( आनंद है भीतर-पहला)
प्रिय बहन, चिदात्मन्
प्रणाम।
मैं परसों दिल्ली से लौटा, तो आपका पत्र मिला है।
यह जान कर प्रसन्न हूं कि आपको आनंद और संतोष का अनुभव हो रहा है।
आनंद भीतर है।
उसकी खोज बाहर करते हैं, इससे वह नहीं मिलता है।
एक बार भीतर की यात्रा प्रारंभ हो जावे, तो फिर निरंतर आनंद के नये-नये स्रोत खुलते चले जाते हैं।
वह राज्य जो भीतर है--वहां न दुख है, न पीड़ा है, न मृत्यु है।
उस अमृत में पहुंच कर एक नया जन्म हो जाता है।
और, वहां जो दर्शन होता है, उससे सब ग्रंथियां कट जाती हैं।
यह स्थिति "स्व" और "पर" को गिरा देती है।
केवल सत्ता रह जाती हैः सीमा और विशेषण-शून्य--निराकार और अरूप।
इसके पूर्व जो था, वह अहं-सत्ता थी; अब जो होता है, वह ब्रह्म-सत्ता है।
यह पाया कि सब पाया।
यह जाना कि सब जाना।
इसमें होते ही--हिंसा और घृणा, दुख और पीड़ा, मृत्यु और अंधेरा--सब गिर जाता है।
जो शेष बचता है, वह सत्-चित्-आनंद है।
इस सत्-चित्-आनंद को पा सको, यही कामना है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें