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शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-11)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो

प्रवचन-ग्याहरवां-(सम्यक प्रश्न) 

 (The Psychologe Of The Esoteric)- का हिन्दी रूपांतरण है)
सैद्धौतिंक प्रश्न मत पूछो। क्योंकि सिद्धांत हल कम करते हैं और उलझाते अधिक हैं। अगर कोई सिद्धांत न हों तो समस्याएं कम होंगी। ऐसा नहीं है कि सिद्धांत प्रश्नों या समस्याओं को हल करते हों बल्कि इसके विपरीत सिद्धांतों से प्रश्न उठ खड़े होते हैं। और दार्शनिक प्रश्न भी मत पूछो क्योंकि दार्शनिक प्रश्न बस प्रश्न जैसे प्रतीत होते हैं। वे प्रश्न हैं नहीं। यही कारण है कि कोई उत्तर संभव नहीं हो पाया है। अगर कोई प्रश्न वास्तव में एक प्रश्न है तो वह उत्तर देने योग्य है। अगर कोई प्रश्न झूठा है, बस एक भाषा शास्त्रीय संशय है तब इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता है। यही कारण है कि दर्शनशास्त्र उत्तर देता रहा है और किसी भी बात का उत्तर नहीं दिया जा सका है। दर्शनशास्त्री लोग सदियों-सदियों से उत्तर दिए चले जा रहे हैं, और प्रश्न अब भी जैसा था वैसा बना हुआ है। इसलिए किसी दार्शनिक प्रश्न का तुम किसी भी तरह से उत्तर दे दो तुम इसका उत्तर कभी नहीं दे पाते हो क्योंकि प्रश्न झूठा है। प्रश्न उत्तर दिए जाने के लिए था भी नहीं अंतर्तम रूप से प्रश्न है ही ऐसा कि उसका कोई उत्तर संभव नहीं है।

उदाहरण के लिए अगर तुम पूछते हो? संसार को किसने बनाया, तो यह कुछ ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर संभव नहीं है। यह असंगत है। और तत्व मीमांसा के प्रश्न मत पूछो ऐसा नहीं है कि वे असली प्रश्न नहीं हैं--वे वास्तविक प्रश्न हैं--लेकिन उनका उत्तर नहीं दिया जा सकता है उनका आयाम उस पार का है। इसलिए तुम प्रश्न पूछ सकते हो लेकिन उन का उत्तर नहीं दिया जा सकता है। उनको हल किया जा सकता है लेकिन उनका उत्तर नहीं दिया जा सकता है।
उन प्रश्नों को पूछो जो व्यक्तिगत अंतरंग अस्तित्वगत हों। बात यह है कि व्यक्ति को इस बात के प्रति सजग होना चाहिए कि वह क्या पूछ रहा है, और क्या जिज्ञासा कर रहा है--क्या यह कुछ ऐसा है जिसका तुम्हारे लिए वास्तव में कुछ अर्थ है? अगर इसका उत्तर दे दिया गया तो क्या तुम्हारे लिए कोई नया आयाम खुल जाएगा? क्या तुम्हारे अस्तित्व में कुछ जुड़ जाएगा? क्या इसके द्वारा तुम्हारा अस्तित्व किसी भी ढंग से रूपांतरित हो जाएगा? क्या वास्तव में यह कुछ ऐसी बात है जिसके उत्तर की तुम्हें जरूरत है? केवल ऐसे प्रश्न ही धार्मिक हैं।
धर्म वास्तविक रूप से समस्याओं से संबंधित है मात्र प्रश्नों से नहीं। प्रश्न बस एक कौतुहल हो सकता है लेकिन एक समस्या कुछ अंतरंग, व्यक्तिगत होती है जिससे तुम जुड़े हो। यह तुम ही हो। प्रश्न तुम से कुछ अलग है समस्या-- यह तुम हो। इसलिए पूछने से पहले भीतर गहरे में उतरो और कुछ ऐसा पूछो जो अंतरंग और व्यक्तिगत हो, जिससे तुम संशय में पड़ गए हो, जिसमें तुम संलग्न हो। केवल तभी तुम्हारी सहायता हो सकती है।

अब प्रश्न पूछो।

ओशो मेरे पास अनेक संशय हैं लेकिन मेरा मुख्य संशय
यह है जिसे मैं जानना चाहता हूं कि क्या वह सभी कुछ जो
मैं करता हूं? मेरा पूरा जीवन क्या यह पूर्व-निर्धारित है?इससे कोई भेद नहीं पड़ता कि मैं क्या करता हूं! लेकिन
क्या यह भी किसी अन्य सत्ता से संचालित है? क्या इस
कृत्य में मेरी कोई भूमिका है--यहां पर संशय है।

यह दोनों है हां और न दोनों।

मैं यह जानना चाहता हूं कि हमारे जीवन पूर्व-निर्धारित
होते हैं या नहीं?

यह दोनों हैं--हां और नहीं, दोनों--और जीवन की समस्याओं के लिए सदा ऐसा ही है। एक अर्थ में हर बात पूर्व-निर्धारित है--एक ढंग से ऐसा ही है। तुम्हारे भीतर जो कुछ भी भौतिक है, तुम्हारे भीतर जो कुछ भी पदार्थ का है तुम्हारे भीतर जो कुछ भी मानसिक है वह पूर्व-निर्धारित है। और वह सभी कुछ जिसका कहीं भी कोई कारण हो
पूर्व-निर्धारित होता है। लेकिन फिर भी तुम्हारे पास कुछ ऐसा है जो सदा अनिर्धारित रहता है और जिसकी भविष्यवाणी कभी नहीं की जा सकती है और वह है तुम्हारी चेतना।
इसलिए यह निर्भर करता है--अगर तुमने अपने शरीर और अपने भौतिक अस्तित्व से बहुत अधिक तादात्म्य कर रखा है तो उसी अनुपात में तुम्हारा निर्धारण कारण के नियम से होता है। तब तुम एक यत्र होते हो—जैव-वैज्ञानिक यंत्र। लेकिन अगर तुमने अपने भौतिक शारीरिक--इसमें मन और शरीर दोनों शामिल हैं अस्तित्व के साथ तादात्म्य नहीं किया हुआ है अगर तुम अपने आप को थोड़ा सा भिन्न अलग, ऊपर इनके पार का अनुभव कर सको--तो उस पार की वह चेतना कभी पूर्व-निर्धारित नहीं होती। यह सहजस्फूर्त मुक्त होती है। चेतना का अर्थ है स्वतंत्रता और पदार्थ का अर्थ है : परतंत्रता। पदार्थ परतंत्रता का क्षेत्र है और चेतना स्वतंत्रता का। इसलिए यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम अपने आप को कैसे परिभाषित करते हो। अगर तुम कहते हो कि 'मैं सिर्फ शरीर हूं' तो मैं कह दूंगा हां तुम्हारे बारे में हर बात पूर्व-निर्धारित है।
इसलिए वह व्यक्ति जो कहता है कि मनुष्य मात्र केवल एक शरीर है, कभी यह नहीं कह सकता है कि मनुष्य का जीवन पूर्व-निर्धारित नहीं है। यह बात थोड़ी सी विचित्र लग सकती है क्योंकि आमतौर से वे लोग जो चेतना में विश्वास नहीं करते, पूर्व-निर्धारण में भी विश्वास नहीं करते हैं। और आमतौर पर वे लोग जो धार्मिक हैं, और चेतना में विश्वास करते हैं, वे लोग पूर्व-निर्धारित जीवन में भी विश्वास रखते हैं। इसलिए मैं जो कुछ कह रहा हूं वह बहुत विरोधाभासी दिखाई देगा। लेकिन मेरा कहना है कि यही बात है।
वह व्यक्ति जिसने चेतना को जान लिया है, उसने स्वतंत्रता को जान लिया है। इसलिए कोई आध्यात्मिक व्यक्ति ही कह सकता है कि कहीं भी किसी तरह का कोई पूर्व- निर्धारण नहीं है। लेकिन यह बोध सिर्फ तब आता है जब तुम्हारा अपने भौतिक अस्तित्व शरीर से तादात्म्य पूरी तरह से टूट चुका हो। इसलिए तुम जो भी हो--अगर तुम अपने आप को बस एक भौतिक अस्तित्व के रूप में अनुभव करते हो, तो कोई स्वतंत्रता संभव नहीं है। पदार्थ के साथ स्वतंत्रता संभव नहीं है। पदार्थ का अर्थ है वह जो स्वतंत्र नहीं हो सकता है। इसे तो कारण और परिणाम की शृंखला में बंध कर रहना ही है। इसीलिए मैं कहता हूं दोनों बातें हैं और यह तुम्हारे ऊपर निर्भर करेगा।
एक बार कोई चैतन्य को संबोधि को उपलब्ध कर ले, तो वह कारण और परिणाम के नियम से पूरी तरह से बाहर हो जाता है और पूर्व-निर्धारण को पार कर लेता है। वह पूरी तरह से भविष्यवाणियों के पार हो जाता है। तुम उसके बारे में कुछ भी नहीं कह सकते हो। वह हर क्षण को जीने लगता है इसे दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उसका अस्तित्व परमाणु जैसा हो जाता है।
तुम्हारा अस्तित्व एक क्रमबद्धता है नदी के समान क्रमबद्धता जिस में हर कदम अतीत के द्वारा निर्धारित होता है। तुम्हारा भविष्य वास्तव में भविष्य नहीं है यह बस तुम्हारे अतीत की सह-उत्पत्ति है। तुम्हारा भविष्य जरा भी भविष्य नहीं है। यह तो बस अतीत के द्वारा मन को संस्कारित कर देना उसे सूत्रबद्ध करना उसे विकसित करना और उसे एक आकार दे देना है। इसलिए तुम्हारा भविष्य--यही कारण है कि तुम्हारा भविष्य पहले से बताया जा सकता है।
अमरीका में एक आधुनिक विचारक और मनोवैज्ञानिक हुआ है बी. एफ. स्किनर। वह भी कहता है कि किसी और चीज की तरह मनुष्य के बारे में भी भविष्यवाणी की जा सकती है। मुख्य कठिनाई यह नहीं है कि मनुष्य के बारे में कुछ नहीं बताया जा सकता है बल्कि समस्या यह है कि मनुष्य के सारे अतीत को जान लेने का कोई
प्रामाणिक उपाय अभी तक हमारे पास नहीं है। इसलिए जिस पल हम उसके अतीत के बारे में जान लें हम भविष्य बता सकते हैं-- सभी कुछ बताया जा सकता है। और एक अर्थ में वह सही है। उसने अपनी प्रयोगशाला में जितने लोगों के साथ कार्य किया था वे इसी प्रकार के थे। कभी कोई बुद्ध उसकी प्रयोगशाला में उसके अध्ययन के लिए नहीं पहुंचा था, इसलिए स्किनर सही है। वह सैकड़ों लोगों के साथ प्रयोग करता रहा था और उसने देखा कि वे सभी यांत्रिक अस्तित्व हैं उनके भीतर ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे स्वतंत्रता कहा जा सके।
लेकिन वह गलत है क्योंकि वह अध्ययन सीमित है। और अगर केवल एक व्यक्ति भी स्वतंत्र है, तो इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है--पूरा सिद्धांत व्यर्थ हो जाता है। इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता है कि अगर मनुष्य-जाति के पूरे इतिहास में एक मनुष्य भी स्वतंत्र है और उसकी भविष्याणी नहीं की जा सकती तो मनुष्य स्वतंत्र है और उसकी भविष्याणी नहीं की जा सकती।
लेकिन पूरी बात इसी पर निर्भर करेगी कि जोर किस पर है--तुम्हारा जोर तुम्हारे शरीर पर है या तुम्हारा जोर तुम्हारी चेतना पर है। तुम किससे संबंधित हो? तुम्हारी संबद्धता कहां से है? शरीर से है या चैतन्य से है। क्या तुम बस जीवन का एक बहिर्गामी प्रवाह हो? तब सभी कुछ निर्धारित है। क्या तुम भीतर भी कुछ हो? कोई ऐसा उत्तर मत दो जो पहले से तय कर लिया गया हो। मत कहो ' ही भीतर से मैं एक आत्मा हूं।' यह मत कहो अगर तुम महसूस करते हो मेरे भीतर कुछ भी नहीं है। तब ईमानदार रहो, क्योंकि चेतना की आंतरिक स्वतंत्रता की ओर यह ईमानदारी पहला कदम होने जा रहा है।
इसलिए अगर तुम अनुभव करते हो कि भीतर कुछ नहीं है तो कहो मेरे भीतर कुछ भी नहीं है। और वास्तव में अगर तुम भीतर जाते हो, तो तुम अनुभव करोगे कि सभी कुछ बाहर का हिस्सा भर है तुम्हारा शरीर बाहर से आया है तुम्हारे विचार बाहर से आए हैं तुम्हारा 'स्व' तुम्हें दूसरों के द्वारा दिया गया है। यही कारण है कि तुम दूसरों की राय के प्रति इतने भयभीत रहा करते हो-- क्योंकि वे कभी भी अपनी राय बदल सकते हैं। वे कह सकते हैं आप भले आदमी हैं। लेकिन अगर तुम उनके अनुसार व्यवहार न करो तो वे अपनी राय वापस ले सकते हैं और तुम कमतर हो जाओगे और तुम्हारा अच्छा स्व कहीं नहीं रहेगा।
यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति भय में है दूसरों से लगातार भयभीत है क्योंकि वे तुम्हारे स्व में योगदान करने वाले लोग हैं। वे पीछे लौट सकते हैं, कम से कम वे अपना योगदान तो वापस ले सकते हैं। तुम्हारा स्व दूसरों द्वारा दिया योगदान है तुम्हारा शरीर दूसरों से मिला अंशदान है, तुम्हारे विचार दूसरों के द्वारा किया गया योगदान है तो भीतर कहां है? तुम बाहर से लिए गए संचयों की बस परत दर परत हो। अगर तुम्हारा इस व्यक्तित्व से तादात्म्य है तो प्रत्येक बात पूर्व-निर्धारित है।
इसलिए जब तक कोई उन सभी बातों के प्रति सजग नहीं हो जाता जो बाहर से आती हैं और लगातार उनसे अपने तादात्म्य को तोड़ता चला जाता है तो एक क्षण ऐसा आता है, जब इनकार करने के लिए कुछ भी नहीं बचता है। जब तुम्हारे छोड़ देने के लिए कुछ भी न बचे तो तुम एक खालीपन में पहुंच जाते हो। यह खालीपन बाहर और भीतर के जगत के बीच एक रास्ता है यही द्वार है। लेकिन हम खालीपन से डरते हैं। हम खाली हो जाने से भयभीत हैं इसलिए हम बाहर के संचय से चिपक जाते हैं।
इसलिए व्यक्ति को इतना साहसी हो जाना चाहिए कि वह तादात्म्य न करे और जब बाहर कुछ भी न बचे तो खालीपन में ठहरा रहे। जब बाहर पूरी तरह से गिर जाता है तो तुम खालीपन में होते हो। अगर तुम खालीपन में ठहरे रहने के लिए पर्याप्त साहसी नहीं हो तो तुम फिर से बाहर चले जाओगे और किसी चीज से चिपकोगे और इससे भर जाओगे। तो यह क्षण, खालीपन का यह क्षण ध्यान है। अगर तुम पर्याप्त साहसी हो और अगर तुम इस खालीपन में रुके रहे तो जल्दी ही तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व अपने आप ही भीतर की ओर मुड़ जाएगा। क्योंकि जब वहां पर बाहर से आसक्त हो जाने के लिए कुछ भी नहीं है तब तुम्हारा अस्तित्व भीतर की ओर मुड़ जाता है। तब पहली बार तुम यह जानते हो कि तुम 'कुछ ऐसा' हो जो उस सभी को पार कर लेता है जिसे तुम सोचते रहे थे कि तुम बस वही भर हो।
अब तुम 'हो जाने' से अलग कुछ और हो, अब तुम अस्तित्व हो। यह अस्तित्व स्वतंत्र है इसका पूर्व-निर्धारण कोई नहीं कर सकता। यह परिपूर्ण स्वतंत्रता है। यहां पर किसी कारण और किसी प्रभाव की कोई श्रृंखला संभव नहीं है। इसलिए एक बार कोई व्यक्ति भीतर रहना आरंभ कर दे तो वह अति सूक्ष्म हो जाता है। अब उसके कृत्यों में एक अलग प्रकार का अंतर संबंध होता है।
आमतौर से हमारे कृत्य हमारे अतीत के कर्मों से जुड़े हुए हैं। वे एक श्रृंखला में आते हैं क ख, ग। 'क' हमारे अतीत का कृत्य था, उसने एक ऐसी परिस्थिति निर्मित कर दी जिसमें 'ख' संभव हो सका, तब 'ख' अतीत का ऐसा कृत्य हो गया जो 'क' से जुड़ा हुआ है, तब इसने एक ऐसी परिस्थिति निर्मित कर दी जिसमें 'ग' एक संभावना बन जाता है, और यह साकार हो जाता है। इस प्रकार तुम्हारे कृत्य तुम्हारे द्वारा अतीत में किए गए पिछले कृत्यों की एक श्रृंखला हैं और यह श्रृंखला आरंभहीन आरंभ और अंतहीन अंत तक बनी रहती है। केवल तुम्हारे कृत्य ही नहीं, तुम्हारी माता और तुम्हारे पिता के कृत्य भी, तुम्हारे कृत्यों से एक श्रृंखला में जुड़े हुए हैं, न केवल तुम्हारे माता-पिता, तुम्हारा समाज, तुम्हारा इतिहास वह सभी कुछ जो तुम्हारे होने से पहले हो चुका है, वह भी किसी रूप में तुम्हारे कृत्य से अंतर संबंधित है, वह कृत्य जो इस क्षण में हो रहा है। सारा इतिहास तुम्हारे इस कृत्य में पुष्पित होने को आ गया है।
वह सभी कुछ जो कभी भी घटित हुआ है तुम्हारे कृत्य से जुड़ा हुआ है इसलिए यह स्पष्ट है कि तुम्हारा कृत्य पूर्व-निर्धारित है--क्योंकि तुम्हारा कृत्य बस एक छोटा सा भाग है और सारा इतिहास एक प्रबल जीवंत शक्ति है। तुम इसका निर्धारण नहीं कर सकते हो यह तुम्हारा निर्धारण करेगा।
यही कारण है कि मार्क्स ने कहा है : समाज की परिस्थितियों का निर्धारण चेतना नहीं करती है। यह समाज ही है और समाज की परिस्थितियां हैं जो चेतना का निर्धारण करती हैं। ऐसा नहीं है कि महान व्यक्तियों ने महान समाज निर्मित किए हों। मार्क्स कहता है ये महान समाज ही हैं जिन्होंने महान लोगों का निर्माण किया है। और एक अर्थ में वह सही है क्योंकि जहां तक कृत्यों का संबंध है तुम उनके मालिक नहीं हो। सारा इतिहास उनका मालिक है। तुम तो केवल किसी चीज को लिए हुए हो।
उदाहरण के लिए तुम्हारे भीतर जैविक कोशिकाएं हैं। वे व्यक्ति बन सकती हैं लेकिन वे कोशिकाएं तुम्हारी नहीं। वे तुमको दी गई हैं, किसी एक के द्वारा नहीं, बल्कि सारे जीवशास्त्रीय विकास के द्वारा। सारे विकास ने तुम्हारी जैविक कोशिका को बनाया है, जो किसी बच्चे को जन्म दे सकती है। तो तुम इस आनंददायक अज्ञान में जीते रह सकते हो कि तुम एक पिता हो, तुम केवल एक माध्यम थे जिसके द्वारा सारे इतिहास ने यह खेल खेला है सारे जीवशास्त्रीय विकास ने यह खेल खेला है और तुम्हें ऐसा करने के लिए बाध्य कर दिया है। यही कारण है कि कामवासना इतनी प्रबल है। यह तुम से परे है। तो यह एक ढंग है कि कृत्य किस प्रकार से अतीत के कृत्यों से, अतीत से संबंधित होकर घटित हुआ करते हैं। लेकिन जब कोई व्यक्ति संबुद्ध हो जाता है तो एक नई घटना घटित होने लगती है। उसका कोई कृत्य अतीत के कृत्यों से जुड़ा हुआ नहीं होता, उसका प्रत्येक कृत्य उस व्यक्ति से उसकी चेतना से जुड़ा हुआ होता है। अब यह कृत्य उसकी चेतना से आता है। यह उसके अतीत के कृत्यों से नहीं आता है। यही कारण है कि तुम उसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकते हो--जब कि उसके पिछले कृत्यों की तुम्हें जानकारी है। अगर मैंने तुम्हें अनेक परिस्थितियों में क्रोधित होते हुए देखा हो, तो मैं यह भविष्यवाणी कर सकता हूं कि इस परिस्थिति में तुम क्रोधित हो जाओगे।
स्किनर कहता है कि हम निर्धारित कर सकते हैं, मैंने तुम्हारी प्यास को जान लिया है, तो इस प्यास को निर्मित किया जा सकता है। स्किनर कहता है कि अब पुरानी कहावत गलत हो चुकी है, कि तुम घोड़े को नदी तक ला सकते हो लेकिन तुम उसे पानी पीने के लिए बाध्य नहीं कर सकते हो। स्किनर कहता है कि हम घोड़े को पानी पीने के लिए बाध्य कर सकते हैं। हम वैसी परिस्थिति निर्मित कर सकते हैं। हम परिस्थिति का निर्माण कर सकते हैं हम सारे माहौल को इतना गर्म कर सकते हैं कि घोड़े को पानी पीना ही पड़े। और हम जानते हैं कि वह कब पानी पीता है इसलिए हम परिस्थिति का निर्माण कर सकते हैं और कृत्य हो जाएगा।
इसीलिए मैं कहूंगा हां, वह कहावत गलत हो चुकी है कि तुम घोड़े को नदी तक ला सकते हो, लेकिन तुम उसे पानी पीने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। घोड़े को मजबूर किया जा सकता है और तुम्हें भी मजबूर किया जा सकता है, क्योंकि तुम्हारे कृत्य परिस्थिति से निर्मित होते हैं। लेकिन मैं कहता हूं कि तुम किसी बुद्धपुरुष को नदी तक ला सकते हो, पर तुम उसे पानी पीने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। वस्तुत: जितना तुम उसे बाध्य करते हो उतना ही यह असंभव होता चला जाता है, ठीक उसका उलटा हो जाएगा। वह पानी पी सकता है, लेकिन अगर तुम उसे बाध्य करोगे, तो वह नहीं पीएगा। कोई गर्मी काम नहीं आएगी, अगर तुम उसके चारों ओर हजार सूरज भी ले आओ, तो उनसे भी मदद नहीं मिलेगी, इससे मदद न होगी। बल्कि इसके विपरीत यह असंभव हो जाएगा, और-और असंभव हो जाएगा--क्योंकि अब इस व्यक्ति के पास अपने कृत्यों के लिए एक अलग ही स्रोत है। यह दूसरे कृत्यों से संबंधित नहीं है, यह चेतना से सीधे ही जुड़ा हुआ है।
यही कारण है कि मेरा जोर इस बात पर इतना अधिक रहता है सचेतन रूप से कृत्य करो। तब धीरे-धीरे जब तुम सचेतन रूप से कृत्य करते हो, तो तुम्हारे कृत्य अपने संपूर्ण संगठन को बदल देते हैं, पूरी संरचना अलग हो जाती है। यह कृत्य चेतना से जुड़ जाता है, अन्य कृत्यों से नहीं। तब तुम मुक्त हो। अब हर पल तुम कृत्य करते हो, तब ऐसा नहीं होता कि पिछले कृत्यों से नये कृत्य का जन्म हो। तुम कृत्य करते हो। तुम कृत्य करना शुरू कर देते हो और कोई कह नहीं सकता कि तुम कैसे कृत्य करोगे। क्योंकि आदतें यांत्रिक होती हैं, चेतना नहीं। आदतें यांत्रिक हैं और ऐसा कहने से मेरा अभिप्राय यह है कि आदतें अपने आप को दोहराती हैं। और तुम जितना अधिक उन्हें दोहराते हो, दोहरा कर तुम उतने ही अधिक दक्ष हो जाते हो।
इसलिए इस बात को समझ लिया जाना चाहिए तुम किसी चीज को जितनी बार दोहराओगे तुम उतने ही अधिक कार्यकुशल हो जाआगे और कार्यकुशल हो जाने से तुम्हारा क्या अभिप्राय है? कार्यकुशल हो जाने का अर्थ है कि अब चेतना की जरूरत न रही। कोई व्यक्ति है जो एक कुशल टाइपिस्ट है तो कुशल टाइपिस्ट से तुम्हारा क्या अभिप्राय है? तुम्हारा अभिप्राय है कि अब उसे किसी सचेतन प्रयास की आवश्यकता नहीं है। वह यह कार्य अचेतन रूप से यहां तक कि बंद आंखों से भी कर सकता है। वह कुछ और सोचते हुए भी टाइप करता रह सकता है वह गीत गा सकता है, वह धूम्रपान कर सकता है और टाइप करना जारी रहता है। अब टाइप करना शरीर के अचेतन केंद्र में चला गया है। अब शरीर टाइप कर रहा है उस व्यक्ति की जरूरत न रही। यही दक्षता है। दक्षता का अभिप्राय है कि यह कार्य इतना सुनिश्चित है कि कोई गलती संभव न रही। स्वतंत्रता में गलती की संभावना है। कोई यंत्र गलती नहीं कर सकता है। क्योंकि गलती करने के लिए व्यक्ति को चेतन होना पड़ता है।
इसलिए कृत्य तुम्हारे पिछले कृत्यों से श्रृंखला के रूप में संबंधित हो सकते हैं। तब वे पूर्व-निर्धारित होते हैं। तब तुम्हारा बचपन तुम्हारी युवावस्था को निर्धारित करता है, और तुम्हारी युवावस्था तुम्हारी वृद्धावस्था को निर्धारित करती है और प्रत्येक बात पूर्व- निर्धारित होती है। तुम्हारा जन्म तुम्हारी मृत्यु का निर्धारण करता है। बुद्ध लगातार कहते रहे, उन्होंने अनेक बार दोहराया 'ऐसा कर दो, तो यह हो जाता है। कारण को उत्पन्न करो और प्रभाव वहां आ जाएगा।' यह कारण और परिणाम का संसार है जिसमें हर चीज सुनिश्चित है। चाहे तुम इसे जानते हो या तुम इसे न जानते हो।
कृत्यों का दूसरा एकीकरण चेतना के साथ होता है। तब यह क्षण प्रतिक्षण घटित होता है क्योंकि चेतना एक प्रवाह है। यह कोई रुकी हुई चीज नहीं है। यह अपने आप में जीवन है। यह बदलती है। यह जीवित है। यह विस्तीर्ण होती चली जाती है। यह नवीन ताजी युवा होती रहती है। यह कभी अतीत नहीं होती है। यह सदा वर्तमान है, इसलिए कृत्य सहजस्फूर्त होगा।
मुझे एक झेन कथा याद आती है। एक झेन गुरु अपने शिष्य से एक खास प्रश्न पूछता है। प्रश्न का उत्तर ठीक उसी ढंग से दिया गया जैसे कि दिया जाना चाहिए था।
अगले दिन गुरु ने वही प्रश्न पूछा, दुबारा वही प्रश्न और शिष्य ने कहा 'लेकिन मैं इस प्रश्न का उत्तर कल दे चुका हूं मैंने इसका उत्तर दे दिया है।'
गुरु ने कहा 'अब मैं तुम से पुन: पूछ रहा हूं।' शिष्य ने वही उत्तर दोहरा दिया। गुरु ने कहा, 'तुम नहीं जानते हो।'
किंतु शिष्य ने कहा 'पर कल मैंने इसी प्रकार उत्तर दिया था और ये शब्द भी ठीक वही हैं--और आपने अपना सिर सहमति में हिलाया था। और मैंने समझा था कि उत्तर सही था। लेकिन अब आपने अपना मन क्यों बदल लिया है?'
गुरु ने कहा कोई भी बात जिसे दोहराया जा सके वह तुमसे नहीं आ रही है। कोई भी बात जिसे दोहराया जा सकता है वह तुम से नहीं आ रही है। यह उत्तर तुम्हारी स्मृति से आया है तुम्हारी चेतना से नहीं। स्मृति अतीत की है। अगर तुमने वास्तव में जाना होता तो उत्तर अलग हो गया होता क्योंकि इतना कुछ विदा हो गया है, इतना कुछ बदल चुका है। मैं वही व्यक्ति नहीं हूं जिसने तुमसे उस दिन पूछा था। मेरा रंग-ढंग बदल गया है मेरी आंखें बदली हुई हैं, सारी परिस्थिति बदली हुई है। तुम बदले हुए हो, लेकिन उत्तर वही का वही है। तुम्हें उत्तर पता नहीं है। और बस यही देखने के लिए कि क्या तुम उसी उत्तर को दोहराओगे, मुझे दुबारा पूछना पड़ गया है। कुछ भी पुनरुक्त नहीं किया जा सकता है।
तुम जितना अधिक जीवंत होगे उतना ही तुम कम दोहराओगे। केवल एक मरा हुआ व्यक्ति ही संगत हो सकता है। जीवन असंगतता है, क्योंकि जीवन स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता संगत नहीं हो सकती है। किसके साथ संगत होना है--अतीत के साथ?
इसलिए संबुद्ध व्यक्ति केवल अपनी चेतना के साथ संगत हो सकता है, वह कभी अतीत के साथ संगत नहीं होता है। वह सदा अपने कृत्य के साथ पूर्ण रूप से रहता है। कुछ भी पीछे नहीं छोड़ा जाता है; कुछ भी पीछे नहीं छूटता है। वह पूरी तरह से इसमें होता है, किंतु यह क्षण भर के लिए है, यह क्षणिक है। अगले ही पल कृत्य विदा हो चुका है चेतना दुबारा वापस लौट गई है। जब कोई परिस्थिति आती है, तो यह दुबारा सक्रिय हो जाएगी और फिर से यह कृत्य भी अतीत से मुक्त होगा जैसे कि यह व्यक्ति पहली बार इस परिस्थिति का सामना कर रहा हो, यह परिस्थिति पहले कभी भी उसके सामने नहीं आई थी।
यही कारण है कि मैंने हां और न दोनों कहा है। यह तुम पर निर्भर करता है—कि तुम एक चेतना हो या तुम बस एक मिल जुल कर बना हुआ शारीरिक अस्तित्व ही हो।
धर्म स्वतंत्रता देता है क्योंकि धर्म चेतना देता है। विज्ञान और-और परतंत्रता की ओर बढ़ता चला जाएगा क्योंकि विज्ञान का पदार्थ से संबंध है। इसलिए पदार्थ के बारे में विज्ञान जितना अधिक जानता चला जाएगा उतना ही संसार को परतंत्र बनाया जा सकेगा। क्योंकि यह सारा मामला कारण और प्रभाव का है। यदि वे जानते हैं कि ऐसा करने पर वैसा हो जाता है तब प्रत्येक बात का पूर्व-निर्धारण किया जा सकता है।
जल्दी ही बहुत जल्दी इस सदी के पूरा होने से पहले ही हम देख लेंगे कि मानव- जाति को अनेक उपायों से नियंत्रित किया जा रहा है। इसका पूर्व-निर्धारण पहले से ही किया जा चुका है। अब सरकार अच्छी तरह से जानती है कि तुम्हें कैसे नियंत्रित किया जाए किस भांति तुम्हारे भीतर प्रतिक्रिया को उत्पन्न किया जाए एक कारण को कैसे निर्मित किया जाए और प्रतिक्रिया उत्पन्न हो जाएगी। अब जो सबसे बड़ा दुर्भाग्य संभव हो सकता है वह कोई हाइड्रोजन बम नहीं है। यह तो केवल नष्ट कर सकता है। वास्तविक दुर्भाग्य मनोविज्ञानों के द्वारा आएगा। और वह यह होगा कि मनुष्य को पूरी तरह से नियंत्रित कैसे किया जाए। और इसे नियंत्रित किया जा सकता है, क्योंकि हम चेतन नहीं हैं--इसलिए हमारे व्यवहार को निर्धारित किया जा सकता है। अभी भी जैसे हम हैं, हमारे बारे में सभी कुछ निर्धारित है। कोई व्यक्ति हिंदू है, यह पूर्व-निर्धारण है। यह स्वतंत्रता नहीं है। कोई व्यक्ति मुसलमान है यह पूर्व-निर्धारण है।
माता-पिता निश्चित कर रहे हैं, समाज निश्चित कर रहा है। कोई व्यक्ति डॉक्टर है और कोई व्यक्ति इंजीनियर है--यह पूर्व-निर्धारण है। किसी ने निर्धारित कर दिया है।
तो इस तरह हमें लगातार निर्धारित किया जा रहा है, लेकिन अब भी हमारे उपाय बहुत आदिम हैं। लेकिन अब नये उपाय इतनी कुशलता से मनुष्य का पूर्व-निर्धारण कर सकते हैं कि अब वस्तुत: यह कहा जा सकता है कि कोई आत्मा नहीं होती है। अगर तुम्हारी हर प्रतिक्रिया का प्रत्येक प्रतिक्रिया का पूर्व-निर्धारण किया जा सकता हो, तो अपने आप को आत्मा कहने का क्या मतलब है?
यह सभी कुछ शरीर के रसायन के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। अगर तुम्हें अल्कोहल पिला दी जाए, तुम और ढंग से व्यवहार करोगे। तुम्हारे शरीर का रसायन बदल गया है इसलिए तुम और ढंग से व्यवहार करोगे। तुम्हारे व्यवहार का निर्धारण अल्कोहल का उपयोग करके किया जा सकता है।
प्राचीनकाल में तंत्र-विज्ञान में साधक की परीक्षा करने का परम उपाय था उसे नशीले पदार्थ दे देना और यह देखना कि क्या वह अब भी सचेत है नशीले पदार्थ लेकर भी क्या वह सचेत है। अगर कोई अभी भी चेतन है, जब कि उतने पदार्थ का सेवन करके कोई भी अचेतन हो जाता, केवल तब तंत्र-विज्ञान कहेगा कि यह व्यक्ति परम जागरण को उपलब्ध हो गया है अन्यथा नहीं-- क्योंकि अगर शरीर का रसायन तुम्हारी चेतना को बदल दे तो ऐसी चेतना का क्या अर्थ हुआ? अगर केवल एक इंजेकशन तुम को अचेतन कर सकता है तो ऐसे चेतन रहने का क्या मतलब हुआ? तब वह इंजेकशन, वह रासायनिक द्रव्य तुम्हारी खुद की चेतना से, तुम्हारी आत्मा और तुम्हारे सभी कुछ से अधिक महत्वपूर्ण अधिक शक्तिशाली है। इसलिए यह बहुत साहसपूर्ण प्रयोग था, लेकिन ऐसा संभव है यह संभव है कि हरेक नशीले पदार्थ के प्रभाव का अतिक्रमण कर लिया जाए और चेतन रहा जाए। तुम को उत्तेजक पदार्थ दे दिया गया है लेकिन वहां पर उससे किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं हो रही है, कारण निर्मित कर दिया गया है लेकिन प्रभाव नहीं हो रहा है।
प्रत्येक ढंग से प्रत्येक क्षण में प्रत्येक कृत्य में और-और सचेत होकर कार्य करो। लेकिन अगर बाहर से कुछ दे दिया जाए तो हम और सजग हो जाते हैं भीतर कुछ प्रवाहित हो जाता है लेकिन भीतर से हम सजग नहीं हैं। उदाहरण के लिए कामवासना। यह तो बस... बस एक रासायनिक घटना है शरीर में प्रवाहित होते हुए कुछ हार्मोंस। एक विशेष हार्मोन की एक विशेष मात्रा तुम्हारे भीतर कामेच्छा को उत्पन्न कर देती है। जब यह हार्मोन निर्मित होता है तो तुम वहां पर नहीं रहते। तुम वासना बन जाते हो। जब वह हार्मोन विदा हो जाएगा, तो तुम पछता सकते हो, जब शरीर के रासायनिक द्रव्यों का अनुपात अपनी सामान्य अवस्था में लौट आएगा, तो तुम पछता सकते हो परंतु यह पछतावा अर्थहीन है। यह पछतावा अर्थहीन है, क्योंकि दुबारा से वे हार्मोंस वहां आ जाएंगे और तुम वही कृत्य करोगे। तंत्र-विज्ञान ने कामवासना के साथ भी कार्य किया है पूरी परिस्थिति को निर्मित कर दिया जाए और फिर भी कोई कामेच्छा उत्पन्न न हो तब तुम मुक्त हो। अब शरीर पर रसायनों के प्रभाव की अवस्था बहुत पीछे छूट चुकी है। अब शरीर तो वहां पर होगा, परंतु तुम शरीर नहीं हो।
क्रोध भी एक रासायनिक घटना है और कुछ भी नहीं है। इसलिए जल्दी ही रसायनशास्त्री विशेष रूप से जैव-रसायन के विशेषश तुम्हें क्रोध-रोधक बना देंगे। जैसे कि जल-रोधक होता है इसी तरह से आदमी को क्रोध-रोधक या कामवासना-रोधक बनाया जा सकता है। तुम्हारे शरीर के रसायनों में थोड़ा बहुत परिवर्तन किया जा सकता है और तुम क्रोध-रोधक हो जाओगे, किंतु तुम बुद्धपुरुष नहीं होओगे क्योंकि अंतर बना रहेगा।
बुद्ध क्रोध करने में असमर्थ नहीं थे--वे क्रोध कर सकते थे। कारण उत्पन्न कर दो और जैव-वैज्ञानिक प्रभाव वहां नहीं होगा--तुम क्रोध कर पाने में असमर्थ हो जाओगे। क्योंकि जैव-रासायनिक अवस्था वहां पर नहीं है, इसलिए प्रभाव भी वहां नहीं है।
अगर तुम्हारे कामवासना वाले हार्मोंस शरीर से हटा दिए जाए, तो तुम कामुक नहीं होओगे लेकिन ऐसा नहीं है कि तुम वासना के पार चले गए हो। इसलिए असली बात यह है कि उस परिस्थिति में किस प्रकार से होशपूर्ण हुआ जाए जहां तुम्हारी बेहोशी की जरूरत होती है उस अवस्था में कैसे चेतन हुआ जाए जो हमेशा अचेतनता में घटित होती है।
इसलिए जब कभी भी ऐसी परिस्थिति हो उसमें ध्यान करो। तुमको एक महान अवसर दिया गया है। अगर तुम ईर्ष्या को अनुभव करते हो तो उस दशा में ध्यान करो क्योंकि यही उचित समय है। तुम पर शरीर का रसायन शास्त्र कार्य कर रहा है। यह तुम्हें अचेतन कर देगा तुम इस तरह से व्यवहार करोगे जैसे कि तुम पागल हो। अब चेतन हो जाओ। ईर्ष्या को वहां रहने दो उसका दमन मत करो। ईर्ष्या को होने दो लेकिन चेतन हो जाओ इसके साक्षी हो जाओ।
क्रोध वहां पर है इसके साक्षी हो जाओ। कामवासना वहां पर है उसके साक्षी हो जाओ। शरीर जो कुछ भी करता हो और जो भी हो रहा हो उसे होने दो। इस सारी परिस्थिति में ध्यान करना शुरू कर दो। और धीरे-धीरे तुम्हारी जागरूकता जैसे-जैसे गहराती है, तुम्हारे व्यवहार के पूर्व-निर्धारण की संभावना उतनी ही कम होती जाती है। तुम मुक्त हो जाते हो। और मोक्ष स्वतंत्रता का अभिप्राय इसके अलावा और कुछ भी नहीं है। इसका अर्थ है कि बस एक चेतना है जो इतनी मुक्त है कि कोई भी इसका पूर्व-निर्धारण नहीं कर सकता है।

और जो कुछ तुम पूछना चाहो पूछ सकते हो।

ओशो क्या आप समझा सकते हैं कि दिव्य प्रेम क्या है?या कि दिव्य ढंग से अनुभव किया गया प्रेम क्या है?

पहले प्रश्न को देखो--क्या यह प्रश्न इसी क्षण उठा है या प्रश्न तुम्हारे मन में पहले से ही तैयार था, तुम बस इसको पूछने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
यह तैयार रखा था--क्योंकि यह ठीक अभी नहीं उठ सकता है इसलिए यह पूर्व- निर्धारित है। यह तैयार था। तुमने इसे पूछने का निश्चय कर रखा था। यह पूछे जाने की प्रतीक्षा कर रहा था। यह तुम्हें पूछे जाने के लिए बाध्य कर रहा था। इसलिए तुम्हारी स्मृति ने इसे पूछने का निर्णय लिया है, तुम्हारी चेतना ने नहीं। अगर तुम इसी क्षण में चेतन हो तो यह प्रश्न इस तरह से नहीं आ सकता था। इसने पूरी तरह से अलग आकार ले लिया होता। यह गुणात्मक रूप से अलग हो गया होता क्योंकि मैं जो कुछ भी कह रहा हूं अगर तुम यहां पर होते, इसी समय में पूरी तरह से उपस्थित होते तो ऐसे प्रश्न का पूछा जाना असंभव हो गया होता।
और दूसरी बात अगर यह प्रश्न तुम्हारे भीतर मौजूद था, तो सुन पाना असंभव है, क्योंकि यह प्रश्न लगातार भीतर से द्वार खटखटाता होगा जिससे कि उसे पूछे जाने का एक अवसर मिल पाए उसको पूछ लिया जाए। इसलिए यह प्रश्न जो मन में सतत रूप से मौजूद था एक तनाव निर्मित कर देगा और इस तनाव के कारण तुम यहीं पर मौजूद नहीं हो पाओगे। और यही कारण है तुम्हारी चेतना स्वतंत्रता पूर्वक अपने आप से कार्य नहीं कर पाती है। यह प्रश्न मानसिक बंधन से आता है। इसलिए पहले इस बात को समझ लो, और फिर हम प्रश्न को ले सकते हैं।
प्रश्न अपने आप में बुरा नहीं है। यह अच्छा है बहुत अच्छा है लेकिन इसके साथ कार्य करता हुआ तुम्हारा मन बीमार है। इसलिए क्षण-क्षण होश बना रहना चाहिए, केवल कृत्यों में नहीं बल्कि प्रश्न पूछने में भी, और हर भाव- भंगिमा में। अगर मैं इस अंगुली को उठाता हूं तो इसमें दोनों बातें हो सकती हैं। यह बस एक आदत भी हो सकती है। अगर यह केवल एक आदत भर है तब मैं किसी भी प्रकार से अपने शरीर का मालिक नहीं हूं। यह किसी ऐसी बात की सहज स्फूर्त अभिव्यक्ति हो सकती है जो ठीक इसी समय मेरी चेतना में उपस्थित है तब यह बिलकुल अलग ही बात है।
अगर तुम किसी ईसाई धर्म-प्रचारक के पास जाते हो तो उसकी हर भाव-भंगिमा पूर्व-निर्धारित है। उसे सिखा दिया गया है। वह एक प्रशिक्षण से होकर गुजरा है। एक बार मैं एक थियोलॉजिकल कॉलेज धर्मशास्त्रीय महाविद्यालय में था एक क्रिश्चियन थियोलॉजिकल कॉलेज ईसाई धर्मशास्त्रीय महाविद्यालय, तो मैंने बस ऐसे ही इधर-उधर घूम कर देखा। वे उपदेशकों को प्रशिक्षित कर रहे थे यह पांच साल का पाठयक्रम था, और सीख कर वे डी. डी. हो जाएंगे। डी. डी. का अर्थ है डॉक्टर ऑफ डिवनिटी। बेहूदी बात है! कोई भी डॉक्टर ऑफ डिवनिटी नहीं हो सकता है। और अगर तुम डॉक्टर ऑफ डिवनिटी हो भी जाओ तो कुछ भी नहीं हुआ इसका कोई महत्व नहीं है। पांच साल के पाठयक्रम को पूरा कर के व्यक्ति डॉक्टर ऑफ डिवनिटी बन सकता है। कोई व्यक्ति डॉक्टर ऑफ केमिस्ट्री तो बन सकता है, यह उचित है। इसका कुछ अर्थ भी निकलता है। लेकिन डॉक्टर ऑफ डिवनिटी, निपट पड़ता है यह।
तो मैं चारों ओर घूमा और मैंने देखा कि वहां पर हर बात पढ़ाई जा रही है। उन्हें हर बात में प्रशिक्षित किया जा रहा था मंच पर किस प्रकार से खड़ा होना है अपनी बात को किस प्रकार से शुरू करना है, भजन को कैसे गाना है, श्रोताओं की ओर किस तरह से देखना है, कहां पर रुक जाना है और कहा पर एक अंतराल कर देना है और फिर एक खालीपन। सभी कुछ! ऐसा नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा घटित होता है, तो यह एक दुर्भाग्य है।
इसलिए सजग रहो कि प्रश्न मौजूद था लगातार मन का द्वार खटखटा रहा था। तुम मुझे जरा भी नहीं सुन रहे थे। जो कुछ भी कहा जा रहा था उसे सुना नहीं जा रहा था--और ऐसा केवल इस प्रश्न के कारण हो रहा था। और एक बात और जब मैं तुम्हारे प्रश्न के बारे में बात कर रहा होऊंगा तो यही मन दूसरा प्रश्न निर्मित कर लेगा। और वह प्रश्न तुम्हारे मन के द्वार को खटखटाना जारी रखेगा। और तुम फिर से चूक जाओगे क्योंकि मन एक यांत्रिक ढंग से पुनरुक्ति करता रहता है। यह तुम्हारे लिए एक और प्रश्न बना देगा। और ऐसा केवल व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे लिए ही नहीं है। ऐसा सभी के साथ होता है। इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता है कि तुमने प्रश्न पूछा है और दूसरे लोगों ने प्रश्न नहीं पूछा है। इस बात से जरा भी अंतर नहीं पड़ता है।
अब प्रश्न। मेरे लिए यह कहना कठिन है कि दिव्य प्रेम जैसी कोई चीज होती है क्योंकि प्रेम दिव्य है। यह जब भी कहीं होता है दिव्य ही होता है, जहां कहीं भी यह होता है यह दिव्य होता है। इसलिए 'दिव्य प्रेम' कहना अर्थहीन है। प्रेम दिव्य है। लेकिन हम चालाक हैं मन चालाक है। यह कहता है 'हम जानते हैं कि प्रेम क्या है। बस हम यह नहीं जानते कि दिव्य प्रेम क्या है।'
हम प्रेम को भी नहीं जानते हैं। प्रेम सर्वाधिक अनजानी चीजों में से एक है। इसके बारे में बहुत अधिक बातचीत होती है--लेकिन कभी प्रेम को जीया नहीं जाता है। और वास्तव में यह मन की एक तरकीब है। जिस चीज को हम जी नहीं सकते हैं उसके बारे में और-और अधिक बातचीत किया करते हैं।
इसलिए प्रेम ही एकमात्र केंद्र है जिसके चारों ओर साहित्य संगीत, काव्य, नृत्य घूमते हैं--सभी कुछ इसी के चारों ओर घटित होता है। और भीतर वहां पर कुछ भी नहीं है। अगर असलियत में प्रेम होता तो इसके बारे में कोई बातचीत न होती। हम केवल उन्हीं चीजों के बारे में बातचीत किया करते हैं जिनकी हमारे पास कमी होती है। प्रेम के बारे में इतनी अधिक बातचीत का मतलब है कि प्रेम का अस्तित्व नहीं है। मन इसी तरह से कार्य करता है। हम उन चीजों के बारे में बात करते हैं जो नहीं हैं। हम कभी उन चीजों के बारे में बात नहीं करते जो हैं। उन चीजों के बारे में जो नहीं हैं यह बातचीत बस एक परिपूरक विधि है। वह जो नहीं है--हम बातचीत से, भाषा से, प्रतीकों से, कला से उसका एक भ्रम निर्मित कर लेते हैं। हम एक छाया--अस्तित्व, एक भ्रम निर्मित कर लेते हैं कि वह चीज वहां पर है। तुम प्रेम के बारे में बहुत अच्छी कविता लिख सकते हो और हो सकता है कि तुमने प्रेम को जरा भी न जाना हो। और यह संभव है कि वह व्यक्ति जिसने प्रेम को न जाना हो, एक बेहतर कविता लिख सके क्योंकि उसके भीतर अभाव कहीं ज्यादा गहरा है, इसे भरा जाना है, उसका विकल्प चाहिए। इसलिए पहली बात, प्रेम का अभाव है, प्रेम वहां पर नहीं है।
इसलिए यह समझ लेना बेहतर रहेगा कि प्रेम क्या है, क्योंकि जब तुम पूछते हो कि दिव्य प्रेम क्या है तो ऐसा लगता है कि प्रेम को जान लिया गया है। प्रेम को नहीं जाना गया है। प्रेम की तरह जिस को जाना गया है वह कुछ और है। और सच्चे की ओर, वास्तविक की ओर कदम बढ़ाने से पहले उस नकली को जान लिया जाना चाहिए।
प्रेम के रूप में जो जाना गया है वह प्रेम नहीं है, बल्कि आसक्ति है। आसक्ति! यह आसक्ति पशुओं में नहीं पाई जाती है, इसलिए हम सोचते हैं यह प्रेम कुछ मानवीय है, क्योंकि पशु ऐसा कुछ भी नहीं जानते हैं...प्रेम जैसी कोई बात--वे कामवासना को जानते हैं। लेकिन यही समस्या है। पशुओं को प्रेम जैसी किसी चीज का कोई पता नहीं होता, वे कामवासना को अच्छी तरह से जानते हैं। इसलिए क्या मनुष्य के मन के लिए प्रेम कोई नई चीज है? क्या उसकी समझ में कुछ चूके हैं।
एक चूक यह है। तुम किसी को प्रेम करने लगते हो, अगर वह तुम्हें पूरी तरह से मिल जाए तो जल्दी ही प्रेम मर जाएगा। अगर वहां कुछ रुकावटें हों और तुम उस व्यक्ति को न पा सको जिसे तुम प्रेम करते हो, जिसे तुम प्रेम करते हो वह तुम को न मिल पाए तो प्रेम बढ़ने लगेगा। यह प्रगाढ़ हो जाएगा। जितनी अधिक रुकावटें होंगी और अवरोध होंगे, उतना ही तुम्हारा अहंकार कुछ करने के भाव से भर जाता है। यह अहंकार की समस्या बन जाता है। एक तनाव निर्मित हो जाता है। अहंकार सक्रिय हो जाता है और तनाव को जीने लगता है। जितना अधिक तुम्हें इनकार किया जाता है, उतना अधिक तनाव, अधिक जटिलता, अधिक आसक्ति। इसे, इस तनाव को तुम प्रेम कहते हो। यही कारण है कि अगर तुम्हारी प्रेमिका के साथ तुम्हारा विवाह हो जाए तो हनीमून समाप्त होने पर प्रेम भी समाप्त हो जाता है। बल्कि उससे पहले ही क्योंकि जो कुछ भी प्रेम की तरह तुमने जाना था वह प्रेम नहीं था। वह केवल आसक्ति थी, अहंकार की आसक्ति अहंकार का तनाव--एक संघर्ष एक कलह द्वेष, आक्रामकता अलगाव।
पुराने मानव समाज पहले के मानव समाज बहुत चालाक थे। उन्होंने तुम्हारे प्रेम
को लंबे समय तक बनाए रखने के उपायों का अविष्कार कर लिया था। इसलिए अगर कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को दिन के समय न देख पाए, तो प्रेम लंबे समय तक चलेगा। अगर वह उससे, अपनी पत्नी से भी अक्सर मिल न पाए, अगर उसकी अपनी स्वयं की पत्नी से मुलाकात न हो पाती हो, तो उसके भीतर पत्नी के प्रति भी एक आसक्ति और तनाव निर्मित हो जाता है। तब एक व्यक्ति अपने पूरे जीवन भर एक पत्नी के साथ बना रह सकता है। और वह ईश्वर से प्रार्थना करता हुआ मर भी सकता है कि उसे दुबारा यही पत्नी प्रदान की जानी चाहिए।
पश्चिम में अब विवाह और अधिक नहीं टिक सकता है। यह कुछ ऐसा नहीं है कि पश्चिमी मन अधिक कामुक है। नहीं। एक मात्र बात यह है आसक्ति को एकत्रित नहीं होने दिया जाता है। काम-संबंध इतनी आसानी से उपलब्ध है कि विवाह का अस्तित्व टिक नहीं सकता। इस प्रकार की स्वतंत्रता के साथ प्रेम का भी अस्तित्व नहीं रह पाता है। अगर तुम एक पूरी तरह से मुक्त यौन वाला समाज बना सको, तो केवल कामवासना बनी रह सकती है। और यह उस तल पर पहुंच जाएगी जहां पर पशु हैं। ऐसा कहने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि तुम किसी और अवस्था में हो, तुम बस सोचते हो कि तुम किसी और तल पर हो, पर तल वही बना रहता है। यह सारी बात काल्पनिक है।
इस आसक्ति से ऊब निर्मित हो ही जानी है क्योंकि ऊब दूसरा पहलू है यह आसक्ति का दूसरा पक्ष है। अगर तुम किसी को प्रेम करते हो और अपने प्रिय पात्र को न पा सको तो आसक्ति गहरे में चली जाती है। अगर तुम्हें अपना प्रिय पात्र मिल जाए, तो दूसरा पहलू सामने आ जाता है। तुम ऊब, बोझिलता अनुभव करने लगते हो। और बहुत से द्वैत हैं आसक्ति-ऊब प्रेम-घृणा, आकर्षण-विकर्षण। आसक्ति के साथ तुम आकर्षण अनुभव करोगे तुम प्रेम अनुभव करोगे। ऊब के साथ तुम विकर्षण अनुभव करोगे तुम घृणा अनुभव करोगे। इसी तरह से घटनाएं घटती रहती हैं।
कोई भी आकर्षण प्रेम नहीं हो सकता है क्योंकि बाद में विकर्षण को आना ही है। चीजों का यही स्वभाव है। दूसरा पहलू सामने आ जाएगा। अगर तुम नहीं चाहते हो कि दूसरा पहलू आ जाए, तो तुम्हें रुकावटें निर्मित करनी पड़ेगी ऐसी रुकावटें जिनके कारण आसक्ति कभी न समाप्त हो-- आसक्ति चलती रहे, जिससे कि दूसरे पहलू को न जाना जा सके। तुम्हें रोज के तनाव निर्मित करने पड़ते हैं तो यह आसक्ति जारी रहती है। पुरानी व्यवस्था के द्वारा प्रेम का यही रूप निर्मित किया गया है।
अब यह संभव नहीं हो पाएगा, और अगर ऐसा संभव नहीं हो सका, तो विवाह के साथ प्रेम भी मिट जाएगा। वस्तुत: पश्चिम में तो यह विदा हो ही रहा है, विदा हो चुका है। कामवासना बची हुई है। और तब जल्दी ही अकेली कामवासना भी खड़ी नहीं रह पाएगी। फिर यह बहुत यांत्रिक और बस शारीरिक तल की बन जाती है।
नीत्शे ने केवल सत्तर साल पहले घोषणा की थी कि ईश्वर मर गया है। लेकिन जो असली बात होने वाली है कि कामवासना मर गई है और इस सदी के साथ ही कामवासना पूरी तरह से मर जाएगी। मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि लोग कामवासना रहित हो जाएंगे। वे कामुक होंगे, लेकिन यह आसक्ति यह लगाव इसका बहुत अधिक महत्व दिया जाना यह मिट जाएगा। यह किसी और सामान्य कृत्य की तरह जैसे कि मूत्र-उत्सर्जन करना, या भोजन करना, या किसी भी काम की तरह का एक कार्य बन जाएगी। यह अर्थपूर्ण नहीं रह जाएगी। कामवासना अर्थपूर्ण बन गई थी उन रुकावटों और आसक्ति के कारण--और तुम इसे प्रेम कहा करते थे।
यह प्रेम नहीं है। यह रुकी हुई कामवासना है। बस रोक दी गई कामवासना है। तब प्रेम क्या है? प्रेम बिलकुल ही अलग आयाम है। वस्तुत: यह किसी भी तरह से कामवासना से संबद्ध नहीं है-- सच है यह बात। कामवासना भीतर आ सकती है नहीं भी आ सकती है लेकिन वास्तव में प्रेम कामवासना से जरा भी संबद्ध नहीं है। इसका अपना स्वयं का अस्तित्व है।
मेरे लिए प्रेम ध्यानपूर्ण मन का उप-उत्पादन है। वस्तुत: यह कामवासना से जुड़ा हुआ नहीं है यह ध्यान से जुड़ा हुआ है यह ध्यान से संबंधित है--क्योंकि तुम जितना अधिक मौन हो जाते हो, उतना ही अधिक तुम अपने साथ विश्रांतिपूर्ण हो जाते हो उतनी ही परितृप्ति तुम महसूस करते हो तुम्हारे अस्तित्व की एक नई अभिव्यक्ति प्रकट हो जाती है। तुम प्रेम करने लगते हो। किसी विशेष व्यक्ति से नहीं-- ऐसा हो सकता है विशेष तौर से ऐसा नहीं भी हो सकता है यह दूसरी बात है-- लेकिन तुम प्रेम करना आरंभ कर देते हो। यह प्रेम करना तुम्हारे होने का रंग-ढंग बन जाता है। लेकिन यहां पर दूसरा पहलू नहीं है। तब यह कभी विकर्षण में नहीं बदल सकता है क्योंकि यह आकर्षण है ही नहीं।
इस अंतर को तुम्हें स्पष्टता से समझ लेना चाहिए। जब मैं किसी के प्रति प्रेम में पड़ जाता हूं तो आमतौर से वास्तविक अनुभूति यह नहीं होती कि मेरी ओर से उसकी ओर प्रेम का प्रवाह होना शुरू हो जाए, वास्तविक अनुभूति यह होती है कि उस पर किस तरह से मालकियत कर ली जाए। ऐसा नहीं है कि मुझसे कुछ उसकी ओर जा रहा है। बल्कि यह एक अपेक्षा है कि उसके पास से मेरे पास कुछ आएगा। यही कारण है कि प्रेम मालकियत बन जाता है किसी व्यक्ति पर कब्जा कर लो जिससे कि तुम उससे कुछ प्राप्त कर सको। लेकिन वह प्रेम जिसकी मैं बात कर रहा हूं न तो मालकियत है और न उसमें अपेक्षाएं हैं। यह बस ऐसा है जैसा कि तुम व्यवहार करते हो। तुम इतने मौन हो गए हो कि यह मौन अन्य व्यक्तियों तक जाता है।
जब तुम क्रोधित होते हो तो क्रोध दूसरों तक जाता है। जब तुम घृणा में होते हो, तो घृणा दूसरों तक जाती है। जब तुम प्रेम में इस तथाकथित प्रेम में होते हो, तो तुम्हें अनुभव होता है कि प्रेम दूसरों तक जा रहा है। लेकिन तुम विश्वसनीय, भरोसा करने योग्य नहीं हो। इस क्षण वहां पर प्रेम है अगले क्षण वहां पर घृणा होगी। और ऐसा मत सोचो कि यह घृणा तुम्हारे प्रेम के विपरीत कोई चीज है यह उसी का आधारभूत अवयव है, उसी की श्रृंखला में है।
अगर तुमने किसी को प्रेम किया है तो तुम उससे घृणा भी करोगे। तुम भले ही इसे स्वीकार करने का या इसे कह पाने का या अपनी इस गलती को मान लेने का साहस न कर पाओ लेकिन तुम घृणा करते तो जरा प्रेम करने वालों को देखो। अगर वे साथ-साथ हैं तो वे लगातार संघर्ष में रहते हैं। लेकिन जब वे साथ-साथ नहीं होते हैं तो वे एक-दूसरे के बारे में गीत भी गा सकते हैं लेकिन जब वे एक साथ होते हैं, तो वे बस झगड़ते रहते हैं। वे अकेले नहीं रह सकते हैं वे एक साथ नहीं रह सकते हैं-- क्योंकि जब वे अकेले होते हैं तो दूसरे की कमी खलती है। आसक्ति निर्मित हो जाती है क्योंकि दूसरा मौजूद नहीं है तब आसक्ति वहां आ जाती है तब दोनों फिर से प्रेम को अनुभव करते हैं। जब दूसरा मौजूद होता है तो आसक्ति विदा हो जाती है वे घृणा को अनुभव करते हैं।
जिस प्रेम की मैं बात कर रहा हूं उसका अभिप्राय है कि तुम इतने अधिक मौन हो गए हो कि अब वहां पर न तो आकर्षण है और न ही विकर्षण है। वास्तव में वहां पर न प्रेम है और न घृणा है। वस्तुत: अब तुम जरा भी पर--उन्मुख नहीं हो जरा भी नहीं। दूसरा मिट चुका है तुम अपने साथ अकेले हो। एकांत की इस अनुभूति में प्रेम तुम पर बस एक सुगंध की भांति आता है। जब कोई एकांत में, पूरी तरह से एकांत में होता है तो उससे उठने वाली सुगंध का नाम प्रेम है।
दूसरे की मांग करना सदा कुरूप होता है। दूसरे पर निर्भर हो जाना सदा मालकियत करने का प्रयास होता है। दूसरे से कुछ मांगना, सदा बंधन और कष्ट और संघर्ष निर्मित करेगा। व्यक्ति ऐसा हो जो अपने आप में परितृप्त हो--ध्यान से मेरा यही अभिप्राय है। ध्यान है अपने आप में परितृप्त हो जाना। तुम एक वर्तुल बन जाते हो, अकेले। तब मंडल पूर्ण हो जाता है।
तुम दूसरों के साथ मंडल को पूरा करने की कोशिश कर रहे हो पुरुष स्त्री के साथ स्त्री पुरुष के साथ वर्तुल को पूरा करने की कोशिश में हैं। किन्हीं विशेष क्षणों में दो रेखाएं मिलती हैं लेकिन वे मिल भी नहीं पाती हैं और अलगाव होने लगता है और तुम फिर से आधे हो जाते हो। अगर तुम भीतर से समग्र हो जाओ, एक वर्तुल--परिपूर्ण परितृप्त बाहर की ओर जाती हुई कोई भी रेखा नहीं बाहर की ओर किसी दूसरे की ओर जाता हुआ कुछ भी नहीं भीतर एक पूर्ण वृत्त--तब तुम्हारे भीतर कुछ पुष्पित होने लगता है यही प्रेम है। तब जो कोई भी तुम्हारे निकट आता है, तुम उसे प्रेम करते हो। यह जरा भी एक कृत्य नहीं है। यह कुछ ऐसा नहीं है कि तुम उसको प्रेम करते हो। यह किसी भी तरह से एक कृत्य नहीं है। यह कुछ ऐसा है कि तुम्हारा अस्तित्व ही तुम्हारी उपस्थिति ही प्रेम है। प्रेम तुम्हारे द्वारा प्रवाहित होता है।
अगर तुम ऐसे किसी व्यक्ति से पूछो ' क्या आप मुझसे प्रेम करते हैं?' तो वह कठिन परिस्थिति में फंस जाएगा। वह नहीं कह सकता है ' मैं तुम से प्रेम करता हूं ' क्योंकि उसकी ओर से यह कोई कृत्य नहीं है। उसके लिए यह कुछ करना नहीं है। वह यह भी नहीं कह सकता 'मैं तुमसे प्रेम नहीं करता हूं,' क्योंकि वह प्रेम करता है। वस्तुत:
वह प्रेम ही है।
यह प्रेम सिर्फ उस स्वतंत्रता के साथ आता है, जिसकी मैं बात कर रहा हूं। इसलिए स्वतंत्रता तुम्हारी अनुभूति है और प्रेम तुम्हारे बारे में दूसरों की अनुभूति है। जब यह ध्यान भीतर घटित होता है, तो तुम्हें स्वतंत्रता की अनुभूति होती है--कि मैं स्वतंत्र हूं पूरी तरह से मुक्त। यह तुम्हारी स्वतंत्रता है, यह तुम्हारी अनुभूति है। कोई दूसरा इस स्वतंत्रता को अनुभव नहीं कर सकेगा क्योंकि यह कुछ बहुत भीतर की बात है। इसे कोई दूसरा व्यक्ति कैसे अनुभव कर सकता है? तुम्हारी स्वतंत्रता दूसरों के द्वारा अनुभव नहीं की जा सकती है। कभी-कभी तुम्हारा व्यवहार दूसरों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है क्योंकि वे कल्पना भी नहीं कर सकते कि तुम्हें क्या हो गया है। और एक प्रकार से तुम उनके लिए एक कठिनाई एक असुविधा हो जाओगे, क्योंकि तुम्हारे बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं जाना जा सकता है तुम क्या करोगे तुम क्या कहोगे अगले क्षण में क्या होने वाला है। कोई भी नहीं जान सकता है। तब तुम्हारे चारों ओर रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारे बारे में असहजता महसूस करने लगता है। दूसरों के द्वारा तुम्हारी स्वतंत्रता केवल इसी प्रकार से अनुभव की जा सकती है कि तुम उनके लिए असुविधाजनक हो गए हो। वे तुम्हारे साथ कभी विश्रांति में नहीं रह सकते हैं। यही एकमात्र अनुभूति है जो उन्हें तुम्हारे बारे में होती है, क्योंकि तुम कुछ भी कर सकते हो, तुम मुर्दा नहीं हो।
लेकिन तुम्हारी स्वतंत्रता को वे अनुभव नहीं कर सकते--और वे लोग उसे अनुभव भी कैसे कर सकते हैं? उन्होंने इसे कभी जाना भी नहीं है। उन्होंने कभी इसकी जिज्ञासा भी नहीं की है उन्होंने कभी इसका अन्वेषण नहीं किया है उन्होंने कभी इस प्रकार की कोई खोज नहीं की है। और वे इतने अधिक बंधनों में हैं कि वे इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते कि स्वतंत्रता क्या है। वे कटघरों में रह रहे हैं। उन्होंने खुले आकाश को जाना ही नहीं है इसलिए अगर तुम उनसे खुले आकाश की बात भी करो तो यह उनकी समझ में नहीं आएगी यह उन तक नहीं पहुंच पाएगी।
लेकिन तुम्हारे प्रेम को वे अनुभव कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने इसके लिए सदा और सदा मांग की है। अपने कटघरों में बंद रहते हुए भी अपने बंधनों में भी वे प्रेम की खोज करते रहे हैं। वास्तव में सारा बंधन उन्होंने ही निर्मित किया है क्योंकि वे प्रेम की मांग कर रहे थे। सारा बंधन उन्होंने ही निर्मित किया था--लोगों के साथ बंधन चीजों के साथ बंधन। वे केवल प्रेम की खोज के कारण ही इन बंधनों को निर्मित करते रहे थे।
इसलिए जब कभी कोई व्यक्ति मुक्त हो जाता है तो उसका प्रेम अनुभव किया जाता है। लेकिन तुम उसके प्रेम को करुणा की भांति अनुभव करोगे प्रेम की भांति नहीं, क्योंकि उसमें कोई उत्तेजना नहीं होगी। यह बहुत मद्धिम प्रकाश की भांति होगा--न कोई गर्मी, कोई उत्तप्तता भी नहीं। अगर हम कह सकें शीतल प्रकाश तो यह संबोधन उसके लिए अर्थपूर्ण होगा।
तुम ऐसा नहीं कह सकते हो कि बुद्ध का प्रेम उत्तप्त है--तुम यह नहीं कह सकते हो। यह बर्फ की तरह शीतल है। इसमें जरा भी उत्तेजना नहीं है। यह वहां पर है, बस इतनी बात। क्योंकि कोई भी उत्तेजना तुम्हारे अस्तित्व का भाग नहीं बन सकती है। उत्तेजना आती है और चली जाती है यह लगातार उपस्थित नहीं रह सकती है। इसलिए अगर बुद्ध के प्रेम में उत्तेजना हो तो बुद्ध को बार-बार घृणा में जाना पड़ जाएगा। उत्तेजना वहां नहीं होगी। शिखर वहां नहीं होंगे तब घाटियां भी वहां नहीं होंगी। इस तरह से वे न तो शिखर हैं और न ही घाटी वे बस एक समतल हैं। यह प्रेम हिम सा शीतल है तो तुम इसे करुणा के रूप में अनुभव करोगे।
यही मुश्किल है। बाहर से स्वतंत्रता को अनुभव नहीं किया जा सकता है केवल प्रेम को और उसे भी करुणा की भांति अनुभव किया जा सकता है। और मानव इतिहास के लिए यह बहुत कठिन घटनाओं में से एक है क्योंकि उनकी स्वतंत्रता से समाज में असहजता निर्मित होती है और उनके प्रेम को करुणा के रूप में अनुभव किया जाता है--इसलिए ऐसे लोगों के बारे में समाज हमेशा विभाजित हो जाता है।
जैसे कि क्राइस्ट-- किसी ने उस असहजता को अनुभव किया जो उन्होंने निर्मित कर दी है। और ये वे ही लोग हैं जो समाज में अच्छी तरह से स्थापित हो चुके हैं, क्योंकि उन्हें किसी करुणा की कोई जरूरत नहीं है। ये वे लोग हैं जो समाज में अपना स्थान ठीक तरह से बना चुके हैं, जो सोचते हैं कि उनको प्रेम स्वास्थ्य, संपत्ति, सम्मान सभी कुछ मिल चुका है। इसलिए जब क्राइस्ट वहां होते हैं तो ये लोग जिनके पास कुछ है, उनके विरोधी हो जाएंगे क्योंकि वे उनके लिए असहजता निर्मित कर रहे होंगे और जिनके पास कुछ नहीं है, वे उनके समर्थक हो जाएंगे क्योंकि वे उनकी करुणा को महसूस करेंगे। उन्हें प्रेम की आवश्यकता है। किसी ने उनसे प्रेम नहीं किया है यह व्यक्ति उन से प्रेम करता है। वे लोग असहजता महसूस नहीं करेंगे। क्योंकि उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके कारण वे लोग असहजता अनुभव करें--उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है।
तो जब ऐसा व्यक्ति मर जाता है, तो प्रत्येक व्यक्ति उसकी करुणा को अनुभव करता है, क्योंकि अब वहां कोई असहजता नहीं है, अब जरा भी असहजता नहीं है। अब समाज में सम्मानित दशा वाले लोग, वे लोग जो परंपरावादी हैं विश्रांति अनुभव करेंगे। वे उनकी पूजा करेंगे। क्योंकि जब वह जीवित होता है, तो वह एक विद्रोही होता है। वह इसलिए विद्रोही नहीं है कि समाज कुछ गलत है। वह विद्रोही है क्योंकि वह मुक्त है।
तुम्हें समझ लेना चाहिए वह इसलिए विद्रोही नहीं हैं कि समाज में कुछ गलत है। ऐसे विद्रोही केवल राजनैतिक ही होते हैं। इसलिए जब कोई समाज बदलता है, तो वह व्यक्ति जो विद्रोही था परंपरावादी व्यक्ति बन जाता है। उन्नीस सौ सत्रह में यही हुआ। वे ही विद्रोही संसार के सबसे बड़े क्रांति-विरोधी केंद्र बन गए। स्टैलिन या माओ वे लोग जिस क्षण सत्ता में आए, वे सबसे बड़े क्रांति-विरोधी नेता बन गए क्योंकि वे विद्रोही नहीं थे वे एक विशेष स्थिति के विरोध में विद्रोह कर रहे थे। जब उस स्थिति को हटा दिया गया, तो वे भी उसी नाव में सवार हो गए।
लेकिन कोई क्राइस्ट सदा विद्रोही होता है। किसी विशेष स्थिति में वह विद्रोही हो, ऐसा नहीं होता है। न ही कोई ऐसी स्थिति है जिसमें उसका विद्रोह कुछ कम हो जाता है। यह विद्रोह कभी कम नहीं होगा, क्योंकि यह विद्रोह किसी के विरोध में नहीं है। यह इसलिए है कि उसके पास मुक्त चेतना है। इसलिए जहां कहीं भी उसे अवरोध महसूस होता है, वह विद्रोही हो जाएगा। विद्रोह उसकी आत्मा है। इसलिए अगर जीसस आज भी आ जाएं, तो ईसाई उनके साथ विश्रांति में नहीं रह पाएंगे। वे रह ही नहीं सकते। वे उनके साथ उसी ढंग से व्यवहार करेंगे जैसा कि यहूदियों ने जीसस के साथ किया था, क्योंकि अब ईसाई एक बनी बनाई लीक पर चल रहे हैं। पोप भी किसी और ढंग से व्यवहार नहीं कर सकता, उसका रंग ढंग भी पूर्व-निर्धारित है। और बाजार में खडे हुए जीसस फिर से पूरे मामले को अस्त-व्यस्त कर देंगे। रोम (वैटिकन) जीसस के साथ नहीं होगा। जीसस के साथ रोम संभव नहीं है, जीसस के साथ पोप संभव नहीं है। जीसस के बिना ही वह संभव हो सकता है।
लेकिन करुणा भी अनुभव की जाती है। यहां एक और बात है जो समझ लेनी चाहिए। प्रत्येक शिक्षक जो विद्रोही शिक्षक के रूप में जाना गया है, उससे बनने वाली परंपरा कभी विद्रोही नहीं होती है। यह केवल उसकी करुणा से संबंधित होती है। यह कभी उसके विद्रोह से संबंधित नहीं होती, कभी उसकी स्वतंत्रता से संबंधित नहीं होती, केवल उसके प्रेम से संबंधित होती है। तब यह नपुंसक बन जाती है क्योंकि प्रेम स्वतंत्रता के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता, प्रेम विद्रोह के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता।
तुम बुद्ध की तरह प्रेमपूर्ण तब तक नहीं हो सकते हो जब तक तुम बुद्ध की तरह मुक्त न हो। इसलिए एक बौद्ध भिक्षु बस करुणावान होने का प्रयास कर रहा है लेकिन करुणा नपुंसक है क्योंकि वहां पर मुक्ति नहीं है। और मुक्ति ही स्रोत है। महावीर करुणावान हैं, लेकिन जैन मुनि जरा भी करुणावान नहीं है। वह बस कोशिश करता है, वह बस अहिंसा और करुणा आदि का अभिनय करने का प्रयास कर रहा है, लेकिन वह जरा भी करुणावान नहीं है। वह हर प्रकार से निर्दयी है वह हर प्रकार से चालाक मक्कार है। अपनी करुणा और उसके दिखावे में भी वह चालाक है। वहां कोई भी करुणा नहीं है क्योंकि वहां पर स्वतंत्रता नहीं है।
इसलिए मेरे लिए जहां कहीं भी चेतना में स्वतंत्रता की घटना घटती है तो भीतर स्वतंत्रता की अनुभूति होती है और बाहर प्रेम की अनुभूति होती है। तब प्रेम घृणा का उलटा नहीं होता है। यह बस दोनों की प्रेम और घृणा की अनुपस्थिति है। यह कठिन है इसीलिए मुझे दोनों प्रकार के प्रेम के लिए प्रेम शब्द का उपयोग करना पड़ता है। यह प्रेम-प्रेम और घृणा दोनों की अनुपस्थिति है। पूरा द्वैत ही अनुपस्थित है। यह आकर्षण और विकर्षण दोनों की अनुपस्थिति है।
इसलिए उस व्यक्ति के साथ जो मुक्त और प्रेमपूर्ण है, यह तुम पर निर्भर है कि तुम उसके प्रेम को स्वीकार कर सकते हो या नहीं। हमारे साथ ऐसा नहीं है। अगर मैं तुमको प्रेम करता हूं तो ऐसा नहीं है लेने वाला कितना प्रेम ले सकता है यह सदा देने वाले पर निर्भर है कि कितना वह अधिक दे सकता है। आमतौर पर हम प्रेम करते हैं तो प्रेम उस व्यक्ति पर निर्भर करता है जो प्रेम दे रहा है वह नहीं भी दे सकता है। लेकिन जब ऐसा प्रेम घटित होता है, तो कितना प्रेम तुम ले सकते हो यह देने वाले पर निर्भर नहीं करता है। यह तुम पर निर्भर करता है क्योंकि देने वाला पूरी तरह से खुला है और प्रतिपल दे रहा है। जब कोई भी उपस्थित नहीं है तब भी यह प्रेम प्रवाहित हो रहा है।
यह बस एक फूल की तरह है--एक घने जंगल में खिला हुआ एक फूल-- कोई
भी वहां होकर नहीं गुजर रहा है। हो सकता है कि कोई जानता भी न हो कि यह खिल गया है और अपनी सुगंध दे रहा है। लेकिन वह फूल सुगंध देगा क्योंकि यह किसी व्यक्ति विशेष को नहीं दी जा रही है, यह बस दी जा रही है यह बहुत गहरी घटना है। फूल खिल गया है इसलिए सुगंध वहां पर है। कोई वहां से होकर निकल सकता है या नहीं यह असंगत है। यदि कोई वहां से होकर निकलता है और वह सक्षम है संवेदनशील है तो वह इसे ग्रहण कर सकता है। अगर कोई वहां से होकर निकलता है और वह पूरी तरह से मृत है, संवेदनहीन है, तो हो सकता है कि वह जान भी न पाए कि सड़क के किनारे, उस ओर कोई फूल खिला हुआ था।
इसलिए जब प्रेम वहां होता है, तो तुम इसे ले सकते हो या नहीं ले सकते हो। जब प्रेम नहीं हो, तो दूसरा इसको तुम्हें दे सकता है या नहीं दे सकता है। और दिव्य प्रेम या अदिव्य प्रेम जैसा कोई विभाजन नहीं है। प्रेम दिव्य है, इसलिए वह सभी कुछ जो हम कह सकते हैं--प्रेम दिव्य है प्रेम भगवत्ता है।

शेष बात हम कल करेंगे।










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