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गुरुवार, 11 जुलाई 2019

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-02)

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-दूसरा)

जीवन क्रांति की दिशा-(विविध)
 पहला-प्रवचन-(जीवन के प्रति अहोभाव)
मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं एक नये बनते हुए मंदिर के पास से निकलता था। मंदिर की दीवालें बन गई थीं। शिखर निर्मित हो रहा था। मंदिर की मूर्ति भी निर्मित हो रही थी। सैकड़ों मजदूर पत्थर तोड़ने में लगे थे। मैंने पत्थर तोड़ते एक मजदूर से पूछा: मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने बहुत गुस्से से मुझे देखा और कहा: क्या आपके पास आंखें नहीं हैं? क्या आपको दिखाई नहीं पड़ता? मैं पत्थर तोड़ रहा हूं। कोई क्रोध होगा उसके मन में, कोई निराशा होगी। और पत्थर तोड़ना कोई आनंद का काम भी नहीं हो सकता है।
मैं उस मजदूर को छोड़ कर आगे बढ़ गया और दूसरे मजदूर से पूछा। वह भी पत्थर तोड़ रहा था। मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने क्रोध से तो नहीं लेकिन अत्यंत उदासी से मेरी तरफ देखा और कहा: आजीविका कमा रहा हूं, बच्चों के लिए रोटी कमा रहा हूं। क्या आपको दिखाई नहीं पड़ता? वह भी पत्थर तोड़ रहा था। लेकिन उसने कहा, बच्चों के लिए रोटी कमा रहा हूं।


निश्चित ही केवल रोटी कमाना भी कोई बहुत आनंद की बात नहीं हो सकती है। वह उदास था और दुखी था, लेकिन फिर भी पत्थर तोड़ने वाले से भिन्न थी उसकी दशा। वह क्रोधित नहीं था।
मैं और आगे बढ़ा और एक तीसरे पत्थर तोड़ने वाले आदमी से मैंने पूछा: मित्र क्या कर रहे हो? वह कोई गीत गुनगुनाता था। उसने आंखें ऊपर उठाईं। उसकी आंखों में किसी आनंद की झलक थी। उसने कहा: देखते नहीं हैं आप, भगवान का मंदिर बना रहा हूं? वह भी पत्थर तोड़ रहा था।
वे तीनों ही पत्थर तोड़ रहे थे..एक क्रोध से भरा था, एक उदासी से, एक आनंद से। वे तीनों एक ही काम कर रहे थे। लेकिन जो आदमी पत्थर तोड़ रहा था, वह क्रोध से भरेगा ही; क्योंकि जीवन पत्थर तोड़ने के लिए नहीं है। और जिनका जीवन पत्थर तोड़ने में ही नष्ट हो जाता है, वे यदि क्रोधित हो उठते हों, तो आश्चर्य नहीं। दूसरा व्यक्ति क्रोधित तो नहीं था, लेकिन उदास था। क्योंकि जिंदगी रोटी कमाने में ही व्यतीत हो जाए, तो उदासी के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं आ सकता। और वे लोग अभागे हैं, जो रोटी कमाने में ही जीवन को नष्ट कर देते हैं। लेकिन तीसरा व्यक्ति भगवान का मंदिर बना रहा था। वह भी पत्थर तोड़ रहा था। लेकिन भगवान का मंदिर बनाना एक आनंद है। और धन्य हैं वे लोग जो जीवन में भगवान के मंदिर को बनाने में समर्थ हो पाते हैं। इन तीन दिनों में हम भगवान के मंदिर बनाने वाले कैसे बन सकते हैं, इस संबंध में ही थोड़ी बातें मैं आपसे करूंगा।
आज की इस पहली चर्चा में यह बड़े दुख से मुझे कहना पड़ता है कि पृथ्वी पर अधिकतम लोग या तो पत्थर तोड़ते हैं या ज्यादा से ज्यादा रोटी कमाते हैं। मुश्किल से कोई सौभाग्यशाली कभी भगवान के मंदिर के बनाने में संलग्न हो पाता है। इसीलिए तो इतना दुख है, इतनी उदासी है, इतना क्रोध है, इतना फ्रस्ट्रेशन, इतना विषाद है।
लेकिन मनुष्य क्यों जीवन को भगवान का मंदिर नहीं बना पाता है? क्या कारण है कि जीवन एक आनंद नहीं हो पाता? क्या कारण है, जीवन एक नृत्य नहीं बन पाता? क्या कारण है, जीवन की वीणा पर संगीत पैदा नहीं होता है? जीवन एक दुख भरी रात क्यों हो? जीवन एक प्रकाश से भरा हुआ दिवस क्यों नहीं? जीवन कांटों का मार्ग ही क्यों हो? फूलों की बगिया से गुजर जाना क्यों नहीं हो? जीवन दुख और आंसू ही क्यों हो? एक आनंद और एक मुस्कुराहट क्यों नहीं? कोई बुनियादी कारण होगा! और उस कारण पर शायद एक व्यक्ति का सवाल नहीं है, पूरी मनुष्य-जाति का सवाल है। किसी एक व्यक्ति की भूल नहीं। जैसे पूरी मनुष्य-जाति किसी बुनियादी भूल को कर रही है। उस पहली भूल पर ही आज मुझे बात करनी है।
वह पहली भूल यह है..आज तक मनुष्य के इतिहास में, मनुष्य के अगुवा और नेता होने वाले लोग बीमार और रुग्ण रहे हैं। मनुष्य-जाति को अब तक स्वस्थ मस्तिष्क का नेतृत्व नहीं मिल सका है। मनुष्य को उन लोगों ने नेतृत्व दिया है जो अपने भीतर दुखी, रुग्ण, अस्वस्थ और विक्षिप्त थे। स्वस्थ व्यक्तित्व का नेतृत्व मनुष्य-जाति को नहीं उपलब्ध हो सका है। रुग्ण लोगों ने सारे जीवन के कुओं को विषाक्त कर दिया है। वे खुद जीवन में जिस आनंद को नहीं पा सके, अपनी असमर्थता को उन्होंने जीवन की ही भूल समझानी शुरू कर दी।
उस लोमड़ी की कथा हम सबने पढ़ी है, जो अंगूर के गुच्छों को तोड़ने में संलग्न थी। बहुत उछलीऔर कूदी, उसने पूरी शक्ति लगाई लेकिन अंगूर के गुच्छों तक नहीं पहंुच सकी। फिर वह बहुत गरिमा और गौरव से, बहुत डिग्निटी से वापस लौट गई और राह पर जो लोग मिले उनसे उसने कहा, मुझे क्या पता था कि अंगूर खट्टे हैं। मैंने तो सोचा था अंगूर पक गए हैं, लेकिन निकट जाकर पता चला कि अंगूर खट्टे हैं। उन्हें तोड़ने में कोई सार नहीं है।
मनुष्य-जाति को भी ऐसे लोगों ने नेतृत्व दिया है जिन्हें जीवन के अंगूर उपलब्ध नहीं हो सके और उन्होंने कहा: सारा जीवन खट्टा है, असार है, व्यर्थ है। हमें क्या मालूम था कि जीवन इतना खट्टा है, अन्यथा हम तोड़ने ही नहीं जाते। सचाई दूसरी थी। जीवन के फल भरे रस वे उपलब्ध नहीं कर सके। लेकिन इस बात को स्वीकार करना कि जीवन के फल मुझे उपलब्ध नहीं हो सके हैं, अहंकार को बड़ी चोट लगती है। इसीलिए दूसरा उपाय आसान है कि जीवन असार है और व्यर्थ है। आज तक मनुष्य के मन को जीवन की असारता की शिक्षा ने ही विषाक्त किया है। और जमीन पर बहुत बड़े विष फैलाने वाले लोग पैदा हुए हैं। जीवन के सारे कुओं में जहर घोल दिया गया है। यही समझाया जाता रहा है आज तक..जीवन व्यर्थ है, जीवन दुख है। और जीवन में करने जैसी एक ही चीज है और वह है जीवन से छूट जाना। आवागमन से मुक्ति, मोक्ष।
झूठी हैं ये बातें और अंगूर खट्टे होने से ज्यादा इनका कोई अर्थ नहीं है। जीवन को छोड़ देने की बातें, जीवन को व्यर्थ कहने की बातें, जीवन को बुरा बताने की बातें, मनुष्य के मन में गहरे बैठा दी गई हैं। और ऐसा चित्त जो प्रारंभ से ही जीवन को दुख मान लेता हो, अगर जीवन में आनंद न पा सके, तो जिम्मेवार कौन है? हम सब जीवन में दुख से भरे हुए हैं। यह जीवन का दुख नहीं है। यह जीवन को देखने का हमारा गलत दृष्टिकोण है, जिसने जीवन को दुख से भर दिया है। जीवन बुरा नहीं है, हमारे मन विषाक्तहैं, हमारे मन रुग्ण हैं। जीवन में कांटे ही कांटे नहीं हैं, और न जीवन ऐसा है कि उसे छोड़ देना ही, उससे मुक्त हो जाना ही, उससे भाग जाना ही एक मात्र लक्ष्य हो।
नहीं, यह भगाने वाले लोगों ने सारी मनुष्य-जाति के मन को अंधकारपूर्ण कर दिया है। ये ही लोग जिन्होंने आदमी के जीवन की निंदा की है, जीवन अनुभव करने की क्षमता को, पात्रता को, कम करने वाले लोग भी हैं। लेकिन इनकी शिक्षाओं का प्रभाव रहा है। जीवन-विरोधी शिक्षाओं के प्रभाव ने ही मनुष्य की यह विकृत दशा पैदा कर दी है।
एक चर्च में एक सुबह उस चर्च के धर्मगुरु ने अपने सुनने वाले लोगों से कहा, हो सकता है आप भी वहां मौजूद रहे हों, शायद आपने यह बात सुनी भी हो। उस धर्मगुरु ने यह कहा कि मेरे मित्रो, तुममें से कितने लोग स्वर्ग जाना चाहते हैं? जो स्वर्ग जाना चाहते हों वे अपने हाथ ऊपर उठा दें। धर्मगुरु ने सोचा था, सभी लोग हाथ ऊपर उठा देंगे। करीब-करीब सभी लोगों ने हाथ ऊपर उठाए थे। लेकिन सामने बैठा हुआ एक व्यक्ति हाथ नीचे ही किए रहा। एक को छोड़ कर सभी लोगों ने हाथ ऊपर उठा दिए थे। सभी स्वर्ग जाना चाहते थे। धर्मगुरु को बहुत आश्चर्य हुआ। क्या ऐसा भी कोई आदमी हो सकता है जो नरक जाना चाहता हो! फिर उसने कहा कि अब आप अपने हाथ नीचे कर लें। और अब मैं पूछता हूं कि जो लोग नरक जाना चाहते हों, वे अपने हाथ ऊपर उठाएं। एक भी आदमी ने हाथ नहीं उठाया। उस आदमी ने भी नहीं जिसने स्वर्ग जाने के लिए हाथ नहीं उठाया था। वह धर्मगुरु हैरान हुआ। उसने कहा: मेरे भाई, तुमने न तो स्वर्ग जाने के लिए हाथ उठाया, न नरक जाने के लिए, तुम कहां जाना चाहते हो? उस आदमी ने कहा: मैं यहीं रहना चाहता हूं, जीवन में। और मैं जीवन को ही स्वर्ग बनाना चाहता हूं। न मैं स्वर्ग जाना चाहता हूं, न मैं नरक जाना चाहता हूं; क्योंकि जो स्वर्ग जाना चाहते हैं उन्होंने इस पृथ्वी को नरक बना दिया है। क्योंकि उनकी आंखें आकाश के किसी काल्पनिक स्वर्ग में लगी हुई हैं। और वास्तविक पृथ्वी उपेक्षित पड़ी रह गई है।
जो लोग जीवन को छोड़ देना चाहते हैं, जीवन की किसी भूल के कारण नहीं, अपनी किसी रुग्णता, अपनी किसी बीमारी के कारण; जीवन को, जीवन के रस को, जीवन के आनंद को उपभोग न करने की क्षमता के कारण, वे लोग जीवन को नरक बनाने में सहयोगी हो जाते हैं।
तो उस आदमी ने कहा: जितने लोगों ने हाथ उठाए हैं स्वर्ग जाने के लिए, ये ही लोग पृथ्वी को नरक बनाए हुए हैं। मैं न स्वर्ग जाना चाहता हूं, न नरक जाना चाहता हूं। मैं इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाना चाहता हूं।
आज तक मनुष्य को पृथ्वी को स्वर्ग बनाने की शिक्षा नहीं दी गई, इसलिए पृथ्वी नरक बन गई। इसलिए हमारा जीवन नरक बन गया है।
और मैं आपसे यह निवेदन कर दूं, जो इस जीवन में स्वर्ग में नहीं हो सकते, उनके लिए कोई स्वर्ग, कहीं भी नहीं है और न हो सकता है। और जो लोग इस जीवन को स्वर्ग में परिवर्तित कर सकते हैं, उनके लिए इस जगत में, किसी लोक में कोई नरक नहीं है। वे जहां भी होंगे, जहां भी उनका जीवन होगा, वे स्वर्ग में होने की कला में निष्णात हो गए होंगे।
जीवन एक अवसर है। उसे जो स्वर्ग बना लेता है वह आने वाले जीवन के स्वर्गों की बुनियाद रख देता है, और इस जीवन को जो नरक बना देता है वह आने वाले नरकों का रास्ता शुरू कर देता है। यात्रा शुरू कर देता है। हमने पृथ्वी को नरक बनाया है। और किन लोगों ने नरक बनाया है? उन लोगों ने...शायद मेरी बात बहुत कठोर मालूम पड़े। लेकिन उन्हीं लोगों ने, और मजबूरी है, सत्य कहना ही पड़ेगा। उन्हीं लोगों ने, जिन लोगों ने पृथ्वी के विरोध में और जीवन के विरोध में शिक्षाएं दी हैं।
जीवन का निषेध और लाइफ निगेशन सिखाया गया है। यही समझाया गया है..बुरा है जीवन, दुख है जीवन, पीड़ा है जीवन, बंधन है जीवन। पिछले जन्मों के, दुष्कर्मों का फल है जीवन। जब जीवन ऐसा हो तो फिर जीवन में आनंद का मंदिर कैसे बनाया जा सकता है? तब तो एक ही काम है हमारे हाथ में कि तोड़ दें इस मंदिर को हम, गिरा दें इसकी दीवालों को, आग लगा दें इसमें, और किसी काल्पनिक मोक्ष की तलाश करें, खोज करें।
यह मैं पहली बात आपसे कहना चाहता हूं जीवन क्रांति की दिशा में। जीवन के सृजन में पहली बात है जीवन के प्रति अहोभाव। जीवन के प्रति धन्यता का बोध, जीवन के प्रति आनंद की धारणा, जीवन के सौंदर्य और जीवन के रस के प्रति अनुग्रह, ग्रेटिट्यूड। जीवन के शत्रु जो हैं, उन्हें जीवन से कुछ भी नहीं मिलेगा। शत्रुता से कभी किसी को कुछ भी नहीं मिला है।
जीवन के मित्र जो हैं, जीवन अपनी निधियों के द्वार केवल उनके लिए ही खोलता है जो प्रेम से जीवन के द्वार पर दस्तक देते हैं, जो प्रेम से जीवन को आलिंगन करने के लिए तत्पर होते हैं, जो प्रेम से जीवन के द्वार पर प्रार्थना करते हैं, जो प्रेम से जीवन को पुकारते हैं और बुलाते हैं। और जिनके हृदय में जीवन के विरोध में कोई कांटा नहीं होता है, जीवन के स्वागत के लिए फूलों की मालाएं होती हैं, केवल उनके लिए ही जीवन एक मंदिर बन पाता है। अन्यथा फिर जीवन एक पत्थर तोड़ने से ज्यादा नहीं हो सकता है। जीवन का निषेध घातक सिद्ध हुआ है, पाय.जनस सिद्ध हुआ है। लेकिन धर्मों के नाम पर जीवन का निषेध ही प्रचलित रहा है। हम उसी आदमी को धार्मिक कहते हैं जो जीवन को जितना तोड़ दे और जीवन से जितना दूर भाग जाए, जो जीवन का जितना शत्रु हो, जीवन का जितना कंडेमनेशन, जितनी निंदा कर सके, जीवन को जितना कुत्सित, जीवन को जितना बुरा सिद्ध कर सके, जीवन को जितनी गालियां दे सके, वह आदमी उतना ही बड़ा धार्मिक प्रतीत होता है।
यही लोग हैं अधार्मिक। यही लोग हैं जिन्होंने जीवन को धार्मिक होने से वंचित रखा है। लेकिन इनका प्रभाव रहा है जीवन पर। और आज तक मनुष्य-जाति इनकी ही अंधेरी छाया के नीचे बढ़ती रही है। और जिन्हें हमने मार्ग-दर्शक समझा है, वे ही मार्ग को भ्रष्ट करने वाले लोग हैं। इनकी तरकीब क्या रही है? इन्होंने किस भांति जीवन को बुरा और निंदित कर दिया? इन्होंने जीवन को किस भांति विकारग्रस्त सिद्ध कर दिया? इन्होंने किस भांति मनुष्य के मन में जीवन और आवागमन से छूटने का भाव पैदा कर दिया? इनकी तरकीब क्या है? इनका टेक्नीक क्या है? इन्होंने किस विधि का उपयोग किया है, जिससे जीवन के सब कुएं विषाक्त हो गए?
बड़ी, बड़ी अदभुत तरकीब है। शायद आपको ख्याल में भी न आई हो। इनकी तरकीब है एनालिसिस, इनकी तरकीब है विश्लेषण। इसे समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि हम इसे समझ लें, तो जीवन कैसे नष्ट किया गया है, वह हमारी समझ में आ जाएगा।
मैं एक जलप्रपात देखने गया था। एक वाटरफॅाल देखने गया था। एक बड़ी सुंदर रमणीक पहाड़ी से नदी गिरती थी। उसकी मर्मर ध्वनि, उसके पास खड़े हुए वृक्षों का आनंद, उस नदी की तीव्रता और वेग, सब अदभुत था और प्राणों के किसी बहुत अनजाने तलों को छू लेता था। अपने एक मित्र के साथ मैं उस जगह को देखने गया था। हम दोनों गाड़ी से उतर कर पहाड़ियों में प्रवेश करने लगे, तो मैंने अपने मित्र को कहा कि आप अपनी गाड़ी के ड्राइवर को भी बुला लें, वह भी देख लेगा। मैंने उस ड्राइवर को कहा कि तुम भी आ जाओ। उसने कहा: वहां क्या रखा हुआ है? पहाड़ और पानी! और कुछ भी नहीं। वहां है क्या? वहां है क्या पहाड़ और पानी के सिवाय? और मुझे हैरानी होती है, लोग सैकड़ों मील से चल कर देखने क्या आते हैं वहां। कुछ पत्थर पड़े हैं साहब। कुछ पानी गिरता है। और कुछ भी नहीं है।
मैंने अपने मित्र को कहा कि तुम्हारा ड्राइवर कोई धर्मगुरु होने के योग्य है। उसे विश्लेषण की, उसे एनालिसिस की कला का पता है। उसने जलप्रपात के उस सौंदर्य को दो छोटी सी चीजों में तोड़ कर स्पष्ट कर दिया है। पत्थर पड़े हैं वहां और पानी है वहां। और क्या है? बात खत्म हो गई, कुछ भी नहीं है वहां।
एक बहुत बड़े चित्रकार पिकासो के पास एक अमरीकी करोड़पति ने अपना एक चित्र बनवाया था। बहुत बड़ा धनपति था वह। उसने उचित न समझा कि पिकासो से पैसे ठहरा ले पहले से कि कितने पैसे लोगे। सोचा था कितने भी लेगातो कितने लेगा। दो बरस लग गए चित्र बनने में। बार-बार उसने पुछवाया। पिकासो ने कहा कि देर है। फिर दो बरस बाद उसने कहा कि चित्र बन गया है। आप ले जाएं।
वह करोड़पति चित्र लेने गया। चित्र लेकर उसने कहा: कितने रुपये हुए इसके? पिकासो ने कहा: पचास हजार डालर। समझा उस करोड़पति ने मजाक की जा रही है। उसने कहा: पागल तो नहीं हैं आप? मजाक करते हैं? डरवाना चाहते हैं? इस छोटे से चित्र के पचास हजार डालर? छोटा सा कैनवस का टुकड़ा और थोड़े से रंग, दस-पांच रुपये की चीज है। है क्या इसमें? थोड़े से रंग हैं और थोड़ा सा कैनवस का टुकड़ा है, है क्या इसमें? पिकासो ने कहा: चित्र वापस रख दें। मैं एक कैनवस का टुकड़ा और थोड़े से रंग आपको दिए देता हूं। और उसने अपने सहयोगी को कहा कि जाओ और इससे भी बड़ा कैनवास का टुकड़ा ले आओ। और रंग की साबित डिबियां ले आओ और भेंट कर दो इनको। और फिर जो भी दाम आपको देना हो दे दें। उस करोड़पति ने कहा: लेकिन कैनवस को, रंग को लेकर मैं क्या करूंगा? पिकासो ने कहा: फिर भूल करते हैं आप। यह चित्र है, कैनवस और रंग नहीं। कैनवस और रंग से कोई और चीज प्रकट हुई है। लेकिन कोई चाहे तो कह सकता है, सुंदर चित्र में क्या है? थोड़े से रंग हैं और क्या है? यह विश्लेषण, जीवन की सब चीजों में पूछता है, और क्या है?
एक सुंदर चेहरे पर धर्मगुरु पूछता है..है क्या इसमें हड्डियां और मांस के सिवाय? आदमी के शरीर में क्या है? पीब है, मज्जा है, खून है, हड्डियां हैं और क्या है?
यह एनालिसिस, और है क्या? एक फूल में क्या है? कुछ भी तो नहीं है। कुछ थोड़े से केमिकल्स, क्लोरोफिल। और है क्या? एक फूल के सौंदर्य की तारीफ करें, धर्मगुरु कहेगा, है क्या इसमें? थोड़े से रंग हैं, थोड़े से रसायन हैं, और है क्या? एक कविता को धर्मगुरु के सामने रखें, एक काव्य को। वह कहेगा, है क्या? कुछ शब्दों का जोड़, और कुछ भी नहीं। अगर जीवन को हम इस भांति देखना शुरू करें तो जीवन असार हो जाएगा। पाया जाएगा, जीवन में कुछ भी नहीं है।
तीन हजार वर्षों से एनालिसिस ने, विश्लेषण ने, आदमी को बड़े धोखे में, बहुत इल्युजन में डाला है। हर चीज को तोड़ कर देखा जा सकता है, और कुछ भी नहीं पाया जाएगा। एक जिंदा आदमी को हम काट डालें और खोजें क्या है इसमें, तो हड्डियां मिलेंगी, मांस मिलेगा, आदमी कहीं भी नहीं मिलेगा। एक चित्र को काट-पीट डालें, एक मूर्ति को तोड़ डालें, तो पत्थर के टुकड़े मिलेंगे। कोई सौंदर्य की प्रतिमा नहीं खोजे से मिलेगी। एक कविता को तोड़ डालें, तो शब्द मिलेंगे, कोई काव्य नहीं, कोई पोएट्री नहीं मिलेगी। एक सुंदर चेहरे को काट-पीट डालें तो क्या मिलेगा भीतर? यह चीजों को खंड-खंड टुकड़ों में तोड़ने की कला ने सारे जीवन को असार सिद्ध करने की तरकीब धर्मगुरुओं के हाथ में दे दी थी। किसी भी चीज को तोड़-फोड़ डालो, और पूछो क्या है इसमें? प्रेम में क्या है? सौंदर्य में क्या है? स्वाद में क्या है? रस में क्या है? किसी भी चीज में कुछ नहीं है, अगर विश्लेषण किया जाए। बात असल यह है कि विश्लेषण में केवल क्षुद्र हाथ लगता है। जो सूक्ष्म है, वह विलीन हो जाता है। उसका कोई दर्शन नहीं हो पाता। विश्लेषण करने में, एनालिसिस करने में, जो व्यर्थ है वह हाथ लगता है, जो सार्थक था वह तिरोहित हो जाता है। और तब हम कह सकते हैं..कोई सार नहीं! जीवन क्या है? जन्मना, रोटी कमाना, बच्चे पैदा करना और फिर मर जाना। और जीवन क्या है? विश्लेषण पूरा हो गया और जीवन में कुछ भी हाथ नहीं लगा..तो जीवन है असार।
फिर यही तरकीब धर्मगुरुओं की वैज्ञानिकों के हाथ में लग गई। क्योंकि तीन हजार वर्षों में धर्मगुरुओं ने विश्लेषण में, एनालिसिस में, आदमी को दीक्षित कर दिया। फिर विज्ञान का जन्म हुआ, तो उसके हाथ में एनालिसिस की तरकीब लग गई। उसने कहा: कहां है आत्मा आदमी में? हम तो काट-पीट कर देखते हैं, कहीं मिलती नहीं! आत्मा नहीं है। धर्मगुरुओं ने कहा था, संसार असार है। वैज्ञानिकों ने कहा, आत्मा भी असार है। क्योंकि उसका भी विश्लेषण करते हैं तो पाई नहीं जाती। खोज-बीन करते हैं, चीजें तोड़ते हैं, कुछ भी नहीं मिलता। धर्मगुरुओं को पता नहीं था कि जिस तोड़ने की तरकीब से वे जीवन को असार कह रहे हैं, उसी तोड़ने की तरकीब से एक दिन धर्म भी असार हो जाएगा। कोई आत्मा नहीं है, क्योंकि तोड़ने से उसका कोई पता नहीं चलता है।
एक संगीतज्ञ था। उसने अपनी वीणा पर एक गीत गाया। बहुत सुंदर था। एक वैज्ञानिक भी वहां बैठा सुनता था। उसने सोचा, जरूर वीणा में कोई बात होनी चाहिए। रात जब संगीतज्ञ सो गया, वह वैज्ञानिक उसके घर में घुस गया। उसने पूरी वीणा तोड़ कर देख डाली, तार-तार कर डाली, टुकड़े-टुकड़े कर डाली। हाथ में कुछ तार लगे, कुछ टुकड़े लगे लकड़ी के, कोई संगीत पकड़ में नहीं आया। उसने कहा: सब असार है। मालूम होता है धोखा था संगीत। संगीत था नहीं, मुझे धोखा दिया गया है। वीणा को पूरा खोज लेता हूं, कहीं कोई संगीत मिलता नहीं।
जीवन का सत्य, एनालिसिस से उपलब्ध नहीं होता। जीवन का सत्य सिंथेसिस से उपलब्ध होता है। जीवन का सत्य विश्लेषण से नहीं मिलता है, संश्लेषण से मिलता है। जीवन उसके खंड-खंड टुकड़ों में नहीं, उसकी होलनेस में, उसकी परिपूर्णता में है। सौंदर्य भी परिपूर्णता में है..सत्य भी, जीवन भी, आनंद भी। जो लोग खंडों में तोड़ते हैं, वे वंचित रह जाते हैं।
लेकिन उस वंचित रह जाने को वे जीवन पर थोप देते हैं, कि जीवन में कुछ भी नहीं है। और जब जीवन में कुछ भी नहीं, तो छोड़ो इस जीवन को, भागो इस जीवन से, त्यागो इस जीवन को। फिर खोजो किसी परमात्मा को, खोजो किसी मोक्ष को, जहां सब कुछ होगा।
लेकिन अगर ये विश्लेषण करने वाले लोग किसी दिन मोक्ष पहुंच गए..जैसा कि कभी हुआ नहीं आज तक कि वे पहंुच गए हों, लेकिन अगर किसी दिन मोक्ष पहुंच गए..तो वे पाएंगे कि मोक्ष भी असार है..वहां भी कुछ नहीं है। क्योंकि मोक्ष में वे क्या पाएंगे? जो भी मिलेगा उनकी एनालिसिस सिद्ध कर देगी यहां भी कुछ नहीं है।
बट्र्रेंड रसल ने एक बार यह कहा कि मैं सोचता हूं कि कहीं मुझे मोक्ष मिल गया, तो मोक्ष कैसा होगा? वहां न कोई दुख होगा, न सुख, न वहां शांति होगी, न अशांति। वहां न अंधकार होगा, न प्रकाश। वहां न प्रेम होगा, न घृणा। वहां होगा क्या?
और मोक्ष से लौटने का कोई उपाय नहीं है। मोक्ष में एंट्रेंस होता है, एक्झिट नहीं होती। वहां भीतर जा सकते हैं, बाहर आने का कोई मौका नहीं है। तो बट्र्रेंड रसल ने कहा कि वहां करेंगे क्या? वहां जो लोग पहुंच गए हैं अब तक बहुत घबड़ा गए होंगे। बहुत बोर्डम पैदा हो गई होगी। वहां करेंगे क्या? वहां कोई अभाव नहीं, कोई दुख नहीं, कोई पीड़ा नहीं। वहां कोई कामना नहीं, कोई महत्वाकांक्षा नहीं। वहां लोग हैं, और हैं, और बने रहेंगे अनंत तक, बने रहेंगे अनंत तक।
नहीं, बट्र्रेंड रसल ने कहा: मेरी तबीयत बहुत घबड़ाती है। ऐसे मोक्ष से तो नरक ही बेहतर। वहां कुछ करने को तो होगा। यह मोक्ष का विश्लेषण हो गया। रसल ने मोक्ष का विश्लेषण कर लिया। नहीं कुछ वहां भी दिखाई पड़ता।
महावीर, बुद्ध धोखे में पड़ गए मालूम होते हैं। शायद वे मोक्ष का विश्लेषण नहीं कर पाए। रसल ने मोक्ष का विश्लेषण किया तो पाया कि वहां भी कुछ नहीं हो सकता है। मनुष्य विश्लेषण की छाया में भटका है आज तक। यह मैं पहला सूत्र आपसे कहना चाहता हूं..अगर जीवन को एक मंदिर बनाना है, तो जीवन को संश्लेषण की दृष्टि, सिंथेटिक एटिट्यूड से देखने की क्षमता पैदा करनी होगी विश्लेषण की दृष्टि से नहीं। जब भी हम चीजों को तोड़ देते हैं तो स्मरण रहे, चीजें होती हैं अपनी पूर्णता में, और कोई भी चीज अपने खंडों का जोड़ नहीं होती केवल। खंडों के जोड़ से ज्यादा होती है।
एक कविता शब्दों का जोड़ ही नहीं होती, शब्दों के जोड़ से कुछ ज्यादा होती है। एक चित्र रंगों का जोड़ ही नहीं होता है, रंगों के जोड़ से कुछ ज्यादा होता है। एक संगीत केवल वीणा और वीणावादक की अंगुलियां नहीं होतीं, कुछ और भी ज्यादा होता है। और वह जो ज्यादा है, वही रहस्यपूर्ण, वही अदृश्य, वही न दिखाई पड़ने वाला जीवन का रस है, जीवन का आनंद है, जीवन में प्रभु है। जीवन जोड़ से कुछ ज्यादा है।
गणित में जोड़ होते हैं दो और दो चार होते हैं। जीवन में दो और दो चार नहीं होते। दो और दो के बाद चार तो हो जाते हैं। और एक नई चीज पैदा हो जाती है, जो दो और दो में होती ही नहीं..जो उनके मिलन में होती है।
अगर मैं किसी को प्रेम करता हूं, और उसे अपने हृदय से लगा लूं। और एक वैज्ञानिक विश्लेषण करे कि दो आदमियों की छाती की हड्डियां जब मिलती हैं तो आनंद कैसे होता होगा? तो हड्डियों के मिलने से कैसा आनंद हो सकता है? कैसा प्रेम हो सकता है? हड्डियों के मिलने से हो सकता है कोई विद्युत घर्षण पैदा हो जाती हो। यह हो सकता है कि हड्डियों को एक-दूसरे से गर्मी मिल जाती हो, लेकिन आनंद का क्या संबंध है? प्रेम का क्या संबंध है? अगर वैज्ञानिक किसी आलिंगन का विश्लेषण करे तो पाएगा, यह बेवकूफी है, एब्सर्ड है बिल्कुल। इससे कुछ नहीं मिल सकता, इसमें कुछ हो नहीं सकता।
लेकिन जो प्रेम में हैं वे जानते हैं कि आलिंगन में हड्डियां होती ही नहीं, शरीर मौजूद ही नहीं रह जाता। जब कोई किसी प्रेम से किसी को अपने हृदय के निकट लेता है, तो शरीर मौजूद ही नहीं रह जाते, शरीर अनुपस्थित हो जाते हैं। कोई और चीज उपस्थित हो जाती है, जिसका शरीर से कोई वास्ता नहीं है। दिखाई पड़ते हैं कि दो शरीर निकट आए, लेकिन निकट कोई और चीज आती है जो दिखाई भी नहीं पड़ती। आत्मा निकट आती है। लेकिन शरीर के विश्लेषण में उस आत्मा को नहीं खोजा जा सकता। सो वह झूठ हो जाती है, अशुद्ध हो जाती है, असार हो जाती है।
धर्म ने यह काम किया पहले, कि सारे जीवन को असार करने के लिए हर चीज का विश्लेषण कर दिया। फिर वैज्ञानिकों के हाथ में विश्लेषण की ताकत आ गई। उन्होंने सब चीजों का विश्लेषण करके धर्म को भी असार कर दिया। और अब आदमी खड़ा रह गया है। उसके हाथ में कुछ नहीं बचा है। न प्रेम, न परमात्मा, न संसार, न मोक्ष। सब चीजों का विश्लेषण हो गया है। और आदमी खाली हाथ खड़ा हो गया है। यह आदमी अगर दुख से न भर जाए, यह आदमी अगर जीवन के प्रति उदासी से न भर जाए, अगर यह आदमी जीवन को अंत करने के लिए तत्पर न होने लगे, तो क्या करे?
धर्मगुरुओं के विश्लेषण ने एक-एक आदमी को आत्महत्या सिखाई है, सुसाइड सिखाया है। आत्महत्या दो तरह से हो सकती है..या तो एक आदमी होलसेल आत्महत्या कर ले, इकट्ठी, या दूसरा आदमी फुटकर-फुटकर आत्महत्या करे। एक आदमी सीधा जाए और पहाड़ से कूद जाए और मर जाए। एक आदमी छुरी मार ले, जहर पी ले, या एक आदमी धीरे-धीरे मरे। पहले घर छोड़े, फिर वस्त्र छोड़े, फिर भोजन छोड़े, संन्यासी हो जाए।
धीरे-धीरे मरने के नाम को हम अब तक संन्यास कहते रहे हैं, ग्रेज्युअल सुसाइड को, धीरे-धीरे मरो। और जो आदमी इस मरने की प्रक्रिया में जितना आगे निकल जाए, जितना सूख जाए, जितना सूखे पत्तों की भांति हो जाए, जीवन की निंदा जिसे जीवन के हर रस को गंदा करने की तीव्रता से भर दे, उस आदमी को हम उतना ही आदर देते हैं। धर्म के तथाकथित झूठे प्रभावों में हमने जीवन को नहीं, मृत्यु को आदर दिया है। और जो समाज मृत्यु को आदर देता हो, उसके जीवन में आनंद कैसे हो सकता है? आत्मघात को हमने सम्मान दिया है। हमने अब तक केवल मृत्यु के देवताओं के मंदिरों में पूजा की है। हमने दीये जलाए हैं मृत्यु के सामने, जीवन के सामने नहीं।
धर्म के हाथों में, मैंने कहा: व्यक्तिगत आत्महत्या की सूझ मिली आदमी को, और विज्ञान के हाथों में सामूहिक आत्महत्या का उपाय मिल गया है। धर्म ने कहा: छोड़ो जीवन को! आवागमन से मुक्ति चाहिए। जीवन ठीक नहीं, शुभ नहीं, पाप है। यही एक मात्र पाप है, जीवित होना। मैं पिछले जन्मों के पापों के कारण जीवित हूं। आप भी पिछले जन्म के पापों के कारण जीवित हैं। जिस दिन पाप नहीं रह जाएंगे, जीवन की कोई जगह नहीं रह जाती, आप जीवित नहीं होंगे। आप जीवन में नहीं होंगे।
जो लोग पाप से मुक्त हो जाते हैं, वे जीवन से भी मुक्त हो जाते हैं। जीवन और पाप पर्यायवाची हैं, एक ही अर्थ रखते हैं। जीवित होने और पापी होने का एक ही मतलब है। क्योंकि जो पाप से मुक्त हो जाते हैं वे जीवन से भी मुक्त हो जाते हैं। तो जीवन है पाप। फिर क्या करें हम? जीवन से हटें? जीवन को छोड़ें? जीवन से मुक्त हों? आवागमन से बाहर जाने की कोशिश करें?
जीवन से हटने की सारी कोशिश मृत्यु में जाने की कोशिश ही हो सकती है, और कोई विकल्प नहीं, और कोई आल्टरनेटिव नहीं है। या तो जीवन की परिपूर्णता है, या तो जीवन के रस और आनंद में प्रवेश है, और या फिर जीवन से पीठ फेर लेनी है, जीवन से भागना है, जीवन से हटना है।
जिसे हम संन्यास कहते हैं, वह मृत्यु की ओर मुख करने का नाम है, जीवन की और पीठ फेर लेने का; मृत्यु की तरफ गति करने का नाम है। धर्मों ने व्यक्तिगत आत्मघात सिखाया। विज्ञान और आगे बढ़ गया। असल में विज्ञान हर चीज को सामूहिक बनाने का उपक्रम है।
एक व्यक्ति जिसका उपभोग कर सकता है, विज्ञान की कोशिश है कि सभी उसका उपभोग कर सकें। अकबर के महल में जितनी रोशनी होती थी, विज्ञान ने व्यवस्था कर दी कि उतनी रोशनी बंबई के झोपड़े में भी हो सके। अकबर जितने अच्छे भोजन करता था, विज्ञान कोशिश करता है हर आदमी उतने अच्छे भोजन कर सके। सम्राटों के पास जितने तीव्र वाहन थे, विज्ञान ने कोशिश की कि दरिद्रतम आदमी के पास उतने ही तीव्र वाहन हो जाएं। विज्ञान जीवन की घटनाओं को सामूहिक करने की कोशिश करता है। उसने मृत्यु को भी सामूहिक करने की व्यवस्था कर दी है। एक-एक आदमी क्यों आवागमन से मुक्त हो? सारी पृथ्वी एक ही साथ आवागमन से मुक्त क्यों न हो जाए? इसलिए हाइड्रोजन बम और एटमबम का इंतजाम किया। सभी को इकट्ठा मोक्ष क्यों न मिल जाए? सभी जीवन से छूट क्यों न जाएं? जब जीवन दुख है तो जीवन को बचाने की जरूरत क्या है? और जब जीवन पीड़ा है और उससे छूटना ही एकमात्र लक्ष्य है तो सभी सामूहिक रूप से क्यों न मोक्ष में प्रवेश पा जाएं? एक-एक आदमी कब तक मुक्त होता रहेगा? एक-एक आदमी को मोक्ष जाने में कितना समय लग जाएगा? इकट्ठा, टोटल, हम क्यों न मुक्त हो जाएं?
तो विज्ञान ने मृत्यु को भी सामूहिक, कलेक्टिव करने का उपाय कर दिया है। इन दोनों बातों में विरोध नहीं है। विश्लेषण मृत्यु पर ले ही जाता है। चाहे धार्मिक विश्लेषण हो, चाहे वैज्ञानिक विश्लेषण हो। एनालिसिस मौत पर ही ले जाती है, जीवन पर नहीं ले जाती। क्योंकि एनालिसिस का मतलब है: तोड़ना। तोड़ना, खंड-खंड करना। जो चीज तोड़ी जाती है, मर जाती है। जिसे हम खंड-खंड करते हैं वह नष्ट हो जाती है। जीवन का अर्थ है: जोड़ना। जोड़ना, अखंड करना। मृत्यु का अर्थ है: तोड़ना।
आप मरते हैं तो होता क्या है? आपके भीतर जो चीज सिंथेटिक थी वह टूट जाती है अपने एलीमेंट्स में। आपके भीतर जो जीवन था, वह खंड-खंड में बंट जाता है। और क्या होता है? मृत्यु का और अर्थ क्या है? मृत्यु का अर्थ है, जो जुड़ा था वह बिखर गया। जो संयुक्त था, वह वियुक्त हो गया। जो साथ-साथ था, वह अलग-अलग हो गया।
जीवन की प्रक्रिया है अखंडता में, इंटीग्रेशन में, सिंथेसिस में। और मृत्यु की प्रक्रिया है खंड-खंड होने में, विश्लिष्ट होने में, टूट जाने में। जो भी विश्लेषण का मार्ग पकड़ेगा..चाहे धर्म, चाहे विज्ञान..अंत में मृत्यु हाथ में आएगी। धार्मिकों ने भी एक तरह की मृत्यु हाथ में ला दी थी, विज्ञान ने दूसरी तरह की मृत्यु हाथ में ला दी है। लेकिन जीवन अब तक हाथ में नहीं आ सका।
न तो जीवन का धर्म पैदा हुआ है और न जीवन का विज्ञान पैदा हुआ है। जोड़ने का, इकट्ठेपन का, समग्रता का, होलनेस का अब तक कोई भाव जीवन पर नहीं प्रकट हो सका। इसलिए हम दुख में जीते हैं, इसलिए हम पीड़ा में जीते हैं, इसलिए हम अंधकार में जीते हैं। इसलिए जीवन से हमारा कोई संपर्क नहीं हो पाता है। न हम आनंद को जान पाते हैं, न आलोक को। हम कुछ भी नहीं जान पाते हैं। हम बिना जाने जीते हैं, और बिना जाने मर जाते हैं।
पहली बात आपसे कहना चाहता हूं। जीवन के मंदिर बनाने वाले बनना, पत्थर तोड़ने वाले नहीं, रोटी-रोजी कमाने वाले नहीं। अपमान जनक है ये बातें, कि कोई आदमी सिर्फ रोटी-रोजी कमाता है या पत्थर तोड़ता है। उसे पता ही नहीं उस आनंद का, उस गीत का, जो परमात्मा के मंदिर को बनाने में उपलब्ध होता है। जो किसी क्रिएटिविटी में..जो किसी सृजन में उपलब्ध होता है, जो खुद के जीवन को रोज-रोज बनाने में उपलब्ध होता है, उसे पता ही नहीं उस ग्रेटर सिंथेसिस की तरह, उस बड़े समन्वय की तरह, जहां भीतर का जीवन और नये-नये जोड़ को उपलब्ध होता है। रोज नये शिखर छूता है, रोज नई ऊंचाइयां छूता है, उसे पता ही नहीं।
भगवान कहीं बना-बनाया रेडीमेड नहीं बैठा है कि आप पहुंच गए और मुलाकात हो गई। भगवान क्रिएट करना होता है अपने भीतर! भगवान को जानना और पहंुचना निरंतर, सतत सृजन से गुजरने का नाम है, कॅास्टेंट क्रिएटिविटी से गुजरने का नाम है। जो अपने जीवन को नये-नये संयोगों में जोड़ता है, श्रेष्ठतर संयोगों में जोड़ता है, जोड़ता चला जाता है, जोड़ता चला जाता है, उस अल्टीमेट यूनिटी तक, जिसके आगे फिर कोई जोड़ नहीं रह जाता, कोई सिंथेसिस नहीं रह जाती उस दिन वह जानता है कि परमात्मा क्या है।
जैसे हम एक मंदिर बनाते हैं, नींव बहुत बड़ी भरनी पड़ती है। फिर हम ईंटें जोड़ते चले जाते हैं, फिर मंदिर ऊपर उठने लगता है और छोटा होने लगता है। शिखर पर पहुंच कर फिर बहुत ईंटें नहीं रह जाती, एक ही ईंट रह जाती है। छोटा होता चला जाता है शिखर, फिर अकेली ईंट रह जाती है ऊपर, फिर आगे उठने का कोई उपाय नहीं रह जाता। वहीं शिखर आ जाता है।
जीवन के मंदिर में बड़ी विस्तृत भूमि होती है, बुनियाद में, आधार में। फिर जोड़ते चलते हैं हम। और छोटी इकाई, और छोटी इकाई पैदा होती चली जाती है। जिस दिन जोड़ आखिरी हो जाता है, उस दिन जिसका अनुभव होता है, वही आत्मा है! मनुष्य के भीतर जो श्रेष्ठतम एकता पैदा होती है, जो महानतम यूनिटी पैदा होती है, जो बड़े से बड़ा समन्वय पैदा होता है, वही जीवन के देवता का अनुभव है। लेकिन हम तो जीवन को तोड़ते हैं।
हम तो एक मंदिर में जाकर कह सकते हैं क्या है यहां? कुछ ईंटें लगा दी हैं और जोड़ हो गया, और क्या है? मेरे कपड़े को हम कह सकते हैं कि क्या है इस कपड़े में। कुछ भी तो नहीं है, कुछ धागे आड़े और सीधे डाल दिए हैं, और कुछ तो नहीं है? कपड़ा सिर्फ धागा नहीं है, क्योंकि धागे से कोई शरीर नहीं ढक सकता। कपड़ा धागों से कुछ ज्यादा है, क्योंकि धागे जो नहीं करते, वह कपड़ा करता है। नहीं तो आदमी पागल था धागे से काम चला लेता। कपड़े की क्या जरूरत थी। कपड़ा धागों की कोई यूनिटी है, कोई सिंथेसिस है, कोई समन्वय है, कोई जोड़ है। और उस जोड़ में कुछ नई उपयोगिता पैदा हो जाती है। कोई नया अर्थ पैदा हो जाता है।
वह जो नया अर्थ है, उसकी तलाश, उसकी खोज ही धर्म है।
लेकिन निषेध के धर्म यह नहीं कर पाए। उन्होंने मनुष्य को मरना सिखाया है, जीना नहीं। और जो आदमी जितनी कुशलता से मर सकता है, उसको उतना सम्मान दिया। जो आदमी मरने में बड़ा अग्रणीय हो सकता है उसे शहीद कहा। यह शहीद है? लेकिन जो आदमी जीवन को जीता है कुशलता से, उसे आज तक कोई शहीद कहने वाला नहीं मिला। बदल देने चाहिए ये वैल्यूज, ये मूल्य बदल देने चाहिए। मरने वालों को शहीद कहने की क्या जरूरत है? लेकिन जो जीते हैं और जीवन को पूरे अर्थों में जीते हैं, वे ही शहीद हैं। मरना बहुत आसान है, जीना बहुत कठिन है। क्योंकि मरने में सिर्फ मरना पड़ता है, और कुछ भी नहीं करना पड़ता है। जीने में बहुत कुछ करना पड़ता है। तोड़ना बहुत आसान है, क्योंकि सिर्फ तोड़ना पड़ता है। जोड़ना बहुत कठिन है, क्योंकि जोड़ने के लिए कला चाहिए।तोड़ने के लिए तो कोई भी तोड़ सकता है।
एक मंदिर गिराना हो तो हम किन्हीं बड़े आर्किटेक्ट को खोजने नहीं जाते। गांव के कोई भी मजदूर काम दे देंगे। लेकिन एक मंदिर बनाना हो, तो गांव के मजदूर काम नहीं देते। हमें किसी आर्किटेक्ट को खोजना पड़ता है जो बनाना जानता हो, बनाने की कला जानता हो, जो जोड़ने की कला जानता हो।
अब तक धर्म के नाम पर हमने केवल तोड़ना सिखाया है, छोड़ना सिखाया है, भागना सिखाया है। यह कोई भी कर सकता है। इसके लिए कोई जीवन की कला जाननी जरूरी नहीं है। लेकिन वह धर्म अब तक पैदा नहीं हो सका जो जोड़ना सिखाए। जीवन का आर्किटेक्ट, जीवन की कला सिखाए, जीवन को निर्माण करने के सूत्र सिखाए।
पहला सूत्रः आज की सांझ मुझे आपसे बात करनी है और वह यह है कि जीवन को विश्लेषण की दृष्टि से देखना बंद कर दें, अन्यथा आपके हाथ में राख के सिवाय कुछ भी नहीं लगेगा। जीवन को देखें संश्लेषण की दृष्टि से और आपके हाथ में रस उपलब्ध होना शुरू हो जाएगा। और सब कुछ निर्भर करता है कि आप कैसे देखते हैं। जीवन वही हो जाता है जो आपकी देखने की दृष्टि होती है।
जापान से एक आदमी अफ्रीका के लिए यात्रा किया। उसी जहाज से एक अमरीकी भी यात्रा कर रहा था। वे दोनों अफ्रीका पहंुचे। वे दोनों एक ही जहाज से पहुंचे। एक ही समय पहुंचे। एक ही काम से पहुंचे, यह उन्हें पता नहीं था। वह जो अमरीकी युवक था वह भी एक बहुत बड़ी जूतोें की कंपनी का बेचने वाला एजेंट था, सेल्समैन था। वह भी अफ्रीका गया था कि अपनी कंपनी के जूते वहां बिकने की व्यवस्था कर सके और वह जापानी भी जापान की एक जूता बेचने वाली कंपनी का विक्रेता था। वह भी इसीलिए गया हुआ था।
वे दोनों एक ही जहाज से अफ्रीका में उतरे। रास्तों से गुजर कर वे अपने होटल तक पहंुचे। एक ही होटल में ठहरे। एक ही रास्ते से गुजरे। उन्हीं लोगों को दोनों ने देखा। अमरीकी ने जाकर वहां से अमेरिका केबल किया, मैं लौटते जहाज से वापस आ रहा हूं। अफ्रीका में जूते नहीं बिक सकेंगे, क्योंकि यहां कोई जूता पहनता ही नहीं है। सभी लोग नंगे पैर हैं। यहां हमारे लिए कोई सुविधा नहीं, यहां सब व्यर्थ है हमारा आना। मैं वापस लौट रहा हूं। जापानी ने भी उसी वक्त केबल किया जापान कि एक लाख जूते की जोड़ियां फौरन भेज दें, यहां बिक्री की बहुत संभावना है। कोई भी जूता नहीं पहने हुए है। एक भी आदमी के पास जूते नहीं हैं। बहुत बड़ा बाजार है। फौरन एक लाख जोड़ी तो भेज ही दें; क्योंकि एकदम से बिक्री शुरू हो जाएगी।
अमरीकी वापस लौट गया, क्योंकि कोई आदमी जहां जूता ही नहीं पहनता; वहां जूता कौन खरीदेगा? जहां जूते पहनने का रिवाज ही नहीं वहां जूते का सवाल ही क्या उठाना है?
इन दोनों की दृष्टियां भिन्न थीं। एक ने बाजार खोज लिया, एक ने बाजार खो दिया।
जीवन के बाजार में हम सब उतरते हैं। कुछ लोग बाजार खो देते हैं, कुछ लोग बाजार को उपलब्ध कर लेते हैं। जो लोग विश्लेषण से देखते हैं, उन्हें जीवन असार दिखाई पड़ता है। वे फौरन केबल करते हैं परमात्मा को आवागमन से छुटकारा दिलाओ, हम वापस आना चाहते हैं, जीवन व्यर्थ है! यहां कोई सार नहीं। हे पतितपावन! हमें जल्दी वापस बुला लो। यहां हम नहीं रहना चाहते। लेकिन जो जीवन को संश्लेषण की दृष्टि से देखते हैं, वे परमात्मा से कहते हैं, धन्यवाद है तुझे, कि जीवन में हमें भेजने का मौका तूने दिया और इस योग्य समझा। जीवन में बड़ा आनंद है, जीवन में बड़े मौके हैं, जीवन एक बड़ी अॅापरच्युनिटी, एक बड़ा अवसर है। अनुगृहीत हैं हम तेरे कि तूने हमें इस योग्य समझा कि इस जीवन में भेजा।
रवींद्रनाथ ने मरने के दो दिन पहले एक गीत लिखा। और उस गीत में कहा कि हे परमात्मा! मैं किन शब्दों में तुझे धन्यवाद दूं, कि तूने मुझे जीने का मौका दिया। तेरा जीवन बहुत अदभुत था। और अगर कुछ दुख भी इस जीवन में मुझे मिले होंगे, तो वह मेरी भूल से मिले होंगे, तेरे जीवन के कारण नहीं।
फिर से दोहराता हूं, रवींद्रनाथ ने गाया कि अगर तेरे जीवन से कुछ दुख भी मुझे मिले होंगे, तो वह मेरी भूल से मुझे मिले, तेरे जीवन के कारण नहीं। तेरा जीवन तो बहुत धन्य था। और मेरी एक ही प्रार्थना है कि अगर तूने मुझे इस जीवन में देख कर अपात्र न समझ लिया हो, तो बार-बार मुझे जीवन के दर्शन का मौका देना, मैं बार-बार लौट आना चाहता हूं। शायद अगली बार मैं आऊं तो मैं ज्यादा पात्र होकर आऊं। जो भूलें मैंने आज की वे कल न करूं। जीवन तूने दिया, धन्यवाद! और आगे भी जीवन देना इसकी प्रार्थना है।
इस हृदय को मैं धार्मिक हृदय कहता हूं। इस हृदय को मैं जानने वाला हृदय कहता हूं। इस हृदय ने जीवन के मंदिर को बनाया और जाना, ऐसा मैं कहता हूं। जीवन का निषेध नहीं, लाइफ निगेशन नहीं, जीवन का स्वीकार, लाइफ अफर्मेशन पहला सूत्र है जीवन की क्रांति की दिशा में। जो लोग अपने जीवन को बदलना चाहते हैं, पहले तो उन्हें जीवन से मित्रता साधनी होगी, शत्रुता नहीं। पहले तो उन्हें जीवन से आलिंगन लेना होगा, पीठ नहीं फेर लेनी होगी। पहले तो उन्हें जीवन के रस में विभोर होना होगा।
लेकिन हम तो जीवन को देखते ही नहीं। सूरज उगता है, आपने कभी उसे धन्यवाद दिया है? और चल पड़े परमात्मा की खोज में। और चल पड़े आनंद की खोज में। सुबह आंख खुलती है और जीवन आपके भीतर करवट लेता है; कभी आपने धन्यवाद दिया जीवन को कि एक दिन और मिला मुझे, अनुगृहीत हुआ मैं? कृतज्ञता ज्ञापन की कभी?
आकाश में चांद-तारे होते हैं। मुफ्त, बिना आपसे कुछ लिए रोज निकल आते हैं। फूल बिना कुछ आपसे मांगे रोज खिल जाते हैं। श्वास बिना किसी चीज के व्यय किए आपके भीतर आनंद की बहुत खबरें लाते हैं। लेकिन हम वे लोग हैं जो जीवन को देखते ही नहीं। न हवाओं में, न चांद-तारों में, न सूरज में, न आदमी की आंखों में, न बच्चों की आंखों में, न स्त्रियों की आंखों में, न बूढ़ों की आंखों में। हम तो जीवन को देखते ही नहीं। हम तो ऐसे जीते हैं जैसे एक बोझ ढोते हों। हम तो ऐसे जीते हैं जैसे एक सजा काटते हों।
मैं कारागृह में गया था एक बार। वहां मैंने लोगों से पूछा, कैसे जी रहे हो? उन्होंने कहा: जीने का कोई सवाल नहीं, हम केवल सजा काट रहे हैं। मैंने कहा: अगर तुम ही सजा काटते होते तो भी ठीक था, मैं बाहर की बड़ी जेल से आ रहा हूं, वहां भी लोग सजा ही काट रहे हैं। वहां भी कोई जी नहीं रहा है, क्योंकि जीने के प्राथमिक सूत्रों का ही कोई बोध नहीं।
पहला सूत्र है: जीवन के प्रति अहोभाव, ग्रेटिट्यूड। जीवन के प्रति अनुग्रह का भाव। और जिस दिन आप अनुग्रह से देखेंगे, उसी दिन वे द्वार खुल जाएंगे जो बंद रहे हैं अब तक। और आप हैरान हो जाएंगे, यह भी मौजूद था जो मैंने कल तक देखा नहीं और मैं क्या देख रहा था?
दो कैदी एक कारागृह में बंद थे। वे दोनों कारागृह के सींखचे पकड़े हुए खड़े थे। सींखचों के सामने ही एक गंदा डबरा था, जिसमें तरह-तरह के कीड़े-मकोड़े पल रहे थे, और जिससे बेहद बदबू उठ रही थी। एक कैदी उस डबरे को देखे जा रहा था और गालियां दे रहा था कि कैद में रखा वह तो ठीक, लेकिन इस डबरे के पास? दूसरा कैदी भी उसके पास ही खड़ा था, उसकी आंखें आकाश की तरफ उठीं थीं, आकाश में पूर्णिमा का चांद निकल आया था और उससे अमृत की वर्षा हो रही थी, और उस कैदी ने अपने बगल के पड़ोसी को हिलाया और कहा: पागल, लेकिन चांद भी है, तू चांद को देखता ही नहीं? किसने कहा कि तू डबरे को देख? डबरा है, यह तो ठीक, लेकिन किसने कहा कि तू डबरे को देख? तू खुद ही चुनाव कर रहा है डबरे को देखने का, क्योंकि चांद भी मौजूद है। और पागल, जब मैंने चांद को देखा और चांद को देख कर जब मेरी आंखें डबरे पर गईं तो मैं हैरान हो गया। वह डबरा भी बदल गया था, उस में चांद की प्रतिछाया बन रही थी। उस डबरे में भी मुझे चांद दिखाई पड़ा। क्योंकि चांद को मैंने देखा, चांद से मैं परिचित हुआ। फिर उस डबरे में मुझे कीड़े-मकोड़े ख्याल नहीं आए। चांद की प्रतिछवि ही मुझे दिखाई पड़ी और तू डबरे को देख रहा है? और मैं जानता हूं, अगर तू चांद को भी देखेगा तो डबरे की प्रतिछवि चांद में दिखाई पड़ेगी। यह बिल्कुल स्वाभाविक है।
हमारी दृष्टि हमारे जगत को निर्मित करती है। धर्मगुरुओं ने मनुष्य के जगत को विषाक्त कर दिया असार दुखपूर्ण कह कर। और उन्होंने कहा और हो गया, उनका अभिशाप फलित हो गया।
क्या हम इस दुनिया को ऐसे ही जीते रहें या जीवन की दृष्टि को बदलेें? परमात्मा अगर कहीं है, तो जीवन के मंदिर में विराजमान है। और जिन्हें भी उस मंदिर में प्रवेश करना है, वे अहोभाव, जीवन के प्रति धन्यता का बोध, जीवन के प्रति कृतज्ञता का बोध लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं।
पहली सीढ़ी है: जीवन के प्रति अहोभाव। और उस सीढ़ी तक पहुंचने की दृष्टि है..संश्लेषण, सिंथेसिस, होलनेस। एनालिसिस नहीं, विश्लेषण नहीं, खंड-खंड कर देना नहीं। अखंड को देखें, खंड-खंड को नहीं। जो अखंड को देखता है वह धार्मिक है, जो खंड-खंड को देखता है वह अधार्मिक है। यह जीवन क्रांति की दिशा में पहला सूत्र है।
एक छोटी सी कहानी और मैं अपनी बात पूरी करूंगा।
आने वाले दो दिनों में दो सूत्रों की और आपसे बात करूंगा।
बड़ी झूठी कहानी है। स्वर्ग में, स्वर्ग के एक रेस्तरां में बुद्ध, कनफ्यूशियस और लाओत्सु, तीनों बैठ कर गपशप कर रहे हैं। स्वर्ग में भी रेस्तरां होते हैं। क्योंकि जो आदमी जमीन से गया है वह जमीन की बहुत सी चीजें वहां ले जाता है। नहीं ले जाता तो वहां बना लेता है। फिर बुद्ध, कनफ्यूशियस और लाओत्सु तीनों ही पृथ्वी पर शायद ही किसी रेस्त्रां में गए हों। जो जमीन पर चूक गए, सोचा होगा स्वर्ग में पूरा कर लें। वे तीनों रेस्त्रां में बैठ कर गपशप करते हैं। एक अप्सरा एक बहुत सुंदर सुराही में जीवन का रस लेकर आती है। बुद्ध यह देखते ही कि जीवन का रस है आंख बंद कर लेते हैं और कहते हैं, बस। जीवन दुख और असार है, हटो यहां से, अन्यथा मैं यहां से हट जाऊंगा।लेकिन कनफ्यूशियस कहता है, थोड़ा सा चख कर देख लूं, कैसा है? क्योंकि बिना चखे कुछ भी कहना उचित नहीं। एक घूंट देख लूं कैसा है, क्योंकि बिना घूंट लिए कोई निर्णय देना उचित नहीं, योग्य नहीं। छोटी सी प्याली में एक घूंट जीवन का रस लेकर वह चखता है और कहता है, नहीं, कोई सार नहीं है, कोई सार नहीं है। वह भी आंख बंद कर लेता है। लाओत्सु कहता है कि पूरी सुराही मुझे दे दे। क्योंकि जब तक मैं पूरे को न चख लूं, कुछ भी कहना उचित नहीं। हो सकता है जो एक घूंट में न हो वह पूरे में हो। हो सकता है जो खंड में न हो अखंड में हो। तो मैं पूरे ही जीवन को पी जाऊं, फिर कुछ कहूं। वह पूरी प्याली पी जाता है और नाचने लगता है। और बुद्ध से कहता है, तुमने बिना चखे कहा कि कुछ भी नहीं है। और कनफ्यूशियस, तुमने एक घूंट पीया और कहा व्यर्थ है। लेकिन जीवन तो उसकी पूर्णता में ही जाना जा सकता है।
और मैं तुमसे कहता हूं, जो जीवन को नहीं जानता, वही कहता है, व्यर्थ है; वही कहता है, असार है। और मैं जीवन को जान कर कहता हूं, सारभूत जो कुछ है सब जीवन में है। परमात्मा जीवन में है और मोक्ष भी। लेकिन पूरे जीवन को जो जानते हैं वे ही केवल इस सत्य को अनुभव कर पाते हैं।
जीवन को उसकी पूर्णता में जान लेना ही प्रार्थना है, पूजा है। जीवन को उसकी पूर्णता में जान लेना ही संन्यास है, साधुता है। जीवन को उसकी पूर्णता में जान लेना ही मनुष्य का अंतिम और चरम लक्ष्य, अंतिम और चरम उद्देश्य है। धर्म उसका द्वार है, पहला सूत्र। दो सूत्रों की कल-परसों आपसे बात करूंगा।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, और ऐसी बातों को जिनके विरोध में हमेशा साधु और संन्यासी बोलते रहे हैं। आपकी बड़ी कृपा है। शांति और प्रेम से मेरी बातों को सुनने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।

जो मैंने कहा वह शब्दों का जोड़ ही नहीं है, उसका विश्लेषण मत कर लेना, अन्यथा वह व्यर्थ हो जाएगा। जो मैंने कहा उसे पूरा का पूरा देखना। उसमें शब्दों से कुछ ज्यादा भी मैंने कहने की कोशिश की है, कोई इशारा किया है जो शब्दों के पार ले जाता है। काश वह दिखाई पड़ जाए तो परमात्मा का मंदिर दूर नहीं।

अंत में सबके भीतर बैठे हुए जीवन के देवता को मैं प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।  

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