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रविवार, 21 जुलाई 2019

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-02)

अज्ञान का घना अंधेरा-(दूसरा प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैंने आपको कहा, एक दर्पण मैं आपको भेंट करना चाहता हूं। लेकिन फिर मुझे याद आया कि उसमें तो थोड़ी भूल हो गई है। दर्पण तो आपके पास ही है, लेकिन उस पर बहुत धूल जमी हुई है। उस धूल को ही अलग किया जा सके तो दर्पण कहीं और से पाने की कोई जरूरत नहीं है और धूल कुछ ऐसी है, जिसे अलग कर देना बड़ी आसान बात है, कठिन नहीं।
सुना होगा आपने, सत्य को या आत्मा को या मोक्ष को पा लेना बहुत कठिन है। निश्चित ही, अगर सरल से सरल बात भी गलत ढंग से की जाए, तो कठिन हो जाती है। हम यदि सूरज के पास पहुंचना चाहते हों और पीठ करके चलते हों, तो पहुंचना कठिन हो जाएगा। लेकिन वह कठिनाई, जहां हम जाना चाहते हैं, उस लक्ष्य में नहीं, बल्कि हमारे गलत चलने में है। मनुष्य-जाति में बहुत थोड़े से लोग मोक्ष के आंनद को उपलब्ध हुए हैं। इसलिए नहीं कि मोक्ष बहुत दुरूह है, बल्कि इसलिए कि मनुष्य-जाति ने कुछ गलत रास्ता मोक्ष की तरफ चलने का पकड़ा हुआ है। जिन रास्तों से हम
पहुंचना चाहते हैं, वे ही रास्ते हमारे लिए बाधाएं हैं। और जो सीढ़ियां हमने सोची हैं कि हमें आनंद की तरफ ले जाएंगी, वे ही हमें दुख के नरक में उतार देती हैं। और इसलिए सारी कठिनाई हो गई है।
यह कठिनाई जीवन के आनंद को, आत्मा को, या मोक्ष को पाने की नहीं है; हमारी समझ में, हमारे विचार में, हमारे संस्कार में कुछ आधारभूत भूलें हैं, इसलिए यह कठिनाई है। जैसे मैं निरंतर कहता हूं कि अगर कोई व्यक्ति अंधेरे को मिटाने की कोशिश में लग जाए, तो अंधेरे को मिटाना कठिन हो जाता है--कठिन क्या, असंभव हो जाता है। लेकिन अगर कोई दीया जलाए तो अंधेरे को मिटाने से ज्यादा सरल बात इस जमीन पर दूसरी नहीं है। लेकिन अगर हम मिटाने में लग जाएं तो हम मिट जाएंगे, अंधेरा नहीं मिट सकता है। तो शायद हम कहेंगे कि अंधेरे को मिटाना बहुत कठिन बात है। लेकिन अंधेरे को मिटाना बहुत सरल बात है। रास्ता अंधेरे को मिटाने का नहीं है, बल्कि दीये को जलाने का है।
ठीक वैसे ही दर्पण तो हमारे पास है, जिसमें हम आत्मा की छवि को देख सकें, लेकिन बहुत धूल इकट्ठी है। और मैं देखता हूं, वह धूल हमने ही इकट्ठी की हुई है। और वे लोग, जो आत्मा का दर्शन करना चाहते हैं, ज्यादा धूल इकट्ठी कर लिए हैं उन लोगों की बजाय, जिन्हें आत्मा की कोई फिक्र और चिंता नहीं है। यह और भी आश्चर्यजनक है। जो लोग आत्मा की तरफ बिलकुल उत्सुक नहीं हैं, उनके दर्पण भी इतने धूल से भरे हुए नहीं हैं, जितने उन लोगों के हैं, जिनको हम धार्मिक कहते हैं, जो धर्म में उत्सुक हैं और आत्मा की तरफ चलना चाहते हैं।
एक व्यक्ति, अभी मैं एक गांव में था, वहां आए और उन्होंने मुझसे कहा कि कौन सी कमी है? मैं तो चैबीस घंटे परमात्मा को स्मरण कर रहा हूं। एक श्वास बिना उसके स्मरण के नहीं जाने देता। नींद तक धीरे-धीरे मेरी नष्ट हो गई है। मैं रात को उसका ही नाम जपता रहता हूं। चैबीस घंटे, खा रहा हूं, पी रहा हूं, उसका नाम जप रहा हूं। सो रहा हूं तो उसका नाम जप रहा हंू। सब धंधा छोड़ दिया जीवन का। बस एक ही धंधा बना रखा है, ईश्वर के स्मरण का। फिर भी क्या बात है? रोता हूं, चिल्लाता हूं, पुकारता हंू, लेकिन कोई सुनाई नहीं।
यह जो आदमी है, उनको मैंने कहा, आप जो कर रहे हैं, उसी के कारण परमात्मा से दूर हो गए हैं। कोई राम-राम का नाम चैबीस घंटे जपता रहे, तो इससे पागल हो जाएगा, मुक्त वह थोड़े ही है! बल्कि सच तो यह है कि अगर वह पागल न हो तो चैबीस घंटे राम का नाम जप भी नहीं सकता है। वह पहले से ही पागल रहा होगा। विक्षिप्त मन का यह लक्षण है कि वह कुछ थोड़ी सी चीजों को पकड़ कर उनको दोहराता रहता है। पागल मन कुछ थोड़ी सी चीजों को पकड़ कर दोहराता रहता है। रिपीटिशन जो है, वह पागल के मन की बुनियादी बात है।
तो जो आदमी राम-राम, राम-राम जप रहा हो, वह आदमी परमात्मा को तो उपलब्ध नहीं होगा, बल्कि इस बात की खबर दे रहा है कि उसके मस्तिष्क में कोई बुनियादी खराबी हो गई है। क्योंकि जो मस्तिष्क स्वस्थ है, शांत है, वह दोहराता नहीं है। और दोहराने से कोई प्रयोजन भी नहीं है। और जितना ज्यादा दोहराया जाएगा, उतना मस्तिष्क जड़ हो जाएगा। रिपीटिशन जड़ता लाता है। किसी भी एक चीज को पकड़ कर आप दोहराते जाएं तो मस्तिष्क जड़ हो जाएगा। उसकी चेतना कम हो जाएगी। परमात्मा को पाने के लिए चेतना बढ़नी चाहिए, और राम-राम जप कर चेतना कम कर रहे हैं। तो फिर परमात्मा को पाना कठिन हो जाएगा। लेकिन सारी दुनिया को यह सिखाया गया है कि भगवान का नाम जपेंगे तो भगवान के पास पहुंच जाएंगे। और तब अगर भगवान के पास पहुंचना कठिन हो जाता हो, तो इसमें कोई भगवान का कसूर नहीं है।
ठीक और बहुत सी बातें हैं और यह सब मन के ऊपर धूल की तरह इकट्ठी होती चली जा रही हैं। जिस आदमी को सत्य को पाना है, उसके मन की स्थिति नाॅनटेंस होनी चाहिए। उसके मन की स्थिति बिलकुल शांत, तनावरहित होनी चाहिए। लेकिन जो लोग परमात्मा में, या धर्म में उत्सुक होते हैं, उनके मन बहुत टेंस, बहुत तनाव से भर जाते हैं। साधारण जनों से भी वे ज्यादा तनावग्रस्त हो जाते हैं।
एक आदमी धन की खोज में है, वह भी तनावग्रस्त होता है, क्योंकि धन पाना है। एक आदमी यश पाने की खोज में है, वह भी तनाव में होता है, क्योंकि यश पाना है। एक आदमी को मोक्ष पाना है, वह भी तनाव में होता है। धन और यश को पाने की जिसकी खोज है, उसका तनाव बहुत ज्यादा नहीं होता है, क्योंकि धन और यश दोनों दिखाई पड़ते हैं, पार्थिव हैं, दूसरे लोगों के पास अनुभव होते हैं, पाए जा सकते हैं। लेकिन जिसको मोक्ष पाना है, उसका तनाव बहुत गहरा हो जाता है--बिलकुल अदृश्य, बिलकुल अज्ञात, जिसका कोई पता नहीं हैं।
ऐसी किसी चीज को पाने में लगा हुआ आदमी बहुत तनाव से भर जाता है। और उसके भीतर यह शंका भी मन में बनी रहती है कि कहीं मैं जीवन को व्यर्थ तो नहीं खो रहा हूं? मुझसे बड़े से बड़े साधुओं ने, निपट एकांत में यह पूछा है कि हमें यह डर और शंका आती है कि हमने कहीं भूल तो नहीं की? कहीं हमने यह गलती तो नहीं कर दी है? सारी दुनिया जो कर रही है, शायद कहीं वही तो ठीक नहीं है? यह मोक्ष है भी? यह आत्मा का अनुभव जैसी कोई चीज भी है? या हम किसी भ्रम में पड़ गए हैं, किसी इलुजन में? तो ऐसी खोज वाले आदमी का मन और भी तनाव से भर जाता है, और भी टेंस हो जाता है। और जबकि सत्य को जानने के लिए मन बिलकुल शांत और सब तरह के तनाव से मुक्त चाहिए।
संन्यासी बहुत तनावग्रस्त हो जाता है, क्योंकि आप जो खोज रहे हैं वह तो बहुत आसान है। वह जो खोज रहा है, एक तो उसे पक्का पता नहीं कि वह है भी? ऐसा दूसरे लोग कहते हैं कि वह है। फिर वह जो खोज रहा है वह उसकी सारी प्रकृति के विरोध में है, सारी प्रकृति को दबा रहा है। अपने सेक्स को दबा रहा है, अपने क्रोध को दबा रहा है। अपने अहंकार को दबा रहा है, इन सबको दबा रहा है। और एक अदृश्य की खोज में जा रहा है, जिसका उसे कोई पता नहीं है। भीतर से धक्के लग रहे हैं कि प्रकृति उसको तोड़ देना चाहती है और उधर उसे मोक्ष पाने की आकांक्षा खींचती है। इन सबके बीच वह अत्यंत तनाव से ग्रस्त हो जाता है। और मन जितना तनाव से भर जाए, उतना सत्य को जानने में असमर्थ हो जाता है।
सत्य को जानने की पहली शर्त तो यह कि मन में कोई तनाव, कोई बेचैनी, कोई अशांति, कोई अधैर्य न हो। मन ऐसा शांत हो जैसे कभी-कभी कोई झील हो जाती है, जब हवाएं नहीं होती हैं, या दरख्त हो जाते हैं, जब हवाएं नहीं होती हैं, पत्तों में सन्नाटा छा जाता है, कोेई दीये की ज्योति हो जाती है--हवाएं नहीं होती हैं, और ज्योति ठहर जाती है और उसमें कोई कंपन नहीं होते हैं। ऐसी मन की कोई स्थिति में सत्य जाना जाता है। लेकिन जिसका मन दौड़ रहा है, भाग रहा है कुछ पाने के लिए, वह शांत कैसे होगा? मोक्ष जो पाना चाहता है, उसको मोक्ष मिलना असंभव है। जो कुछ भी पाना नहीं चाहता, वह मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि पाने की दौड़ एक तनाव है। शांति जो पाना चाहता है, उसे नहीं मिल सकती। जो कुछ भी नहीं पाना चाहता है, वह शांत हो जाता है। हम सब शांति चाहते हैं, सत्य चाहते हैं, लेकिन यह हमें दिखाई नहीं पड़ता कि चाह के साथ तनाव और अशांति आ जाती है। और तब भार इकट्ठे होते जाते हैं। इस चाह के पीछे हम बहुत सी बातें इकट्ठी करते हैं।
जब आप सत्य को चाहते हैं, क्यों चाहते हैं? यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी आप सत्य को पाना चाहते हैं। यह ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि आप क्यों पाना चाहते हैं? यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि आप शांत होना चाहते हैं, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है कि आप क्यों शांत होना चाहते हैं? जो आदमी अशांत नहीं है, वह शांत तो नहीं होना चाहेगा। शांत होने का अर्थ हुआ कि आप अशांत हैं। आपके भीतर अशांति है और आप शांत होना चाहते हैं।
क्या यह उचित न होगा कि हम जानें कि अशांति के कारण क्या हैं, बजाय इसके कि हम शांति की खोज करें? अशांत मन शांत कैसे हो सकता है? लेकिन जितने लोग अशांत हैं वे सभी शांत होना चाहते हैं? और अशांत मन जो भी करेगा उससे और भी अशांति बढ़ती हैं। शांति की कोशिश करेगा, उससे भी अशांति बढ़ेगी। क्योंकि अशांत मन से जो भी कृत्य होगा वह अशांति लाएगा। अशांत मन ध्यान करने बैठेगा तो भी अशांति बढ़ेगी। आप देखे होंगे, घरों में लोग सामायिक को बैठते हैं, ध्यान को, या नमाज को बैठते हैं। वे ज्यादा क्रोधी हो जाते हैं, उन लोगों की बजाय, जो ध्यान नहीं करते, सामायिक नहीं करते। एक ही कारण है उसका। वे अशांत लोग हैं। अशांत मन से वह अगर माला फेरने बैठे हैं तो माला फेरना भी अशांति को बढ़ा देगा। वे ज्यादा क्रोधी हो जाएंगे। ज्यादा उनके भीतर दंभ बढ़ जाएगा। यही कारण है, तथाकथित धार्मिक लोग ज्यादा अशांत हो जाते हैं। जब कि धार्मिक को होना चाहिए शांत।
ऋषि-मुनियों की कथाएं आपने सुनी होंगी। उनके क्रोध का तो कोई मुकाबला नहीं है। उनके अभिशाप एक जन्म पर भी खत्म नहीं होते, आगे के जन्मों तक वे नष्ट कर देते हैं। और फिर भी हम पागल हैं, उनको ऋषि-मुनि कहे जाते हैं। इसमें हमें कोई बेतुकापन, असंगति नहीं दिखाई देती! आपको इतना क्रोध नहीं है जितना ऋषि-मुनियों की कथाओं में पता चलता है। यह क्रोध कहां से आया? ये अशांत लोग थे। अशांति से तपश्चर्या निकली, तपश्चर्या से और अशांति बढ़ गई, और क्रोध बढ़ गया।
इसलिए यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि मन को शांत होने की चेष्टा करें। महत्वपूर्ण यह है कि आप अशांत क्यों हैं, क्या कारण है अशांति का? कहीं ऐसा तो नहीं है कि अशांत होने की स्थिति से एस्केप करने के लिए आप शांति की तलाश में निकल गए हों? कहीं ऐसा तो नहीं है कि अशांत हो गए हैं, बुरी तरह, अब वहां भीतर देखना भी नहीं चाहते हैं, अब वहां घबड़ाहट है, तो अब शांत होने की कोई तरकीब निकालते हैं। आंख बंद करके बैठ जाएंगे पांच-दस मिनट तो आप सोचते हैं कि शांत हो जाएंगे? इतनी बचकानी, इतनी बच्चों जैसी बात नहीं है। इतनी बच्चों जैसी बात नहीं है कि आप दस मिनट आंख बंद करके बैठ गए, तो आप शांत हो जाएंगे।
जीवन के भीतर पूरे कारण खोजने जरूरी हैं कि मैं अशांत क्यों हूं? और जब तक अशांति का स्पष्ट बोध न हो, क्या-क्या कारण हैं, अशांति के, तब तक कोई मनुष्य शांत नहीं हो सकता। और बड़े आश्चर्य और रहस्य की बात यह है कि जो व्यक्ति अपने अशांति के कारणों को जान लेता है, वे कारण उससे छूटने शुरू हो जाते हैं--मात्र जानने से। ठीक-ठीक जान लेना कि मैं क्यों अशांत हंू, अशांति से मुक्ति की शुरुआत हो जाती है; क्योंकि यह असंभव है कि कोई व्यक्ति जानते हुए अशांति को चुने। इससे ज्यादा असंभव और कोई बात नहीं है कि कोई व्यक्ति जानते हुए दुख को चुने। कोई व्यक्ति जानते हुए उसको चुने जो पीड़ा लाती है। जानते हुए कोई भी नरक में प्रवेश को राजी नहीं होगा। लेकिन फिर भी हम सब नरक में प्रविष्ट हो जाते हैं। कहां, किस स्थल पर भूल हो जाती है, हम जानते नहीं हैं। हमें ज्ञात नहीं है। हम शांति तो खोजना चाहते हैं, लेकिन अशांति के कारण न हमें जानने की इच्छा है, और न हम खोज करते हैं। जब कि सदा उचित यही है। एक आदमी बीमार पड़े तो बजाय इसके कि वह स्वास्थ्य की खोज में पहाड़ों पर घूमे, ज्यादा बेहतर है कि वह बीमारी के कारण खोजे, निदान करवाए, बीमारी के कारण जाने। स्वास्थ्य नहीं खोजा जा सकता, बीमारी के कारण मिटाए जा सकते हैं। और जब बीमारी नहीं रह जाती तो जो शेष रह जाता है, उसी का नाम स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य कहीं अलग से नहीं पाया जा सकता।
अगर हम आपसे पूछें, स्वास्थ्य की क्या परिभाषा है? तो आप कहेंगे, जब कोई बीमारी न हो। जब कोई बीमारी न हो तो स्वास्थ्य है। शायद ऐसा कहना उचित होगा कि स्वास्थ्य तो हमारे साथ है, बीमारी हमारे ऊपर आ जाती है। अगर हम सारी बीमारियों को अलग कर दें तो हम स्वस्थ हैं। स्वास्थ्य लाया नहीं जा सकता, स्वास्थ्य हमारे भीतर है। बीमारी आती है और जाती है। लेकिन हम स्वास्थ्य की खोज में निकल जाएं तो भूल हो गई। फिर बहुत कठिन बात हो गई, फिर समस्या खड़ी हो गई। जो लाया नहीं जा सकता, उसे कहां से लाइएगा? बीमारी आई है, वह अलग हो सकती है। और यह भी स्मरण रखें, स्वास्थ्य का अर्थ ही क्या होता है? वह जो स्वयं में है। स्वस्थ का अर्थ होता हैः जब हम स्वयं में ठहर जाएं, वह स्थिति। स्वयं में स्थित हो जाने की स्थिति--उसका अर्थ ही यह होता है। जो व्यक्ति स्वयं में ठहर गया वह स्वस्थ है। शरीर स्वयं में ठहर जाए तो शरीर स्वस्थ है, मन स्वयं में ठहर जाए तो मन स्वस्थ है, आत्मा स्वयं में ठहर जाए तो आत्मा स्वस्थ है।
बुद्ध एक पहाड़ से निकले एक बार। एक हत्यारे ने उन्हें पकड़ लिया। लेकिन पकड़ने के पहले उसने सूचना दी। बुद्ध आते थे, उसने चिल्ला कर कहा कि भिक्षु, रुक जाओ। क्योंकि मैंने यह व्रत लिया हुआ है, एक हजार आदमियों की हत्या करनी है।
और इस बात पर आप हंसना मत कि उसने यह कैसा अजीब व्रत लिया! हममें से सारे लोग करीब-करीब इसी तरह के व्रत लिए हुए हैं। और जो आदमी जितने ज्यादा लोगों की हत्या कर देता है वह आदमी उतना ही बड़ा हो जाता है। हिंसा के अलावा बड़े आदमी को तौलने का हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है। हिटलर बड़ा है, नेपोलियन बड़ा है, क्योंकि हिंसा की ताकत जितनी उनके पास बड़ी है। एक राजनीतिज्ञ बड़ा है, क्योंकि उसके पास हिंसा की ताकत है। वह पद बड़ा है, जहां से हिंसा की जा सके। धन हिंसा कर सकता है इसलिए धन भी बड़ा है। राज्य हिंसा कर सकता है, इसलिए राज्य-पद भी बड़ा है। हिंसा से ही सब बड़प्पन तौला जाता रहा है। और मनुष्य का जो इतिहास है वह इस तरह के हिंसक लोगों का इतिहास है। तो उसको भी खयाल था कि एक हजार आदमी मार डालूंगा तो बड़ा आदमी हो जाऊंगा।
ठीक भी है। किसी आदमी को जिंदा करना तो आपके वश की बात नहीं है कि आप यह कसम ले लें कि मैं एक हजार आदमियों को जिंदा करूंगा, तो बड़ा आदमी हो जाऊंगा। इसलिए बड़े आदमी होने का एक ही उपाय है कि जितने ज्यादा लोगों को मार सकें। जिंदा करने का तो कोई उपाय नहीं है। प्रेम के द्वारा तो हमें कोई उपाय दिखता नहीं, इसलिए घृणा के द्वारा बड़े होने का उपाय दिखता है।
उसने कसम ली थी। उसने देखा भिक्षु आता है, थोड़ी दया खा गया होगा। उसने चिल्ला कर कहा कि मैं कोई भिक्षुओं पर दया करने वाला व्यक्ति नहीं हंू। मुझे तो एक हजार आदमी मारने हैं। तुम वापस लौट जाओ अन्यथा तुम भी मरोगे। लेकिन बुद्ध तो उसकी तरफ बढ़ते ही गए। वह दुबारा चिल्लाया कि भिक्षु रुक जाओ, मत बढ़ो मेरी तरफ। मत चलो आगे। बुद्ध ने कहाः अगर तुम मेरी बात सुन सको--क्योंकि बहुत कम लोग हैं जो सुनने में समर्थ होते हैं--तो मैं यह निवेदन करूं, अनेक वर्ष हुए तब मैं रुक गया हूं, तब से मैं चला ही नहीं। तुम चल रहे हो। तुम रुक जाओ। मुझे मत कहो रुकने के लिए, मैं तो रुका हंू। वह हैरान हुआ हत्यारा। बुद्ध चल रहे थे, वह तो बैठ कर अपने फरसे पर धार रख रहा था। तो उसने कहाः यह तो बड़ी अजीब बात कहते हो। बड़े पागल मालूम होते हो। खुद चल रहे हो मेरी तरफ, मैं तो बैठा हुआ हूं। बैठे को चलता हुआ कहते होे? खुद चलते हुए अपने को कहते हो, मैं रुक गया हूं। बुद्ध ने कहाः जैसा मैं देख रहा हूं तुमसे कह रहा हूं। इधर वर्षों से मैं चला नहीं, क्योंकि जिस दिन मेरा मन ठहर गया, उस दिन भीतर सब रुक गया और गति नहीं है। तुम यद्यपि बैठे हुए हो, बैठे हुए मालूम पड़ते हो, लेकिन बैठे हुए नहीं हो। मन चल रहा है। तुम अस्वस्थ हो। मन चलता है तो यह अस्वस्थ लक्षण है। मन अपने में ठहर जाए तो स्वस्थ होता है। स्वास्थ्य की खोज नहीं होती, हां, बीमारी का निदान हो सकता है और चिकित्सा हो सकती है।
बीमारी क्या है? मनुष्य की बीमारी क्या है? कौन सी धूल है, जो उसके ऊपर आ गई है और इकट्ठी हो गई है? यह बीमारी अतिथि है, गेस्ट है आपकी। इसे विदा किया जा सकता है। और अगर आप कहीं होस्ट को खोजने निकल गए, फिर बहुत मुश्किल है। अगर आप कहीं--मेहमान का विचार किए तब ठीक है, लेकिन अगर मेजबान को ही खोजने निकल गए तो बहुत कठिन है। यह जानना जरूरी है कि कौन सी चीजें मेरे ऊपर आकर इकट्ठी हो गई हैं?
जो सबसे पहली बात आज की सुबह मैं आपसे कहना चाहता हूं, और बहुत आधारभूत, वह यह कि मनुष्य के ऊपर जो सर्वाधिक घनी धूल इकट्ठी हुई है, वह ज्ञान की है। इसे सुन कर थोड़ी परेशानी होगी, क्योंकि हम मानते हैं, जो अज्ञानी है, वह सत्य से वंचित हो जाता है। यह बात तो ठीक है। जो अज्ञानी है वह सत्य से वंचित होता है। इससे एक तर्क निकलता है हमारे मन में, फिर जो ज्ञानी है वह सत्य को उपलब्ध हो जाता है। यह दूसरी बात गलत है। अज्ञानी जरूर सत्य से वंचित रह जाता है, लेकिन ज्ञानी भी सत्य को उपलब्ध नहीं हो जाता। हां, जो सत्य को उपलब्ध हो जाता है, उसको जरूर ज्ञानी कहा जा सकता है। और इन दोनों बातों में जो फर्क है वह समझ लेना जरूरी है।
जो सत्य को उपलब्ध हो जाता है, उसे तो ज्ञानी कहा जा सकता है, लेकिन हरेक ज्ञानी सत्य को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि ज्ञान तो उधार इकट्ठा किया जा सकता है। ज्ञान तो बाहर से आकर संगृहीत किया जा सकता है। इसीलिए तो मनुष्य जाति नीचे गिरती जा रही है। क्योंकि ज्ञान इकट्ठा करने के उपाय बढ़ते जा रहे हैं। महावीर को इतने उपाय नहीं थे जितने हमको हैं। और महावीर के पीछे और लौट जाएं तो और भी उपाय कम थे। और पीछे लौट जाएं तो और भी उपाय कम थे। अगर दुनिया से किसी भांति उधार ज्ञान इकट्ठे करने के उपाय कम हो जाएं तो दुनिया में ज्ञान फिर से वापस जग सकता है। लेकिन उधार ज्ञान उपलब्ध करने के उपाय हैं बहुत सरल। और तब वास्तविक ज्ञान की जगह सब्स्टीट््यूट, पूरक ज्ञान मिल जाता है। जो सस्ता मिल जाता है, आसानी से मिल जाता है, उसे हम इकट्ठा कर लेंगे। और वह इकट्ठा ज्ञान बाधा बन जाता है।
अज्ञान बाधा है, ज्ञान भी बाधा है। फिर मार्ग क्या है? ये दो ही मार्ग दिखाई पड़ते हैं। मार्ग कोई तीसरा है जिसकी मैं बात करूंगा।
अज्ञान इसलिए बाधा है कि आदमी को पता ही नहीं होता कि वह क्या कर रहा है, क्या हो रहा है, जीवन कहां जा रहा है? इस पीड़ा से घबड़ा कर वह ज्ञान इकट्ठा करना शुरू कर देता है। तो शास्त्र हैं, सिद्धांत हैं, सदगुरु हैं, उनके वचन हैं, उनको इकट्ठा कर लेगा। और हम सबने इस तरह के वचन इकट्ठे कर लिए हैं। अगर मैं आपसे पूछूं, आत्मा है? तो आप कहेंगे, है। यह आपको किसने कहा, कैसे आपने जाना? यह आपका ज्ञान कैसे बना? अगर मैं आपसे कहंू, ईश्वर है? कोई कहेगा है, कोई कहेगा, नहीं है। लेकिन यह आपको पता कैसे चला? यह आपने कैसे जाना? यह ज्ञान आपको कहां से आया? यह आस-पास से आया होगा। हवा में ज्ञान तैर रहा है, हवा में विचार चल रहे हैं, हजारों साल के विचार चल रहे हैं। हर बच्चा पैदा होने के बाद उनको पकड़ना शुरू कर देता है। इकट्ठा कर लेता है भीतर। फिर इसी ज्ञान के सहारे वह जीता है।
और स्मरण रखें, जगत में उधार ज्ञान से ज्यादा असत्य और कोई चीज नहीं है। उधार ज्ञान ही एकमात्र मिथ्या ज्ञान है। और कोई ज्ञान मिथ्या नहीं है। सम्यक ज्ञान वह है, जो स्वयं से आए और मिथ्या ज्ञान वह है जो दूसरों से आए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह दूसरे कौन हैं। वह महावीर हो सकते हैं, बुद्ध हो सकते हैं, कृष्ण हो सकते हैं, क्राइस्ट हो सकते हैं, इससे कोई फर्क नहीं होता है। उनका ज्ञान सही है या गलत, यह भी सवाल नहीं है। आपके लिए पराया है, यह मिथ्या होने के लिए काफी है। पराया होने से मिथ्या हो जाता है। पराया होने से झूठा हो जाता है। असत्य हो जाता है। और न केवल असत्य हो जाता है, बल्कि सत्य के आगमन में सबसे बड़ी दीवाल हो जाता है। लेकिन हम सब ज्ञानी हैं--कोई थोड़ा होगा, कोई ज्यादा होगा, कोई और ज्यादा होगा। धन्यभाग हैं, उनके, जो थोड़े ज्ञानी हैं। अभागे हैं वे, जो बहुत ज्यादा ज्ञानी हैं। क्योंकि उतनी ही बड़ी दीवाल उनको मिटानी पड़ेगी। यही तो वजह है कि युवा भी सत्य को आसानी से जान पाता है, बूढ़ों को और कठिन हो जाता है। क्योंकि तब तक ज्ञान काफी संगृहीत हो जाता है, अनुभव काफी इकट्ठे हो जाते हैं, और अनुभव के साथ दम्भ भी इकट्ठा हो जाता है। और ज्ञान के संग्रह के साथ अहंकार मजबूत हो जाता है।
क्या हमारा यह ज्ञान, अज्ञान को छिपाने की तरकीब से ज्यादा कुछ और है? क्या हमारा यह जानना है कि आत्मा है--ज्ञान है? क्या आपको कभी भी कोई झलक मिली है आत्मा की? क्या शरीर के अतिरिक्त कभी भी और किसी चीज से आपका स्पर्श हुआ है? क्या कभी परमात्मा की कोई भी ध्वनि आप तक पहुंची है? क्या कहीं उस अदृश्य की कोई भी अनुभूति आपको हुई है? नहीं। अगर वह हो जाती तो जीवन दूसरा हो जाता। अगर वह जरा भी स्पर्श हो जाता तो जीवन इससे कुछ और हो जाता। आप दूसरे ही आदमी हो जाते। आपका दूसरा ही जन्म होता। वह नहीं हुआ। हां, शब्द सुने हैं, गीता पढ़ी है, कुरान पढ़ा है, महावीर और बुद्ध की वाणी पढ़ी है। वह प्रीतिकर लगती है। वह प्रीतिकर इसलिए लगती है कि आप अशांत हो और उसमें शांति का आश्वासन है। इसलिए प्रीतिकर लगती है। वह प्रीतिकर इसलिए लगती है कि आप अज्ञान में हो, उसमें ज्ञान की झलक है; इसलिए प्रीतिकर लगती है।
लेकिन अगर उसे संग्रह कर लिया तो आप कही नहीं पहुंच सकोगे, आप रुक जाओगे। आप वहीं रुक जाओगे। जिसको आपने नौका समझा था वही डुबाने वाली हो जाएगी। उधार नौकाओं पर नहीं बैठा जा सकता। उससे तो कागज की नौकाएं भी कहीं ले जा सकती हैं, क्योंकि फिर भी होंगी तो वह। उधार नौका तो होती ही नहीं। वह तो सिर्फ कल्पना है। आपका यह खयाल कि आत्मा है, कल्पना से ज्यादा और क्या है? हां, जरूर आपने कुछ तर्क भी इकट्ठे कर रखे होंगे कि इसलिए आत्मा है, इसलिए आत्मा है। स्मरण रखिए, जिस आदमी ने तर्क इकट्ठे कर रखे हैं--इसलिए आत्मा है, समझ लेना, उसे आत्मा का पता नहीं है। क्योंकि जिसे पता है उसे तर्क का कोई सवाल नहीं है। आग्र्युमेंट का कोई सवाल नहीं है। अगर कोई आदमी कहे, इसलिए ईश्वर है तो समझ लेना, उसे ईश्वर का कोई भी पता नहीं है, क्योंकि ‘इसलिए’ तो बुद्धि की बात है। जिसे पता होता है उसके लिए कोई ‘इसलिए’ नही रह जाता है।
रामकृष्ण के पास एक दफा केशव मिलने गए। कलकत्ते के बहुत लोग इकट्ठे हो गए सुनने के लिए क्योंकि इस बात का बहुत डर था कि रामकृष्ण की फजीहत होगी। केशव तो प्रकांड पंडित थे, बहुत शास्त्र जानते थे, शायद सौ वर्षों में बंगाल ने वैसा पंडित पैदा नहीं किया। अदभुत उनकी स्मृति थी। रामकृष्ण तो बिलकुल गंवार थे। उन जैसा गंवार भी दुनिया ने बहुत कम पैदा किया। बिलकुल गंवार थे, निपट! कुछ भी नहीं जानते थे। तो बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई थी कि रामकृष्ण की तो फजीहत होनी निश्चित है। केशव के सामने बिचारे की क्या गति होगी! केशव भी सजकर, तैयार होकर गए थे। पंडित हमेशा तैयार होकर जाता है। क्योंकि पंडित के पास तो कुछ होता है नहीं, तैयारी होती है। वह बिलकुल तैयार होकर गए थे। वह सब दलीलें तय करके गए थे कि क्या-क्या कहना, क्या-क्या कहना। वह क्या कहेंगे तो उसके उत्तर भी तैयार करके गए थे। उधर रामकृष्ण को उनके भक्तों ने कहा कि आप भी कुछ तैयारी करिए। उन्होंने कहाः मैं क्या तैयारी करूं? मुझे कुछ समझ में नहीं आता, मैं क्या तैयारी करूं। तैयारी किस बात की? लेकिन उन्होंने कहा, बड़ी मुश्किल हो जाएगी। आपके साथ-साथ हम सबकी भी फजीहत होगी।
भक्तों को ज्यादा डर होता है कि गुरु की फजीहत न हो जाए। बहुत डर होता है। इसलिए तो भक्त लड़ते हैं गुरुओं के नाम पर कि कहीं महावीर की फजीहत न हो जाए, इसलिए जैन मरे जाते हैं। कहीं क्राइस्ट की फजीहत न हो जाए, क्रिश्चियन मरे जाते हैं। भक्तों को बड़ी फिकर होती है, क्योंकि गुरु के साथ उनका अहंकार जुड़ जाता है। उनका गुरु बड़ा तो वे भी बड़े। उनका गुरु जीता तो वे भी जीते। उनका गुरु हारा तो वे भी हारे। इसलिए तो सारी दुनिया में ये संप्रदाय खड़े हुए हैं। यह गुरुओं से हमारा अहंकार जुड़ गया। अगर महावीर बड़े हैं तो जैनी को लगता है कि मैं बड़ा हो गया। भीतर उसका अहंकार ऊपर सरक गया। महावीर सिद्ध हो जाएंगे कुछ भी नहीं, ना-कुछ, तो जैनी के अहंकार का पारा नीचे गिर जाएगा। इसलिए महावीर को बड़े से बड़ा बताना है सब बातों में। कृष्ण को बड़े से बड़ा बताना है हिंदू को, क्राइस्ट को बड़े से बड़ा बताना है। यह भी डर है कि कहीं हमारा गुरु दूसरे के गुरु से नीचे न पड़ जाए। इसलिए उसको इतना बड़ा बताते चले जाते हैं, इतने मिरेकल जोड़ते जाते हैं, उनके पीछे चमत्कार जोड़ते चले जाते हैं, कि सब झूठा हो जाता है। यानी आखिर में कथा रह जाती है, असली आदमी खो जाता है।
तो सब घबड़ाए, शिष्य घबड़ा गए। लेकिन कोई रास्ता नहीं था। आखिर केशव आ ही पहुंचे। वे सब डरे हुए थे। केशव तो तैयार थे, उन्होंने आते से ही पूछा कि क्या ईश्वर है? रामकृष्ण ने कहाः पहले तुम्हीं बताओ। तो केशव बताने लगे कि नहीं है। वे तो तय करके आए थे कि विवाद करना है। तो वह बताने लगे कि नहीं है। वह एक-एक दलील देने लगे--इसलिए ईश्वर नहीं है। उनकी एक दलील पूरी होती थी, रामकृष्ण उठ कर उनको गले लगा लेते थे। वह थोड़े घबड़ाए। यह तो बड़ी पागलपन की बात हो गई। इनसे आए थे लड़ने, दलील दे रहे हैं, ईश्वर के विरोध में, वह आदमी गले लगाता है, रास्ता क्या बने? उनके शिष्य धीरे-धीरे फीके पड़ने लगे, उनके साथ जो आए थे। लेकिन होगा क्या इसका, हल क्या होगा? केशव की दलील भी धीरे-धीरे फीकी पड़ने लगी। शिष्य उदास होने लगे, क्योंकि लड़ाई होने लगे तो चित्त आगे बढ़े, जोश आए। वह जोश का कोई कारण न रहा। रामकृष्ण गले लगाते हैं। केशव ने पूछा कि मैं समझा नहीं कि बात क्या है? आप क्या कर रहे हैं? रामकृष्ण ने कहाः तुम्हें गले लगा कर बार-बार भगवान को धन्यवाद दे रहा हंू। काहे, किस बात का धन्यवाद? मैं तो कह रहा हूं, ईश्वर नहीं है।
रामकृष्ण ने कहाः इसीलिए तो! इतनी अदभुत प्रतिभा, इतना अदभुत विचार, इतनी अदभुत बुद्धि मेरे लिए ईश्वर का सबूत हो जाती है। मुझे तो एक पत्ते में प्राण दिखाई पड़ता है तो मेरे लिए ईश्वर हो जाता है। मुझे तो चांद निकलता है रात में तो ईश्वर हो जाता है। मुझे तो एक तितली उड़ती है तो ईश्वर हो जाता है। एक फूल खिलता है तो ईश्वर हो जाता है। तो मनुष्य की प्रतिभा ऐसी विकसित हुई है तुम्हारे भीतर, तो मेरे लिए तो ईश्वर हो गई। तो तुम प्रमाण देते हो ईश्वर के न होने के, मेरे लिए तुम प्रमाण हो गए हो। अब मैं क्या करूं? अब मैं क्या करूं और क्या न करूं? इसलिए उठ-उठ कर तुम्हें गले लगाता हूं, धन्य हो भगवान! जाते वक्त केशव को कहा, एक बात स्मरण रखना, जिसके भीतर ऐसी विलक्षण विचार की शक्ति हो, वह कितने दिन ईश्वर से दूर रहेगा? इतना भर स्मरण रखना, और मुझे कुछ कहना नहीं है। कोई दलील नहीं दी ईश्वर के होने के लिए। लेकिन, केशव ने दलीलें दीं। हारकर लौटे। घर आकर लिखा कि आज एक आदमी से हार गया, क्योंकि वह लड़ा ही नहीं।
और दुनिया में केवल उससे ही हार होती है जो लड़ता नहीं है। जो लड़ता है, वह तो कभी जीतता नहीं। जो लड़ा है,वह कभी जीतता नहीं है; क्योंकि लड़ता है तभी कोई आदमी जब उसे हारने का डर होता है, जब हारने का डर ही नहीं होता तो वह लड़ता ही नहीं। जब हारने का डर ही नहीं होता तो वह आपको भी जीतने का मजा दे देता है। और यहीं कुछ बातें टूट जाती हैं।
जिन्होंने ईश्वर के प्रमाण दिए हैं कि ईश्वर इसलिए है और इसलिए है और इसलिए है, वे सभी नास्तिक रहे होंगे। उनको खुद शक रहा होगा। उन्होंने जाना नहीं होगा, इसलिए प्रमाण दिए।
आप भी जो ज्ञान इकट्ठा किए हुए हैं, वह प्रमाणों पर खड़ा हुआ है या अनुभव पर? कोई प्रमाण पर खड़ा हुआ है आपका ज्ञान, वह समझना उधार है। अनुभव पर खड़ा हो तो समझना कि सच्चा है, वास्तविक है। अनुभव पर नहीं खड़ा है। सब प्रमाण पर खड़ा हुआ है। और सब प्रमाण एक-दूसरे प्रमाण को चाहते हैं।
अभी एक मित्र मिले। मैंने उनसे यह पूछा, पूछते ही चला गया। वह बोले, मैं तो मानता हूं इसलिए कि महावीर ने कहा है कि आत्मा है। तो महावीर की बात क्यों मानते हो? कि महावीर सर्वज्ञ हैं। यह तुमको किसने कहा? यह किसी और ने कहा है, और आचार्यों ने कहा है कि वे सर्वज्ञ हैं। यह आचार्यों को पता है, यह तुमको किसने कहा? आखिर आप मानने पर खड़े होंगे तो यह तो अंधी गली हो जाएगी, जिसमें आपको फिर एक को मानना पड़ेगा, फिर दूसरे को, फिर तीसरे को; और वह कहीं समाप्त नहीं होगी। यह आपसे किसने कहा कि आत्मा है? तो कहते हैं कि महावीर ने कहा है। महावीर ठीक ही कहते हैं, यह आपको कौन कहता है? तो महावीर सर्वज्ञ हैं, वह गलत कह ही नहीं सकते। यह किसने बताया आपको? यह कोई और आचार्य आपको बताता है। वह आचार्य ठीक कहते हैं, झूठ नहीं बोलते, प्रोपेगंडा नहीं करते महावीर का, यह आपसे किसने कहा?
इस भूलभुलैया में कोई रास्ता है? और इस अंधेरी गली में जब आप दूसरों पर विश्वास करते चले जाएंगे तो कोई हर्ज है। नहीं, इस भांति आप झूठे ज्ञान के लिए बल इकट्ठा कर रहे हैं। झूठे ज्ञान के लिए सहारे इकट्ठे कर रहे हैं। महावीर सर्वज्ञ हैं, कृष्ण भगवान के अवतार हैं, क्राइस्ट ईश्वर के पुत्र हैं, अपने झूठे ज्ञान के लिए सहारे इकट्ठे कर रहे हैं। लेकिन कितने ही सहारे इकट्ठे कर लें, झूठा ज्ञान झूठा है। जिस ज्ञान के लिए आपके अनुभव में आधार नहीं है, उस ज्ञान को आप झूठा जानना। सिवाय उसके कोई आधार होता ही नहीं। सिवाय उसके कोई आधार नहीं होता है।
तो हमारा ज्ञान निराधार है। निराधार ज्ञान बाधा बन जाता है। उसको पैर ही नहीं है, वह चलेगा कैसेे? वह काम कैसे करेगा? उसमें कोई प्राण ही नहीं है। और यह हमने बहुत इकट्ठा किया हुआ है। आपके पाप उतनी बाधा नहीं हैं, आपका ज्ञान ज्यादा बड़ी बाधा है। पाप तो आप बड़े छोटे-मोटे करते हैं, ज्ञान आपका बहुत बड़ा है। पाप कोई बड़े आप कर भी क्या सकते हैं? आदमी कितने बड़े पाप कर सकता है? आदमी की ताकत कितनी है? बड़ी छोटी सी ताकत है। ताकत से बाहर पाप भी क्या करेगा! पाप कोई बहुत बड़े आप नहीं कर सकते। क्या पाप करिएगा? ऐसा कौन सा पाप करिएगा जो पहले मनुष्य ने नहीं किया है? कौन से बड़े पाप आप कर सकते हैं?
और पाप आप करते ही क्यों हैं? पाप इसलिए करते हैं कि अज्ञान है। और वह भी छोटे-छोटे पाप हैं, छोटी-छोटी बेईमानियां हैं, छोटे-छोटे धोखे हैं। और वे सब इसीलिए हैं कि आप खुद बुनियादी रूप से धोखे में हैं, इसलिए बाकी सारे धोखे पैदा होते हैं। बुनियादी रूप से जो आदमी धोखे में है, उससे सारे धोखे पैदा हो जाते हैं। बुनियादी रूप से आपको धोखा बहुत गहरा है। आप मान रहे हैं कि मेरे भीतर आत्मा है और आपको पता नहीं है। यहां से धोखा शुरू हो गया है, बेईमानी शुरू हो गई। फिर वह बेईमानी दुकान तक जाएगी, बाजार तक जाएगी। फिर साधु और संन्यासी समझाते हैं, दुकान पर बेईमानी मत करो, बाजार में बेईमानी मत करो। कैसे नहीं करोगे? जो आत्मा तक में बेईमानी कर रहा है, जो उधार आत्मा को मान रहा है, जिसका उसे कोई पता नहीं है। यहां तो बहुत जड़-मूल में बेईमानी होगी। और जो अपने को धोखा दे रहा है वह किसको धोखा देने से बचेगा? तो मैं आपसे नहीं कहता कि दुकान में बेईमानी न करना। आप तो करोगे, बच नहीं सकते। असंभव है बचना। क्योंकि आप तो प्राणों के प्राण में बेईमानी किए हुए बैठे हैं। आप वहां धोखा दिए हुए हैं, वहां डिसेप्शन है, वहां वंचना चल रही है भीतर। सबसे बड़ी वंचना यह है कि जो ज्ञान मेरा नहीं है, उसको मैने समझा हुआ है कि मेरा है। और उस ज्ञान के लिए मैं मर भी सकता हूं, लड़ भी सकता हंू। उस ज्ञान के लिए हत्या भी कर सकता हंू। और शहीद भी हो सकता हूं उस ज्ञान के लिए जो मेरा नहीं है।
यह ज्ञान तो बांध लेता है। मनुष्य के ऊपर ज्ञान के बड़े गहरे बंधन हैं। इसे तोड़ना जरूरी है। इसे तोड़ने से क्या होगा? इसे तोड़ने से बड़ी घबड़ाहट होगी, क्योंकि आप बिलकुल अज्ञानी मालूम पड़ेंगे। अगर आप सोचेंगे तो आप पाएंगे, मुझे आत्मा का कोई भी पता नहीं है, मुझे परमात्मा का कोई पता नहीं है, मुझे मोक्ष का कोई पता नहीं, मुझे नरक-स्वर्ग का कोई पता नहीं है। मुझे यह भी पता नहीं, मैं क्यों पैदा हुआ? मुझे यह भी पता नहीं, मैं क्यों हंू? मुझे यह भी पता नहीं कि मैं कल कहां जाऊंगा, क्या होगा? मृत्यु के बाद क्या होना है, मुझे कुछ भी पता नहीं है।
अगर सीधी-सीधी पहली सच्ची बात जीवन में आ सकती है, तो वह कि मुझे कुछ भी पता नहीं है। और अगर यही बात नहीं आती तो आपके भीतर धार्मिक व्यक्ति का जन्म असंभव है। अगर यह बुनियादी आधारभूत बात आपको खयाल में नहीं आती है। आपको क्या पता है? तो ईमानदारी से सोचिए तो आपको पता चलेगा कि कुछ भी पता नहीं है। सब अज्ञान है--कुछ भी पता नहीं है। ऐसी तो सीधी और साफ स्थिति है। अज्ञान का बोध, ज्ञान की दिशा में पहला चरण है। लेकिन, जिन्हें अज्ञान का ही बोध नहीं है, जिनका पहला कदम ही नहीं उठ पाता, बाकी कदम कैसे उठेंगे?
तो आज की सुबह मैं यह कहना चाहता हूं कि अज्ञान का बोध जीवन में क्रांति का पहला चरण है। और अज्ञान के बोध में दो शब्द हैं, जिन पर थोड़ा खयाल करना। एक तो अज्ञान और एक बोध। ये दोनों विरोधी शब्द हैं, और यही सारा सीक्रेट, सारा रहस्य है जीवन का। अज्ञान और बोध विरोधी शब्द हैं। जिस व्यक्ति को अज्ञान का बोध होना शुरू हो जाता है कि मैं निपट अज्ञान में हूं, उसके भीतर ज्ञान का पहला बीज शुरू हो गया। बोध पहला बीज है। अज्ञान का बोध जिसे हो रहा है उसके भीतर पहला बीज बोध का पड़ा--पहला, अवेयरनेस का, होश का। अंडरस्टैंडिंग का पहला बीज उसके भीतर पड़ा आया।
अब इस बोध को विकसित किया जा सकता है। और यह सीधे तथ्य की बात है। इसके लिए किसी शास्त्र को मानने की जरूरत नहीं है कि आप अज्ञानी हैं। इसके लिए मेरी बात मानने की जरूरत नहीं है कि आप अज्ञानी हैं। यह तो आप खोजेंगे तो आपके सामने स्पष्ट हो जाएगा कि आप अज्ञानी हैं। अज्ञान हमारी भूमिका है। हम कुछ भी नहीं जान रहे हैं, हमें कुछ भी पता नहीं है। लेकिन शास्त्रों ने इस भूमिका को नष्ट कर दिया है, क्योंकि शास्त्रों ने हमारे भीतर जगह बना ली है। और जब भी जीवन में कोई समस्या खड़ी होती है, उत्तर हम नहीं देते, शास्त्र हमारे भीतर से दे देते हैं।
जैसे मैं आपसे पूछूं कि मरने के बाद क्या होगा? आप कहेंगे, आत्मा है, अपने कर्मों का फल भोगेगी, और आवागमन होगा। अगर आप ईसाई हैं या मुस्लिम हैं, तो आप दूसरा उत्तर देंगे, क्योंकि आपने दूसरे शास्त्र पढ़े और सीखे हैं। अगर आप जैन हैं तो दूसरा उत्तर देंगे, अगर हिंदू हैं तो दूसरा उतर देंगे। ये उत्तर आपसे नही आ रहे हैं, उन शास्त्रों से आ रहे हैं जो आपने पढ़े हैं।
क्या यह जरूरी नहीं है कि हम इस बात को समझें कि हमारे भीतर से कोई भी उत्तर नहीं आता? अभी मैं पूछता हूं, क्या आत्मा है? अगर आप इस बात की खोज करेंगे कि मेरे भीतर से कोई उत्तर आए, तो कोई उत्तर नहीं आएगा। जो उत्तर आएगा वह शास्त्र का होगा, समुदाय का होगा, सीखा हुआ होगा। तो इसमें कौन सी चीज सच्ची है--वह भीतर से उत्तर का न आना, वह सच्चा है, या ये किताब से आए हुए उत्तर? वह उत्तर का न आना वास्तविक है। वह कोई हमारी श्रद्धा नहीं है, वह हमारा अनुभव है।
तो बिलकुल आधार से ही कोई भवन खड़ा होता है। ईंट बिलकुल नींव की पहले रखनी पड़ती है। पहली नींव की ईंट यह है कि हम इस बात को स्पष्ट रूप से अनुभव कर लें कि हमारे पास कोई भी ज्ञान नहीं है। हम निपट अज्ञानी हैं।
अगस्तीन हुआ है एक फकीर। उसने अज्ञान को डिवाइन इग्नोरेंस कहा है। इस अज्ञान के बोध को, दिव्य अज्ञान की अनुभूति कहा। मुझे प्रीतिकर लगती है, यह बात ठीक है। हमारे भीतर दिव्यता की शुरुआत हो सकती है। अज्ञान का बोध प्राथमिक रूप से स्पष्ट हो जाना चाहिए।
क्या होगा उससे? आप कहेेंगे, यह बोध भी हो जाए तो क्या होगा? आपके व्यक्तित्व में अभी एक परिवर्तन शुरू हो जाएगा। आपके फिजूल प्रश्न गिर जाएंगे, फिजूल खोजें गिर जाएंगी। फिर मोक्ष की खोज का कोई सवाल नहीं रहा। फिर आत्मा है या नहीं, इसकी खोज का कोई सवाल नहीं रहा। फिर जन्म पुनर्जन्म होता है या नहीं, इस बेवकूफी में पड़ने की कोई वजह नहीं रही। तब तो सीधी वजह यह हो गई कि मेरे पास कोई बोध ही नहीं है जीवन को जानने का, मेरे पास कोई द्वार नहीं दिखता। मैं बिलकुल अंधकार में खड़ा हंू, क्या करूं? जो आदमी अंधकार में खड़ा होता है, उसे सबसे पहले जो बोध आता है, वह प्रकाश को पाने का आता है, और कोई बोध नहीं आता। उसे पुनर्जन्म का खयाल नहीं आता। उसे परमात्मा के कितने सिर होते हैं, चत्तुर्मुखी होते हैं कि हजार हाथ होते हैं, इसका खयाल नहीं आता। यह कोई नानसेंस उसके दिमाग में पैदा ही नहीं होती।
उसे तो पहला बोध यह आता है कि अंधकार घना है। प्रकाश कैसे मिले? तब वह यह नहीं पूछता कि कितने नरक हैं और कितने स्वर्ग हैं! तब वह नहीं पूछता कि किन-किन कर्मों के द्वारा मनुष्य का आवागमन होता है! तब वह यह नहीं पूछता कि भगवान ने दुनिया किस तारीख को कब बनाई, कितने दिन में बनाई! छः दिन में बनाई कि सात दिन में बनाई और रविवार बनाने के बाद विश्राम किया कि नहीं किया? यह वह नहीं पूछता। वह यह सारी बातें नहीं पूछता है। महावीर सर्वज्ञ हैं या नहीं, वह यह नहीं पूछता। उसे महावीर से क्या लेना-देना? क्राइस्ट भगवान के पुत्र हैं या नहीं, यह नहीं पूछता। क्योंकि भगवान और भगवान के पुत्र, इनका मुझे क्या पता हो सकता है, मुझे अपना कोई पता नहीं। वह यह नहीं पूछता कि मोहम्मद सीधे शरीर के सहित स्वर्ग चले गए या मर कर गए? सारी बातें उसे समझ में आती हैं, मूढ़तापूर्ण हैं। जो इनको पूछ रहा है, वह व्यर्थ की बातें पूछ रहा है। और ऐसी मूर्खताओं से हजारों ग्रंथ भरे हुए हैं, हजारों मस्तिष्क भरे हुए हैं, जो सुबह से सांझ तक इनका विचार कर रहे हैं और सोच रहे हैं कि यह धार्मिक चिंतन है।
यह कोई धार्मिक चिंतन नहीं है। इससे ज्यादा अज्ञानपूर्ण व्यर्थ की दिशा कोई नहीं हो सकती। लेकिन इस पर खोज-बीन चलती है। इस पर लोग समय खराब करते हैं, मन खराब करते हैं। जिस आदमी को अंधकार का बोध होता है, वह यह पूछता है कि प्रकाश कहां है? कैसे प्रकाश उपलब्ध हो सकता है? कैसे मैं प्रकाश को पा सकता हूं? उसके लिए और कोई आकांक्षा दूसरी नहीं होती। जिसके घर में आग लगी हो वह यह पूछता है कि दरवाजा कहां है? मैं बाहर कैसे निकल जाऊं? वह और कुछ नहीं पूछता। इस वक्त और सारी बातें, और सारे प्रश्न उसके लिए व्यर्थ हो जाते हैं।
अज्ञान अगर हमें चारों तरफ से घेर ले तो हमारे भीतर वह लपट उठनी शुरू होगी जो प्रकाश की खोज बनती है, अभीप्सा बनती है। लेकिन अज्ञान का बोध ही हमें न पकड़े, तो हमारे भीतर प्यास ही पैदा नहीं होती, खोज ही पैदा नहीं होती। इसलिए, मैं कह रहा हंू कि शास्त्रों और शब्दों और सिद्धांतों ने हमारी खोज को मंदा कर दिया है, धीमा कर दिया है, फीका कर दिया है। दुनिया भर में कोई सत्य की खोज के लिए बहुत उत्सुक नहीं है। न होने का कारण यह है कि उसने उधार सत्य इकट्ठे कर लिए हैं और उनके कारण से खोज की पीड़ा अनुभव नहीं होती। अगर मुझे इस वक्त ऐसा लगे कि कोई रास्ता नहीं है मेरे जीवन में। मुझे कोई पता नहीं कि कहां जाऊं, क्या करूं? अगर मैं बिलकुल घबड़ा कर खड़ा हो जाऊं, मुझे कोई समझ में न पड़े, तो उस स्थिति में क्या होगा? मेरे भीतर एक क्रांति शुरू हो जाएगी। मेरे भीतर एक परिवर्तन शुरू हो जाएगा। मैं चैंक जाऊंगा, मैं अवाक रह जाऊंगा। मुझे ठहर कर दो क्षण सोचना पड़ेगा। विचार पैदा होगा, खोज पैदा होगी, प्यास पैदा होगी, अभीप्सा पैदा होगी।
अज्ञान का बोध अनिवार्य है साधना के किसी भी क्रम में। लेकिन आप तो जहां भी जाएंगे, वहां आपको ज्ञान सिखाया जाएगा। अज्ञान तो कोई सिखाता नहीं। आप जहां भी जाएंगे वहां और ज्ञानी होकर वापस लौटेंगे। कुछ किताबें सीख लाएंगे, कुछ शब्द सीख लाएंगे और ज्ञानी होकर आएंगे। अगर इस शिविर से आप अज्ञानी होकर वापस लौट जाएं और आपका ज्ञान यहीं छूट जाए तो समझ लें, बहुत बड़ा काम हो गया। आपकी जिंदगी में एक अदभुत बात हुई। आप एक भार को छोड़ कर आए, अगर आप यहां से बिलकुल अज्ञानी होकर लौट जाएं। अगर आपसे रास्ते में कोई पूछे, आत्मा है? और आप पूरे मन से कह सकें, कि मुझे पता नहीं। आपसे कोई पूछे--ईश्वर है? और आप कह सकें कि मुझे पता नहीं। मैं बिलकुल अज्ञानी हूं, मुझे कुछ भी पता नहीं। अदभुत है यह बोध। इससे एक विनम्रता, एक ह्युमिलिटी पैदा होगी, अहंकार गल जाएगा। क्योंकि ज्ञान अहंकार को मजबूत करता रहता है। यह बात कि मुझे पता नहीं, यह स्पष्ट आपके हृदय से यह आवाज--कि मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं कुछ भी नहीं जानता हंू। मुझसे ज्यादा अज्ञानी शायद ही कोई हो, मुझे कुछ भी पता नहीं--अगर आपके पूरे प्राणों से यह बात आई तो आप पाएंगे, आपके भीतर एक क्रांति हो रही है--इस बात के आने से ही। इस बात के आने से यह क्रांति होगी कि आपके भीतर एक नवीन विनम्रता, ह्युमिलिटी पैदा होगी। आप पिघल जाएंगे। भीतर दंभ गल जाएगा। आप समझेंगे, जिसे कुछ भी पता नहीं उसकी स्थिति भी क्या? क्या है, कहां है, कौन है, कुछ भी पता नहीं।
इसको मैं पहला चरण कहता हूं। और चरणों की बात करूंगा, लेकिन आज तो मैं यही कहूंगा कि आपको किसी न किसी भांति अपने ओरिजिनल इग्नोरेंस को खोज लेना है। वह जो हमारा मौलिक अज्ञान है, उसे खोज लेना है। और यह जो हमारा उधार का ज्ञान है, उससे थोड़ा हट जाना है। अपने भीतर वह जगह खोज लेनी है, जहां हम बिलकुल अज्ञान में हैं। जहां हमें कुछ भी पता नहीं। जहां हम न जैन हैं, न हिंदू हैं, न बौद्ध हैं, क्योंकि यह तो सिखाए हुए ज्ञान के फासले हैं। अगर आपको इसका पता चल जाए कि मुझे पता नहीं है कुछ भी, फिर आप कह सकते हैं कि मैं जैन हंू? फिर आप कैसे कहेंगे कि मैं जैन हूं? फिर आप कैसे कहेंगे कि मैं मुसलमान हंू? फिर आप कैसे कहेंगे कि मैं हिंदू हूं? आप कहेंगे कि मुझे कुछ पता नहीं कि परमात्मा है, मुझे कुछ पता नहीं कि आत्मा है? मुझे यही पता नहीं कि मैं क्या हूं? तो मैं कैसे कहूं कि कौन ठीक कहता है, महावीर ठीक कहते हैं कि कृष्ण ठीक कहते हैं कि बुद्ध ठीक कहते हैं कि कौन ठीक कहता है, मैं कैसे कहूं? मुझे तो कुछ पता नहीं। जिसे सत्य का पता हो वह बता सकता है, कौन सत्य कहता है। मुझे तो सत्य का पता नहीं। मैं तो निपट अज्ञानी आदमी हूं।
इस झूठे ज्ञान ने दुनिया में मनुष्य को तोड़ दिया है। अगर दुनिया का ओरिजिनल इग्नोरेंस, हर आदमी के भीतर जो मौलिक अज्ञान की स्थिति है, वह स्पष्ट हो जाए तो दुनिया में फिर कोई संप्रदाय नहीं हो सकते। संप्रदाय तो इस झूठे ज्ञान पर बंटे हुए हैं। आप कोशिश करके नहीं कर सकते कि आप हिंदू और जैन का समन्वय हो जाएं, और फलां-ढिकां और अल्ला ईश्वर तेरे नाम, इसको कहने लगें तो कुछ फर्क हो जाएगा? इससे कुछ होने वाला नहीं है। आपको यह पता चलना चाहिए कि मेरे अज्ञान ने मुझे जैन बनाया है, मेरे अज्ञान ने मुझे हिंदू बनाया है। इसलिए कि उस अज्ञान को मैंने एक खास ढंग के ज्ञान से ढांक लिया तो मैं जैन हो गया। एक-दूसरे ने अपने अज्ञान को खास ढंग से ढांक लिया तो वह हिंदू हो गया, तीसरे ने उस अज्ञान को तीसरे तरह के ज्ञान से ढांक लिया तो वह फलां हो गया। हमने कपड़े पहन रखें हैं, भीतर हम सब नंगे हैं, और कपड़े हम सबके अलग हैं। कोई हिंदू के पहने है, कोई मुसलमान के, कोई ईसाई के, लेकिन आदमी भीतर नंगा है। अगर हम सब नंगे खड़े हो जाएं, तो पहचानना मुश्किल है, कौन हिंदू है, कौन ईसाई है, कौन मुसलमान है। वह जो हमारी ओरिजिनल नेकेडनेस है, वह जिसको मैं कह रहा हूं मौलिक आधारभूत अज्ञान, उसे अगर नहीं पकड़ते हैं तो आगे कोई बात नहीं हो सकती है। बहुत जड़ से ही बात पकड़नी पड़ेगी, फिर कुछ काम हो सकता है, फिर कोई नया भवन खड़ा हो सकता है, कोई नई जीवन-दृष्टि का जन्म हो सकता है।
यह थोड़ी सी बात आज की सुबह मुझे कहनी थी। इस पर और चर्चा करूंगा। कुछ इस पर आपके प्रश्न भी आ जाएंगे तो उनसे भी चर्चा हो जाएगी तो और पहलू साफ हो सकेंगे। इसके आगे और कुछ बातें कल आपसे करूंगा।
अभी ध्यान के लिए बैठेंगे सुबह के। तो ध्यान के लिए दो-तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। ध्यान के संबंध में जो भी आपने सुन रखा है उस शब्द से मेरा वह अर्थ नहीं है, जो भी सुन रखा हो। जो भी समझ रखा हो, उससे मेरा वह अर्थ नहीं है। आमतौर से ध्यान का मतलब होता है, किसी पर ध्यान। मेरी दृष्टि में जहां हमारे अतिरिक्त और कुछ भी मौजूद है, वहां ध्यान नहीं है। चाहे राम की मूर्ति मौजूद हो, चाहे कोई शब्द मौजूद हो, चाहे कोई और मौजूद हो--कोई बिंदु, कोई चित्र। जहां हमारे अतिरिक्त कुछ भी मौजूद है, वहां ध्यान नहीं है। जहां मैं ही अकेला बच रहा और कुछ भी न बचा, वहां ध्यान है।
ध्यान किसी पर नहीं किया जा सकता, क्योंकि किसी पर करने का मतलब होगा मेरे अलावा और भी कुछ मौजूद है। ध्यान का अर्थ हैः मेरे मन के भीतर कुछ भी मौजूद न रह जाए। धीरे-धीरे मेरे मन के भीतर सब हट जाए और खाली सन्नाटा रह जाए। यह कैसे होगा? क्योंकि हमारे मन के भीतर तो कुछ न कुछ बना रहता है।
दो प्रकार के ध्यान हम प्रयोग करेंगे--एक सुबह और एक रात्रि। दोनों को थोड़ा अलग विभाजित किया है। रात्रि का सोने के पूर्व का ध्यान है, वह मैं रात को समझाऊंगा। सुबह का ध्यान जगने का ध्यान है।
मनुष्य अपने चित्त की दो ही स्थितियों से परिचित है--एक तो जागना और एक सोना। दो स्थितियां मन की हमारी परिचित हैं। इन दोनों स्थितियों के लिए यह दो ध्यान व्यवस्थित किए हैं। यह सुबह का ध्यान है, यह जागरण का ही ध्यान है। इसमें जागना है। भीतर जितने ज्यादा हम जाग सकें। कैसे जागना है? नहीं, बहुत मुश्किल से कुछ लोग जागे हुए होते हैं। अधिक लोग सोए हुए होते हैं। सोया हुआ होना हमारी बहुत गहरी आदतों में से है। हम करीब-करीब सोए हुए चलते हैं, सोेऐ हुए बातें करते हैं, सोेए हुए खाना खाते हैं। यह सोेए हुए होने को तोड़ने की बात है।
जैसे उदाहरण के लिए मैं कहंू--जगह-जगह लोगों से कहा--अगर यहां हम सारे लोग बैठे हैं। शायद कभी कभी आपको किसी क्षण में जागने का अनुभव होता हो; सभी को होता है किसी न किसी क्षण में। अगर एकदम से कोई आकर आपकी छाती पर छुरा रख दे, आप अकेले जा रहे हैं किसी रास्ते से, एकदम से कोई आए और छुरा रख दे। आप एक सेकेंड को जाग जाएंगे। एक सेकेंड को; फिर शायद सो जाएंगे, लेकिन एक सेकेंड को आपके भीतर सन्नाटा हो जाएगा। सब भीतर ठहर जाएगा। एक सेकेंड को सब बात रुक जाएगी और भीतर एक होश मालूम होगा जो कभी मालूम नहीं हुआ था।
एक फकीर हुआ जापान में। वह तलवार चलाना सिखाता था। दूर-दूर से लोग उसके पास आते और तलवार चलाना सीखते। जापान के बादशाह ने अपने लड़के को भेजा और कहलवाया कि मैं बूढ़ा हो गया हूं, तो जल्दी से जल्दी एक साल में सिखा कर उसे वापस कर देना। उस फकीर ने कहा, फिर इसे और कहीं भेजो, क्योंकि जिसे सीखने की जल्दी होती है, वह जल्दी के कारण ही सीख नहीं पाता। सीखने की जल्दी होगी तो सीख नहीं पाएगा। यहां तो बड़े धैर्य की जरूरत है। तो अगर तुम्हें मरने की जल्दी हो तो लड़के को और कहीं सिखाओ। अगर तुम कुछ दिन रुक सकते हो तो हम इसको ले सकते हैं। एक ही शर्त पर, और वह शर्त यह होगी कि अब हमसे दुबारा मत पूछना कि लड़का कब सीख कर बाहर आएगा? खैर, उसके सिवाय कोई वैसा गुरु नहीं था। उसी के पास भेजना पड़ा इसी शर्त पर।
दो साल तक तो उसने लड़के की कोई फिकर ही नहीं की। वह घर की बुहारी लगाता था। कपड़े धोता था; गुरु के पैर दाबता था। लड़का भी परेशान था, उसका बाप भी परेशान था कि शुरुआत कब होगी? अभी तो शिक्षा शुरू नहीं हुई है, अंत का तो कोई सवाल ही नहीं है। एक दिन शुरुआत हुई। वह लड़का बुहारी लगा रहा था, पीछे से गुरु ने आकर लकड़ी की तलवार से उस पर चोट कर दी। वह बेचारा बुहारी लगा रहा है। उसको पता भी नहीं, पीछे से गुरु आया, लकड़ी से उसने चोट की, वह चैंक कर खड़ा हो गया। उससे पूछाः यह क्या करते हैं आप? उसने कहाः मैंने शिक्षा तुम्हारी शुरू कर दी। अब तुम सम्हल कर रहना। अब किसी भी वक्त-बेवक्त मैं तुम पर चोट करूंगा। तुम झाडू लगाते होगे, मैं चोट कर सकता हूं। तुम खाना खा रहे होगे, मैं चोट कर सकता हूं। तुम सो रहे होगे, मैं चोट कर सकता हंू। लड़का बहुत हैरान हुआ कि यह कैसी शिक्षा है! उसे अभी कुछ बताया नहीं गया और चोटें शुरू हो गईं। उसने पूछा कि यह बात क्या है? गुरु ने कहा, तुम इसकी फिकर न करो तो तुम्हें धीरे-धीरे समझ में आएगी कि बात क्या है! बाकी अब तुम तैयार रहना। अब तुम चैंके हुए रहना। अब तुम चैकन्ने रहना। अब मैं कभी भी चोट करूंगा।
वे चोटें शुरू हो गईं। दिन में दस-बीस मौके आते थे। लड़का कुछ पढ़ रहा है किताब, वह पीछे से आकर चोेट कर दे। बड़ा मुश्किल काम था, इसमें बचाव भी नहीं हो सकता था। लेकिन जब दस-पांच दिन ऐसा चला तो लड़के के भीतर एक बोध निरंतर सरकने लगा। वह चैकन्ना रहने लगा, कहीं चोट तो नहीं हो रही है? वह पढ़ रहा है तो उसे खयाल है कि कहीं चोट तो नहीं हो रही? वह खाना खा रहा है तो वह जागा हुआ है, बोध है भीतर कि चोट तो न हो जाए। एक महीना बीतते-बीतते चैबीस घंटे उसके भीतर होश की एक धारा बहने लगी कि कहीं चोट न हो जाए, कहीं चोट न हो जाए! दो महीने बीतते-बीतते तो गुरु के पैर की छोटी सी आहट भी सुनाई पड़ने लगी, क्योंकि जितना भीतर होश बढ़ा, उतनी छोटी-छोटी चीजों की सेंसिटिविटी बढ़ती है, संवेदनशीलता बढ़ती है। गुरु उस कमरे में से इधर को चला कि वह तैयार हो जाए, वह आ रहा है। तीन महीने बीतते-बीतते यह हो गया कि गुरु चोट करे तो उसका हाथ पहले उठ जाए। वह पीछे है अलग, इधर अपना काम कर रहा है, उधर गुरु ने चोट की, उसका हाथ उठ जाए। गुरु ने कहा कि ठीक है, बात कुछ बनती है। लेकिन उसने कहाः आप मुझे कुछ सिखाते नहीं। उन्होंने कहाः मैं तुम्हें बड़ी बात सिखा रहा हूं जो सबसे बुनियादी है। फिर तलवार सीख लेना तो बड़ी आसान बात है। होश सीख लेना बड़ी कठिन बात है। और तलवारबाजी में सबसे बड़ी बात होश है। क्योंकि वह आदमी कहां चोट करेगा, वहां एक सेकंड का फासला नहीं होता है। उसकी चोट करने के पहले आपकी तलवार बचाव करने के लिए पहुंच जानी चाहिए। तो तो काम होता है, नहीं तो गए! उसके चोट करने के पहले आपकी तलवार बचाव के लिए पहुंच जानी चाहिए। मतलब यह हुआ कि उसके मन में चोट करने का खयाल उठे, उसके पहले आपके मन में बचाव का खयाल आ जाए, तो बचे नहीं तो गए। इसलिए पहले होश जगा रहे हैं।
तीन महीने बीते, चार महीने बीते, फिर तो वह सोते में उस पर हमला करने लगा। वह लड़का सोया है, जाएगा, उस पर चोट कर देगा। लड़का बड़ा घबड़ाया। उसने कहा कि जागने में बात ठीक थी, मैं सोता हूं, रात, चोट करते हैं? तुम फिक्र न करो। तुम कोशिश सोने में भी होश रखने की करना, क्योंकि मैं चोट करूंगा, रात में दस-पांच दफा चोट करूंगा। जब भी मेरी नींद खुलेगी--बूढ़ा आदमी, उसकी नींद खुली रहती थी। रात चोट होने लगी, एक महीना बीता। रात में भी भीतर, उसके पूरे मन के भीतर, उसके पूरे अनकांशस माइंड तक एक भाव सरकने लगा कि चोट होगी। वह सोया है, लेकिन उसे पता है कि चोट होगी। धीरे-धीरे नींद में भी गुरु आता है, तो उसके पैर उसे सुनाई पड़ने लगे, पैर की चाप, वह उठ कर बैठ जाए। गुरु ने कहाः अब ठीक हुई बात। फिर तो धीरे-धीरे नींद में भी उसका हाथ उठ जाए। वह चोट करे, उसका हाथ वह रोक ले। ऐसे छः महीने बीते। सोते-जागते उसके भीतर एक होश पैदा हो गया।
उसने एक दिन सोचा, यह गुरु मुझ पर तो इतनी चोटें करता है। एक दिन उसे खयाल आया। खयाल आना बिलकुल स्वाभाविक था। गुरु पढ़ रहा था बाहर बैठा, तो सोचा, आज मैं भी चोट करके देख लूं। वह मुझ पर रोज चोट करता है, तो मैं भी तो चोट करके देखूं। यह उसके मन में खयाल आया। गुरु ने बाहर से चिल्लाया, कहा कि मैं बूढ़ा हूं, सोच कर खयाल करना। मैं तो बूढ़ा आदमी हंू, तू तो जवान है। बहुत घबड़ा गया, उसने कहा कि मैंने तो अभी सोचा ही था। उसने कहाः एक वक्त आएगा जब तेरा होश और बढ़ेगा, तो जो दूसरे के भीतर विचार बनता है वह तक, उसकी पगध्वनि भी सुनी जा सकती है और जानी जा सकती है।
इसको मैं जागरण कह रहा हूं। जागरण का यह मतलब नहीं कि आपकी आंखें खुली हैं और आप बैठे हुए हैं। यह बहुत स्थूल तल पर जागा हुआ होना है। यह जागा हुआ होना नहीं है।

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