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शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-12)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-ओशो

प्रवचन-बारहवां-( तर्क और तर्कातीत का संतुलन) 

 (The Psychologe Of The Esoteric)-का हिन्दी रूपांतरण है)
ओशो पश्चिम की युवा पीढ़ी विद्रोह क्यों कर रही है और
पश्चिम से इतने अधिक युवा लोग क्यों पूरब के धर्म और
दर्शन में उत्सुक होते जा रहे हैं क्या इस पर आप कुछ
कहेंगे? क्या आपके पास पश्चिम के लिए कोई विशेष संदेश है?
मन एक बहुत विरोधाभासी व्यवस्था है। मन ध्रुवीय विपरीतताओं में कार्य करता है। लेकिन हमारी सोच हमारी सोचने की तर्कयुक्त विधि सदा एक भाग को चुन लेती है और दूसरे को इनकार कर देती है। तो तर्क एक अ-विरोधाभासी तरीके से आगे बढ़ता है और मन विरोधाभासी तरीके से कार्य करता है। जीवन विपरीतताओं में कार्य करता है, और तर्क एक दिशा में कार्य करता है--विपरीतताओं में नहीं।

उदाहरण के लिए मन में दो संभावनाएं हैं अतिशय क्रोधित हो जाना और अतिशय मौन हो जाना। यदि तुम क्रोधित हो सकते हो तो इसका अभिप्राय यह नहीं है कि तुम दूसरी अति तक अक्रोधित नहीं हो सकते हो। अगर तुम उलझन में हो सकते हो, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम मौन नहीं हो सकते हो। मन दोनों ढंगों से कार्य करता रह सकता है। अगर तुम प्रेमपूर्ण हो सकते हो तो तुम घृणा से परिपूर्ण भी हो सकते हो। कोई दूसरे को इनकार नहीं करता है।
लेकिन तर्क में विचार-प्रक्रिया में अगर हम सोचते हैं कि कोई व्यक्ति प्रेमपूर्ण है, तो हम सोचने लगते हैं कि वह घृणा करने में समर्थ नहीं हो सकता है। और हम अपने बारे में भी इसी ढंग से सोचने लगते हैं। यह एक भाग है। तो अगर तुम प्रेम करते रहो, तो तुम सोचना शुरू कर देते हो कि मैं घृणा कर पाने में असमर्थ हूं और तब घृणा भीतर एकत्रित होती चली जाती है और जब तुम अपने प्रेम की पराकाष्ठा पर पहुंचते हो, सभी कुछ छिन्न भिन्न हो जाता है और तुम घृणा में गिर पड़ते हो। न केवल निजी मन इस तरह से कार्य करता है, बल्कि समाज का मन भी ऐसे ही कार्य करता है।
उदाहरण के लिए पश्चिम तर्कयुक्त विचार-प्रक्रिया के शिखर पर पहुंच गया है। अब मन का अतर्कयुक्त भाग बदला लेगा। मन के तर्करहित भाग को अभिव्यक्ति से वंचित रखा गया है, इसलिए बीते हुए इन पचास सालों से मन का तर्करहित भाग अनेक उपायों से बदला ले रहा है--कला के द्वारा काव्य के द्वारा, नाटक द्वारा साहित्य द्वारा, दर्शनशास्त्र द्वारा, और अब जीने के ढंग से। इसलिए युवा पीढ़ी का यह विद्रोह वास्तव में मन के तर्कातीत भाग का अत्याधिक तर्क शीलता के खिलाफ विद्रोह है।
पूरब यहां पर सहायक हो सकता है, क्योंकि पूरब दूसरे भाग तर्कातीत के साथ रह चुका है। और पूरब भी इसके शिखर पर पहुंच गया है। इसलिए अब पूरब की युवा पीढ़ी धर्म के स्थान पर साम्यवाद में अधिक उत्सुक है पूरब का युवा अब तर्कातीत जीवन-शैली के स्थान पर तर्कयुक्त चिंतन में ज्यादा उत्सुक है।
तो जैसा कि मैं इसको देखता हूं अब पेंडुलम पलट जाएगा। पूरब पश्चिम बन जाएगा और पश्चिम पूरब बन जाएगा।
जब कभी तुम मन के एक भाग के शिखर पर पहुंच जाते हो, तुम्हें वापस लौटना ही पड़ता है। इतिहास इसी तरह से कार्य करता है। तो अब पश्चिम में ध्यान अधिक अर्थपूर्ण हो जाएगा। काव्य एक नया रूप ग्रहण कर लेगा और विज्ञान का पतन हो ही जाएगा। इसलिए आधुनिक युवा पीढ़ी तकनीक-विरोधी और आत्यंतिक रूप से विज्ञान-
विरोधी हो जाएगी। और पश्चिम का आधुनिक युवा संस्कृति विरोधी भी होगा और सभ्यता विरोधी भी। यह बस एक प्राकृतिक प्रक्रिया है।
और हम अभी तक ऐसा व्यक्तित्व विकसित करने में समर्थ नहीं हो पाए हैं जिसमें दोनों ध्रुवीयताएं निहित हों जो न पूरब का हो और न पश्चिम का। हमने सदा खंडों को चुना है मन के एक भाग को चुना है और हम और उस भाग को विकसित करने में संलग्न हो जाते हैं और दूसरा भाग भूखा अभावग्रस्त बना रहता है। और तब विद्रोह होना ही है। और सभी कुछ जो हमने बनाया था, छिन्न भिन्न हो जाएगा और मन दूसरी ओर चला जाएगा। सारे इतिहास की अब तक की यही कार्यप्रणाली रही है पूरब और पश्चिम दोनों में ही यही द्वंद्वात्मक कालचक्र चलता रहा है।
इसलिए पश्चिम में सोच-विचार की तुलना में अब ध्यान अधिक अर्थपूर्ण हो गया है क्योंकि ध्यान का अर्थ है निर्विचार। इसलिए झेन अधिक अच्छा लगेगा, बौद्ध धर्म अधिक आकर्षक लगेगा योग में और अधिक उत्सुकता उत्पन्न होगी। ये सभी जीवन के प्रति तर्कातीत दृष्टिकोण हैं। उनका जोर धारणाएं निर्मित करने पर नहीं है वे सिद्धांतों पर, धर्मशास्त्रों पर बल नहीं देते हैं। उनका प्रयास अस्तित्व में गहरे उतर कर उसका स्वाद लेने का है सोच-विचार का नहीं। इसलिए मैं सोचता हूं कि जितनी अधिक तकनीक विकसित होती है और मन की पकड़ गर्दन को जकड़ने लगती है उतनी ही ज्यादा संभावना हो जाती है कि दूसरा ध्रुव आ रहा होगा।
तो पश्चिम में युवाओं का विद्रोह बहुत अर्थपूर्ण, बहुत महत्वपूर्ण है, अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह परिवर्तन का, समग्र चेतना के परिवर्तन का ऐतिहासिक बिंदु है। अब पश्चिम वैसा नहीं रह पाएगा जैसा कि यह रहा है। अब यह वैसा नहीं रह सकता है। एक गहन संकट का, एक चरम परिवर्तन का समय आ गया है। तुम और आगे नहीं जा सकते हो। तुम्हें किसी और दिशा में जाना पड़ेगा क्योंकि अब पहली बार समाज समृद्ध हो गया है। व्यक्ति पहले भी समृद्ध रहे हैं लेकिन पूरा समाज कभी समृद्ध नहीं रहा है। अब पूरा समाज समृद्ध है। और जब कोई समाज समृद्ध हो जाता है तो संपत्ति अपना अर्थ खो देती है। गरीब समाज में ही संपत्ति अर्थपूर्ण होती है। संपदा गरीब समाज में महत्वपूर्ण होती है। वहां पर भी जब कोई वास्तव में समृद्ध हो जाता है, तो वह ऊब जाता है। अपने परिवार की धन-संपदा से बुद्ध ऊब चुके हैं वे बस ऊबे हुए हैं। कोई व्यक्ति जितना ज्यादा संवेदनशील होता है उतनी ही जल्दी से वह ऊब जाता है। बुद्ध बस ऊबे हुए हैं, वे सभी कुछ छोड़ देते हैं।
अब बुद्ध पश्चिम को आकर्षित कर रहे हैं और आधुनिक पश्चिमी युवा की पूरी रुचि संपत्ति के त्याग पर है। वे त्याग कर रहे हैं और वे तब तक त्याग करते रहेंगे जब तक कि पूरा समाज गरीब न हो जाए। वे उस समय तक छोड़ते रहेंगे जब तक कि सारा समाज गरीब नहीं हो जाता है, क्योंकि छोड़ने का यह आदोलन यह त्याग करने की वृत्ति केवल एक समृद्ध समाज में ही संभव है। लेकिन अगर यह छोड़ना अति पर चला जाता है तो समाज का पतन हो जाता है। तब तकनीक की जरा भी प्रगति नहीं होगी और अगर ऐसा ही चलता रहा तो पश्चिम में तुम पूरब को निर्मित कर दोगे।
और पूरब में अब वे दूसरी अति पर जा रहे हैं, वे पश्चिम निर्मित कर लेंगे। वस्तुत: अगर हम भविष्य को पढ़ सकें तो पूरब बस पश्चिम में बदल रहा है। भविष्य को देख पाना कठिन होता है लेकिन उसके कदमों की आहट सुनी जा सकती है--और पश्चिम पूरब में बदल रहा है। लेकिन बीमारी वैसी ही बनी रहती है क्योंकि जैसा कि मैं इसे देखता हूं यह बीमारी है मन का विभाजन।
हमने मनुष्य के मन को कभी उसकी पूर्णता में नहीं खिलने दिया। हमने सदा एक भाग को दूसरे के विरोध में दूसरे की कीमत पर चुन लिया है। सारी पीड़ा यही रही है। हमने मनुष्य के मन की पूर्णता को स्वीकार नहीं किया है।
इसलिए मैं न तो पूरब का हूं न पश्चिमी का। मैं दोनों के विरोध में हूं। मैं दोनों के विरोध में हूं क्योंकि मैं कहता हूं कि ये आशिक दृष्टिकोण हैं--इसलिए कभी तुम्हें एक दृष्टिकोण आकर्षित कर सकता है लेकिन यह आकर्षण आशिक है और यह एक समग्रता के एक समग्र मन के विकसित हो पाने में सहायक नहीं हो सकता है।
तो मेरे अनुसार न तो पूरब को चुना जाना है और न ही पश्चिम को वे दोनों असफल हो चुके हैं। पूरब धर्म को चुन कर असफल हो गया है और पश्चिम विज्ञान को चुन कर असफल हो रहा है। जब तक कि हम दोनों को नहीं चुन लेते हैं इस दुम्बक्र से बाहर निकल पाने का कोई उपाय नहीं है।
हम बदल सकते हैं, हम परिवर्तन कर सकते हैं--और यह अजीब बात है। अगर तुम जापान में बौद्ध धर्म के बारे में बात करो, तो कोई युवा उसे सुनने को तैयार नहीं है। वे प्रौद्योगिकी में उत्सुक हैं और पश्चिम का युवा झेन बौद्ध धर्म को जानना. चाहता है। भारत में नई पीढ़ी धर्म में बहुत कम उत्सुक है। उनको अर्थशास्त्र में अधिक रुचि है, राजनीति शास्त्र में अधिक रुचि है, प्रौद्योगिकी, विज्ञान, अभियांत्रिकी-धर्म के अतिरिक्त हर बात में रुचि है। और पश्चिम का युवा अब वास्तव में प्रौद्योगिकी में उत्सुक नहीं है। उनकी रुचि अब विज्ञान में, प्रगति में नहीं है। वे अभी और यहीं जी लेने में रुचि रखते हैं। वे भविष्य के आदर्शवादों में--समाजवाद आदि में रुचि नही रखते हैं। पश्चिम के युवाओं के नये और प्रयोगधर्मी वर्ग की उत्सुकता धर्म में है पूरब के नये और प्रयोगधर्मी की उत्सुकता विज्ञान में है। और यह बस बोझ को बदल लेने जैसा है--और फिर वही भ्रम।
मेरी रुचि संपूर्ण मन के साथ है। मैं पूर्ण मन में उत्सुक हूं--कैसे एक ऐसा मानवीय मन संभव हो सकता है, ऐसा मन में जो न पूरब का हो और न पश्चिम का, बल्कि बस मानवीय हो--एक सार्वभौमिक मन। और यह एक बहुत कठिन समस्या है, क्योंकि मन के एक भाग के साथ रहना बहुत आसान है। तुम साफ सुथरे ढंग से, स्पष्टता से, गणितीय ढंग से जी सकते हो। अगर तुम मन के दोनों भागों के साथ जीना चाहते, हो तो तुमको एक बहुत असंगत जीवन जीना पड़ेगा। निसंदेह यह जीवन सतह पर तो असंगत ही होगा। लेकिन एक गहनतर तल पर तुम्हारे जीवन में एक सुसंगतता, एक आध्यात्मिक लयबद्धता होगी।
और जैसा कि मैं देखता हूं जब तक किसी व्यक्ति में विपरीत ध्रुवीयता न हो वह आध्यात्मिक रूप से दरिद्र बना रहता है। किंतु दोनों ध्रुवों का जीवन जीकर तुम समृद्ध हो जाते हो।
उदाहरण के लिए, अगर तुम केवल एक कलाकार हो और तुम्हारे पास थोड़ा सा
भी वैज्ञानिक मन नहीं है तो तुम्हारी कला दरिद्र होनी ही है। इस कला में समृद्धि नहीं हो सकती है क्योंकि समृद्धि केवल तब आती है जब विपरीत भी वहां हो। जैसे कि ठीक इस समय अगर इस कमरे में केवल पुरुष ही बैठे हुए हों-- तो कमरे में कुछ कमी है। जिस क्षण कोई स्त्री इस कमरे में प्रवेश करती है कमरा आध्यात्मिक रूप से समृद्ध हो जाता है। अब ध्रुवीय विपरीतताएं यहां पर हैं और ध्रुवीय विपरीतताएं मिल कर विराटतर संपूर्णता निर्मित करती हैं।
इसलिए मेरे लिए मन को तरलता में गति कर पाने के योग्य होना चाहिए। इसे कहीं पर ठहर नहीं जाना चाहिए। अगर कोई गणितश कला के संसार में भी जा सके तो वह एक समृद्ध गणितज्ञ हो सकता है। कला के ये संसार बिलकुल गणित-विहीन हैं, बल्कि गणित के विपरीत भी हैं। लेकिन अगर कोई गणितज्ञ गतिमय हो सके अगर उसका मन निश्चितताओं से हट पाने के लिए स्वतंत्र हो और वह फिर लौट कर गणित पर आ जाए तो वह एक समृद्ध गणितज्ञ होगा-- क्योंकि विपरीतताओं के माध्यम से एक वर्ण संकरता घटित हो जाती है और विपरीतताओं के माध्यम से तुम चीजों को बहुत से अलग-अलग आयामों में देखने लगते हो, तब पूरा परिप्रेक्ष्य समृद्धतर हो ही जाता है।
इसलिए मेरे अनुसार व्यक्ति के पास एक वैज्ञानिक प्रशिक्षण के साथ एक धार्मिक मन होना चाहिए, या धार्मिक अनुशासन के साथ एक वैज्ञानिक मन होना चाहिए। और मैं इसके भीतर छिपी कोई असंभावना नहीं देखता हूं। बल्कि इसके विपरीत, मैं सोचता हूं कि अगर तुम गतिमय हो सको, तो मन अधिक जीवंत हो जाएगा। इसलिए मेरे लिए ध्यान का अर्थ है एक गहरी गतिशीलता, निर्धारित ढांचों से स्वतंत्रता।
उदाहरण के लिए अगर मैं बहुत ज्यादा तर्कनिष्ठ हो जाऊं तो मैं काव्य को समझने में असमर्थ हो जाता हूं। तर्क एक निर्धारित ढांचा बन जाता है। तो जब मैं कविता पड़ता हूं या कविता सुनता हूं तो यह निर्धारित ढांचा काम करने लगता है। तब वह कविता असंगत प्रतीत होती है ऐसा नहीं है कि यह असंगत है बल्कि इसलिए असंगत लगती है कि मेरे मन का ढांचा तर्क के साथ बना हुआ है। और तर्क के उस दृष्टिकोण से काव्य असंगत है। अगर मेरा ढांचा काव्य के साथ बन जाता है तो तर्क बस एक उपयोगी चीज भर बन जाती है जिसमें कोई गहराई नहीं है और मैं इसके प्रति बंद हो जाता हूं।
और इतिहास के पूरे काल में यही होता रहा है-- प्रत्येक कालखंड में, प्रत्येक राष्ट्र में, संसार के प्रत्येक भाग में, प्रत्येक संस्कृति और सभ्यता में सदा ही मन का एक भाग चुन लिया गया है और उसी पर जोर दिया गया है, और उसी के चारों ओर एक व्यक्तित्व निर्मित कर दिया गया है। वह व्यक्तित्व दरिद्र बना रहा उसमें बहुत कमी है। न तो पूरब आध्यात्मिक रूप से समृद्ध रहा है और न पश्चिम। वे हो ही नहीं सकते हैं। समृद्धि विपरीतताओं के माध्यम से, एक आंतरिक संवाद, भीतर की द्वंद्वात्मकता के माध्यम से आती है। इसलिए मेरे लिए न तो पूरब चुनने योग्य है और न ही पश्चिम। मेरे लिए एक अलग तरह का मन पूरी तरह से अलग गुणधर्म वाला मन चुना जाना चाहिए। और उस गुणधर्म वाले मन का अभिप्राय है, व्यक्ति बिना कोई चुनाव किए अपने साथ विश्रांति में है।
उदाहरण के लिए एक वृक्ष विकसित होता है इसके बारे में हम चुनाव कर सकते हैं। हम इसकी सारी शाखाए काट सकते हैं और हम वृक्ष को केवल एक ही दिशा में बढ़ने दे सकते हैं इसकी एक शाखा विकसित होगी। यह एक दरिद्र वृक्ष होगा बहुत दरिद्र, और बहुत कुरूप और अंत में यह वृक्ष बहुत गहरी कठिनाई में फंस ही जाएगा क्योंकि एक अकेली शाखा बढ़ नहीं सकती है। यह केवल दूसरी शाखाओं के साथ गहरे संबंध के कारण ही विकसित हो सकती है। यह तभी विकसित हो सकती है जब कि यह शाखाओं के परिवार में हो। और एक क्षण आएगा ही जब इस शाखा को लगेगा कि यह अपने विकास के उच्चतम बिंदु पर पहुंच गई है। अब यह और अधिक विकसित नहीं हो सकती है। किसी भी वृक्ष को वास्तविक रूप से समृद्ध और विकसित होने के लिए सभी दिशाओं में विरोधी दिशाओं में विकसित होना चाहिए। इसे प्रत्येक दिशा की ओर बढ़ना चाहिए। केवल तब यह वृक्ष समृद्ध, सबल और बहु आयामी होगा।
मेरे लिए मनुष्य की आत्मा का विकास एक वृक्ष की भांति सभी दिशाओं में होना चाहिए। और वह पुरानी अवधारणा कि हम विपरीत आयामों में विकसित नहीं हो सकते, छोड़ दी जानी चाहिए। हम विकसित हो सकते हैं वस्तुत: हम केवल तभी विकसित हो सकते हैं जब हम विपरीत दिशाओं में विकसित हों। लेकिन अभी तक मामला ऐसा नहीं था। अभी तक हमने मनुष्य के मन में भी एक विशेषज्ञता निर्मित करने की कोशिश की है--व्यक्ति को केवल एक विशेष दिशा में ही विकसित होना चाहिए। तब कुछ कुरूपता घटित हो जाती है। व्यक्ति एक विशिष्ट दिशा में विकसित हो जाता है। किंतु तब उस में हर बात की कमी रहती है। वह एक शाखा बन जाता है वृक्ष नहीं वह वृक्ष नहीं बन पाता है। और यह शाखा दरिद्र होगी ही, यह शाखा दरिद्र होने के लिए बाध्य है।
हम न केवल मन की शाखाएं काटते रहे हैं बल्कि हम मन की जड़ें भी काटते रहे हैं। हम केवल एक जड़ और एक शाखा को ही विकसित होने देते हैं, तो इससे एक बहुत ही भूखा सा मनुष्य पूरे संसार में निर्मित हो गया है। पूरब में, पश्चिम में सब
कहीं--बहुत ही भूखा सा मनुष्य निर्मित हो गया है। और पूरब सदा पश्चिम से आकर्षित रहा है और पश्चिम पूरब की ओर आकृष्ट है क्योंकि मैं उसकी ओर आकृष्ट होता हूं जिसकी मुझ में कमी है और तुम उस की ओर आकर्षित होगे जिसकी तुम में कमी है। अगर तुम्हारे भीतर धर्म की कमी है तो जब कभी तुम्हें धर्म की भूख लगती है तभी तुम पूरब की ओर आकर्षित हो जाते हो। और जब पूरब को गरीबी, दरिद्रता की समस्याएं, बीमारियां रोग सताने लगते हैं तो पूरब पश्चिम की ओर उसके विज्ञान तकनीक धन की प्रचुरता दवाइयों और सभी कुछ के कारण आकृष्ट होने लगता है।
शरीर की जरूरतों के कारण पूरब पश्चिम की ओर आकृष्ट होने लगता है। और आत्मा की जरूरतों के कारण पश्चिम पूरब की ओर आकर्षित होने लगता है। लेकिन हम स्थितियां बदल सकते हैं और बीमारी वही की वही बनी रहती है। तो अब स्थितियां बदल देने का प्रश्न नहीं है। अब यह सारे परिप्रेक्ष्य को बदलने का प्रश्न है। यह पूरब को पश्चिम में बदल देने का प्रश्न नहीं है। अब यह सारे अतीत को नये भविष्य में बदल देने का प्रश्न है।
सारा अतीत मनुष्य की संभावनाओं को आशिक रूप से स्वीकार करने का रहा है। हमने कभी संपूर्ण अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया है। कहीं पर कामवासना स्वीकृत नहीं है तो हम किसी चीज से इनकार करते हैं। कहीं पर संसार स्वीकृत नहीं है तो हम किसी चीज से इनकार करते हैं। कहीं पर भावना को स्वीकार नहीं किया जाता है तो हम किसी चीज से इनकार करते हैं।
यह इनकार हमारी समस्या रहा है और हम कभी इतने ताकतवर नहीं हो पाए कि हम प्रत्येक उस चीज को जो मानवीय है निंदा के बिना स्वीकार कर सकें और मनुष्य को हर दिशा में विकसित होने दें। और तुम जितना ज्यादा विपरीत दिशाओं में विकसित होते हो तुम्हारा विकास और समृद्धि और आंतरिक प्रचुरता उतनी ही अधिक हो जाएगी। और परिणाम में अतिशयता को आना ही है।
इसलिए मेरे पास पश्चिम से या पूरब से कहने के लिए कुछ खास बात नहीं है। जो कुछ मैं कहना चाहता हूं वह मानवीय मन से कह रहा हूं कि पूरे परिप्रेक्ष्य को बदल डालो। परिवर्तन को अतीत से भविष्य की ओर होना है--न कि इस वर्तमान से उस वर्तमान की ओर। और जब तक कि हम इस बात को न देख लें कि नये मनुष्य का विकास मुश्किल है और समस्या यह है कि नया मनुष्य कैसे निर्मित होगा।
यह समस्या विराट है जटिल है। क्योंकि यह खंड-खंड होना बहुत गहराई तक चला गया है। मैं अपने क्रोध को स्वीकार नहीं कर सकता मैं अपनी कामवासना को स्वीकार नहीं कर सकता, मैं अपने शरीर को स्वीकार नहीं कर सकता, मैं अपने आप को अपनी परिपूर्णता में स्वीकार नहीं कर सकता। कहीं न कहीं किसी बात से इनकार किया जाना है और उसे त्याग देना है। कुछ है जो पाप है, कुछ है जो बुरा है कुछ है जो अशुभ है। इसलिए मैं शाखाओं को काटता चला जाता हूं और अंत में मैं एक वृक्ष नहीं रहता, एक जीवित जीव नहीं रहता, बस मुर्दा होता हूं क्योंकि उन शाखाओं के बढ़ जाने का भय, जिनको मैंने इनकार कर रखा है... कहीं वे फिर से न आ जाएं बना रहता है। इसलिए मैं भयभीत हो जाता हूं सब कहीं से दमित और भयभीत। तब एक स्थ्याता एक उदासी, एक मौत, मेरे भीतर बैठ जाती है।
इस प्रकार से हम एक ऐसा आशिक जीवन जीए चले जाते हैं, जो जीवन के बजाय मृत्यु के ज्यादा निकट है। मनुष्य की संपूर्ण संभावना का यह स्वीकार भाव और प्रत्येक चीज को बिना किसी असंगतता, बिना किसी विरोधाभास की अनुभूति के उसके उत्कर्ष तक वास्तविक रूप से ले जाना, अगर मैं प्रमाणिक रूप से क्रोध नहीं कर सकता हूं तो मैं प्रेमपूर्ण भी नहीं हो सकता हूं। लेकिन अभी तक ऐसा दृष्टिकोण नहीं रहा है। हम सोचते रहे हैं कि जो व्यक्ति क्रोध करने में असमर्थ है वह अधिक प्रेमपूर्ण होता है।


ओशो मान लें कि एक वृक्ष दीवाल के निकट विकसित हो
रहा है। वहां पर एक दीवाल है। उसकी शाखाएं बढ़ नहीं
सकतीं क्योंकि वहां पर दीवाल है। यह दीवाल एक
समाज हो सकता है या उसके चारों ओर उपस्थित
परिस्थितियां हो सकती हैं। तो वह वृक्ष कैसे विकसित हो
सकता है?

हां मैं समझता हूं। दीवालें बहुत सी हैं। लेकिन उन दीवालों को वृक्षों ने ही बनाया है किसी और ने नहीं। दीवालें हैं लेकिन उन दीवालों को किसी और ने नहीं थोप। है, उन्हें वृक्षों ने ही बनाया है और वृक्ष उन दीवालों को सहारा भी देते रहे हैं। तो यह उनका सहयोग ही है जिसके माध्यम से दीवालों का अस्तित्व है। जिस क्षण वृक्ष उन्हें सहयोग देने को, उन्हें बनाने को राजी नहीं होते हैं वे दीवालें ढह जाएंगी वे चकनाचूर हो जाएंगी वे बस खो जाएंगी।
वे दीवालें मनुष्य-जाति के चारों ओर बनी हुई हैं, वे हमारा ही निर्माण हैं और हमने उन्हें कुछ अवधारणाओं, कुछ दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोणों के कारण बनाया है। हम ने उन दीवालों को अपने मानवीय मन के दृष्टिकोण के कारण बनाया है। उदाहरण के लिए मुझे अपने बच्चे को क्रोधित न होना सिखाना चाहिए और यह इस अवधारणा के कारण होता है कि अगर वह क्रोधित हो जाता है या वह और-और क्रोध की अनुभूति में रहता है, तो वह प्रेमपूर्ण बच्चा नहीं रहेगा। इसलिए मैं दीवालें निर्मित करता हूं कि उसे क्रोधित नहीं होना चाहिए--उसे अपने क्रोध का दमन करना चाहिए--बिना यह जाने कि अगर वह अपने क्रोध का दमन करता है तो इसके साथ ही उसकी प्रेम कर पाने की सामर्थ्य नष्ट हो जाती है। वे विरोधी नहीं हैं। वे दो शाखाएं हैं। अगर तुम एक को काट देते हो, तो दूसरी दरिद्र हो जाती है क्योंकि इन सभी शाखाओं में एक वृक्ष का ही रस बहता है।
इसलिए अगर मैं अपने बच्चे को एक बेहतर जीवन के लिए प्रशिक्षित करना चाहे, तो मैं उसे प्रामाणिक रूप से क्रोधित होना सिखा दूंगा। मैं ऐसा नहीं कहूंगा, 'क्रोध मत करो।' मैं कहूंगा, ' जब तुम क्रोध महसूस करो तो प्रमाणिक रूप से और पूरी तरह से क्रोधित हो जाओ और क्रोध के बारे में कोई अपराध भाव अनुभव मत करो। 'क्रोधित न होना सिखाने के बजाय मैं उसको ठीक से क्रोधित होने के लिए प्रशिक्षित करूंगा। और जब कभी भी ठीक समय हो, तो प्रमाणिक रूप से क्रोधित हो जाओ। जब गलत समय हो, तो क्रोधित मत होना। और इसी तरह से मैं उसे बताऊंगा कि जब प्रेम का उचित समय हो, तो प्रामाणिक रूप से प्रेम में हो जाओ, लेकिन जब गलत समय हो तो प्रेम में मत होना। इसलिए प्रश्न क्रोध और प्रेम में से चुनने का नहीं है। प्रश्न तो सही और गलत के बीच का है। क्रोध को अभिव्यक्ति मिलनी ही चाहिए। और एक बच्चा जब वास्तव में क्रोधित होता है, वह सुंदर होता है। उसके ऊपर ऊर्जा और जीवन की एक अचानक आने वाली चमक एक सौंदर्य और ओज आ जाता है। अगर तुम क्रोध को मार देते हो, तो तुम जीवन को मार रहे हो। तब वह अपने सारे जीवन भर बस नपुंसक हो जाएगा। वह जीवित, गतिमय नहीं रह सकता, वह एक मुर्दा लाश की भांति चलता फिरता रहेगा।
इसलिए हम कहें--हम उन धारणाओं को निर्मित किए चले जाते हैं जो दीवालों को निर्मित करती हैं। हम दृष्टिकोण, विचार धाराएं दिए चले जाते हैं जो दीवालें निर्मित करती हैं। ये दीवालें हम पर थोपी नहीं गई हैं हमारा निर्माण हैं वे। और जिस पल हम सजग हो जाते हैं ये दीवालें खो जाएंगी। हमारे कारण वे अस्तित्व में हैं।

लेकिन माना कि वह वृक्ष या वह व्यक्ति बॉयोलॉजिकल
कंडीशंस जैविकीय परिस्थितियों के कारण अपंग है। वह
बदल नहीं सकता है। ऐसा नहीं है कि वह बदलना नहीं
चाहता बल्कि वह बदल ही नहीं सकता। या उदाहरण के
लिए एक पागल व्यक्ति। ऐसे व्यक्ति की अवस्था को आप
किस प्रकार से देखते हैं?

वस्तुत: ये लोग अपवाद हैं ये लोग समस्या नहीं हैं। वह आम आदमी जो अपवाद नहीं है वही समस्या है। ये अपवाद समस्या नहीं हैं। हम उनका इलाज कर सकते हैं। जब सारा समाज जीवित है जब सारा समाज जीवित हो तो हम उनका इलाज कर सकते हैं। हम उनका विश्लेषण कर सकते हैं हम उनकी सहायता कर सकते हैं। उनकी सहायता की ही जानी चाहिए अपने आप से वे लोग कुछ भी नहीं कर सकते हैं। परंतु उनकी असमर्थता की अवस्था में भी हमारा समाज एक भूमिका अदा करता है।

उस भूमिका को हटा लिया जाना चाहिए।
उदाहरण के लिए, एक वेश्या का पुत्र तुम्हारे समाज की, तुम्हारी नैतिक धारणाओं के कारण कभी मुक्ति अनुभव नहीं कर सकता है। वह एक गहरे अपराध-बोध की अनुभूति करता रहता है) जिसके लिए वह जरा भी उत्तरदायी नहीं है। तुम्हारा समाज उसके लिए उत्तरदायी है अगर उसकी मां वेश्या थी, तो इसके लिए वह जरा भी उत्तरदायी नहीं है। वह इसमें किस तरह सहायक हो सकता है? वह इसके बारे में क्या कर सकता है? लेकिन तुम्हारा समाज उस बालक के साथ एक भिन्न तरह का व्यवहार किए चला जाता है। उसकी मां के वेश्या होने में उसका उत्तरदायित्व कहीं से भी नहीं है। लेकिन जब तक कामवासना के बारे में हमारा दृष्टिकोण अलग नहीं हो जाता है उसके भीतर वेश्या-पुत्र होने का अपराध-बोध बना रहेगा, ऐसा चलता रहेगा, यह होता रहेगा।
वेश्यावृत्ति की घटना एक अपराध-बोध बन जाती है क्योंकि हमने विवाह को
पवित्र मान लिया है। अगर विवाह में कुछ पवित्रता है तो वेश्यावृत्ति को कुछ पापमय होना ही पड़ता है। जब तक कि विवाह को पवित्रता की सीढ़ियों से नीचे नहीं उतारा जाता है, तुम कुछ नहीं कर सकते हो। यह केवल एक भाग है एक अंश। और वेश्या वृत्ति तुम्हारी विवाह की व्यवस्था के कारण ही अस्तित्व में रही है। और जब तक कि विवाह की पूरी व्यवस्था बदल नहीं जाती है यह चलती रहेगी। तो यह वेश्यावृत्ति विवाह की पूरी व्यवस्था का एक हिस्सा भर है।
वस्तुत: जैसा कि मनुष्य का मन है एक स्थायी संबंध अप्राकृतिक है। और थोपा
गया स्थायी संबंध वास्तव में एक अपराध है। अगर मैं किसी के साथ रहना चाहता हूं
तो मैं साथ रहना जारी रख सकता हूं) लेकिन इसको मेरा चुनाव होना चाहिए। इसके
लिए कोई कानून नहीं होना चाहिए। अगर यह कानून है अगर यह मेरे ऊपर थोप। गया
है कि अगर आज मैं किसी को प्रेम करता हूं -- तो यह प्रकृति में नहीं है ऐसी कोई
अंतरनिहित आवश्यकता नहीं है कि कल भी प्रेम वहां पर होगा। ऐसा होने के लिए
कोई अंतरनिहित प्राकृतिक व्यवस्था नहीं है। ऐसा हो भी सकता है ऐसा नहीं भी हो
सकता है। और जब तुम प्रेम को होने के लिए बाध्य करते हो तो यह और असंभव
हो जाता है। यह वहां पर नहीं होगा। तब पिछले दरवाजे से वेश्यावृत्ति भीतर आ जाती
है। जब तक कि हमारे पास एक ऐसा समाज न हो जिसमें संबंध मुक्त हैं तब तक हम
वेश्यावृत्ति को समाप्त नहीं कर सकते हैं।
लेकिन अगर संबंध जारी रहता है तो तुम्हें अच्छा लग सकता है क्योंकि तुम्हारे
संबंध स्थायी हैं, और तुम्हें अच्छा महसूस करना पड़ता है वरना स्थायी संबंधों में रह पाना कठिन हो सकता है। तुम्हारे अहंकार को तो संतुष्ट होना ही चाहिए। तुम्हारे अहंकार को परितृप्त करने के लिए--कि तुम एक वफादार पति हो या एक वफादार पत्नी हो--वेश्यावृत्ति की निंदा करनी ही पड़ती है। तब वेश्या के पुत्र की निंदा करनी पड़ती है, और यह एक रोग बन जाता है।
किंतु ये अपवाद हैं कि कोई चिकित्सीय रूप से या शारीरिक रूप से रुग्ण है। तब हमें उसकी सहायता करनी पड़ती है तब हमें उसका चिकित्सीय रूप से शारीरिक रूप से इलाज करना पड़ता है। लेकिन पूरा समाज तो इस तरह का नहीं है। निन्यानबे प्रतिशत समाज तो हमारी रचना है वह एक प्रतिशत अपवाद है। वह जरा भी समस्या नहीं है। और अगर निन्यानबे प्रतिशत यह समाज बदल जाता है, तो वह एक प्रतिशत भी इससे प्रभावित हो जाएगा और यह समस्या मिट सकती है।
हम अभी तक यह निर्धारित नहीं कर पाए हैं कि तुम्हारा शरीर किस सीमा तक
तुम्हारे मन से प्रभावित होता है। इस बारे में अभी तक हम निश्चित नहीं कर पाए हैं और इसके बारे में हम जितना अधिक जान पाते हैं उतना ही अधिक अनिश्चय में पड़ जाते हैं। शरीर की अनेक बीमारियां गलत मन के कारण हो सकती हैं। गलत मन के साथ तुम रोगों के प्रति अधिक ग्रहणशील हो जाते हो गलत मन के साथ तुम अधिक असुरक्षित हो जाते हो। और हम इसे तब तक नहीं जान सकते हैं जब तक कि हमारा मन मुक्त नहीं है।
वास्तविकता यह है कि अनेक बीमारियां वस्तुत: मानवीय घटनाएं हैं। पशुओं में वे नहीं होती हैं। पशु अधिक स्वस्थ हैं, कम रुग्ण कम कुरूप हैं। ऐसा कोई कारण नहीं है कि मनुष्य अधिक जीवंत अधिक सुंदर, अधिक स्वस्थ न हो सके। पिछले दस हजार वर्षों का यह प्रशिक्षण मन का यह गलत प्रशिक्षण मूल कारण हो सकता है हमारी
समस्याओं का मूल कारण हो सकता है।
और जब तुम भी इसी व्यवस्था का हिस्सा हो तो तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। तुम ऐसा अनुमान भी नहीं कर सकते हो... अनेक शारीरिक बीमारियां बस एक मन के एक पंगु मन के कारण होती हैं। और हम प्रत्येक व्यक्ति के मन को पंगु बनाने में लगे हुए हैं। और अब मनावैज्ञानिक कहते हैं कि अगर शुरू से खयाल न रखा जाए, तो यह कठिन है--बच्चे के पहले सात साल सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। अगर तुम मन को उस समय पंगु बना सको तो उसे बदल पाना बहुत ही कठिन हो जाता है। लेकिन हम पंगु बनाए चले जाते हैं। हम बहुत अच्छी भावना से मन की काट छांट करके इसको मारते चले जाते हैं। और जब तुम बहुत अच्छी भावना से कुछ गलत करते हो तो यह एक समस्या है, तब यह एक समस्या है।
मन की जड़ों में मनोविज्ञान जितनी गहराई तक नजर डाल रहा है उतना ही प्रतीत होता है कि अनजाने में माता पिता अपराधी हैं अध्यापक लोग और सारी शिक्षा व्यवस्था अनजाने में अपराधी प्रतीत होती है--क्योंकि उन्होंने भी पुरानी पीढ़ियों से कष्ट उठाया है और वे लोग सिर्फ रोग का हस्तांतरण कर रहे हैं।
किंतु अब पहली बार संसार के अनेक भागों में विशेष तौर से पश्चिम में एक संभावना खुल गई है क्योंकि मनुष्य अपनी दिन प्रतिदिन की जरूरतों से मुक्त है, मनुष्य गरीबी के लंबे इतिहास से मुक्त है। तो अब हम विचार कर सकते हैं, हम योजना बना सकते हैं हम परिवर्तन कर सकते हैं। हम मन की नई संभावनाओं के साथ प्रयोग कर सकते हैं। अतीत में यह असंभव था क्योंकि शारीरिक आवश्यकताएं एक बड़ा बोझ थीं। उस समय इसकी कोई संभावना नहीं थी, तब ऐसी संभावना नहीं थी। किंतु अब यह संभावना खुल गई है। और हम लोग एक बहुत गहरी क्रांति के द्वार पर जी रहे हैं, एक ऐसी क्रांति जिसका मानव इतिहास ने कभी सामना नहीं किया है। अब चेतना में एक क्रांति संभव है। जान लेने और समझ लेने की और अधिक सुविधाओं के साथ हम बदल सकते हैं। हम परिवर्तन कर सकते हैं। इसमें समय लगेगा, बहुत से समय की जरूरत होगी, लेकिन संभावना खुली हुई है। लेकिन अगर हम साहस कर सकें अगर हममें हिम्मत हो, तो यह एक वास्तविकता बन सकती है।
अब सारी मनुष्य-जाति दांव पर लगी है। या तो हम अतीत की ओर वापस जाएंगे या एक नये भविष्य की ओर। इसलिए मेरे लिए यह तीसरे विश्वयुद्ध का प्रश्न नहीं है न ही साम्यवाद या पूंजीवाद का प्रश्न है। ये समस्याएं अब तिथि-बाह्य हो चुकी हैं। एक नया संकट एक बहुत जीने मरने जैसा संकट हमारे सामने है। या तो हम नई
चेतना के लिए निर्णय लें और उसके लिए कार्य करें या कि हमें वापस हो जाना है पुराने ढांचों में लौट जाना है।
यह भी संभव है कि हम वापस लौट जाएं क्योंकि मन के साथ यह प्रवृत्ति होती है कि जब भी कभी तुम किसी ऐसी चीज के संपर्क में आ जाते हो जिसका तुम सामना नहीं कर सकते हो तो तुम वापस लौट जाते हो। जैसे कि हम लोग यहां पर हैं और अचानक इस घर में आग लग जाए, तो हम बच्चों की भांति व्यवहार करने लगेंगे। हम पीछे लौट जाएंगे। हम कुछ और कर नहीं सकते! हम कुछ और नहीं कर सकते हैं, इसलिए हम पीछे लौट जाते हैं। हम बच्चों की तरह से व्यवहार करने लगते हैं। यह खतरनाक हो सकता है क्योंकि जब घर में आग लगे तो तुम्हें अधिक परिपक्वता की जरूरत है तुम्हें और अधिक समझ की जरूरत है तुम्हें और अधिक होशपूर्ण ढंग से व्यवहार करने की जरूरत है। लेकिन जब घर में आग लगी हो, तो तुम पांच वर्ष की आयु पर लौट जाओगे और तुम इस तरह से यहां वहां दौड़ने लगोगे कि तुम अपने लिए आग द्वारा निर्मित खतरे से भी बड़ा खतरा निर्मित कर लोगे।
तो इस बात की भी एक दुखद संभावना है और ऐसी नई घटना का सामना करने के कारण--एक नये मानवीय अस्तित्व के निर्माण करने के लिए--हम वापस हो सकते हैं हम पीछे लौट सकते हैं। और ऐसे उपदेशक हैं जो पीछे लौटना सिखाते रहते हैं। वे सदा अतीत से आसक्त रहते हैं वे वापस जाना चाहते हैं ' यह बेहतर था। हमेशा से ऐसे
उपदेशक रहे हैं जो मुर्दा अतीत के संदेश वाहक हैं जो हमेशा कहेंगे 'स्वर्ण-युग अतीत में था। इसलिए पीछे लौटो। पीछे लौट चलो। ' लेकिन मेरे लिए, यह आत्मघाती है। हमें भविष्य की ओर जाना ही चाहिए भले ही यह कितना दुष्कर हो और भले ही कितना जोखिम भरा और कठिन हो।
जीवन को भविष्य की ओर जाना ही चाहिए। हमें अस्तित्व के नये आयामों को पा लेना चाहिए। और मैं आशा से भरा हूं कि ऐसा हो सकता है। और इस घटना के घटित होने के लिए पश्चिम को ही भूमि बनना है पूरब को नहीं, क्योंकि पूरब बस तीन सौ वर्ष पुराना पश्चिम है। तो पूरब को पश्चिम का अनुकरण करना ही पड़ेगा--इसके ऊपर पालन-पोषण की अनेक समस्याओं का भार है लेकिन इस मामले में पश्चिम इन सबसे मुक्त है। इसलिए जब मेरे पास हिप्पी लोग आते हैं, तो मै सदा यह जानता हूं कि वे दोनों काम कर सकते हैं। वे बस पीछे लौट सकते हैं। एक ढंग से तो वे पीछे लौट रहे हैं, वे बच्चों की तरह से व्यवहार कर रहे हैं, वे वापस लौट रहे हैं। यह अच्छी बात नहीं है। वे पीछे लौट रहे हैं, वे आदिम मनुष्यों की तरह से व्यवहार कर रहे हैं। यह अच्छा नहीं है। उनका विद्रोह अच्छा है, लेकिन उन्हें नये मनुष्य की तरह से व्यवहार करना चाहिए, आदिम मनुष्यों की तरह से नहीं। और उन्हें नई चेतना के लिए संभावनाओं का सृजन करना चाहिए।
लेकिन वे लोग बस अपने आप को नशे में डुबो रहे हैं और नशों के द्वारा आदिम
मन सदा से ही अति प्रसन्न होता रहा है। आदिम मन सदा से ही नशों से जादुई ढंग से सम्मोहित होता रहा है। इसलिए पश्चिम की युवा पीढ़ी अगर आदिम मनुष्यों जैसा व्यवहार कर रही है तो यह विद्रोह नहीं है बल्कि एक प्रतिक्रिया और पीछे लौट जाना है। उन्हें एक नई मानवता की तरह व्यवहार करना चाहिए। और उनको एक नई चेतना की ओर जो, समग्र और सार्वभौमिक हो और जो मनुष्य के अस्तित्व के भीतर की सभी तर्कातीत संभावनाओं को स्वीकार करती हो बढ़ना चाहिए।
वास्तव में पशुओं और मनुष्य के बीच यही अंतर है। पशुओं के पास निर्धारित संभावनाएं, संगतियां होती हैं। यही कारण है कि उन्हें उनकी मूलवृत्ति कहा जाता है। मनुष्य की कोई निश्चित संभावना नहीं है--अनंत संभावनाएं केवल संभावनाएं हैं। वह एक साथ अनेक दिशाओं में विकसित हो सकता है। इस विकास में उसकी सहायता की जानी चाहिए और हमें ऐसे केंद्र निर्मित करने चाहिए जहां इस विकास के लिए हर प्रकार से सहायता उपलब्ध कराई जा सके।
मन को तर्क बुद्धि के रंग ढंग में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। साथ ही साथ मन को तर्कातीत, अतर्क्य ध्यान में भी प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। मनुष्यों के तर्क को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, और उसी समय उनके भाव पक्ष को भी पोषित किया जाना चाहिए। तर्क का प्रशिक्षण अब भावना की कीमत पर नहीं दिया जाना चाहिए। उनके तर्क को सबल होना चाहिए। लेकिन उनकी भावना को स्वस्थ होना चाहिए। यही समस्या है।
तर्क के बिना आस्थावान होना सरल है। यह आसान है। बिना किसी आस्था के संदेहशील होना आसान है--यह सरल है। लेकिन अब इन सरल सूत्रों से काम नहीं चलेगा। हमें एक स्वस्थ संदेह, एक दृढ़ संदेह एक शंकालु मन, जिसके साथ में एक श्रद्धालु एक आस्थावान मन भी हो निर्मित करना चाहिए। और हमारे आंतरिक अस्तित्व को संदेह से श्रद्धा में जाने में समर्थ होना चाहिए। अगर कुछ ऐसा है-- उदाहरण के लिए कोई वस्तुगत अनुसंधान किया जाना हो--तो नये मनुष्य को संदेहयुक्त शंकालु, प्रश्नकर्ता खोजी हो जाना चाहिए। लेकिन अस्तित्व का एक और आयाम भी है जहां पर श्रद्धा से सूत्र मिलते हैं संदेह से नहीं। लेकिन आवश्यकता दोनों की है।
तो समस्या यह है एक साथ विपरीत ध्रुवीयताओं को कैसे निर्मित किया जाए। और मेरी उत्सुकता इसी में है। इसलिए मैं संदेह को निर्मित करता रहता हूं और श्रद्धा को निर्मित करता रहता हूं! और मैं इसमें कोई अंतर्निहित असंगतता नहीं देखता हूं क्योंकि मेरे लिए तो गति ही महत्वपूर्ण है, एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव की ओर गति।
लेकिन हम जितना अधिक एक ध्रुव पर ठहरे रहते हैं उतनी ही हमारी गति कठिन हो जाती है। अगर हम जोर देते हैं-- उदाहरण के लिए पूरब में हमने कभी बहुत अधिक सक्रियता पर जोर नहीं दिया इसलिए आलस्य पूरब की चेतना का एक भाग रहा है।
इसलिए पूरब बहुत अच्छी तरह से सो सकता है। उस समय भी जब कि पूरब सो न रहा हो यह निद्रामग्न सा रहता है। लेकिन पश्चिम में तुमने सक्रियता विकसित कर ली है। अब मन उस पर ठहर गया है। तुम सो नहीं सकते) तो अब नींद के लिए औषधि लेनी पड़ती है शामक दवाओं या किसी और बात के द्वारा जबरन नींद लानी पड़ती है। लेकिन तब भी यह जबर्दस्ती थोपी गई नींद तुम्हें नींद नहीं दे पाती है। यह प्राकृतिक नहीं है। यह बस रासायनिक और सतही है कहीं गहरे में उपद्रव जारी रहता है। यह नींद बस एक दुखस्वप्न बन चुकी है ऊपरी सतहों पर रसायनों का प्रभाव रहता है लेकिन भीतर बिखराव चलता रहता है। क्यों? तुमने सक्रियता पर बहुत अधिक बल दिया हुआ था, तो तुम्हारा मन उस पर ठहर गया है। इसलिए जब तुम सोने जाते हो इसे सक्रियता से निष्क्रियता में जाने की जरूरत होती है। लेकिन यह जा नहीं पाता, यह ठहरा हुआ है। इसलिए तुम अपने बिस्तर पर करवटें बदलते रहते हो लेकिन मन सक्रियता से हट नहीं सकता है। यह सक्रिय बना रहता है।
और पूरब में इसका उलटा हो गया है। पूरब मजे से सो सकता है पर सक्रिय नहीं हो सकता है। सुबह को भी पूरब का मन अलसाया निद्रामग्न अनुभव कर सकता है। शताब्दियों से वे लोग भलीभांति सो रहे हैं किंतु और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। अब पश्चिम ने बहुत कुछ कर लिया है किंतु तुमने एक बेचैनी, एक रोग निर्मित कर लिया है। और इस बेचैनी के कारण हर चीज व्यर्थ है जो कुछ तुमने कर लिया है वह व्यर्थ है। तुम ईमानदारी से सो भी नहीं सकते हो।
तो यही कारण है कि मेरा जोर सदा मन को सक्रियता के लिए और ठीक उसी समय निष्कियता के लिए प्रशिक्षित करने पर है और तीसरी बात जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है वह मन को गति करने के लिए प्रशिक्षित करने पर है-- जिससे तुम दोनों ओर गति कर सको और मन को प्रशिक्षित किया जा सके। सक्रियता के किसी भी पल से एक क्षण में मैं निष्कियता में जा सकता हूं तुम जा सकते हो। मैं जा सकता हूं मैं तुमसे घंटों बात करता रह सकता हूं और तब एक पल में ही मैं आंतरिक गहन मौन में जा सकता हूं जहां पर भीतर कोई बातचीत नहीं चल रही है। जब तक कि ऐसा न हो जाए तुम्हारा विकास रुका रहता है।
तो मेरे लिए भविष्य को भीतरी ध्रुवीयताओं के मध्य एक गहन लयबद्धता होनी चाहिए। जब तक कि ऐसी गति निर्मित नहीं हो जाती मनुष्य की खोज रुकी हुई है। तुम उसे जारी नहीं रख सकते हो। तुम और आगे नहीं बढ़ सकते हो। पूरब थका हुआ है, पश्चिम थक चुका है। तुम उनको आपस में बदल सकते हो लेकिन दो सौ साल बाद यही समस्या फिर आ जाएगी। तब हम एक वर्तुल में घूमना शुरू कर देते हैं।

मानव इतिहास के प्रति द्वद्वात्मक दृष्टिकोण से मैं
अत्यधिक प्रभावित हूं। किंतु तर्कयुक्त विचार और
तर्कातीत विचार के मध्य पूर्ण द्वैत की आपकी दृष्टि मेरी
समझ में नहीं आ रही है।
परंपरागत समाज को देखिए। पश्चिम और पूरब दोनों में
ही एक सामान्य चित्र ऐसा बनेगा कि वहां पर अनेक
वैज्ञानिक होंगे और ऐसे लोग होंगे जो अपने व्यवसायिक
कार्य में लगे हैं ये विचार के तार्किक आयाम में सक्रिय
होंगे और उसी समय वे लोग गहरे धार्मिक लोग होंगे और
इस तर्कातीत आयाम में सक्रिय होंगे ये लोग दोनों तलों
पर कार्य कर रहे होंगे और ऐसा जरूरी नहीं है कि ये एक
दूसरे को हानि पहुंचा रहे हों। और ऐसा भी हो सकता है
कि इन दो पक्षों में जिनके बारे में आपने इतने विस्तार से
समझाया है एक प्रकार का आदान प्रदान या लयबद्धता
स्थापित हो जाए। मुझे ऐसा नहीं लगता कि वास्तव में यह
तार्किक विचार प्रक्रिया ही है जिसने हमें संकट में ला खड़ा
किया है। मेरे विचार से यह हमारी तार्किक विचार प्रक्रिया
को उपयोग करने का परिणाम है। हमारे समाज का यही
लक्ष्य है। प्रगति का यह रूप काफी कुछ उसी तरह का है
जिसे युवा लोग अब स्वीकार नहीं कर रहे हैं और मेरा
विचार है कि वहां पर ये लोग सही हो सकते हैं। लेकिन
ऐसी समानता मेरी तार्किक विचार प्रक्रिया का परिणाम
नहीं होगी। बल्कि मुझे ऐसा खयाल आता है कि कहीं
कोई गलती हो रही है। हमारे समाज के लक्ष्य इतने अस्पष्ट
हो चुके हैं कि...?

मैं समझता हूं मैं समझता हूं। लेकिन वास्तव में लक्ष्य की खोज तार्किक विचार प्रक्रिया का हिस्सा है। वास्तव में भविष्य का अस्तित्व तर्क के कारण होता है। इसीलिए पशुओं के लिए न तो कोई भविष्य है और न ही कोई लक्ष्य। वे जीते हैं परंतु उनका कोई लक्ष्य नहीं है। तर्क आदर्श बना लेता है तर्क लक्ष्य निर्मित कर लेता है, तर्क भविष्य का सृजन करता है। असली समस्या यह नहीं है कि सही लक्ष्य चुना गया है या गलत लक्ष्य चुना गया है। असली समस्या यह है कि लक्ष्य चुना जाए या नहीं।
नई पीढ़ी पूछ रही है कि लक्ष्य हों कि न हों। जिस पल तुम्हारे पास लक्ष्य होता है तुम जीवन का रंग ढंग बदलने लगते हो, क्योंकि तब तुम इसे लक्ष्य के अनुसार ढालना आरंभ कर देते हो। तब वर्तमान कम अर्थपूर्ण हो जाता है। तब भविष्य अर्थवत्ता ग्रहण कर लेता है और वर्तमान को इसके साथ समायोजित करना पड़ता है बदलना पड़ता है।
 इसलिए लक्ष्य-उन्मुख मन तर्क है और जीवन-उन्मुख मन तर्क के पार है।

एक ओर आप कहते हैं कि मनुष्य की सभी संभावनाओं को
साकार किया जाना है और व्यावहारिक रूप से व्यक्ति उतना
ही भला है जितना कि दूसरे लोग हैं और हम किसी बात का
जितना दमन करते हैं उतना ही हम असंतुलन और कठिनाई
उत्पन्न कर लेते हैं। साथ ही साथ आप हिप्पियों के बारे में भी
बात कर रहे हैं आप कहते हैं कि वे बच्चों जैसा व्यवहार कर
रहे हैं या कि जैसा कि मुझे समझ में आया है वे पीछे लौट
जाने की अवस्था में हैं। तो क्या आपके पास मनुष्य की कोई
विशिष्ट प्रतिमा है कि उसे कैसा होना चाहिए या कि कोई
विशेष लक्ष्य जो उसे प्राप्त करना हो?

मेरे पास है--जो मैं कह रहा हूं--मेरे पास है। जो मैं कह रहा हूं वह यह है कि यहां पर प्रश्न यह नहीं है कि तर्क के लिए उचित लक्ष्य हों। प्रश्न है कि मानवीय मन का इकलौता आयाम एक मात्र दिशा केवल तर्क को ही नहीं होना चाहिए।
तर्क को लक्ष्य रखने पड़ते हैं लक्ष्य के बिना तर्क का अस्तित्व नहीं बना रह सकता है। लेकिन इसको अधिनायकवादी नहीं हो जाना चाहिए। इसीलिए तर्क को लक्ष्य रखने पड़ते हैं। वरना यह कार्य नहीं कर सकता है। भविष्य द्वारा निर्मित किए गए रिक्त स्थान के बिना तर्क कार्य नहीं कर सकता है। लक्ष्य के बिना तर्क कार्य नहीं कर सकता है कहीं पर कोई लक्ष्य हो जहां पहुंचना है जिस तक पहुंचना है। तर्क को लक्ष्यों के साथ कार्य करना पड़ता है लेकिन तर्क को हावी हो जाने वाली चीज नहीं हो जाना चाहिए। इसको अधिनायकवादी नहीं हो जाना चाहिए। इसको विकसित होती हुई एकमात्र शाखा नहीं होना चाहिए।
तो जो मैं कह रहा हूं वह यह है कि तर्क को लक्ष्य रखने पड़ते हैं उन के बिना इसका अस्तित्व नहीं बना रह सकता है, और तर्क का अस्तित्व रहना चाहिए, यह एक संभावना है। फिर मनुष्य के मन का एक तर्क विरोधी भाग भी है जिसके लिए लक्ष्य नहीं हो सकते जो बस पशुओं की भांति है जो बस बच्चों की भांति है। बिलकुल बच्चों की भांति यह अभी और यहीं रह सकता है। और वास्तव में यही वह भाग है जो जीवन के प्रेम के सौंदर्य के कला के गहनतर आयामों को अनुभव करता है। वह भाग वह तर्कातीत भाग गहनतर आयामों का अनुभव करता है क्योंकि यह वर्तमान में गहरा उतर सकता है। इसको भविष्य में जाने की कोई जरूरत नहीं होती। यह यहीं और अभी, इसी क्षण में गहरा उतर सकता है। इस भाग को साथ ही साथ विकसित होते रहना चाहिए और तुम इसे दो ढंगों से कर सकते हो।
तुमने ठीक कहा है, ऐसे वैज्ञानिक हुए हैं जिनका बहुत गहरा धार्मिक व्यक्तित्व था। लेकिन जिस प्रकार से मैं इसको देखता हूं इसको दो प्रकार से किया जा सकता है। या तो यह एक गहरी लयबद्धता हो सकता है, या यह एक झरोखे को बंद करके, बिना किसी लयबद्धता के दूसरे को खोलना हो सकता है। बिना किसी लयबद्धता के मैं एक वैज्ञानिक हो सकता हूं और फिर मैं अपने वैज्ञानिक संसार को बंद कर सकता हूं और मैं चर्च जा सकता हूं और प्रार्थना कर सकता हूं। तब वहां पर वैज्ञानिक प्रार्थना नहीं कर रहा है, वैज्ञानिक वहां प्रार्थना नहीं कर रहा है--वैज्ञानिक बाहर छोड़ दिया गया है। वास्तव में यह लयबद्धता नहीं है। यह एक गहरा विभाजन है। वहां पर कोई लयबद्धता नहीं है, वैज्ञानिक और इस पूजा करने वाले में कोई भीतरी संवाद नहीं है। वहां पर कोई संवाद नहीं है। वैज्ञानिक तो चर्च में आया ही नहीं है। और यह व्यक्ति जब अपनी प्रयोगशाला में जाता है, तो पूजा करने वाला व्यक्ति बाहर छूट जाता है वह भीतर नहीं आया है।
तो यह वास्तव में एक गहरा विभाजन है। एक बंद अलगाव है। वे दोनों आपस में मिले हुए नहीं हैं। वे परस्पर मिले हुए नहीं हैं, तो इस तरह के व्यक्ति में तुम्हें दोहरापन अनुभव होगा, लयबद्धता नहीं, कोई लयबद्धता नहीं। वह व्यक्ति ऐसी बातें कह रहा होगा जिनके बारे में उसको स्वयं अपराध-बोध अनुभव होगा कि उसने ऐसा कहा था। वह वैज्ञानिक के रूप में ऐसे वक्तव्य दे रहा होगा जो उसके पूजा करने वाले मन के बिलकुल विरोध में जाते हैं और वह इन दोनों आयामों के बीच में किसी लयबद्ध समग्रता का निर्माण नहीं कर सकता है।
इसलिए अनेक वैज्ञानिकों ने वास्तव में बहुत खंडित जीवन जीए हैं। उनका एक भाग कुछ है और दूसरा भाग कुछ और है। मेरा लयबद्धता से यह अभिप्राय नहीं है। लयबद्धता से मेरा अभिप्राय है कि बंद नहीं होना है। तुम बिना बंद हुए एक से दूसरे आयाम में चले जाने में समर्थ हो। वैज्ञानिक प्रार्थना करने के लिए चला जाता है और धार्मिक व्यक्ति प्रयोगशाला में आता है। वहां कोई विभाजन नहीं है। वहां पर कोई अंतराल नहीं है।
अन्यथा तो तुम अपने भीतर दो व्यक्ति समा सकते हो, तुम अनेकों को समा सकते हो। तुम्हारे भीतर अनेक व्यक्ति हो सकते हैं-- और आमतौर पर यही करते हैं। हमारे पास बहुत से व्यक्तित्व हैं और हम ने उनमें से एक के साथ तादात्म्य कर रखा है। फिर हम दूसरे आयाम में चले जाते हैं, तब हम अपना व्यक्तित्व बदल लेते हैं हम कुछ और बन जाते हैं। यह परिवर्तन करने की व्यवस्था वहां पर है। वास्तव में यह कोई लयबद्धता नहीं है। और यह कार्य तुम्हारे अस्तित्व में एक बहुत गहरा तनाव निर्मित कर देगा क्योंकि इतने सारे विभाजनों के साथ तुम विश्रांति में नहीं जी सकते हो।
एक अविभाजित चेतना जो ध्रुवीय विपरीतताओं में जाने में समर्थ हो, केवल तभी संभव है जब कि हमारे पास ऐसे मनुष्य की संपूर्ण धारणा हो जो विपरीत ध्रुवों में भी उतनी ही सघनता से जी सकता हो-स्वभावत: विरोध में जीते हुए उसमें विरोधों के प्रति कोई अस्वीकार भाव नहीं होता है। उदाहरण के लिए अगर मैं प्रार्थना करने जाता हूं तो उसके बारे में मुझे कोई तनाव अनुभव नहीं होगा-- कि यह मैं क्या कर रहा हूं? क्या यह तर्कयुक्त है? क्या यह तर्कपूर्ण है? क्या कहीं कोई ईश्वर है?
अगर मैं प्रयोगशाला में कार्य करता हूं तो संदेह कार्य करता है। क्या मैं संदेह के साथ मिल कर किए जा रहे अपने इस कार्य में संदेह की एक उपयोगी उपकरण के रूप में कल्पना कर सकता हूं बजाय इसके कि मैं संदेह पर ही ठहर जाऊं? विश्वास भी एक उपयोगी उपकरण ही है। वे दोनों बस दो पहलू हैं जो विभिन्न आयामों में देखते हैं। इसलिए जब तुम्हें बहुत दूर देखना हो तो तुम अपना दृष्टिकोण बदलते हो पास देखने के लिए तुम अपना देखने का ढंग बदल लेते हो। तुम अपने दृष्टिकोण से चिपक नहीं जाते, तुम एक पर ही नहीं ठहरे रहते हो और इसमें कोई अंतर्निहित दुविधा भी अनुभव नहीं होती। तो व्यक्ति को कोई दुविधा, कोई विभाजन अनुभव नहीं करना चाहिए और उसे सहजता से सरलता से गति करना चाहिए। यहां तक कि वह गति भी अनुभव नहीं होनी चाहिए। और जब भी वहां पर वास्तव में एक गहरी लयबद्धता होती है तो गति अनुभव नहीं होती। तुम चले जाते हो लेकिन कोई गति अनुभव नहीं होती, क्योंकि गति तभी अनुभव होती है जब वहां पर कोई रुकावट हो।
और एक बात और। मैं जानता हूं कि जब मैं कहता हूं 'पूरब' और 'पश्चिम' तो मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि पश्चिम में कभी कोई पूरब का मन नहीं हुआ और मेरा अभिप्राय यह भी नहीं है कि पूरब में कभी कोई पश्चिम का मन नहीं हुआ है। वस्तुत: पूरब और पश्चिम भौगोलिक कम हैं और मनोवैज्ञानिक अधिक हैं। पश्चिम में ऐसे मन हैं जो पूरब के हैं और पूरब में ऐसे मन हैं जो पश्चिम के हैं। लेकिन जो मुख्य धारा है--मैं मुख्य धारा के बारे में बात कर रहा हूं।
उदाहरण के लिए कोई इकहार्ट या कोई बोहमे वे पूरब से जुड़े हैं। वे पूरब से
संबंधित हैं, उन्हें पश्चिम के इतिहास में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। वे पूरब के हैं। और वास्तव में कभी हमें संसार का मनोवैज्ञानिक इतिहास लिखना चाहिए जिसमें पूरब के पास पश्चिम से अनेक चेहरे होंगे और पश्चिम के पास पूरब से कई चेहरे और कई नाम होंगे। अभी हमने जो भी लिखा है वह केवल भौगोलिक इतिहास है। हमें मनोवैज्ञानिक इतिहास की परिकल्पना करनी चाहिए--इतिहास का एक अधिक विकसित रूप जिसमें विश्व का विभाजन भौगोलिक आधार पर न किया गया हो बल्कि उसे मनोवैज्ञानिक आधार पर बांटा गया हो।
इसलिए मेरा मतलब यह नहीं है कि दोनों एकपक्षीय हैं लेकिन मुख्य धारा, पश्चिम की मुख्य धारा तार्किक विकास की रही है यहां तक कि धार्मिक क्षेत्र में भी। यही कारण है कि चर्च इतना प्रभावशाली बन गया है। वस्तुत: हिंदू धर्म में कोई चर्च नहीं है या कि यह बहुत अराजकता से भरी घटना है-- क्योंकि तर्कातीत धर्म के साथ तुम कोई धर्मशास्त्र जिसमें तर्क दिए गए हों ईश्वर के होने के सबूत दिए गए हों और एक चर्च और एक ईश्वर का प्रतिनिधि पोप हो, कैसे रख सकते हो? तुम ऐसा नहीं कर सकते।
पश्चिम में तो धर्म भी तर्क की सरणियों के अनुसार विकसित हुआ है। जीसस अपने आप में एक तर्कातीत व्यक्ति थे लेकिन सेंट पाल नहीं। सेंट पाल के पास एक बहुत वैज्ञानिक मन था, बहुत वैज्ञानिक बहुत तर्कयुक्त। तो वास्तव में ईसाइयत सेंट पाल से संबंधित है यह जीसस से जरा भी जुड़ी हुई नहीं है। जीसस के साथ कोई ईसाइयत नहीं हो सकती है। ऐसा असंभव है। इस प्रकार का अराजक व्यक्ति उसके साथ इतने बड़े संगठन इतने बड़े साम्राज्य की कोई संभावना नहीं है। जब वे प्रभु के राज्य की बात कर रहे थे तो वे किसी और के बारे में बात कर रहे थे। लेकिन चर्च का इतना बड़ा राज्य--यह चर्च का राज्य--यह जीसस के साथ असंभव है। वे पूरब के थे परंतु सेंट पाल नहीं।
तो अब चर्च विदा हो चुका है और यही कारण है कि विज्ञान और चर्च में एक संघर्ष रहा था, क्योंकि दोनों तार्किक थे। और दोनों एक ही घटना को तर्कबद्ध करने की कोशिश कर रहे थे। चर्च को हारना ही था, क्योंकि यह उतना तर्कयुक्त नहीं हो सकता है क्योंकि इसका केंद्र धर्म था। चर्च ने तर्कयुक्त होने की कोशिश की, लेकिन यह ऐसा करने में सफल नहीं हो सका क्योंकि धर्म की घटना अपने आप में तर्कातीत है। धर्म के लिए तर्क कुछ बाहर की चीज है यही कारण है कि चर्च को हारना पड गया और विज्ञान जीत गया। लेकिन पूरब में विज्ञान और धर्म में कोई संघर्ष नहीं रहा, क्योंकि धर्म ने कभी तर्क के आयाम में कोई दावा नहीं किया तो वहां कोई संघर्ष नहीं हुआ। वे जरा भी एक ही आयाम से संबंधित नहीं हैं। पश्चिम की सारी प्रगति अरस्तूवादी रही है अभी तक अरस्तू पश्चिम का केंद्र बना हुआ है।

अपनी सोई हुई संभावना को साकार करने के लिए पूरब
और पश्चिम दोनों में परिकल्पित प्रतिमा और धार्मिक
विचार यहां तक कि अनीश्वरवादी दर्शन इन सभी में
मनुष्य का मूल प्रश्न क्या है? सदा से इन सभी के पास
मनुष्य की एक निश्चित आदर्श प्रतिमा रही है कि उसकी
कौन सी संभावनाएं हैं जिनको विकसित किया जाना है
साकार करना है जिनमें मनुष्य के कुछ ऐसे लक्षणों को
निश्चित प्राथमिकता देते हुए शामिल किया गया है उन्हें
कृपया अपने कथन के संदर्भ में समझा दें। और अब आप
इसे चाहे दमन से करें या ऊर्ध्वगमन से करें या किसी और
उपाय से इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। लेकिन मूल रूप
से खयाल सदा यही रहा है कि मनुष्य की प्रतिमा उससे
कुछ महानतर है जैसा कि मैं हूं और उसकी ओर बढ़ने के
लिए मुझे कोशिश करनी चाहिए। मनुष्य की उस प्रतिमा के
साथ जिसकी सभी संभावनाओं का एक सा महत्व
है--भले ही वे सकारात्मक हों या नकारात्मक या पशुवत
हों या पशुवत न हों इत्यादि-इत्यादि यहां पर आप अपना
उचित दृष्टिकोण किस प्रकार से रखेंगे?

यह विचित्र घटना धर्म के कारण नहीं घटित होती है। लेकिन जब भी कभी धर्म को व्यवस्था में बांध दिया जाता है, तभी यह घटना घट जाती है। उदाहरण के लिए कोई बुद्धपुरुष किसी आदर्श का अनुगामी नहीं होता है। बुद्ध स्वयं किसी आदर्श के अनुगामी नहीं हैं या जीसस स्वयं किसी आदर्श के अनुगामी नहीं हैं। वे बहुत सहजता का जीवन
जीया करते हैं लेकिन वे आदर्श बन जाते हैं--वे आदर्श बन जाते हैं। वे बहुत सहजस्फूर्त जीवन जीते हैं और वे अपने निजी ढंग से विकसित होते हैं भले ही उनका जीवन जो भी शैली और जो भी प्रकार ग्रहण कर ले। वे विकसित होते हैं, वे जंगल के वृक्षों की भांति विकसित होते हैं। लेकिन अनुयायियों के लिए वह जंगली वृक्ष ही एक आदर्श बन जाता है। और तब अनुयायी लोग जीवन-शैली, प्राथमिकताएं, चुनाव और निंदाएं निर्मित करने लगते हैं।
तो वास्तव में धर्म के दो भाग होते हैं। पहला, एक गहरा धार्मिक व्यक्तित्व जो पल-पल में जीया करता है। वह सहजता से जीया करता है और दूसरा, वे अनुयायी जो मत निर्मित करते हैं जो अनुशासन वे बनाते हैं जो विश्वास-परंपरा वे बनाते हैं वे इन्हें अपने आदर्श की तरह से बना लेते हैं। तब एक बौद्ध के पास एक आदर्श होता
है--' व्यक्ति को बुद्ध की तरह का होना चाहिए।' तब प्राथमिकताओं को उपलब्ध करना पड़ता है क्योंकि बुद्ध को कभी क्रोधित नहीं देखा गया था। उनके लिए यह एक सहज स्फूर्त विकास रहा होगा लेकिन तब अनुयायी को भी क्रोधित नहीं होना चाहिए, यह एक-- नहीं होना चाहिए--बन जाता है। तब तुम्हें या तो दमन करना या उसका ऊर्ध्वगमन करना है या जो कुछ भी नाम तुम इसका रख दो उसका अभिप्राय एक ही होता है। तब तुमको अपने आप को अनेक उपायों से नष्ट करना पड़ता है, क्योंकि केवल तब ही तुम वह प्रतिमा निर्मित कर सकते हो। तब तुम्हें एक प्रतिलिपि बन जाना पड़ता है।
और मेरे लिए यह एक अपराध है। धार्मिक व्यक्तित्व होना अपने आप में एक सुंदर घटना है लेकिन धार्मिक मत फिर से एक तर्कयुक्त बात बन जाती है। यह एक तर्कातीत घटना के सामने आकर तर्क का खडा हो जाना है।

बुद्ध के प्रसंग में देखें तो वे बहुत तर्कयुक्त व्यक्ति थे...?

वे बहुत तर्कयुक्त थे लेकिन उनके साथ बहुत से तर्कातीत अंतराल भी थे। और वे इन तर्कातीत अंतरालों के साथ बहुत सहजता से जीते थे। और बुद्ध की जो अवधारणा हमारे पास है वह वास्तव में बुद्ध की नहीं है बल्कि उन तर्कयुक्त परंपराओं की है जिन्होंने उनका अनुगमन किया और इस पूरी अवधारणा को निर्मित किया है।
वस्तुत: बुद्ध का सामना करना एक अलग बात है। लेकिन हम और कुछ कर भी नहीं सकते हैं। हमें बौद्धों के माध्यम से जो दो हजार वर्ष पुरानी श्रृंखला है और बुद्ध की जैसी प्रतिमा उन्होंने बना दी है उससे होकर गुजरना पड़ता है और उन्होंने इस प्रतिमा को बहुत तर्कयुक्त बनाया है। वे इस प्रकार के नहीं थे। अगर तुम अस्तित्व में गहरे उतर गए हो, तो तुम ऐसे नहीं हो सकते, तुम ऐसे नहीं हो सकते हो। अनेक बार तुमको तर्क के पार जाना पड़ता है--और बुद्ध तर्क के पार हैं। लेकिन तब हमें पूरी परंपरा को हटा कर एक ओर कर देना पड़ता है और सीधे ही जाना पड़ता है। यह कठिन है, बहुत कठिन है।

हम बुद्ध या लाओत्सु से कभी मिल नहीं सकते हैं आमने-
सामने की मुलाकात तो असंभव है?

एक ढंग से तो यह असंभव ही है लेकिन हम लोग कुछ प्रयास तो कर ही सकते हैं और उस प्रयास के लाभ होते हैं उस प्रयास से लाभ हुआ करते हैं। एक नये आयाम का आरंभ हो जाता है--तुम्हें नई झलकियां मिलने लगती हैं। क्योंकि उदाहरण के लिए--ऐसा घटित हो जाता है, यह रोज ही घटित हो रहा है--अगर मैं किसी तर्कशील व्यक्ति से बात कर रहा हूं तो वह चुनाव करता है। वह अचेतन रूप से वह सभी कुछ छोड़ देता है जो तर्कपूर्ण नहीं था। और अगर मैं किसी कवि से बात कर रहा होऊं तो वह किसी और बात का चुनाव कर लेता है। जब मैं किसी तर्कशील व्यक्ति से बात कर रहा होता हूं तो वे ही वाक्य, वे ही शब्द किसी और चीज के प्रतीक बन जाते हैं। क्योंकि वह शब्दों में विद्यमान काव्य को नहीं देख सकता। वह केवल तर्क की ओर शब्दों के तर्कपूर्ण होने को देख सकता है। उस तर्क का एक अलग ही आयाम है। कोई कवि, कोई चित्रकार किसी शब्द के अलग आयाम को समझ सकता है। शब्द में एक रंग, एक झलक होती है। शब्द में एक लय, एक काव्य होता है। यह किसी भी तरह से तर्क से संबंधित नहीं है।
इसलिए बुद्ध--बल्कि हमें कहना चाहिए, बुद्ध के चेहरे, चेहरा नहीं-- बुद्ध के चेहरे भिन्न हैं अलग हैं। वे उस व्यक्ति के अनुसार हैं जिसने उनको देखा है। और भारत में बुद्ध की घटना उस काल में घटित हुई थी जब पूरा देश एक तार्किक संकट से होकर गुजर रहा था। यह तर्कातीत के विरोध में जा रहा था, सभी तर्कातीत वेदों, उपनिषदों सारे रहस्य-दर्शन पर एक संकट छाया हुआ था--इनके विरोध में एक आंदोलन चल रहा था। यह आंदोलन ऐसा था कि सारे देश का, विशेष तौर से बिहार का मन इससे जुड़ रहा था--यह रहस्यवाद का विरोध था।
और बुद्ध आभावान थे और बुद्ध सम्मोहक थे। लोग उनसे प्रभावित हो गए थे। लेकिन बुद्ध के चेहरे की व्याख्या तर्कपूर्ण होगी ही--ऐसा होना ही था। अगर बुद्ध इतिहास के किसी और काल में हुए होते, ऐसे संसार में हुए होते जो रहस्यवाद के विरोध में नहीं था तो उन्हें एक महान रहस्यदर्शी के रूप में जाना गया होता बौद्धिक महामानव के रूप में नहीं। तो ऐसा हो जाता है। इतिहास के किसी विशेष काल से संबंधित होना पड़ता है और चेहरे की व्याख्या उसी के अनुरूप कर दी जाती है।
लेकिन जैसा कि मैं इसे देखता हूं बुद्ध बौद्धिक नहीं हैं वे बौद्धिक हो भी नहीं सकते हैं। निर्वाण की सारी धारणा बस रहस्यपूर्ण है। और वे उपनिषदों से भी ज्यादा रहस्यपूर्ण हैं, क्योंकि उपनिषदों में, भले ही वे कितने रहस्यपूर्ण दिखाई पड़ते हों, उनकी अपनी स्वयं की तर्कयुक्तता है। वे पुनर्जन्म के बारे में बात करते हैं, लेकिन वे पुनर्जन्म की बात आत्मा के साथ करते हैं। यह बात तर्कयुक्त है। बुद्ध आत्मा के बिना पुनर्जन्म के बारे में बात करते हैं। यह और भी रहस्यपूर्ण है। यह बात और भी रहस्यपूर्ण है-- आत्मा के बिना पुनर्जन्म। उपनिषद मोक्ष के बारे में बात करते हैं, लेकिन ' तुम ' वहां पर होगे। यह बात तर्कयुक्त है, अन्यथा तो पूरी बात ही मूर्खतापूर्ण बन जाती है। अगर अस्तित्व की उस परम दशा में मैं ही न हो पाऊं तो सारा प्रयास अर्थहीन है, तर्कहीन है। बुद्ध कहते हैं कि प्रयास करना पड़ेगा--और फिर तुम वहां पर नहीं होगे, यह बस एक ना-कुछपन होगा। यह और भी रहस्यपूर्ण है।

हिप्पियों के प्रश्न पर लौटते हैं जब आप कहते हैं कि वे
लोग पीछे लौट रहे हैं वे बच्चों की तरह व्यवहार कर रहे
हैं या कि वे लोग असभ्यों की तरह व्यवहार कर रहे हैं। मैं
आपकी बात से बिलकुल सहमत हूं। लेकिन ऐसा कहने
पर क्या आप उनके व्यवहार की तुलना एक अलग प्रकार
के व्यवहार से एक श्रेष्ठतर प्रकार के व्यवहार से करके
उन पर अपना फैसला नहीं सुना रहे हैं? तो क्या आपके
पास मनुष्य की कोई प्रतिमा है जिसे आप एक आदर्श
प्रतिमा कह सकें?

वास्तव में यह कोई प्रतिमा नहीं है वस्तुत: कोई प्रतिमा नहीं है यह बल्कि कुछ अलग बात है। जब मैं कहता हूं कि वे बच्चों की भांति व्यवहार कर रहे हैं तो मेरा मतलब यह है कि वे विकसित नहीं हो रहे हैं। वे पीछे लौट रहे हैं। मेरे पास ऐसी कोई प्रतिमा नहीं है कि उनको उसकी तरह से करना चाहिए। मेरे पास विकास की एक अवधारणा है कोई प्रतिमा नहीं किसी तरह की प्रतिमा नहीं है। मैं यह नहीं चाहता हूं कि उन्हें किसी विशेष प्रतिमा से लयबद्धता या समायोजन कर लेना चाहिए। मैं केवल यह कह रहा हूं कि वे अतीत की ओर वापस लौट रहे हैं भविष्य की ओर विकसित नहीं हो रहे हैं। मेरे पास कोई ऐसी प्रतिमा नहीं है कि वृक्ष किस प्रकार से विकसित हो, लेकिन इसे बिना किसी प्रतिमा के ही विकसित होना चाहिए। इसे वापस नहीं लौटना चाहिए। तो यह विकसित होने या पीछे लौट जाने का प्रश्न है, किसी प्रतिमा का नहीं है।
दूसरी बात जब मैं कहता हूं कि वे पीछे लौट रहे हैं तो मेरा अभिप्राय यह है कि वे एक अत्यधिक बुद्धिवादी समाज के विरुद्ध प्रतिक्रिया कर रहें हैं। वे प्रतिक्रिया कर रहे है?  लेकिन यह प्रतिक्रिया दूसरी अति पर, उसी भ्रम के साथ जा रही है। तर्क का उपयोग कर लिया जाना चाहिए उसका त्याग नहीं करना चाहिए। अगर तुम तर्क को छोड़ देते हो तो तुम वही गलती कर रहे हो जिसे तर्कातीत को छोड़ कर किया गया था।
विक्टोरियन युग ने एक ऐसा मनुष्य पैदा किया जो बस एक दिखावा, एक मुखौटा था। वह भीतर से कोई जीवित अस्तित्व नहीं था। बल्कि व्यवहार का एक नमूना, शिष्टाचार की एक शैली था--वह अस्तित्व कम था और चेहरा अधिक। ऐसा संभव हो सका क्योंकि हमने हर बात की कसौटी तर्क को चुन लिया था। इसलिए तर्कातीत, अराजक और भीतर की अव्यवस्था को हमने दूर धकेल दिया, दबा दिया। अब वह अराजक पक्ष बदला ले रहा है, यह दो कार्य कर सकता है। यह विध्वंसक हो सकता है, तब यह पीछे लौटने लगेगा। अगर यह विध्वंसक हो तो यह इसी प्रकार से बदला लेगा। यह तार्किक भाग को इनकार कर देगा। यह तार्किक भाग को अस्वीकार कर देगा और तब तुम छोटे बच्चों की तरह अपरिपक्व हो जाते हो। तुम पीछे लौट जाते हो।
अगर यह पक्ष सृजनात्मक हो, तो इसे वही गलती नहीं करनी चाहिए। इसे तर्क के साथ तर्कातीत को समाविष्ट कर लेना चाहिए। इसे दोनों को एक कर लेना चाहिए। तब यह विकसित हो जाएगा, उन दोनों की तुलना में विकसित हो जाएगा--वह जिसने तर्कातीत को इनकार किया है और वह जिसने तर्क को इनकार कर दिया है, वे दोनों विकसित नहीं हो रहे हैं।
वे दोनों विकसित नहीं हो रहे हैं क्योंकि तुम्हारा विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि तुम समग्रता में विकसित न हो। जब तक कि तुम समग्र रूप से विकसित नहीं होते कोई विकास नहीं होता है। तो मेरे पास तुलना करने के लिए कोई प्रतिमा नहीं है।

एक छोटा सा प्रश्न। पश्चिम में हमारी जीवन-शैली पाप
की अवधारणा और अपराध-बोध की अवधारणा से
प्रभावित होती है। जैसा कि आप जानते ही हैं कि ये
अवधारणाएं पूरब में नहीं हैं। इसका परिणाम यह हुआ है
कि पूरब के युवा लोगों की समस्याएं वैसी नहीं हैं जैसी कि
हमारी हैं। आपके अनुयायियों के मध्य यह समस्या कैसी
दिखाई पड़ती है? क्या आपके पूरब के अनुयायियों और
पश्चिम के अनुयायियों की आवश्यकताएं और समस्याएं
वास्तव में अलग- अलग हैं?

हां, ऐसा होना ही है ऐसा ही है। क्योंकि पाप की अवधारणा अपने चारों ओर एक बिलकुल ही अलग चेतना निर्मित कर देती है। पूरब के मन में इस तरह की अवधारणा का अभाव है। बल्कि यहां इसके स्थान पर अज्ञान की अवधारणा है। पूरब की चेतना में हर बुराई की जड़ में अज्ञान है पाप नहीं। बुराई की जड़ है क्योंकि तुम अज्ञानी हो। तो समस्या अपराध-बोध की नहीं है, बल्कि अनुशासन की है। तुम्हें और अधिक सजग, अधिक प्रज्ञावान हो जाना चाहिए। इसलिए पूरब में शान ही रूपांतरण है—इसलिए ध्यान इसका स्रोत, इसका परम उपाय बन जाता है।
पश्चिम में ईसाइयत के साथ पाप केंद्र बन गया है। ऐसा नहीं कि क्योंकि तुम अज्ञानी हो इसलिए तुम पाप करते हो। तुमने पाप किया है इसी कारण से तुम अज्ञानी हो। यहां पर पाप को प्राथमिक महत्व मिल गया है-- और यह केवल तुम्हारा ही पाप नहीं है। यह मानवजाति का मूल पाप है। तो तुम पाप की अवधारणा से दबे हुए हो। यह अपराध- बोध निर्मित करती है यह तनाव निर्मित करती है। यही कारण है कि ईसाइयत वास्तव में ध्यान की विधियां निर्मित नहीं कर पाई। इसने सिर्फ प्रार्थना को विकसित किया-क्योंकि पाप के विरोध में तुम कर ही क्या सकते हो? तुम नैतिक और प्रार्थनापूर्ण हो सकते हो।
इसलिए पूरब में वास्तव में दस आशाओं जैसी कोई चीज नहीं है। पूरब में इस तरह का कुछ भी नहीं है वहां पर अत्यधिक नैतिकता की अवधारणा भी नहीं है। इसलिए समस्याएं अलग हैं। पश्चिम के लिए, पश्चिम से आने वाले लोगों के लिए अपराध- भाव समस्या है। कहीं गहरे में वे अपराधी अनुभव करते हैं। जिन्होंने विद्रोह कर दिया है, कहीं गहराई में वे भी अपराध-बोध का अनुभव करते हैं। तो यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या है जो मन से ज्यादा संबंधित है और अस्तित्व से कम।
तो पहले उनके अपराध-बोध को निकालना पड़ेगा। यही कारण है कि पश्चिम को मनोविश्लेषण या आत्म-स्वीकृति का विकास करना पड़ गया है। पूरब में उनका विकास नहीं हुआ क्योंकि उनकी कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। तुम को अपने दोष स्वीकार करने पड़ेंगे। केवल तभी तुम उस अपराध- भाव से मुक्त हो सकते हो जो गहरे में भीतर है। या फिर तुम को मनोविश्लेषण से जो विचार साहचर्य की एक लंबी प्रक्रिया है, होकर गुजरना पड़ता है जिससे कि अपराध-बोध को बाहर फेंका जा सके। लेकिन इसको स्थायी रूप से बाहर कभी नहीं फेंका जा सकता है। यह फिर आ जाएगा क्योंकि पाप की अवधारणा तो रहती ही है। यह दुबारा से निर्मित हो जाएगा, यह फिर से एकत्रित हो जाएगा।
इसलिए मनोविश्लेषण केवल एक अस्थायी सहायता हो सकता है, और आत्म- स्वीकृति भी एक अस्थायी सहायता है। तुम्हें बार-बार आत्म-स्वीकृति करनी पड़ती है। ये किसी ऐसी बात के विरोध में अस्थायी सहायताएं हैं जिसे स्वीकार कर लिया गया है। सारी बीमारियों की जड़-- पाप की अवधारणा को स्वीकार कर लिया गया है।
पूरब में यहां पर यह मनोविज्ञान का प्रश्न नहीं है। यहां पर यह अस्तित्व का प्रश्न है। तो यह मानसिक स्वास्थ्य का प्रश्न नहीं है। बल्कि यह आध्यात्मिक विकास का प्रश्न है। तुमको आध्यात्मिक रूप से विकसित होना पड़ेगा, तुम्हें वस्तुओं के प्रति अधिक बोधपूर्ण हो जाना है। तुम्हें अपना मौलिक व्यवहार नहीं बदलना है बल्कि तुम्हें अपनी मौलिक चेतना को बदल देना है। तब व्यवहार उसका अनुगमन करता है।
इसलिए ईसाइयत अधिक व्यवहारवादी है और इस प्रकार से यह रक्षात्मक है, क्योंकि व्यवहार तो बस परिधि की घटना है। प्रश्न इस बात का नहीं है कि तुम क्या करते हो प्रश्न इस बात का है कि तुम क्या हो। इसलिए अगर तुम अपने कृत्यों को बदलते चले जाओ, तो तुम नहीं बदलते हो। और तुम अपने कृत्य का उलटा करने पर भी वैसे ही बने रह सकते हो। तुम एक संत बन सकते हो और फिर भी वैसे ही रह सकते हो, क्योंकि कृत्यों को बहुत सरलता पूर्वक बदला जा सकता है। उन्हें जबरन थोपा जा सकता है।
तो पश्चिम से जो भी आ रहा है, उसकी समस्या व्यवहार की, अपराध-बोध की है। और उन्हें एक और गहरी समस्या के प्रति--जो अस्तित्व की है, मनस की नहीं, सजग करने के लिए मैं उनके साथ संघर्ष करता हूं।

बौद्धों के संसार में भी व्यवहार महत्वपूर्ण है। व्यवहार
नैतिक व्यवहार काफी कुछ ईसाइयत की तरह से बहुत
महत्वपूर्ण है लेकिन वहां अपराध-बोध नहीं है। व्यवहार
पर बहुत बल दिया गया है लेकिन हिंदू विचार धारा में
ऐसा नहीं है। यह सत्य है आप ठीक कहते हैं।

हां, बौद्ध धर्म में ऐसा है--और जैन धर्म में--ऐसा बहुत अधिक है, लेकिन पाप की अवधारणा के बिना। उनके पास पाप की अवधारणा नहीं है। इनमें व्यवहार पर बहुत बल दिया गया है। लेकिन उन्होंने भी कुछ निर्मित किया है, वैसा ही अपराध-बोध तो नहीं है लेकिन एक अलग ढंग से उन्होंने इसे बना लिया है। खास तौर से जैनों ने एक बहुत गहरी हीनता की अनुभूति निर्मित कर ली है। अपराध-बोध तो वहां पर नहीं है, क्योंकि वहां पर पाप का कोई प्रश्न ही नहीं है बल्कि हीनता की गहरी भावना है कि व्यक्ति हीन है। जब तक व्यक्ति सारे पापों के पार नहीं चला जाता है वह श्रेष्ठतर नहीं हो सकता है, वह श्रेष्ठतर नहीं बन सकता है। एक बहुत गहरी हीनता की भावना वहां होती है और यह गहन हीन भावना इसी ढंग से कार्य करती है। इससे समस्याएं निर्मित होती हैं।
यही कारण है कि जैन लोग ध्यान-विधियां निर्मित नहीं कर पाए। उन्होंने केवल नैतिकता के सूत्र निर्मित कर लिए हैं यह करो ऐसा करो वैसा मत करो और पूरी अवधारणा व्यवहार के चारों ओर केंद्रित है। यही कारण है कि जैन धर्म बस एक मरी हुई चीज बन चुका है। तुम किसी जैन मुनि के पास चले जाओ जहां तक व्यवहार का प्रश्न है, वह एक आदर्श है, लेकिन जहां तक तरिक अस्तित्व का प्रश्न है, वह निर्धन है--बिना किसी आंतरिक अस्तित्व के बस निर्धन। वह बस एक कठपुतली की भांति
व्यवहार किए चला जाता है।
तो जैन धर्म मुर्दा है। बौद्ध धर्म उसी ढंग से मुर्दा नहीं हुआ है, क्योंकि वहां पर एक अलग बात पर जोर दिया गया है। बौद्ध धर्म में एक अलग बात पर बल दिया गया है। बौद्ध धर्म का आचरण वाला भाग इसके ध्यान वाले भाग का परिणाम भर है और अगर व्यवहार को बदला जाना है तो यह बस ध्यान का एक हिस्सा है। यह ध्यान की सहायता के लिए बस ध्यान का ही एक हिस्सा है। अपने आप में यह निरर्थक है। अपने आप में यह अर्थहीन है। ईसाइयत में यह अपने आप में अर्थपूर्ण है, जैन धर्म में यह अपने आप में महत्वपूर्ण है। अगर तुम भला कर रहे हो, तो तुम भले हो। बुद्ध के लिए ऐसी बात नहीं है। तुम्हें भीतर की ओर से बदलना पड़ेगा। भला करना इसमें सहायता कर सकता है, इसका एक भाग बन सकता है, इसका हिस्सा बन सकता है, इसका एक अंश बन सकता है, लेकिन ध्यान ही केंद्र है।
तो केवल बौद्ध लोग ही गहरे ध्यान विकसित कर सके, ध्यान की गहन विधियां। और सभी कुछ बस एक सहायता है--यह महत्वपूर्ण नहीं है। तुम इसे छोड़ भी सकते हो। यह तुम्हारी क्षमता पर बना रहता है। यहां पर तुम्हारी सामर्थ्य का प्रश्न है। तुम इसे नकार भी सकते हो। अगर तुम बिना किसी सहायता के ध्यान कर सको, तो तुम इसे छोड़ भी सकते हो।
'लेकिन हिंदू धर्म और भी जटिल और गहरा, अधिक गहरा है। यही कारण है कि हिंदू धर्म तंत्र के विभिन्न आयामों का विकास कर सका है। तो जिसको तुम लोग पाप कहते हो उसका भी उपयोग किया जा सकता है। एक ढंग से हिंदू धर्म बहुत स्वस्थ है--निस्संदेह यह अराजक है, लेकिन जो भी स्वस्थ है वह अराजक होने के लिए बाध्य है, उसे अराजक होना पड़ता है। इसे व्यवस्था में नहीं बांधा जा सकता है। इसको व्यवस्थित नहीं किया जा सकता है।
आज इतना ही।
समाप्त

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