(निर्विचार चैतन्य है--जीवनानुभूति का द्वार-चौहदवां)
मेरे प्रिय,
प्रेम।
तुम्हारा पत्र और तुम्हारे प्रश्न मिले हैं।
मैं मृत्यु के संबंध में जान-बूझ कर चुप रहा हूं।
क्योंकि मैं जीवन के संबंध में जिज्ञासा जगाना चाहता हूं।
मृत्यु के संबंध में जो सोच-विचार करते हैं, वे कहीं भी नहीं पहुचंते हैं।
क्योंकि, वस्तुतः मरे बिना मृत्यु कैसे जानी जा सकती है?
इसलिए, वैसे सोच-विचार का कुल परिणाम या तो यह स्वीकृति होती है कि आत्मा अमर है या यह कि जीवन की समाप्ति पूर्ण समाप्ति ही है और पीछे कुछ शेष नहीं रह जाता है।
ये दोनों ही कोरी मान्यताएं हैं।
एक मान्यता मृत्यु के भय पर खड़ी है और दूसरी शरीर की समाप्ति पर।
मैं चाहता हूं कि व्यक्ति मान्यताओं और विश्वासों में न पड़े।
क्योंकि, वह दिशा ही अनुभव की और ज्ञान की दिशा नहीं है।
और मृत्यु के संबंध में मान्यता और सिद्धांतों के अतिरिक्त सोच-विचार से और क्या मिल सकता है?
विचार कभी भी ज्ञात (ज्ञदवूद) के पार नहीं ले जाता है।
और, मृत्यु है अज्ञात।
इसलिए, विचार से उसे नहीं जाना जा सकता है।
मैं तो जीवन की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं।
जीवन है--अभी और यहीं (भमतम ंदक दवू)।
उसमें उतरा जा सकता है।
मृत्यु तो कभी भी अभी और यहीं नहीं है।
या तो वह भविष्य में है या अतीत में।
मृत्यु कभी भी वर्तमान में नहीं है।
क्या यह तथ्य तुम्हारे ध्यान में कभी आया है कि मृत्यु कभी भी वर्तमान में नहीं है!
लेकिन, जीवन तो सदा वर्तमान में है।
वह न अतीत में है, न भविष्य में।
वह है, तो अभी है; अन्यथा कभी नहीं है।
इसलिए, उसे जाना जा सकता है। क्योंकि उसे जीया जा सकता है। उसके संबंध में विचार करने की आवश्यकता नहीं है।
वस्तुतः तो, जो उसके संबंध में विचार करेंगे, वे उसे चूक जावेंगे।
क्योंकि, विचार की गति भी अतीत और भविष्य में ही होती है। विचार भी वर्तमान में नहीं होता है।
विचार भी मृत्यु का सहधर्मा है। अर्थात वह भी मृत ही है। जीवन का तत्व उसमें भी नहीं है।
जीवंतता सदा वर्तमान है। वह वर्तमान ही है।
उसका रूप हैः अभी--बिल्कुल अभी (छवू)। यहां--बिल्कुल यहां (भमतम)।
इसलिए, जीवन का विचार नहीं होता; होती है अनुभूति।
अनुभव (द्मगचमतपमदबम) भी नहीं--अनुभूति (द्मगचमतपमदबपदह)।
अनुभव अर्थात जो हो चुका। अनुभूति अर्थात जो हो रही है।
अनुभव तो बन चुका विचार। क्योंकि, वह अतीत हो गया है।
अनुभूति है निर्विचार--निःशब्द--मौन--शून्य।
इसलिए, निर्विचार-चैतन्य (ैंवनहीजसमे :ूंतमदमे) को कहता हूं मैं--जीवानानुभूति का द्वार।
और, जो जीवन को जान लेता है, वह सब जान लेता है।
वह मृत्यु को भी जान लेता है।
क्योंकि, मृत्यु जीवन को न जानने से पैदा हुआ एक भ्रम मात्र है।
जीवन को जो नहीं जानता, वह स्वभावतः शरीर को ही स्वयं मान लेता है। और, शरीर तो मरता है। शरीर तो मिटता है। उसकी इकाई तो विसर्जित होती है।
इससे ही मृत्यु पूर्ण अंत है, यह धारणा पैदा होती है।
जो थोड़े साहसी हैं और निर्भय हैं, वे इसी धारणा को स्वीकार करते हैं।
और शरीर को ही स्वयं मान लेने की इसी भ्रांति से मृत्यु का भय भी पैदा होता है।
और, इसी भय से पीड़ित व्यक्ति "आत्मा अमर है", "आत्मा अमर है" इसका जाप करने लगते हैं।
भयभीत और निर्बल व्यक्ति इस भांति शरण खोजते हैं।
लेकिन, ये दोनों धारणाएं एक ही भ्रम से जन्मती हैं।
वे एक ही भ्रांति के दो रूप और दो प्रकार के व्यक्तियों की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं हैं।
लेकिन, स्मरण रहे कि दोनों की भ्रांति एक ही और दोनों प्रकार से वही भ्रांति मजबूत होती है।
मैं इस भ्रांति को किसी भांति का बल नहीं देना चाहता हूं।
यदि मैं कहूंः आत्मा अमर नहीं है, तो यह असत्य है।
और यदि कहूं कि आत्मा अमर है, तो भी यह भय के लिए एक पलायन बनता है। और जो भयभीत हैं, वे कभी सत्य को नहीं जान पाते हैं।
इसलिए, मैं कहता हूं कि मृत्यु अज्ञात है। जानो जीवन को। वही जाना जा सकता है। और, उसे ही जान लेने पर अमृतत्व भी जान लिया जाता है।
जीवन शाश्वत है। उसका न आदि है, न अंत।
वह अभिव्यक्त होता है, अनभिव्यक्त होता है।
वह एक रूप से दूसरे रूपों में भी गति करता है।
रूपांतरण के ये संधि-स्थल ही अज्ञान में मृत्यु-जैसे प्रतीत होते हैं।
लेकिन, जो जानता है, उसके लिए मृत्यु गृह-परिवर्तन से ज्यादा नहीं है।
निश्चय ही पुनर्जन्म है।
लेकिन, मेरे लिए वह सिद्धांत नहीं है, अनुभूति है।
और, मैं दूसरों के लिए भी उसे सिद्धांत नहीं बनाना चाहता हूं। सिद्धांतों ने सत्य की बुरी तरह हत्या कर दी है।
मैं तो चाहता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं जान सके।
यह कार्य कोई दूसरा किसी के लिए नहीं कर सकता है।
लेकिन, सिद्धांतों के द्वारा यही कार्य हो गया प्रतीत होता है।
इससे एक-एक व्यक्ति की निजी खोज कुंठित और जड़ हो गई है।
वह तो बस, सिद्धांत और शास्त्र मान कर चुप बैठ गया है। जैसे कि उसे स्वयं न कुछ जानना है, न करना है।
यह स्थिति तो बहुत आत्मघाती है।
इसलिए, मैं सिद्धांतों की पुनरुक्ति से मनुष्य की इस हत्या के विराट समारोह में सम्मिलित नहीं होना चाहता हूं।
मैं तो सब बंधे-बंधाए सिद्धांतों को अस्त-व्यस्त कर देना चाहता हूं।
क्योंकि, मुझे यही करुणापूर्ण मालूम होता है।
इस भांति जो असत्य है, वह नष्ट हो जाएगा।
और, सत्य तो कभी नष्ट नहीं होता है।
वह तो खोजने वाले को सदा ही अपनी चिर-नूतनता में उपलब्ध हो जाता है।
वहां सबको मेरे प्रणाम।
रजनीश के प्रणाम
14-9-1968
(प्रतिः डा. रामचंद्र प्रसाद, पटना, बिहार)
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