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सोमवार, 22 जुलाई 2019

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-03)

(विवेक का अनुशासन-तीसरा 

बहुत से प्रश्न हैं। मनुष्य का मन ऐसा है कि उसमें प्रश्न लगते हैं, जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं। और हम यह भी सोचते हैं कि शायद प्रश्नों का कोई हल हो जाए, इसलिए उत्तर की खोज करते हैं। लेकिन उत्तर की खोज से प्रश्न का हल न कभी हुआ है, और न होगा। प्रश्न क्यों उठता है भीतर? जब तक इस बात की खोज न हो तब तक प्रश्न मिटता नहीं है। प्रश्न उठता है, मन की अशांति से और मन के अज्ञान से। उस अशांति को और उस अज्ञान को तो हम मिटाना नहीं चाहते, प्रश्न को हल करना चाहते हैं। तो ज्यादा से ज्यादा यही हो सकता है कि प्रश्न तो हल न हो, उत्तर सीखने में आ जाए। इसीलिए तो हमने बहुत से उत्तर सीख लिए। हमने प्रश्न पूछे और उत्तर मिल गया और उत्तर हमने सीख लिए। लेकिन उत्तर सीखने से भी प्रश्न समाप्त नहीं होता।

अनेक प्रश्न पूछे हैं।


क्या पुनर्जन्म है?
अगर मैं कह दूं कि है, तो क्या प्रश्न समाप्त हो जाएगा? और क्या मुझसे पहले यह प्रश्न औरों से आपने नहीं पूछा होगा? और उन्होंने कहा होगा है या नहीं है, लेकिन आपका प्रश्न तो बना हुआ है; वह तो समाप्त नहीं हुआ। पूछा है, ईश्वर है? मैं कह दूं, है या नहीं; क्या होगा? आपका प्रश्न समाप्त हो जाएगा? आप फिर किसी और से पूछेंगे। प्रश्न तो वहीं का वहीं खड़ा रहेगा। प्रश्न जहां है, वह वहीं खड़ा रहेगा। कोई उत्तर न तो प्रश्न को छूता है और न समाप्त करता है। प्रश्न भीतर बना रहता है और उत्तर भी इकट्ठे होते चले जाते हैं। प्रश्न ही काफी मुसीबत थी, फिर उत्तर और मुसीबत बन जाते हैं, क्योंकि अनेक-अनेक तरह के उत्तर इकट्ठे हो जाते हैं, विरोधी उत्तर इकट्ठे हो जाते हैं। प्रश्न ही परेशानी दे रहा था, अब ये उत्तर भी परेशानी देंगे। क्योंकि ये बहुत किस्म के होंगे, और फिर इन उत्तरों से भी प्रश्न पैदा होने शुरू हो जाएंगे। मूल प्रश्न अपनी जगह होगा और हर उत्तर नये प्रश्न ले आएगा।
किसी ने पूछा है कि यह दुनिया किसने बनाई है, तो कह दिया कि ईश्वर ने। इससे कुछ हल नहीं हुआ। वह जो प्रश्न पूछने वाला मन है, वह पूछेगा, ईश्वर क्यों है या ईश्वर को किसने बनाया? जो उत्तर दिया गया है, वह नये प्रश्न ले आएगा। और अभी तक कोई फिलाॅसफी ऐसा उत्तर नहीं दे सकी है, जिससे और प्रश्न पैदा न हुए हों। इधर पांच हजार वर्ष के मनुष्य का अनुभव यही है कि दार्शनिकों ने और तत्व-चिंतकों ने मनुष्य के प्रश्न तो समाप्त नहीं किए, उत्तर बहुत दिए हैं; और हर उत्तर नये प्रश्नों की बाढ़ ले आया। ऐसे प्रश्न बढ़ते गए, उत्तर वहीं के वहीं खड़े हैं।
पहले आदमी के सामने जो प्रश्न थे, वे अभी भी हमारे सामने वैसे के वैसे खड़े हैं। और उत्तर बहुत ज्यादा हो गए। फिर उत्तरों के साथ द्वंद्व और संघर्ष आया और नये प्रश्न आए। तो मैं यह सबसे पहले कह देना चाहता हूं कि मैं आपके प्रश्नों के उत्तर नहीं दे रहा हूं, क्योंकि उत्तर से तो कोई हल होता नहीं। फिर मैं क्या कर रहा हंू?
मैं दो बातें करना चाहूंगा--एक तो आपके प्रश्न को समझना चाहूंगा, और आपसे भी निवेदन करूंगा कि महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप उत्तर खोजें, महत्वपूर्ण यह है कि आपके प्रश्न की पूरी-पूरी पकड़, पूरी खोज, आप क्यों पूछ रहे हैं? क्यों यह प्रश्न आपके मन में उठा, क्या कारण है? इस प्रश्न में घुसना जरूरी है। इसके भीतर जाना जरूरी है। तो प्रश्न में मैं भीतर चलूंगा। उत्तर देने का मेरा उतना प्रयोजन नहीं है। लेकिन प्रश्न को अगर हम पूरा समझ लें, तो हो सकता है कि प्रश्न हल हो जाए। उत्तर से तो प्रश्न हल नहीं होता।
एक व्यक्ति--अभी मैं गांव में था--आए और उन्होंने कहा, क्या आत्मा मरने के बाद बचती है? क्या आत्मा अमर है? यह तो उनका सीधा प्रश्न है, इसमें भी इस तरह के प्रश्न हैं कि क्या आत्मा अमर है? क्या पुनर्जन्म है? क्या शरीर की मृत्यु के साथ हम भी मर जाते हैं? ऐसे बहुत से प्रश्न हैं। उन्होंने मुझसे पूछाः क्या आत्मा अमर है? अब अगर उत्तर देना है, तो दो ही उत्तर हो सकते हैं। अगर मैं मानता हूं कि आत्मा अमर है, तो कह दूं कि हां। और नहीं मानता हंू तो कह दूं, नहीं है। या मेरा अनुभव अगर हो तो मैं कह दूं हां या नहीं। फिर क्या होगा? बात वहीं अटक कर रह जाएगी, आगे नहीं बढ़ेगी। लेकिन मुझे तो यह दिखाई पड़ता है, तो मैंने उनसे कहा, आप यह क्यों पूछते हैं कि आत्मा अमर है? सच में आत्मा से कोई संबंध है? आपको आत्मा से कोई लगाव है? आत्मा के लिए आपकी कोई खोज है? जीवन भर आपने आत्मा की खोज के लिए क्या किया? वे बड़े धनपति हैं, उन्होंने बहुत धन इकट्ठा किया है। उससे तो आत्मा की खोज का कोई संबंध नहीं। वे एक राज्य के भूतपूर्व मंत्री हैं, और इस समय हिंदुस्तान में तो न मालूम कितने भूतपूर्व मंत्री हैं। कोई वक्त ऐसा आएगा, हिंदुस्तान में सभी भूतपूर्व मंत्री होंगे। लेकिन इससे तो आत्मा की खोज का कोई संबंध नहीं है।
तो मैंने उनसे पूछाः आपने आत्मा की खोज के लिए क्या किया है, जो आपके लिए यह प्रश्न उठ आया है कि आत्मा अमर होती है या नहीं? मैंने कहाः नहीं, यह आपका असली प्रश्न नहीं है और अगर इसका उत्तर आप खोजते रहे, तो कोई हल नहीं हो सकता, क्योंकि यह प्रश्न ही झूठा है। अगर ठीक से अपने भीतर आप खोजेंगे--मैंने उनसे निवेदन किया--तो आप अब ब.ूढे होने लगे हैं और मौत का डर आपके भीतर सरकने लगा होगा। मौत से डर, भय--क्या मैं भी मर जाऊंगा जो कि भूतपूर्व मिनिस्टर था? कि वे ही लोग मरे जो मिनिस्टर नहीं रहे, या कि मैं भी मरूंगा? या कि वे ही लोग मरेंगे जो कि दरिद्र थे और भीख मांगते थे? या कि मैं भी मरूंगा, जिसके पास बहुत बड़ा भवन है, बहुत धन है? क्या मुझे भी मरना होगा? जो कि बहुत विशिष्ट आदमी था? मौत जैसे-जैसे करीब आ रही है, आपको यह भय लग रहा है कि क्या मुझे भी मरना होगा? और आप मरना नहीं चाहते, क्योंकि कौन मरना चाहता है? मृत्यु का भय है, और मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए हम पूछते हैं, क्या आत्मा अमर है? और जब कोई कह देता है, हां आत्मा अमर है, तो हम कहते हैं, यह व्यक्ति बड़ी सच्ची बातें कह रहा है। क्यों? क्योंकि आपकी आशा को समर्थन दे रहा है, आपको आश्वासन दे रहा है कि मत घबड़ाओ, मरोगे नहीं।
वह भीतर जो मृत्यु का भय है, उससे बचाव दे रहा है, सिक्योरिटी दे रहा है। एक सुरक्षा दे रहा है। तो फिर ऐसे आदमी के आस-पास लोग पैर छूने को इकट्ठे होते हैं जो आदमी कहता है कि नहीं, आत्मा अमर है। जितने मृत्यु से डरने वाले लोग हैं वे किसी न किसी रूप में आत्मा की अमरता के सिद्धांत में विश्वास करने लगते हैं। इस आत्मा की अमरता के सिद्धांत में उनकी कोई ज्ञान की खोज नहीं है। मृत्यु का भय है।
तो मैंने उनसे कहा, यह सवाल नहीं है कि आत्मा अमर है या नहीं, सवाल यह है, कि क्या आपके भीतर मृत्यु का भय है? और अगर मृत्यु का भय है, तो हम उसी को समझें कि मृत्यु का भय क्यों है, बजाय उत्तर खोजें कि आत्मा अमर है या नहीं है?
क्यों डरे हुए हैं मरने से? केवल वही आदमी मृत्यु से डरा होता है जो ठीक से जी नहीं पाया। जो ठीक से जीआ था वह मृत्यु से डरेगा कैसेे? असल बात यह है कि मृत्यु से वही डरता है, जो नाममात्र को जिंदा है, जीवन का जिसे पता ही नहीं। नहीं तो मृत्यु से डरेगा कैसे? अगर जीवन का मुझे पता हो जाए, तो जीवन की कोई मृत्यु हो ही कैसे सकती है? जीवन और मृत्यु तो विरोधी बातें हैं। जो जीवन है, वह जीवन होने के कारण ही मरने में असमर्थ है। जो मृत है, वह मृत होने की वजह से जीवित होने में असमर्थ है। अगर मुझे जीवन का बोध हो जाए, तो मैं वही कहूंगा जो एक फकीर सेक्सियाद से किसी ने पूछा और उसने कहा। वही आप कहेंगे अगर आपको बोध हो जाए।
एक फकीर के पास कोई गया और उसने पूछाः मृत्यु क्या है? उस फकीर ने कहाः तुम कहीं और जाओ, क्योंकि हम जहां रहते हैं वहां कोई मृत्यु नहीं है। हमारा अब तक उससे मिलना नहीं हुआ।
जैसे सूरज से कोई पूछे कि अंधेरा क्या है? सूरज क्या कहेगा? अभी तक उसका मिलना ही नहीं हुआ--अभी तक। वैज्ञानिक बताते हैं, कई-कई अरब वर्षों से सूरज जल रहा है, चल रहा है, यात्रा कर रहा है। अभी तक उसका मिलना नहीं हुआ है अंधेरे से। और क्या कभी मिलना हो सकता है सूरज का अंधेरे सेे? नहीं हो सकता है। कोई रास्ता नहीं है कि सूरज का और अंधेरे से मिलना हो जाए। एक ही रास्ता है कि सूरज ही बुझ जाए तो बात अलग है, फिर सूरज नहीं होगा। अंधेरा ही होगा। या तो अंधेरा हो सकता है, या सूरज हो सकता है। दोनों का मिलना नहीं हो सकता। तो या तो भीतर जीवन है या भीतर मृत्यु है। दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते हैं। और जीवन का अब तक मृत्यु से कोई मिलना नहीं हुआ। अगर आपको मृत्यु का भय लगता हो तो जानना, आपको अभी जीवन का पता नहीं है, अभी आपका जीवन से कोई संबंध नहीं हो पाया है। आप मरे ही हुए हो। अब और क्या मरोगे! आप जो हो, मरे ही हुए हो और क्या मरोगे! और इसीलिए जो मरा हुआ आदमी है, मौत से डरा रहता है। उसको धीरे-धीरे भीतर लगा रहता है कि मैं मरा हुआ तो हूं।
वह जो मृत्यु का भय है, वह मरे होने की निरंतर जो अनुभूति होती है--लेकिन मरा हुआ आदमी क्या मरेगा? आप जिंदा हैं, आपको जीवन का अनुभव है? आपने जाना कि मैं जीवित हूं? नहीं, इसका आपको कोई सीधा पता नहीं है। और इसीलिए आप मौत से डरे हुए हैं। नहीं तो जीवन की अनुभूति के बाद मृत्यु का कोई प्रश्न नहीं है, भय का कोई सवाल नहीं है। फिर जब यह भय भीतर पकड़ता है, तो हम अच्छे-अच्छे प्रश्न बनाते हैं कि क्या आत्मा अमर है? क्या शरीर और आत्मा अलग हैं? और फिर इनके उत्तर होते हैं। वे उत्तर हमें कहीं नहीं ले जा सकते, क्योंकि प्रश्न जहां था, वहां तक तो हमने बात पकड़ी नहीं, पहुंचे नहीं।
इसलिए इन तीन दिनों में प्रश्नों में प्रवेश की कोशिश करूंगा। उत्तर देने की कोई मंशा नहीं है, क्योंकि न मैं कोई आपका गुरु हंू, जो आपको उत्तर दूं। वैसे गुरु बहुत हैं मुल्क में, जिनसे उत्तर मिल सकते हैं। और उनकी वजह से दुनिया में जितनी परेशानी है, उतनी किसी की वजह से नहीं है। उन्होंने बहुत आपको उत्तर सिखा दिए हैं, आपको तोता बना दिया है। मैं आपको तोता नहीं बनाना चाहता, न कोई उत्तर सिखाना चाहता हंू। मैं तो यह निवेदन करना चाहता हूं कि प्रश्न आपके भीतर है तो उत्तर बाहर से कैसे आएगा? जहां प्रश्न है वहीं उत्तर खोजना होगा। नहीं, प्रश्न तो भीतर है, उत्तर बाहर है, दोनों का मेल कहां होगा? वे मिलेंगे कहां, एक-दूसरे को काटेंगे कहां?
प्रश्न भीतर है तो जरूर ही उत्तर भी भीतर ही खोजा जा सकता है। प्रश्न बाहर हो तो उत्तर भी बाहर खोजा जा सकता है। विज्ञान इसीलिए तो बाहर उत्तर खोजने में समर्थ हो गया है, क्योंकि उसके प्रश्न भी बाहर हैं। लेकिन धर्म बाहर उत्तर खोजने में समर्थ नहीं हो सकता, उसके प्रश्न भीतर हैं। विज्ञान के, साइंस के सब प्रश्न बाहर हैं। इसलिए वह उत्तर खोजने में बाहर ही समर्थ हो गया है। जहां प्रश्न हैं, वहीं उत्तर खोज लिया गया। प्रयोगशालाएं बना ली गईं बाहर की दुनिया में और खोज शुरू हो गई। लेकिन आत्मिक और जीवन के प्रश्न तो भीतर हैं, और उनको भी बाहर खोजने जाईएगा तो कोई हल नहीं है। उनको खोजने तो भीतर जाना पड़ेगा। इसलिए उत्तर की खोज में मत जाइए, प्रश्न की जड़ को खोजिए, उसकी रूट्स कहां हैं? वह आपके भीतर पैदा क्यों हो रहा है?
मैं आपसे पूछता हूं, क्यों पूछना चाहते हैं आत्मा अमर है? जरूर मृत्यु का भय होगा। और आश्वासन चाहते हैं कि कोई कह दे कि आत्मा अमर है तो हम विश्वस्त हो जाएं। लेकिन मैं आपसे निश्चित कहता हूं, आप मरोगे; आप बच नहीं सकते। जो बचेगा उसका अभी आपको पता नहीं है, वह आप अभी हो ही नहीं। जो मरेगा, वही आप अभी हो। आपका नाम मरेगा, आपका शरीर मरेगा, आपका विचार मरेगा, आपकी वासनाएं मरेंगी, आपका धन, आपके मित्र, आपका सब छूटेगा। अभी आपको उसका कोई पता नहीं है, जो नहीं मरता। आप तो पक्का ही मरोगे, इतना तय समझना। आप बचने वाले नहीं हो। और आपके बचने की जरूरत भी क्या है? आपके होने का फायदा भी क्या है? आप बचे हैं, इससे अर्थ भी क्या है, प्रयोजन भी क्या है? है क्या आपके भीतर, जिसको बचाने के लिए इतने परेशान हैं? कुछ भीतर, जो बचाना चाहिए, जिसकी इस जगत में होने की जरूरत है?
साधारणतः हम सिवाय बोझ और भार के क्या हैं? साधारणतः हम क्या है? क्या है हमारे भीतर, जो बचे? नहीं, हमारे भीतर कुछ भी नहीं है जिसको हम जानते हैं; जो बचे। मगर इसे बचाने की इच्छा भीतर होती है। और इसे बचाने की इच्छा तब तक होती रहेगी, जब तक उसका पता न चले जो कि बचता है। हमेशा बचा हुआ है। तब तक यही हमारी आत्मा बनी हुई है--यही। जब आप पूछते हैं, आत्मा बचेगी? तो आप पूछते हैं, राम बचेंगे, विष्णु बचेंगे, कृष्ण बचेंगे? न; न राम बचेंगे, न विष्णु बचेंगे, न कृष्ण बचेंगे, क्योंकि यह तो आत्मा ही नहीं है। आपका नाम, आपका रूप, आपका शरीर, आपका व्यक्तित्व, यह कोई नहीं बचेगा, यह सब जाएगा। यह तो जाने वाला है। यह तो जा रहा है, चैबीस घंटे हाथ के बाहर जा रहा है। यह तो आप अभी जब यहां आए थे और जब यहां से लौटेंगे तो उसमें से बहुत सा हिस्सा मर चुका होगा। उसको आप लेकर इस जगह पर आए, तीन दिन के भीतर उसमें से बहुत कुछ मर जाएगा। आप वही आदमी थोड़े वापस लौटोगे, जो आए थे! रोज मर रहे हैं, रोज मरे जा रहे हैं। वह तो मर रहा है, वह तो बहती हुई धार है, जिसको आप बचाना चाह रहे हैं। उसमें कुछ बचता नहीं है।
देह प्रतिक्षण बदल रही है, मन प्रतिक्षण बदल रहा है। सब बदल रहा है। नाम के धोखे में बात अटकी है। आपको लगता है, वही मेरा नाम है जो कल था। इसलिए सोचते हैं कि मैं वही हूं। अगर आपकी पहले दिन की तस्वीर आपके सामने रख दी जाए, जिस दिन आप पैदा हुए, दुनिया में, वह आदमी खोजना कठिन है, जो पहचान ले कि यह मेरी ही तस्वीर है। और अगर मां के पेट में जिस दिन, पहले दिन आपका कंसेप्शन हुआ, जिस दिन वह अणु आप बने मां के पेट में, अगर वह आपके सामने रख दिया जाए, आप कहोगे, बड़े पागलपन की बात है कि यह भी मैं था। लेकिन अगर आप वह नहीं थे, तो अभी जो आज हैं, यह आप कैसे हो सकते हैं? वह भी एक घड़ी थी आपकी जिंदगी की, यह भी एक घड़ी है। वह भी बीत गई है, यह भी बीत जाएगी। अगर वह जो मां के पेट में आप अणु बने थे वह नहीं थे तो आप अभी जो हैं, यह भी कैसे रहेंगे? यह भी उसी प्रोसेस, उसी प्रक्रिया का एक क्षण है। यह भी बीत रहा है, यह भी बीता जा रहा है। आप सोचते रहेंगे और यह बीत जाएगा।
जन्म के बाद हम प्रतिक्षण मर रहे हैं। और बड़े आश्चर्य की बात है, बड़ी तेजी से मर रहे हैं। जन्म के बाद आदमी बहुत तेजी से मरता है। फिर धीरे-धीरे मरने की रफ्तार कम हो जाती है, ज्यादा नहीं है। बूढ़ा आदमी धीमे मरता है, बच्चा बहुत जल्दी मरता है। जब पहले दिन बच्चा पैदा होता है, उसका हृदय एक सौ चालीस दफा धड़कता है उतनी देर में, जितनी देर में बूढ़े का हृदय सत्तर दफे धड़कता है। जितनी तेजी से हृदय धड़कता है उतनी मौत करीब आती है। तो बच्चे तेजी से मरते हैं बूढ़े की बजाय। ठीक भी है, जो जिंदा ज्यादा है वह उतना जल्दी मरता है। बूढ़ा तो मरने के ही करीब पहुंचने लगा, इसलिए वह धीमे मरने लगता है। रफ्तार कम होने लगती है मरने की। पहले दिन से यह मरने का क्रम है। और इसी मरने के क्रम को हम जीवन समझ लेते हैं, इससे भूल हो जाती है। फिर हम पूछते हैं, क्या आत्मा अमर है? भूल कुछ हो जाती है। फिर हम पूछते हैं, क्या आत्मा अमर है? भूल कुछ और है। इस जीवन को हम जीवन समझे हुए हैं, जो कि जीवन नहीं है। जो कि बिलकुल जीवन नहीं है। जो कि ग्रेजुअल डेथ है, जो कि धीरे-धीरे मरते जाने का नाम है। इसको ही हम जीवन समझे हुए हैं, तो डर लगता है भीतर। क्योंकि यह जीवन तो हमें दिखता है, रोज कोई मर जाता है। हमको लगता है, मैं भी मरूंगा। तो हम पूछते हैं, क्या मेरे बचने के कोई उपाय हैं?
नहीं, यह प्रश्न झूठा है। अभी पूछना यह चाहिए, क्या मैं जिंदा हंू? या मरा हुआ हूं? क्या मैं जिंदा हंू या कि मैं मरा हुआ हंू? यह पूछना चाहिए। जिसको मैंने जिंदगी समझा है, क्या वह जिंदगी है? क्या वह जीवन है?
नहीं, वह जीवन नहीं है। तो यह मत पूछिए कि मरने के बाद आप मरेंगे या बचेंगे? यह पूछें कि अभी जब आप जिंदा हैं तो जिंदा हैं, या मरे हुए हैं? तो कुछ खोज पैदा होगी, तो जिंदगी में कुछ हो सकता है। अगर यह इसी वक्त किसी को एहसास हो जाए कि मैं मरा हुआ हूं बिलकुल, तो उसके भीतर एक पीड़ा और प्यास पैदा होगी, जो जीवन की खोज में लग जाए। लेकिन उस पीड़ा को, उस प्यास को एक झूठा प्रश्न बना कर आप कागज पर लिख देते हैं, क्या आत्मा अमर है? बात सब गड़बड़ हो जाती है। और जैसा आपका प्रश्न है, वैसे गुरु भी मिल जाते हैं, वे कह देते हैं--हां या नहीं।
न आपको पता है, न उन्हें पता है। क्योेंकि जो आपके प्रश्न का हां और ना में उत्तर देता है वह आपके ही तल का होगा। उसमें कोई भेद नहीं हो सकता है। वह आपकी ही बुद्धि का होगा। आपसे पहले दूसरों से भी उसने ऐसे ही प्रश्न पूछे होंगे। उसने उत्तर इकट्ठे कर लिए हैं, अब दूसरे प्रश्न पूछने वालों को वह उत्तर बता रहा है। लेकिन जो जीवन को समझेगा थोड़ा, उसके लिए प्रश्न इंगित हो जाते हैं स्थितियों के। प्रश्न अर्थपूर्ण नहीं रह जाते हैं। भीतर कौन सी स्थिति है?
एक आदमी को बुखार चढ़ा हो, सन्निपात हो, वह अनर्गल बक रहा हो, वह पूछ रहा हो कि यह मेरी खाट आकाश में उड़ी जा रही है। उत्तर को जा रही है या पश्चिम को? अगर आप वहां हों तो क्या करेंगे? आप उसको बताएंगे कि नहीं यह पश्चिम को जा रही है, नहीं यह उत्तर को जा रही है; या कहेंगे, नहीं, खाट कहीं भी नहीं जा रही है! नहीं, आप उसके प्रश्न से समझ जाएंगे कि सन्निपात में हो गया। आप उसको उत्तर नहीं देंगे, फौरन चिकित्सक को ढूंढने निकलेंगे, क्योंकि उसके उत्तर देने में समय खराब करना खतरनाक है। आप उसके उत्तर नहीं देंगे, किसी चिकित्सक को खोजेंगे, उसका इलाज करेंगे। और जब वह ठीक हो जाएगा तो क्या आप आशा करते हैं कि वह फिर पूछेगा कि मेरी खाट पश्चिम में उड़ रही है कि दक्षिण मे? वह नहीं पूछेगा। उसका प्रश्न उसके भीतर रुग्णता का सूचक था। रुग्णता चली गई, प्रश्न भी गिर गया।
हमारे चित्त में प्रश्न लगते हैं, क्योंकि चित्त अशांत है। प्रश्न के उत्तर नहीं हो सकते। अशांति चली जाए, साथ ही प्रश्न भी गिर जाते हैं। निष्प्रश्न जब चित्त हो, जब उसमें कोई प्रश्न न उठते हों, तो समझ लेना कि कहीं न कहीं से शांति के जगत में प्रवेश हुआ है। जब तक प्रश्न उठते रहें, तब तक जानना मन रोग में है, बीमारी में है। किसी न किसी तरह का सन्निपात पकड़े हुए है। इसलिए पूछ रहे हैं, वह उस सन्निपात के मरीज का प्रश्न, कि मेरी खाट पश्चिम में उड़ती है या पूरब में? हंसी योग्य लगता होगा। लेकिन हमारे ये प्रश्न कि मरने के बाद मैं मरूंगा या नहीं, उससे भी ज्यादा हंसी योग्य है। वह तो फिर भी कुछ पार्थिव बातें पूछ रहा है। हम और भी अपार्थिव बातें पूछ रहे हैं। वह तो फिर भी कोई जमीन की बातें पूछ रहा है, हम तो आकाश की बातें पूछ रहे हैं।
तो आपके प्रश्नों के उत्तर नहीं दूंगा। आपके प्रश्नों को समझने की कोशिश करूंगा। आपके प्रश्नों के पीछे आपके मन की स्थितियां क्या हैं, उनको पकड़ने की कोशिश करूंगा। उनकी चर्चा करूंगा। हो सकता है उस चर्चा में आपको कुछ दिखाई पड़ जाए। आपका प्रश्न व्यर्थ हो जाए, स्थिति महत्वपूर्ण हो जाए, जिससे प्रश्न पैदा हुआ, तो आपके जीवन में एक क्रांति हो सकती है। एक परिवर्तन हो सकता है, खोज शुरू हो सकती है।

सबसे पहले प्रश्न पूछा हैः उधार ज्ञान असत्य है। वह ज्ञान हमें आपसे मालूम हुआ। तो यह ज्ञान भी उधार है और उधार होने की वजह से असत्य हुआ।

बिलकुल ही असत्य हुआ। इसको भूल कर भी सत्य मत मान लेना, क्योंकि इससे फर्क नहीं पड़ता कि मैं कह रहा हंू या कोई और कह रहा है। जो भी आपके पास दूसरे से आ रहा है, वह असत्य है। मैं कह रहा हंू, इसलिए वह सत्य नहीं हो जाएगा। जो भी दूसरे से आ रहा है, वह असत्य है। और इस बात के लिए सचेत होना अत्यंत जरूरी है कि मैं इस बात को अपने भीतर स्मरणपूर्वक तराजू बना लूं कि मैं तो उसी ज्ञान की खोज में लगा रहंूगा, जो मेरे भीतर से आए। और उस सब ज्ञान को सुनूंगा और समझूंगा, पहचानूंगा, विचार करूंगा, जो बाहर से आता है। लेकिन उस ज्ञान को उस जगह नहीं रखूंगा, उस सिंहासन पर नहीं बिठा लूंगा जहां वह ज्ञान बैठने को है, जो मेरे भीतर से आना है। उस सिंहासन को खाली रखंूगा। क्योंकि अगर वह भर गया, किसी ने भी उसे भर दिया, तो फिर वह ज्ञान, जो भीतर से आने वाला है, रुक जाएगा। उसके लिए जगह चाहिए। उसके लिए स्थान चाहिए जहां वह बैठ सके।
तो अगर उस सिंहासन पर मैं बैठ गया--महावीर स्वामी को धक्का देकर, क्राइस्ट को धक्का देकर या किसी और को धक्का देकर मैं बैठ गया, या मुझे धक्का देकर कोई और बैठ गया, तो वह सिंहासन खाली नहीं रह जाएगा। उस सिंहासन को खाली रखना, जहां वह विराजमान होगा, जो भीतर से आता है। उस सिंहासन को किसी के भी ज्ञान से भरना मत। चाहे वह कितनी ही प्यारी बात लगे, चाहे वह आदमी कितना ही प्यारा मालूम पड़े, चाहे वह कितनी ही श्रद्धा उत्पन्न करे, लेकिन उस सिंहासन पर किसी को मत बिठालना, जो स्वयं से आविर्भूत ज्ञान के लिए है। क्योंकि वहां कोई भी बैठ गया तो वह ज्ञान नहीं उठ पाएगा जो उठना चाहिए था। उस जगह को तो खाली रखना। हृदय में एक स्थान खाली रखना और किसी को मत बैठने देना उस जगह पर।
अगर निरंतर जागरूक रह कर उस जगह को खाली रखा जा सका, अगर उस जगह पर किसी को नहीं बैठने दिया गया, तो यही साधना बन जाएगी उस ज्ञान के जन्म के लिए। यही आमंत्रण बन जाएगा उसके लिए, यही पुकार हो जाएगी उसके लिए, जो भीतर सोया है--कि उठो, तुम्हारा सिंहासन खाली है। और हम किसी को उस पर बिठालने को राजी नहीं हैं; किसी को भी। चाहे वह कितने ही बड़े महात्मा हों, कितने ही बड़े अवतार हों, कितने ही बड़े ज्ञानी हों, तीर्थंकर हों, सर्वज्ञ हों, किसी को उस जगह बिठालने को हम राजी नहीं हैं जो कि उसके लिए है, जहां कि आत्मा से आविर्भूत बैठेगा। अगर यह सतत बोध बना रहे और वह जगह खाली बनी रहे, तो यह खाली होना ही निमंत्रण हो जाएगा जागने के लिए, आमंत्रण हो जाएगा। हमारा मन तो भरा है। अगर सत्य आता भी हो तो लौट जाता होगा। उसके लिए खाली जगह चाहिए।
नानइन नाम का एक फकीर हुआ है। एक बहुत बड़ा पंडित उससे मिलने आया था, और उस पंडित ने उससे पूछा कि क्या ईश्वर के संबंध में मुझे कुछ बताइएगा? क्या सत्य के संबंध में मुझे कुछ बताइएगा? नानइन ने कहा, बहुत थके-मांदे हैं। बैठ जाओ, थोड़ा चाय पी लें, फिर कुछ कहूं। वह नानइन भीतर गया। बड़ा अच्छा फकीर रहा होगा। चाय से डरता नहीं था। बड़े कमजोर और आधे महात्मा भी हैं चाय से भी डर जाते हैं। छोटी-छोटी चीजों से डर जाते हैं। कुछ रहा होगा आदमी अच्छे किस्म का। वह भीतर गया और चाय बना कर खुद ले आया। चाय से डरता भी नहीं था, बनाकर ले आया। तो फकीर बड़ा अदभुत रहा होगा। क्योंकि फकीरों को आदतें दूसरों से बनवाने की तो होती हैं, दूसरे के लिए बनाने की नहीं होती हैं। वे सेवा ले तो सकते हैं, सेवा कर नहीं सकते हैं। और ऐसे लोग फकीर के नाम से शोषण करते हैं। सेवा लेना तो बहुत आसान है, सवाल तो हमेशा देने का है। वह भीतर गया और चाय बना लाया। बाहर आया, उसने कहाः थोड़ा चाय ले लें, और फिर मैं बात करूं। उसने प्याली उस आदमी के हाथ में थमा दी और केतली से चाय ढालने को कहा। प्याली भर गई, लेकिन वह चाय को ढालता ही गया। नीचे का बर्तन भी भर गया। लेकिन वह चाय को ढालता ही गया। तो चाय गिरने को होने लगी। उस आदमी ने कहाः ठहरिए, क्या आप भूल गए हैं? भरते चले जा रहे हैं। भर गई है, मेरी प्याली में कोई जगह नहीं है।
नानइन ने कहाः तुम्हें प्याली के संबंध में जितना होश है, उतना मन के संबंध में नहीं। तुम प्याली के बाबत भी जितने जागे हुए हो कि प्याली ज्यादा भर जाएगी तो फिर उसमें जगह नहीं बचेगी ढालने को। तुम्हारे मन में जगह है? और परमात्मा आने को आज कहे कि मैं आता हंू, मेहमान बनता हूं, तो तुम्हारे भीतर कोई जगह है? कोई रिक्त स्थान है? कोई खाली स्थान है? कोई कक्ष मन में छोड़ रखा है उस मेहमान के आने के लिए? जब वह द्वार पर दस्तक देगा तो तुम्हारे घर में तो इतनी भीड़ है, इतने मेहमान वहां ठहरे हुए हैं, कौन उसको जगह देगा? तो नानइन ने कहाः तुम सोचते हो कि प्याली भर गई तो चाय और न बनेगी। लेकिन तुमने कभी सोचा कि तुम्हारे मन की प्याली भरी हुई है, उसमें कोई खाली जगह है?
हम बाहर तो मंदिर बनाते हैं, लेकिन भीतर कोई खाली मंदिर है, जहां भगवान आ सके और ठहर सकेे? कोई निर्दोष स्थल है? कोई इनोसेंस है? कोेई जगह है, जो पवित्र छोड़ दी गई हो, जहां हमारे कोई चरण नहीं पड़े, जहां मनुष्य का हमने कुछ भी प्रविष्ट नहीं होने दिया? जहां मनुष्य की क्षुद्रताओं की कोई ध्वनि नहीं पहुंचने दी, जहां मनुष्य के शास्त्रों को हमने कोई मार्ग नहीं दिया, जहां हमने एक जगह छोड़ रखी है--उसके लिए, जो हमारे प्राणों का प्राण है। जब वह आएगा तो ठहर जाएगा। उसके पहले वहां हमने किसी को नहीं प्रविष्ट होने दिया। तो मुझे भी वहां प्रविष्ट नहीं होने देना है। किसी को भी प्रविष्ट होने देने का कारण नहीं है। वह जगह आपके ही आत्यंतिक, जो आपकी आत्मा है, वह जो भीतर परमात्मा सोया है, उसके लिए है। उस पर किसी को बैठने मत देना। बड़े से बड़ा अतिथि आ जाए, उसके पैर छूना, उसे नमस्कार कर लेना, लेकिन उस जगह मत बैठने देना।
और जो सच में बड़ा है, वह इस बात को समझेगा और उसके कारण प्रसन्न होगा और आनंदित होगा कि तुमने एक जगह उसके लिए छोड़ रखी है, परम अतिथि के लिए। इससे वह नाराज नहीं होगा। और जो इससे नाराज हो जाए, समझ लेना वह तुम्हारा शोषण करने आया था। वह तुम्हारे मन के सिंहासन पर विराजमान होना चाहता था। और किसी के भी सिंहासन पर केवल वे ही विराजमान होना चाहते हैं जो दरिद्र हैं और भिखमंगे हैं, उनको किसी के ऊपर बैठने में मजा आ जाता है। और ऊपर बैठने की बहुत तरकीबें हैं। कोई राजपथ पर बैठ जाता है तो ऊपर बैठ जाता है। कोई गुरु बन कर बैठ जाता है तो ऊपर बैठ जाता है। कोई अथारिटी बन कर बैठ जाता है तो ऊपर बैठ जाता है। कोई कहने लगता है कि मुझे ज्ञान हुआ। जो मुझे ज्ञान हुआ यही सच है, तो भी ऊपर बैठ जाता है। ऊपर बैठने की बहुत-बहुत तरकीबें हैं। राजा भी ऊपर बैठते हैं, गुरु भी ऊपर बैठते है, सब ऊपर बैठते हैं। और यह जो ऊपर बैठने की कोशिश है, यह दरिद्र मन का लक्षण है। जो आदमी समृद्ध होता है, वह किसी के ऊपर नहीं बैठना चाहता है। जिस आदमी के भीतर सच में कुछ सम्पदा आती है, उसे फिर आपकी सम्पदा के मालिक होने की इच्छा नहीं रह जाती है। जो आपका गुरु होना चाहे, इसी कारण समझ लेना, गुरु होने के योग्य नहीं है। जो आपका गुरु न होना चाहे, समझना कि वह आपका मित्र तो कम से कम हो ही सकता है।
उस जगह किसी को बिठाना नहीं है। तो मैंने जो कहाः वह सब आपके लिए असत्य है, मेरे लिए सत्य होगा। आपके लिए असत्य है। इस बात का खयाल रखना। महावीर ने जो कहा वह उनके लिए सत्य है, आपके लिए असत्य है। बुद्ध ने जो कहाः वह बुद्ध के लिए सत्य है, आपके लिए असत्य है।
असत्य और सत्य की मैं व्याख्या ही यह कर रहा हूं कि जो आपकी अनुभूति से उत्पन्न हो वह सत्य है, जो आपकी अनुभूति से न आया हो वह असत्य है। और आपकी अनुभूति से जो बात नहीं आती उसे कभी भीतर ले जाने की आवश्यकता नहीं है। उस पर विचार करना।
तो मैं जो आग्रह करता हूं, वह यह नहीं कि मुझे स्वीकार करना, मेरा आग्रह है विचार करना। मेरा आग्रह यह नहीं कि मैं जो कहूं वह सत्य है। मैं तो कह ही यह रहा हूं कि जो भी दूसरा कहेगा वह सत्य नहीं हो सकता। लेकिन वह आपके विचार के लिए भूमिका बन सकती है। वह आपकी छलांग के लिए सीढ़ी बन सकती है। आप उसके माध्यम से सोच-विचार की दुनिया में प्रविष्ट हो सकते हैं। आपके भीतर एक जागरण हो सकता है खोज का। और खोज का जागरण तभी होगा, जब आप बाहर के सहारे छोड़ देंगे। जो आदमी आदी हो जाता है दूसरों के कंधों पर हाथ रख कर चलने का, वह अपने चलने की क्षमता खो देता है। और जो आदमी दूसरों की आंखों से देखने को उत्सुक हो जाए, वह अंधा हो जाएगा।
कोई रास्ता नहीं है दूसरों के पैरों से चलने का। और कोई रास्ता नहीं है दूसरों की आंखों से देखने का। कोई रास्ता नहीं है दूसरे के हृदय के साथ प्रेम अनुभव करने का। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, जो भी सार्थक है वह अत्यंत निजी होता है। उसका आविर्भाव, उसकी स्फुरणा भीतर होती है और केंद्र पर होती है। यह जो मैंने कहा, सबके लिए कहा है। उसमें मैं सम्मिलित हंू। अपने को बचा कर नहीं कहा है।

दूसरा प्रश्न पूछा हैः बच्चे का जन्म होने के तुरंत बाद उसको एक कमरे में रखा जाए, सिर्फ उसको दूध और उत्तरोत्तर खुराक से पोषण दिया जाए, न कोई ज्ञान-शिक्षा दी जाए, तो क्या उसको सम्पूर्ण सत्य का दर्शन होगा?

ठीक बात पूछी है। जो मैं निरंतर कह रहा हूं, अगर मन शून्य हो जाए, तो सत्य का दर्शन हो जाएगा। तो यह बात बिलकुल ठीक पूछी है। एक बच्चे को हम बिलकुल बंद कर दें, भोजन दें, लेकिन कोई शिक्षा न दें, कोई ज्ञान न दें। लेकिन यह बंद कौन करेगा? यह बंद करना शिक्षा हो गई। यह बंद करना बच्चे का आरोपण हो गया। यह तो व्यवस्था हो गई। यह तो बच्चे को ढालने की कोशिश शुरू हो गई। यह तो बच्चे को आप ढाल रहे हैं। आप कमरे मं बंद होना सिखा रहे हैं, कोई हिंदू धर्म में बंद होना सिखाता है, कोई जैन धर्म में बंद होना सिखाता है। आप कमरे में बंद होना सिखा रहे हैं। आपने दीवालें खड़ी कर दी हैं।
शिक्षा नहीं देंगे तो शिक्षा की रोक आपने शुरू कर दी। लेकिन बच्चे पर आप कुछ कर रहे हैं जरूर। बिना किए मन नहीं मानता। तो बच्चे को कुछ करेंगे जरूर, कोई दीवाल में बंद करेंगे। नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं, इससे तो बच्चा जड़ हो जाएगा। क्योंकि आप उसको जड़ता की शिक्षा दे रहे हैं, जड़ता का संस्कार डाल रहे हैं। इससे सत्य का ज्ञान नहीं हो जाएगा। सत्य के ज्ञान के लिए बच्चे को न तो हिंदू बनाना जरूरी है, न मुसलमान; न कोठरी में, दीवाल में बंद करना जरूरी है। सत्य के लिए बच्चे को मुक्त करना जरूरी है। बांधना नहीं, बंद करना नहीं, मुक्त करना। उसे छोड़ना जीवन के अनुभव में, और उसे अनुभव लेने की स्वतंत्रता देना, और उसे सहारा देना कि वह अनुभव कर सके। और जब वह भूलें करे, तभी आपकी कीमत है कि उस वक्त भी आप सहारा देना। क्योंकि भूलें भी ज्ञान लाती हैं। जब वह भूलें करे, तब भी आप उसके साथ खड़े रहना। आपका प्रेम उस वक्त चूक न जाए। क्योंकि जब कोई भूल में होता है, अगर उसे प्रेम मिले और सहारा मिले तो भूल बहुत जल्दी दूर हो जाती है। लेकिन भूल के वक्त तो अपने भी दूर हो जाते हैं और पराए हो जाते हैं, इसलिए भूल मजबूत हो जाती है। आदमी अकेला रह जाता है।
तो बच्चे को अनुभव मिले जीवन का, स्वतंत्रता से वह सोच सके, विचार कर सके, हम उस पर थोपें नहीं अपना कुछ। हम उस पर दबाव न डालें, उसे कुछ बनाने की कोशिश न करें, बल्कि वह जो हो सकता है, उसमें सहारा बनें। हम उसे प्रेम दें, अपना ज्ञान न दें। हम उसे इतना प्रेम दें जितना हमारे पास हो। लेकिन अपना ज्ञान नहीं दें, क्योंकि ज्ञान उसे बंधन में ले जाएगा, प्रेम उसे मुक्त करेगा। और उसे जीवन में बढ़ने का साहस दें। उसे साहस दें, उसे हिम्मत दें, उसे चीजों को तोड़ने का साहस दें। जो गलत दिखाई पड़े उसके विरोध में खड़े होने का साहस दें, चाहे वह गलत हमीं क्यों न हों। जो बाप अपने बच्चे को इस बात के लिए भी तैयार करेगा कि अगर मैं गलत हूं तो मेरे विरोध में खड़े हो जाना, मैं तुझे प्रेम करूंगा। वह बच्चे को एक मुक्ति दे रहा है, वह जीवन के अनुभव के लिए विस्तार दे रहा है। वह बच्चा सीखेगा--दीवालें नहीं, बंद होना नहीं, खुलना, मुक्त होना।
और जितना ज्यादा खुलेगा और खोजेगा उतना ही ज्यादा क्रमशः उसके भीतर विचार, परम्पराएं, सम्प्रदाय, पंथ इकट्ठे नहीं होंगे। जड़ता नहीं इकट्ठी होगी। उसका चित्त सदा मुक्त रहेगा, सदा सीखने को आतुर रहेगा। सदा खुला रहेगा। हमेशा सीखने को तैयारी रहेगी। और जिसका सीखने को हमेशा खुलापन है, ओपन है, मस्तिष्क के दरवाजे बंद नहीं हैं, वह जरूर एक न एक दिन अपने ही पैरों से चल कर सत्य तक पहुंच जाता है। लेकिन हम सब एक-दूसरे को बांध देते हैं और जंजीरें बना देते हैं और जंजीरों में अटका देते हैं। और सोने की जंजीरें पहनाते हैं और उनको फूल लगा देते हैं और सुंगध छिड़क देते हैं। वह जंजीरें जिसके पैर में होती हैं, वह भी उनको प्रेम करने लगता है। और दीवालें बनाते हैं और कहते हैं, यह घर है। और वह कैद होती है।
और इस भांति हरेक के मस्तिष्क को हम जड़ करने की पूरी कोशिश करते हैं। समाज का इसमें हित है, लाभ है। समाज दुनिया में स्वतंत्र और सत्य को उपलब्ध व्यक्तियों को नही चाहता है। क्योंकि अगर ऐसे व्यक्ति होंगे तो जगत में निरंतर क्रांति में जीना पड़ेगा--निरंतर। अगर ऐसे बच्चे होंगे जो सत्य की खोज में होंगे तो एक रिबेलियन, तो एक विद्रोह चैबीस घंटे चलेगा। क्योंकि दुनिया है बिलकुल गलत, समाज है बिलकुल खराब, व्यवस्था है बिलकुल सड़ी हुई। अगर थोड़ा भी विवेक जाग्रत होगा बच्चों का, तो इस सबमें आग लगा देंगे। इस सबको बचाने के लिए समाज बच्चों को विवेक नहीं देना चाहता, विचार देना चाहता है। हिंदू बनाना चाहता है, मुसलमान बनाना चाहता है, आदमी नहीं बनाना चाहता। धार्मिक आदमी से ज्यादा खतरनाक और डेंजरस आदमी नहीं होता, क्योंकि धार्मिक आदमी का मतलब है, जो भीतर से, जिसके भीतर क्रांति की आग जली है। वह तो आग लगा देगा जो भी गलत है उसमें।
और सब तो गलत है हमारा। जिसको हम समाज कहते हैं, वह गलतियों का इकट्ठा ढांचा है। सब गलत है। न वहां प्रेम है, न वहां आनंद है, न वहां शांति है। सब गलत है। इस गलत ढांचे को बनाए रखने के लिए बच्चों को बचपन से गलत रखना पड़ता है। उनको गलत सिखाना पड़ता है। उसके मस्तिष्क को ढालना पड़ता है कि वह ठीक आदमी न हो जाए। क्योंकि ठीक आदमी आपके समाज के विरोध में खड़ा हो जाएगा। इसलिए जब कभी ठीक आदमी पैदा हो जाता है, तो समाज या तो उसको सूली पर लटकाता है, या गोली मार देता है, या जहर पिला देता है।
आखिर सुकरात से ठीक आदमी जमीन पर कभी हुआ? लेकिन समाज ने उसे जहर पिलाया। क्यों? क्योंकि ठीक आदमी गैर-ठीक समाज के विरोध में खड़ा हो जाएगा। और ठीक आदमी मरने से नहीं डरता है। सिर्फ गैर ठीक आदमी मरने से डरता है। इसलिए उसको डराने का कोई उपाय भी नहीं रह जाता है। तो फिर उसे मिटाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रहता। ठीक आदमी पैदा हो जाए तो समाज उसकी हत्या करता है। और समाज गैर ठीक आदमी को पैदा करना चाहता है। सुकरात को समाज बरदाश्त नहीं कर सकता। क्राइस्ट को बरदाश्त नहीं कर सकता, मंसूर को बरदाश्त नहीं कर सकता। महावीर होंगे तो समाज पत्थर मारेगा, कान में कीलें ठोंकेगा। हां, जब मर जाएंगे तब पूजा करेगा, मंदिर बनाएगा। मरे आदमियों से कोई डर नहीं होता। सवाल तो जिंदा आदमी का है।
जब भी कोई ठीक आदमी जिंदा जमीन पर होता है, समाज दुव्र्यवहार करता है उसके साथ। और जब वह मर जाता है, तब पूजा करता है। पूजा मरे हुए के साथ की जा सकती है, क्योंकि मरे हुए से कोई विद्रोह की संभावना नहीं है। दुनिया में सिर्फ मरों की पूजा होती है। वह जो जीवित विद्रोही होता है, उसके साथ समाज डरता है, घबड़ाता है। क्योंकि वह तो कठिन बात है। महावीर खतरनाक हैं, बुद्ध खतरनाक हैं। समाज तो इनकार करेगा, उपेक्षा करेगा। मौका मिलेगा, खत्म करने की कोशिश करेगा। हां, मर जाइए, हम आपकी पूजा करेंगे। समाज यह कहता है--अच्छे लोगो मर जाओ! हम तुम्हारी पूजा करेंगे। अगर तुम खुद मरने को राजी नहीं, हम इतना श्रम करेंगे, हम तुम्हें मार डालेंगे। लेकिन फिर हम तुम्हारी पूजा करेंगे। बिना मारे हम तुम्हारी पूजा नहीं कर सकते।
असल में मुर्दों का समाज जिंदा आदमी की पूजा कर ही नहीं सकता। वह उसे मार डालेगा तो पूजा करेगा। तो क्राइस्ट को सूली पर लटका देता है। जो उनको सूली पर लटकाते हैं, उनमें से उनके अनुयायी पैदा होने लगते हैं। आज सारी जमीन पर क्राइस्ट के सबसे ज्यादा अनुयायी हैं। लेकिन क्या आप सोचते हैं कि क्राइस्ट फिर से आ जाएं, तो इनके साथ अच्छा व्यवहार करेंगे? भूल कर मत सोचना। अगर क्राइस्ट अभी लौट आएं तो यही उनको सबसे पहले पकड़ लेंगे, क्योंकि क्राइस्ट सब गड़बड़ कर देंगे आकर। इनका सब चर्च, इनका सब डागमा, इनकी सब क्रिश्चिएनिटी, इस सबके खिलाफ वे खड़े हो जाएंगे। इसी के खिलाफ तो वे खड़े हुए थे उस वक्त भी। नाम दूसरे थे। पुरोहित तो यही के यही थे। नाम दूसरे थे, मंदिर तो यही के यही थे। इनके खिलाफ वे खड़े थे। सब यही तो चल रहा था। अब वह सब क्राइस्ट के नाम से चल रहा है।
यह जो हमारी स्थिति है, यह जो हमारा चित्त है, यह इस तरह के बच्चे पैदा करना चाहता है, जो जिंदा न हों, जिनके भीतर कोई ज्योति न हो, जिनके भीतर कोई विद्रोह की अग्नि न हो, जिनके भीतर कोई सृजनात्मक क्रिया न हो; क्योंकि जिसके भीतर सृजनात्मक क्रिया होती है, उसके भीतर विध्वंस की शक्ति भी होती है। जो डिस्ट्राय नहीं कर सकता, वह क्रिएट भी नहीं कर सकता। जो मिटा नहीं सकता, वह बना भी नहीं सकता। तो हम बच्चों से कहते हैं, बनाना तो तुम जरूर, लेकिन मिटाने के लिए! उसके लिए हमेशा रोककर रखते हैं, कुछ मिटाना मत। धीरे-धीरे वे मिटाने में असमर्थ हो जाते हैं और बनाने में भी असमर्थ हो जाते हैं। और समाज चलता जाता है--उसका शोषण, उसकी बेवकूफियां! और जो बेवकूफी जितनी पुरानी हो जाती है, उतनी आदृत हो जाती है। उतनी सेक्रेड हो जाती है, जितनी पुरानी हो जाए। हमारी बेवकूफी पांच हजार साल पुरानी है। तो आप कहेंगे, हमारी बेवकूफी छह हजार साल पुरानी है, तुमसे भी बड़ी है। और जितनी पुरानी बेवकूफी, उतनी कीमती और उतनी आदरणीय हो जाती है। बेवकूफियों को हम ढोते हैं।
हम बच्चों में विचार नहीं देना चाहते हैं। और अगर विचार और विवेक और स्वतंत्रता देने की बात की जाए, तो हम कहेंगे, हम कोठरी में बंद करते हैं, अभी, फिर देखें ध्यान होता है कि नहीं। फिर देखें सत्य का अनुभव होता है कि नहीं। मतलब आप बिना कोठरियों में बंद किए नहीं रह सकते। या तो विचारों की कोठरियों में करिएगा या मकानों की कोठरियों में बंद करिएगा, लेकिन खुला आकाश देने को आप राजी नहीं हैं। नहीं, बच्चे को खुला आकाश चाहिए।

एक और प्रश्न इसी संदर्भ में पूछा है कि युवकों में, सारे मुल्क में विद्यार्थियों में विरोध है, आंदोलन है, अनुशासन टूट रहा है। क्या उसके लिए कहूं?

तो इसी संदर्भ में यह कहना चाहता हंू कि यह विद्रोह शुभ है। यह आंदोलन बुरा नहीं है, यह अच्छे लक्षण हैं। हालांकि अभी जो उसने रुख लिया है, वह गलत है। ये अच्छे लक्षण हैं। अगर युवक विद्रोह में गया तो दुनिया में कुछ हो सकता है। युवक गए नहीं विद्रोह में। हजारों साल से युवक उसी बात को मान लेता है, जो उसके पीछे की पीढ़ी उसे सिखा जाती है। वह इनकार करता ही नहीं। यह दुनिया वैसी की वैसी बनी रहती है, जैसे बाप-दादों की थी, और उनके पहले थी। जिन-जिन चीजों में बच्चों ने इनकार किया है, उन-उन चीजों में विकास हुआ है। बच्चों ने विज्ञान में इनकार किया, विज्ञान आगे विकसित हुआ। बच्चों ने धर्म में इनकार नहीं किया, इसलिए धर्म जड़ हो गया, वह आगे विकसित नहीं हुआ।
बच्चों ने विज्ञान में इनकार कर दिया। उन्होंने कहाः तुमने एक मंजिल का मकान बनाया था, हम तीन मंजिल का मकान बनाएंगे। और इससे बाप ने कोई अपमान भी नहीं समझा। बाप खुश हुआ कि मेरा लड़का तीन मंजिल का मकान बना रहा है। लेकिन अगर कोई लड़का कहे कि हम महावीर से आगे जाएंगे, तो बाप ना-खुश हो जाता है। क्योंकि महावीर तक तो बात खत्म हो गई है। अब थोड़े कोई पच्चीसवां तीर्थंकर होना है! दरवाजे बंद हो गए हैं। अब कोई ज्ञान की दुनिया में जरूरत नहीं है। बात खत्म हो गई, ज्ञान दे गया। अब हमारा काम है, हम दोहराएं। हमारा काम है हम स्तुति करें। अब हमारा काम है, हम पूजा करें। ज्ञान-वान की, खोज की जरूरत कहां है? महावीर सब काम आपके लिए निपटा गए। मोहम्मद आखिरी पैगंबर हैं, उनके आगे कोई पैगंबर नहीं है, वह भी दरवाजा बंद है। क्राइस्ट ईश्वर के इकलौते लड़के हैं, दूसरा कोई उनका लड़का ही नहीं है। वह दरवाजा बंद है। सब दरवाजे बंद, आगे कोई गुंजाइश नहीं है। आप घूमो, इसके आस-पास चक्कर मारो, परिक्रमा करो इन भगवानों की। आगे जाने का कोई उपाय नहीं है। बच्चों का मस्तिष्क कुंठित करने की सारी व्यवस्था कर ली गई है। और इसे अच्छे-अच्छे नामों पर--अनुशासन, आदर, इस सब अच्छे-अच्छे नामों से थोपा गया है। जो अनुशासन बाहर से थोपा जाता है वह परतंत्रता है। जो अनुशासन खुद के विवेक से आता है, वही केवल स्वतंत्रता है। दुनिया में ऐसे अनुशासन को तोड़ ही दिया जाना चाहिए, जो दूसरे थोपते हों। दुनिया में हम वैसा अनुशासन चाहते हैं, जो खुद के विवेक से आता हो।
बच्चे को अनुशासन मत दीजिए, डिसिप्लिन मत दीजिए, बच्चे को विवेक दीजिए, विचार दीजिए, होश दीजिए, समझ दीजिए। जहां समझ है, जहां विचार है, जहां विवेक है, वहां अनुशासन अपने से आएगा। लेकिन हम बच्चे को न विवेक देना चाहते हैं, न विचार देना चाहते हैं, न होश देना चाहते हैं। हम देना चाहते हैं अनुशासन। हम कहना चाहते हैं, बाएं घूमो तो वह बाएं घूम जाए, हम कहें दाएं घूमो तो वह दाएं घूम जाए। हम मशीन बनाना चाहते हैं कि आदमी बनाना चाहते हैं? दुनिया में मशीन बनाने के कई तरह के कारखाने खुले हुए हैं। मिलिट्री सबसे बड़ा कारखाना है। बाएं घूमो, आदमी बाएं घूमता है। दाएं घूमो, तो दाएं घूमता है। आगे जाओ, आगे जाता है। पीछे जाओ, पीछे जाता है। तीन-चार साल एक आदमी से ऐसी मूढ़ता करवाई जाती है। उसका विवेक नष्ट हो जाता है। फिर उससे कहते हैं, गोली मारो। वह गोली मारता है। जैसे बाएं जाओ, उतनी ही आज्ञा! उससे कहो एटम गिराओ, वह एटम गिराता है। उसके भीतर कोई विवेक नहीं रहा, कोई विचार नहीं रहा। उसे कोई समझ नहीं रही, उसकी सारी समझ मार डाली गई। डिसिप्लिनड आदमी का मतलब है, मुर्दा आदमी, मरा हुआ आदमी। उसके भीतर कोई विवेक नहीं, कोई विचार नहीं। जिस आदमी ने हिरोशिमा पर एटम गिराया, उसने एटम गिराया, एक लाख बीस हजार आदमी हिरोशिमा और नागासाकी में आग की लपटों में पड़ गए। उन्होंने असह्य पीड़ा सही। क्षण भर में नरक जाना। वह आदमी वापस लौटा, उसने आकर भोजन किया, अपने बच्चों को प्रेम किया होगा, अपनी पत्नी से प्रेम की बातें की होंगी, सो गया।
क्या इसका पत्नी के प्रति प्रेम सच्चा हो सकता है, जो एक लाख बीस हजार आदमियों को आग में डाल कर आया, और जिसके मन में यह खयाल भी नहीं उठा कि क्या कर रहा हूं? क्या यह अपनी पत्नी को प्रेम कर सकता है? क्या यह अपने बच्चों को प्रेम कर सकता है? इतने बच्चे वहां आग में जल रहे हैं। इसके मन में विचार भी नहीं उठा। क्या अगर यह विचारशील होता, तो यह नहीं कहता कि मैं एक आदमी मर जाऊं, वह बेहतर। मुझे गोली मार दें, मैं डिसिप्लिन तोड़ता हंू, लेकिन मैं एटम गिराने नहीं जाऊंगा। एक लाख बीस हजार मारूं, उससे तो एक मर जाऊं। तो मैं जानता कि इसने जो अपनी पत्नी को प्रेम किया होगा, वह सच्चा रहा होगा? इसने अपने बच्चों को जो प्रेम किया होगा वह सच्चा रहा होगा? लेकिन वह तो सो गया।
सुबह ट्रूमैन से अमरीका में पूछा (उनकी आज्ञा से वह बम गिरा था)पत्रकारों ने, आप रात को ठीक से सोए? ट्रूमैन ने कहाः बहुत ठीक से। कई दिनों से ठीक से सो ही नहीं पाया। मामला खत्म हो गया। मैं ठीक से सो गया। नींद गहरी आई।
ये ट्रूमैन हैं, जो सच्चे आदमी हैं। इसी तरह के ट्रूमैन सारी दुनिया में हैं। इनको रात बेचैनी नहीं हुई। एक लाख बीस हजार आदमी वहां आग की लपटों में जल रहे हैं--निरीह बच्चे, निरीह औरतें, ये आसानी से सो गए।
यह उस आदमी से पूछा गया, तुमने क्यों बम गिराया? उसने कहाः मैंने तो केवल आज्ञा का पालन किया। यह आज्ञा का पालन तो खतरनाक है। ऐसे आज्ञा पालन करने वाले युवक अब दुनिया में और नहीं चाहिए। हम ऐसे युवक चाहते हैं, जो विचार करें। हम पाकिस्तान में ऐसे युवक चाहते हैं जो कहें राजनीतिज्ञों से कि तुम मूर्ख हो, हम गोली चलाने को हिंदुस्तान पर राजी नहीं हैं, हमारे भाई हैं। हम कल तक साथ थे। हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञों से हिंदुस्तान का युवक कहे कि बेवकूफी बंद करो, हम गोली चलाने को राजी नहीं।
दुनिया में हम ऐसे युवक चाहते हैं, जो सब तरह के डिसिप्लिन तोड़ दें। यह दुनिया दूसरी हो सकती है, लेकिन हम तो चाहते हैं, डिसिप्लिनड हो युवक। उससे क्या होगा? हजारों साल से डिसिप्लिन सिखा कर बेवकूफियों में वह इतना लगाया गया है। आज जब वह तोड़ रहा है, तो डर हो रहा है। जरूर, तोड़ना उसका अभी गलत है, क्योंकि तोड़ने के लिए उसके पास न कोई भूमि है, न कोई विचार है, न कोई दृष्टि है। तोड़ना उसका गलत है। बस में आग लगा देता है। मैं भी नहीं कहंूगा कि बस में आग लगाओ। मैं तो कहता हंू, आग ही लगानी है तो किसी बड़ी चीज में लगाओ, बस में लगाने से क्या होगा? मैं तो यही कहता हंू युवकों से कि आग ही लगानी है तो हिंदुस्तान में बहुत चीजें हैं, जिनमें लगाओ। जातियों में आग लगाओ, धर्मो में आग लगाओ तो कुछ होगा। हिंदू होने में, मुसलमान होने में, जैन होने में आग लगाओ तो कुछ होगा। भारतीय होने में, पाकिस्तानी होने में आग लगाओ तो कुछ होगा। तुम बस जलाओगे तो क्या होगा?
लेकिन मैं कहता हंू कि शुभ लक्षण हैं। कम से कम बस तो जलाते हो! शायद जलाने का खयाल आ जाए तो कुछ और भी जलाओ। गुरु के खिलाफ खड़े होओ। बेचारा गरीब मास्टर है; उसके खिलाफ खड़े हो! तो मैं कहता हूं, मनु महाराज के खिलाफ खड़े हो तो कुछ बात हो जाएगी। ये बेचारे गरीब मास्टर मोशाय से क्या लड़ना है, इसकी क्या हैसियत है, इसके खिलाफ क्या? लेकिन फिर भी सोचता हंू कि तुम गुरु के खिलाफ खड़े हुए हो, शायद तुम महागुरुओं के खिलाफ भी किसी दिन खड़े हो सको। जब हम कुआं खोदते हैं, तो पहले कंकड़-पत्थर ही हाथ आते हैं, फिर धीरे-धीरे अच्छी मिट्टी आती है, फिर जल आता है। अभी ये कंकड़-पत्थर हाथ आ रहे हैं--यह जो अनुशासनहीनता है--यह बुरी है, लेकिन शुभ है, अच्छे लक्षण हैं। अगर इसको ठीक-ठीक दिशा दी जा सकी, तो दुनिया में युवक एक क्रांति ला सकते हैं। अगर इसको दिशा नहीं दी जा सकी तो बस जलाएंगे, मकान जलाएंगे तोड़ेंगे, फोड़ेंगे, छोटी चीजें तोड़ेंगे-फोड़ेंगे।
मुझे दिखता है, अगर बड़ी चीजें तोड़ने-फोड़ने की तरफ उनकी आंखें उठाई जा सकें, वह खुद भी छोटी चीजें तोड़ने को राजी नही हो सकेंगे। क्यों? मैं अभी था विद्यार्थियों के बीच। मैंने उनसे पूछाः मैंने उनसे कहा कि जो छोटी चीजें तोड़ता है, वह खुद छोटा हो जाता है, क्योंकि हम जो करते हैं, वही हो जाते हैं। तो मैंने कहा, अगर तुम बसें जलाओगे तो तुम बस कंडक्टरों और ड्राइवरों से ऊपर नहीं उठे सकते हो। तुम्हारी बुद्धि उससे आगे नहीं जा सकती। अगर तुम पुलिसवाले से लड़ोगे तो तुम ज्यादा से ज्यादा पुलिसवाले हो सकते हो। लड़ाई ही करनी है, तो कुछ बड़ी करो, क्योंकि शत्रु को ही चुनना है, तो कोई बड़ा चुनो। चुनौती ही लेनी है, तो कोई बड़ी लो। चढ़ना ही है, तो कोई हिमालय चढ़ो, तो तुम्हारे भीतर बड़ा आदमी पैदा होगा। तुम्हारे भीतर बड़ा व्यक्तित्व पैदा होगा। यह जो अनुशासनहीनता है, मेरी दृष्टि में बुरी नहीं है। राजनीतिज्ञों की दृष्टि में बुरी है, क्योंकि यह घबड़ाते हैं इससे। समाज के ठेकेदारों की दृष्टि में बुरी है, वह इससे घबड़ा रहे हैं, क्योंकि अगर यह बढ़ी, तो उन सबको दिक्कतें खड़ी हो जाएंगी। धर्माध्यक्ष जो हैं, उनको घबड़ाहट है। साधु-संन्यासी हैं, उनको घबड़ाहट है। वह सब इकट्ठे खड़े हो जाएंगे, कहेंगे, यह बुरा है। मैं आपसे यह कहता हूं, यह शुभ है, लेकिन यह जैसा है, उतना ही शुभ नहीं है। उस पर रुक नहीं जाना है, इसे और बड़े आयाम देना है, बड़ी दिशाएं देनी हैं।
अगर हिंदुस्तान में युवकों के भीतर पैदा होते अनुशासनहीनता और विद्रोह को कोई दिशा दी जा सकी, तो हिंदुस्तान एक नई संस्कृति को जन्म दे सकता है। नहीं दी जा सकी तो ये बच्चे जो कुछ आपने बनाया था, उसे भी खराब कर देंगे। उसे तो खराब करने में ये भी खराब हो जाएंगे। कुछ अच्छा पैदा नहीं हो सकेगा। आपका मकान गिर जाए, इसमें तो कोई हर्जा नहीं है। लेकिन उसे गिराने में सारी दृष्टि लग गई तो ये कोई नया मकान शायद नहीं बना सकेंगे। मुझे यह दिखाई पड़ता है, मुझे ये जो विद्रोह के नये-नये स्वर पैदा हो रहे हैं, ये शुभ हैं, इनका स्वागत होना चाहिए, और इसे दिशा दी जानी चाहिए। और सारी क्रांति को इकट्ठा किया जाना चाहिए। और मुल्क के उन-उन पत्थरों पर जो परम्पराओं ने हमारे ऊपर थोप दिए हैं, उनको तोड़ा जाना चाहिए ताकि एक नये मनुष्य को, एक नई सभ्यता को पैदा किया जा सके।
यह हो सकता है। हिंदुस्तान में कभी बगावत नहीं हुई है। हिदुस्तान बहुत गैर-बगावती मुल्क है। हिंदुस्तान में कभी कोई बुनियादी क्रांतियां नहीं हुई हैं। हिंदुस्तान करीब-करीब एक ढांचे में जीता रहा है। इसीलिए तो हम मरते गए, सड़ते गए, हम नीचे गिरते गए। क्योंकि जो कौम निरंतर अपने भीतर क्रांति नहीं करती है, उसके भीतर धीरे-धीरे आत्मा क्षीण होती चली जाती है। वृक्ष हैं, हर साल पुराने पत्ते गिर जाते हैं और नये पत्ते आ जाते हैं, इसलिए वृक्ष ताजा और हर साल नई जिंदगी ले आता है। क्रांति सतत होती रहनी चाहिए समाज को, तो समाज का कचरा और कूड़ा जलता रहता है और नये समाज के, नई दिशाओं के आगमन होते रहते हैं। नये मनुष्य का जन्म होता रहता है।
तो मैं इस पक्ष में हंू। मैं उस अनुशासन को प्रेम करता हूं जो विवेक से आए। मैं उस अनुशासन को प्रेम नहीं करता जो दमन से आए, दबाव से आए, ऊपर से थोपा जाए। मैं उस अनुशासन को प्रेम करता हूं जो आत्मा से जन्मे। इसलिए बच्चों को प्रेम दें, विचार के जागरण का सहारा दें, विवेक पैदा करने के लिए, साथी और मित्र बनें। और उनके भीतर उस दीये को जला दें, जो ज्ञान का है--तो फिर उनके भीतर एक अनुशासन होगा, जो अदभुत होता है। जिसे कहीं से लाना नहीं पड़ता, खोजना नहीं पड़ता। भीतर से आता है और जीवन को बदल देता है। जैसे बैलगाड़ियां चलती हैं तो पीछे चाक के निशान बन जाते हैं, ऐसे ही जहां विवेक होता है, वहीं पीछे अनुशासन निशानों की तरह अपने आप चला आता है। लाया हुआ खतरनाक है, आया हुआ अनुशासन सदा ही स्वागत के योग्य है।
प्रश्न तो और बहुत से हैं, उनकी मैं धीरे-धीरे चर्चा करूंगा, इधर इन बातों में भी। थोड़े से प्रश्नों के उत्तर संध्या भी दूंगा। दोपहर भी अनुशासन के संबंध में थोड़ी सी बात मैंने आपसे कही। प्रश्न और हैं।

1 टिप्पणी:

  1. रात्रि ध्यान किस अध्याय में है
    गिरह हमारा सुन्न में-का ध्वनि प्रवचन मिल सकता है
    गिरह हमारा सुन्न में-को पढरहा हूं
    अच्छा लगरहा है
    आपका बहुत बहुत धन्यवाद

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