लेना चाहिए। सारी तपस्याएं शरीर को कमजोर बनाने के प्रयास मात्र हैं। किंतु तुम शरीर को जितना कमजोर बनाते हो तुम भी उतने ही कमजोर हो जाते हो। तुम और तुम्हारे शरीर के बीच वही तुलनात्मक शक्ति बनी रहती है।
जिस क्षण में तुम कमजोर होते हो तुम और अधिक हताश अनुभव करने लगते हो। क्योंकि अब तुम्हें आसानी से हराया जा सकता है। और तुम इसके बारे में कुछ कर भी नहीं सकते। तुम जितने और कमजोर होगे शरीर के खिंचाव से ऊपर उठने की संभावना उतनी ही कम होती चली जाएगी और तुम्हें इससे और अधिक लड़ना पड़ेगा।
इसलिए पहली बात है विभाजन के रूप में न सोचना। यह विभाजन भौतिक और आध्यात्मिक शारीरिक और मानसिक चेतना और पदार्थ केवल भाषा की भ्रांति है। यह सब मुड़ता भाषा के कारण उत्पन्न हुई है।
उदाहरण के लिए, अगर तुम कुछ कहो तो मुझे 'हां' या 'न' कहना पड़ेगा। हमारी भाषा में तटस्थ भाव के लिए कोई शब्द नहीं है। 'हां' हमेशा पूर्ण है 'न' भी पूर्ण है। किसी भाषा में कोई तटस्थ शब्द नहीं है। इसलिए डि बोनो ने एक नया शब्द गढ़ा 'पो।' वह कहता है 'पो' को एक निष्पक्ष शब्द के रूप में प्रयुक्त होना चाहिए। इसका अर्थ है' 'मैंने तुम्हारा दृष्टिकोण सुन लिया है। मैं न तो 'हां' कहता हूं और न ही 'न।'
'पो' का प्रयोग करो और सारी संभावना बदल जाती है। 'पो' एक कृत्रिम शब्द है जिसे डि बोनो ने हाइपोथीसिस या पॉसिबिलिटी या पोख्य्री से लिया है। यह एक निष्पक्ष शब्द है जिस में कोई मूल्य निर्धारण नहीं है न निंदा है, न प्रशंसा न वचनबद्धता न पक्ष है न विपक्ष है। अगर कोई तुम्हारा अपमान कर रहा है बस कहो 'पो'। तब अपने भीतर का अंतर महसूस करो। एक अकेले शब्द से इतना अंतर निर्मित हो सकता है। जब तुम कहते हो 'पो' तुम कह रहे हो 'मैंने तुम्हारी बात सुन ली है। अब मुझे पता है कि तुम्हारामेरे प्रति क्या रुख है। तुम सही हो भी सकते हो तुम गलत भी हो सकते हो। मैं कोई मूल्यांकन नहीं कर रहा हूं।'
भाषा विभाजन निर्मित करती है। महान विचारक भी भाषा के रूप में ऐसी चीजें निर्मित करते चले जाते हैं, जो होती ही नहीं हैं। अगर तुम उनसे पूछो ' मन क्या है?' वे
कहेंगे 'यह पदार्थ नहीं है।' अगर तुम उनसे पूछो 'पदार्थ क्या है? वे कहेंगे' यह मन नहीं है।' न तो पदार्थ को जाना गया है, न ही मन को। वे पदार्थ को मन से परिभाषित करते हैं और मन को पदार्थ से। मूल अर्थ अशात रहता है। यह अर्थहीन है किंतु यह, हमारे यह कहने की तुलना में 'मुझे नहीं पता इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है' अधिक सुविधाजनक है।
जब हम कहते हैं 'मन पदार्थ नहीं है हम विश्रांति अनुभव करते हैं--जैसे कि कुछ परिभाषित कर लिया गया हो। लेकिन कुछ भी परिभाषित नहीं हुआ है। मन और पदार्थ दोनों अज्ञात हैं परंतु यह कहना कि 'मैं नहीं जानता' अहंकार को छोटा करने वाला होगा। जिस घड़ी हम बांटते हैं हम महसूस करते हैं कि हम उन चीजों के भी मालिक हो गए हैं जिनके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते।
निन्यानबे प्रतिशत दर्शनशास्त्र भाषा से निर्मित हुआ है। अलग-अलग भाषाओं
ने दर्शनशास्त्रों के अनेक रूप निर्मित किए हैं इसलिए अगर तुम भाषा को बदल दो तो दर्शनशास्त्र बदल जाएगा। यही कारण है कि दर्शनशास्त्र का अनुवाद नहीं किया जा सकता है। विज्ञान का अनुवाद सदैव हो सकता है लेकिन दर्शनशास्त्र का नहीं। और काव्य तो और भी अनुवाद योग्य नहीं है, क्योंकि यह भाषा की विशेष प्रकार की ताजगी पर निर्भर होता है। जिस पल तुम भाषा बदलते हो, काव्य की सुगंध खो जाती है स्वाद खो जाता है। यह स्वाद शब्दों के एक विशेष आयोजन से शब्दों के एक विशेष अनुप्रयोग से संबंधित है। इसका अनुवाद नहीं किया जा सकता है।
इसलिए स्मरण रखने योग्य पहली बात है, विभाजन से शुरू न करना। सिर्फ तभी तुम सही तरह से शुरू करते हो। मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि तुम, मैं एक हूं की धारणा से शुरू करो। मेरा यह अभिप्राय नहीं है। तब तुम फिर से एक धारणा से शुरू करते हो। बस अनभिज्ञता से, विनम्र अनभिज्ञता से इस आधार से कि मैं नहीं जानता, शुरू करो।
तुम यह कह सकते हो कि शरीर और मन अलग हैं या तुम इससे उलटी बात को पकड़ सकते हो और कह सकते हो, 'मैं एक हूं। शरीर और मन एक हैं।' किंतु यह कथन भी यह मान लेना ही है कि विभाजन है। तुम कहते हो 'एक' किंतु तुम अनुभव कर रहे हो 'दो।' दो के अनुभव के विरुद्ध तुम एकता का आग्रह करते हो। यह आग्रह फिर से एक सूक्ष्म दमन है।
तो अद्वैत से शुरू मत करो, नॉन-डयूअल, अद्वैत दर्शन से शुरू मत करो। अस्तित्व के साथ शुरू करो, धारणाओं के साथ नहीं। एक गहन धारणा विहीन चेतना के साथ शुरू करो। सम्यक आरंभ से मेरा यही अभिप्राय है। अस्तित्ववान के अनुभव से आरंभ करो। मत कही, 'एक' या 'दो' मत कहो 'यह' या 'वह'। जो है उसको अनुभव करना शुरू करो। और 'जो है' का यह अनुभव सिर्फ तब हो सकता है, जब मन वहां न हो, धारणाएं वहां न हों, दर्शनशास्त्र और मत वहां न हों--वस्तुत: जब भाषा वहां न हो। जब भाषा अनुपस्थित होती है, तुम अस्तित्व में होते हो। जब भाषा उपस्थित होती है, तुम मन में होते हो अलग भाषा के साथ तुम्हारे पास अलग मन होगा। बहुत सी भाषाएं हैं। न केवल भाषाशास्त्रीय रूप से, बल्कि धार्मिक रूप से राजनैतिक रूप से भी। कोई कम्युनिस्ट जो मेरे बगल में बैठा है किसी तरह मेरे साथ नहीं होगा। वह अलग भाषा में जीता है।
मेरी दूसरी ओर कोई दूसरा व्यक्ति भी बैठा हो सकता है जो कर्म में भरोसा रखता हो। कम्युनिस्ट और वह दूसरा व्यक्ति मिल नहीं सकते हैं। कोई संवाद संभव नहीं है क्योंकि वे एक-दूसरे की भाषा को जरा भी नहीं जानते हैं। वे समान शब्दों का प्रयोग करते रह सकते हैं किंतु फिर भी वे नहीं नहीं जानते कि दूसरा व्यक्ति क्या कह रहा है। वे अलग संसारों में रहते हैं।
भाषा के साथ प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी संसार में रहता है। बिना भाषा के तुम समान वाणी के अस्तित्व के हो जाते हो। ध्यान से मेरा यही अभिप्राय है निजी भाषा निर्मित संसारों को छोड़ कर निःशब्द अस्तित्व में प्रवेश करना।
वे लोग जो शरीर और मन को विभाजित करते हैं, सदा कामवासना के विरोध में होते हैं। कारण यह है आमतौर से कामवासना ही एकमात्र निःशब्द प्राकृतिक अनुभव है जिसे हम जानते हैं। इसमें भाषा की कोई जरूरत नहीं पड़ती है। अगर कामवासना में तुम भाषा का प्रयोग करो, तो तुम इसमें गहरे नहीं जा सकते हो। इसलिए वे सभी लोग जो तुमसे कहते हैं तुम शरीर नहीं हो कामवासना के विरोध में होंगे क्योंकि कामकृत्य में तुम आत्यंतिक रूप से अविभाजित होते हो।
शब्दों के संसार में मत जीओ। अस्तित्व में गहरे उतर जाओ। किसी भी चीज का उपयोग करो, पर बार-बार लौट कर निःशब्द के तल पर, चेतना के तल पर आ जाओ। वृक्षों के साथ पक्षियों के साथ आकाश के सूर्य के बादलों के वर्षा के साथ--हर कहीं निःशब्द अस्तित्व के साथ रहो। और जितना अधिक तुम ऐसा करोगे, जितनी गहराई में तुम इसमें जाओगे, उतनी ही अधिक तुम ऐसी एकता का अनुभव करोगे जो 'दो' के विरोध में नहीं है, एक ऐसी एकता जो बस दो का जुड़ना नहीं है बल्कि मुख्य भूमि के साथ एक ऐसे द्वीप की एकता है जो सागर तल के नीचे से होकर उसे मुख्य भूमि से जोड़े हुए है। वे दो सदा से एक रहे हैं। तुम उन्हें दो की भांति देखते हो क्योंकि तुम सिर्फ सतह पर देखते हो। भाषा सतह है। सभी प्रकार की भाषाएं--धार्मिक राजनैतिक--सतह पर हैं। जब तुम शब्दरहित अस्तित्व के साथ रहते हो तुम एक सूक्ष्म एकता पर पहुंचते हो जो गणितीय एकता नहीं है बल्कि अस्तित्वगत एकता है।
इसलिए इन शाब्दिक खेलों में कि शरीर और मन विभाजित हैं शरीर और मन एक हैं; खेलने का प्रयास मत करो। उन्हें छोड़ दो। वे दिलचस्प हैं लेकिन व्यर्थ हैं। वे कहीं नहीं ले जाते। अगर तुम उनमें कोई सत्य भी पा लो तो वे मात्र शाब्दिक सत्य हैं। तुम उनसे क्या सीखने जा रहे हो? हजारों वर्षों से तुम्हारा मन यह खेल खेलता आया है लेकिन यह बचकाना है कोई भी शाब्दिक खेल बचकाना है। तुम उसे कितनी ही गंभीरता से खेलो इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। तुम बहुत सी बातों को बहुत से अर्थों को अपनी स्थिति के समर्थन में पा सकते हो लेकिन यह बस एक खेल है। जहां तक रोजमर्रा के काम का संबंध है भाषा उपयोगी है, किंतु तुम इससे गहनतर क्षेत्रों में नहीं उतर सकते हो क्योंकि ये क्षेत्र शब्दों से परे हैं।
भाषा बस एक खेल है। अगर तुम शाब्दिक और अशाब्दिक के बीच कोई साहचर्य पा लो तो कुछ ऐसा नहीं है कि तुमने कोई महत्वपूर्ण सुराग पा लिया है। तुम बहुत से साहचर्य पा सकते हो जो महत्वपूर्ण दिखते हैं किंतु वे वास्तविक अर्थों में अर्थपूर्ण नहीं हैं। वे वहां हैं क्योंकि तुम्हारे मन ने अचेतन रूप में उन्हें निर्मित कर लिया है।
प्रत्येक स्थान पर मनुष्य का मन मूलभूत रूप से समान है इसलिए प्रत्येक वह बात जो मानवीय मन से विकसित हुई है समानता लिए हुए होती है। उदाहरण के लिए 'मां' के लिए हर भाषा के शब्द समानता लिए हुए हैं। इसलिए नहीं कि इसमें कोई अर्थवत्ता है, बल्कि इसलिए कि 'मां' वह ध्वनि है जो प्रत्येक बच्चे के द्वारा सर्वाधिक आसानी से बोली जाती है। एक बार ध्वनि सुन ली जाए तो तुम उससे बहुत से शब्द निर्मित कर सकते हो, लेकिन कोई भी ध्वनि तो बस एक आवाज है। बच्चा तो बस एक ध्वनि कर रहा है 'मां' पर तुम इसको एक शब्द की तरह सुनते हो।
कभी-कभी कोई समानता भी पाई जा सकती है, जो मात्र सांयोगिक हो। 'गॉड' शब्द 'डॉग' का उलटा है। यह बस एक संयोग है। लेकिन हमें यह अर्थपूर्ण लगता है, क्योंकि हमारे लिए डॉग, कुत्ता होने में कुछ नीचापन है। तब हम कहते हैं कि गॉड इसका उलटा है, यह हमारी व्याख्या है, ऐसा भी हो सकता है कि हमने गॉड के विपरीत 'डॉग' शब्द निर्मित किया हो और यह नाम कुत्तों को दे दिया हो। वे किसी भी तरह से आपस में संबंधित नहीं हैं, लेकिन अगर तुम उनके मध्य संबंध निर्मित कर सको तो यह तुम्हें अर्थपूर्ण प्रतीत होता है।
तुम किसी भी बात से समानताएं निर्मित करते रह सकते हो। तुम अनंत समानताओं के साथ शब्दों का महासागर बना सकते हो। उदाहरण के लिए, शब्द 'मंकी।' तुम इस शब्द के साथ खेल कर कुछ साहचर्य पा सकते हो, किंतु डार्विन से पूर्व ऐसा असंभव रहा होता। क्योंकि अब हम जानते हैं कि मनुष्य बंदर से आता है, हम शब्दों के खेल खेल सकते हैं। हम कह सकते हैं मन--की, मनुष्य की चाबी। दूसरे लोगों ने इन दो शब्दों को अलग तरह से जोड़ा है। उन्होंने कहा है 'बंदर और मनुष्य अपने मन के कारण संबंधित हैं। मनुष्य के पास बंदर जैसा मन है।
इसलिए तुम साहचर्य निर्मित कर सकते हो और उनका मजा ले सकते हो। तुम इसे एक अच्छे खेल की भांति महसूस कर सकते हो लेकिन यह मात्र एक खेल है। इस बात को याद रखना चाहिए। अन्यथा तुम, क्या वास्तविक है और क्या बस एक खेल है के भेद को स्पष्ट करने वाले रास्ते से भटक जाओगे और विक्षिप्त हो जाओगे।
शब्दों के भीतर तुम जितने गहरे उतरोगे उतने ही शब्द साहचर्य तुम पा लोगे। और फिर बस उन्हें घुमाने-फिराने से तुम एक पूरा दर्शनशास्त्र बना सकते हो। बहुत से लोग ऐसा करते हैं। रामदास ने भी यह खूब किया है। वे मंकी शब्द के साथ इसी तरह खेले हैं, इसी तरह से उन्होंने डॉग और गॉड की तुलना की है। यह सब ठीक है, इसमें कोई भी गलती नहीं है। मैं जो कह रहा हूं वह यह है. अगर तुम एक खेल खेल रहे हो और उसका मजा ले रहे हो तब उसका मजा लो--किंतु उसके द्वारा मूर्ख मत बनो। और तुम्हें मूर्ख बनाया जा सकता है। यह खेल इतना अधिक प्रभावशाली हो सकता है कि तुम इसे खेलना जारी रखे चले जाओगे और बहुत सी ऊर्जा व्यर्थ चली जाएगी।
लोग सोचते हैं कि क्योंकि भाषाओं में बहुत सी समानताएं हैं, कि कोई मौलिक भाषा अवश्य ही होनी चाहिए जिससे ये सारी भाषाएं आई हैं। किंतु ये समानताएं किसी सार्वभौम भाषा के कारण नहीं हैं, वे मानवीय मन की समानता के कारण हैं। सारे संसार में वे लोग जो हताश हैं, एक सी ध्वनि करते हैं, वे लोग जो प्रेम में हैं एक सी ध्वनि करते हैं। मनुष्यों में आधारभूत समानता के कारण हमारे शब्दों में भी एक निश्चित समानता निर्मित हो जाती है। किंतु इसको गंभीरता से मत लेना, क्योंकि तब तुम अपने आप को इसमें खो दोगे। अगर तुम कुछ अर्थपूर्ण स्रोत पा भी जाओ, तो भी यह अर्थहीन है, असंगत है।
आध्यात्मिक खोजी के लिए यह लक्ष्य से हट जाना है।
और हमारे मन इस प्रकार के हैं कि जब हम कुछ खोजने जाते हैं तो हम पूर्व--निर्धारित धारणा से आरंभ करते हैं। अगर मुझे लगता है कि मुसलमान बुरे हैं, तो मैं उनबातों की खोज करने लगूंगा जो मेरी धारणा के पक्ष में हैं और अंत में मैं स्वयं को सही सिद्ध कर लेता हू। जब कभी मैं किसी मुसलमान से मिलूंगा, तब मैं त्रुटियां खोजना शुरू कर दूंगा और कोई कह नहीं सकेगा कि मैं गलत हूं क्योंकि मेरे पास प्रमाण हैं।
उसी व्यक्ति के पास कोई विपरीत धारणा लेकर आ सकता है। उसके लिए अगर मुसलमान का अर्थ एक भला आदमी हो, तो उसी मुसलमान में वह भलेपन का प्रमाण खोज सकता है। भलापन और बुरापन विपरीत नहीं हैं वे एक साथ होते हैं। मनुष्य के पास दोनों में से एक होने की संभावना है, इसलिए तुम उसमें जो भी गुण खोज रहे हो वे तुम्हें मिल जाएंगे। कुछ परिस्थितियों में वह भला होगा, और कुछ परिस्थितियों में वह बुरा होगा। जब तुम उसके बारे में निर्णय लेते हो, तो यह परिस्थिति के बजाय तुम्हारी परिभाषाओं पर अधिक निर्भर होगा। यह इस पर निर्भर है कि तुम किस तरह से देखते हो इस तरह से या उस तरह से।
उदाहरण के लिए, अगर तुम सोचते हो कि धूम्रपान बुरा है तो यह बुरा हो जाता है। अगर तुम किसी खास तरह के व्यवहार को बुरा मानते हो, तो यह बुरा हो जाता है। लेकिन वास्तव में न कुछ भला है न कुछ बुरा है। कोई किसी अलग भाव से उसी चीज को भली बात की भांति सोचेगा। वह सोचेगा कि अगर कोई मित्रों के बीच में लेट जाता है और सो जाता है, तो यह अच्छी बात है कि वह इसे कर पाने की स्वतंत्रता अनुभव करता है। अत: यह तुम्हारे भाव पर निर्भर है।
मैं ए. एस. नील द्वारा उसके विद्यालय समरहिल में किए गए कुछ प्रयोगों के बारे में पढ़ रहा था। उसने एक नये प्रकार के विद्यालय का परीक्षण किया, जहां पूर्ण स्वतंत्रता थी। वह प्रधानाध्यापक था, वहां पर कोई अनुशासन नहीं था। एक बार एक अध्यापक बीमार पड़ गया इसलिए उसने विद्यार्थियों से कहा कि उस रात कोई शोरगुल न मचाएं जिससे वह अध्यापक परेशान न हो।
किंतु रात में लड़कों ने बीमार के ठीक बगल वाले कमरे में ही लड़ना शुरू कर दिया। नील सीढ़ियों से ऊपर चढ़ा। जब बच्चों ने किसी के आने की आवाज सुनी तो वे चुप हो गए और पढ़ने लगे। नील ने कमरे की खिड़की से झांका। एक लड़के ने जो बिस्तर पर सोने का बहाना कर रहा था, ऊपर देखा और खिड़की में नील को देखा। उसने अन्य छात्रों से कहा, 'यह कोई और नहीं बल्कि नील सर हैं। आओ अब रुकने की कोई जरूरत नहीं है। यह तो बस नील सर हैं।' इसलिए उन्होंने दुबारा लड़ना शुरू कर दिया। और नील वहां प्रधानाध्यापक था।
नील ने लिखा है : 'मैं इतना प्रसन्न था कि वे मुझसे इतने निर्भय थे कि वे कह सके चिंता की कोई जरूरत नहीं है, यह तो बस नील सर हैं।' नील ने इसके प्रति अच्छा अनुभव किया; किंतु किसी भी अन्य प्रधानाध्यापक को यह कभी अच्छा नहीं लगेगा। किसी अन्य प्रधानाध्यापक को इतिहास में कभी अच्छा नहीं लगा होगा।
इसलिए यह तुम पर निर्भर करता है तुम चीजों की किस तरह से परिभाषा करते हो उस पर निर्भर करता है। नील ने इस बात को प्रेम की भांति अनुभव किया लेकिन तब यह उसके द्वारा दी गई परिभाषा है। हम जिसकी खोज करते हैं सदा वही मिल जाता है। अगर तुम गंभीरता से किसी चीज की खोज में लग जाओ तो तुम संसार की हर चीज को पा सकते हो।
इसलिए कुछ पाने के लिए सुनिश्चित मन के साथ आरंभ मत करो। बस शुरू करो। एक खोजी मन का अर्थ किसी चीज की खोज में होना नहीं है, बल्कि केवल खोज में होना है। मात्र खोज बिना किन्हीं पूर्व-निर्धारित धारणाओं के बिना किसी सुनिश्चित चीज को पाने के खयाल के। हमें चीजें मिल जाती हैं, क्योंकि हम उन्हें खोज रहे थे।
बाइबिल की कहानी 'बाबेल की मीनार' की कहानी का अभिप्राय भी यही है कि जिस पल तुम बोलते हो, तुम बंट जाते हो। कहानी यह नहीं है कि लोगों ने भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलना आरंभ कर दिया बल्कि यह है कि वे बोलने लगे। जिस पल तुम बोलते हो, संशय आ जाता है। जिस पल तुम कुछ उच्चारित करते हो तुम खंडित हो जाते हो। सिर्फ मौन ही एक है।
बहुत से लोगों ने कुछ चीजों की खोज में अपना जीवन बेकार कर डाला है। जब कोई चीज गंभीरता से ली जाती है तो तुम अपना जीवन आसानी से बेकार कर सकते हो। शब्दों से खेलना अहंकार को इतना भरता है कि तुम इसे करने में अपना जीवन नष्ट कर सकते हो। भले ही यह दिलचस्प हो, एक अच्छा खेल हो मन बहलाने वाला हो, आध्यात्मिक खोजी के लिए यह बेकार है। आध्यात्मिक खोज कोई खेल नहीं है।
यही खेल अंकों के साथ भी खेला जा सकता है। तुम संबंध बना सकते हो। तुम गणित बिठा सकते हो कि सप्ताह में सात दिन क्यों हैं संगीत के सात स्वर सात लोक सात शरीर? हमेशा सात ही क्यों? तब तुम इसके चारों ओर दर्शनशास्त्र निर्मित कर सकते हो किंतु यह दर्शनशास्त्र मात्र तुम्हारी कल्पना का उत्पादन होगा।
कभी-कभी चीजें बड़े निर्दोष कारणों से शुरू हो जाती हैं। उदाहरण के लिए जिस तरह से गिनती शुरू हुई। नौ अंकों के होने का एकमात्र कारण यह है कि मनुष्य की दस अंगुलियां हैं। सारे संसार में पहली बार गिनती अंगुलियों पर ही हुई। इसलिए 'दस' चुनी हुई सीमा बन गई। इतना काफी था क्योंकि उसके बाद तुम दोहरा सकते हो। इसलिए सारी दुनिया में नौ अंक ही हैं।
एक बार नौ निश्चित हो गया तो यह विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि नौ अंकों से कम या ज्यादा से भी काम लिया जा सकता है। किंतु कम का उपयोग हो सकता है। नौ सिर्फ एक आदत है। लिबनिज ने सिर्फ तीन अंकों का प्रयोग किया था? एक दो और तीन। आइंस्टीन ने सिर्फ दो अंक प्रयुक्त किए. एक और दो। तब गिनती उस तरह हो जाती है. एक दो, दस ग्यारह...। हमारे लिए वहां आठ का अंतर लगता है, किंतु यह अंतर है नहीं यह मात्र हमारे मन में है।
हमारे पास एक निश्चित भाव है कि तीन को दो के बाद आना चाहिए। ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। लेकिन यह हमारे लिए भ्रमपूर्ण हो जाता है। हम सोचते हैं दो और दो सदा चार होते हैं किंतु इसमें कोई अंतर्निहित अनिवार्यता नहीं है। अगर तुम दो अंकों की प्रणाली उपयोग करो तो दो और दो मिल कर ग्यारह होंगे। किंतु 'ग्यारह' और 'चार' का अर्थ समान होगा। तुम कह सकते हो कि दो कुर्सियां और दो कुर्सियां मिल कर चार कुर्सियां हैं या तुम कह सकते हो कि वे ग्यारह कुर्सियां हैं, किंतु जो भी व्यवस्था तुम लागू करना चाहो, अस्तित्वगत रूप से कुर्सियों की संख्या वही रहती है।
तुम हर बात के लिए तर्क पा सकते हो--सप्ताह में सात दिन क्यों होते हैं, स्त्री के मासिक-चक्र में अट्ठाइस दिन क्यों होते हैं, संगीत में सात स्वर क्यों होते हैं, सात लोक क्यों हैं। और इनमें से कुछ चीजों के पीछे वास्तव में कोई कारण हो सकता है?
उदाहरण के लिए, मेंन्सेस शब्द का अर्थ होता है महीना। ऐसा हो सकता है कि मनुष्य ने पहली बार महीनों की गणना स्त्री के मासिक-चक्र से की हो, क्योंकि प्राकृतिक स्त्री-चक्र एक निर्धारित समय अवधि है अट्ठाइस दिन। यह इस बात को जानने का आसान उपाय रहा होगा कि एक माह गुजर चुका है। जब तुम्हारी पत्नी का मासिक स्राव आरंभ होता है, एक महीना बीत गया है।
या तुम महीनों को चंद्रमा के अनुसार गिन सकते हो। किंतु तब समय की अवधि जिसे हम कहते हैं 'एक महीना' बदल कर तीस दिन की हो जाती है। चंद्रमा लगातार पंद्रह दिन तक बढ़ता जाता है और पंद्रह दिन छोटा होता जाता है इस तरह तीस दिनों में यह एक पूरे वर्तुल से होकर गुजर जाता है।
हमने महीनों को चंद्रमा के अनुसार निर्धारित किया है इसलिए हम कहते हैं कि एक माह में तीस दिन होते हैं। किंतु यदि तुम इसे शुक्रगृह या मासिक-चक्र से नापो तो इसमें अट्ठाइस दिन होंगे। अट्ठाइस दिन के चक्र को बांट कर, सात दिन के सप्ताहों के बारे में सोच कर, तुम इस अंतर को मिटा सकते हो। तो एक बार यह विभाजन मन में निश्चित हुआ कि अन्य बातें भी अपने आप से आ जाएंगी। हर बात का अपना तर्क है कहने से मेरा यही अभिप्राय है। एक बार तुमने सात दिन के सप्ताह को खयाल में लिया, तो तुम सात के बहुत से उदाहरणों को भी खोज सकोगे और सात एक महत्वपूर्ण अंक बन जाएगा एक जादुई अंक जैसा। यह है नहीं। या तो सारा जीवन जादुई है या कुछ भी जादुई नहीं है। यह तो कल्पना के लिए बस खेल बन जाता है।
इन बातों से तुम खेल सकते हो, और बहुत सी समरूपताएं होंगी। संसार इतना बड़ा है, इतना असीम है, हर घड़ी इतनी घटनाएं घट रही हैं कि वहां समरूपताओं का होना अनिवार्य है। तुम समरूपताओं को एकत्रित करने लगो, अंत में तुम्हारे पास इतनी लंबी सूची बनेगी कि उससे तुम संतुष्ट हो जाओगे। तब तुम आश्चर्य करोगे 'हमेशा सात ही क्यों होते हैं? इसमें कोई रहस्य होना चाहिए।' रहस्य इतना ही है कि तुम्हारा मन एकरूपताएं देखता है और उन्हें एक तर्कयुक्त ढंग से प्रस्तुत करने की चेष्टा करता है।
गुरजिएफ ने कहा है कि मनुष्य चंद्रमा के लिए आहार है। यह बात पूरी तरह से तर्कयुक्त है। यही बात तर्क की मूर्खता को प्रदर्शित करती है। जीवन में हर प्राणी किसी दूसरे के लिए आहार है। इसलिए गुरजिएफ एक बहुत खोजपूर्ण विचार पर पहुंचा कि मनुष्य को 'भी किसी के लिए आहार होना चाहिए। तब, 'मनुष्य किसके लिए आहार है?' पूछे जाने के लिए यह एक तर्कपूर्ण प्रश्न हो जाता है।
सूर्य मनुष्य का भक्षक नहीं हो सकता, क्योंकि सूर्य की किरणें दूसरे जीवधारियों, पौधों के लिए आहार हैं। तब मनुष्य को अन्य प्रजातियों से निम्नतर स्तर पर होना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि मनुष्य के अनुसार वह सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। इसलिए मनुष्य सूर्य के लिए आहार नहीं हो सकता है।
चंद्रमा हमसे सूक्ष्म रूप से संबंधित है लेकिन उस रूप में नहीं जैसा गुरजिएफ ने कहा है। यह स्त्री के मासिक चक्र से सूक्ष्म रूप से संबंधित है। यह ज्वार से, भाटे से सागर के प्रवाह से संबंधित है। पूर्णिमा के दिन अधिक लोग पागल होते देखे गए हैं। इसी से शब्द 'लूनाटिक चांदमारा आता है लूनार चंद्रमा से संबंधित।
चंद्रमा ने सदा मनुष्य के मन को सम्मोहित किया है। गुरजिएफ ने कहा है 'मनुष्य को चंद्रमा के लिए आहार होना चाहिए, क्योंकि आहार को लेने वाले के द्वारा आसानी से सम्मोहित किया जा सकता है।' पशु विशेषकर सांप अपने शिकारों को पहले सम्मोहित कर लेते हैं। वे इतने पंगु हो जाते हैं कि उन्हें खाया जा सकता है। यह दूसरी समरूपता है जिसको गुरजिएफ ने प्रयुक्त किया। कवि, पागल सौंदर्यशास्त्री, विचारक सभी चंद्रमा से सम्मोहित हैं। वहां कोई बात तो होनी ही चाहिए। मनुष्य को चंद्रमा का आहार होना चाहिए।
तुम इस विचार के साथ खेल सकते हो। गुरजिएफ के समान उर्वर मस्तिष्क के साथ बातें तार्किक रूप में समायोजित होती जाती हैं। गुरजिएफ महान प्रतिभाशाली था, जो बातों को इस तरह से प्रस्तुत करता था कि भले ही वे कितनी असंगत हों, परंतु वे तार्किक बुद्धिपूर्ण और अर्थपूर्ण प्रतीत होती थीं। उसने इस सिद्धांत की कल्पना की और फिर उसकी कल्पना ने बहुत से अंतर्संबंध बहुत से प्रमाण पा लिए।
व्यवस्था बनाने वाला प्रत्येक व्यक्ति तर्कों का प्रयोग तोड़-मरोड़ के लिए, अपनी बात को सिद्ध करने के लिए करता है। व्यवस्था बनाने वाला प्रत्येक व्यक्ति! जो सत्य के साथ रहना चाहते हैं वे लोग व्यवस्थाएं नहीं बना सकते हैं। उदाहरण के लिए मैं कभी कोई व्यवस्था नहीं बना सकूंगा, क्योंकि मेरे लिए उसका प्रयास ही गलत है। मैं तो जो मैं कहता हूं उसमें केवल आशिक हो सकता हूं अपूर्ण। वहां अंतराल होंगे जिनको जोड़ा न जा सके ऐसे अंतराल। मेरे साथ तो तुम्हें एक बिंदु से दूसरे बिंदु पर छलांग लेनी पड़ेगी।
व्यवस्था बहुत आसानी से बनाई जा सकती है, क्योंकि अंतराल कल्पना से भरे जा सकते हैं। तब सारी बात बहुत स्पष्ट और साफ तर्कपूर्ण हो जाती है। किंतु जैसे ही यह तर्कपूर्ण हो जाती है यह अपने मूल अस्तित्वगत स्रोत से दूर और दूर होती जाती है।
जितना अधिक तुम जान लेते हो उतना ही तुम अनुभव करते हो कि बीच में कुछ अंतराल हैं जो भरे नहीं जा सकते हैं। अस्तित्व कभी भी तर्क संगत नहीं हो सकता है कभी भी नहीं। व्यवस्था का तर्क संगत होना जरूरी है किंतु अस्तित्व कभी भी अपने आप में तर्कसंगत नहीं है। इसलिए कोई व्यवस्था कभी इसको परिभाषित नहीं कर सकती है।
जहां कहीं भी मनुष्य ने अस्तित्व को परिभाषित करने के लिए व्यवस्थाएं निर्मित की हैं, भारत में, ग्रीस में चीन में उसने खेल ही निर्मित किए हैं। यदि तुम पहले कदम को सच्चा मान लो तो सारी व्यवस्था कुशलतापूर्वक कार्य करती है; किंतु अगर तुम पहले कदम को स्वीकार न करो, तो सारा ढांचा ढह जाता है। यह सारा ढांचा एक काल्पनिक कसरत है। यह अच्छा है, काव्यपूर्ण है, सौंदर्ययुक्त है। किंतु अगर कोई व्यवस्था जिद करती है कि अस्तित्व को इसके द्वारा दी गई परिभाषा ही परम सत्य है तो यह हिंसक और विध्वंसात्मक हो जाती है। सत्य की ये व्यवस्थाएं काव्य हैं। वे सुंदर हैं लेकिन वे बस काव्य हैं। उनमें बहुत से अंतराल कल्पना द्वारा भरे गए हैं।
गुरजिएफ सत्य के कुछ अंशों की ओर इंगित कर रहा था किंतु किसी सिद्धांत के लिए एक या दो टुकड़ों पर खड़ा हो पाना आसान नहीं है, इसलिए उसने बहुत से टुकड़ों को जोड़ दिया। तब उसने इन अंशों को एक व्यवस्था के रूप में जोड़ने का प्रयास किया। उसने अंतराल भरने शुरू कर दिए। किंतु जितने ज्यादा अंतराल भरे जाते हैं, उतना ही अधिक सत्य खोता चला जाता है। और अंत में सारी व्यवस्था इन भरे गए अंतरालों की वजह से धराशायी हो जाती है।
वह व्यक्ति जो सिद्धांत निर्माता के व्यक्तित्व के जादू से सम्मोहित है शायद ही उसके सिद्धांत के अंतरालों को जान पाए किंतु जो व्यक्ति सम्मोहित नहीं हैं वे लोग केवल अंतराल ही देखेंगे सत्य के अंश नहीं। अपने अनुयायियों के लिए गौतम बुद्ध एक बुद्धपुरुष हैं संबोधि को प्राप्त व्यक्ति हैं किंतु दूसरों के लिए वे संशय पैदा करते हैं क्योंकि दूसरे लोग केवल अंतराल ही देखते हैं। अगर तुम सारे अंतरालों को एकत्रित कर लो यह विध्वंसात्मक हो जाता है। किंतु अगर तुम सत्य के सारे अंशों को एक साथ जोड़ लो तो यह तुम्हारे रूपांतरण की आधारशिला बन सकता है।
सत्य आशिक होने के लिए बाध्य है। यह इतना असीम है कि अपने सीमित मन के साथ तुम कभी समस्त को नहीं पा सकते हो। और अगर तुम समग्र को पाने पर जोर दो तो तुम अपने मन को खो दोगे, तुम अपने मन का अतिक्रमण कर लोगे। किंतु अगर तुम एक व्यवस्था बना लो तो तुम अपने मन को कभी न खोओगे क्योंकि तब तुम्हारा मन अंतरालों को भरता है। व्यवस्था स्पष्ट और साफ हो जाती है यह प्रभावशाली तर्कयुक्त समझ में आने योग्य हो जाती है; किंतु इससे अधिक कभी नहीं। और कुछ अधिक की ही जरूरत है वह शक्ति वह ऊर्जा जो तुम्हें रूपांतरित करे। किंतु यह सामर्थ्य केवल आशिक झलकों के माध्यम से ही आ सकती है।
मन बहुत सी व्यवस्थाएं, बहुत सी विधियां बनाता है। वह सोचता है 'यदि मैं इस जीवन से जिसे मैं जी रहा हूं हट जाऊं तो मुझे कोई और गहरी चीज मिल जाएगी।' यह बात अर्थहीन है। लेकिन मन सोचता चला जाता है--कि तिब्बत में कहीं पर मेरु पर्वत पर किसी जगह 'वास्तविक बात' घटित हो रही होगी। तुम्हारा हृदय इस संघर्ष में पड़ जाता है कि वहां पर कैसे जाया जाए? उन गुरुओं के संपर्क में कैसे आया जाए जो वहां पर कार्य कर रहे हैं? मन सदा किसी और जगह, किसी और चीज को तलाशता रहता है। उसको कभी नहीं देखता है जो यही और अभी है- मन कभी यहां नहीं है। और प्रत्येक सिद्धांत लोगों को आकर्षित करता है 'इसी समय मेरु पर्वत पर वास्तविक घटना घटित हो रही है। वहां चले जाओ वहां के गुरुओं के साथ संबंध जोड़ लो और तुम रूपांतरित हो जाओगे।'
इन चीजों का शिकार मत बनो। अगर इनमें कोई आधार भी हो तो उसमें  मत फंसो। कोई तुम्हें कोई ऐसी बात बता सकता है, जो वास्तविक हो, लेकिन तुम्हारे आकर्षण का कारण गलत है। सत्य तो यहीं और अभी है; यह अभी तुम्हारे साथ है। बस अपने ऊपर कार्य करो। अगर कोई व्यक्ति मेरु पर्वत पर चला भी जाए, उसे लौट कर अपने ऊपर आना ही पड़ेगा। अंतिम रूप से व्यक्ति पाता है कि मेरु पर्वत यहीं है तिब्बत यहीं है 'यहीं मेरे भीतर, और मैं भटकता रहा और सब कहीं तलाशता रहा।'
व्यवस्था जितनी अधिक तर्कसंगत होती है उतनी ही वह बिखर जाती है और किसी तर्कातीत को भीतर आना पड़ता है। लेकिन जिस पल तुम तर्कातीत तत्व को भीतर लाते हो मन बिखरने लगता है। इसलिए व्यवस्थाओं की चिंता मत करो। बस यहीं और अभी में छलांग लगा दो।

आज इतना ही




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