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शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-03)

सत्य की पहली किरण-प्रवचन-तीसरा)

पहला-प्रवचन-(मनुष्य एक यंत्र है)

 एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
अंधेरी रात थी, और कोई आधी रात गए एक रेगिस्तानी सराय में सौ ऊंटों का एक बड़ा काफिला आकर ठहरा। यात्री थके हुए थे और ऊंट भी थके हुए थे। काफिले के मालिक ने खूंटियां गड़वाईं और ऊंटों के लिए रस्सियां बंधवाईं, ताकि वे रात भर विश्राम कर सकें। लेकिन खूंटियां गाड़ते समय पता चला, ऊंट सौ थे, एक खूंटी कहीं खो गई थी। खूंटियां निन्यानबे थीं। एक ऊंट को खुला छोड़ना कठिन था। रात उसके भटक जाने की संभावना थी।
उन्होंने सराय के मालिक को जाकर कहा कि यदि एक खूंटी और रस्सी मिल जाए, तो बड़ी कृपा हो। हमारी एक खूंटी और रस्सी खो गई है। सराय के मालिक ने कहाः खूंटियां और रस्सियां तो हमारे पास नहीं हैं। लेकिन तुम ऐसा करो, खूंटी गाड़ दो और रस्सी बांध दो और ऊंट को कहो कि सो जाए।

वह काफिले का मालिक बहुत हैरान हुआ। उसने कहाः अगर खूंटी और रस्सी हमारे पास होती, तो हम खुद ही बांध देते। कौन सी खूंटी गाड़ दें और कौन सी रस्सी बांध दें?उस मालिक ने कहाः जरूरी नहीं है कि असली खूंटी से ही ऊंट बांधा जाए; नकली खूंटी से भी ऊंट बांधा जा सकता है। तुम एक झूठी खूंटी ही ठोक दो और तुम एक झूठी रस्सी ही ऊंट के गले पर बांधो और उससे कहो कि वह सो जाए।
कोई रास्ता न था, उन्हें विश्वास तो न आया कि यह बात हो सकेगी। लेकिन उन्होंने झूठी खूंटी गाड़ी जो खूंटी नहीं थी, उसके ऊपर उन्होंने चोटें कीं। ऊंट ने चोटें सुनीं और समझा होगा कि खूंटी गाड़ी जा रही है। और जो रस्सी नहीं थी, उससे उन्होंने ऊंट के गले को बांधा और उसके गले पर हाथ फेरा। ऊंट ने समझा होगा कि रस्सी बांधी जा रही है। और फिर उन्होंने जैसे और सारे ऊंटों को कहा था कि सो जाओ, उसको भी कहा। ऊंट बैठ गया और सो गया।
सुबह जब काफिला रवाना होने लगा उस सराय से, तो उन्होंने निन्यानबे ऊंटों की खूंटियां उखाड़ीं और रस्सियां खोलीं। सौवें ऊंट की तो कोई खूंटी थी नहीं, न कोई रस्सी थी। इसलिए न तो उन्होंने खूंटी उखाड़ी और न रस्सी खोली। निन्यानबे ऊंट तो उठ कर खड़े हो गए लेकिन सौवें ऊंट ने उठने से इनकार कर दिया।
वे बहुत परेशान हुए। उन्होंने जाकर फिर उस सराय के बूढ़े मालिक को कहा कि तुमने कौन सा मंत्र किया है, हमारा ऊंट तो जमीन में बंधा रह गया, वह उठ नहीं रहा? सारे ऊंट उठ कर जाने को तैयार हो गए हैं, लेकिन सौवां ऊंट जमीन नहीं छोड़ता है, बैठा हुआ है।
उस बूढ़े मालिक ने कहा सराय के, पहले जाकर उसकी खूंटी उखाड़ो और उसकी रस्सी खोलो। उन्होंने कहाः लेकिन न तो कोई खूंटी है और न रस्सी है। उस मालिक ने कहाः तुम्हारे लिए नहीं होगी, लेकिन ऊंट के लिए है। जाओ, खूंटी उखाड़ो और रस्सी खोल दो।
वे गए, उन्होंने उस झूठी खूंटी को उखाड़ा, जो कि नहीं थी और वे रस्सियां खोलीं, जिनका कोई अस्तित्व न था। ऊंट उठ कर खड़ा हो गया और बाकी साथियों के साथ चलने को तैयार हो गया।
वे बहुत हैरान हुए! और उन्होंने उस मालिक को पूछा कि यह क्या रहस्य है इस बात का? उसने कहाः न केवल ऊंट बल्कि आदमी भी ऐसी खूंटियों से बंधे होते हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं है और ऐसी रस्सियों से परतंत्र होते हैं जिनकी कोई सत्ता नहीं है।
 
इन आने वाले चार दिनों में मैं उन खूंटियों कि थोड़ी सी आपसे बात करूंगा जिनसे मनुष्य-जाति बंधी हुई है। और उन रस्सियों की थोड़ी सी चर्चा करूंगा जिनके द्वारा हम परतंत्र हैं। और बड़े मजे कि बात यह है कि वह ऊंट ही उस रात गलती में नहीं रहा था हजारों साल से पूरी मनुष्य-जाति उस तरह की गलती में है। तो उन खूंटियों की चर्चा करूंगा और उन रस्सियों की जिनकी कोई सत्ता नहीं है, लेकिन मनुष्य का जीवन जिनके कारण परतंत्र है। और जिनके कारण मनुष्य परमात्मा तक पहुंचने के लिए यात्रा नहीं कर पाता है। और जिनके कारण उसका जीवन जो हो सकता है वह नहीं हो पाता है, और जिनके कारण उसे जमीन पर घसीटना पड़ता है और सरकना पड़ता है, और आकाश की उड़ान उसके लिए संभव नहीं रह जाती।
उन खूंटियों की चर्चा इसलिए करूंगा कि यदि हम उन खूंटियों को समझ लें, और उस परतंत्रता को समझ लें, और उन रस्सियों को पहचान लें जो कि हमारी गर्दन में बंधी हैं, तो शायद उसे खोलने के लिए और उन खूंटियों को तोड़ने के लिए और कुछ भी करना जरूरी नहीं होगा। उन्हें जान लेना ही, उन्हें पहचान लेना ही, उन्हें समझ लेना ही उनकी मृत्यु बन जाती है। इसलिए इस छोटी सी कहानी से मैं अपनी इन चार दिनों की चर्चाओं को शुरू करता हूं।
वे कौन सी परतंत्रताएं हैं जो मनुष्य के जीवन को सब ओर से घेरे हुए हैं? वे कौन से बोझ और पत्थर हैं जो उसकी आत्मा को ऊंचाइयों तक नहीं उठने देते और नहीं छूने देते? कौन उन परतंत्रताओं को निर्मित करता है? कोई और या कि मनुष्य स्वयं? कौन उन्हें बांधता है? कोई और या कि हम स्वयं?एक दोपहर में एक जंगल में एक बहेलिए के साथ थोड़ी देर को रुका। उससे मैंने यह बात पूछी थी कि जिन तोतों को तुम पकड़ते हो, उन्हें तुम पकड़ते हो या कि तोते खुद तुम्हारे जाल में फंस जाते हैं? उस बहेलिए ने कहा था, मेरे साथ आओ और तोतों को पकड़ने की मेरी तरकीब समझ लो। उसने एक रस्सी बांध रखी थी दो दरख्तों के बीच में और उस रस्सी पर कुछ लकड़ियां बांध रखी थीं। तोते उन लकड़ियों पर आकर बैठते, उनके वजन से लकड़ियां घूम जातीं, तोते उलटे लटक जाते। वे उन लकड़ियों को इतने जोर से पकड़ लेते कि कहीं गिर न जाएं। गिरने के भय के कारण वे उन लकड़ियों को पकड़ लेते। और उनको छोड़ने की सामथ्र्य और साहस उनमें न रह जाता। वे लकड़ियां जिनमें वे बंधे हुए नहीं थे और जिनको छोड़ने से वे गिरने वाले भी नहीं थे, क्योंकि सैकड़ों बार उन्होंने आकाश में उड़ कर देखा था। और जिसके पास पंख हैं उसे गिरने का कोई भय नहीं होना चाहिए। लेकिन उन तोतों को भय था गिरने का। और वे उन लकड़ियों से बंध जाते थे जिनसे बिलकुल बंधे हुए नहीं थे, और बहेलिया उनको पकड़ लेता था।
उसने मुझसे कहा कि देखें, ये तोते अपने हाथ से चिल्ला रहे हैं, अपने हाथ से बंधे हुए हैं और छूटने की साहस और छूटने की सामथ्र्य उनमें खो गई।
उस बहेलिए ने जो बात मुझसे कही कि तोते खुद अपने हाथ से फंस जाते हैं। असल में तो जो फंसने को राजी नहीं है उसे कोई फांस नहीं सकता और जो परतंत्र नहीं होना चाहता इस जमीन पर कोई उसे परतंत्र करने में समर्थ नहीं हैं। कहीं न कहीं हम खुद परतंत्र होना चाहते हैं, इसलिए परतंत्रता हमें पकड़ लेती है। और फिर परतंत्रता दुख लाती है, पीड़ा लाती है। क्योंकि आत्मा स्वभावतः स्वतंत्र है। और उसकी स्वतंत्रता में ही उसका आनंद है। और उसकी स्वतंत्रता में ही उसका आलोक है। और उसकी स्वतंत्रता में ही उसका संगीत है। लेकिन कुछ कारण हैं जिनकी वजह से हम खुद परतंत्र होने को राजी हो जाते है और फिर शायद परतंत्रता के इतने आदि हो जाते हैं कि स्वतंत्र होने का साहस, सामथ्र्य और विचार भी खो देते हैं।
ऐसी हालत करीब-करीब अधिकतम मनुष्यों की है। और जब तक हम इस बात को ठीक से न समझ लें कि हम किसी बहुत मानसिक जाल में परतंत्र हैं और उस जाल को तोड़ने में समर्थ न हो जाएं तब तक हमारी आंखें उस सत्य के प्रति नहीं उठ सकेंगी, उस स्वतंत्रता के प्रति नहीं उठ सकेंगी, उस आलोक के प्रति नहीं उठ सकेंगी जो हमारे जीवन से अंधकार को मिटा दे, जो हमारे जीवन से अज्ञान को मिटा दे, जो हमारे जीवन से दुख का विनाश बन जाए, दुख की समाप्ति बन जाए।
 
मैं उन तोतों पर उस दोपहर में हंसा था कि वे कितने नासमझ हैं, लेकिन आज मैं अपनी भूल को स्वीकार करता हूं। हंसा था इसलिए कि उस समय तक मैं मनुष्य के मन को ठीक से नहीं जानता था। और जब मैंने मनुष्य के मन को ठीक से जाना, तो मैंने समझा कि तोते जो नासमझी करते हैं वह तो आदमी भी करते हैं, इसलिए तोतों पर हंसने का कोई कारण नहीं रह गया।
मछलियां पकड़ते हुए मछुओं को कभी देखा हो, जिस जाल में उन मछलियों को खींच कर वे किनारे पर रखते हैं। अगर उन मछलियों को देखें, उनमें से बहुत सी मछलियां जाल के धागों को अपने मुंह में पकड़े हुए दिखाई पड़ेंगी। कोई उन मछलियों से पूछें कि जाल के धागों को क्यों पकड़ा है? कोई इसकी खोज-बीन करे, तो शायद उसे पता चले कि मछलियां जैसे ही जाल में पड़ती हैं अपने बचाव के लिए धागों को जोर से पकड़ लेती हैं ताकि वे धागों के सहारे हो जाएं, उन्हें खींचा न जा सके। लेकिन जिन धागों को वे पकड़ती हैं वे धागे उसी जाल के होते हैं जो उन्हें ऊपर खींच लेता है और बांध लेता है और उनकी मृत्यु बन जाता है।
हम सारे लोग भी उन धागों को पकड़े हुए हैं शायद इस सुरक्षा के लिए कि हम बच जाएं, शायद इस सुरक्षा के लिए कि वे धागे हमारे सहारे हो जाएं। लेकिन जो भूल मछलियां करतीं हैं वही भूल हमसे भी हो जाती हैं। हम उन्हीं धागों को पकड़े हुए हैं जो कि जाल के हैं और उनको पकड़े होने के कारण हम उस जाल से छूटने में असमर्थ हो जाते हैं। लेकिन मछलियों के जाल दिखाई पड़ते हैं और तोतों के जाल भी दिखाई पड़ते हैं, आदमी के मन का जाल और भी सूक्ष्म है और दिखाई नहीं पड़ता। और जब तक हम उस जाल को ठीक से न देख लें, और ठीक से देख लेना इसलिए भी जरूरी है कि हो सकता है कि हम उसे स्वयं जाल ही न समझ रहे हों, हम समझ रहे हों कि वहीं हमारी स्वतंत्रता है, वही हमारी सुरक्षा है। तब तो और कठिनाई हो जाती है, और मुश्किल हो जाती है। कौनसा जाल हमारे चित्त को बांधे हुए है और हम परतंत्र हैं?
 
कुछ तीन बातें आज की संध्या आपसे कहूंगा इस संबंध में। पहली बातः जो एक बहुत जटिल जाल की तरह मनुष्य को घेर लेती है और जिसका हमें कभी खयाल भी पैदा नहीं होता, और जिसके संबंध में हमें कभी विचार भी पैदा नहीं होता, और जिसके संबंध में कोई हमें चेताए तो शायद हम नाराज होंगे, हम उससे प्रसन्न भी नहीं होंगे। वह एक बहुत अजीब बात है, बहुत सीधी और सरल। लेकिन बहुत अजीब और वह यह है कि हम साधारणतः यंत्र की भांति जीते हैं, मशीनों की भांति। लेकिन हमको यह भ्रम होता है कि हम मनुष्य हैं और हम स्वतंत्र है। साधारणतः मनुष्य एक यंत्र की भांति जीता है। लेकिन वह सोचता है कि मैं यंत्र नहीं हूं, मैं आत्मा हूं। साधारणतः वह सोचता है कि मैं जो कर रहा हूं मैं कर रहा हूं, लेकिन सच्चाई यह है कि हमसे कर्म होते हैं हम उन्हें करते नहीं। यदि हम कर्मों को करने में समर्थ हो जाएं तो हम स्वतंत्र हो जाएंगे। लेकिन हम कर्मों को करने में स्वतंत्र नहीं। हम करीब-करीब उसी तरह यंत्र चालित हैं जैसे कोई बटन को दबा दे और बिजली जल जाए, कोई मोटर को चला दे और मोटर चल जाए।
 
हमारा जीवन भी बाहर से अनुप्रेरित है, बाहर कुछ घटनाएं घटती हैं और हमारा जीवन भी उनके अनुसार ही उनकी प्रतिक्रिया में, रिएक्शन में संचालित हो जाता है। एक आदमी आपको धक्का दे देता है आप कहते हैं कि धक्का उसने मुझे दिया तो मुझे क्रोध आ गया, लेकिन क्या कभी आपने सोचा है ये क्रोध के करने वाले आप हैं या क्रोध उसी तरह यंत्र की भांति पैदा होता है जैसे बटन के दबाने से बिजली जल जाती है। धक्का देने पर क्रोध का पैदा होना बिलकुल मैकेनिकल, बिलकुल यांत्रिक है। उसमें आपने कुछ किया नहीं है। यह कहना भूल है कि मैंने क्रोध किया, यही कहना उचित है कि मुझमें क्रोध जागा है, करने का भ्रम बहुत खतरनाक है। आप कहते हैं, मुझे फलां व्यक्ति से प्रेम है। लेकिन शायद ही कभी आपने सोचा होगा कि प्रेम आप कर रहे हैं या कि प्रेम हो गया है? आप प्रेम के करने वाले हैं या कि एक मशीन की भांति संचालित हो गए हैं? और आपके द्वारा प्रेम हो रहा है।
 
बुद्ध एक गांव के पास से निकलते थे, कुछ लोगों ने उनके ऊपर पत्थर फेंके और उन्हें गालियां दीं और अपमानित किया। बुद्ध ने उन मित्रों से कहा, मुझे दूसरे गांव जल्दी जाना है, अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई हो, तो मैं जाऊं? या तुम्हारे पत्थर अगर तुम्हें और फेंकने बाकी हों तो मैं थोड़ा और रुकंू। लेकिन ज्यादा देर मैं न रुक सकूंगा, दूसरे गांव मुझे जल्दी पहुंचना है। उन लोगों ने कहाः हमने न तो कोई बातें कहीं हमने तो स्पष्ट ही अपमान किया है और गालियां दी हैं और हमने पत्थर फेंके हैं, लेकिन क्या आपको यह दिखाई नहीं पड़ता कि ये गालियां हैं, अपमान है? और आपकी आंखों में कोई क्रोध दिखाई नहीं पड़ रहा है।
बुद्ध ने कहाः अगर दस वर्ष पहले तुम आए होते, तो तुम मुझे क्रोधित करने में समर्थ हो जाते, क्योंकि तब मैं था ही नहीं, तब मेरे भीतर सारी क्रियाएं यांत्रिक थीं। मुझे कोई गुदगुदा देता तो मुझे हंसी आती, और मेरा कोई आदर करता तो मैं प्रसन्न होता, और मुझे कोई गालियां देता तो मैं अपमानित होता। ये सारी क्रियाएं बिलकुल यंत्र की भांति होती हैं, मैं इनका मालिक नहीं। लेकिन तुम थोड़ी देर करके आए हो, अब मैं अपना मालिक हो गया हूं। अब कुछ भी मेरे भीतर होता नहीं, जो मैं करना चाहता हूं वही होता है। जो मैं करना चाहता हूं वही होता है। जो मैं नहीं करना चाहता अगर वह मेरे भीतर होता हो तो उसे कर्म नहीं कहा जा सकता, वह एक्शन नहीं है, वह रिएक्शन है, वह प्रतिक्रिया है, प्रतिकर्म है।
 
हमारे जीवन में सब प्रतिक्रियाएं हैं, हमारे जीवन में कोई कर्म नहीं है। और जिसके जीवन में प्रतिक्रियाएं हैं कर्म नहीं है उसके जीवन में कोई स्वतंत्रता संभव नहीं हो सकती, वह एक मशीन की भांति है, वह अभी मनुष्य नहीं है। क्या आपको कोई स्मरण आता है कि आपने कभी कोई कर्म किया हो, कोई एक्शन कभी किया हो जो आपके भीतर से जन्मा हो, जो बाहर की किसी घटना की प्रतिक्रिया हो, प्रतिध्वनि न हो? शायद ही आपको कोई ऐसी घटना याद आए जिसके आप करने वाले मालिक हो। और अगर आपके भीतर आपके जीवन में कोई ऐसी घटना नहीं है जिसके आप मालिक हैं, तो बड़े आश्चर्य की बात है, फिर बड़ी हैरानी की बात है। लेकिन हम सब सोचते इसी भांति हैं कि हम मालिक हैं, हम सोचते इसी भांति हैं कि हम कुछ कर रहे हैं, हम सोचते इसी भांति हैं कि हम अपने कर्मों के करने में स्वतंत्र हैं। जब कि हमारा सारा जीवन एक यंत्रवत, एक मशीन की भांति चलता है। हमारा प्रेम, हमारी घृणा, हमारा क्रोध, हमारी मित्रता, हमारी शत्रुता, सब यांत्रिक है, मैकेनिकल है, उसमें कहीं कोई कांशसनेस, कहीं कोई चेतना का कोई अस्तित्व नहीं। लेकिन इन सारे कर्मों को करके हम सोचते हैं कि हम कर्ता हैं।
मैं कुछ कर रहा हूं और यह करने का भ्रम हमारी सबसे बड़ी परतंत्रता बन जाती है। यही वह खूंटी बन जाती है जिसके द्वारा फिर हम कभी जीवन में स्वतंत्र होने में समर्थ नहीं हो पाते। और यही वह वजह बन जाती है कि जिसके द्वारा कभी हम अपने मालिक नहीं हो पाते। शायद आप सोचते हों कि जो विचार आप सोचते हैं उनको आप सोच रहे हैं, तो आप गलती में हैं। एकाध विचार को अलग करने कि कोशिश करें, तो आपको पता चल जाएगा कि आप विचारों के भी मालिक नहीं हैं। वे भी आ रहे हैं और जा रहे हैं जैसे समुद्र में लहरें उठ रहीं हैं और गिर रही हैं। जैसे आकाश में बादल घिर रहे हैं और मिट रहे हैं। जैसे दरख्तों में पत्ते लग रहे हैं और झड़ रहे हैं। वैसे ही विचार भी आ रहे हैं और जा रहे हैं, आप उनके मालिक नहीं हैं।
इसलिए विचारक होने का केवल भ्रम है आपको, आप विचारक हैं नहीं। विचारक तो आप तभी हो सकते हैं जब आप अपने विचारों के मालिक हों। लेकिन एक विचार को भी अलग करने की कोशिश करें तब आपको पता चलेगा कि वह अलग होने से इनकार कर देगा। और तब आपको अपनी असमर्थता और कमजोरी का बोध होगा। और तब शायद आप समझेंगे। जैसे सांझ पक्षी वृक्ष पर आकर डेरा ले लेते हैं वैसे ही चारों तरफ उड़ते हुए विचार भी आपके मन पर बसेरा कर लेते हैं। लेकिन आप उनके मालिक नहीं हैं। और क्या कभी आपको खयाल आया कि एकाध विचार आपके भीतर भी पैदा हुआ हो, कोई एकाध विचार आपका भी है, या कि सब विचार दूसरों के हैं और उधार हैं? अगर आपके भीतर कभी भी एक विचार का जन्म न हुआ हो जिसको आप कह सकें यह मेरा है, तो आप निश्चित जान लें, ये विचार जो आपको अपने मालूम होते हैं आपके नहीं हैं सब उधार हैं और सब बाहर से आए हुए हैं।
न तो कर्म हमारे हैं, वे यांत्रिक हैं। और न विचार हमारे हैं, वे संगृहीत हैं। और इन्हीं कर्मों और इन्हीं विचारों के कारण हम अपने को कर्ता और विचारक समझ लेते हैं। और जो ऐसा समझ लेता है वह यहीं रुक जाता है और उसकी आगे की यात्रा बंद हो जाती है।
ये दो बातें पहले सूत्र में जान लेनी जरूरी हैं, कि न तो कर्म और न विचार हमारी मालकियत है, हमारी ताकत उस पर जरा भी नहीं हैं।
एक रात एक होटल में एक नया मेहमान आकर ठहरा, ठहरते समय होटल के मालिक ने उसको कहा, मित्र, कहीं और ठहर जाएं, इस होटल में एक ही कमरा केवल खाली है वह हम आपको दे सकते हैं, लेकिन उसमें थोड़ी कठिनाई और अड़चन है। उसके नीचे जो मेहमान ठहरा हुआ है अगर आप थोड़े ऊपर हिले-डुले भी, थोड़ी आवाज भी हो गई, तो उससे झगड़ा हो जाने की संभावना है। पहले भी जो लोग उस कमरे में ठहराए गए हैं उनसे नीचे के मेहमान का झगड़ा हो गया। और इसलिए जब तक नीचे का मेहमान ठहरा हुआ है हमने तय किया है कि ऊपर के कमरे को खाली रखें। उस नये अतिथि ने कहाः कोई संभावना नहीं है कि मेरा उनसे झगड़ा हो जाएं, दिन भर मैं काम में व्यस्त रहूंगा रात लौटूंगा, दो-चार घंटे सोकर सुबह ही मुझे अपनी यात्रा पर आगे निकल जाना है। इसलिए कमरा दे दें, कोई चिंता झगड़े की न करें।
कमरा दे दिया गया। वह मेहमान दिन भर गांव में काम करके रात लौटा, कोई बारह बज गए होंगे, वह थका-मांदा आया, उसे नीचे के मेहमान का कोई खयाल भी नहीं रहा, वह आकर बिस्तर पर बैठा, उसने अपना जूता खोल कर जूता नीचे पटका। जूते की आवाज जैसे ही फर्श पर हुई, उसे खयाल आया, कहीं नीचे के व्यक्ति की नींद न खुल जाए। उसने दूसरा जूता आहिस्ता से खोल कर चुपचाप रख दिया और सो गया। कोई दो घंटे बाद नीचे के आदमी ने आकर उसका दरवाजा भड़भड़ाया। वह नींद से उठा, परेशान हुआ कि सोते में मुझसे क्या भूल हो गई होगी? उसने दरवाजा खोला। नीचे के मेहमान ने कहाः महानुभाव, आपका एक जूता तो गिरा तो मैंने समझा कि आप आ गए हैं, लेकिन दूसरे जूते का क्या हुआ? मेरी नींद खराब कर दी। मैंने बहुत कोशिश की कि मुझे किसी के जूते से क्या लेना-देना? मैंने इस विचार को निकालने की बहुत कोशिश की कि मुझे क्या मतलब है कि किसी के दूसरे के जूते का क्या हुआ, क्या नहीं हुआ? कुछ भी हुआ हो। लेकिन जितना ही मैं इस विचार को निकालने की कोशिश करने लगा उतनी ही मुसीबत में पड़ गया। मेरी सारी नींद धीरे-धीरे उड़ गई और मुझे आपका दूसरा जूता हवा में लटका हुआ दिखाई पड़ने लगा, क्योंकि वह गिरा नहीं! मैंने उस जूते को हटाने की बहुत कोशिश की अपने मन से, लेकिन मैं आंख बंद करता और आपका जूता मुझे लटका हुआ दिखाई पड़ता। और मेरे मन में खयाल आता उस दूसरे जूते का क्या हुआ? आखिर कोई रास्ता न देख कर मैं आया हूं आपसे पूछने, क्षमा करें, क्योंकि नींद आपकी मैंने तोड़ी, लेकिन सिवाय इसके कोई रास्ता नहीं था कि दूसरे जूते के संबंध में मेरी जिज्ञासा समाप्त हो जाए, तो मैं जाकर निशिं्चतता से सो सकूं। उसने कहा कि मैंने बहुत कोशिश की उस दूसरे जूते के विचार को छोड़ने की, लेकिन उस विचार को हटाना संभव नहीं हुआ।
आप भी ऐसे बहुत से विचारों से परिचित होंगे जिनको हटाना संभव नही हुआ होगा। जिनको हटाने में आप समर्थ नहीं हो सकेंगे। तो क्या कारण है कि उन विचारों के मालिक होने का भ्रम हम अपने भीतर पैदा करें? कौन सी वजह है कि मैं समझूं कि वे विचार मेरे हैं और मैं उनका मालिक हूं? यदि मैं विचारों का मालिक हूं तो मैं जब चाहूं तब विचार बंद हो जाने चाहिए और जब चाहूं तब वे चलने चाहिए। और अगर मैं न चाहूं कि विचार चलें, तो मेरा मन शांत और पूर्ण मौन हो जाना चाहिए। कोशिश करके देखें, तो एक क्षण भी मौन होना संभव नहीं होगा। एक क्षण भी विचारों की धारा को रोकना आसान नहीं है। एक विचार को भी बाहर फेंक देना आसान नहीं है। सच्चाई तो यह है कि जिस विचार को आप बाहर फेंकना चाहेंगे उसी विचार से आपकी शत्रुता खड़ी हो जाएगी। और आप पाएंगे कि वह विचार बलपूर्वक आपके भीतर प्रवेश कर रहा है। और आप पाएंगे कि आप हार गए हैं और वह विचार जीत गया है। जिन विचारों को हम हटाना चाहते हैं वे लौट-लौट कर आ जाते हैं और इस बात की घोषणा करते हैं कि आप मालिक नहीं हो। लेकिन जिंदगी भर इस बात को सुनने और समझने के बाद भी हमको यह भ्रम बना रहता है कि अपने विचारों के हम मालिक हैं।
 
एक फकीर हुआ, नसरुद्दीन। वह एक सांझ अपने घर के बाहर निकल रहा था और तभी उसने देखा कि जलाल नाम का उसका एक दूसरे गांव का मित्र उसके द्वार पर आकर खड़ा हो गया। नसरुद्दीन ने कहा कि जलाल, बहुत दिनों बाद तुम आए हो, तुम ठहरो घर पर मैं कुछ मित्रों से जरूरी मिलने जा रहा हूं। उनसे मिल कर मैं कोई तीन घंटे बाद वापस लौटूंगा। तब तुमसे मिल सकूंगा। या तुम्हारी मर्जी हो तो तुम भी मेरे साथ चले चलो, कुछ मित्रों से मिलना हो जाएगा और रास्ते में तुमसे बातचीत भी होती रहेगी। जलाल ने कहा कि मेरे कपड़े धूल भरे हो गए हैं, रास्ते भर पसीने से मैं डूब गया हूं, इन कपड़ों को पहन कर किसी के घर जाना उचित न होगा। अगर तुम दूसरे कपड़े मुझे दे सको तो मैं उनको पहन लूं और तुम्हारे साथ चलूं। नसरुद्दीन ने अपने पास...उसके पास जो सबसे अच्छा कोट था, अच्छे कपड़े थे, वे अपने मित्र को पहना दिए और उनको पहना कर वह अपने गांव में जहां मिलने जाने को था वहां गया।
वह पहले घर में पहुंचा। उसने जाकर उस भवन के मालिक को कहा कि ये हैं मेरे मित्र, मैं इनसे परिचय करा दूं, ये हैं जलाल, मेरे बहुत पुराने मित्र हैं। और यह जो कोट और कपड़े पहने हुए हैं, ये मेरे हैं।
जलाल को बहुत परेशानी हुई होगी। बाहर निकलने पर उसने कहा कि तुम आदमी कैसे हो, इस बात को कहने कि क्या जरूरत थी कि कपड़े किसके हैं। इतना ही काफी था कि तुम मेरे बाबत बता देते, मेरे कपड़ों के संबंध में बताने कि कोई जरूरत न थी। और अब दूसरे घर में खयाल रखना, मेरे कपड़ों के बाबत कुछ भी कहने कि आवश्यकता नहीं।
नसरुद्दीन दूसरे मकान में पहुंचा, उसने जाकर कहाः ये हैं मेरे मित्र जलाल, इनसे मिलिए, रही कपड़ों की बात, सो कपड़े इनके ही हैं, मेरे नहीं हैं।
जलाल तो बहुत परेशान हो गया। बाहर निकल कर उसने कहा कि तुम पागल तो नहीं हो, इस बात को बताने कि क्या जरूरत थी कि कपड़े मेरे हैं?नसरुद्दीन ने कहा कि मैंने तो बहुत रोकने की कोशिश की, लेकिन यह विचार एकदम से मेरे भीतर घूमने लगा कि पहली दफे मैंने गलती कर दी है कह कर कि कपड़े मेरे हैं, तो भूल सुधार कर लूं और कह दूं के ये कपड़े इन्हीं के हैं। जलाल ने कहा कि देखो, बस अगले घर में इसकी कोई भी चर्चा उठानी उचित नहीं हैं। बिलकुल कोई बात उठानी उचित नहीं हैं। न तुम्हारे, न मेरे। इनकी बात ही मत उठाना।
वे तीसरे घर में गए। नसरुद्दीन ने कहा कि ये रहे मेरे पुराने मित्र जलाल, रही कपड़ों की बात, सो उठाना बिलकुल उचित ही नहीं है कि किसके हैं?बाहर निकल कर जलाल ने कहा कि अब मुझे तुमसे कुछ भी नहीं कहना है। लेकिन तुम आदमी कैसे हो? कपड़ों कि बात क्यों उठाई?उसने कहाः मैंने तो बहुत अपने को रोका, लेकिन कठिनाई यह हो गई कि यह रोकने की कोशिश से ही सारी मुसीबत हो गई। रोकते-रोकते यह बात मेरे मुंह से निकल गई कि कपड़ों की बात उठानी उचित नहीं है, किसी के भी हों। और इसका एक ही कारण मुझे दिखाई पड़ता है और वह यह है कि मैं इस बात को रोकने की कोशिश कर रहा था।
जिस विचार को आप रोकने की कोशिश करेंगे आप पाएंगे कि वह बड़ी ताकत से उठना शुरू हो गया है। देखें और करें और पता चल जाएगा, जिन विचारों को हम निषेध करते हैं वे विचार बड़ा आकर्षण ले लेते हैं, उनमें बड़े प्राण आ जाते हैं, और वे बड़े बलपूर्वक हमारे भीतर उठना शुरू हो जाते हैं। लेकिन एक बात हमें इस घटना से जो खयाल आनी चाहिए वह नहीं आती, वह यह है कि विचारों के हम मालिक नहीं हैं। अगर हम मालिक होते तो हम कहते रुक जाओ और विचार रुक जाते और हम कहते चलो तो विचार चलते। लेकिन हम सभी को यह खयाल है कि मैं विचारक हूं, मैं सोचता हूं। हममें से कोई भी सोचता नहीं है, क्योंकि जो सोचेगा उसके जीवन में तो एक क्रांति घटित हो जाएगी। जो सोचेगा उसका तो जीवन बदलजाएगा। जो विचार करने में समर्थ हो जाएगा वह तो स्वतंत्र हो जाएगा। क्योंकि स्वतंत्रता और विचार करने की सामथ्र्य एक ही चीज के दो नाम हैं।
यह भ्रम छोड़ दें कि आप विचार करते हैं। यह भ्रम बिलकुल छोड़ दें कि आप विचार करते हैं, क्योंकि विचार अगर आप करते होते तो आपके जीवन में दुख और चिंता और तनाव खोजे से भी नहीं मिल सकते थे। कौन चाहता है कि दुखी हो? लेकिन वे विचार जो दुख देते हैं उनके ऊपर हमारी कोई मालकियत नहीं है। इसलिए उन्हें हम दूर करने में असमर्थ हैं। कौन चाहता है कि चिंतित हो? लेकिन चिंताएं हमें घेरती हैं और हम उन्हें दूर करने में असमर्थ हैं। कौन चाहता है कि तनाव से भरा रहे, अशांत रहे, पीड़ित रहे? कोई भी नहीं चाहता। अगर हम मालिक होते विचार के तो हम इन सारी बातों को कभी का विदा कर देते। लेकिन हम मालिक नहीं हैं। और भ्रम हमें यह है कि हम मालिक हैं। ये भ्रम की खूंटी हमारे जीवन को बहुत नीचे जमीन से बांध रखती हैं, ऊपर नहीं उठने देती। ये खूंटी बिलकुल झूठी हैं, ये कहीं भी नहीं हैं। विचारक आप नहीं हैं और न हीं आप कर्ता हैं। लेकिन हमें यह भी खयाल है कि मैं कर रहा हूं। मैं यह कर रहा हूं, मैं वह कर रहा हूं। हमें न मालूम कितनी-कितनी बातों के करने के भ्रम हैं।
 
हमारी जिंदगी में जिन चीजों के हमारे करने का कोई भी संबंध नहीं है उनको भी हम कहते हैं।।मैं किसी से कहता हूं, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। क्या कोई आदमी कभी किसी को प्रेम कर सकता है? क्या आपके बस में है कि आप किसी को प्रेम कर सकें? और अगर आपसे कहा जाए कि फलां व्यक्ति को प्रेम करो, तब आपको पता चलेगा कि यह आपके बस में नहीं है कि आप प्रेम कर सकें। आप मुश्किल में पड़ जाएंगे अगर आपको किसी से प्रेम करने का आदेश दे दिया जाए। आप अपनी सारी ताकत लगा कर हार जाएंगे। और आप हैरान होंगे, जितनी आप कोशिश करते हैं प्रेम करने की उतना ही प्रेम दूर होता चला जाएगा। आपको पता चलेगा आपके हाथों में प्रेम बंध नहीं पाता है, आपकी बाहों में प्रेम बंध नहीं पाता है। आप प्रेम नहीं कर सकते हैं। अगर आपसे कहा जाए कि किसी पर क्रोध करो, तो क्या आप कोशिश करके क्रोध कर सकते हैं? अगर आप कोशिश करके क्रोध नहीं कर सकते हैं, तो फिर आपको यह भ्रम ही होगा कि मैं क्रोध करता हूं। अगर आपको मैं कहूं कि यह व्यक्ति सामने खड़ा है, इस पर क्रोध करिए, तो आप सारी कोशिश करके हाथ-पैर पटक कर हार जाएंगे। आंखों को कितना ही बड़ा करिए, हाथ-पैर कितने ही जोर से पटकिए, मुठ्ठियां बांधिए, लेकिन आप भीतर पाएंगे क्रोध का कोई पता नहीं है। आप मालिक नहीं हैं।।न क्रोध के, न प्रेम के, न घृणा के। ये सारी घटनाएं घटती हैं। जैसे आकाश से पानी गिरता है और हवाएं बहती हैं उसी तरह और इन सबके हम करने वाले बन जाते हैं और कहने लगते हैं मैं करता हूं। और जब हमें यह भ्रम पैदा हो जाता है कि मैं इनका करने वाला हूं, तब एक बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती है। जो कि झूठे भ्रम बंधन का कारण हो जाते हैं। और झूठे भ्रम एक नई मुसीबत पैदा कर देते हैं।
अगर आपको यह खयाल पैदा हो जाए कि मैं क्रोध करता हूं, तो थोड़े-बहुत दिनों में आपको यह भी खयाल पैदा होना शुरू हो जाएगा कि मैं चाहूं तो क्रोध पर विजय भी पा सकता हूं। तो आप कोशिश में लग जाएंगे क्रोध को दबाने की, क्रोध को मिटाने की, क्रोध को हटाने की। जब कि बुनियादी रूप से आपने कभी क्रोध किया ही नहीं था, आप कभी मालिक ही नहीं थे क्रोध के करने के, तो आप क्रोध को हटाने के मालिक कैसे हो सकते है? अगर आप क्रोध करने वाले होते, तो आप क्रोध को हटा भी सकते थे। अगर आप प्रेम करने वाले होते, तो आप प्रेम को हटा भी सकते थे। लेकिन न तो आप क्रोध करने वाले थे और न प्रेम करने वाले थे। यह भ्रम था। इसलिए इनको हटाने की बात भी व्यर्थ है, इनको आप हटा नहीं सकेंगे। कर्म जो हमें लगता है कि मैं कर रहा हूं वह हम करते नहीं बल्कि हमसे करा लिया जाता है। अचेतन प्रकृति यांत्रिक रूप से काम करती है और हम कुछ करते चले जाते हैं।
 
एक बच्चा जवान होता है और जवान होते से उसके भीतर सेक्स और काम का जन्म होता है, लेकिन सोचता वह यही है कि जिस लड़की को वह प्रेम कर रहा है, वह प्रेम कर रहा है, सोचता वह यही है, खयाल उसको यही होता है कि यह मैं कर रहा हूं। लेकिन बड़ी अचेतन, बड़ी अनकांशस शक्तियां हमारे भीतर काम करती हैं और वे हमें ढकेलती हैं एक दिशा में, धक्के देती हैं, और हम उसके साथ में चले जाते हैं। और हम सोचतें हैं कि यह हम कर रहे हैं। श्वास आती है और जाती है, लेकिन हम सोचते हैं, मैं श्वास ले रहा हूं। हम सभी यही सोचते हैं कि मैं श्वास ले रहा हूं। अगर मैं श्वास ले रहा हूं तब तो मौत असंभव हो जाएगी। क्योंकि मैं श्वास लेता ही चला जाऊंगा, मौत सामने आकर खड़ी रहेगी। लेकिन मैं श्वास लेना बंद न करूंगा, तो फिर क्या होगा, मौत को लौट जाना पड़ेगा? लेकिन मौत आज तक नहीं लौटी। क्योंकि मौत जब आती है तब हमें पता चलता है कि श्वास हम ले नहीं रहे थे।।श्वास आ रही थी, जा रही थी। और यह हमारा भ्रम था कि हम ले रहे हैं। लेकिन यह भ्रम तभी टूटता है जब श्वास ही आनी बंद हो जाती है। यह श्वास के टूटने के साथ ही टूटता है।
जीवन भर हमें यही खयाल है कि मैं श्वास ले रहा हूं। यह खून जो आपकी नसों में बह रहा है, आप बहा रहे हैं? यह हृदय जो आपका धड़क रहा है, आप धड़का रहे हैं? यह जो नाड़ी में गति है, यह आप कर रहे हैं? नहीं, सब यंत्र की भांति हो रहा है, जिस पर हमारी कोई मालकियत नहीं है। यह हमारी स्थिति है कि न तो विचार हमारे हैं, न जीवन, न श्वास, न कर्म, लेकिन हम सभी को यह खयाल है कि ये हमारे हैं। और उस खयाल से बंध कर बड़ी कठिनाई हो जाती है। क्योंकि वह खयाल एकदम झूठा और मिथ्या है। लेकिन क्या मैं यह कहना चाहता हूं कि आपका कोई भी वश नहीं है? क्या मैं यह कहना चाहता हूं कि तब आप हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाएं और कुछ न करें? क्या मैं यह कहना चाहता हूं कि आप निराश हो जाएं? नहीं, बल्कि मैं यह कहना चाहता हूं कि अगर आपको यह सारी बात दिखाई पड़नी शुरू हो जाए, अगर इस सारी बात की समझ, अंडरस्टैंडिंग, इस बात का होश आपमें पैदा हो जाए, तो आपके भीतर उस किरण का जन्म हो जाएगा जो विचार भी कर सकती है और कर्म भी कर सकती है। लेकिन इस बोध के द्वारा ही उस किरण का जन्म हो सकता है, जो आपको सचेतन जीवन दे सकती है, यांत्रिक जीवन से ऊपर उठा सकती हैं।
 
सबसे पहले...लेकिन इस यांत्रिक-स्थिति के प्रति जागरूक होना होगा। इस यांत्रिक-स्थिति को पूरी तरह समझ लेना होगा, पहचान लेना होगा। इसका पूरा ऑब्जर्वेशन जरूरी है, इसका पूरा निरीक्षण जरूरी है। जीवन में निरीक्षण हमारे बिलकुल भी नहीं है। हम शायद कभी आंख खोल कर भी नहीं देखते कि जीवन में क्या हो रहा है? और यह जीवन क्या है? शायद हम पुरानी कथाओं को और पुरानी मैथोलॉजी को और पुराने चलते हुए अंधविश्वासों को पकड़ लेते हैं और खुद के जीवन का कोई निरीक्षण नहीं करते हैं। बचपन से हमें कह दिया जाता हैं कि देखो क्रोध मत करो, तो बच्चा शायद सोच लेता है कि मैं क्रोध कर रहा हूं इसलिए मेरे मां-बाप मुझसे कहते हैं कि क्रोध मत करो। उसे क्रोध करने का भ्रम पैदा हो जाता है। बचपन से हमें सिखाया जाता है अच्छे विचार करो, बुरे विचार मत करो।
छोटे-छोटे बच्चों को यह खयाल पैदा हो जाता है कि विचारों के हम मालिक हैं। अच्छा विचार करना या बुरा विचार करना मेरी ताकत है, मेरे बस में है। और फिर इन्हीं बचपन में पाली गई अंध-धारणाओं को हम जीवन भर ढोते हैं।
लेकिन मैं आपसे यह निवेदन करूं, साधारणतः जब तक मनुष्य की आत्मा सचेतन न हो, जब तक मनुष्य का बोध जागरूक न हो, तब तक न तो कर्म उसके होते हैं, न विचार उसके होते हैं। जो आदमी सोया हुआ है उस आदमी की कोई ताकत नहीं हैं, सोए हुए आदमी का कोई वश नहीं है, उसकी कोई शक्ति नहीं है। वह बिलकुल अशक्त, बिलकुल नपुंसक है, उसके भीतर कोई सत्व नहीं है। सोया हुआ आदमी जैसे अपने मन के सपने नहीं देख सकता, जो भी सपने आते हैं वही उसे देखने पड़ते हैं। क्या कभी आपने यह सोचा कि आप अपने मन के सपने देख सकते हैं? क्या कभी आपने यह कोशिश की कि मैं अपने मन के सपने देखूं? क्या कभी आपने जो सपने देखना चाहे वहीं देखे? नहीं, सपने आते हैं; और जो आते हैं वहीं हमें देखने पड़ते हैं। क्योंकि सोया हुआ आदमी कुछ भी नहीं कर सकता। जैसे सोया हुआ आदमी सपने देखने में समर्थ नहीं है वैसे ही साधारणतः हम भी जीवन में सोए हुए लोग हैं। जिनका निरीक्षण जागा हुआ नहीं है, जिनका बोध जागा हुआ नहीं है, हम भी जीवन में कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं। और यह सबसे बड़ी भ्रांति है कि हम सोचते हैं कि हम करने में समर्थ हैं। और इस भ्रांति के कारण फिर सारे जीवन, सारे जीवन हम एक ऐसी दीवाल से सिर टकराते रहते हैं जिसका कोई फल नहीं हो सकता।
तो सबसे पहली और बुनियादी बात जाननी जरूरी हैः मनुष्य एक यंत्र है, जैसा कि मनुष्य है, वह एक यंत्र है। और उसकी कोई सामथ्र्य नहीं है।।न विचार पर और न कर्म पर। लेकिन यदि यह बोध हमारे भीतर पैदा हो जाए, तो यह बोध ही हमें यंत्र के ऊपर उठने का मार्ग बन जाता है।
 
मनुष्य यंत्र है, लेकिन यंत्र ही होने को आबद्ध नहीं है; चाहे तो एक सचेतन आत्मा भी हो सकता है। लेकिन उस होने की यात्रा में पहला कदम यह होगा कि वह जान ले। क्या आपको यह कभी खयाल है कि नींद में जब आपका सपना चलता हो, अगर आपको यह पता चल जाए कि यह सपना है, तो इसका क्या मतलब होगा? इसका मतलब होगा कि नींद टूट गई। अगर आपको यह पता चल जाए कि जो मैं देख रहा हूं वह सपना है, तो इसका मतलब यह हुआ कि नींद टूट गई। अगर आपको यह पता चल जाए कि मेरी जिंदगी जो मैं जी रहा हूं एक यांत्रिक जिंदगी है, एक मैकेनिकल लाइफ है, तो आप समझ लेना कि आपकी जिंदगी में यांत्रिकता का समाप्ति का क्षण आ गया, आपके भीतर एक नई किरण का जन्म हो गया।
नींद में पतानहीं चलता कि मैं सपना देख रहा हूं, यही पता चलता है कि जो देख रहा हूं वह सत्य है। यही नींद का सबूत है। यह पता चलता है कि जो मैं देख रहा हूं वह सत्य है। और जिस क्षण यह पता चल जाए कि जो मैं देख रहा हूं वह सपना है, झूठा है, आप जान लेना आपके भीतर जागरण शुरू हो गया है, आपने जागना शुरू कर दिया है।
इसलिए आज की चर्चा में मैं आपसे यही कहना चाहता हूं कि हमारी जिंदगी एक यांत्रिक जिंदगी है। जिसमें हम बाहर के धक्कों पर जीते हैं। जिसमें हम बाहर के द्वारा संचालित होते हैं। जिसमें बाहर से कोई हमारे धागे खींचता है और हमारे प्राण उसी भांति गति करने लगते हैं। लेकिन ऐसी जिंदगी परतंत्र जिंदगी है। स्वतंत्र जीवन तो वह है जो भीतर से जीआ जाता है बाहर से नहीं।
 
गुरजिएफ नाम का एक फकीर कॉकेसस के एक गांव में ठहरा हुआ था। एक आदमी ने आकर उससे ऐसे अपशब्द कहे, जो प्राणों में कांटों की भांति छिद जाएं। जितनी तीखी गालियां हो सकती थीं उस भाषा में उसने उपयोग की। गुरजिएफ ने बैठ कर सारी बात सुनी, सुनने के बाद उससे कहा कि मित्र, एक दफा सारी बातें फिर से दोहरा दो, हो सकता है कोई बात मैं ठीक से सुन न पाया हूं। उस आदमी ने कहाः ये बातें, ये बातें भी कोई फिर से दोहरा कर सुनी जाने की हैं? गुरजिएफ ने कहाः बहुमूल्य बातें तुम लाए हो और उनको कहने में बड़ी मेहनत कर रहे हो। तुम्हारी आंखों में आग जल रही है, तुम्हारे हृदय में भी आग होगी। और तुम बड़ा कष्ट उठा रहे हो और मैं उनको शांति से भी न सुन सकूं, यह तो बड़ी अशिष्टता होगी। लेकिन हो सकता है, तुम इतने क्रोध में हो और इतनी जल्दी में कि कुछ बातें मैं न सुन पाया हूं, तो तुम उनको फिर एक दफा दोहरा दो, ताकि मैं उनको ठीक से सुन लूं। रही उत्तर की बात, तो उत्तर मैं तुम्हें कल दूंगा। कम से कम चैबीस घंटा तो मुझे सोचने का मौका दो। और अगर मैं न आऊं तो तुम समझ लेना कि तुमने जो बातें कहीं थीं वे सही थीं। और अगर कोई बात गलत होगी, तो मैं आकर तुमको निवेदन कर दूंगा।
 
वह आदमी तो हैरान हुआ होगा। क्रोध की बातों के लिए कोई एक क्षण भी रुक कर कभी सोचता है? कोई गाली देता और हमारे भीतर आग लग जाती है। क्या उसके गाली देने में हमारे भीतर आग लगने में क्षण भर का भी अंतराल, इंटरवल होता है? नहीं होता, उसने वहां गाली दी, हमारे भीतर आग लगनी शुरू हो गई। वैसे जैसे किसी ने आग लगा दी हो और लकड़ी जलना शुरू हो जाए। क्या क्षण भर का भी मौका होता है सोच-विचार का? नहीं होता है। और इसलिए तो हमारा सारा जीवन यांत्रिक है।।उसमें विचार का, जागरण का, बोध का क्षण भी नहीं है। चीजें बाहर घटती हैं और हमारे भीतर काम शुरू हो जाता है।
लेकिन गुरजिएफ ने कहा कि मैं कल आकर उत्तर दे दूंगा। वह कल गया, लेकिन इस बीच चैबीस घंटे में वह आदमी बदल गया था जिसने गालियां दी थीं। क्योंकि जिसने हमें गालियां दी हैं, अगर हम गालियों का उत्तर न दें, तो उस आदमी के क्रोध के जीने में और आगे जीते रहने में कठिनाई हो जाती है। हम उसके सहारे नहीं रह जाते। उसकी आग और आगे जले इसकी गुंजाइश नहीं रह जाती। गुरजिएफ जब दूसरे दिन उसके पास गया, तो वह आदमी रोने लगा और उसने कहाः मैंने बहुत गलत बातें कहीं। गुरजिएफ ने कहा कि तुमने कहीं हों, मुझे पता नहीं, लेकिन कई बातें तुमने बड़ी सही कहीं थीं, उनके लिए धन्यवाद देने आया हूं। और जो बातें मुझे लगता है तुमने गलत कहीं थीं, उन पर मैं अभी और सोचूंगा, इतनी जल्दी क्या है। हो सकता है उनमें से भी कोई बातें सही मिल जाएं। और तुमने मुझ पर इतनी कृपा की, उसके लिए धन्यवाद देने आया हूं। क्योंकि मित्र तो प्रशंसा करने वाले मिल जाते हैं, लेकिन कोई दोष देखने वाला मुश्किल से मिलता है। तुम्हारी कृपा है, आगे भी कृपा जारी रखना। और जब भी मुझमें तुम्हें कोई भूलें दिखाई पड़ें, तो जरूर मुझे चेता देना।
यह आदमी सोच रहा है। हम सोच रहे हैं? हम जरा भी नहीं सोच रहे हैं। और हमारा अंधा क्रम ऐसा है कि हमें यह भी दिखाई नहीं पड़ता। इस अंधे क्रम में, इस अंधे रास्ते पर यह भी हो सकता है कि मैं आपको गाली दूं, लेकिन आप मुझे उत्तर न दे सकें। तो आप किसी और को उत्तर दें और आपको यह खयाल में भी न आए कि आप यह क्या कर रहे हैं?एक आदमी अगर दफ्तर में काम करता हो और उसका मालिक उसे गाली दे दे और अपमान कर दे, तो मालिक के क्रोध का उत्तर कैसे दिया जा सकता है? वह क्रोध को पी जाएगा। क्रोध तो उठ आएगा भीतर, क्योंकि क्रोध न मालिक को देखता है और न किसी को देखता है। क्रोध तो भीतर जलने लगेगा। लेकिन साहस, सुरक्षा और बहुत से खयाल उसे भीतर दबा देंगे। वह क्रोध भीतर उबलता रहेगा। वह आदमी घर जाएगा। मालिक तो ताकतवर है। और जैसे नदी ऊपर की तरफ नहीं चढ़ सकती नीचे की तरफ बहती है, वैसे ही क्रोध भी नीचे की तरफ बहेगा। घर जाएगा, कमजोर पत्नी मिल जाएगी घर पर उसे, और कोई भी बहाना निकाल लेगा और कमजोर पत्नी पर टूट पड़ेगा, और उसे यह खयाल भी न आएगा कि यह जो क्रोध है, यह अंधा क्रोध, पत्नी से उसका कोई संबंध भी नहीं है। वह पत्नी पर टूट पड़ेगा। हो सकता है पत्नी को मारे या गालियां दे या अपमान करे। और पत्नी तो पति से क्या कह सकती है, उसे तो हमेशा सिखाया गया है कि पति है परमात्मा, इसलिए वह जो कहे सो सुनना और सहना। वह उस क्रोध को पी लेगी, लेकिन क्रोध भीतर जग जाएगा। और जैसे नदी नीचे की तरफ बहती है...उसका बच्चा जब स्कूल से लौट आएगा, तो कोई भी बहाना मिल जाएगा, और वह बच्चे को पीटना शुरू कर देगी। कमजोर है। बच्चे पर पत्नी का क्रोध निकलना शुरू हो जाएगा। और बच्चा क्या कर सकता है? मां के लिए कुछ भी नहीं कर सकता। हो सकता है वह अपनी गुड़िया की टांग तोड़ डाले या अपने बस्ते को पटक दे और स्लेट फोड़ दे।
ऐसा क्रोध अंधे की तरह बहता रहेगा। ऐसे हमारे सारे जीवन के भाव और विचार और भावनाएं और कर्म एक अंधे चक्कर में घूम रहे हैं।
इसे हमें सुन कर हंसी आती है, लेकिन आपने एक कहानी जरूर सुनी होगी, और आप उसमें हंसे भी होंगे। और आपको कभी खयाल न आया होगा कि यह कहानी आपके बाबत है। एक सुबह एक राजा का दरबार भरा था, और एक आदमी आया, और उसकी आंख से खून बह रहा था, उसकी एक आंख फूट गई थी। और उस आदमी ने आकर राजा के दरबार में कहा कि महाराज मुझ पर बड़ा अन्याय हो गया है। रात मैं एक घर में चोरी करने घुसा, लेकिन अंधेरा होने की वजह से मैं भूल से दूसरे घर में चला गया, वह दूसरा घर जुलाहे का था, और जुलाहे ने अपने कपास पीटने के यंत्र को खिड़की पर ही टांग रखा था, वह मेरी आंख में लग गया और मेरी आंख फूंट गई। अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। इस जुलाहे ने मेरी आंख फोड दी। आप जुलाहे को बुलाइए और उसको सजा दीजिए, ताकि न्याय पूरा हो सके।
राजा ने कहाः फौरन जुलाहे को पकड़ कर लाया जाए। यह तो हद्द बुरी बात है, यह बेचारा चोर अब क्या करेगा? इसकी आंख फूट गई! एक तो रात का इसका काम हमेशा था और अब एक आंख फूट जाने पर इसका क्या होगा? फौरन उस जुलाहे को दो सिपाही पकड़ कर ले आए। उस जुलाहे ने कहाः मेरे मालिक, कसूर तो मुझसे हो गया कि मैंने खिड़की पर अपना, अपना यंत्र टांग दिया, लेकिन आप देखिए कि मुझे दोनों आंखों कि जरूरत पड़ती है, कपड़ा सीते वक्त या कपड़ा बुनते वक्त मुझे दोनों तरफ दाएं-बाएं देखना पड़ता है। अगर मेरी एक आंख फोड़ दी गई, तो फिर कपड़ा बुनना मुश्किल हो जाएगा। तो ज्यादा अच्छा हो...मेरे पड़ोस में एक चमार रहता है और उसका काम ऐसा है जूता सीने का, कि एक आंख से भी चल सकता है, दो आंखों की कोई खास जरूरत भी नहीं है, तो उसको बुलवा कर आप एक आंख फोड़ दें। न्याय भी पूरा हो जाएगा। किसी को असुविधा भी न होगी। उस महाराजा ने कहाः बिलकुल ठीक! इससे उचित और क्या हो सकता है? उस चमार को बुलवा लो और उसकी आंख फोड़ दो। उस चमार को बुलवा लिया गया और उसकी आंख फोड़ दी गई। न्याय संतुष्ट हो गया।
 
यह कहानी आपने सुनी होगी। नहीं सुनी होगी, तो मैं आपसे कहता हूं। और यह कहानी आपको एकदम एब्सर्ड मालूम होगी, एकदम मूर्खतापूर्ण मालूम होगी कि वह महाराजा न मालूम पागल था या क्या था? इस तरह कहीं न्याय होता है? लेकिन मैं आपसे कहता हूं, वह पागल महाराजा हम सबके भीतर बैठा हुआ है। हम सब यही कर रहे हैं, रोज यही कर रहे हैं। जो क्रोध किसी पर उठता है वह किसी और पर निकलता है, और न्याय पूरा हो रहा है। जो घृणा किसी पर पैदा होती है, वह कहीं बही जा रही है। और हमारी जिंदगी इसी पागल बादशाह की तरह न्याय कर रही है। और यह न्याय इसीलिए हुआ जा रहा है कि हम सोए हुए हैं। और अपने जीवन के प्रति जागे हुए नहीं हैं कि यह क्या हो रहा है? ये विचार क्या कर रहे हैं? ये कर्म क्या कर रहे हैं? ये हमसे क्या हो रहा है? इसका हमें तो कोई बोध नहीं है, कोई होश नहीं है, कोई जागरूकता नहीं है।
यह जीवन की स्थिति है।।यांत्रिकता और इस यांत्रिकता में चाहे कोई मंदिर जाता हो, चाहे कोई मस्जिद जाता हो, और चाहे कोई कुरान पढ़ता हो, चाहे गीता पढ़ता हो; कुछ भी न होगा, क्योंकि जो आदमी अभी अपने विचारों और अपने कर्मों के ऊपर सचेत नहीं है उसकी गीता और कुरान का पढ़ना खतरनाक सिद्ध होगा। आज नहीं कल वह गीता और कुरान के नाम से भी लड़ेगा और हत्या करेगा, मस्जिद और मंदिर के नाम से लड़ेगा और हत्या करेगा। उसका हिंदू होना खतरनाक है, उसका मुसलमान होना खतरनाक है। क्योंकि जो आदमी अंधा है उसका कुछ भी होना खतरनाक है। और वह जो भी करेगा उससे जीवन को दुख पहुंचेगा, पीड़ा पहुंचेगी, अशांति बढ़ेगी, युद्ध होंगे और हिंसा होगी। यह सारी दुनिया में हो रहा है। यह जो सारी दुनिया में हो रहा है, यह हिंसा और युद्ध और यह परेशानी इसके लिए कोई राजनीतिज्ञ जिम्मेवार हो ऐसा मत सोचना, और ऐसा भी मत सोचना कि कम्युनिस्ट जिम्मेवार है, और ऐसा भी मत सोचना कि अमरीका जिम्मेवार है। क्योंकि जब अमरीका नहीं था, तब भी युद्ध हो रहे थे जमीन पर, और जब कम्युनिस्ट नहीं थे, तब भी युद्ध हो रहे थे। पांच हजार सालों में पंद्रह हजार युद्ध हुए। कौन ये युद्ध कर रहा है? यह सोया हुआ, यांत्रिक आदमी युद्ध की जड़ में है, यह जो भी करेगा उससे हिंसा पैदा होगी और युद्ध पैदा होगा। और यह सोया हुआ आदमी जो भी बनाएगा उससे विनाश होगा।
इधर तीन सौ, चार सौ वर्षों की निरंतर मेहनत के बाद हमने एटम की खोज की, और खोज का परिणाम यह हुआ कि अब हम तैयारी कर रहे हैं कि किस भांति हम सारे मनुष्य को समाप्त कर दें, किस भांति हम सारी दुनिया को नष्ट कर दें, इसकी तैयारी कर रहे हैं। हमने तैयारी पूरी कर ली। और किसी भी दिन आज या कल किसी भी दिन सुबह उठ कर आप पा सकते हैं कि दुनिया अपनी मौत के कगार पर आ गई और हम अपनी हत्या करने को राजी हो गए।
सोया हुआ आदमी और उसके हाथ में इतनी बड़ी ताकत, बेहोश आदमी, यांत्रिक आदमी, उसके हाथ में इतनी बड़ी ताकत बड़ी खतरनाक है। और ताकत कितनी है, उसका शायद आपको अनुमान भी न होगा। उतनी बड़ी ताकत आज तक जमीन पर आदमी के हाथों में नहीं थी, शायद यह ताकत होगी तो हम कभी बहुत पहले दुनिया को खत्म कर लिए होते। लेकिन अब हमारे पास ताकत आ गई है। कोई पचास हजार उदजन बम हमने तैयार करके संगृहीत कर रखे हैं। ये इतने ज्यादा हैं जितने कि मारने को आदमी ही नहीं हैं हमारे पास। आदमी कुल साढ़े तीन अरब हैं। साढ़े तीन अरब बहुत थोड़े लोग हैं। पच्चीस अरब आदमी मारे जा सकें इतने उदजन बम हमने तैयार कर लिए। कई कारणों से ऐसा किया होगा। हो सकता है एक दफा मारने से कोई आदमी न मरे, तो दुबारा मारना पड़े, तीसरी बार मारना पड़े। हमने सात-सात बार एक-एक आदमी को मारने का इंतजाम कर लिया है ताकि कोई भूल-चूक न हो सके। यह जमीन बहुत छोटी है; इस तरह की सात जमीनें हम नष्ट कर सकतें हैं, इतना हमने इंतजाम कर रखा है।
शायद आपको खयाल भी न हो कि मनुष्य ने अपनी ही हत्या की योजना की होती तो भी ठीक थी, उसका उसे हक था। आदमी अगर चाहे कि हम नहीं रहना चाहते, उसे रोकने के लिए कोई भी, कोई भी क्या कर सकता है। उसकी अपनी मौज है। लेकिन आदमी ने अपने साथ सारे कीड़े-मकोड़ों, पशु-पक्षियों, पौधों, सबके जीवन की समाप्ति का इंतजाम कर रखा है। आदमी के साथ सारा जीवन समाप्त होगा, सारा जीवन। वे छोटे-छोटे बैक्टिरिया भी समाप्त हो जाएंगे, जिनकी उम्र लाखों वर्ष होती, जिनको मारना बहुत कठिन होता, वे भी मर जाएंगे। क्योंकि आदमी ने जो ताकत इकट्ठी की उससे इतनी गर्मी पैदा होगी कि किसी तरह का जीवन संभव नहीं रह जाएगा। एक उद्जन बम के विस्फोट से कितनी गर्मी पैदा होती है आपको खयाल है? जमीन यहां से सूरज से कोई नौ करोड़ मील दूर है, लेकिन सूरज उतनी दूर से हमको तपा देता है और परेशान कर देता है। और गर्मियों के दिनों में जरा सा करीब सरक आता है तो हमारी मुसीबत हो जाती है। उद्जन बम से जितनी गरमी सूरज पर है उतनी हम जमीन पर पैदा करने में समर्थ हो गए हैं। उतनी ही गरमी, नौ करोड़ मील दूर का सूरज हमें परेशान करता है, सूरज अगर आपके पड़ोस में आ जाएगा घर के बगल में तो क्या होगा? और आपके घर में आ जाएगा तो क्या होगा? शायद फिर भी आपको खयाल न पैदा हो कि यह गरमी कितनी है? सौ डिग्री हम गर्म करते हैं पानी को तो पानी भाप बन कर उड़ने लगता है। सौ डिग्री कोई गरमी नहीं है, बहुत कम गरमी है, लेकिन उबलते हुए पानी में आपको डाल दिया जाए तो क्या होगा? अगर हम पंद्रह सौ डिग्री तक गरमी पैदा करें, तो लोहा पिघल कर पानी हो जाएगा। लेकिन पंद्रह सौ डिग्री भी कोई गरमी नहीं है। अगर हम पच्चीस सौ डिग्री गरमी पैदा करें, तो लोहा भी भाप बन कर उड़ने लगता है। लेकिन पच्चीस सौ डिग्री भी कोई गरमी नहीं है। एक उदजन बम के विस्फोट से जो गरमी पैदा होती है वह होती है दस करोड़ डिग्री। और दस करोड़ डिग्री गरमी कोई छोटी-मोटी सीमा में पैदा नहीं होती, चालीस हजार वर्गमील में एक उदजन बम से चालीस हजार वर्गमील में दस करोड़ डिग्री गरमी पैदा हो जाती है। उस डिग्री में किसी तरह के जीवन की कोई संभावना नहीं है। यह किसने पैदा किया उदजन बम और किसलिए, यह पागल दौड़ किसलिए चल रही है?पिछले महायुद्ध में हमने पांच करोड़ लोगों की हत्या की थी, अब हमने इंतजाम किया है सबकी हत्या का। यह कौन कर रहा है? यह आदमी कर रहा है। और आदमी कहता हैः हम विचारवान हैं। आदमी पर शक होता है, कैसा विचारवान है? यह आदमी कर रहा है और आदमी कहता है कि हम करने में समर्थ हैं, तो फिर युद्ध रोकने में समर्थ क्यों नहीं हो जाते हो? लेकिन हम जानते हैं कि हमारे बावजूद युद्ध करीब आता चला जाता है। पहला महायुद्ध खत्म हुआ और सारे दुनिया के विचारशील लोगों ने कहा थाः अब हम कभी युद्ध न करेंगे। लेकिन पंद्रह साल भी नहीं बीते थे कि दूसरे युद्ध की हवाएं उठनी शुरू हो गईं। दूसरा महायुद्ध हुआ, दोनों महायुद्धों में दस करोड़ लोगों की हत्या की। सारे दुनिया के विचारशील लोगों ने कहाः अब कभी हम युद्ध न करेंगे, यह बस अंतिम युद्ध है। लेकिन दूसरा महायुद्ध खत्म भी नहीं हो पाया था कि हमने तीसरे की तैयारियां शुरू कर दीं। यह आदमी विचारशील है? यह आदमी करने में समर्थ है? इसके अपने कर्मों पर इसका कोई वश है? बिलकुल ऐसा नहीं मालूम होता।
आदमी बिलकुल यंत्र की भांति चला जा रहा है। और अगर आगे भी दस-पंद्रह वर्षों तक यांत्रिकता की दौड़ यही रही तो यह भी हो सकता है सारी दुनिया समाप्त हो और मनुष्य के साथ जीवन भी समाप्त हो जाए। लेकिन इसे रोका जा सकता है। इसे रोकने के लिए सीधा कोई उपाय नहीं है, इसे रोकने का एक ही उपाय है और वह यह है कि मनुष्य अपनी यांत्रिक क्रियाओं में और विचारों में ज्यादा सचेत हो, ज्यादा कांशस, ज्यादा अवेयरनेस से भरा हुआ हो, ज्यादा बोधपूर्वक हो। अगर मनुष्य के भीतर बोध पैदा हो जाए, तो जीवन के जो भी रोग हैं उनके ठहरने की कोई जगह नहीं रह जाएगी, मनुष्य की बेहोशी में रोगों के ठहरने का स्थान। अगर आप होश से भर जाएं तो आप हिंदू नहीं रह जाएंगे, मुसलमान नहीं रह जाएंगे। अगर आप होश से भर जाएं, तो आप हिंदुस्तानी नहीं रह जाएंगे, पाकिस्तानी नहीं रह जाएंगे। अगर आप होश से भर जाएं, तो आप काले और गोरे के भेद को पकड़े हुए नहीं रह जाएंगे। अगर आप होश से भर जाएं, तो आपके जीवन में घृणा और क्रोध की कोई जगह न रह जाएगी। अगर आप होश से भर जाएं, तो आपके जीवन में प्रेम का जन्म होगा। एक परमात्मा का स्मरण होगा, एक धर्म का प्रारंभ होगा, एक प्रकाश पैदा होगा, वह न केवल आपको बदलेगा बल्कि उसकी रोशनी आपके आस-पास भी और घरों के अंधेरे को भी तोड़ने लगेगी। थोड़े से लोग भी अगर प्रकाश से भर जाएं और होश से भर जाएं, तो इस जमीन के भाग्य में एक नया सूर्योदय हो सकता है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने आज आपसे कहीं, ज्यादा बात नहीं कही। मूलतः एक ही बात कही कि मनुष्य यांत्रिक है और सोया हुआ है। और जो मनुष्य सोया हुआ है उसके जीवन में कोई आनंद नहीं हो सकता, दुख ही होगा। दुख स्वाभाविक है। उसके जीवन में कोई शक्ति नहीं हो सकती, उसके जीवन में सत्य नहीं हो सकता, उसके जीवन में स्वतंत्रता नहीं हो सकती।
तो पहली खूंटी जो हम अपने बाबत बांधे हुए हैं।।विचार करने में हम समर्थ हैं? झूठ है यह बात। कर्म करने में हम मालिक हैं? झूठ है यह बात। ये दो झूठी खूंटियां और रस्सियां हमारे जीवन को घेरे हुए हैं। इनको तोड़ देना जरूरी है। ये कैसे टूटेंगी? ये निरीक्षण से और चित्त के प्रति जागरूक होने से टूट जाती हैैं। उस जागरूकता के संबंध में मैं परसों रात की चर्चा में आपसे बात करूंगा। आज तो मैंने उस बीमारी की बात कही जिसमें हम हैं, परसों मैं उस संबंध में बात करूंगा जो हमें इस बीमारी के बाहर ले जा सकती है। आज तो मैंने उस स्वप्न के संबंध में कहा जिसमें हम हैं, परसों मैं उस सत्य के संबंध में कहूंगा जिसमें हम हो सकते हैं।
मनुष्य यंत्र है, लेकिन मनुष्य यंत्र ही नहीं है, यंत्र के ऊपर भी उसके भीतर कोई ताकत है। मनुष्य जड़ है अभी, लेकिन उसके भीतर आत्मा सोई हुई है वह जाग सकती है। और मनुष्य में अभी कोई विचार नहीं है, लेकिन उसके भीतर विचार का जन्म हो सकता है। वह कैसे हो सकता है? किस द्वार से और किस मार्ग से उसकी मैं परसों इस बारे में बात करूंगा।
 
आज की इस प्रारंभिक चर्चा को आपने बड़ी शांति और प्रेम से सुना उसके लिए अनुगृहीत हूं। और अंत में एक प्रार्थना करता हूं, जो मैंने कहा उसे थोड़ा यहां से लौटने के बाद देखने की कोशिश करना कि मैंने क्या कहा।।अपने कर्मों के बाबत, अपने विचारों के बाबत।।उसे जरा सोचने की कोशिश करना कि मैंने क्या कहा? खुद के बाबत समझने की कोशिश करना कि कहीं यह सत्य तो नहीं है? और अगर यह सत्य दिखाई पड़ जाए, तो समझना कि आपके जीवन में क्रांति की शुरुआत आ गई, आपका जीवन बदलने का दिन आ गया। और अगर आपको दिखाई पड़े कि नहीं, यह सब गलत है और जैसा मैं जी रहा हूं बिलकुल ठीक है, तो समझना कि आपने करवट ले ली और आप फिर सोने के लिए तैयार हो गए और फिर सपना देखने के लिए तैयार हो गए।
इस पर थोड़ा सोचना, इस पर थोड़ा विचारना। इस पर थोड़ा होश से भरने की कोशिश करना, मेरे कर्म, मेरे विचार कहीं यंत्र की भांति तो नहीं हो रहे हैं? अगर वे यंत्र की भांति हो रहे हैं, तो मुझे स्वयं को मनुष्य कहने का भी कोई अधिकार नहीं है। मनुष्य तो वही है जो सत्य को जानने में समर्थ है।

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