(सत्ता की, होने की, प्राणों की पूर्णानुभूति ही सत्य है-ग्याहरवां)
प्रिय सुशीला,तुम्हारा पत्र। मैं बाहर था। परसों ही लौटा हूं। विश्वविद्यालय से मुक्ति ले ली है, इसलिए अब तो यात्रा ही जीवन है।
सत्य क्या है? सत्ता की, होने की, प्राणों की पूर्णानुभूति ही सत्य है।
‘होने’ की अनुभूति जितनी मूच्र्छित है, जीवन उतना ही असत्य है।
‘मैं’ हूं--इसे खूब गहरी प्रगाढ़ता से प्रतिक्षण अनुभव करो।
श्वास उससे भर जावे।
अंततः ‘मैं’ न बचे और ‘हूं’ ही शेष रहे।
उस क्षण ही ‘जो है’, उसे जाना और जिया जाता है।
क्या मौन में संवाद संभव है?
वस्तुतः तो मौन में ही संवाद संभव है। शब्द कहते कम, रोकते ज्यादा हैं।
बहुत गहरे में सब संयुक्त है।
मौन में उसी संयुक्तता के तल पर भावों का संक्रमण हो जाता है।
शब्द शून्याभिव्यक्ति के बहुत असमर्थ पूरक हैं।
सत्य तो शब्दों में कहा ही नहीं जा सकता।
उसे तो मौन अंतर्नाद से ही प्रकट किया जा सकता है।
और तुमने जो सलाहें देनी शुरू की हैं, उनसे बहुत आनंदित हूं।
सदा ऐसी ही सलाहें देती रहना।
संसार के संबंध में मैं कुछ भी तो नहीं जानता हूं!
इन सलाहों में छिपी मेरे लिए तुम्हारी चिंता और प्रेम में मैं बहुत अभिभूत हो जाता हूं।
रजनीश के प्रणाम
5-8-1966
(प्रतिः सुश्री सुशीला सिन्हा, पटना)
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