सत्य की पहली किरण-प्रवचन-छटवां)
अमृत की दशा-(प्रवचन--छटवां )
चित्त स्वतंत्र हो, कोई मानसिक दासता और गुलामी न हो; कोई बंधे हुए रास्ते, बंधे हुए विचार और चित्त के ऊपर किसी भांति के चौखटे और जकड़न न हों, यह पहली शर्त मैंने कही, सत्य को जिसे खोजना हो उसके लिए। निश्चित ही जो स्वतंत्र नहीं है, वह सत्य को नहीं पा सकेगा। और परतंत्रता हमारी बहुत गहरी है। मैं उस परतंत्रता की बातें नहीं कर रहा हूं, जो राजनैतिक होती है, सामाजिक होती है, या आर्थिक होती है। मैं उस परतंत्रता की बात कर रहा हूं, जो मानसिक होती है। और जो मानसिक रूप से परतंत्र है, वह और चाहे कुछ भी उपलब्ध कर ले, जीवन में आनंद को और कृतार्थता को, आलोक को अनुभव नहीं कर सकेगा। यह मैंने कल कहा।चित्त की स्वतंत्रता पहली भूमिका है। आज सुबह दूसरी भूमिका पर आपसे कुछ विचार करूं। दूसरी भूमिका है--चित्त की सरलता।
पहली भूमिका है: चित्त की स्वतंत्रता।
दूसरी भूमिका है: चित्त की सरलता।
जिनके चित्त जटिल हैं, उलझे हुए हैं, द्वंद्वग्रस्त हैं, वे भी सत्य को जानने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। और हमारे चित्त सरल बिलकुल नहीं हैं। हमारे चित्त बहुत जटिल, बहुत उलझे हुए, बहुत द्वंद्वग्रस्त, बहुत विरोधाभासों से भरे, बहुत अराजक हैं। चित्त की यह जटिलता भी बाधा है। क्योंकि जो अपने भीतर उलझा है, वह बाहर आंख कैसे खोल सकेगा? जो अपने भीतर बहुत व्यस्त है और संघर्ष में है, वह सत्य के प्रति उन्मुख कैसे हो सकेगा? जो अपने से लड़ रहा है और अपने ही भीतर खंडित है, वह अखंड को कैसे जान सकेगा?
हम सारे लोग खंडित हैं। अपने ही भीतर बहुत खंडों में विभाजित हैं। और वे सब खंड भी एक-दूसरे के विरोध में खड़े हैं।
क्राइस्ट एक गांव में एक दफा गए। एक युवक उनसे मिलने आया। उस युवक से क्राइस्ट ने पूछा कि तेरा नाम क्या है? इसके पहले कि मैं तुझे कुछ बताऊं, मैं तुझसे पूछ लूं कि तेरा नाम क्या है?
उस युवक ने कहा, माइ नेम इज़ लीजियन। मेरे तो हजार नाम हैं, मैं कौन सा नाम बताऊं? उस युवक ने कहा कि मेरे तो हजार नाम हैं, मैं कौन सा नाम बताऊं?
क्राइस्ट ने कहा, कम से कम तूने एक सत्य तो कहा। दूसरे लोग तो अपना एक ही नाम बताते हैं, जब कि उनके भीतर हजार-हजार आदमी होते हैं।
हर आदमी के भीतर बहुत से आदमी हैं। आप एक भीड़ हैं। आपके भीतर कोई व्यक्ति नहीं है। आप कोई इंडिविजुअल नहीं हैं। आपके भीतर तो एक भीड़ भरी हुई है।
महावीर ने कहा है: मनुष्य बहुचित्तवान है। हम साधारणतः सोचते हैं कि एक ही चित्त है हमारे पास। महावीर कहते हैं, बहुचित्तवान है। अभी आधुनिक खोजें भी कहती हैं, मनुष्य पोलीसाइकिक है। उसमें बहुत से मन एक ही साथ हैं। और आप खुद विचार करें तो दिखाई पड़ेगा, बहुत से चित्त हैं आपके पास। जब आप क्रोध में होते हैं, तो क्या आपके पास वही चित्त है जब आप बाद में पश्चात्ताप करते हैं? पश्चात्ताप करने वाला चित्त बिलकुल दूसरा है; क्रोध करने वाला चित्त बिलकुल दूसरा है। इसीलिए आप बार-बार पश्चात्ताप करते हैं और फिर बार-बार क्रोध करते हैं। जिस चित्त ने पश्चात्ताप किया, उसकी आवाज उस चित्त तक नहीं पहुंची, जो कि क्रोध करता है। अन्यथा, अन्यथा क्रोध बंद हो गया होता। एक ही भूल आप हजार बार करते हैं। और भूल को करने के बाद पछताते हैं, दुखी होते हैं, निर्णय लेते हैं कि अब यह भूल नहीं करूंगा। अगर आप एक ही आदमी होते, आपके भीतर एक ही मन होता, तो निर्णय पूरा हो जाता। लेकिन आपके भीतर बहुत मन हैं। जो मन निर्णय करता है, वह मन अलग है; और जो मन क्रिया करता है, वह मन अलग है। इसलिए आपके निर्णय निर्णय रहे आते हैं और जीवन जैसा है वह वैसा ही चलता जाता है। रात्रि आप तय करके सोते हैं कि सुबह चार बजे उठ आऊंगा; पूरे मन से निर्णय करते हैं कि मैं सुबह चार बजे उठूंगा। सुबह चार बजे कोई आपके भीतर कहता है, पड़े रहो; क्या फायदा है, सर्दी है। आप सो जाते हैं। सुबह उठ कर पछताते हैं और सोचते हैं, यह कैसे हुआ? मैंने तय किया था कि उठूंगा, फिर उठा नहीं। कल जरूर उठूंगा। कल आप फिर पाते हैं, आपके भीतर कोई कह रहा है, क्या फायदा उठने का, सर्दी बहुत है, सोए रहो। यह मन क्या वही है जिसने निर्णय किया था? या कि कोई दूसरा है?
आपका मन बहुत खंडों में विभाजित है। उसमें बहुत टुकड़े-टुकड़े हैं। और इन टुकड़ों के कारण आपके भीतर एक जटिलता पैदा हो जाती है। जिसका मन एक नहीं है, वह जटिल होगा ही। और जटिलता अनंत गुना हो जाती है, क्योंकि एक मन दूसरे मन के विरोध में है।
थोड़ा विचार करें। आपने अपने ही हाथ से ये विरोध खड़े कर लिए हैं। शिक्षा और संस्कार ने मन को खंड-खंड कर दिया है। उसकी अखंडता नष्ट हो गई है। उसका इंटीग्रेशन नहीं है। आप कहते हैं कि आप एक आदमी हैं, क्योंकि आपका एक ही नाम है, एक ही लेबल है। सारे लोग जानते हैं कि आप एक ही आदमी हैं। अपने भीतर खोजें, तो आपको बहुत आदमी वहां मिलेंगे। आपके विरोध में, आपसे भिन्न, अनेक-अनेक आवाजें आपको भीतर सुनाई पड़ेंगी। क्या कभी आपने खयाल किया है? कई बार आप कहते हैं कि मैंने अपने बावजूद ऐसा काम किया। इंस्पाइट ऑफ माइसेल्फ! एक आदमी किसी को क्रोध में मार देता है और बाद में कहता है, मैंने अपने बावजूद मार दिया। यह कैसे पागलपन की बात है? अपने बावजूद कैसे मार सकते हैं, अगर आपके भीतर आपसे विरोधी भी मौजूद न हों?
आपने अनेक बार अनुभव किया होगा, क्रोध जब मैंने किया तो मैं मौजूद ही नहीं था। आपने अनेक बार अनुभव किया होगा, जब मैं वासना से भर गया तो मैं मैं ही नहीं था, न मालूम कौन हो गया था। क्रोध में क्या आप वही होते हैं जो आप शांति में हैं? प्रेम में क्या आप वही होते हैं जो आप घृणा में हैं? नहीं आप होते। आपके चेहरे बदल जाते हैं। आपके भीतर कोई चीज बदल जाती है। आपके भीतर बहुत सी भीड़ है मन की, बहुत से टुकड़े हैं। कोई एक टुकड़ा आपको पकड़ लेता है और आप एक काम कर जाते हैं। उस टुकड़े के हटने के बाद, जैसे कि गाड़ी का चाक घूमता है और उसके आरे, कभी कोई एक आरा ऊपर होता है, कभी कोई नीचे हो जाता है, और आरे बदलते रहते हैं, स्पोक्स बदलते रहते हैं, वैसे ही आपका चित्त है। उसमें बहुत चित्त हैं। कोई चित्त ऊपर होता है, कभी कोई नीचे होता है और इससे जटिलता पैदा हो जाती है।
सरल तो केवल वही हो सकता है जिसके पास एक मन हो। वह तो जटिल होगा ही जिसके पास अनेक मन हैं। और ये अनेक मन भी ऐसे हैं कि इनमें एक-दूसरे का किसी को पता ही नहीं है। यह इसी बात से आपको पता चलेगा कि आपके संकल्प सब अधूरे रह जाते हैं। क्योंकि जो मन संकल्प करता है, वह मन पूरे करते वक्त मौजूद ही नहीं होता।
आपने कितनी बार तय नहीं किया होगा--मैं सत्य बोलूं। समय आता है और आप पाते हैं कि आप असत्य बोल रहे हैं। कितनी बार तय किया है कि मैं सबको प्रेम करूं, और समय आता है और आप पाते हैं कि आप घृणा कर रहे हैं। कितनी बार तय किया है कि सब मेरे मित्र हों, लेकिन आप पाते हैं, समय आता है और अनेक आपके शत्रु प्रतीत होने लगते हैं। आप ही तय करते हैं, आप ही निर्णय करते हैं, फिर इसका विरोध कैसे उठ आता है? जो विरोध उठ आता है, वह आपके भीतर मौजूद है। जिनको आप श्रद्धा करते हैं, उनके ही प्रति मन में अपमान का भाव भी लिए होते हैं। जिनको आप प्रेम करते हैं, उन्हीं को आप घृणा भी करते रहते हैं। जिनको आप सम्मान देते हैं, उनका ही अपमान करने की इच्छा भी मन में बनी रहती है। एक ही साथ आपके भीतर विरोध चलता रहता है। इसलिए आप प्रेमियों को निरंतर लड़ते देखेंगे। उन्हीं को प्रेम करते हैं; उन्हीं से लड़ते हैं; उन्हीं को घृणा भी करते हैं। मित्रों को भी आप देखेंगे; श्रद्धालुओं को भी आप देखेंगे। हमारा एक चित्त का हिस्सा जो करता है, उसके ही विरोध में हमारे चित्त के दूसरे हिस्से खड़े रहते हैं। इसीलिए प्रेम जरा सी देर में घृणा में बदल जाता है।
मैं अभी वहां दिल्ली था। किसी ने मुझसे कहा कि जिसको हम प्रेम करते हैं, उसको तो हम प्रेम ही करते हैं। यह आप कैसे कहते हैं?
मैंने उनसे कहा कि समझ लें कि आप अपनी पत्नी को प्रेम करते हैं। और कल आपको पता चल जाए कि आपकी पत्नी किसी और को प्रेम करती है, फिर क्या होगा? उसी क्षण आपका प्रेम घृणा में बदल जाएगा। और प्रेम क्या कभी घृणा में बदल सकता है? यह तो असंभव है। असल में घृणा भीतर छिपी बैठी थी। ऊपर प्रेम था, पीछे घृणा थी। अगर प्रेम का अवसर निकल गया, प्रेम हट जाएगा, घृणा ऊपर आ जाएगी।
एक फकीर हुई है। राबिया नाम की एक स्त्री हुई। एक अदभुत फकीर औरत हुई। उसने कुरान में पढ़ा कि एक वचन आता है: शैतान को घृणा करो। उसने उस वचन को काट दिया। फिर हसन नाम का एक दूसरा फकीर यात्रा पर निकला। वह उसके झोपड़े में मेहमान हुआ। सुबह-सुबह उसने कहा कि मैं जरा कुरान पढ़ना चाहूंगा। कुरान पढ़ने दी गई। उसने उसमें देखा कि उसमें तो एक लकीर कटी हुई है!
तो धर्मग्रंथ में संशोधन! पवित्र वचनों में संशोधन! उसने कहा, यह किस पागल ने कुरान में संशोधन कर दिया?
उस राबिया ने कहा, मुझे ही करना पड़ा।
क्यों? यह कैसे किया? और यह ग्रंथ तो अपवित्र हो गया।
राबिया ने कहा कि मैं तो बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं। इसमें लिखा है--शैतान को घृणा करो। मैं अपने भीतर सब तरफ से खोजती हूं, वहां कोई घृणा नहीं है। तो अगर शैतान मेरे सामने आएगा, तो मैं घृणा कैसे कर सकूंगी? आखिर घृणा करने के लिए घृणा होनी चाहिए, मौजूद होनी चाहिए। नहीं तो आएगी कहां से? जिस कुएं में पानी नहीं है, उसमें आप बाल्टियां डालेंगे, तो पानी आएगा कहां से? पानी होगा तो आएगा। तो उस राबिया ने कहा, मेरे भीतर घृणा नहीं है, सिर्फ प्रेम है। परमात्मा हो या शैतान हो, अगर दोनों भी मेरे सामने आकर खड़े हो जाएं, तो मैं मजबूर हूं, मैं प्रेम ही कर सकूंगी। दोनों को बराबर ही प्रेम कर सकूंगी। मेरे भीतर घृणा नहीं है। मैंने बहुत खोजा, वहां कोई घृणा नहीं मिलती।
लेकिन आप अपने प्रेम के भीतर खोजें, तो आपको घृणा मिल जाएगी। वह प्रेम के पीछे ही खड़ी है; वह प्रेम की छाया की भांति ही खड़ी है। जिससे आपकी मित्रता है, उसी के लिए आपके मन में शत्रुता का भाव भी खड़ा हुआ है। जिसको आप सम्मान दे रहे हैं, उसका ही अपमान करने का मन भी आपके पीछे ही खड़ा हुआ है। जिसकी आप प्रशंसा कर रहे हैं, उसकी निंदा करने की वृत्ति भी आपके पीछे ही खड़ी हुई है। ये दोनों विरोधी वृत्तियां हमेशा साथ हों, तो चित्त सरल कैसे होगा? और जो चित्त सरल नहीं है, वह कैसे सत्य को जान सकेगा?
सरलता तो अनिवार्य है। सरलता तो परमात्मा को पाने की अनिवार्य शर्त है। यह जो हमारा चित्त जटिल है, इसे समझ लेना जरूरी है। चित्त की जटिलता को, उसके खंड-खंड होने को, उसके टुकड़े-टुकड़े में बंटे होने को और हमारे व्यक्तित्व के अनेक-अनेक विरोधी अंशों को समझ लेना जरूरी है। जो व्यक्ति अपने भीतर अखंड नहीं हो सकता, वह समझ ले, उसकी कोई प्रार्थना, उसका कोई ध्यान, उसका कोई योग, उसकी कोई पूजा सार्थक नहीं है, सब व्यर्थ है। वह किसी मंदिर में जाए और किसी मस्जिद में जाए और किसी भगवान को प्रणाम करे, उसका कोई अर्थ नहीं है। अखंड हुए बिना कोई अर्थ नहीं है। जब आप एक मंदिर की मूर्ति के सामने सिर झुका रहे हैं, तब भी आपके भीतर अश्रद्धा मौजूद है श्रद्धा के साथ ही; आदर के साथ ही अनादर मौजूद है; विश्वास के साथ ही संदेह मौजूद है।
मैं अपने गांव जाता हूं। मेरे एक वृद्ध शिक्षक हैं। उनके यहां मैं हमेशा जाता था। पीछे एक बार सात-आठ दिन गांव पर रुका, तो उनके घर रोज गया। सुबह-सुबह उनके घर जाता। दूसरे दिन उन्होंने खबर भेजी कि मैं उनके घर न आऊं। मैंने उनके लड़के को पूछा कि उन्होंने ऐसी खबर क्यों भेजी है? तो उसने कहा, उन्होंने एक चिट्ठी भी दी है। उस चिट्ठी पर लिखा था कि मेरे घर आते हो तो मुझे बहुत खुशी होती है, मेरे आनंद का ठिकाना नहीं होता। लेकिन मैं चाहता हूं, मेरे घर मत आओ। क्योंकि कल मैं पूजा करने बैठा, और तुम्हारी बातों का यह परिणाम हुआ, कि मैं जब पूजा करने बैठा तो मुझे यह शक होने लगा कि पता नहीं, यह सब मूर्खता तो नहीं है यह जो मैं कर रहा हूं? यह सब आरती उतारना, सब यह बालपन तो नहीं है? और जो पत्थर की मूर्ति सामने रखी है, सच में वह पत्थर ही तो नहीं है? और मैं तीस-चालीस वर्षों से पूजा कर रहा हूं और मेरे मन में संदेह आ गया; मैं डर गया। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूं कि मेरे घर दुबारा मत आना।
मैंने उनको पत्र लिखा कि मैं अब आऊं या न आऊं, जो होना था वह हो गया। और मैं आपसे यह भी प्रार्थना करता हूं कि संदेह मैंने पैदा नहीं किया है। वह निरंतर चालीस वर्ष आपने पूजा की है, लेकिन पूजा के पीछे वह संदेह खड़ा ही रहा है।
श्रद्धा करने से कहीं संदेह नष्ट हुआ है? श्रद्धा ऊपर से थोप लेंगे, संदेह भीतर खड़ा रहेगा। प्रेम करने से कहीं घृणा नष्ट हुई है? प्रेम ऊपर से दिखाएंगे, भीतर घृणा मौजूद रहेगी। आदर देने से कहीं अनादर का भाव नष्ट हुआ है? आदर ऊपर से थोप लेंगे, भीतर अनादर बना रहेगा और आप जटिल होते चले जाएंगे।
इसलिए मैं उस श्रद्धा को कहता हूं कि छोड़ दें जिसके पीछे संदेह मौजूद है। जिस दिन संदेह विलीन हो जाता है, उस दिन जो शेष रह जाती है, उसका नाम श्रद्धा है। इसलिए मैं उस प्रेम को व्यर्थ कहता हूं जिसके भीतर घृणा छिपी है। जिस दिन घृणा विसर्जित हो जाती है, तब जो शेष रह जाता है, वह प्रेम है। इसलिए उस मित्रता का कोई अर्थ नहीं है जिसके भीतर शत्रु होने की संभावना है। जिस दिन शत्रुता का भाव गिर जाता है, उस दिन जो शेष रह जाता है, वह मैत्री की भावना है। इसलिए उस सुख का कोई मूल्य नहीं है जिसके पीछे दुख बैठा हुआ है। जिस दिन दुख विलीन हो जाता है, तब जो शेष रह जाता है, वही आनंद है। लेकिन हम तो निरंतर विरोध से भरे हैं। जो विरोध से भरा है, उसका चित्त जटिल होगा, कांप्लेक्स होगा। जो विरोध से भरा है, उसका चित्त निरंतर कांफ्लिक्ट में और द्वंद्व में होगा।
और बड़े समझ लेने की बात है, जो चित्त निरंतर द्वंद्व करता है, उस चित्त की ज्ञान की क्षमता क्षीण होती जाती है। क्योंकि जो निरंतर द्वंद्व में लगा है, उसकी संचेतना, उसकी कांशसनेस, उसका बोध निरंतर धीमा और फीका होता जाता है। जो निरंतर लड़ाई में लगा है, वह दिन-रात लड़ते-लड़ते धीरे-धीरे बोथला हो जाता है। उसकी संवेदनशीलता, उसकी सेंसिटिविटी कम हो जाती है। जो निरंतर द्वंद्व में है, वह धीरे-धीरे मंदबुद्धि होता चला जाता है। उसका विवेक विकसित तो नहीं होता, क्षीण होता चला जाता है।
यही वजह है कि बच्चे से बूढ़े का मस्तिष्क वस्तुतः तो ज्यादा तीव्र और विकसित होना चाहिए, लेकिन हम देखते हैं, वह क्रमशः क्षीण होता जाता है। शरीर वृद्ध हो सकता है; मन के वृद्ध होने का कोई कारण नहीं है, अगर मन द्वंद्व में न हो। मन अगर कांफ्लिक्ट में न हो, मन अगर जटिल न हो, खंड-खंड बंटा हुआ न हो, खुद के भीतर ही विरोध से न भरा हो, तो मन के बूढ़े होने का कोई कारण नहीं है। मन बूढ़ा हो जाता है निरंतर द्वंद्व के कारण, निरंतर लड़ते रहने के कारण, निरंतर विरोध से भरे रहने के कारण। अपने ही भीतर जो निरंतर विरोध से भरा है, स्वाभाविक है कि वह धीरे-धीरे उसकी क्षमता, उसकी संवेदनशीलता कम होती जाए, क्षीण होती जाए।
हम निरंतर मन में भी वृद्ध होते जाते हैं। जब कि मन के वृद्ध होने का कोई भी कारण नहीं है। और यह जो हमारा द्वंद्व है, यह जो संघर्ष है, यह जो मन का खंड-खंड होना है, यह हमारे ही कारण है। हम ही इसे खंड-खंड में बांट देते हैं। अपने ही अज्ञान में हम अपने को ही तोड़ लेते हैं। कैसे हम तोड़ लेते हैं, उसको थोड़ा समझें, तो यह भी समझ में आ जाएगा कि सरलता क्या है, मन की सरलता कैसे पैदा होगी।
इसके पहले कि मैं उसके विचार में जाऊं, मैं आपको यह कह दूं, साधारणतः जो कहा जाता है कि फलां आदमी बहुत सरल है या साधारणतः जो हमसे कहा जाता है कि सरल होना चाहिए, उस तरह की सरलता को नहीं कह रहा हूं। साधारणतः हमसे कहा जाता है, हमें सरल होना चाहिए। लेकिन इस सरलता को नहीं कह रहा हूं। क्योंकि इस तरह की जो सरलता है, उसके पीछे जटिलता मौजूद रहती है। एक आदमी सरल होने का ढोंग कर सकता है। एक आदमी सरल होने का ढोंग अनेक रूपों से कर सकता है। वह बहुत अच्छे कपड़े न पहने; वह मोटी खादी के सामान्य सीधे-सादे कपड़े पहन ले। हम कहेंगे, बहुत सरल आदमी है। या वह और भी ज्यादा करे, वह सिर्फ एक लंगोटी लगा ले। हम कहेंगे, और भी सरल आदमी है। या और भी करे, वह नंगा ही हो जाए। तो हम कहेंगे, कितना सरल आदमी है। यह सरलता नहीं है। या एक आदमी दो बार खाना न खाए, एक बार खाना खाने लगे। हम कहेंगे, कैसा सरल आदमी है, एक ही बार खाना खाता है। या एक आदमी मांस न खाए और शाकाहार करने लगे। हम कहेंगे, कैसा सरल आदमी है। या एक आदमी धूम्रपान न करे; शराब न पीए; जुआ न खेले। हम कहेंगे, कैसा सरल आदमी है।
इतने से कोई सरल नहीं होता। ये कोई सरलता के कारण नहीं हैं। बल्कि ऐसे आदमी बहुत जटिल होते हैं। क्योंकि ऐसे आदमी ऊपर से सरलता को ओढ़ लेते हैं, भीतर की जटिलता तो नष्ट होती नहीं, वह तो वहां मौजूद रहती है।
मैं एक यात्रा में था और एक संन्यासी मेरे डिब्बे में थे। मैं था और वे थे। जिस स्टेशन से उनको लोग छोड़ने आए थे, तो बहुत लोग उन्हें छोड़ने आए थे। निश्चित ही काफी लोग उन्हें मानते होंगे। वे केवल एक फट्टा बांधे हुए थे एक रस्सी से। एक फट्टा बांधे हुए थे। फट्टी थी और एक रस्सी से उसको बांधे हुए थे। सामान भी उनके पास एक दूसरी फट्टी और थी, एक छोटी सी टोकरी थी, उसमें दोत्तीन फट्टी के टुकड़े थे, दोत्तीन रस्सियों के टुकड़े थे। यही उनका सामान था। लेकिन जब उन्हें लोग विदा करके चले गए, तो उन्होंने अपनी टोकरी उठाई और अपने फट्टी के टुकड़े गिने। मैं अकेला ही था उस कमरे में। मैं उनको चुपचाप देखता रहा। उन्होंने गिन लिए कि जितने उनके टुकड़े थे, उतने हैं। उन्होंने उसको रख दिया। फिर रात वे सो गए। जिस स्टेशन पर उन्हें उतरना था, मुझसे उन्होंने पूछा कि वह कब आएगा? मैंने कहा, वह सुबह छह बजे आएगा। आप बिलकुल चिंतित न हों। और यह डिब्बा उसी स्टेशन पर कट जाएगा, इसलिए कोई चिंता का कारण नहीं, आप मजे से सोएं। लेकिन मैंने देखा, वे तो बारह बजे के करीब फिर उठ कर किसी से पूछ रहे हैं। कोई स्टेशन आया है, वे पूछ रहे हैं कि फलां स्टेशन तो नहीं आ गया? मैंने उनको फिर कहा कि देखिए आप सो जाएं। लेकिन मैंने देखा, तीन बजे के करीब वे फिर किसी स्टेशन पर उठ कर पूछ रहे हैं कि फलां स्टेशन तो नहीं आ गया? मैंने उनको कहा कि देखिए, उस स्टेशन से आप चूक नहीं सकते। यह डिब्बा वहीं कट जाएगा। इसलिए आप बिलकुल निश्चिंत सो जाएं। आप इतने चिंतित क्यों हैं?
ऊपर से वे फट्टा लगाए हुए हैं, भीतर इतनी एंग्ज़ाइटी और ऐसी व्यर्थ की चिंता है।
मैंने सुबह देखा, उनका स्टेशन आने के पहले उन्होंने अपने फट्टे को कस कर बांधा। वह ठीक नहीं मालूम पड़ा। फिर उन्होंने उसे दूसरे ढंग से बांधा। फिर वह भी ठीक नहीं मालूम पड़ा। फिर उन्होंने तीसरे ढंग से बांधा। फिर आईने के सामने खड़े होकर उन्होंने देखा कि वह फट्टा ठीक-ठाक बंध गया।
इसको मैं सरलता कैसे कहूं? यह तो जटिलता है। यह तो उस आदमी से भी ज्यादा जटिल हो गया, जो अच्छे कपड़े पहने हुए है।
यह ऊपर से सरलता का जो ढोंग है, इसका कोई अर्थ नहीं है। यह कोई सरलता नहीं है। सरलता बड़ी दूसरी चीज है। यह वैसा ही है, जैसे कोई कागज के फूल घर में लगा ले। कागज के फूलों में और असली फूलों में बड़ा फर्क है। सरलता लाई नहीं जाती, ऊपर से थोपी नहीं जाती, भीतर चित्त अखंड हो जाए तो सरलता बाहर अपने आप आनी शुरू हो जाती है। और तब आदमी क्या पहनता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; और क्या खाता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; कैसा उठता-बैठता है, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। यह सब अपने आप सरल हो जाता है। भीतर चित्त अखंड हो तो बाहर जीवन में सरलता अपने आप प्रवेश पाने लगती है। भीतर चित्त खंडित हो, तो बाहर कोई कितनी ही सरलता को लाद ले, लादी हुई सरलता कोई सरलता नहीं है। कल्टीवेटेड है, उसका कोई मूल्य नहीं है। ऊपर से थोपी गई है। ऊपर से थोपी गई सरलता का क्यों मूल्य नहीं हो सकता? क्योंकि ऐसी सरलता केवल अभ्यासजन्य होती है; सहज उत्पन्न नहीं होती।
कबीर ने कहा है: साधो! सहज समाधि भली। वह जो सहज उत्पन्न हो और सहज विकसित हो जाए, वही भली है। जो असहज हो, थोपी जाए, अभ्यास किया जाए, वह व्यर्थ है।
मैं एक गांव गया था। एक साधु मेरे मित्र थे। वे वहां संन्यास की तैयारी में लगे थे। मैं जब उनके झोपड़े के पास गया, मैंने देखा, वे अंदर नंगे टहल रहे हैं। खिड़की में से दिखाई पड़ा। फिर मैं द्वार पर गया। मैंने द्वार पर दस्तक दी। जब उन्होंने द्वार खोला, तो वे कपड़ा लपेटे हुए हैं। मैंने उनसे पूछा, अभी खिड़की से मैंने देखा था तो आप नग्न थे। अब आप कपड़ा क्यों लपेटे हुए हैं?
वे बोले, मैं नग्न रहने का अभ्यास कर रहा हूं। आज नहीं कल मुझे नग्न साधु हो जाना है। तो उसका मैं अभ्यास कर रहा हूं। अकेले में अभ्यास करूंगा पहले। फिर कुछ मित्रों के बीच। फिर थोड़ा बाहर निकलूंगा घर के। फिर गांव में। फिर शहर में। इस भांति धीरे-धीरे अभ्यस्त हो जाऊंगा।
मैंने उनसे कहा, आप किसी सर्कस में भर्ती हो जाइए। आपको संन्यास लेने की कोई जरूरत नहीं। आप किसी सर्कस में भर्ती हो जाइए।
यह इसलिए आपसे कहता हूं कि अभ्यास से आई हुई नग्नता वह नग्नता नहीं है, जो महावीर को आई होगी। वह नग्नता अभ्यास से नहीं, इनोसेंस से आई। वह नग्नता प्रैक्टिस नहीं की गई थी। चित्त इतना सरल हो गया, इतना निर्दोष हो गया कि वस्त्र अनावश्यक हो गए, छूट गए। वे वस्त्र छोड़े नहीं गए, वे वस्त्र छूट गए। ऐसे जो नग्नता आ जाए, वह तो अर्थपूर्ण है। और वस्त्र छोड़ कर अभ्यास करके जो नग्नता आए, तो वह तो कोई भी सर्कस में कर सकता है। उसका तो कोई मामला नहीं है, उसकी कोई कठिनाई नहीं है।
एक आदमी इतने-इतने प्रभु के स्मरण से भर जाए कि उसे भोजन का खयाल न आए और दिन बीत जाए और उपवास हो जाए, यह तो समझ में आता है। और एक आदमी चेष्टा करके, अभ्यास करके दिन भर भूखा रह जाए, यह मेरी समझ में नहीं आता। उपवास का अर्थ ही है: परमात्मा के निकट होना, उसके पास रहना, उसके पास। जो उसके पास जिसका चित्त है, उसके कारण अगर भोजन भूल जाए और उपवास हो जाए, तब तो समझ में आता है। अन्यथा फिर साधा हुआ उपवास बिलकुल व्यर्थ हो जाता है, उसका कोई मूल्य नहीं है।
साधा हुआ सभी व्यर्थ हो जाता है। जो आ जाए, उसकी सार्थकता है। साधे हुए की सार्थकता नहीं है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह आता है, साधा नहीं जाता।
अगर मैं आपके प्रति प्रेम को साध लूं, तो वह प्रेम सत्य होगा? साधा हुआ प्रेम कैसे सत्य हो सकता है? साधा हुआ प्रेम तो अभिनय होगा, पाखंड होगा। आया हुआ प्रेम, मेरे भीतर से प्रेम फूटने लगे, उसके अवरुद्ध द्वार खुल जाएं और मेरे भीतर से प्रेम की धारा बहने लगे, वह तो समझ में आता है। और मैं चेष्टा करूं, प्रयास करूं और आपको प्रेम करूं, तो उस प्रेम का क्या मूल्य होगा? वैसे ही सरलता का भी कोई मूल्य नहीं है, जो साध ली गई हो।
लेकिन हम चारों तरफ लोगों को सरलता साधते हुए देखते हैं। जिसको हम साधु कहते हैं, वह सरलता साधे हुए है। सारी चेष्टा है उसकी। एक-एक बात के लिए नियम और विधि और विधान हैं। कब उठना है? कब सोना है? क्या खाना है? क्या पहनना है? रत्ती-रत्ती उसका हिसाब है। उसकी बड़ी प्लैनिंग है। बेहतर था वह कहीं इंजीनियर होता; बेहतर था कि वह कहीं किसी व्यवस्था में व्यवस्थापक होता, कहीं मैनेजर होता; बेहतर था वह कहीं मशीनें चलाता, उसका मस्तिष्क मशीनों को चलाने में बड़ा योग्य सिद्ध होता। लेकिन वह साधु है। साधु का जीवन स्पांटेनियस होता है। साधु का जीवन साधा हुआ नहीं, सहज होता है। उसके भीतर से जो फलित हो रहा है, वह सहज फलित हो रहा है।
जापान में एक बादशाह हुआ। और उसने लोगों को पूछा कि मैं किसी साधु के दर्शन करना चाहता हूं।
उसके वजीरों ने कहा, साधु के दर्शन! गांव-गांव, सड़क-सड़क साधु ही साधु हैं। कहीं भी जाएं और दर्शन कर लें।
जापान में वैसे ही बहुत भिक्षु हैं। बौद्ध मुल्कों में बहुत भिक्षुओं की संख्या है। कंबोडिया में कोई दोत्तीन करोड़ की तो आबादी है और कोई बीस लाख भिक्षु हैं। वैसे ही जापान में हैं, बहुत भिक्षु हैं। वैसे ही लंका में हैं।
तो बादशाह से उसके वजीरों ने कहा, भिक्षु या साधु की क्या कमी है! अभी चाहें जितनी भीड़ लगा लें।
उसने कहा, नहीं, लेकिन मैं साधु के दर्शन करना चाहता हूं।
उन्होंने कहा कि लेकिन साधु के दर्शन का क्या अर्थ है? सड़क पर आ जाएं, साधु ही साधु हैं।
उसने कहा, अगर ये ही साधु होते, तो मैं तुमसे साधु के दर्शन के लिए नहीं कहता। ये सब मुझे अभिनय करते हुए लोग मालूम पड़ते हैं। एक खास ढंग के कपड़े पहन लेने से, खास ढंग का सिर घुटा लेने से, खास ढंग का झोला लटका लेने से कोई साधु कैसे हो सकता है? ये सब मुझे बड़े इम्मैच्योर, बड़े बचकाने लोग मालूम पड़ते हैं। इनके भीतर अभिनय की वृत्ति है। ये सारे के सारे एक्टर्स तो हो सकते हैं, लेकिन ये साधु कैसे हो सकते हैं?
आप देखें जरा साधुओं को। कोई एक विशेष ढंग का टीका लगाए है; कोई एक विशेष ढंग के कपड़े पहने हुए है; कोई कुछ किए हुए है, कोई कुछ। और फिर उनके पीछे चलने वाले भी ठीक वैसे ही किए हुए हैं। यह सब कितना बचकाना, कितना चाइल्डिश, कितना इम्मैच्योर, कितना अप्रौढ़ मालूम होता है। कोई विचारशील, विवेकशील व्यक्ति ऐसा अभिनय कर सकता है?
गांधी के पास एक संन्यासी ने आकर कहा कि मैं कुछ सेवा करना चाहता हूं। गांधी ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और कहा, इसके पहले कि तुम सेवा करो, ये गैरिक वस्त्र छोड़ दो। उसने कहा, क्यों? इनसे क्या बाधा है? उन्होंने कहा कि ये वस्त्र तुम पहने हो, ये इसी बात के सबूत हैं कि तुम लोगों से चाहते हो कि वे तुम्हें संन्यासी समझें। अन्यथा और कोई कारण नहीं इन वस्त्रों का। तुम संन्यासी हो तो किसी भी वस्त्र में हो सकते हो। लेकिन लोग तुम्हें किसी भी वस्त्र में संन्यासी नहीं समझेंगे; इसी वस्त्र में समझेंगे। तुम चाहते हो कि लोग समझें कि तुम संन्यासी हो। और जो चाहता है कि लोग समझें संन्यासी है, वह आदमी संन्यासी नहीं है। लोगों की चाह से उसका क्या संबंध?
तो उस राजा ने कहा, मैं साधु को मिलना चाहता हूं।
वजीरों ने बहुत खोज की कि कोई साधु है? बहुत मुश्किल से पता चला कि गांव के बाहर एक झोपड़े में एक आदमी रहता है। कुछ लोग कहते हैं, वह साधु है।
राजा वहां गया। वह सुबह-सुबह पहुंचा। सोचा, साधु ब्रह्ममुहूर्त में उठ आता होगा, तो वह गया। तो सुबह के कोई सात, साढ़े सात बज रहे थे, सूरज ऊपर उठ आया था और साधु सोया हुआ था। और भगवान बुद्ध की मूर्ति रखी थी, उससे वह पैर टिकाए हुए था। उस राजा ने कहा, यह कैसा साधु है? भगवान की मूर्ति से पैर टिकाए हुए है! और इतनी देर तक सोया हुआ है!
लेकिन जो उसे ले गए थे, उन्होंने कहा, इतने जल्दी निर्णय न लें। क्योंकि साधु को पहचानना इतना आसान नहीं। इतने जल्दी निर्णय लेने से ही तो असाधु साधु बने हुए दिखाई पड़ रहे हैं। क्योंकि कोई भी चार बजे उठ सकता है, कोई बड़ी कठिन बात है? और कोई भी भगवान के हाथ जोड़ कर बैठा हुआ मिल सकता है, कोई कठिन बात है? जरा थोड़ा निर्णय लेने में जल्दी न करें। यह आदमी कुछ है। जो भगवान पर पैर टेके हुए है, यह कोई आदमी सामान्य नहीं है। सिर्फ साधु ही टेक सकता है भगवान पर पैर, और कोई नहीं टेक सकता। थोड़ा रुकें, जल्दी निर्णय न लें।
वह साधु कोई आठ बजे उठा होगा। राजा ने उससे छूटते ही पूछा कि तुम इतनी देर तक सोए हुए थे? साधु को ब्रह्ममुहूर्त में उठ आना चाहिए।
उसने कहा कि मैं तो ब्रह्ममुहूर्त में ही उठता हूं। जब उठता हूं तभी ब्रह्ममुहूर्त मानता हूं। जब परमात्मा उठा देता है, उठ आता हूं; जब परमात्मा सुला देता है, तो सो जाता हूं। न अपनी तरफ से सोता हूं, न अपनी तरफ से उठता हूं। अपने को छोड़ ही दिया उसी दिन जिस दिन साधु हुआ। अपने को छोड़ दिया उसी दिन। अब जो होता है। जब धूप में बैठता हूं, धूप तेज लगने लगती है, भीतर परमात्मा कहता है कि छाया में चलो, तो छाया में आ जाता हूं; और जब छाया ठंड देने लगती है और परमात्मा कहता है कि धूप में चलो, तो धूप में चला जाता हूं। अपने को मैंने छोड़ दिया है। अब मैं सिर्फ जी रहा हूं और मैं नहीं हूं। तो जब नींद खुलती है, उठ आता हूं; जब भूख लगती है तो खाना मांग लाता हूं।
राजा ने कहा, हैरान! तुम्हारा कोई विधि-विधान नहीं है? कोई व्यवस्था नहीं है?
उसने कहा, बस। कोई विधि-विधान नहीं है। जिसने परमात्मा के हाथ में अपने को छोड़ा, उसका कोई विधि-विधान नहीं होता।
सब विधि-विधान अहंकार से पैदा होते हैं। सारी विधि-विधान की व्यवस्था अहमता से पैदा होती है। हम कुछ थोपना चाहते हैं जीवन पर, उससे पैदा होती है। और जो मनुष्य भी जीवन पर कुछ थोपना चाहता है, जो मनुष्य जीवन से कोई विशेष अपेक्षा रखता है कि वह ऐसा हो, ऐसा न हो, जो कुछ निषेध करता है और कुछ स्वीकार करता है, वह मनुष्य सरल नहीं हो सकता। और सरलता साधु की अनिवार्य शर्त है। सरलता जीवन में सत्य को पाने की अनिवार्य शर्त है।
उस साधु ने कहा कि हवा-पानी की तरह जो हो जाता है, जैसे एक सूखा पत्ता उड़ता हो; हवा जहां ले जाए, चला जाता है; हवा जहां गिरा दे, गिर जाता है; फिर हवा उठा ले तो फिर उठ जाता है। सूखे पत्ते की तरह जो हो जाए, वैसा व्यक्ति केवल सरल हो सकता है, बाकी तो सारे लोग जटिल होंगे। सागर पर तैरता हुआ लकड़ी के टुकड़े की भांति जो हो जाए कि लहरें जहां ले जाएं, चला जाए; और लहरें जहां छोड़ दें, छूट जाए; जिसकी अपनी कोई विधि-निषेध की इच्छा नहीं है, जिसका अपना कोई आरोपण नहीं है, वही केवल सरल हो सकता है।
तो हम कैसे सरल होंगे जिनका कि चौबीस घंटे विधि-निषेध है? जो चौबीस घंटे अपने को एक विशेष भांति से बनाने में लगे हैं, वे लोग कैसे सरल होंगे? जो आदमी भी अपने को बनाने की चेष्टा में लगा है, वह सरल नहीं हो सकता। जो आदमी इस कोशिश में लगा है कि मैं परमात्मा को पाऊंगा, जो आदमी इस कोशिश में लगा है कि मैं साधु हो जाऊंगा, जो आदमी इस कोशिश में लगा है कि मुझे तो सज्जन होना है, जो आदमी इस कोशिश में लगा है कि मुझे अहिंसक होना है, मुझे सत्यवादी होना है, मुझे अक्रोधी होना है, जो इस कोशिश में लगा है वह आदमी सरल कैसे होगा? वैसा आदमी सरल नहीं हो सकता। जो मनुष्य जीवन में किसी आदर्श के प्रति अपने को समर्पित करता है, वह कभी सरल नहीं हो सकता। और हम सारे लोग किसी न किसी आदर्श के प्रति समर्पित हैं।
महावीर को हुए ढाई हजार वर्ष हुए, क्राइस्ट को हुए दो हजार वर्ष हुए, बुद्ध को हुए ढाई हजार वर्ष हुए; राम को और भी ज्यादा हुआ; कृष्ण को बहुत समय हुआ। उनके बाद हमने आदर्श पकड़ लिए हैं। बुद्ध के बाद ढाई हजार वर्ष से उनके पीछे चलने वाला बुद्ध होने की कोशिश में लगा है। कोई दूसरा आदमी बुद्ध हुआ? ढाई हजार वर्षों में नहीं हुआ। कोई दूसरा आदमी महावीर हुआ? ढाई हजार वर्षों में नहीं हुआ। कोई दूसरा आदमी क्राइस्ट हुआ? दो हजार वर्षों का अनुभव तो इनकार करता है कि नहीं हुआ। फिर भी लाखों लोग क्राइस्ट होने की चेष्टा में लगे हैं, लाखों लोग बुद्ध होने की, लाखों लोग महावीर होने की। जरूर इसमें कोई बुनियादी गलती है।
जो आदमी भी किसी दूसरे आदमी के जैसा होने की चेष्टा में लगता है, वह जटिल हो जाएगा। स्वभावतः जटिल हो जाएगा। वह अपने को इनकार करने लगेगा और दूसरे को अपने ऊपर थोपने लगेगा। वह अपनी वास्तविकता को निषेध करने लगेगा और दूसरे की आदर्शवत्ता को ओढ़ने लगेगा। वह आदमी कठिन हो जाएगा, जटिल हो जाएगा। उसका चित्त खंड-खंड हो जाएगा। वह टूट जाएगा अपने भीतर। उसके भीतर द्वंद्व उत्पन्न हो जाएगा। और बड़ी मुश्किल तो यही है कि महावीर होने के लिए सरल होना जरूरी है; बुद्ध होने के लिए सरल होना जरूरी है; क्राइस्ट होने के लिए सरल होना जरूरी है; और जो उनका अनुगमन करते हैं, अनुगमन करने के कारण जटिल हो जाते हैं।
यह स्थिति आपको दिखनी चाहिए। कोई किसी का अनुगमन करके कभी सरल नहीं हो सकता। अनुगमन का अर्थ ही हुआ कि मैंने दूसरे मनुष्य जैसे होने की चेष्टा शुरू कर दी, बिना उस मनुष्य को समझे हुए, जो मैं था, जो मैं हूं। मैं जो हूं, इसे समझे बिना मैंने दूसरा मनुष्य होने की चेष्टा शुरू कर दी। मैं जो रहूंगा, वह रहा आऊंगा, और दूसरे मनुष्य का आवरण, अभिनय, पाखंड अपने ऊपर थोप लूंगा।
इसीलिए धार्मिक मुल्क अत्यंत पाखंडग्रस्त हो जाते हैं। हमारा मुल्क है। इससे ज्यादा पाखंडी मुल्क जमीन पर खोजना कठिन है। इससे ज्यादा जटिल मुल्क, जटिल कौम, जटिल जाति खोजनी बिलकुल मुश्किल है। जितना पाखंड हममें घना और गहरा है, इतना जमीन पर किसी कौम में नहीं हो सकता। और उसका कारण कुल यह है कि हम सब अनुकरण, आदर्श, हम कुछ होने के पागलपन में लगे हैं, उस मनुष्य को समझे बिना, जो हम हैं। जब कि जीवन की कोई भी वास्तविक क्रांति, जो हम हैं, उसके समझने से शुरू होती है। जो मैं वस्तुतः हूं, उसे समझने से शुरू होती है।
एक आदमी क्रोधी है; एक आदमी लोभी है; एक आदमी दंभी है। एक दंभी आदमी कोशिश में लग जाता है कि मैं विनीत हो जाऊं। क्या होगा? एक अहंकारी मनुष्य है। शिक्षा और संस्कार और समझाने वाले लोग उससे कहते हैं--अहंकार छोड़ दो, तो तुम्हें बहुत शांति मिलेगी। वह अहंकारी मनुष्य अहंकार को छोड़ने में लगेगा। क्या करेगा? वह करेगा यह। अहंकार कहीं छोड़ा जाता है? अहंकार कहीं छोड़ा जा सकता है? कौन छोड़ेगा अहंकार? जो छोड़ने में लगा है, वह अहंकार ही तो है। इसलिए जब छूटने का उसे लगने लगेगा तो वह यह कहने लगेगा, मैंने अहंकार छोड़ दिया। मैं विनीत हो गया। मैं विनम्र हो गया हूं। मेरे पास कोई अहमता नहीं है। और यह सब क्या है? यह सब अहमता का हिस्सा है। कभी अहंकार अहंकार को कैसे छोड़ सकेगा? छोड़ने में और परिपुष्ट हो जाएगा, और सूक्ष्म हो जाएगा।
इसलिए संन्यासी के बराबर सूक्ष्म अहंकार गृहस्थ का नहीं होता। हो नहीं सकता। गृहस्थ तो एक-दूसरे से मिल जाते हैं। संन्यासी एक-दूसरे से मिलते भी नहीं। संन्यासियों को कहिए कि एक-दूसरे से मिलें, तो नहीं मिल सकते।
एक बड़े साधु को मैंने कहा कि फलां साधु से आप मिलें। वे बोले, जरा मुश्किल है। क्यों मुश्किल है? कौन पहले नमस्कार करेगा, यही मुश्किल है, अगर दो साधु मिलें तो। कौन कहां बैठेगा, यही मुश्किल है। कौन नीचे बैठेगा, कौन ऊपर बैठेगा?
एक जलसे में मैं था। वहां कोई तीस-चालीस साधु अलग-अलग तरह के निमंत्रित, आमंत्रित थे। उस समारोह को करने वालों की इच्छा थी कि सारे लोग एक ही मंच पर बैठें। लेकिन नहीं बैठ सके। क्योंकि कोई शंकराचार्य थे, उनको तो सिंहासन चाहिए, उस पर ही बैठेंगे। और जब शंकराचार्य सिंहासन पर बैठेंगे, तो दूसरा साधु उनके नीचे पैरों में कैसे बैठने को राजी हो सकता है? उसने कहा, मैं भी सिंहासन पर बैठूंगा। फिर यह भी डर है कि सिंहासन किसका ऊंचा-नीचा होगा?
यह सोचते हैं आप, ये पागल हैं या साधु हैं? ये विनम्र हैं या अहंकार की अत्यंत अंतिम चरम सीमा हैं ये? यह अहमता का सूक्ष्मतम रूप है। इसलिए दुनिया में साधु लड़ते हैं और लड़ाते हैं। क्योंकि अहंकार जहां भी हो, वहीं संघर्ष और द्वंद्व और लड़ाई खड़ा कर देता है।
यह अहमता है। और अहंकार कभी अहंकार को छोड़ ही नहीं सकता। जब वह छोड़ने में लगता है, तब भी अहंकार ही है जो सोच रहा है कि मैं विनम्र हो जाऊं। वह क्या करेगा? वह विनम्र होने का ढोंग कर लेगा। जब आप मिलेंगे, तो वह सिर झुका कर नीचे होकर कहेगा, मैं तो कुछ भी नहीं हूं। और जब वह यह कह रहा है कि मैं कुछ भी नहीं हूं, तब वह भीतर जानेगा कि मैं कुछ हूं। जब वह कह रहा है मैं कुछ नहीं हूं, यह केवल वही आदमी कहता है कि मैं कुछ नहीं हूं जो जानता है कि मैं कुछ हूं। अन्यथा नहीं कहता। लोभी कैसे लोभ को छोड़ेगा? वह लोभ को भी छोड़ेगा तो लोभ के कारण ही छोड़ेगा।
मैं एक जगह था और एक साधु समझाते थे लोगों को: लोभ छोड़ दो तो तुम शांत हो जाओगे; लोभ छोड़ दो तो पुण्य होगा; लोभ छोड़ दो तो मोक्ष मिलेगा। मैंने उन साधु को कहा कि अगर इनमें से कोई बहुत लोभी होगा, तो ही आपकी बात को मान पाएगा। क्योंकि जिसे मोक्ष पाने का लोभ होगा, वह सोचेगा, लोभ छोड़ दें। शांत होने का जिसे लोभ होगा, वह सोचेगा, लोभ छोड़ दें। ये सब लोभ के ही हिस्से होंगे। ये ग्रीड के ही एक्सटेंशंस हैं। ये उसके ही विस्तार हैं। लोभी कभी लोभ कैसे छोड़ सकता है?
असल में कोई बुराई कभी नहीं छोड़ी जाती। वैसे ही, जैसे अंधकार हो, तो अंधकार को हटाया नहीं जा सकता। इस भवन में अंधकार भरा हो, हम उसे धक्के देकर नहीं हटा सकते हैं। अगर कोई अंधकार को धकाने में लगेगा, तो हम क्या कहेंगे उसको? कहेंगे, विक्षिप्त हो गया। इसका मस्तिष्क ठीक नहीं है। अंधकार कहीं हटाया जाता है? हां, प्रकाश जलाया जाता है। प्रकाश जल जाए तो अंधकार अपने आप विलीन हो जाता है, वह नहीं पाया जाता। वैसे ही अहंकार नहीं छूटता। सरलता उत्पन्न होती है, तो अहंकार नहीं पाया जाता है। लोभ नहीं छूटता। शांति उत्पन्न होती है, तो लोभ नहीं पाया जाता है। जीवन में बुराई नहीं छोड़ी जाती। जो सद है उसका जन्म, उसे जगाया जाता है। जो आलोक है उसे जगाया जाता है, अंधकार अपने से छूट जाता है।
लेकिन हम अंधकार को छोड़ने में लगेंगे तो जटिल हो जाएंगे। हम सारे लोग अंधकार को छोड़ने में लगे हैं। मुझे लोग मिलते हैं, जो कहते हैं, हमें अपनी हिंसा छोड़नी है। मैं उनसे कहता हूं, हिंसा कैसे छोड़ी जा सकती है? हां, प्रेम जगाया जा सकता है; हिंसा नहीं छोड़ी जा सकती। लोग कहते हैं, हमें असत्य छोड़ना है। सत्य जगाया जा सकता है, असत्य नहीं छोड़ा जा सकता। और जब हम यह छोड़ने की भाषा में पड़ जाते हैं, तभी जटिलता शुरू हो जाती है, द्वंद्व शुरू हो जाता है, कांफ्लिक्ट शुरू हो जाती है। और हमारे चित्त इसीलिए बहुत ज्यादा द्वंद्व से भरे हैं। हम कुछ छोड़ना चाहते हैं। जब कि छोड़ना जीवन का नियम नहीं है; पाना जीवन का नियम है। कुछ पा लिया जाए तो निम्न छूट जाता है। श्रेष्ठ पा लिया जाए, निम्न विलीन हो जाता है। श्रेष्ठ आ जाए, तो निम्न जगह खाली कर देता है उसके लिए। प्रकाश आ जाए, तो अंधकार स्थान छोड़ देता है। लेकिन अंधकार अपने आप स्थान नहीं छोड़ सकता। प्रकाश का आगमन प्राथमिक है, अंधकार का जाना द्वितीय है। सत का आना प्राथमिक है, असत का जाना द्वितीय है। श्रेष्ठ का आना प्राथमिक है, अश्रेष्ठ का जाना द्वितीय है। और वह जो आगमन है, वह जो वास्तविक सरलता का आगमन है, जिससे जटिलता जाएगी, वह आरोपित नहीं होती है। उसे भीतर से जगाना होता है।
भीतर से जगाने का नियम क्या होगा? नियम होगा कि सबसे पहले हम सब भांति के आदर्शों से अपने को मुक्त कर लें। आदर्श जटिल कर रहे हैं। आप सबसे पहले अपने को जानने में लगें बजाय इसके कि आप अपने को बनाने में लग जाएं। हम पूछते हैं कि हमें कैसा होना चाहिए? मैं आपसे कहता हूं, यह व्यर्थ है। आप जानें कि आप कैसे हैं? यह वैज्ञानिक है कि आप जानें कि आप क्या हैं? अगर आप अपनी वास्तविकता को पूरी तरह जान लें, तो उस ज्ञान से ही क्रांति शुरू हो जाती है। अगर कोई मनुष्य अपने क्रोध को पूरा जान ले, तो क्रोध विलीन होना शुरू हो जाता है। क्रोध को विलीन करने के लिए और कुछ करना जरूरी नहीं, क्रोध को जान लेना ही जरूरी है। लेकिन आपने कभी क्रोध नहीं जाना।
आप कहेंगे, हमने बहुत बार क्रोध किया है।
मैं आपको कहता हूं, मुल्क में मैं घूमा हूं और अभी मैं ऐसे आदमी की तलाश में हूं, जिसने क्रोध को जाना हो। आपने क्रोध कभी नहीं जाना। जब आप क्रोध करते हैं, तब आप मौजूद ही नहीं होते हैं। आप मूर्च्छित होते हैं, बेहोश होते हैं। कभी कोई आदमी मौजूद होकर क्रोध कर सकता है? मौजूद होकर क्रोध किया ही नहीं जा सकता। अगर आप मौजूद हों, क्रोध असंभव हो जाएगा। अगर आपकी प्रेजेंस पूरी हो उस वक्त, चित्त की क्रोध की वृत्ति के समय अगर आप सजग हों, क्रोध असंभव हो जाएगा। क्रोध नहीं किया जा सकता है। जब भी हम सजग हों, तभी जो बुरा है, वह असंभव हो जाता है। बुरे के लिए असजग होना, मूर्च्छित होना जरूरी है। इसलिए जिसे बुरा काम करना है, वह अगर नशा कर ले, तो बुरा काम और भी आसान हो जाता है, क्योंकि नशे में सजगता और भी क्षीण हो जाती है।
सारे धर्मों ने नशे का विरोध किया है, केवल एक बात से। अन्यथा नशे में कोई खराबी नहीं है। एक आदमी शराब पी रहा है, इसमें क्या खराबी है? शराब में कोई खराबी नहीं है, खराबी यह है कि शराब की स्थिति में उसकी जो होश की स्थिति है, वह विलीन हो जाएगी, वह और भी मूर्च्छित होगा। और मूर्च्छा में सब पाप होते हैं। जितने हम मूर्च्छित हैं, उतने ही पाप हैं। आप जब क्रोध करते हैं, तब आप मूर्च्छित हैं। जब आप काम से पीड़ित होते हैं, तब आप मूर्च्छित हैं। आप होश में नहीं हैं। आप अपने में नहीं हैं। आपको कोई चीज खींच रही है और आपको बिलकुल होश नहीं है कि आप कहां जा रहे हैं। क्रोध में आदमी को देखें। वासनाग्रस्त आदमी को देखें। उसकी आंखों को, उसके भाव को देखें। उसके शरीर को देखें। आप पाएंगे, वह मूर्च्छित है, बेहोश है। इसीलिए जब आप क्रोध में होते हैं, तो न केवल मन के तल पर आप मूर्च्छित होते हैं बल्कि शरीर के तल पर भी। वैज्ञानिक कहते हैं, शरीर की ग्रंथियां जहर छोड़ देती हैं और उस जहर के प्रभाव में आप करीब-करीब शराब की हालत में आ जाते हैं। करीब-करीब शराब की हालत में आ जाते हैं। शरीर के और मन के, दोनों तल पर आप बेहोश हो जाते हैं।
बुद्ध का एक शिष्य था। वह नया-नया दीक्षित हुआ था, उसने संन्यास लिया था। और बुद्ध को उसने कहा, मैं आज कहां भिक्षा मांगने जाऊं?
उन्होंने कहा, मेरी एक श्राविका है, वहां चले जाना।
वह वहां गया। वह जब भोजन करने को बैठा, तो बहुत हैरान हुआ, रास्ते में इसी भोजन का उसे खयाल आया था। यह भोजन उसे प्रिय था। पर उसने सोचा था कि कौन मुझे देगा? आज कौन मुझे मेरे प्रिय भोजन को देगा? वह कल तक राजकुमार था और जो उसे पसंद था, वह खाता था। लेकिन उस श्राविका के घर वही भोजन देख कर वह बहुत हैरान हो गया। सोचा, संयोग की बात है, वही आज बना होगा। जब वह भोजन कर रहा है, उसे अचानक खयाल आया, भोजन के बाद तो मैं विश्राम करता था रोज। लेकिन आज तो मैं भिखारी हूं। भोजन के बाद वापस जाना होगा। दोत्तीन मील का फासला फिर धूप में तय करना है।
वह श्राविका पंखा करती थी, उसने कहा, भंते, अगर भोजन के बाद दो क्षण विश्राम कर लेंगे तो मुझ पर बहुत अनुग्रह होगा।
भिक्षु फिर थोड़ा हैरान हुआ कि क्या मेरी बात किसी भांति पहुंच गई! फिर उसने सोचा, संयोग की ही बात होगी कि मैंने भी सोचा और उसने भी उसी वक्त पूछ लिया। चटाई डाल दी गई। वह विश्राम करने लेटा ही था कि उसे खयाल आया, आज न तो अपनी कोई शय्या है, न अपना कोई साया है; अपने पास कुछ भी नहीं।
वह श्राविका जाती थी, लौट कर रुक गई, उसने कहा, भंते, शय्या भी किसी की नहीं है, साया भी किसी का नहीं है। चिंता न करें।
अब संयोग मान लेना कठिन था। वह उठ कर बैठ गया। उसने कहा, मैं बहुत हैरान हूं! क्या मेरे भाव पढ़ लिए जाते हैं?
वह श्राविका हंसने लगी। उसने कहा, बहुत दिन ध्यान का प्रयोग करने से चित्त शांत हो गया। दूसरे के भाव भी थोड़े-बहुत अनुभव में आ जाते हैं।
वह एकदम उठ कर खड़ा हो गया। वह एकदम घबड़ा गया और कंपने लगा। उस श्राविका ने कहा, आप घबड़ाते क्यों हैं? कंपते क्यों हैं? क्या हो गया? विश्राम करिए। अभी तो लेटे ही थे।
उसने कहा, मुझे जाने दें, आज्ञा दें। उसने आंखें नीचे झुका लीं और वह चोरों की तरह वहां से भागा।
श्राविका ने कहा, क्या बात है? क्यों परेशान हैं?
फिर उसने लौट कर भी नहीं देखा। उसने बुद्ध को जाकर कहा, उस द्वार पर अब कभी न जाऊंगा।
बुद्ध ने कहा, क्या हो गया? भोजन ठीक नहीं था? सम्मान नहीं मिला? कोई भूल-चूक हुई?
उसने कहा, भोजन भी मेरे लिए प्रीतिकर जो है, वही था। सम्मान भी बहुत मिला, प्रेम और आदर भी था। लेकिन वहां नहीं जाऊंगा। कृपा करें! वहां जाने की आज्ञा न दें।
बुद्ध ने कहा, इतने घबड़ाए क्यों हो? इतने परेशान क्यों हो?
उसने कहा, वह श्राविका दूसरे के विचार पढ़ लेती है। और जब मैं आज भोजन कर रहा था, उस सुंदर युवती को देख कर मेरे मन में तो विकार भी उठे थे। वे भी पढ़ लिए गए होंगे। मैं किस मुंह से वहां जाऊं? मैं तो आंखें नीची करके वहां से भागा हूं। वह मुझे भंते कह रही थी, मुझे भिक्षु कह रही थी, मुझे आदर दे रही थी। मेरे प्राण कंप गए। मेरे मन में क्या उठा? और उसने पढ़ लिया होगा। फिर भी मुझे भिक्षु और भंते कह कर आदर दे रही थी! उसने कहा, मुझे क्षमा करें। वहां मैं नहीं जाऊंगा।
बुद्ध ने कहा, तुम्हें वहां जान कर भेजा है। यह तुम्हारी साधना का हिस्सा है। वहीं जाना पड़ेगा। रोज वहीं जाना पड़ेगा। जब तक मैं न कहूं या जब तक तुम आकर मुझसे न कहो कि अब मैं वहां जा सकता हूं, तब तक वहीं जाना पड़ेगा। जब तक तुम मुझसे आकर यह न कहो कि अब मैं रोज वहां जा सकता हूं, तब तक वहीं जाना पड़ेगा। वह तुम्हारी साधना का हिस्सा है।
उसने कहा, लेकिन मैं कैसे जाऊंगा? किस मुंह को लेकर जाऊंगा? और कल अगर फिर वही विचार उठे तो मैं क्या करूंगा?
बुद्ध ने कहा, तुम एक ही काम करना, एक छोटा सा काम करना, और कुछ मत करना, जो भी विचार उठे, उसे देखते हुए जाना। विकार उठे, उसे भी देखना। कोई भाव मन में आए, काम आए, क्रोध आए, कुछ भी आए, उसे देखना, और कुछ मत करना। तुम सचेत रहना भीतर। जैसे कोई अंधकारपूर्ण गृह में एक दीये को जला दे और उस घर की सब चीजें दिखाई पड़ने लगें, ऐसे ही तुम अपने भीतर अपने बोध को जगाए रखना कि तुम्हारे भीतर जो भी चले, वह दिखाई पड़े। वह स्पष्ट दिखाई पड़ता रहे। बस तुम ऐसे जाना।
वह भिक्षु गया। उसे जाना पड़ा। भय था, पता नहीं क्या होगा? लेकिन वह अभय होकर लौटा। वह नाचता हुआ लौटा। कल डरा हुआ आया था, आज नाचता हुआ आया। कल आंखें नीचे झुकी थीं, आज आंखें आकाश को देखती थीं। आज उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे, जब वह लौटा। और बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा कि धन्य! क्या हुआ यह? जब मैं सजग था, तो मैंने पाया वहां तो सन्नाटा है। जब मैं उसकी सीढ़ियां चढ़ा, तो मुझे अपनी श्वास भी मालूम पड़ रही थी कि भीतर जा रही है, बाहर जा रही है। मुझे हृदय की धड़कन भी सुनाई पड़ने लगी थी। इतना सन्नाटा था मेरे भीतर। कोई विचार सरकता तो मुझे दिखता। लेकिन कोई सरक नहीं रहा था। मैं एकदम शांत उसकी सीढ़ियां चढ़ा। मेरे पैर उठे तो मुझे मालूम था कि मैंने बायां पैर उठाया और दायां रखा। और मैं भीतर गया और मैं भोजन करने बैठा। यह जीवन में पहली दफा हुआ कि मैं भोजन कर रहा था तो मुझे कौर भी दिखाई पड़ता था। मेरा हाथ का कंपन भी मालूम होता था। श्वास का कंपन भी मुझे स्पर्श और अनुभव हो रहा था। और तब मैं बड़ा हैरान हो गया, मेरे भीतर कुछ भी नहीं था, वहां एकदम सन्नाटा था। वहां कोई विचार नहीं था, कोई विकार नहीं था।
बुद्ध ने कहा, जो भीतर सचेत है, जो भीतर जागा हुआ है, जो भीतर होश में है, विकार उसके द्वार पर आने वैसे ही बंद हो जाते हैं, जैसे किसी घर में प्रकाश हो तो उस घर में चोर नहीं आते। जिस घर में प्रकाश हो तो उससे चोर दूर से ही निकल जाते हैं। वैसे ही जिसके मन में बोध हो, जागरण हो, अमूर्च्छा हो, अवेयरनेस हो, उस चित्त के द्वार पर विकार आने बंद हो जाते हैं। वे शून्य हो जाते हैं।
मैं कहता हूं, आपने क्रोध कभी देखा नहीं, क्योंकि क्रोध आप देखते तो क्रोध विलीन हो जाता। आपने कभी सेक्स देखा नहीं, अगर देखते तो विलीन हो जाता। जो भी देख लिया जाए मन के तल पर, वही विलीन हो जाता है। जो भी देख लिया जाए उसकी परिपूर्णता में, वही विलीन हो जाता है। उसके विलीन हो जाने पर जो शेष रह जाता है, वह है प्रेम, वह है ब्रह्मचर्य, वह है अक्रोध, वह है शांति, वह है अहिंसा, वह है करुणा, जो शेष रह जाता है। वह हमारा स्वभाव है, उसे कहीं से लाना नहीं है। जो फॉरेन एलिमेंट, जो विजातीय तत्व हमारे ऊपर हैं, वे ही भर विलीन हो जाएं, तो जो हमारे भीतर है वह प्रकट हो जाएगा।
परमात्मा हमारा स्वभाव है। उस स्वभाव में करुणा सहज है; प्रेम सहज है; ब्रह्मचर्य सहज है; दया और अहिंसा और सत्य और अपरिग्रह और सरलता वहां सहज हैं। अगर विजातीय विलीन हो जाए, तो वह सहजता प्रकट हो जाएगी। इसलिए मैंने कहा, साधुता सहजता है, सरलता है, स्पांटेनियस है। और कबीर का जो मैंने वचन कहा: साधो! सहज समाधि भली। उसका अर्थ है, उसका अर्थ है कि जो बिलकुल सहज होकर देखेगा, उसे समाधि उत्पन्न हो जाएगी। विकार विलीन हो जाएंगे और भीतर से उसका जन्म होगा जो सत्य है।
लेकिन यह किसी के पीछे जाने से नहीं होगा, अपने ही भीतर आने से होगा। यह किसी का अनुगमन करने से नहीं होगा, अपनी ही वृत्तियों का अनुसरण करने से होगा। महावीर और बुद्ध के पीछे नहीं जाना है; क्रोध और काम के पीछे जाना है, उनको पकड़ना और पहचानना है। कोई आदर्श आपको बनाने की जरूरत नहीं है। जो आदर्शतम है, वह आपके भीतर मौजूद है। आपको कुछ होना नहीं है। जो आप हैं, अगर आप उसी को जान सकें, तो सब हो जाएगा। लेकिन हम कुछ होने में लगते हैं, इससे जटिलता, इससे उलझाव, द्वंद्व पैदा हो जाता है। कुछ होने में न लगें; जो हैं, उसे जानने में लगें। और घबड़ाएं न। क्रोध से न घबड़ाएं; काम से न घबड़ाएं; द्वेष से न घबड़ाएं; घृणा से न घबड़ाएं; मोह से, लोभ से न घबड़ाएं। घबड़ाने की कोई भी जरूरत नहीं है। इनमें प्रवेश करें। इनके प्रति सजग हों। जानें, होश से इनको पहचानें। इनका विश्लेषण करें। इनमें प्रवेश कर जाएं।
जो व्यक्ति अपने लोभ में प्रवेश कर जाएगा, वह अलोभ पर पहुंच जाता है। जो अपने क्रोध में प्रवेश कर जाता है, वह अक्रोध पर पहुंच जाता है। जो अपने काम में, सेक्स में प्रवेश कर जाता है, वह ब्रह्मचर्य को अनुभव कर लेता है। लेकिन हम तो बाहर से ही डरे-डरे, परेशान, उनमें प्रवेश ही नहीं करते। कभी उनको जानना ही नहीं चाहते। कभी उनमें प्रवेश करके, पूरे उनके आंतरिक जड़ों तक जाना नहीं चाहते। हम तो बाहर ही घबड़ाए रहते हैं।
बुरे लोग वे हैं, जो बुरा काम करके नष्ट हो जाते हैं। भले लोग वे हैं, जो बुरे काम के डर से ही नष्ट हो जाते हैं।
एक गांव में, एक वृद्ध अपने गांव की सीमा के बाहर बैठा था। एक फकीर था और गांव के बाहर ही रहता था। रात उसने देखा, एक बड़ी विकराल छाया गांव में प्रवेश कर रही है। एक विकराल छाया मात्र। उसने पूछा कि तुम कौन हो? यह छाया किसकी है और यह कहां जा रही है?
सुनाई पड़ा कि मैं महामारी हूं और गांव में एक हजार बुरे लोगों को नष्ट करने आई हूं।
उसने कहा, सिर्फ बुरे लोगों को न?
सिर्फ बुरे लोगों को। तीन दिन गांव में रहूंगी और एक हजार बुरे लोगों को नष्ट कर दूंगी।
लेकिन तीन दिन में तो कई हजार लोग गांव में नष्ट हो गए! उसमें बुरे ही लोग नहीं थे, बहुत से भले लोग थे, साधु थे, सज्जन थे। वह वृद्ध सजग रहा कि तीसरे दिन जब वह लौटे छाया, तो मैं उससे पूछूं कि यह क्या हुआ? धोखा दिया? वह छाया तीसरे दिन रात को वापस लौटती थी। उस वृद्ध ने कहा कि ठहरो और मुझे बताओ कि मुझे धोखा दिया और झूठ बोली। तुमने कहा कि एक हजार बुरे लोगों को नष्ट करूंगी। तीन दिन में तो हजारों लोग नष्ट हो गए। उसमें बहुत भले और साधु और सज्जन भी नष्ट हुए।
वह महामारी बोली, मैंने तो एक हजार बुरे लोग नष्ट किए, बाकी अच्छे लोग भय से नष्ट हो गए। उसने कहा कि मैंने तो एक हजार बुरे लोग नष्ट किए, बाकी अच्छे लोग भय से मर गए। वे मैंने नष्ट नहीं किए हैं। मेरा जिम्मा एक हजार का, बाकी सब अपने से मर गए हैं।
यह तो बिलकुल ही काल्पनिक है बात, लेकिन सच है। बुरे लोग क्रोध करके नष्ट हो जाते हैं। अच्छे लोग क्रोध से डर कर नष्ट हो जाते हैं।
तीसरा रास्ता है: न तो क्रोध करने का सवाल है, न क्रोध से लड़ने का सवाल है। क्रोध को जानने का सवाल है। न तो क्रोध के पीछे क्रोधी हो जाने का सवाल है और न क्रोध से डर कर अक्रोध को लादने का सवाल है। सवाल क्रोध को जान कर क्रोध को विसर्जित करने का है। और जानते ही क्रोध विसर्जित हो जाता है। जानते ही जटिलता विसर्जित हो जाती है। ज्ञान से बड़ी कोई क्रांति नहीं है।
अभी रास्ते में हम आते थे तो बात चलती थी कि ज्ञान हो जाए तो फिर क्या करेंगे? ज्ञान हो जाए तो फिर आचरण कैसे करेंगे? ज्ञान हो जाए तो उसे फिर जीवन में कैसे लाएंगे?
यह गलत ही बात है। यह गलत ही बात है। यह वैसा ही है जैसे कोई पूछे कि प्रकाश हो जाए, तो फिर अंधेरे का क्या करेंगे? जैसे कोई पूछे कि यहां प्रकाश तो जल गया, लेकिन फिर अंधेरे का क्या करेंगे? तो हम उससे क्या कहेंगे? हम उससे कहेंगे, फिर तुम प्रकाश के जलने का अर्थ ही नहीं समझे। प्रकाश के जलने का अर्थ ही है कि अंधेरा नहीं हो गया। ज्ञान का अर्थ यह है कि अज्ञान नहीं हो गया। और जो आचरण अज्ञान से निकलता था, वह अज्ञान के चले जाने पर नहीं हो जाएगा। वह रह कैसे जाएगा? अज्ञान अनाचरण है; ज्ञान आचरण है। ज्ञान को आचरण में लाना नहीं होता है। ज्ञान हो तो आचरण अपने आप है। अज्ञान को भी आचरण में नहीं लाना होता, अज्ञान हो तो अनाचरण अपने आप है।
आप कोई क्रोध को लाते हैं? आपने कभी क्रोध लाया है? आप हमेशा पाते हैं, क्रोध आया। आप क्रोध को कभी लाए हैं? आपने कभी घृणा की है? आप हमेशा पाते हैं, आई। आई का क्या अर्थ है? आई का अर्थ है कि भीतर अज्ञान है, अनाचरण आता है। ठीक वैसे ही, अगर भीतर ज्ञान हो तो आचरण आता है, वह भी लाया नहीं जाता। अगर भीतर ज्ञान हो, तो प्रेम वैसे ही आएगा, जैसे घृणा आती है अभी; करुणा वैसे ही आएगी, जैसे क्रूरता आती है अभी; अहिंसा वैसे ही आएगी, जैसे हिंसा आती है अभी। अज्ञान का जो प्रकाशन है, वह अनाचरण है। ज्ञान का जो प्रकाशन है, वह आचरण है। आचरण थोपा नहीं जाता, वह ज्ञान से निःसृत होता है, बहता है और आता है।
जीवन में जो भी है, वह सब आता है। लाया कुछ भी नहीं जाता है। और इसीलिए यह जो मैंने कहा कि जीवन सरल हो, जटिलता न हो उसमें, इसका यह अर्थ मत ले लेना कि आपको सरलता लानी है। इसका अर्थ केवल इतना है, अपनी जटिलता जाननी है और जटिलता में प्रवेश करना है।
जटिलता में प्रवेश का सूत्र है: जटिलता के प्रति, चित्त की सारी वृत्तियों के प्रति जागरण।
मैंने कल कहा, विचार के प्रति साक्षी हों, तो स्वतंत्रता आएगी। भाव के प्रति साक्षी हों, तो सरलता आती है। विचार के प्रति साक्षी हों, तो स्वतंत्रता आती है। भाव के प्रति साक्षी हों, तो सरलता आती है। जो विचार को जानने लगता है, वह विचार से मुक्त हो जाता है। जो भाव को जानने लगता है, वह भाव से मुक्त हो जाता है। ज्ञान विचार का, विचार से मुक्ति है; ज्ञान भाव का, भाव से मुक्ति है।
हमारा भाव जटिल हो, हम सत्य को नहीं जान सकते। विचार जटिल हो, सत्य को नहीं जान सकते। विचार सरल होगा, भाव सरल होगा, तो वह तैयारी हो जाएगी हमारे भीतर जो हमें सत्य को जानने के लिए आंख को खोल देती है।
इसलिए मैंने दूसरे चरण की बात कही: चित्त की सरलता। कल तीसरे सूत्र की बात करूंगा: चित्त की शून्यता। तीन ही सूत्र हैं: चित्त की स्वतंत्रता, चित्त की सरलता और चित्त की शून्यता। स्वतंत्रता, सरलता और शून्यता को जो साध लेता है, वह समाधि को उपलब्ध हो जाता है।
मेरी बातों को प्रेम से सुना, उसके लिए अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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