(मैं आपको तट पर खड़ा पा रहा हूं-सातवां)
मेरे प्र्रिय,प्रेम।
आपका पत्र मिला है। उसे पाकर आनंदित हुआ हूं। उस दिन भी आपसे मिल कर अपार हर्ष हुआ था।
सत्य के लिए जैसी आपकी आकांक्षा और प्यास है, वह सौभाग्य से ही होती है।
वह हो, तो एक न एक दिन साधना के सागर में कूदना हो ही जाता है।
मैं आपको तट पर खड़ा पा रहा हूं--बस, एक छलांग की ही आवश्यकता है।
साधना को जितना सहज बनाया जा सके--वह जितनी ‘प्रयत्न के तनाव से शून्य’ हो, उतनी ही शीघ्रता से उसमें गति होती है।
अयास तो होगा ही, लेकिन, वह अयास तनाव और व्यस्तता नहीं बनना चाहिए। इस भाव को ही मैंने ‘अनायास के द्वारा अयास’ कहा है।
सत्य को पाने में जो अधैर्य और अशांति होती है, उसे ही तनाव--प्रयत्न का तनाव समझना चाहिए।
अनंत धैर्य और शांति और प्र्र्र्र्रतीक्षा हो, तो प्रयत्न का तनाव विलीन हो जाता है।
फिर, जैसे वृक्षों में फूल सहज ही खिलते हैं, वैसे ही साघना में अनायास और अनिरीक्षित ही क्रमशः गति होती जाती है।
वहां सभी को मेरा प्रेम कहें।
रजनीश के प्रणाम
5 अप्रैल, 1965
(प्रतिः श्री मथुराप्रसाद मिश्र, पटना, बिहार )
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