कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

तंत्र-अध्यात्म और काम-(प्रवचन-06)

तंत्र अध्यात्म और काम

छठवां-प्रवचन (तंत्र-सपर्पण का मार्ग)

(Tanta Spituality And Six-का हिन्दी अनुवाद)
पहला प्रश्न: भगवान, विज्ञान-भैरव-तंत्र की जिन विधियों की हमने अब तक चर्चा की है क्या वे वास्तव में तंत्र का केंद्रीय विषय होने की अपेक्षा योग के विज्ञान से संबंधित हैं? और तंत्र का केंद्रीय विषय क्या है? इसे समझाने की कृपा करें।
यह प्रश्न बहुतों के मन में उठता है। जिन विधियों की हमने चर्चा की है उनका योग में भी प्रयोग होता है लेकिन कुछ भिन्न ढंग से। तुम एक ही विधि का प्रयोग बिल्कुल भिन्न दर्शन की पृष्ठ भूमि में भी कर सकते हो। उसका ढांचा उसकी पृष्ठभूमि अलग होती है विधि नहीं। योग का जीवन के प्रति भिन्न दृष्टिकोण है तंत्र से बिल्कुल विपरीत।

योग संघर्ष में विश्वास करता है योग मूलरूप से संकल्प का मार्ग है। तंत्र संघर्ष में विश्वास नहीं करता, तंत्र संकल्प का मार्ग नहीं है। इसके विपरीत तंत्र समग्र समर्पण का मार्ग है। तुम्हारे संकल्प की जरूरत नहीं। तंत्र के लिए तुम्हारी इच्छा शक्ति समस्या है तुम्हारी सारी पीड़ा सारे दुख का कारण है। योग के लिए तुम्हारा समर्पण तुम्हारी संकल्पहीनता समस्या है।
क्योंकि तुम्हारी संकल्प शक्ति कमजोर है। इसी कारण तुम दुखी हो पीड़ित हो। योग के लिए तंत्र के लिए क्योंकि तुम्हारे पास संकल्प है तुम्हारा अहंकार है तुम्हारी निजता है इसी कारण तुम दुखी हो।
योग कहता है ''अपनी संकल्प-शक्ति को पूर्णता तक पहुंचाओ और तुम मुक्त हो जाओगे।''
और तंत्र कहता है ''अपनी इच्छा-शक्ति को पूरी तरह मिटा दो, बिल्कुल खाली हो जाओ और वही तुम्हारी मुक्ति बनेगी। '' और दोनों ही ठीक हैं... इसीलिए कठिनाई होती है। मेरे देखे दोनों ठीक हैं।
लेकिन योग का मार्ग बहुत कठिन है। लगभग असंभव ही है कि तुम अपने अहं की पूर्णता को उपलब्ध हो जाओ। इसका अर्थ है कि तुम सारे जगत के केंद्र हो जाओ। रास्ता बहुत लंबा है कठिन है। और वास्तव में कभी मंजिल तक नहीं पहुंचता। तो योग के मानने वालों का क्या होता है? कहीं बीच रास्ते में, किसी जन्म में, वे तंत्र की
ओर मुड़ जाते हैं। ऐसा होता है।
बुद्धि से बात समझ में आती है अस्तित्व गत रूप से असंभव है। यदि यह संभव है तो तुम योग के मार्ग से भी पहुंच जाओगे। लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं। अगर यह घटता है तो कभी-कभार घटित होता है। कोई एक महावीर...सदियों पे सदियां बीत जाती हैं और तब कोई महावीर योग के माध्यम से पहुंचता है। लेकिन यह
अपवाद है और नियम को ही सिद्ध करता है।
लेकिन योग तंत्र की अपेक्षा अधिक आकर्षित करता है। तंत्र सरल है सहज है और तुम बड़ी आसानी से, बिना किसी प्रयास के प्राकृतिक रूप से उपलब्ध हो सकते हो। तंत्र तुम्हें कभी इतना आकर्षित नहीं करता। क्यों? जो भी तुम्हें आकर्षित करता है वह तुम्हारे अहंकार को अच्छा लगता है। जो भी तुम्हारे अहंकार को परितुष्ट करता
है वही तुम्हें अधिक आकर्षित करता है।
यह सच है कि जितने तुम अहंकारी हो उतना ही योग तुम्हें आकर्षित करेगा क्योंकि यह शुद्धतम अहंकार पर आधारित प्रयास है। जितना असंभव उतना ही अहंकार के लिए आकर्षण। इसी कारण एवरेस्ट के लिए इतना आकर्षण है हिमालय की चोटी पर पहुंचना बहुत ही मुश्किल है। और जब हिलेरी और तेनसिंह एवरेस्ट पर पहुंचे तो एक क्षण के लिए उन्हें अत्यंत हर्ष का अनुभव हुआ। वह क्या था?- अहंकार की तृप्ति। वे प्रथम व्यक्ति थे।
जब पहला आदमी चांद की धरती पर उतरा तुम कल्पना कर सकते हो उसे कैसा लगा होगा? वह पूरे इतिहास में पहला आदमी था। अब कोई उसका स्थान नहीं ले सकता वह आने वाले इतिहास में पहला आदमी होगा। अब उसके स्थान को, उसकी प्रतिष्ठा को बदला नहीं जा सकता। अहंकार बहुत गहरा हो गया है। अब कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है और होगी भी नहीं। लेकिन कई और चंद्रमा की धरती पर उतरेंगे और कई एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ेंगे।
योग तुम्हें एक उच्चतर शिखर देता है एक ऐसी मंजिल देता है जहां पहुंचा नहीं जा सकता--शुद्ध, परिपूर्ण, निरंकुश अहंकार देता है।
नीली को योग बहुत पसंद आया होता क्योंकि उसका कहना था कि जीवन के पीछे जो शक्ति काम कर रही है वह है--संकल्प शक्ति योग तुम्हें यह ख्याल देता है कि तुम इसके माध्यम से और अधिक शक्तिशाली हो जाओगे। जितना ज्यादा तुम अपने पर नियंत्रण रख सकते हो जितना ज्यादा तुम अपनी वृत्तियों को नियंत्रित रख सकते हो जितना ज्यादा अपने शरीर को अपने नियंत्रण में रख सकते हो जितना ज्यादा अपने मन पर अंकुश लगा सकते हो... तुम स्वयं को उतना ही ज्यादा शक्तिशाली अनुभव करते हो। तुम भीतर अपने स्वामी हो जाते हो। लेकिन यह
स्वामित्व संघर्ष के माध्यम से, हिंसा के माध्यम से प्राप्त होता है।
और कमोबेश सदा ऐसा ही होता है कि जिस व्यक्ति ने कई जन्मों में योगाभ्यास किया हो वह एक ऐसे बिंदु पर पहुंच जाता है जहां सारी यात्रा उबाऊ, नीरस और व्यर्थ हो जाती है। क्योंकि जितनी अहंकार की पूर्ति होती है उतनी ही व्यर्थता का अहसास होता है। और तब योग के मार्ग पर चलने वाला तंत्र की ओर मुड़ जाता है।
लेकिन योग इसी कारण आकर्षित करता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अहंकारी है। तंत्र शुरू-शुरू में ठीक नहीं
लगता। तंत्र उन्हें ठीक लगता है जो विशेष्ज्ञ हैं--जिन्होंने स्वयं पर कुछ काम किया है जिन्होंने अनेक जन्मों में योग-साधना के द्वारा बहुत संधर्ष किया है उन्हें अब तंत्र की बात उचित लगती है क्योंकि अब वे समझ सकते हैं।
साधारणतम तुम्हें तंत्र आकर्षित नहीं करेगा। अगर तुम्हें आकर्षित करता है भी तो गलत कारणों से आकर्षित करता है। अत: उन्हें भी ठीक तरह से समझ लेना चाहिए।
पहली बात तो यह है कि तंत्र तुम्हें आकर्षित नहीं करेगा क्योंकि वह संघर्ष नहीं तुम्हारा समर्पण चाहता है। वह तुम्हें तैरने के लिए नहीं बहने के लिए कहता है। वह तुम्हें धारा के विरुद्ध नहीं धारा के साथ बहने को कहता है। तंत्र कहता है कि तुम्हारा जो भी स्वभाव है प्रकृति है वह ठीक है। अपनी प्रकृति पर विश्वास रखो उसके साथ
लड़ो मत। काम वृत्ति भी शुभ है उसका भरोसा करो, उसका अनुगमन करो, उसके साथ बहो-लड़ो मत। अ-संघर्ष तंत्र की मूल शिक्षा है। बहो।
यह बात तुम्हें जंचती नहीं। इससे तुम्हारे अहंकार को तृप्ति नहीं मिलती। तंत्र पहले कदम पर ही तुम्हारे अहंकार को मिटा देने की बात कहता है। प्रारंभ में ही इसे विदा कर देने की बात कहता है।
योग भी तुमसे यही चाहेगा लेकिन अंत में। यह पहले तुम्हें अहंकार को पूरी तरह शुद्ध करने की बात कहेगा और जब अहंकार पूरी तरह शुद्ध हो जाएगा तो विलीन हो जाएगा। तब वह बच ही नहीं सकता। लेकिन योग में यह अंत है और तंत्र में प्रथम।
इसलिए साधारणतया तंत्र आकर्षित नहीं करता। और अगर करता है तो गलत कारणों से आकर्षित करता है। उदाहरण के लिए अगर तुम काम वासना को भोगना चाहते हो तो तुम तंत्र के द्वारा इसे तर्क संगत बना लोगे, इसका औचित्य सिद्ध कर दोगे। वही आकर्षण का कारण बन जाएगा। अगर तुम सुरा और सुंदरी को और अन्य चीजों को भोगना चाहते हो तो तंत्र ठीक लगेगा। लेकिन वास्तव में, तुम तंत्र की ओर आकर्षित नहीं हो रहे- तंत्र एक युक्ति है एक उपाय है--तुम किसी और चीज की ओर आकर्षित हो रहे हो। तुम्हें वह आकर्षित कर रहा है जो भोगने की अनुमति दे रहा है। इसलिए तंत्र गलत कारणों से आकर्षक लगता है।
तंत्र तुम्हारे भोग को सहारा देने के लिए नहीं है उसे रूपांतरित करने के लिए है। तंत्र से तुम स्वयं को आसानी से धोखा दे सकते हो। और धोखे की इस संभावना के कारण महावीर तंत्र की सलाह नहीं देते। यह संभावना बनी ही रहती है। आदमी इतना धोखेबाज और चालाक है कि वह उसके लिए तर्क दे सकता है।
उदाहरण के लिए- चीन में, पुराने चीन में तंत्र से मिलता जुलता एक गुहा विज्ञान था जो ताओ के रूप में जाना जाता है। ताओ की प्रवृत्तियां भी तंत्र जैसी है। उदाहरण के लिए--ताओ कहता है कि यदि तुम कामवासना से मुक्त होना चाहते हो, यह अच्छी बात है। यह अच्छा है कि एक ही स्त्री या पुरुष से चिपके नहीं रहना चाहते। अगर तुम मुक्त होना चाहते हो तो एक के साथ ही मत चिपके रहो। इसलिए ताओ कहता है ''यह अच्छा है कि तुम साथी बदलते रहो।''
यह बिल्कुल ठीक है--लेकिन तुम इसे तर्क संगत सिद्ध कर सकते हो। तुम स्वयं को धोखा दे सकते हो। अगर तुम्हें सिर्फ काम की, सेक्स की सनक हो तो तुम सोच सकते हो कि मैं तंत्र की साधना कर रहा हूं इसलिए मैं एक ही स्त्री के साथ चिपका नहीं रह सकता मुझे स्त्री बदलनी ही होगी। और चीन में बहुत--से राजाओ ने इसकी साधना की। इसके लिए उनके बड़े-बड़े रनिवास थे।
लेकिन ताओ अर्थपूर्ण है--ताओ तभी अर्थपूर्ण है जब तुम मानव मन के विज्ञान को गहराई से देखो। अगर तुम एक ही स्त्री को गहराई से देखो। अगर तुम एक ही स्त्री को जानते हो तो देर-अबेर उस स्त्री का आकर्षण खो जाएगा लेकिन स्त्रियों में आकर्षण बना रहेगा। विपरीत लिंग, आपोजिट सेक्स तो तुम्हें आकर्षित करेगा, लेकिन यह तुम्हारी पत्नी ओपोजिट सेक्स की नहीं लगेगी। वह तुम्हें आकर्षित न कर पायेगी वह तुम्हारे लिए चुंबक का काम न करेगी। तुम उसके आदि हो गए हो।
ताओ कहता है ''अगर पुरुष बहुत-सी स्त्रियों के बीच रहता है वह स्त्री से पार हो जाता है। बहुत-सी स्त्रियों की जानकारी ही उसे उनके पार जाने में सहायता करेगी।'' और यह ठीक है लेकिन खतरनाक भी है। क्योंकि यह तुम्हें इसलिए अच्छा नहीं लगेगा कि यह ठीक है बल्कि इसलिए कि यह तुम्हें लाइसेंस देता है। यही तंत्र की समस्या
इसी कारण चीन में भी इसके ज्ञान को दबा दिया गया, उसे दबा ही देना पड़ा। भारत में भी तंत्र को दबा दिया गया क्योंकि यह बहुत ही खतरनाक बातें कहता है। वे खतरनाक हैं तुम्हारे कारण क्योंकि तुम धोखे बाज हो। वैसे वे अद्‌भुत हैं। मनुष्य के चित्र में तंत्र से बढ़कर अभी कुछ और घटित नहीं हुआ है। कोई भी ज्ञान इतना गहरा नहीं है।
लेकिन ज्ञान के हमेशा अपने कुछ खतरे हैं। उदाहरण के लिए अब विज्ञान एक खतरा बन गया है क्योंकि इसने तुम्हारे सामने गूढ़ रहस्यों को खोलकर रख दिया है। अब तुम जानते हो कि किस तरह आणविक ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती। ऐसा कहा जाता है आइन्सटीन ने कहा था कि अगर उसे पुन: जीवन मिले तो वह एक वैज्ञानिक होने की बजाय प्लंबर होना ज्यादा पसंद करेगा। क्योंकि जब वह अपने अतीत में झांककर देखता है तो उसे अपना जीवन व्यर्थ लगता है। केवल व्यर्थ ही नहीं बल्कि मानवता के लिए खतराक भी लगता है। और उसने एक गूढ़तम रहस्य ऐसे मनुष्य को दिया है जो स्वयं को भी धोखा देने में कुशल है।
मुझे लगता है कि वह दिन जल्दी आएगा जब हम विज्ञान के ज्ञान को भी दबा देंगे। ऐसी अफवाहें हैं कि वैज्ञानिक गुप्त रूप से विचार कर रहे हैं कि अब और रहस्यों को प्रकट किया जाए या नहीं। क्या हम अपनी खोज बंद कर दें या आगे बढ़े? - क्योंकि अब खतरा बहुत बढ़ गया है।
केवल अज्ञान ही नहीं प्रत्येक ज्ञान भी खतरनाक है। तुम ज्ञान के साथ ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। अंधविश्वास हमेशा अच्छे होते हैं। कभी खतरनाक सिद्ध नहीं होते जैसे होम्योपैथी। दबा दो...वह तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाएगी। वह तुम्हारे लिए सहायक होगी या नहीं तुम्हारे भ्रम पर तुम्हारे अंध विश्वास पर आश्रित है। एक बात पड़ी है यह तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचाएगी। होम्योपैथी हानिकारक नहीं है वह बहुत गहरा अंधविश्वास है। यही तुम्हारी मदद कर सकती है। स्मरण है जब हम कहते हैं कि केवल यही चीज मेरी सहायता कर सकती, तब यह अंधविश्वास बन जाती है। और जब कोई चीज लाभ और हानि दोनों कर सके तो उसे ज्ञान समझना।
असली चीज दोनों बातें कर सकती है--लाभ भी और हानि भी। बस झूठी नकली, काल्पनिक चीज ही केवल मदद कर सकती है। लेकिन तब यह मदद उस चीज से नहीं मिलती, वह हमेशा तुम्हारे मन का प्रेक्षपण होता है। इसलिए झूठी, भ्रामक और काल्पनिक चीजें ही एक दृष्टि से अच्छी होती हैं--वे कभी तुम्हें हानि नहीं पहुंचातीं।
तंत्र विज्ञान है अणु-ज्ञान से भी अधिक गृह, क्योंकि अणु-विज्ञान का संबंध पदार्थ से ज्यादा है और तंत्र का संबंध तुम से है। और तुम किसी भी अणु-शक्ति से अधिक खतरनाक हो। तंत्र का संबंध--तुम से, जैविक अणु से, जीवंत कोशिका से, जीवन-चेतना की भीतरी व्यवस्था से है।
इसी कारण तंत्र की इतनी रुचि काम में सेक्स में है। जिसकी रुचि जीवन और चैतन्य में होगी उसकी रुचि काम में स्वत: ही होगी; क्योंकि काम जीवन का प्रेम का, जो-जो चेतना के जगत में घट रहा है उन सबका स्रोत है। इसलिए अगर कोई खोजी काम में रुचि नहीं रखता वह सत्य का खोजी ही नहीं है। वह दार्शनिक हो सकता है
लेकिन खोजी नहीं हो सकता। दर्शन कम और ज्यादा बकवास ही है--उनके बारे में सोचते रहना जो व्यर्थ हैं।
मैंने सुना है मुल्ला नसरुद्दीन किसी लड़की को चाहता था। लड़कियों के मामले में उसका भाग्य कुछ अच्छा न था। कोई लड़की उसे पसंद नहीं करती थी। और वह एक लड़की से पहली बार मिलने जा रहा था अत: उसने अपने
एक मित्र से पूछा, ''औरतों के मामले में तुम कमाल के हो। इसका राज क्या है? तुम तो उन्हें सम्मोहित--सा कर लेते हो और मैं हमेशा नाकामयाब रहता हूं मुझे कुछ सलाह दो। मैं पहली बार इस लड़की को मिलने जा रहा हूं। इसलिए मुझे कुछ राज की बातें बता दो।''
मित्र ने कहा, ''तीन बातें याद रखना। हमेशा भोजन, उसके परिवार और फिलास्फी की बात करना।''
''भोजन के बारे में क्यों?'' मुल्ला ने पूछा।
मित्र ने कहा, ''मैं हमेशा भोजन की चर्चा करता हूं। लड़की को यह बात बहुत अच्छी लगती है क्योंकि प्रत्येक औरत को भोजन में रुचि होती है। वह अपने बच्चे के लिए पोषण है सारी मनुष्यता के लिए पोषण है। इसलिए मूलरूप से उसकी रुचि भोजन में है।''
मुल्ला ने कहा, ''ठीक है। और परिवार क्यों?''
उस मित्र ने कहा, ''उसके परिवार की बाबत पूछो ताकि तुम्हारा इरादा नेक दिखाई दे। ''
तब मुल्ला ने पूछा, '' और फिलास्फी के बारे में क्यों?
उसने कहा, फिलास्फी की चर्चा करो-- इससे औरत को लगता है कि वह बुद्धिमान है। ''
मुल्ला उसी समय भागा। जैसे ही लड़की को देखा उसने पूछा ''सुनो, क्या तुम्हें नुडल्ज अच्छी लगती हैं?''
लड़की थोड़ा चौंकी और बोली ''नहीं। ''
मुल्ला ने दूसरा सवाल पूछा ''क्या तुम्हारा कोई भाई है?''
लड़की और भी हैरान हुई। यह किस प्रकार की मुलाकत है! उसने कहा ''नहीं।''
मुल्ला को एक क्षण के लिए कुछ सूझा नहीं कि दार्शनिक बात कैसे शुरू करे? केवल एक क्षण के लिए ही पर फिर उसने पूछा, ''अब अगर तुम्हारा कोई भाई होता तो क्या उसे नूडल्ज पसंद आतीं?''
यह दर्शन है तत्व ज्ञान है। दार्शनिक सिद्धांत निरर्थक हैं। तंत्र की दर्शन में तत्वज्ञान में कोई दिलचस्पी नहीं तंत्र का रस वास्तविक अस्तित्वरात जीवन में है। तंत्र कभी नहीं पूछता कि कहां है परमात्मा? क्या स्वर्ग और नरक हैं? नहीं, तंत्र जीवन के बुनियादी प्रश्न पूछता है। इसी कारण तंत्र की काम और प्रेम में इतनी रुचि है--ये आधारभूत हैं। तुम इन्हीं के माध्यम से आए हो तुम इनका ही अंश हो।
तुम काम-ऊर्जा का ही खेल हो, और कुछ नहीं हो। और जब तक तुम इस ऊर्जा को जानोगे नहीं इसका अतिक्रमण नहीं कर लोगे तब तक तुम कुछ और नहीं हो सकते। तुम अभी इस समय काम-ऊर्जा के सिवाय और कुछ नहीं हो। तुम इससे कुछ ज्यादा हो सकते हो। लेकिन अगर तुम इसे जानते नहीं इसका अतिक्रमण नहीं करते, तो तुम इससे ज्यादा कभी नहीं हो सकते। बीज ही बने रहने की संभावना है।
इसलिए तंत्र का रस काम, प्रेम और नैसर्गिक जीवन में है। लेकिन उसे जानने का मार्ग संघर्ष नहीं है। तंत्र कहता है अगर तुम संघर्षशील प्रवृत्ति के व्यक्त्ति हो तो तुम कुछ भी नहीं जान सकते तब तुम ग्रहणशील नहीं होते। क्योंकि तब तुम जूझ रहे हो अत: रहस्य तुम पर प्रकट नहीं हो सकेंगे। तुम उन्हें ग्रहण करने के लिए खुले नहीं हो।
और जब तुम संघर्ष कर रहे हो जूझ रहे हो तो तुम सदा बाहर हो। अगर तुम काम-वासना से लड़ रहे हो तो तुम बाहर हो। अगर तुम काम-वासना को समर्पित हो जाते हो, तो तुम उसके अंतरतम में प्रवेश कर जाते हो। अगर तुम समर्पण कर देते हो तो बहुत--सी बातें तुम्हें ज्ञात हो जाती हैं।
तुमने काम को भोगा है लेकिन उसके पीछे हमेशा संघर्ष की वृत्ति रही है। इसलिए उसके बहुत--से रहस्यों को तुम जान नहीं पाए। उदाहरण के लिए तुम्हें काम की सैक्स की जीवन दायिनी शक्तियों का पता नहीं है। क्योंकि उनको जानने के लिए अंतर्मुखता चाहिए।
अगर तुम सच में काम-ऊर्जा के साथ बह रहे हो उसके आगे समग्र-समर्पण है तो देर-अबेर तुम उस बिंदु पर पहुंच जाओगे जब तुम्हें यह ज्ञात होगा कि काम केवल एक नये जीव को ही जन्म नहीं दे सकता, बल्कि और अधिक जीवन-शक्ति भी प्रदान कर सकता है।
प्रेमियों के लिए काम, सेक्स जीवन-शक्ति बन सकता है लेकिन उसके लिए समर्पण चाहिए। और अगर एक बार समर्पण कर दिया, तो अनेक आयाम बदल जाते हैं।
उदाहरण के लिए तंत्र ने यह जान लिया था, ताओ ने जान लिया था कि अगर संभोग में तुम्हारे वीर्य का स्खलन की कोई आवश्यकता भी नहीं है। तंत्र और ताओ कहते हैं वीर्य-स्खलन इसलिए होता है क्योंकि तुम संघर्ष कर रहे हो। वैसे इसकी जरूरत नहीं है।
प्रेमी और प्रेमिका संभोग में बिना किसी तनाव के प्रगाढ़ आलिंगन में एक दूसरे से जुड़े हैं। स्खलन के लिए कोई उतावलापन नहीं काम-क्रीड़ा को समाप्त कर देने की जल्दी नहीं। वे सिर्फ एक दूसरे में शिथिल रिलैक्स हो सकते हैं। अगर वे पूरी तरह शिथिल हैं तो अपने में ज्यादा जीवन-शक्ति अनुभव करेंगे। वे दोनों एक दूसरे के जीवन को और समृद्ध करेंगे।
ताओ कहता है अगर व्यक्ति संभोग में उतावला न हो, केवल गहरे विश्राम में ही शिथिल हो तो वह एक हजार वर्ष जी सकता है। अगर स्त्री और पुरुष एक दूसरे के साथ गहरे विश्राम में हो एक दूसरे में डूबे हों कोई जल्दी न हो, कोई तनाव न हो, तो बहुत कुछ घट सकता है रासायनिक चीजें घट सकती हैं। क्योंकि उस समय दोनों के जीवन-रसों का मिलन होता है दोनों की शरीर-विद्युत, दोनों की जीवन-ऊर्जा का मिलन होता है। और केवल इस मिलन से--क्योंकि ये दोनों एक दूसरे से विपरीत हैं--एक पॉजिटिव है एक नेगेटिव है। ये दो विपरीत धुरव हैं--सिर्फ गहराई में मिलन से वे एक दूसरे को और जीवतंता प्रदान करते हैं।
वे बिना वृद्धावस्था को प्राप्त हुए लंबे समय तक जी सकते हैं। लेकिन यह तभी जाना जा सकता है जब तुम संघर्ष नहीं करते। यह बात विरोधाभासी प्रतीत होती है। जो कामवासना से लड़ रहे हैं उनका वीर्य स्खलन जल्दी हो जाएगा, क्योंकि तनाव ग्रस्त चित्त तनाव से मुक्त होने की जल्दी में होता है।
नई खोजों ने कई आश्चर्य चकित करने वाले तथ्यों को उद्धाटित किया है। मास्टर्स और जान्सन्स ने पहली बार इस पर वैज्ञानिक ढंग से काम किया है कि गहन मैथुन में क्या-क्या घटित होता है। उन्हें यह पता चला कि पचहत्तर प्रतिशत पुरुषों का समय से पहले ही वीर्य-स्खलन हो जाता है। पचहत्तर प्रतिशत पुरुषों का प्रगाढ़ मिलन से पहले ही स्खलन हो जाता है और काम-कृत्य समाप्त हो जाता है। और नब्बे प्रतिशत स्त्रियां काम के आनंद-शिखर ऑरगॉज्म तक पहुंचती ही नहीं, वे कभी शिखर तक गहन तृसिदायक शिखर तक नहीं पहुंचतीं नब्बे प्रतिशत स्त्रियां।
इसी कारण स्त्रियां इतनी चिड़चिड़ी और क्रोधी होती हैं और वे ऐसी ही रहेंगी। कोई ध्यान आसानी से उनकी सहायता नहीं कर सकता, कोइ दर्शन, कोई धर्म, कोई नैतिकता उसे पुरुष--जिसके साथ वह रह रही है--के साथ चैन से जीने में सहायक नहीं हो सकता। और तब उनकी खीझ उनका तनाव...क्योंकि आधुनिक विज्ञान तथा प्राचीन
तंत्र दोनों ही कहते हैं कि जब तक स्त्री को गहन काम-तृप्ति नहीं मिलेगी, वह परिवार के लिए एक समस्या ही बनी रहेगी। वह हमेशा झगड़ने के लिए तैयार होगी।
इसलिए अगर तुम्हारी पत्नी हमेशा झगड़े के भाव में रहती है तो सारी बातों पर फिर से विचार करो। केवल पत्नी ही नहीं, तुम भी इसका कारण हो सकते हो। और क्योंकि स्त्रियां काम संवेग, ऑरगॉज्म, तक नहीं पहुंचती, वे काम-विरोधी हो जाती हैं। वे संभोग के लिए आसानी से तैयार नहीं होतीं। उनकी खुशामद करनी पड़ती है; वे काम- भोग के लिए तैयार ही नहीं होतीं। वे इसके लिए तैयार भी क्यों हो उन्हें कभी इससे कोई सुख भी तो प्राप्त नहीं होता। उलटे, उन्हें तो ऐसा लगता है कि पुरुष उनका उपयोग करता है उन्हें इस्तेमाल किया गया है। उन्हें ऐसा लगता है कि वस्तु की भांति उपयोग कर उन्हें फेंक दिया गया है।
पुरुष संतुष्ट है क्योंकि उसने वीर्य बाहर फेंक दिया है। और तब वह करवट लेता है और सो जाता है और पत्नी रोती है। उसका उपयोग किया गया है और यह प्रतीति उसे किसी भी रूप में तृप्ति नहीं देती। इससे उसका पति या प्रेमी तो छुटकारा पाकर हल्का हो गया लेकिन उसके लिए यह कोई संतोषप्रद अनुभव न था।
नब्बे प्रतिशत स्त्रियों को तो यह भी नहीं पता कि ऑरगॉज्म क्या होता है? क्योंकि वे शारीरिक संवेग के ऐसी आनंददायी शिखर पर कभी पहुंचती ही नहीं जहां उनके शरीर का एक-एक तंतु सिहर उठे और एक-एक कोशिका सजीव हो जाए। वे वहां तक कभी पहुंच नहीं पातीं। और इसका कारण है समाज की काम-विरोधी चित्तवृत्ति। संघर्ष करनेवाला मन वहां उपस्थित है इसलिए स्त्री इतनी दमित और मंद हो गई है।
और पुरुष इस कृत्य को ऐसे किए चला जाता है जैसे वह कोई पाप कर रहा हो। वह स्वयं को अपराधी अनुभव करता है वह जानता है ''इसे करना नहीं चाहिए। '' और जब वह अपनी पत्नी या प्रेमिका से संभोग करता है तो वह उस समय किसी महात्मा के बारे में ही सोच रहा होता है। ''कैसे किसी महात्मा क पास जाऊं और किस तरह
काम-वासना से, इस अपराध से, इस पाप से पार हो जाऊं। ''
महात्माओं से पीछा छुड़ाना बड़ा मुश्किल है वे हमेशा विद्यमान रहते हैं। जब तुम प्रेम भी कर रहे होते हो सिर्फ तुम दोनों ही नहीं होते--एक महात्मा भी वहां अवश्य होगा-- इस तरह तुम तीन होते हो। और अगर महात्मा मौजूद नहीं है तो परमात्मा तुम्हें यह सब करते हुए देख रहा है। लोगों के मन में परमात्मा की धारणा ऐसे ही है जैसे कोई शरारती लड़का हमेशा छेद में से झांक रहा है और तुम्हें देख रहा है। यह चित्त-वृत्ति चिंता पैदा करती है और जब चिंता है तनाव है तो स्खलन शीघ्र ही हो जाएगा।
जब कोई चिंता नहीं, तब स्खलन घंटों रोका जा सकता है--यहां तक कि कई दिनों तक भी रोका जा सकता है। और इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। अगर प्रेम गहरा है और दोनों शरीर एक दूसरे को शक्ति प्रदान कर सकते है जब वीर्य स्खलन पूरी तरह रोका जा सकता है। दो प्रेमी एक दूसरे में वर्षों तक मिल सकते हैं बिना स्खलन के बिना शक्ति खोए। वे एक दूसरे के साथ विश्राम में हो सकते हैं। उनके शरीर मिलते हैं और शिथिल हो जाते हैं एक दूसरे में प्रवेश करते ही शिथिल हो जाते हैं। और दरे-अबेर काम उत्तेजना नहीं रहती। अभी वह उत्तेजना है। तब वह उत्तेजना नहीं विश्रांति है रिलैग्जेशन है; एक गहन समर्पण। अंग्रेजी में जिसके लिए सटीक शब्द है-- ''लेट गो''।
लेकिन यह तभी संभव है जब पहले तुमने स्वयं को इस प्राण-ऊर्जा को समर्पित कर दिया है।
तंत्र कहता है ''यदि ऐसा घटित होता है और तंत्र इसका प्रबंध करता है कि कैसे यह घटित हो?'' तंत्र कहता है ''जब तुम उत्तेजित हो तब कभी संभोग मत करना।'' यह बात बहुत असंगत प्रतीत होती है क्योंकि तुम तभी संभोग करना चाहते हो जब तुम उत्तेजित हो। और दोनों साथी संभोग के लिए एक दूसरे को उत्तेजित करते हैं।
लेकिन तंत्र कहता है ''उत्तेजना में तुम अपनी शक्ति का व्यर्थ व्यय करते हो।'' तब प्रेम करो जब तुम शांत, गंभीर और ध्यान में हो। पहले ध्यान करो फिर प्रेम करो। और संभोग करते समय भी मर्यादा में रहो। मर्यादा से मेरा क्या अभिप्राय है?--सीमा के बाहर मत जाओ। उत्तेजित और हिंसात्मक मत होओ ताकि तुम्हारी ऊर्जा बिखर न जाए।
अगर तुम व्यक्तियों को प्रेम करते देखो तो लगेगा कि वे लड़ रहे हैं। छोटे बच्चे, अगर कभी अपने माता पिता को प्रेम करते देखते हैं तो वे सोचते हैं कि पिता मां की हत्या करने जा रहे हैं। यह बड़ा हिंसात्मक प्रतीत होता है यह लड़ाई जैसा दिखाई देता है। यह निश्चय ही अधिक संगीतात्मक लयबद्ध और हारमोनियस होना चाहिए। ऐसा प्रतीत होना चाहिए जैसे दोनों नृत्य कर रहे हैं लड़ नहीं रहे--एक मधुर धुन गा रहे हैं एक ऐसा वातावरण निर्मित कर रहे हैं जिसमें वे एक दूसरे में डूब सकें विलीन हो सकें एकाकार हो सकें। और फिर शांति हो जाएं। तंत्र का यही अर्थ है। तंत्र बिल्कुल कामुक नहीं। तंत्र का कामुकता से नहीं काम से संबंध है। और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि प्रकृति अपने रहस्यो को इन्हीं शांत और विश्राम के क्षणों में तुम पर प्रकट करती है। तब तुम जो कुछ भी घट रहा है उसके प्रति होशपूर्ण होने लगते हो। इस होशपूर्ण अवस्था में कई रहस्यों का उदघाटन तुम्हारे मन में होने लगता है।
पहली बात, काम, सेक्स जीवनदायी हो जाता है। अभी तो जैसा है मृत्युदायी है। इसके द्वारा तुम सिर्फ मुत्यु को ही प्राप्त हो रहे हो स्वयं को व्यर्थ खो रहे हो। दूसरी बात यह नैसर्गिक गहनतम ध्यान बन जाता है। तुम्हारे विचार पूर्ण रूप से रुक जाते हैं। जब तुम अपने प्रेमी के साथ पूरी तरफ विश्रांति में होते हो तुम्हारे विचार रुक जाते
हैं। बुद्धि वहां नहीं होती केवल तुम्हारा हृदय धड़कता है। वह प्राकृतिक ध्यान बन जाता है। अगर प्रेम तुम्हें ध्यान में उतरने के लिए सहायक सिद्ध नहीं हो सकता तो कुछ भी सहायक सिद्ध न होगा, कयोंकि शेष सब सतही है व्यर्थ है अनावश्यक है। अगर प्रेम सहायता नहीं कर सकता तो और कुछ भी सहायता करने में समर्थ नहीं है।
प्रेम अपने में ध्यान है। लेकिन तुम्हें प्रेम का पता नहीं तुम्हें केवल सेक्स का पता है। और तुम्हें ऊर्जा को व्यर्थ गंवाने की पीड़ा का पता है। और बाद में तुम एक खिन्नता एक उदासी अनुभव करते हो। तब तुम ब्रह्मचर्य का व्रत लेने का निर्णय करते हो। यह व्रत तुम निराशा और उदासी के क्षणों में लेते हो यह व्रत क्रोध में लेते हो यह व्रत कुंठित मन से लेते हो। यह सहायक सिद्ध नहीं होगा।
यह व्रत तभी सहायक हो सकता है अगर गहन विश्राम, और ध्यान की अवस्था में लिया जाए--नहीं तो तुम केवल अपने क्रोध, और कुंठा के सिवाय और कुछ भी प्रगट नहीं कर रहे। और तुम अपनी प्रतिज्ञा को चौबीस घंटे की भीतर ही भूल जाओगे। ऊर्जा फिर निर्मित हो जाएगी और फिर उसी पुरानी चर्चा के कारण तुम्हें इससे छुटकारा
पाने के लिए विवश होना पड़ेगा।
इसलिए सेक्स तुम्हारे लिए एक छींक से ज्यादा नहीं है। तुम एक उत्तेजना अनुभव करते हो और छींक की भांति बाहर फेंककर राहत महसूस करते हो। नाम में जो थोड़ी खुजली तंग कर रही थी उससे छुटकारा पाने का सुख मिल गया। इसलिए काम केंद्र पर जो कुछ तंग कर रहा था उससे मुक्ति मिल गई।
तंत्र कहता है ''काम बहुत गहरा है क्योंकि यह जीवन है।'' लेकिन तुम गलत कारणों से इसमें रुचि रखेते हो। तंत्र में गलत कारणों से आकिर्षत मत होना तब तंत्र तुम्हें खतरनाक नहीं प्रतीत होगा, तब तंत्र जीवन रूपांतरण होगा।
 जिन विधियों की हम चर्चा कर रहे थे उनका योग में भी प्रयोग होता रहा है लेकिन शत्रु-भाव से। तंत्र उन्हीं विधियों का प्रयोग करता है लेकिन मित्र-भाव से, प्रेम-भाव से। इससे बहुत अंतर पड़ता है। विधि में गुणात्मक अंतर पड़ जाता है क्योंकि पूरी पृष्ठभूमि ही बदल जाती है।
और तुमने पूछा हैं--,
‘’तंत्र का कैंन्द्र विषय क्या है?
तुम! तुम ही तंत्र के केंद्रीय विषय हो। तुम जैसे अभी हो और जो तुम्हारे भीतर छिपा है वही तो विकसित हो सकता है जो तुम हो और जो तुम हो सकते हो। अभी इस समय तुम काम की ही एक इकाई हो। और जब तक इकाई को गहराई से न समझ लिया जाए तुम आध्यात्मिक इकाई नहीं हो सकते। कामुकता और आध्यात्मिकता एक
ही ऊर्जा के दो छोर हैं।
''तंत्र'' तुम जैसे हो वहीं से शुरू करता है योग तुम हो सकते हो वहां से शुरू करता है। योग अंत के साथ शुरू करता है तंत्र आरंभ के साथ शुरू करता है। और आरंभ के साथ शुरू करना अच्छा है क्योंकि अगर अंत ही आरंभ है तब तुम व्यर्थ अपने लिए दुख पैदा कर रहे हो। तुम केवल आदर्श ही नहीं हो। तुम्हें देवता होना है और अभी तुम
सिर्फ पशु हो। और यह पशु देवता के आदर्श के कारण पागल हो जाता है।
तंत्र कहता है ''देवता को भूल जाओ। '' अगर तुम पशु हो तो इस पशु को उसकी समग्रस्ता में समझो। उस समझ में ही देवता का जन्म होगा। और अगर उस समझ से भी देवता का जन्म न हो पाए तो भूल जाओ इसे, उसका जन्म संभव ही नहीं है। आदर्श तुम्हारी संभावनाओं को प्रकट नहीं कर सकते, केवल वास्तविकता का ज्ञान ही
तुम्हारी मदद कर सकता है। इसलिए तुम ही तंत्र का केंद्रीय विषय हो--जैसे तुम हो और जैसे हो सकते हो तुम्हारी वास्तविकता और तुम्हारी संभावना। वे ही विषय-वस्तु हैं।
कभी-कभी लोग घबरा जाते हैं। अगर तुम तंत्र को समझने जाते हो, तो वहां न तो परमात्मा की चर्चा होती है न मोक्ष की, न निर्वाण की। तंत्र किस प्रकार का धर्म है? तंत्र उनकी चर्चा करता है जिनसे तुम्हें वितृष्णा होती है तुम उनकी बात भी नहीं करना चाहते। कौन काम सेक्स की चर्चा करना चाहता है? क्योंकि हर कोई सोचता है कि उसे सब पता है। क्योंकि तुम बच्चे को जन्म दे सकते हो अत: समझते हो कि तुम जानते हो।
कोई भी काम की, सेक्स की चर्चा नहीं करना चाहता है हालांकि काम सबकी समस्या है। कोई प्रेम की चर्चा नहीं करना चाहता क्योंकि हर कोई समझता है कि वह तो महान प्रेमी है ही। जरा अपने जीवन को देखो। तुम्हारा जीवन केवल घूणा है और धृणा के सिवाय कुछ नहीं है। और जिसे तुम प्रेम कहते हो वह थोड़ी सी चैन थोड़ी
मैंने एक यहूदी गुरु बालशेम के बारे में सुना है वह प्रतिदिन दरजी से अपना चोगा लेने के लिए जाता था और दरजी ने उस फकीर का सीधा-सादा चोगा बनाने में छह महीने लगा दिए--बेचारा गरीब फकीर! चोगा तैयार हो गया और दरजी ने उसे बालशेम को दिया बालशेम ने पूछा, ''परमात्मा ने छह दिनों में सारे संसार की रचना
कर दी और तुमने इस गरीब आदमी का चोगा तैयार करने में छह महीने लगा दिए?''
बालशेम ने अपने संस्मरणों में उस दरजी का उल्लेख किया है। दरजी ने कहा ''यह ठीक है कि परमात्मा ने छह दिनों में संसार की सृष्टि की लेकिन इसकी हालत तो देखो--किस तरह का संसार उसने बनाया है! हां उसने छह दिनों में छह दिनों में संसार को बनाया लेकिन इस संसार को तो देखो!''
अपने चारों ओर देख जिस दुनिया को तुमने बनाया है उसे देखो। तब तुम्हें ज्ञात होगा कि तुम कुछ भी नहीं जानते। तुम सिर्फ अंधेरे में टटोल रहे हो। और क्योंकि सभी अंधेरे में हाथ-पांव मार रहे हैं इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि तुम प्रकाश में जी रहे हो। क्योंकि दूसरे भी अंधेरे में भटक रहे हैं तुम्हें अच्छा लगता है। तुम्हारे सामने
कोई तुलना नहीं।
लेकिन तुम अंधेरे में हो, तुम जहां हो जैसे हो तंत्र तुम्हारे साथ वहीं से शुरू करता है। तंत्र तुम्हें उन मूलभूत तथ्यों का बोध देना चाहता है जिन्हें तुम अस्वीकार नहीं करते। या यदि तुम उन्हें अस्वीकार करने की चेष्टा करते हो, तो जिम्मेवारी तुम्हारी होगी। तुम्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।

दूसरा प्रश्न: काम-कृत्य को ध्यान का अनुभव कैसे बनाया जा सकता है? क्या संभोग करते समय किसी विशेष आसन के अभ्यास की आवश्यकता है?

आसन का कोई महत्व नहीं। आसन की बात ही असंगत है। असली बात तो चित्त की अवस्था है--शरीर की नहीं लेकिन यदि तुम अपने मन में परिवर्तन करते हो तो हो सकता है तुम आसन भी बदलना चाहो। ये दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं लेकिन बुनियादी नहीं हैं।
उदाहरण के लिए संभोग करते समय पुरुष हमेशा स्त्री के ऊपर होता है। यह अहंकारी व्यक्ति का आसन है। क्योंकि पुरुष हमेशा यह सोचता है कि वह स्त्री से अधिक योग्य है उच्च है श्रेष्ठ है अत: वह स्त्री के नीचे कैसे हो सकता है? लेकिन पूरी दुनिया के आदिवासी समाजों में स्त्री पुरुष के ऊपर लेटती है। इसलिए अफ्रीका में इसे
मिशनरी पोस्चर धर्मदूत का आसान कहते हैं--क्योंकि पहली बार जब ईसाई धर्म प्रचारक अफ्रीका पहुंचे आदिवासी समझ हीन पाए कि ''ये लोग क्या कर रहे हैं? ये औरत को मार ही डालेगे।''
अफ्रीका में इसे मिशनरी पोस्चर कहते हैं। वहां के आदिवासी इसे हिंसात्मक मानते हैं--कि पुरुष स्त्री के ऊपर सवार हो। वह नाजुक और कमजोर है उसे पुरुष के ऊपर होना चाहिए। लेकिन पुरुष के लिए ऐसा सोचना भी मुश्किल है कि वह स्त्री से नीचा है और वह स्त्री के नीचे हो।
अगर तुम्हारी मनःस्थिति में कुछ परिवर्तन आता है तो बहुत कुछ बदल जाएगा। बहुत--से कारणों से यह उचित है कि स्त्री पुरुष के ऊपर हो। क्योंकि अगर स्त्री पुरुष के ऊपर है...वह निष्क्रिय है वह अधिक हिंसात्मक नहीं हो सकती। वह केवल शिथिल होगी और उसके नीचे लेटा पुरुष कुछ ज्यादा नहीं कर सकता। यह अच्छी बात है।
अगर वह ऊपर हो तो निश्चित ही हिंसात्मक हो जाएगा। वह करेगा कुछ ज्यादा और ज्यादा कुछ करने की तुम्हें जरूरत नहीं। तंत्र के लिए तुम्हें निश्चेष्ट और शिथिल होना पड़ेगा इसलिए यह उचित है कि स्त्री ऊपर लेटी है। वह पुरुष से कहीं ज्यादा शांत और शिथिल हो सकती है क्योंकि वह स्वभाव से ही निष्क्रिय पैसिव है।
आसन बदल जाएगा, लेकिन इसकी अधिक फिक्र मत करो। पहले अपनी चित्त-दशा को बदलो। जीवन-ऊर्जा के प्रति समर्पित हो जाओ इसके साथ बहो। अगर कहीं सच में ही समर्पित हो गए तो तुम्हारे शरीर उस क्षण स्वत: ही उस अवस्था में आ जाएंगे जिसकी आवश्यकता है। अगर दोनों साथियों का समर्पण गहरा है तब उनके शरीर ठीक उस आसन में आ जाएंगे जिसकी उस घड़ी जरूरत है।
और प्रतिदिन परिस्थितियां बदल जाती हैं इसलिए पहले से ही इसको निर्धारित करने की जरूरत नहीं। यही भूल है कि तुम पहले से ही निश्चित करना चाहते हो। जब भी तुम कुछ पहले से निश्चित करना चाहते हो तो स्मरण रहे यह निश्चय तुम्हारा मन ही करता है। इसका अर्थ हुआ कि तुम समर्पण नहीं कर रहे।
अगर तुम समर्पण करते हो तो चीजों को अपने ढंग से घटने दो। और तब एक आश्चर्यजनक समस्वरता हारमनी घटित होती है जब दोनों साथी समर्पण कर देते हैं। वे कई आसन बदलेंगे या फिर वैसे ही पड़े रहेंगे शांत और शिथिल। लेकिन, यह सब बुद्धि द्वारा पहले से किए गए निश्चयों पर नहीं बल्कि जीवन-उर्जा पर निर्भर करता है। पहले कुछ भी निश्चित करने की जरूरत नहीं। यह निश्चय ही समस्या है।
प्रेम करने से पहले तुम सब तय कर लेना चाहते हो। प्रेम करने के लिए तुम पुस्तकें पढ़ते हो। ऐसी पुस्तकें भी हैं जो सिखाती हैं कि कैसे प्रेम किया जाए। इससे यही स्पष्ट होता है कि हमने कैसी मानवीय बुद्धि का विकास किया है--कैसे प्रेम करे! तब प्रेम मस्तिष्क का विषय हो जाता है तुम उसके विषय में सोचते हो मन ही मन उसका रिहर्सल करते हो और फिर इसे कृत्य का रूप देते हो। वह कृत्रिम है वास्तविक नहीं जब तुम रिहर्सल करते हो तो यह अभिनय हो जाता है अप्रामाणिक हो जाता है।
बस, समर्पित हो जाओ और ऊर्जा के साथ-साथ बहो, और फिर वह तुम्हें कहीं भी ले जाए। भय क्या है? भयभीत किस लिए होना? अपने प्रेमी के साथ भी यदि तुम निर्भय नहीं हो सकते, तब कहां, किसके साथ निर्भय हो सकोगे? और एक बार तुम्हें यह अनुभव हो जाए कि जीवन-उर्जा स्वत: ही सहायता करती है और उचित मार्ग, जो
अपेक्षित है, पर ले जाती है, तब तुम्हें जीवन को देने की गहल अंतदृष्टि उपलब्ध होगी। तब तुम अपना सारा जीवन
परमात्मा पर छोड़ सकते हो। वह तुम्हारी प्रियतम है।
तब तुम अपना सारा जीवन उस परम सत्ता के हाथों छोड़ सकते हो। तब तुम सोचते नहीं और योजनाएं नहीं बनाते, तुम भविष्य को बलपूर्वक अपने अनुसार बनाने की चेष्टा नहीं करते। तुम अपना जीवन उसकी मरजी पर छोड़ देते हो।
लेकिन काम-कृत्य (संभोग) को ध्यान कैसे बनाया जाए? समर्पण मात्र से ही ऐसा हो जाता है। उसके विषय में सोचो मत, उसे होने दो। तुम शांत और शिथिल पड़े रहो, और आगे कुछ मत करो। मन के साथ यही समस्या है। वह हमेशा आगे की सोचता है, हमेशा परिणाम की सोचता है और परिणाम भविष्य में है। इसलिए कृत्य में तुम स्वयं कभी उपस्थित नहीं होते। फलाकांक्षा के कारण तुम हमेशा भविष्य में होते हो। फल की आकांक्षा सब गड़बड़ कर देती, सब बिगाड़ देती है।
केवल कृत्य में ही रहो। भविष्य को भूल जाओ। वह आयेगा ही, उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं। चिंता करके तुम उसे ला नहीं सकते। वह आ ही रहा है, वह आ ही गया है। तुम उसकी चिंता मत करो। तुम बस, यहां और अभी ''हेयर एंड नाओ'' बने रहो।
यहां और अभी होने के लिए काम एक गहरी अंतदृष्टि बन सकता है। मेरे देखे, अब केवल यही एक कृत्य ऐसा बचा है जिसमें तुम यहीं और अभी हो सकते हो। अपने कालेज में जहां तुम शिक्षा ग्रहण कर रहे हो, यहीं और अभी नहीं हो सकते, इस आज की दुनिया में तुम कहीं भी यहां और अभी नहीं हो सकते।
लेकिन वहां भी तुम नहीं हो। तुम फल की चिंता कर रहे हो। और अब कई नई किताबों ने बहुत--सी उलझने पैदा कर दी हैं। क्योंकि अब तुम उन किताबों को पढ़ते हो जिनमें लिखा है कि प्रेम कैसे किया जाए और फिर तुम डरते हो कि प्रेम ठीक ढंग से कर रहे हो या गलत ढंग से। तुम किताब पढ़ते हो कि संभोग किस आसन में और कैसे किया जाए और फिर तुम चिंतित हो कि तुमने ठीक आसन बनाया या नहीं।
मनोवैज्ञानिक ने मन के लिए नई चिंताएं पैदा कर दी हैं। अब वे कहते हैं कि पति इस बात का ख्याल रखे कि पत्नी कामसंवेग के शिखर तक पहुंच पा रही है या नहीं। इसलिए अब वह चिंतित है, ''क्या मेरी पत्नी ऑरगॉज्म को प्राप्त कर रही है या नहीं?'' और यह चिंता किसी प्रकार से कोई मदद नहीं कर सकती, बल्कि बाधा बन जाएगी।
और अब पत्नी चिंतित है कि क्या वह अपने पति को पूरी तरह रिलैक्स, होने में मदद कर रही है या नहीं? इसलिए उसके चेहरे पर प्रसन्नता और ओंठों पर मुस्कुराहट होनी ही चाहिए। उसे ऐसा प्रकट करना चाहिए कि वह बहुत ही आनंदित अनुभव कर रही है। सब झूठ हो जाता है। दोनों ही परिणाम की फिक्र कर रहे हैं और इस फिक्र के कारण वे फल कभी नहीं आएंगे।
सब भूल जाओ। उस क्षण में बहो और अपने शरीरों को जो भी करें, करने दो-- तुम्हारे शरीर भली भांति जानते हैं, उनकी अपनी समझ है। तुम्हारे शरीर काम-कोशिकाओं सेक्स-सैलस से बने हैं। इनके भीतर सब कार्य पहले से निर्धारित हैं, तुमसे कुछ भी नहीं पूछा गया। बस, सब शरीर पर छोड़ दो; और शरीर हिलने-डुलने लगेगा। यह सब छोड़ देना, यह ''लेट गो'' स्वत: ध्यान बन जायेगा।
और अगर तुम संभोग में ध्यान का अनुभव पा सको, तो एक बात तुम्हें समझ आ जाएगी कि जब भी तुम समर्पण कर पाते हो, तुम्हें वही अनुभूति होती है। फिर तुम गुरु के आगे भी समर्पण कर सकोगे। वह प्रेम-संबंध है।
तुम गुरु को समर्पित हो सकते हो, और तब उसके चरणों में सिर रखते समय तुम्हारा सिर खाली हो जाएगा, तुम विचार शून्य हो जाओगे। तुम ध्यानावस्था में होओगे।
फिर गुरु की भी जरूरत नहीं रहेगी--बाहर निकलकर तुम आकाश के प्रति समर्पित हो सकते हो--अब तुम समर्पण करना जानते हो, बस यही पर्याप्त है। तुम वृक्ष के आगे समर्पण कर सकते हो...और इसीलिए यह मूर्खतापूर्ण लगता है क्योंकि हम समर्पण करना नहीं जानते। हम किसी आदिवासी या ग्रामीण को देखते हैं, वह नदी पर जाता है, नदी को समर्पित होता है, उसे मां कहता है, देवी मां। या ऊगते सूर्य के प्रति समर्पण करता है और उसे महान देवता कहता है या पेड़ के पास जाता है सिर झुकाता है और समर्पित हो जाता है।
हमारे लिए वह अंधविश्वास है, तुम उसे कहते कि यह क्या मूर्खता कर रहे हो? पेड़ क्या कर सकता है? नदी क्या कर सकती है? और सूर्य क्या करेगा? देवी-देवता नहीं हैं। अगर तुम समर्पण कर सको तो कुछ भी देवता बन सकता है। अत: तुम्हारा समर्पण ही उसे दिव्य बना देता है। कुछ भी दिव्य नहीं है केवल तुम्हारा समर्पण करने वाला मन ही दिव्य बना देता है।
अपनी पत्नी के प्रति समर्पित हो जाओ और वह दिव्य हो जाती है; अपने पति के प्रति समर्पण करो, वह दिव्य हो जाता है। दिव्यता समर्पण के माध्यम से प्रकट होती है। पत्थर के प्रति समर्पण होते ही वह पत्थर नहीं रह जाता--पत्थर एक मूर्ति, एक सजीव मूर्ति हो जाता है।
इसलिए केवल यह जानना कि कैसे समर्पण करें... और जब मैं कहता हूं ''कैसे समर्पण करे'', मेरा अभिप्राय यह नहीं कि इसके लिए किसी विधि को जानो। मेरा मतलब है, तुम्हारे पास प्रेम में समर्पित होने की प्राकृतिक संभावना है। समर्पित हो जाओ और इसे अनुभव करो। और तब अपने पूरे जीवन पर इसे छा जाने दो।

आज इतना ही
(समाप्त)

1 टिप्पणी:

  1. बहुत अद्भुत प्रवचन । बहुत ही ज्ञावर्धक है। धन्यवाद आपका इस लेख को पोस्ट करने के लिए।

    जवाब देंहटाएं