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सोमवार, 15 जुलाई 2019

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-008

(बस निर्विचार चेतना को साधें-आठवां)

प्रिय सुशीला जी,
प्रेम।   
आपका पहला पत्र यथासमय मिल गया था। लेकिन, मैं सौराष्ट्र के दौरे पर चला गया, इसलिए उत्तर नहीं दे सका। आते ही आपका दूसरा पत्र मिला है। आपकी इच्छा है, तो मैं उधर आ सकूंगा। अक्तूबर के शिविर में आप इधर आ ही रही हैं, तभी उस संबंध में विचार कर लेंगे।
किसी को मुझसे किसी प्रकार की सहायता मिल सके, तो मैं कहीं भी आने को तैयार हूं।
अब तो यही मेरा आनंद है।
आपने अपने चित्त की जो दशा लिखी है, उससे बहुत प्रसन्नता होती है।
प्रगति ठीक दिशा में है।

मुद्राओं के कारण चिंतित न हों। उनसे लाभ ही होगा और फिर वे क्रमशः विलीन हो जावेंगी।   
आप तो बस, निर्विचार चेतना को साधें, शेष सब अपने आप छाया की भांति अनुगमन करता है।
चित्त शांत हो, तो जो भी होता है, सब शुभ है।
सामान्यतः जीवन और कार्यों के प्रति जो निराशा मालूम होती है, वह भी संक्रमणकालीन है। वह भी चली जावेगी।
और, तब जो सेवा फलित होती है, वही वास्तविक सेवा है।
इन सब बातों पर जब आप मिलती हैं, तभी विस्तार से विचार कर सकेंगे ।
इतना स्मरण रखें कि जो भी हो रहा है, वह ठीक है और उसके परिणाम में मंगल ही होगा।   
मेरे प्रेम को स्वीकार करें। प्रभु प्रकाश दे, यही कामना है।

रजनीश के प्रणाम
10 अगस्त, 1965

(प्रतिः सुश्री सुशीला सिन्हा, पटना)

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