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मंगलवार, 9 जुलाई 2019

नारी और क्रांति-(प्रवचन-02)

नारी और क्रांति-(दूसरा प्रवचन)

मैं थोड़े विचार में पड़ गया हूं, क्योंकि मुझे कहा गया कि विशेष रूप से स्त्रियों के जीवन के संबंध में कुछ कहूं।
जैसा मैं देखता हूं, स्त्री और पुरुष का आधारभूत जीवन भिन्न-भिन्न नहीं है। मनुष्य के जीवन की जो समस्याएं हैं, वे पुरुष और स्त्री की दोनों की समस्याएं हैं। और जब हम इस भांति सोचने लगते हैं कि स्त्रियों के जीवन के लिए कुछ विशिष्ट दिशा होगी, तभी भूल शुरू हो जाती है।
जीवन की जो मौलिक समस्या है अशांति की, दुख की, पीड़ा की, वह स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग नहीं है। पहले तो मैं उस मौलिक समस्या के संबंध में थोड़ी सी बात आपसे कहूं जो सभी की है। और फिर कुछ प्रश्न पूछे हुए हैं जो शायद स्त्रियों के लिए ही विशेष अर्थ के होंगे, उनकी भी बात करूंगा।
मनुष्य के जीवन में इतनी घनीभूत अशांति है, इतनी पीड़ा है, इतना दुख है कि जो लोग भी विचार करते हैं उन्हें यह अनुभव होगा, जीवन की व्यर्थता का अनुभव होगा। ज्ञात होगा कि जैसे जीवन में कोई अर्थ नहीं। हम जीते हैं, हम जीते हैं केवल इसलिए कि मरने में समर्थ नहीं हैं। जीए जाते हैं और मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं।

इस भांति जीना इतना व्यर्थ और बोझिल है कि करीब-करीब जीते जी ही हम मुर्दों की भांति हो जाते हैं। कोई रस, कोई आनंद, कोई जीवन में नृत्य और संगीत नहीं रह जाता। वह सब विनष्ट हो जाता है। जैसे किसी पौधे को हम उखाड़ लें, उसकी जड़ें टूट जाएं और पौधा कुम्हला जाए, उसके फूल मुरझा जाएं। करीब-करीब मनुष्य का जीवन ऐसा हो गया है--अपरूटेड। उसकी सारी जड़ें टूट गई हैं जमीन से।
इसलिए न तो ऐसी आंखें दिखाई पड़ती हैं जो शांत हों, न ऐसे हृदय दिखाई पड़ते हैं जो आनंद से भरे हों और न ऐसे जीवन दिखाई पड़ते हैं जिनमें प्रेम का संगीत हो। यह जो इतनी उदास, इतनी दुख से भरी और पीड़ा से भरी स्थिति है, इसके लिए क्या किया जाए? क्या हो? कौन सा रास्ता, कौन सी विधि मनुष्य को प्रफुल्लित कर सके, आनंदित कर सके?
मैंने कहा यह कोई पुरुष और स्त्री का अलग प्रश्न नहीं है। यह तो जीवन का प्रश्न है और सभी के लिए है।

एक इस संबंध में भी पूछा है कि जीवन में अशांति है, शांति कैसे उपलब्ध हो?
जीवन में अशांति है यह तो हमें अनुभव होता है लेकिन शायद यह हमें दिखाई नहीं पड़ता कि उस अशांति को हमारे अतिरिक्त और कोई पैदा नहीं करता है। जीवन में अशांति का एक तो मौलिक कारण यही है कि जब भी अशांति होती है तब हम सोचते हैं कोई और अशांति को पैदा कर रहा है। जो व्यक्ति भी इस भाषा में सोचता है कि कोई और अशांति को पैदा कर रहा है उसके जीवन में शांति कभी नहीं हो सकेगी।
एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे मेरी बात समझ में आए और फिर आगे बढ़ा जा सके।
एक छोटे से गांव में, सुबह होने को थी, सूरज निकलने को था, एक घुड़सवार आकर रुका। गांव के बाहर ही, गांव की दीवाल के बाहर ही, एक बूढ़ा आदमी बैठा हुआ था। उस घुड़सवार ने उस बूढ़े आदमी से पूछा, मैं इस गांव में रहने का निर्णय करके आया हूं। पुराना गांव मैंने बदल लिया, मैं इस गांव में रहना चाहता हूं। क्या आप बता सकेंगे कि इस गांव के लोग कैसे हैं? उस बूढ़े आदमी ने बड़ी समझदारी की बात पूछी, उसने कहा, इसके पहले कि मैं बताऊं कि इस गांव के लोग कैसे हैं, मैं तुमसे यह पूछना चाहूंगा कि जिस गांव को तुम छोड़ कर आ रहे हो उस गांव के लोग कैसे थे?
उस आदमी ने कहा, इसे पूछने से क्या प्रयोजन? उस बूढ़े ने कहा, उसके बिना उत्तर देना असंभव है। मुझे बताओ जिस गांव को तुम छोड़ कर आते हो, उस गांव के लोग कैसे थे? उस व्यक्ति ने कहा, उनका नाम भी, उनकी स्मृति भी मेरे हृदय को घृणा से भर देती है। उस गांव के लोग बहुत दुष्ट थे, बहुत बुरे थे। उन्होंने ही मुझे इतना अशांत और पीड़ित किया कि उनके कारण मुझे उस गांव को छोड़ कर आना पड़ा है। उस गांव के लोगों का नाम न लें। उनका नाम आते ही मेरे हृदय में घृणा भर आती है।
उस बूढ़े आदमी ने कहा, मित्र, तुम किसी और गांव में जाओ, इस गांव के लोग उस गांव से भी ज्यादा बुरे हैं। यह गांव तुम्हें ठीक नहीं हो सकेगा। मैं सत्तर वर्ष से इस गांव में रहता हूं, मैं लोगों को जानता हूं, वे बहुत बुरे हैं। तुम्हारे गांव के लोग जिनको तुम बुरा कह रहे हो, इनके सामने कुछ भी बुरे नहीं हैं। तुम कोई और गांव जाओ। वह घुड़सवार आगे बढ़ गया। और उसके पीछे ही एक बैलगाड़ी आकर रुकी।
उसमें भी एक परिवार आया हुआ था और उस परिवार ने भी उस बूढ़े से पूछा कि इस गांव के कैसे लोग हैं? हम अपने गांव को छोड़ कर आते हैं और इस गांव में रहना चाहते हैं। बूढ़े ने फिर वही प्रश्न दोहराया, उसने कहा, मुझे बताओ, तुम जिस गांव को छोड़ कर आते हो वहां के लोग कैसे थे? उसने कहा, उनका नाम, उनकी स्मृति, मेरे हृदय को आनंद से भर देती है। उतने ही भले लोग पृथ्वी पर शायद ही कहीं हों, मेरा चित्त दुखी है, और मेरे आंसू अभी गीले हैं। उनको छोड़ कर आना पड़ा है, इससे मेरे प्राण बहुत-बहुत दुखी है। उस बूढ़े ने कहा, आओ, हम तुम्हारा स्वागत करते हैं, इस गांव के लोगों को तुम उस गांव के लोगों से बेहतर पाओगे। सत्तर वर्ष का मेरा अनुभव है, इतने अच्छे आदमी और कहीं भी नहीं हैं।
यह छोटी सी कहानी आपसे कहना चाहता हूं। वही गांव था लेकिन उन दो अलग-अलग लोगों को उस बूढ़े ने अलग-अलग उत्तर दिए। इस बात पर निर्भर करता है कि गांव कैसा होगा? इस बात पर निर्भर करता है कि मैं कैसा हूं? अगर मैं अशांत हूं तो यह मत सोचना कि ये जीवन में सब तरफ बुरे लोग हैं, बुरी परिस्थितियां हैं इसलिए अशांति है। अशांति का बुनियादी कारण मनुष्य के खुद के भीतर होता है। उसके व्यक्तित्व में होता है।
इसी जमीन पर, इसी तरह की परिस्थितियों में, वे लोग भी हैं जो बहुत आनंदित हैं।
महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट भी हमारे बीच पैदा होते हैं और उनके जीवन में अपूर्व आनंद है। यही परिस्थितियां हैं, यही पृथ्वी है, यही आकाश है, यही चांदत्तारे हैं, यही लोग हैं। इनके बीच ही कोई व्यक्ति परिपूर्ण आनंद को उपलब्ध होता है, शांति को उपलब्ध होता है। और हम हैं, इन्हीं लोगों के बीच दुखी और पीड़ित हो जाते हैं। जरूर हमारे देखने में और हमारे होने में कुछ भेद होगा, हमारे व्यक्तित्व, हमारे सोचने के ढंग में, हमारी जीवन-विधि में कोई भूल होगी। हमारे सोचने का ढंग, हमारे जीवन जीने की पद्धति में कोई बुनियादी खामियां होंगी। अन्यथा यह कैसे हो सकता है?
एक फकीर था जापान में, उन्नीस सौ तीस में वहां यह घटना घटी। आधी रात को अपने झोपड़े में कुछ पत्र लिख रहा था। किसी आदमी ने द्वार को धक्का दिया, द्वार अटका हुआ था खुल गया। जो आदमी भीतर आया उसने शायद सोचा होगा कि फकीर सोया है हुआ लेकिन फकीर जागा था, आधी रात थी।
वह चोर था जो आया था वह घबड़ा गया। उसने जल्दी से अपना छुरा बाहर निकाल लिया। उस फकीर ने कहा कि मित्र, छुरे को बंद ही रखो, यहां कोई बुरे लोग नहीं रहते हैं कि छुरा निकालने की जरूरत पड़े। छुरे को बंद ही रखो और आओ, कैसे इतनी रात को आना हुआ? चोर बहुत घबड़ा गया, उसने कहा, आप पूछते हैं तो मैं कह दूं, मैं तो चोर हूं और चोरी करने के विचार से आया हूं। उस फकीर की आंखों में आंसू आ गए। उस चोर ने पूछा, क्या हुआ ? आप रोते क्यों हैं?
उस फकीर ने कहा, इसलिए रोता हूं कि तुम कितनी पीड़ा में और दुख में नहीं होओगे कि तुम चोरी करने को तैयार हुए और तुम कितनी मजबूरी में नहीं होओगे कि आधी रात को गांव को छोड़ कर एक फकीर के झोपड़े में चोरी करने आए? तुम्हारी स्थिति मेरे मन में बहुत दुख और पीड़ा पैदा करती है। और इस कारण भी मैं दुखी हूं कि मेरे पास ज्यादा भी नहीं है, कोई दस-पांच रुपये पड़े हैं। तो तुम उन्हें निकाल लो और ले जाओ।
सामने के ताक पर से उसने रुपये उठाए, जब वह जाने को हुआ तो उस फकीर ने कहा, कृपा करो, कम से कम एक रुपया वापस छोड़ दो, सुबह मुझे जरूरत पड़ सकती है। उसने एक रुपया छोड़ा और वह चोर बाहर निकला, बाहर निकलते वक्त फकीर ने फिर उससे कहा, एक काम और करो, कम से कम मुझे एक धन्यवाद तो देते जाओ। उस चोर ने घबड़ाहट में धन्यवाद दिया और चला गया।
वर्ष भर बाद वह पकड़ा गया। अदालत में मुकदमा था और भी बहुत चोरियां थीं, इस चोरी का भी अदालत को पता चल गया तो उस फकीर को अदालत में जाना पड़ा। चोर घबड़ाया हुआ था और सारे लोगों की गवाहियों का उतना मूल्य नहीं था, लेकिन अगर फकीर कह देगा कि यह चोरी करने आया। उस फकीर की बड़ी प्रतिष्ठा थी, सैकड़ों लोग उसको पूजते थे, उसकी बात को तो कोई गलत नहीं मानेगा, वह बहुत डरा हुआ था।
फकीर अदालत में गया। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि क्या इस आदमी को आप पहचानते हैं? उस फकीर ने कहा, बहुत भलीभांति, ये तो मेरे पुराने परिचित हैं और मित्र हैं। चोर घबड़ाया। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि क्या इन्होंने कभी आपके यहां चोरी की? उस फकीर ने कहा कि नहीं, इन्होंने कभी मेरे यहां चोरी नहीं की। हां, एक बार मजबूरी में रात को ये मेरे घर आए थे। तो मैंने इनको कुछ रुपये दिए थे और उनके बदले में इन्होंने धन्यवाद दे दिया था। बात वहीं समाप्त हो गई थी, चोरी का कोई सवाल नहीं है।
चोर तो बहुत हैरान हुआ, बाद में जब वह छूट गया, तो उस फकीर के पास गया और उसने कहा, मैं बहुत हैरान हूं। एक चोर को भी आप चोर न समझ पाए? उस फकीर ने क्या कहा? उस फकीर ने कहा, जिस दिन मेरे भीतर का चोर मर गया, उस दिन के बाद किसी को चोर समझना मुश्किल हो गया है।
हमारे व्यक्तित्व में, जो नहीं है वह हमें ये सारी दुनिया नहीं दे सकती और जो हमारे व्यक्तित्व में है उसे सारी दुनिया की ताकत हमसे छीन भी नहीं सकती। अगर आप अशांत हैं तो इस बात को समझना, कोई और आप को अशांत नहीं कर रहा है। कोई और कारण नहीं हैं जो आपको अशांत कर रहे हों। आप अशांत हैं ये आपके व्यक्तित्व की किसी बुनियादी भूल के कारण हैं।
अगर यह बात खयाल में न आए तो हम परिस्थितियों को बदलने में, व्यक्तियों को बदलने में जीवन को गंवा देते हैं और स्वयं को बदलने की तरफ दृष्टि पैदा नहीं होती। अशांति है तो आप कारण हैं, शांति होगी तो आप कारण होंगे। किन बातों से अशांति पैदा होती है व्यक्तित्व में? जीवन के प्रति अंधकारपूर्ण दृष्टि से अशांति पैदा होती है। जीवन के प्रति आलोकपूर्ण दृष्टि से शांति पैदा होती है। क्या मेरा अर्थ है अंधकारपूर्ण दृष्टि से? जीवन को देखने का ढंग, जीवन के प्रति नजर एटिटयूड दो प्रकार के हो सकते हैं।
मैं एक घर में मेहमान होता था। जब मैं जाता, उस घर के सारे परिवार के लोग मुझे बहुत प्रेम करते। उस घर की गृहिणी तो इतना प्रेम करती कि जब मैं उनके घर में जाता, तो जिस दिन मैं जाता उसी दिन से वह रोना शुरू कर देती। मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने पूछा कि यह रोना क्यों शुरू कर देते हो मेरे आने से? उसने कहा, जैसे ही आप आते हैं मुझे आपके जाने का डर और आप दो दिन बाद चले जाएंगे, इसकी पीड़ा और इतना दुख मुझे होने लगता है कि जब तक आप रहते हैं मैं सिर्फ रोती ही रहती हूं।
एक और घर में मैं ठहरता था। कभी दिन को जाता, कभी दो दिन को उनके घर रुकता। उस घर में भी जो परिवार था बहुत प्रेम करता। मैंने उनसे पूछा कि जब मैं आता हूं आप रोते हैं या नहीं? उस घर की गृहिणी ने मुझे कहा, जब आप होते हैं तब हम आनंदित होते हैं और जब आप चले जाते है तो फिर हम अत्यंत आनंद से आपके आने की प्रतीक्षा करने लगते हैं।
मैंने उनसे कहा, जब मैं आपके घर में नहीं रहता हूं तब? तो उसने कहा कि मैं प्रतीक्षा करती हूं आनंद से आपके पुनः आने की। जब आप होते हैं तब होने का आनंद, जब आप नहीं होते तब आने की प्रतीक्षा का प्रीतिपूर्ण आनंद।
और एक घर में एक गृहिणी ने मुझे कहा कि जब आप नहीं होते हैं तो मैं दुखी होती हूं कब आप आएंगे और जब आप आते हैं तो मैं दुखी रहती हूं कि कहीं आप आज-कल में आप चले ही जाएंगे।
जीवन को देखने के दो ढंग होते हैं--जो हमारे पास होता है, उसमें आनंदित होना और जो हमारे पास नहीं है, उसके लिए दुखी होना।
अगर आपके एक दांत में दर्द हो जाए तो ऐसा लगेगा कि मेरे ऊपर नरक टूट पड़ा है और आप सोचेंगी कि अगर यह मेरे दांत का दर्द अलग हो जाए तो मुझे सब सुख मिल जाएगा। लेकिन जब दांत का दर्द दूर हो जाता है आपको कौन सा सुख मिलता है? और अभी आपका कोई भी दांत नहीं दुख रहा है, आपको कौन सा सुख है? एक दांत का दर्द नरक में डाल देता है, बत्तीस दांत में कोई भी नहीं दुख रहा है लेकिन आप स्वर्ग में नहीं हैं। जो नहीं है, जिसका अभाव है उससे तो हम दुखी और पीड़ित होते हैं लेकिन जो है, जो उपलब्ध है उससे हम आनंदित नहीं होते। तब तो जीवन एक दुख की लंबी कथा हो जाएगी।
एक घर में, मैं अभी कोई वर्ष हुआ गया। छोटा मकान था, वे बहुत दुखी थे और मुझसे कहे, मकान बहुत छोटा है, अगली बार जब आप आएंगे तो हम बड़े मकान में चले गए होंगे। छोटे मकान से वे दुखी थे। मैंने कहा कि मैं जरूर अगली बार आऊंगा। अगली बार मैं गया, वे बड़े मकान में पहुंच गए थे। लेकिन मुझे कोई सुखी नहीं दिखाई पड़े। मैंने उनसे पूछा कि बड़े मकान में आ गए हो लेकिन सुखी नहीं मालूम पड़ते। उन्होंने कहा, मकान तो जरूर बड़ा है, पहले मकान से बड़ा है। लेकिन फिर भी एक फ्लैट है और हम तो एक बंगले का विचार करते हैं। पांच साल के भीतर नया बंगला बना लेंगे।
अलग दूर झाड़ियों के बीच में, मैंने उनसे कहा, अगर मैं बचा और पांच साल के बाद भी आना संभव हुआ तो मैं आऊंगा। मैं यह देखने आऊंगा कि उस बंगले में भी आनंद मिलता है या नहीं? इतना मैंने उनसे कहा, उस बंगले में भी आनंद नहीं मिलेगा। क्योंकि जिस व्यक्ति को जो उपलब्ध है अगर वह उसमें आनंद खोजने में असमर्थ है तो उसे जो भी उपलब्ध हो जाएगा उसमें भी वह आनंद खोजने में असमर्थ होगा।
आनंद तो हमारी खोज पर निर्भर करता है। जो है, अगर हम उसमें आनंद खोजने में समर्थ हो जाएं, तो जो भी हमारे पास होगा, हम उसमें भी आनंद खोजने में समर्थ होंगे, और अगर हमारे जीवन की दृष्टि जो भी है, उसमें दुख खोजती हो, तो फिर जो भी हमारे पास होगा हम उसमें दुख खोजते चले जाएंगे। ऐसे जीवन दुख की एक कथा हो जाती है और प्राणों में अशांति घिर जाती है। अशांत होने का अर्थ है हमने जीवन के अंधकारपूर्ण पहलू को पकड़ना सीखा है, हमने जीवन के प्रकाशपूर्ण पहलू को पकड़ना और पहचानना नहीं सीखा।
एक और छोटी कहानी कहूं इस खयाल से कि आप में से बहुत लोग नये होंगे, उनको मेरी बात ठीक से समझ में आ जाए।
दो साधु एक दिन सांझ को अपने झोपड़े पर वापस लौटे। वर्षा के दिन आने को थे, आकाश में बादल घिर गए थे, जोर के तूफान उठे हुए थे, हवाएं जोर से बह रही थीं और बादलों के आगमन की प्रतीक्षा थी। वर्षा के दिन आने को थे।
वे दोनों सांझ को अपने झोपड़े पर लौटे--गांव के बाहर नदी के पास। पहला साधु जैसे ही अपने झोपड़े को देखा हैरान हो गया। हवाओं ने आधे झोपड़े को उड़ा दिया था, आधे झोपड़े का छप्पर टूटा हुआ गिरा हुआ था, दूर पड़ा था। गरीब का झोपड़ा था, कोई बड़ी ताकत का झोपड़ा नहीं था। लकड़ी और बांस से बना हुआ था, आधा झोपड़ा उड़ गया था।
वह फकीर बोला, इन्हीं बातों से तो परमात्मा पर शक आ जाता है। इतना बड़ा गांव है, इतने बड़े मकान हैं, उनमें से तो किसी का मकान नहीं टूटा है, इस गरीब साधुओं के मकान को भगवान ने तोड़ दिया। इसी से शक पैदा हो जाता है कि भगवान है भी या नहीं। पापियों के बड़े मकान खड़े हो जाते हैं और जो हम निरंतर प्रार्थना में समय बिता रहे हैं। उनका आधा झोपड़ा खराब हो गया। अब वर्षा में क्या होगा? वह यह कह ही रहा था, अपने मन में सोच ही रहा था कि पीछे से दूसरा फकीर भी उसके साथ ही रहता था, वह भी आया। उसके आते ही उसने कहा कि देखते हो, हमारी सारी प्रार्थनाओं का फल, हमारे सारे उपवास, हमारी सारी पूजा यह फल लाई है कि वर्षा सिर पर खड़ी है, झोपड़े का छप्पर उड़ गया, अब क्या होगा? इस वर्षा में कैसे दिन व्यतीत होंगे?
लेकिन वह दूसरा फकीर झोपड़े को देखते ही जैसे किसी आनंद से भर गया और नाचने लगा। जैसे पागल हो गया हो और उसने एक गीत गाया और उसने कहा कि परमात्मा तेरा धन्यवाद है, आंधियों का क्या भरोसा, पूरे झोपड़े को भी उड़ा कर ले जा सकती थी। जरूर तूने ही बाधा दी होगी और आधे झोपड़े को बचाया। आंधियों का क्या भरोसा, आंधियां क्या देखती हैं, किसका झोपड़ा है गरीब फकीरों का, पूरा ही उड़ा ले जाती है। जरूर तूने ही बाधा दी होगी, जरूर तूने ही रोका होगा, तब तो आधा रुक गया, और आधा तो काफी है, आधा तो बहुत है।
वह झोपड़े के भीतर गया और रात उसने एक गीत लिखा और उस गीत में उसने लिखा कि हमें तो पता ही नहीं था कि आधे छप्पर में इतना आनंद हो सकता है, नहीं तो हम खुद ही पहले आधा अलग कर देते। आज रात को सोए, आधे में सोए भी रहे और जब भी आंख खुली तो आधे खुले हुए छप्पर से आकाश में चमकते हुए तारे और चांद को भी देखते रहे। अब वर्षा आएगी, आधे में सोएंगे भी और आधे में वर्षा का गीत भी होता रहेगा, वर्षा की बूंदें भी टपकती रहेंगी। हमें पता होता काश तो हम आधा खुद ही अलग कर देते। भगवान तूने वक्त पर ठीक किया।
उस रात वे दोनों उस झोपड़े में सोए, पहला फकीर बहुत दुखी सोया, बहुत परेशान सोया, रात नींद नहीं ले सका क्योंकि शिकायत उसके मन में आ गई थी और जो हुआ था उससे वह दुखी हो गया था। वह रात भर अशांत था। दूसरा फकीर बहुत गहरी नींद में सोया, उसके मन में परमात्मा के लिए धन्यवाद था, ग्रेटिटयूड था, कृतज्ञता थी, उसने बचाया था। वह सुबह आनंदित उठा।
घटना एक ही थी, देखने वाले आदमी दो थे। परिस्थिति एक ही थी, देखने की दृष्टियां दो थीं। कौन सी दृष्टि आपकी है इस पर विचार करना। अगर पहले वाले साधु की दृष्टि है तो चित्त अशांत होगा। अगर दूसरे वाले साधु की दृष्टि है तो जीवन में बहुत आनंद है, बहुत-बहुत आनंद है। जीवन में बहुत कृतज्ञ होने जैसा है।
इस संबंध में इतना ही आपसे कहना चाहता हूं कि यह विचार करना कि आपकी दृष्टि कौन सी है? अगर पहले वाले साधु की दृष्टि हो तो इस जीवन में आपको नरक के सिवाय और कुछ भी उपलब्ध नहीं हो सकता। और उसका दोष जीवन को मत देना कि जीवन बुरा था। स्मरण रखना कि उसकी सारी की सारी बात जीवन के बुरे होने की न थी वह दृष्टि के गलत होने की थी। और अगर आपकी दृष्टि दूसरे साधु की हो, तो इस जीवन में बहुत है, इस जीवन के पत्ते-पत्ते में संगीत है, और कण-कण में एक अदभुत रहस्य है। लेकिन अगर दृष्टि हो तो वह दिखाई पड़ना शुरू होता है। छोटे-छोटे प्रेम में बहुत प्रार्थनाएं हैं, छोटे-छोटे जीवन के संबंधों में बहुत आनंद है। लेकिन केवल उनको दिखाई पड़ेगा जो देखने में समर्थ होते हैं। उनको नहीं जो आंख बंद किए बैठे रहते हैं।
इस प्रश्न के उत्तर में जो पूछा है--अशांत हैं, शांत कैसे हों?
यह मैं कहना चाहता हूं, विचार करना देखना कि किस-किस तरह से जीवन को देखने का आपका ढंग है और यह आपके हाथ में है कि अगर यह दिखाई पड़ जाए कि जीवन को देखने का ढंग मेरा गलत है और मैं अपने हाथ से अशांति के बीज बोए चला जाता हूं और मैं अपने हाथ से जहां फूल भी हैं, और कांटे भी हैं वहां केवल कांटों को ही देखता हूं फूलों को नहीं, तो फिर कौन क्या करेगा? अगर यह खयाल आ जाए तो जीवन को बदलना आपके हाथ में है। क्योंकि कोई भी मनुष्य दुखी नहीं होना चाहता। कौन दुखी होना चाहता है? कोई भी दुखी नहीं होना चाहता।
अगर यह स्पष्ट समझ में आ जाए कि दुखी होना मेरी दृष्टि में है तो उस दृष्टि से मुक्त होना कठिन नहीं है। यह बोध आते ही कि मेरी दृष्टि गलत है। जीवन में परिवर्तन शुरू हो जाता है। यह बोध आते ही कि अशांति के कारण मेरे देखने में छिपे हैं। देखने का ढंग बदलना शुरू हो जाता है। कुछ और करने की जरूरत नहीं, ठीक रूप से सत्य के प्रति जाग जाना जरूरी है कि मेरी अशांति मेरे जीवन दृष्टिकोण में छिपी है।
जब तक दूसरों में हम अशांति के कारण खोजते रहेंगे, एक पत्नी खोजती रहेगी कि उसके पति के कारण वह अशांत है, वह गलती में है। एक मां सोचती रहे कि अपने बच्चों के कारण अशांत है, वह गलती में है। एक बहन सोचती रहे कि वह अपने संबंधियों के कारण अशांत है वह गलती में है। जो भी यह सोचता हो कि मैं किसी और के कारण अशांत है, वह एकदम गलत है। और इस भांति सोचने से उसके जीवन में कभी शांति संभव नहीं हो सकती। यह सोचना ही अशांति को जन्म देता है।
सोचने का ढंग बदलना जरूरी है। वह तभी बदल सकता है जब हम अपने व्यक्तित्व का ठीक से विश्लेषण करें, ठीक से अपने व्यक्तित्व को सोचें और समझें और देखें कि मेरी नजर में, मेरी दृष्टि में कहीं भूल तो नहीं है, कहीं बुनियादी भूल तो नहीं है।
 और मैं समझता हूं कि हममें से प्रत्येक के पास इतनी समझ होती है कि अगर हम उसका उपयोग करें तो अपनी दृष्टि की भूल को देख पा सकते हैं। और वह देख ली जाए, उसका दर्शन हो जाए, तो जीवन में क्रांति होनी शुरू हो जाती है। वही होंगे दिन, वही होंगी रातें, वही होंगे पति, वही होंगे बच्चे, वही होगा परिवार, वही होगी दुनिया, लेकिन दृष्टि के बदलते ही वही सब जहां नरक था, स्वर्ग का आगमन शुरू हो जाता है।
स्वर्ग और नरक कोई भौगोलिक, कोई ज्योग्राफिकल स्थितियां नहीं हैं कि कहीं ज्योग्राफी में, कहीं भूगोल में खोजने से नरक और स्वर्ग मिल जाएंगे। स्वर्ग और नरक साइकोलाजिकल मनुष्य की मानसिक स्थितियां हैं। जो मनुष्य जीवन को ठीक से देखने में समर्थ हो जाता है, वह यहीं स्वर्ग में प्रविष्ट हो जाता है और जो गलत ढंग से देखता है, वह नरक में प्रविष्ट हो जाता है।

कुछ और दो-एक प्रश्न पूछे हैं। बच्चों को अंतर्मुखी कैसे बनाया जाए?

पहली तो बात यह है कि बच्चों को कैसा बनाया जाए, इसकी बजाय हमेशा यह सोचना चाहिए, खुद को कैसा बनाया जाए। हमेशा हम यह सोचते हैं कि दूसरों को कैसा बनाया जाए। और मैं यह भी आपसे कहूं कि वही व्यक्ति यह पूछता है कि दूसरों को कैसा बनाया जाए, जो खुद ठीक से बनने में असमर्थ रहा है। अगर उसके खुद के व्यक्तित्व का ठीक-ठीक निर्माण हुआ हो, तो जीवन के जिन सूत्रों से उसने खुद को निर्मित किया है, खुद के जीवन में शांति को, स्वयं को पाने की दिशा खोजी है, खुद के जीवन में संगीत पाया है, उन्हीं सूत्रों से, उन्हीं सूत्रों के आधार पर, वह दूसरों के निर्माण के लिए भी अनायास अवसर बन जाता है।
लेकिन हम पूछते हैं कि बच्चों को कैसे बनाया जाए? इसके पीछे पहली बात तो यह समझ लें कि आपकी बनावट कमजोर होगी, ठीक न होगी। और यह भी समझ लें कि किसी दूसरे को बनाना डायरेक्टली सीधे-सीधे असंभव है। हम जो भी कर पाते हैं दूसरों के लिए, वह बहुत इनडायरेक्ट, बहुत परोक्ष, बहुत पीछे के रास्ते से होता है, सामने के रास्ते से नहीं। कोई मां अपने बच्चों को बनाना चाहे, किसी खास ढंग का अंतर्मुखी बनाना चाहे, सत्यवादी बनाना चाहे, चरित्रवान बनाना चाहे, परमात्मा की दिशा में ले जाना चाहे, तो इस भूल में कभी न पड़े कि वह सीधे-सीधे बच्चे को परमात्मा की दिशा में ले जा सकती है। क्योंकि जब भी हम किसी व्यक्ति को किसी दिशा में ले जाने लगते हैं उसका अहंकार, उस व्यक्ति का अहंकार चाहे वह छोटा बच्चा ही क्यों न हो, हमारे विरोध में खड़ा हो जाता है। क्योंकि दुनिया में कोई भी घसीटा जाना पसंद नहीं करता, छोटा बच्चा भी नहीं करता।
जब हम उसे ले जाने लगते हैं कहीं और, और कुछ बनाने लगते हैं, तब उसके भीतर उसकी अहंता, उसका अहंकार, उसका अभिमान हमारे विरोध में खड़ा हो जाता है। वह सख्ती से इस बात का विरोध करने लगता है क्योंकि यह बात उसे आक्रामक एग्रेसिव मालूम पड़ती है। इसमें आक्रमण है, और इस आक्रमण का वह विरोध करने लगता है। छोटा बच्चा है, जैसे उससे बनता है वह विरोध करता है। जिस-जिस बात के लिए इनकार किया जाता है, वही-वही करने को उत्सुक होता है। जिस-जिस बात से निषेध किया जाता है वहीं-वहीं जाता है। जिन-जिन रास्तों पर रुकावट डाली जाती है, वही रास्ते उसके लिए आकर्षक हो जाते हैं।
फ्रायड एक बड़ा मनोवैज्ञानिक हुआ। अपनी पत्नी और अपने बच्चे के साथ एक दिन बगीचे में घूमने गया था। जब सांझ को वापस लौटने लगा अंधेरा घिर गया, तो देखा दोनों ने कि बच्चा कहीं नदारद है। फ्रायड की पत्नी घबड़ाई उसने कहा कि बच्चा तो साथ नहीं है, कहां गया? बड़ा बगीचा था मीलों लंबा, अब रात को उसे कहां खोजेंगे? फ्रायड ने क्या कहा? उसने कहा, तुमने उसे कहीं जाने को वर्जित तो नहीं किया था, कहीं जाने को मना तो नहीं किया था। उसकी स्त्री ने कहा, हां, मैंने मना किया था, फव्वारे पर मत जाना। तो उसने कहा, सबसे पहले फव्वारे पर चल कर देख लें। सौ में निन्यानबे मौके तो यह है कि वह वहीं मिल जाए, एक ही मौका है कि कहीं और हो। उसकी पत्नी चुप रही, जाकर देखा वह फव्वारे पर पैर लटकाए हुए बैठा हुआ था।
उसकी पत्नी ने पूछा कि यह आपने कैसे जाना? उसने कहा, यह तो सीधा गणित है। मां-बाप जिन बातों की तरफ जाने से रोकते हैं वे बातें आकर्षक हो जाती हैं। बच्चा उन बातों को जानने के लिए उत्सुकता से भर जाता है कि जाने। जिन बातों की तरफ मां-बाप ले जाना चाहते हैं, बच्चे की उत्सुकता समाप्त हो जाती है, उसका अहंकार जग जाता है, वह रुकावट डालता है, वह जाना नहीं चाहता।
आप यह बात जान कर हैरान होंगी कि इस तथ्य ने आज तक मनुष्य के समाज को जितना नुकसान पहुंचाया है किसी और ने नहीं। क्योंकि मां-बाप अच्छी बातों की तरफ ले जाना चाहते हैं। बच्चे का अहंकार अच्छी बातों के विरोध में हो जाता है। मां-बाप बुरी बातों से रोकते हैं, बच्चे की जिज्ञासा बुरी बातों की तरफ बढ़ जाती है। मां-बाप इस भांति अपने ही हाथों अपने बच्चों के शत्रु सिद्ध होते हैं।
इसलिए शायद कभी आपको यह खयाल न आया हो कि बहुत अच्छे घरों में बहुत अच्छे बच्चे पैदा नहीं होते। कभी नहीं होते, बहुत बड़े-बड़े लोगों के बच्चे तो बहुत निकम्मे साबित होते हैं।
गांधी जैसे बड़े व्यक्ति का एक लड़का शराब पीया, मांस खाया, धर्म परिवर्तित किया, आश्चर्यजनक है। क्या हुआ यह, गांधी ने बहुत कोशिश की उसको अच्छा बनाने की, वह कोशिश दुश्मन बन गई।
एक बात तो यह समझ लें कि जिसको भी परिवर्तित करने का खयाल उठे पहले तो स्वयं का जीवन उस दिशा में परिवर्तित हो जाना चाहिए। तो आपके जीवन की छाया, आपके जीवन का प्रभाव, बहुत अनजान रूप से बच्चे को प्रभावित करता है। आपकी बातें नहीं, आपके उपदेश नहीं। आपके जीवन की छाया बच्चे को परोक्ष रूप से प्रभावित करती हैं और उसके जीवन में परिवर्तन की बुनियाद बन जाती है।
और दूसरी बात बच्चे को कभी भी दबाव डाल कर, आग्रह करके किसी अच्छी दिशा में ले जाने की कोशिश मत करना। वही बात अच्छी दिशा में जाने के लिए सबसे बड़ी दीवाल हो जाएगी। और हो भी सकता है, जब तक वह छोटा रहे आपकी बात मान ले क्योंकि कमजोर है और आप ताकतवर हैं, आप डरा सकते हैं, धमका सकते हैं, आप हिंसा कर सकते हैं उसके साथ। और यह मत सोचना कभी कि मां-बाप अपने बच्चों के साथ कैसे हिंसा करेंगे। मां-बाप ने इतनी हिंसा की है बच्चों के साथ जिसका कोई हिसाब नहीं है। दिखाई नहीं पड़ती, जब भी हम किसी को दबाते हैं तब हम हिंसा करते हैं।
बच्चे के अहंकार को चोट लगती है लेकिन वह कमजोर है, सहता है। आज नहीं कल जब वह बड़ा हो जाएगा और ताकत उसके हाथ में आएगी, तब तक आप बूढ़े हो जाएंगे, तब आप कमजोर हो जाएंगे, तब वह बदला लेगा। बूढ़े मां-बाप के साथ बच्चों का जो दर्ुव्यवहार है उसका कारण मां-बाप ही हैं। बचपन में उन्होंने बच्चों के साथ जो किया है, बुढ़ापे में बच्चे उनके साथ करेंगे।
इसलिए भूल कर भी दबाव मत डालना, भूल कर भी जबरदस्ती मत करना, भूल कर भी हिंसा मत करना। बहुत प्रेम से अपने जीवन के परिवर्तन से, बहुत शांति से, बहुत सरलता से बच्चे को सुझाना, आदेश मत देना, यह मत कहना कि ऐसा करो। जब भी कोई ऐसा कहता है, ऐसा करो, तभी भीतर यह ध्वनि पैदा होती है सुनने वाले के कि नहीं करेंगे।
यह बिलकुल सहज है। उससे यह मत कहना ऐसा करो, उससे यही कहना कि मैंने ऐसा किया और आनंद पाया। अगर तुम्हें आनंद पाना हो तो इस दिशा में सोचना। उसे समझाना, उसे सुझाव देना, आदेश नहीं, उपदेश नहीं। उपदेश और आदेश बड़े खतरनाक सिद्ध होते हैं। उपदेश और आदेश बड़े अपमानजनक सिद्ध होते हैं।
छोटे बच्चे का बहुत आदर करना क्योंकि जिसका हम आदर करते हैं उसको ही केवल हम अपने हृदय के निकट ला पाते हैं। यह हैरानी की बात मालूम पड़ेगी, हम तो चाहते हैं कि छोटे बच्चे बड़ों का आदर करे। हम उनका कैसे आदर करें। लेकिन अगर हम चाहते हैं कि छोटे बच्चे आदर करें मां-बाप का, तो आदर देना पड़ेगा। यह असंभव है कि मां-बाप अनादर दे और बच्चों से आदर पा ले, यह असंभव है। बच्चों को आदर देना जरूरी है और बहुत आदर देना जरूरी है। उगते हुए अंकुर है, उगता हुआ सूरज है। हम तो व्यर्थ हो गए, हम तो चुक गए। अभी उसमें जीवन का विकास होने को है।
वह परमात्मा ने एक नये व्यक्तित्व को भेजा है, उभर रहा है। उसके प्रति बहुत सम्मान, बहुत आदर जरूरी है। आदरपूर्वक, प्रेमपूर्वक खुद के व्यक्तित्व के परिवर्तन के द्वारा उस बच्चे के जीवन को भी परिवर्तित किया जा सकता है।
अंतर्मुखी बनाने के लिए पूछा है। अंतर्मुखी तभी कोई बन सकता है जब भीतर आनंद की ध्वनि गूंजने लगे। हमारा चित्त वहीं चला जाता है जहां आनंद होता है। अभी मैं यहां बोल रहा हूं। अगर कोई वहां एक वीणा बजाने लगे और गीत गाने लगे तो फिर आपको अपने मन को वहां ले जाना थोड़ी पड़ेगा, वह चला जाएगा। आप अचानक पाएंगे कि आपका मन मुझे नहीं सुन रहा है वह वीणा सुनने लगा।
मन तो वहां जाता है जहां सुख है, जहां संगीत है, जहां रस है। बच्चे बहिर्मुखी इसलिए हो जाते हैं कि वे मां-बाप को देखते हैं दौड़ते हुए बाहर की तरफ। एक मां को वे देखते हैं बहुत अच्छे कपड़ों की तरफ दौड़ते हुए, देखते हैं गहनों की तरफ दौड़ते हुए, देखते हैं बड़े मकान की तरफ दौड़ते हुए, देखते हैं बाहर की तरफ दौड़ते हुए। उन बच्चों का भी जीवन बहिर्मुखी हो जाता है।
अगर वे देखें एक मां को आंख बंद किए हुए और उसके चेहरे पर आनंद झरते हुए देखें, और वे देखें एक मां को प्रेम से भरे हुए, और वे देखें एक मां को छोटे मकान में भी प्रफुल्लित और आनंदित; और वे कभी-कभी देखें कि मां आंख बंद कर लेती है और किसी आनंद के लोक में चली जाती है; वे पूछेंगे कि यह क्या है? कहां चली जाती हो? वे अगर मां को ध्यान में और प्रार्थना में देखें, वे अगर किसी गहरी तल्लीनता में उसे डूबा हुआ देखें, वे अगर उसे बहुत गहरे प्रेम में देखें, तो वे जानना चाहेंगे कि कहां जाती हो? यह खुशी कहां से आती है? आंखों में शांति कहां से आती है? यह प्रफुल्लता चेहरे पर कहां से आती है? यह सौंदर्य, यह जीवन कहां से आ रहा है? वे पूछेंगे, वे जानना चाहेंगे और वही जानना, वही पूछना, वही जिज्ञासा। फिर उन्हें मार्ग दिया जा सकता है।
तो पहली तो जरूरत है कि अंतर्मुखी होना खुद सीखें। अंतर्मुखी होने का अर्थ है: घड़ी दो घड़ी को चौबीस घंटे के जीवन में सब भांति चुप हो जाएं, मौन हो जाएं। भीतर से आनंद को उठने दें, भीतर से शांति को उठने दें। सब तरह से मौन और शांत होकर घड़ी दो घड़ी को बैठ जाएं। जो मां-बाप चौबीस घंटे में भी घंटे दो घंटे को भी मौन होकर नहीं बैठते, उनके बच्चों के जीवन में मौन नहीं हो सकता। जो मां-बाप घंटे दो घंटे को घर में प्रार्थना में लीन नहीं हो जाते हैं, ध्यान में नहीं चले जाते हैं, उनके बच्चे कैसे अंतर्मुखी हो सकेंगे? बच्चे देखते हैं मां-बाप को कलह करते हुए, द्वंद्व करते हुए, संघर्ष करते हुए, लड़ते हुए, दुर्वचन बोलते हुए। बच्चे देखते हैं मां-बाप के बीच कोई बहुत गहरा प्रेम का संबंध नहीं देखते, कोई शांति नहीं देखते, कोई आनंद नहीं देखते, उदासी, ऊब, घबड़ाहट, परेशानी देखते हैं। ठीक इसी तरह की जीवन की दशा उनकी हो जाती है।
 बच्चों को बदलना हो तो खुद को बदलना जरूरी है। अगर बच्चों से प्रेम हो तो खुद को बदल लेना एकदम जरूरी है। जब तक आपके कोई बच्चा नहीं था, तब तक आपकी कोई जिम्मेवारी नहीं थी। बच्चा होने के बाद एक अदभुत जिम्मेवारी आपके ऊपर आ गई। एक पूरा जीवन बनेगा या बिगड़ेगा और वह आप पर निर्भर हो गया। अब आप जो भी करेंगी उसका परिणाम उस बच्चे पर होगा। अगर वह बच्चा बिगड़ा, अगर वह गलत दिशाओं में गया, अगर दुख और पीड़ा में गया तो उसका पाप किसके ऊपर होगा? बच्चे को पैदा करना आसान, लेकिन ठीक अर्थों में मां बनना बहुत कठिन है।
बच्चे को पैदा करना तो बहुत आसान है। पशु-पक्षी भी करते हैं, मनुष्य भी करते हैं, भीड़ बढ़ती जाती दुनिया में। लेकिन इस भीड़ से कोई हल नहीं है। मां होना बहुत कठिन है अगर दुनिया में कुछ स्त्रियां भी मां हो सकें तो सारी दुनिया दूसरी हो सकती है। मां होने का अर्थ है: इस बात का उत्तरदायित्व कि जिस जीवन को मैंने जन्म दिया है अब उस जीवन को ऊंचे से ऊंचे स्तरों तक, परमात्मा तक पहुंचाने की दिशा पर ले जाना मेरा कर्तव्य है और इस कर्तव्य की छाया में मुझे खुद को बदलना होगा। क्योंकि जो व्यक्ति भी दूसरे को बदलना चाहता हो उसे अपने को बदले बिना कोई रास्ता नहीं है।

एक और प्रश्न पूछा हुआ है, बहुत महत्वपूर्ण, पूछा है कि पत्नी की इच्छा के विरुद्ध, जब पति शारीरिक उपभोग करने के लिए बाध्य करते हैं तो स्त्री की मानसिक हालत विक्षिप्त हो जाती है। उस तनावपूर्ण स्थिति में औरत का क्या कर्तव्य हो सकता है?

और भी बहुत सी बहन मुझे निरंतर पूछती हैं, बहुत स्त्रियों के जीवन में प्रश्न होगा। लेकिन शायद इस बात को कभी भी नहीं सोचा होगा कि पति के मन में कामेच्छा की बहुत प्रवृत्ति का पैदा होना किस बात का सबूत है। वह इस बात का सबूत है कि पति को प्रेम नहीं मिल रहा, यह सोच कर, शायद यह सुन कर हैरानी होगी। जो पत्नी अपने पति को जितना ज्यादा प्रेम दे सकेगी, उस पति के जीवन में सेक्सुअल डिजायर उतनी ही कम हो जाएगी।
शायद यह कभी आपके खयाल में न आया हो। जिन लोगों के जीवन में जितना प्रेम कम होता है उतनी ही ज्यादा कामेष्णा और सेक्सुअलिटी होती है। जिस व्यक्ति के जीवन में जितना ज्यादा प्रेम होता है उतना ही उसके जीवन में सेक्स नहीं होता, सेक्स धीरे-धीरे क्षीण होता चला जाता है।
तो पत्नी के ऊपर एक अदभुत कर्तव्य है, पति के ऊपर भी है। अगर पत्नी को लगता है कि पति बहुत कामातुर, कामेच्छा से पीड़ित होता है और उसे ऐसे उपभोग में ले जाता है। जहां उसका चित्त दुखी होता है, शांति नहीं पाता, कष्ट पाता है और विक्षिप्तता आती है, पागलपन आता है, घबड़ाहट आती है तो उसे जानना चाहिए कि पति के प्रति उसका प्रेम अधूरा होगा। वह पति को और गहरा प्रेम दे, वह इतना प्रेम दे कि प्रेम पति को शांत कर दे। जिस पति को प्रेम नहीं मिलता उसके भीतर अशांति घनीभूत होती है और उस अशांति के निकास के लिए रिलीज के लिए सिवाय सेक्स के और कुछ भी नहीं रह जाता।
दुनिया में जितना प्रेम कम होता जा रहा है उतनी सेक्सुअलिटी बढ़ती जा रही है, उतनी कामोत्तेजना बढ़ती जा रही है। अगर पत्नी पति को परिपूर्ण प्रेम दे...। एक बहुत पुराने ऋषि ने एक अदभुत बात कही है। एक बहुत पुराने ऋषि को एक घर में आमंत्रित किया गया था। नया विवाह हुआ था और लड़की विदा हो रही थी। उस ऋषि ने उस लड़की को आशीर्वाद दिया कि मैं तुझे आशीर्वाद देता हूं कि तेरे दस पुत्र हों और अंत में तेरा पति भी तेरा ग्यारहवां पुत्र हो जाए। स्त्री घबड़ा गई, उसके प्रियजन घबड़ा गई कि यह ऋषि ने क्या कहा? पूछा कि इसका अर्थ? उसने कहा, तू पति को इतना प्रेम करना, इतना प्रेम करना कि पति का, तेरा प्रेम, तेरे प्रेम की पवित्रता, तेरे प्रेम की प्रार्थना पति के भीतर से सेक्स को विलीन कर दे और वह एक दिन तेरे पुत्र जैसा हो जाए। जीवन की सार्थकता और दांपत्य की परिपूर्ण निष्पत्ति तभी है जब पत्नी अंततः पाए कि पति भी उसका पुत्र हो गया है, वह उसकी मां हो गई।
गांधी लंका गए थे, वहां किसी ने भूल से, बा भी उनके साथ थी, किसी ने भूल से उनका परिचय दिया और कह दिया कि गांधी भी आए हैं और बड़े सौभाग्य की बात है उनकी मां बा भी आई हैं। बा भी घबड़ा गईं, गांधी के साथी भी सब परेशान हुए कि यह तो हमारी भूल हो गई, पहले बताना था, फिर गांधी बोलने ही बैठ गए थे तो कोई उपाय न था। लेकिन गांधी ने क्या कहा? गांधी ने कहा कि किसी मित्र ने परिचय देते वक्त भूल से सच्ची बात कह दी है। बा पहले मेरी पत्नी थी, इधर दस वर्षों से मेरी मां हो गई। जो पत्नी पति की मां न बन पाए अंततः जानना चाहिए उसका जीवन व्यर्थ गया।
प्रेम जितना घनीभूत होगा, प्रेम जितना गहरा होगा उतना ही पवित्र होता चला जाता है, उतना ही सेक्स विलीन होता चला जाता है, एक बात। दूसरी बात--यह तो लंबी प्रक्रिया से होगा--लेकिन पूछा है, पति अगर जबरदस्ती करे, तो आज ही तो यह नहीं हो सकता। आज क्या होगा? इस क्षण क्या हो सकता है? पति अगर जबरदस्ती करे और कामभोग में ले जाए तो स्त्री क्या करे?
मेरा मानना है--इसे प्रयोग करें, समझें और सोचें--अगर पति जबरदस्ती ले जाता है कामभोग में, तो ठीक कामभोग के क्षण में, ठीक इंटरकोर्स के क्षण में अपने मन में पूरी प्रार्थना करें कि पति के जीवन में शांति हो, पति के जीवन में प्रेम हो। ठीक उस क्षण में प्रार्थना करें अपने मन में। उस क्षण में पत्नी और पति की आत्माएं अत्यंत निकट होती हैं, अत्यंत निकट होती हैं। उस क्षण में पत्नी के मन में जो भी उठेगा वह पति के मन तक संक्रमित हो जाता है। अगर उस क्षण में यह प्रार्थना की है कि पति के जीवन में शांति और प्रेम हो, सेक्स क्षीण हो, कामोत्तेजना क्षीण हो, उसके मन के विकार गिरें। अगर पत्नी ने यह बहुत प्रेमपूर्ण प्रार्थना की है, इसके फल तत्क्षण दिखाई पड़ने शुरू हो जाएंगे। क्योंकि उस क्षण पति और पत्नी दो शरीर ही होते हैं, उनकी आत्माएं अत्यंत निकट हो जाती हैं। और उस क्षण में जो भी भाव हो, वे एक-दूसरे में प्रविष्ट हो जाते हैं।
तात्कालिक करने के लिए मैं यह कहता हूं। लेकिन लंबे जीवन के प्रवाह में इतना प्रेम देने को कहता हूं कि प्रेम इतनी पवित्रता को पैदा कर दे कि सेक्स की कल्पना धीरे-धीरे क्षीण हो जाए और विलीन हो जाए।
जो बातें मैंने आपसे कहीं, इस खयाल से नहीं कि मैंने जो कहा है उसको वैसा ही मान लेना। मैं कोई गुरु नहीं हूं, मैं कोई उपदेशक नहीं हूं और मैं कोई प्रचारक नहीं हूं और मेरे मन में कोई आकांक्षा नहीं है कि जो मैं कहता हूं उसे कोई माने। फिर मैं क्यों कहता हूं? कहता हूं सिर्फ इस छोटी सी बात के कारण कि जो मैंने कहा है उसे कोई सोचे, विचारे। तो जो मैंने कहा है उसे मान लेने की कोई जरूरत नहीं है। उसे सोचना, विचारना, उस पर थोड़ा जीवन में प्रयोग करना। और अगर उस प्रयोग से, उस सोच-विचार से उसमें से कोई सूत्र निकले, तो वह सूत्र फिर आपका हो जाएगा। वह फिर मेरा नहीं है। फिर वह आपका जीवन-दर्शन बन जाएगा, वह फिर आपके जीवन के लिए आधार बन जाएगा। वह फिर मेरा नहीं है, फिर मुझे भूला जा सकता है और उस सूत्र के अनुसार जीवन को गति दी जा सकती है।
मैंने कुछ कहा है इस खयाल से कि वह आपके भीतर विचार के लिए प्रेरणा बनेगा--विश्वास नहीं बनेगा आपका, विचार के लिए प्रेरणा बनेगा। मैंने कुछ कहा है, अवसर बनेगा कि आप उस पर सोचेंगे, चिंतन करेंगे। जितना चिंतन करेंगे, जितना जीवन में खोदेंगे और विचार करेंगे, उतनी ही ज्यादा संपदा मिलनी शुरू हो जाती है।
बहुत कुछ छिपा है जीवन में। जो विचार की कुदाली को लेकर खोदना शुरू करता है, वह बहुत बड़ी संपत्ति का मालिक हो जाता है। वह दरिद्र नहीं रह जाता फिर, वह दीन नहीं रह जाता। हो सकता है वस्त्र उसके पास बहुत बड़े न हों, मकान बहुत बड़े न हों, लेकिन उसके पास एक आत्मिक संपत्ति होती है जिसके आगे कोई भी संपत्ति नहीं है। और वैसी संपत्ति सबके भीतर छिपी है, जो भी खोजता है उसे मिल जाती है और जो बैठा रहता है वह खो देता है।

मेरी इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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