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सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

10-दयावाई-(ओशो)

दयावाई-भारत के संत

जगत तरैया भोर की-ओशो

संत का अर्थ है, प्रभु ने जिसके तार छेड़े। संतत्व का अर्थ है, जिसकी वीणा अब सूनी नहीं; जिस पर प्रभु की अंगुलियां पड़ीं। संत का अर्थ है, जिस गीत को गाने को पैदा हुआ था व्यक्ति, वह गीत फूट पड़ा; जिस सुगंध को ले कर आया था फूल, वह सुगंध हवाओं में उड़ चली। संतत्व का अर्थ है, हो गए तुम वही जो तुम्हारी नियति थी। उस नियति की पूर्णता में परम आनंद है स्वभावतः।
बीज जब तक बीज है तब तक दुखी और पीड़ित है। बीज होने में ही दुख है। बीज होने का अर्थ है, कुछ होना है और अभी तक हो नहीं पाए। बीज होने का अर्थ है, खिलना है और खिले नहीं; फैलना है और फैले नहीं; होना है और अभी हुए नहीं। बीज का अर्थ है, अभी प्रतीक्षा जारी है; अभी राह लंबी है; मंजिल आई नहीं।

संतत्व का अर्थ है, मनुष्य वही हो गया जो होने को था; बीज नहीं है, अब फूल है; खिल गया सहस्रदल कमल; फूल जैसा आनंदित मालूम पड़ता है। आनंद क्या है फूल का? अब होने को कुछ और बाकी न रहा। अब जाने को कोई जगह न रही। यात्रा पूरी हुई, विराम आ गया। अब शांत होने की संभावना है। क्योंकि जब तक कहीं जाना है, अशांति रहेगी। जब तक कुछ होना है, योजना करनी होगी। और जब तक कुछ होना है तब तक सफलता-असफलता पीछा करेगी। पता नहीं हो पाए, न हो पाए! शंका-कुशंकाएं घेरेंगी...हजार बातें। चित्त डावांडोल रहेगा। चित्त थिर न हो पाएगा। कौन सी राह चुनें! कहीं भूल तो न हो जाएगी! जो राह चुन रहे हैं वह कहीं ऐसा तो न हो कि राह ही सिद्ध न हो! जो कर रहे हैं, उससे नियति का मेल बैठेगा कि नहीं बैठेगा!...तो संदेह जीता है और संदेह भीतर जलता है और संदेह विषाद से भरता है।

तिब्बत में कहावत है, अगर पहाड़ का रास्ता पूछना हो तो उससे पूछो जो रोज पहाड़ पर आता-जाता है। जो पहाड़ पर कभी गए नहीं, घाटी में सदा रहे, चाहे कितने ही नक्शे उन्होंने पढ़े हों और चाहे कितने ही शास्त्रों का उन्हें ज्ञान हो, उनसे मत पूछना अन्यथा भटकोगे। उससे पूछो जो रोज आता-जाता है, चाहे बड़ा पंडित न हो। डाकिया, जो रोज पहाड़ चढ़ता-उतरता है, ले जाता है डाक, लाता है डाक, बड़ा पंडित न हो, नक्शे उसके पास न हों, उससे पूछ लेना।
अब यह दयाबाई कोई बहुत बड़ी ज्ञानी नहीं हैं--ज्ञानी पंडित के अर्थ में। शास्त्रों की ज्ञाता नहीं हैं। फिर भी मैंने चुन लिया है कि उन पर बोलूंगा। बड़े पंडितों को छोड़ कर उनको चुन लिया है कि उन पर बोलूंगा। पढ़ी-लिखी भी होंगी, यह भी संदिग्ध है। लेकिन, उस रास्ते पर आईं-गईं, उस रास्ते से परिचित हैं। उस रास्ते की धूल खूब खाई। उस रास्ते की धूल में रंगी हैं। उस रास्ते पर चल-चल कर, उस रास्ते पर यात्रा कर-करके सब भांति अपनी तरफ से शून्य हो गई हैं। अब तो उसी रास्ते की सुगंध है। इन छोटे-छोटे पदों में वही सुगंध प्रगट हुई है।
तीन तरह के कवि होते हैं। एक, जिसको परमात्मा की झलक स्वप्न में मिलती है। जिनको हम साधारणतः कवि कहते हैं--कि सुमित्रानंदन पंत कि मिल्टन कि एजरा पाउंड--जिनको हम कवि कहते हैं--कि सुमित्रानंदन पंत कि महादेवी। इनको स्वप्न में झलक मिलती है। इन्होंने जाग कर परमात्मा नहीं देखा है; नींद-नींद में, सोए-सोए कोई भनक पड़ गई है कान में। उसी भनक को ये गीत में बांधते हैं। फिर भी इनके गीत में माधुर्य है। इनके जीवन में परमात्मा नहीं है। कभी किसी गुलाब के फूल में थोड़ी सी झलक मिली है, आहट मिली है; कभी चांद में, तारों में आहट मिली है; कभी किसी नदी की, झरने कलकल में आहट मिली है; कभी सागर की उत्तुंग तरंगों में उसका रूप झलका है, लेकिन सीधा-सीधा दर्शन नहीं हुआ है। यह सब सोए-सोए हुआ है। ये नींद-नींद में हैं। ये मूर्च्छित हैं। मगर फिर भी इनके काव्य में अपूर्व रस है।
काव्य तो परमात्मा का ही है--सभी काव्य परमात्मा का है, क्योंकि सभी सौंदर्य उसका है। काव्य का अर्थ हुआ, सौंदर्य की स्तुति। काव्य का अर्थ हुआ, सौंदर्य की प्रशंसा, सौंदर्य का यशोगान, सौंदर्य की महिमा का वर्णन। काव्य यानी सौंदर्यशास्त्र। और सारा सौंदर्य उसका है! इनको कहीं-कहीं उसकी झलक मिली है; कहीं-कहीं उसके पदचिह्न पता चले हैं। जाग कर नहीं, क्योंकि जागने के लिए तो इन्होंने कुछ भी नहीं किया। जागने के लिए तो ये रोए नहीं, जागने के लिए तो ये तड़पे नहीं। जागता तो केवल भक्त है।
तो दूसरे तरह का कवि है, यह है भक्त, संत। उसने सौंदर्य को नहीं देखा है, उसने सुंदरतम को देखा है। उसने सिर्फ भनक नहीं देखी है, उसने मूल को देखा है। ऐसा समझो कि कोई गीत गाता है किसी पहाड़ पर और घाटियों में उसकी आवाज गूंजती है। कवियों ने उसकी गूंज सुनी है, संतों ने सीधे संगीतज्ञ को देखा है। कवियों ने दूर से संगीत की उठती गूंज घाटियों में है, अनुगूंज, प्रतिध्वनि, उसको पकड़ा है; संतों ने सीधा-सीधा उसके दरबार में बैठ कर पकड़ा है। स्वभावतः उनकी वाणी का बल अपूर्व है। कवि कलात्मक रूप से ज्यादा कुशल होता है, क्योंकि काव्य उसका रुझान है। संत कलात्मक रूप से उतना कुशल नहीं होता, क्योंकि कविता की कला उसने कभी नहीं सीखी है। तो काव्य की दृष्टि से शायद संतों के वचन बहुत कविता न हों, लेकिन सत्य की दृष्टि से परम काव्य हैं।
.... फिर एक तीसरा कवि होता है जो न तो संत है और न कवि है; जिसको केवल काव्य-शास्त्र का पता है; अलंकार, मात्रा, इस सबका पता है। वह उस हिसाब से तुकबंदी कर देता है। न उसने सत्य को देखा है, न सत्य की छाया देखी, लेकिन भाषाशास्त्र को जानता है, व्याकरण को जानता है; तुकबंद है, वह तुकबंदी बांध देता है।
दुनिया में सौ कवियों में नब्बे तुकबंद होते हैं। कभी-कभी अच्छी तुकबंदी बांधते हैं। मन मोह ले, ऐसी तुकबंदी बांधते हैं। लेकिन तुकबंदी ही है, प्राण नहीं होते भीतर। कुछ अनुभव नहीं होता भीतर। ऊपर-ऊपर जमा दिए शब्द, मात्राएं बिठा दीं, संगीत और शास्त्र के नियम पालन कर लिए। सौ में नब्बे तुकबंद होते हैं। बाकी जो दस बचे उनमें नौ कवि होते हैं, एक संत होता है।
दया उन्हीं सौ में से एक भक्तों और संतों में है। दया के संबंध में कुछ ज्यादा पता नहीं है। भक्तों ने अपने संबंध में कुछ खबर छोड़ी भी नहीं। परमात्मा का गीत गाने में ऐसे लीन हो गए कि अपने संबंध में खबर छोड़ने की फुरसत न पाई। नाम भर पता है। अब नाम भी कोई खास बात है! नाम तो कोई भी काम दे देता। एक बात जरूर पता है, गुरु के नाम का स्मरण किया है--प्रभु के गीत गाए हैं और गुरु के नाम का स्मरण किया है। गुरु थे चरणदास। दो शिष्याएं--सहजो और दया। सहजो पर तो हमने बात की है। चरणदास ने कहा है, जैसे मेरी दो आंखें।
दोनों उनकी सेवा में रत रहीं, जीवन भर। गुरु मिल जाए तो सेवा साधना है; पास होना काफी है। कोई और साधना की हो, इसकी भी कुछ खबर नहीं है। मगर इतना पर्याप्त है। अगर किसी को मिल गया है, तो उसके पास रहना काफी है। बगीचे से गुजर जाओ तो तुम्हारे वस्त्रों में फूलों की गंध आ जाती है। जिसने सत्य को जाना, उसके पास रह जाओ तो तुम्हारे प्राणों में गंध आ जाती है। जिसने सत्य को जाना, उसके पास रह जाओ तो तुम्हारे प्राणों में गंध आ जाती है। सुगंध तैरती है, फैलती है। तो दबाती रही होंगी इस गुरु के चरण, बनाती होंगी भोजन गुरु के लिए, भर लाती होंगी पानी ऐसे कुछ छोटे-मोटे काम करती रही होंगी।
दोनों के पदों में बहुत भेद भी नहीं है। क्योंकि जब गुरु एक हो तो जो बहा है दोनों में, उसमें बहुत भेद नहीं हो सकता है। एक ही घाट का पानी पीआ, एक ही स्वाद पाया। दोनों बेपढ़ी-लिखी मालूम होती हैं। कभी-कभी बेपढ़ा-लिखा होना भी सौभाग्य होता है। पढ़े-लिखे अपने पढ़े-लिखे होने के कारण झुक नहीं पाते। पढ़ा-लिखा होना अहंकार को जन्म देता है। मैं कुछ हूं! पढ़ा-लिखा हूं, तो कैसे आसानी से झुक जाऊं? गैरपढ़ी-लिखी हैं और उसी गांव से आती हैं, उसी इलाके से आती हैं जहां से मीरा आई।
अक्सर ऐसा होता है, कभी एक क्षेत्र में एक आत्मा पैदा हो जाए, प्रभु का दर्शन हो जाए, तो उस क्षेत्र में चिनगारियां छूट जाती हैं। उस क्षेत्र की हवा संक्रामक हो जाती है। एक लहर दूसरी लहर को उठा देती है। एक लहर के संग-साथ दूसरी लहर जग जाती है, दूसरी के साथ तीसरी लहर जग जाती है। संतत्व के भी तूफान आते हैं। कभी-कभी तूफान आते हैं। जैसे बुद्ध और महावीर के समय में तूफान आया। सारी दुनिया में संतत्व ने ऐसी ऊंचाई ली जैसी कि इसके पहले कभी नहीं ली थी और फिर पीछे भी नहीं ली। लाखों लोग संतत्व की दिशा में बह गए; आंधी पर सवार हो गए। एक व्यक्ति का संत हो जाना जैसे किसी शृंखला की शुरुआत होती है। जिसको वैज्ञानिक "चेन रिएक्शन' कहते हैं। जैसे कि एक घर में आग लग जाए तो पूरा मुहल्ला खतरे में हो जाता है। लपटें एक घर से दूसरे घर में छलांग लगा जाती हैं, दूसरे घर से तीसरे घर में छलांग लगा जाती हैं। एक "चेन' बन जाती है, एक शृंखला बन जाती है। अगर घर बहुत पास-पास हों तो पूरा गांव भी जल कर राख हो सकता है।
संतत्व भी ऐसा ही घटता है। एक हृदय में प्रभु की आग लग गई, एक हृदय प्रभु की अग्नि से दीप्त हो गया, लपटें छलांग लगाने लगती हैं--अदृश्य लपटें--लेकिन जो भी करीब आ जाते हैं उन पर लपटें छलांग लगा जाती हैं। तो मीरा जिस इलाके से आई उसी इलाके से दया और सहजो भी आईं। वह इलाका धन्य है, क्योंकि तीन स्त्री संतों को एक-साथ जन्म देने का सौभाग्य किसी और इलाके का नहीं है।
दोनों के पद एक ही गुरु के चरणों में पैदा हुए, दोनों के पदों में एक ही रंग है, एक ही राग है। थोड़े-बहुत भेद हैं, वह व्यक्तित्व के भेद हैं। भेद इतने कम हैं, इसलिए मैंने पहली शृंखला जो सहजो पर दी, उसका नाम रखा था दया के पद के आधार पर दया का पद है--
बिन दामिन उंजियार अति, बिन घन परत फुहार।
मगन भयो मनुवां तहां, दया निहार-निहार।।
पद थे सहजो के, नाम दिया था दया की वाणी से। इस नई शृंखला को, जिसे हम आज शुरू कर रहे हैं, पद हैं दया के, नाम दे रहा हूं सहजो की वाणी से--
जगत तरैया भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
जैसे मोती ओस की, पानी अंजुलि माहिं।।
...जैसे सुबह का आखिरी तारा देर तक टिकता नहीं। जगत तरैया भोर की! बस सब तारे डूब गए, चांद डूबा, सब तारे डूबे, सूरज उगने के करीब आने को है, भोर होने लगी, आखिरी तारा टिमटिमाया-टिमटिमाया कि गया। तुम ठीक से देख भी नहीं पाते कि अभी था और अभी नहीं हो गया। क्षण भर पहले था और क्षण भर बाद विलीन हो गया। जगत तरैया भोर की: ऐसा है संसार, सुबह के तारे जैसा! अभी है, अभी नहीं। इस पर बहुत भरोसा मत कर लेना। उसे खोजो जो सदा है, जो ध्रुवतारे की भांति है; सुबह के भोर के तारे की तरह नहीं। जो अडिग है; शाश्वत, सनातन है; जो सदा था, सदा है, सदा रहेगा--उसकी शरण गहो। क्योंकि उसकी शरण गह कर ही तुम मृत्यु के पार जा सकोगे। अब सुबह के तारों को कोई पकड़ ले तो कितनी देर सुख! जिसको तुम पकड़ने जा रहे हो वह पानी का बुलबुला है; पकड़ भी नहीं पाओगे कि फूट जाएगा। जगत तरैया भोर की, सहजो ठहरत नाहिं। तुम लाख करो उपाय ठहराने का, ठहरेगा नहीं। और हम यही कर रहे हैं। सारा संसार यही कर रहा है। क्या-क्या पकड़ते हैं हम? संबंध, राग, प्रेम, पति-पत्नी, बेटे-बेटी, धन-दौलत, यश, पद, प्रतिष्ठा। जगत तरैया भोर की! इधर तुम पकड़ भी न पाओगे कि गया। तुम पकड़ने में जितना समय खो रहे हो, उतने समय में वह बीत ही जाएगा। ये लहरें पकड़ में आती नहीं। संसार का स्वभाव अस्थिर है, चंचल है। यहां जो पकड़ना चाहेगा वह दुखी होगा।
ओशो

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