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रविवार, 21 जुलाई 2019

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-01)

मन दर्पण कहलाए-(पहला प्रवचन)

जीवन-सत्य के संबंध में थोड़ी सी बातें न केवल हम विचार करेंगे, बल्कि कैसे सत्य के जीवन में प्रवेश किया जाए, कैसे हम स्वयं छलांग लगा सकते हैं और सत्य का स्वाद ले सकते हैं, इस संबंध में प्रयोग भी करेंगे। बात का तो कोई बहुत मूल्य नहीं है, विचारों की कोई बहुत कीमत नहीं है, क्योंकि विचार मनुष्य के सारे प्राणों को न तो छूते हैं और न समस्त प्राणों को डुबाने में समर्थ हैं। जीवन में जो भी अर्थपूर्ण है, उसे पूरे प्राणों से अनुभव करने की तैयारी करनी पड़ती है। जैसे हम किसी को प्रेम करते हैं तो बुद्धि भी डूब जाती है, हृदय भी। देह भी डूब जाती है, श्वास भी डूब जाती है। सारा प्राण और सारा व्यक्तित्व प्राण में डूब जाता है और प्रेम का अनुभव होता है।
ऐसे ही जीवन की अनुभूति भी, यदि हमारा पूरा व्यक्तित्व डूब जाए, तो ही हो सकती है। जो लोग केवल विचार करते हैं, वे अत्यंत क्षुद्र से अंश का जीवन का प्रयोग करते हैं, वह सत्य का कोई अनलिखा हुआ नहीं है। इन तीन दिनों में जो विचार भी हम करेंगे वह भी केवल इसलिए, ताकि हम छलांग ले सकें। वह सीढ़ी की भांति होगा, जिस पर से आगे निकल जाना है और कूद जाना है। जैसे पानी में छलांग लेने के लिए कोई किसी पत्थर पर खड़ा होता है, ऐसे हम इन तीन दिनों में विचार करेंगे। लेकिन विचार कोई आधार नहीं है, उससे कूद जाना है और छलांग ले लेनी है।
जो रुक जाता है वह बात को नहीं समझ पाया है, तो विचार हम करेंगे वह इसलिए ताकि छोड़ा जा सके और निर्विचार में कूदा जा सके। और इसलिए मैं स्वागत करता हूं, क्योंकि अगर थोड़े से लोग भी संसार में इस बात के लिए उत्सुक हो जाएं कि उन्हें जीवन के अर्थ को और रहस्य को जानना है, तो यह सारी जमीन एक और ही तरह की संस्कृति का निर्माण कर सकती है। इधर इन तीन दिनों में मैं क्या आपसे कहूंगा, वह तो आने वाले दिनों में बात होगी, आज तो कुछ थोड़ी सी बात और कहनी है। सबसे पहले तो यह एक छोटी सी कहानी आपसे कहूं, शायद वही आधार बन जाएगी और तीन दिन हम उसकी विस्तार से चर्चा कर सकेंगे।
दो राजकुमार, जब वे युवा थे, एक ही गुरुकुल में पढ़े। फिर पढ़ने के बाद विदा हो गए। दीक्षांत हुआ और गुरु से विदा लेकर वे अलग-अलग रास्तों पर चले गए। और बाद में--वर्षों के बाद एक तो बड़ा राजा हो गया और एक के पास जो था, उसको भी छोड़ कर भिखारी हो गया। वह भिखारी वर्षों बाद, घूमता हुआ राजा की राजधानी में आया, राजा के महल में ठहरा। राजा ने उससे पूछाः तुम दूर-दूर के देशों से घूम कर आए हो, मेरे लिए क्या लाए हो? मित्र थे वे पुराने, बचपन से गहरा उनका प्रेम था और यह पूछना बिलकुल स्वाभाविक था। उस मित्र ने, जो कि संन्यासी था और भिखारी था, उसने कहाः मैंने बहुत सोचा कि मैं क्या ले चलूं तुम्हारे लिए, लेकिन जो भी मैं सोचता था, पाता था, वह तो तुम्हारे पास होगा ही। ऐसा क्या है जो तुम्हारे पास न हो? तो मैं बहुत सोचता था, बहुत दुकानों पर गया, बहुत सी चीजें देखीं, लेकिन जो भी सोचता था, सोचता था, यह तो तुम्हारे पास होगा। तो जो तुम्हारे पास होगा उसे भेंट में ले भी गया तो क्या अर्थ है? फिर बहुत सोचा, बहुत खोजा, मुझे कुछ समझ नहीं पड़ा। आखिर एक छोटी सी चीज खरीद लाया हूं, जो कि तुम्हारे पास नहीं होगी। उसने अपनी झोली से वह चीज निकाली और उस राजा को भेंट की।
आप भी कल्पना नहीं कर सकते कि वह चीज क्या रही होगी, क्योंकि राजा बड़ा था, उसके पास सब कुछ था। और एक भिखारी उसको क्या भेंट दे सकता है! ऐसे रास्ते में मैं भी सोचने लगा कि आपको क्या भेंट दूंगा? इन तीन दिनों में कौन सी बात आपको दूं? सभी कुछ आपके पास होगा और मैं क्या आपको दे सकता हूं? फिर मुझे वह कहानी खयाल आ गई और मुझे लगा, मैं भी वही आपको भेंट दे दूं, जो उस भिखारी ने उस राजा को भेंट दिया था।
शायद ही आपको खयाल में आए, कभी किसी के खयाल में नहीं आ सकता कि उसने क्या भेंट दिया। उसने बड़ी छोटी चीज भेंट दी थी। बहुत ही छोटी सी चीज थी, उसका कोई मूल्य भी नहीं था--वैसे उसका बड़ा मूल्य है। और कई बार ऐसा होता है कि जिन चीजों का कोई मूल्य नहीं होता है जीवन में, उनका ही असल मूल्य होता है। और जो बहुत मूल्यवान चीजें होती हैं, अंत में पाया जाता है, उनका कोई भी मूल्य नहीं था। मैंने व्यर्थ ही उनके बोझ को ढोया।
उसने दिया था एक छोटा सा दर्पण। और राजा से कहा था कि इसे रख लो, इसमें कभी-कभी अपना चेहरा देख लिया करो। अजीब सी बात थी।
मैं भी इन तीन दिनों में दर्पण ही आपको देना चाहता हूं, जिसमें आप अपना चेहरा देख सकें। और इससे बड़ी कोई बात नहीं है कि अपना चेहरा दिखाई पड़ जाए। बहुत कम लोग हैं, जो अपने को देख पाते हैं। दुनिया में सब कुछ देख लेना आसान है, अपने को देखना बहुत कठिन है। और ऐसा दर्पण बहुत थोड़े लोगों को उपलब्ध हो पाता है, जिसमें वे अपनी प्रतिछवि देख सकें और अपने को पहचान सकें। उस फकीर ने दिया था एक दर्पण कि इसे अपने पास रख लो, इसमें अपने को देख लेना। ऐेसा ही दर्पण मैं भी इन तीन दिनों में आपको देना चाहता हूं, जिसमें आप अपने को देख सकें।
एक दर्पण तो वह होता है, जो बाजार में मिलता है, खरीदते हैं और देख लेते हैं। लेकिन, जो दर्पण मैं देना चाहता हूं, वह खरीदा नहीं जा सकता। खरीदा जा सकता होता तो कभी के लोग उसे खरीद लेते। किसी से चुराया भी नहीं जा सकता। और मैं भी आपको दे दूं, तो भी आप उसमें अपना चेहरा तब तक नहीं देख सकते, जब तक कि आप उस दर्पण को खुद बनाने की कोशिश न करें; क्योंकि मेरा दिया हुआ दर्पण पत्थर की तरह होगा, उसमें कोई आपकी झलक नहीं बनेगी, और उसे दर्पण समझ कर अगर आप देखते रहे तो आपको अपने चेहरे का कोई भी पता नहीं चलेगा।
बहुत से शास्त्र इसी तरह के दर्पण हैं, जिनमें हम झांकते हैं और कुछ भी पता नहीं चलता है। अगर उस पत्थर को ही आप ढोते रहे तो उसके वजन के नीचे दब जाएंगे। आपको प्रेम करने वाले लोगों ने बहुत से दर्पण आपको इस तरह दिए हैं--महावीर ने, बुद्ध ने, क्राइस्ट ने। वे आपको प्रेम करते थे, इसलिए दर्पण दिए। लेकिन उनके देने से ही दर्पण दर्पण नहीं होता। आपके लिए पत्थर है। उसको आप ढोते रहे हजारों साल से। और आदमी इस तरह बहुत से प्रेमियों द्वारा दिए गए दर्पणों के पत्थरों से दबते-दबते मर गया है। उसके प्राणों पर बहुत भार है, उससे छुटकारा होना कठिन हो गया है। तो मैं भी आपको दर्पण दे दूं, वह आपके लिए पत्थर होगा। वह दर्पण तभी बन सकता है, जब उसके साथ श्रम करें और मेहनत करें, और उसे निखारें और चमकाएं, उसे साफ करें तो वह दर्पण बन सकता है। मैं दर्पण दूंगा, आपके हाथ में जाने से पत्थर हो जाएगा। क्योंकि यह दर्पण कोई किसी को दे नहीं सकता, जिसमें खुद को देखा जा सके। देने वाले का प्रेम है कि वह आपको दे देगा, लेकिन आप तक पहुंचेगा नहीं। आपके हाथ में पत्थर ही पहुंचेगा।
उस राजा को भी उस फकीर ने दर्पण दिया और उसने देखा। उसने कहा, इसमें तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता। मैं भी आपको दूंगा। आप भी कहेंगे, इसमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। उसमें दिखाई पड़ नहीं सकता। उसमें दिखाई पड़ने के लिए उस दर्पण को बहुत निखारना है, बहुत साफ करना पड़ेगा। और वह आपके अतिरिक्त कोई भी नहीं कर सकता है। कोई तीर्थंकर, कोई अवतार, कोई ईश्वर, कोई गुरु, कोई भी नहीं कर सकता है। और अगर उन पर भरोसा रखा तो हाथ में पत्थर ही रहेगा, और खुद को जानना असंभव हो जाएगा। उस दर्पण को तो दिया जा सकता है, लेकिन उसको दर्पण बनाना बड़ी कठिन बात है। उसके लिए कुछ करना पड़ेगा। उसकी हम चर्चा करेंगे कि कैसे उस दर्पण को साफ किया जा सकता है।
एक और छोटी कहानी कहूं। आज तो सिर्फ दो-तीन कहानी भर कहने का मन है। और उनके साथ कहूंगा कि आप सो जाएं। थोड़ा सोचेंगे, विचारेंगे और उन कहानियों को मन में लेकर सो जाएंगे। हो सकता है वे कहानियां आपके भीतर सपना बन जाएं। हो सकता है, वे रात भर आपके साथ रहें, सुबह जब आप उठें तब वे कहानियां फिर आपके मन में ताजी हो जाएं और फिर मैं तीन दिन धीरे-धीरे उनको फैलाऊंगा और उनकी बात करूंगा। एक और कहानी हैः
एक सम्राट के दरबार में दो बड़े कलाकार आए और उन दोनों ने यह दावा किया कि मुझसे श्रेष्ठ कलाकार इस समय पृथ्वी पर और कोई नहीं है। दोनों का यह दावा था। तो राजा ने कहा कि हम क्या करें? तो जरूर हमें निर्णय करना है कि कौन श्रेष्ठ है, क्योंकि उसे हम कलागुरु के पद पर नियुक्त करना चाहते हैं। लेकिन कौन श्रेष्ठ है, कैसे निर्णय हो? उन दोनों ने कहाः हम अपनी कलाकृतियां बनाएं और निर्णय हो जाए। राजा ने कहा कि ठीक है। समय दिया गया वर्ष भर का। पहले कलाकार ने बहुत से रंग मांगे, तूलिकाएं मांगीं, बहुत से काम करने वाले कारीगर मांगे। दूसरे से पूछा गया, दूसरे ने कहा कि नहीं, कुछ कला हमारी ऐसी है कि न उसमें रंग की जरूरत होती है, न तूलिका की जरूरत होती है। अजीब बात थी। ऐसी कोई कला नहीं होती जिसमें रंग की और तूलिका की जरूरत न हो और चित्र बन जाएं।
पहला कलाकार पर्दे बांध कर एक दीवाल पर चित्र बनाने में लग गया। दूसरे कलाकार ने भी पर्दे बांध दिए, लेकिन भीतर वह क्या करता था, यह कभी किसी को पता नहीं चल पाया, क्योंकि न तो वह रंग ले गया, न रोगन ले गया, न तूलिका ले गया, न कभी कुछ सामान ले गया। क्या करता था भीतर, किसी को कुछ पता नहीं। वर्ष पूरा हुआ, राजा देखने आया। पहले कलाकार ने दीवाल पर एक अदभुत चित्र को उभारा था। वह अदभुत था। वैसा चित्र राजा ने पहले कभी देखा नहीं था। वह दंग रह गया। उसने बड़े धन्यवाद दिए। उसने दूसरे चित्रकार से कहाः तुम्हारा चित्र भी देखना चाहता हूं। और तुम्हारे संबंध में तो बड़ी-बड़ी अफवाहें उड़ रही हैं कि तुम क्या करते हो पर्दे के भीतर। तुम न कुछ ले जाते हो, न तुम कुछ लाते हो। तुम वहां क्या करते हो? दूसरे ने भी अपना पर्दा हटा दिया। सारे लोग दंग रह गए। सम्राट तो और दंग रह गया। वही चित्र जो पहले कलाकार ने बनाया था, उससे भी सुंदर चित्र इस दीवाल पर था। चित्र तो नहीं बनाया गया था, दीवाल घिस-घिस कर चिकनी की गई थी और दर्पण बना दी थी। दीवाल पूरी की पूरी दर्पण कर दी थी। पहली दीवाल का चित्र उसमें प्रतिबिंबित हो रहा था--उस दर्पण में। पहला चित्र तो चित्र ही था। यह प्रतिबिंब बहुत गहरा था, और इसने एक अलौकिक शोभा और रहस्य और एक मिस्ट्री ग्रहण कर ली थी। उस कलाकार ने कहाः हम तो सिर्फ दर्पण बनाना जानते हैं।
दर्पण कुछ अदभुत बात है। और जो मनुष्य दर्पण बनाना जान लेता है, इस जगत में कोई रहस्य नहीं है जो उस दर्पण में प्रतिबिंबित न हो जाए। और जो मनुष्य दर्पण बनाना जान लेता है, परमात्मा कहीं भी छिपा हो, उस दर्पण में प्रतिबिंबित हो जाएगा। और जो मनुष्य दर्पण बनाना जान लेता है, वही केवल स्वयं को और सत्य को जानने में समर्थ हो सकता है।
 तो दर्पण तो मैं आपको दूंगा, दर्पण बनाने की बात भी आपसे करूंगा। बनाना आप पर निर्भर है, वह किसी और पर निर्भर नहीं है। यह तो तीन दिन के लिए मैंने भूमिका की बात कही कि क्या हम यहां करेंगे। यह मन कैसे दर्पण बन जाए? यह मन कैसे पत्थर से दर्पण बन जाए? यह कैसे निर्मल हो जाए--स्वच्छ, कि प्रतिबिंबित कर सके सब, जो चारों तरफ है उसे। यह कैसे इतना शांत हो जाए कि चारों तरफ जो है, वह उसके भीतर प्रतिफलित होने लगे, रिफ्लेक्ट होने लगे--इसकी हम बात करेंगे।
उसकी तैयारी के लिए कुछ दो चार छोटी-छोटी बातें हैं, जो मैं आपसे कहूं। शिविर में साधना के लिए आए हैं तो कुछ खयाल मन में लेकर आए होंगे। साधना बड़ी डराने वाली बात है और डराने वाला शब्द है। बड़ी गंभीर, सीरियस! लेकिन मैं देखता हूं कि जीवन में सत्य को वे ही लोग जान सकते हैं जो न तो छिछले हों, और न बहुत गंभीर हों। जो लोग बहुत गंभीर होते हैं वे भी सत्य को नहीं जान पाते और जो छिछले होते हैं वे भी सत्य को नहीं जान पाते। दोनों के बीच में एक सम-स्थिति चाहिए मन की, जब न तो हम बहुत छिछले हैं और न बहुत गंभीर हैं, न तो हम बहुत क्षुद्र में संलग्न हैं और न तो हम बहुत सीरियस होकर बैठ गए हैं निराश और मुंह लटका कर। जीवन में जो भी जाना जा सकता है वह अत्यंत समता में, अत्यंत मध्य में, बहुत बीच में जाना जाता है।
तो न तो मैं यह कहूंगा, यहां तीन दिन आप बहुत गंभीर रहेंगे, क्योंकि गंभीरता कुछ बीमारी की बात है। वह अच्छा लक्षण नहीं है। और जिन देशों में भी धार्मिक लोग बहुत गंभीर हो जाते हैं, उन देशों में जीवन धीरे-धीरे सूख जाता है, रसहीन हो जाता है। इस देश में ऐसा दुर्भाग्य हुआ है, इस मुल्क में। धर्म ने अति गंभीरता ओढ़ ली, उसके कारण जीवन का सारा सौंदर्य, सारा रस, जीवन का सारा आनंद क्षीण हो गया है। उसके मैं पक्ष में नहीं हूं। रोते हुए संत मुझे संत नहीं मालूम होते हैं। जीवन एक सरलता और प्रफुल्लता से भरा होना चाहिए।
तो इन तीन दिनों में आप बहुत गंभीर नहीं होंगे। उसका यह अर्थ नहीं है कि आप बैठ कर अखबारों की चर्चा करेंगे, ताश खेलेंगे और फिल्मों की चर्चा करेंगे और रेडियो सुनेंगे, यह भी अर्थ नहीं है। यह दूसरी रोग की स्थिति है। दो तरह के रोग हैं--एक छिछलेपन का रोग है, एक गंभीरता का रोग है। इन दोनों रोगों से जो बचता है, उसके जीवन में एक समता आनी शुरू होती है।
अभी मैं ट्रेन में था तो आप सबकी बातें सुनता रहा। मेरे डिब्बे में भी बहुत लोग थे, उनकी बातें सुनता रहा। सामने के डिब्बे में भी लोग थे, दर्पण से उनकी भी शक्लें दिखाई पड़ती थीं, उनकी बातों का भी अंदाज लगता था। स्टेशन पर था, प्लेटफार्म पर था, वहां भी आप बातें कर रहे थे।
क्या बातें हम कर रहे हैं? शायद ही हमने कभी यह सोचा हो कि यह क्या बातें हम कर रहे हैं? इनके करने का कोई अर्थ है? इनके करने से कोई प्रयोजन है? इनके करने से कोई लक्ष्य है? इनको करके हम क्या पाना चाहते हैं और क्या होना चाहते हैं, या कि बस हम कर रहे हैं! हम कोई पागल हैं जो बिना बातें किए नहीं रह सकते हैं, तो हम बात कर रहे हैं! जो आदमी मौन रहने में असमर्थ है, उसे जानना चाहिए कि उसके भीतर कुछ न कुछ पागलपन है। जो आदमी बिना बात किए रहने में असमर्थ है, जानना चाहिए, उसके भीतर कोई रोग है। सारी दुनिया बात कर रही है। सुबह से शाम तक बात कर रही है। कौन सी बातें हैं? शायद हमने कभी खयाल भी न किया हो कि कौन सी बातें कर रहे हैं!
इन तीन दिनों में थोड़ा खयाल करना जरूरी है कि हम व्यर्थ की बातें न करें; क्योंकि जो मन बहुत व्यर्थ की बातें करता है, वह मन बहुत सार्थक चिंतन नहीं कर सकता। जो मन व्यर्थ की बातें करता है वह सार्थक चिंतन कैसे कर सकेगा? असंभव है यह, क्योंकि वही तो मन है। और जो क्षुद्र-क्षुद्र बातों में लगा है, वह कैसे सार्थक को खोज पाएगा? जरूरी है कि सार्थक की तरफ हमारी उड़ान हो और पहले हम क्षुद्र से थोड़ा अपने को मुक्त करें। और यह मुक्त होना कोई कठिन बात नहीं है, केवल एक यांत्रिक आदत बन गई है, जिसका हमें कोई पता नहीं है। हम बस किए जा रहे हैं, हमें कोई बोध नहीं है कि हम कर रहे हैं। तीन दिनों में इसका थोड़ा स्मरण रखना जरूरी है। और जैसे ही खयाल आ जाएगा, वैसे ही आप पाएंगे कि वहीं बात टूट जाएगी। अपने पर भी कृपा करें, और दूसरे पर भी; क्योंकि बात करने का रोग व्यक्तिगत नहीं है। अगर आप अकेले में कर रहे हों तब भी ठीक है, आप दूसरे के साथ कर रहे हैं, दूसरे को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं।
कुछ बीमारियां होती हैं, जो अकेले झेली जाती हैं, कुछ बीमारियां ऐसी होती हैं, जो सामूहिक प्रचारित होती हैं। बातचीत ऐसा ही रोग है, जिसके लिए समूह चाहिए। आप कर रहे हैं, दूसरे के साथ कर रहे हैं। वह खुद ही पागल हालत में है, वह खुद ही दिमाग में काफी बातें भरे हुए है, आप और बढ़ाए दे रहे हैं उनकी। किसी पड़ोसी के पास जाकर अपनी बातें वे भी निकालेंगे, पड़ोसी किसी और पर निकालेगा। ऐसे बीमारियां फैलती चली जाती हैं। एक-दूसरे पर हम निकालते चले जाते हैं। सुबह से उठ कर अखबार पढ़ लेते हैं, फिर वही अखबार हम बोलने लगते हैं दूसरों से। दूसरे तीसरों से बोलने लगते हैं। और सारी दुनिया में इस तरह एक बहुत ही क्षुद्र पर हमारा चिंतन और विचार चलता है। इस तल को थोड़ा सा सचेत होकर तोड़ देना आवश्यक है, तो भीतर प्रवेश हो सकता है। यह कोई बहुत ज्यादा कोशिश करने की बात नहीं है, सिर्फ होश आना काफी है कि यह मैं क्या कर रहा हूं।
विचार के लिए बात के लिए, थोड़ा सोच कर तीन दिन देख कर चलेंगे कि मैं यह कौन सी बातें कर रहा हूं! अगर मैं न करूं तो कोई हर्ज है? अब तक मैंने इन बातों को किया है, कुछ मिला है? कोई अर्थ हुआ है? केवल मैं खबर दे रहा हूं कि मैं फिजूल आदमी हूं, इसलिए फिजूल की बातें कर रहा हूं। जितना आदमी के भीतर सार्थकता का अनुभव होने लगेगा, उतना उसकी फिजूल की बातें झड़ने लगेंगी, गिरने लगेंगी। तो थोड़ा इसका बोध होना चाहिए।
दूसरी बात--जब हम उन्हीं-उन्हीं बातों को करते रहेंगे, जिनको आप अपने घर करते रहे थे, यहां भी करते रहेंगे, तो आपको खयाल होगा कि आप माथेरान आए; आप माथेरान नहीं आए, क्योंकि आपका जो मन है वह करीब-करीब उन्हीं घेरों में और उन्हीं दायरों में घूम रहा है, जिन पर कहीं और घूमता था। आप वहीं हैं। आपके शरीर को माथेरान आने से कोई फायदा नहीं है। आपका मन यहां आ जाए तो फायदा है, तो फर्क है।
आपका मन यहां कैसे आएगा, अगर आपके एसोसिएशंस मन के वहीं लगे रहे? अगर आपकी आदतें वही करती रहीं जो आप घर पर करते थे, तो आप करीब-करीब वही बने रहेंगे। आप कहीं भी जाएं, आप वहीं रहेंगे, क्योंकि आपका मन वही काम करता रहेगा जो वहां करता था। थोड़ा सा उस संबंध को शिथिल करना, तोड़ देना जरूरी है, तो ही आप यहां आए, नहीं तो नहीं आए।
तो मैं निवेदन करता हूं--ऐसे तो आप आ गए हैं, इन तीन दिनों में अगर सच में ही यहां माथेरान आ जाएं, तो बड़ी कृपा होगी। और उस आने के लिए जरूरी है कि मन का जो घेरा आप घर से लेकर आए हैं वह थोड़ा तोड़ दें। और हमारा मन बड़े यंत्र की तरह काम करता है।
मेरे एक बड़े मित्र हैं, एक बड़े वकील हैं। उन्होंने मुझे बताया कि उनको आदत थी कि जब वे अदालत में खड़े होते थे और कोई ऐसा आग्र्युमेंट का मौका आ जाता, कोई ऐसी दलील का मौका आ जाता, जो बहुत कठिन पड़ती, तो जैसे कुछ लोग सिर खुजलाने लगते हैं, वैसे ही वे अपने कोट का ऊपर का बटन घुमाने लगते। वह उनकी जिंदगी भर की आदत थी। जब भी उनको कोई कठिन मामला आ जाता तो वे कोट का बटन घुमाने लगते। और घुमाने से उनके भीतर चिंतन गतिमान हो जाता था। उनके विरोध में कोई वकील था, जो कई दफा उनसे हार चुका था। वह इसे देखता रहा था, इसे अध्ययन करता रहा था। उसने एक दिन उनके ड्राइवर को मिला कर अदालत में आने के पहले उनके कोट का पहला बटन तुड़वा दिया। वे अपना कोट हाथ पर रखकर अदालत में चले गए। उन्होंने ओढ़ा। तब तक उन्हें खयाल भी नहीं आया, जब तक कि मौका नहीं आया। जब ठीक मौका आया और कोई उनको बात कहनी थी, जिसके लिए वे उलझ गए। वे जल्दी से कोट के बटन पर हाथ ले गए, लेकिन बटन नहीं था। वह जिंदगी में पहला मुकदमा हार गए। उनका मस्तिष्क एकदम से ठप्प हो गया। एक एसोसिएशन था, एक संबंध था उस बटन से। बटन का क्या संबंध था मस्तिष्क सेे? लेकिन रोज की एक आदत थी। वह आदत--जैसे ही स्पर्श करते थे बटन को, उनका मस्तिष्क काम करने लगता था।
ऐसी हमारी रोज की आदतें हैं, जिनसे हमारा मस्तिष्क काम करता है। इन आदतों को जो नहीं पहचानता है, वह मस्तिष्क को बदल नहीं सकता है। रोज की हमारी आदतें हैं। मैं लोगों को जानता हूं, दिन-रात सुबह से सांझ तक न मालूम मुझे कितने लोगों से मिलना पड़ता है। दो वर्ष पहले जो आदमी आया था, दो वर्ष बाद आता है, मैं पाता हूं कि वह वही बातें कर रहा है जो दो वर्ष पहले उसने मुझसे की थीं। वही बातें। कल आया था तब भी उसने वे ही बातें की थीं, दो महीने पहले आया था तब भी उसने वही बातें की थीं, दो वर्ष पहले आया था तब भी उसने वे ही बातें की थीं। अब तो मैं करीब-करीब आदमी के आने के पहले जान जाता हूं कि यह आदमी क्या बातें करेगा। वह तो वही बातें करेगा जो उसने की हैं। और उसे इसका कोई पता नहीं है कि मैं वर्षों से वही बातें कर रहा हूं, वही बातें दोहरा रहा हूं जिनका कोई अर्थ नहीं है। आप खुद ही विचार करेंगे तो आपको पता चलेगा। कल आपने यही बातें की थीं, परसों आपने यही बातें की थीं, पहले भी यही की थीं। आप यह कर क्या रहे हैं? आप कोई कोल्हू के बैल हैं जो एक ही चक्कर में घूम रहे हैं? आप तोड़िएगा इस आदत को या नही? जीवन की गति सीधी रेखाओं में होती है, गोल चक्करों में नहीं। और जो गोल चक्करों में घूमता है, वह नष्ट होता है।
इन तीन दिनों में गोल चक्कर में न घूम कर थोड़ी सीधी गति करने की कोशिश करें। थोड़ी सी आदतें जिनके घेरे में हम बंद हैं और जिनके आस-पास हम घूमते रहते हैं, उनको थोड़ा तोड़ें और जागें और देखें कि कहां गड़बड़ है! अगर तीन दिनों में थोड़ी सी भी सजगता का प्रयोग किया, तो आपको भी दिखाई पड़ेगा कि आप भी एक गोल घेरे में बंधे हुए हैं, घूम रहे हैं। तो आप पहुंचिएगा कहां? जो गोल-गोल चलता है, वह कहीं भी नहीं पहुंच सकता है। पहुंचने के लिए सीधी गति चाहिए और पहुंचने के लिए गोल घेरों से बचना आवश्यक है। लेकिन मन आदतें बना लेता है, और उनमें घूमता रहता है। बस उसको आदत का मौका मिला, वह शुरू कर देता है। तो इस पर थोड़ा सा तीन दिनों में खयाल रखें कि बंधी हुई आदतों के घेरे में न घूमें। जो हमारी कंटीन्युटी है मन के भीतर, जो एक लगातार क्रम है, वह टूटना चाहिए, तो ही तो जीवन में कुछ नया हो सकता है।
सत्य है अज्ञात, अभी आपको सत्य का कोई पता नहीं हैं, तो उस अज्ञात सत्य को जानने के लिए आपका जो ज्ञात घेरा है मन का, वह टूटना चाहिए, नहीं तो नहीं जान सकते हैं। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह है अज्ञात, वह है अननोन। तो जो नोन है, जो जाना हुआ है, उससे काम नहीं चलेगा। उस जाने हुए रास्ते को कहीं न कहीं छोड़ कर अनजान रास्तों पर प्रवेश करना पड़ेगा। लेकिन मन डरता है। परिचित रास्तों पर चलने में तो आसानी मालूम होती है, क्योंकि वे परिचित हैं। अपरिचित रास्ते पर मन भयभीत होता है। लेकिन जिसे सत्य को जानना हो, परमात्मा को, या प्रेम को, सौंदर्य को, उसे तो अपरिचित रास्ते खोजने होंगे। इतना साहस जिसमें नहीं है, साधना उसका रास्ता नहीं हो सकती।
तो थोड़ा सा परिचित घेरा तोड़ना पड़ेगा। जिन फिल्म अभिनेताओं की आपने कल तक बातें कीं और जिन राजनेताओं की...और इन दोनों में कोई बेहतर और बुरा नहीं है, करीब-करीब एक से हैं। चाहे वे राजनेता हों और चाहे वे अभिनेता हों। और अगर चुनाव ही करना हो तो राजनेताओं से अभिनेता बेहतर। उनकी चर्चा बेहतर--दुनिया में अभी कोई बड़ा खतरा नहीं हुआ है, कोई बड़ा युद्ध नहीं हुआ, कोई बड़ी परेशानी नहीं हुई। लेकिन राजनेता हैं और अभिनेता हैं, उन्हीं के आस-पास हमारा सारा सोचना है। जैसे पुरानी कहानियां हुआ करती थीं--एक था राजा और एक थी रानी, ऐसे ही आजकल के अखबार हैं, उसमें एक हैं इंदिरा जी और एक हैं नंदा जी और कथा चल रही है। और उसी कथा को आप दोहरा रहे हैं और रोज-रोज दोहरा रहे हैं। कोई नंदा जी, इंदिरा जी से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है, सिर्फ तुक मिल गई, इसलिए मैंने बात कही। और तुक का तो बड़ा महत्व है। अगर ठीक से तुक मिलाना सीख जाएं तो राष्ट्रकवि तक हो सकते हैं। लेकिन उसके लिए दिल्ली रहना जरूरी है। उसके लिए और कहीं रहिएगा तो काम नहीं हो सकता। इसलिए मैंने कहा, सिर्फ तुक मिल गई, मुझे कुछ मतलब नहीं है उनसे, कोई भी हों।
लेकिन हमारा दिमाग, बस ये घेरे हैं हमारे दिमाग के। इनके घेरों में हम चलते हैं और फिर हम सोचना चाहते हैं, मोक्ष क्या है? फिर हम पूछना चाहते हैं सत्य क्या है? फिर हम पूछना चाहते हैं जीवन क्या है? आत्मा क्या है? पूछना चाहते हैं, मृत्यु होती है या नहीं? इतने महानतर जीवन की समस्याओं पर इतने क्षुद्र अखबारी मन को ले जाकर चलने का रास्ता नहीं है कोई। इतने महानतर जीवन के, गंभीरतर जीवन के रहस्यपूर्ण मार्गों पर चलने के लिए मस्तिष्क की तैयारी चाहिए। तैयारी तो बहुत क्षुद्र है। इस तैयारी को तोड़ने की जरूरत है।
तीन दिनों में कृपा करें, अखबार से थोड़ा बचें। इस संसार को इस समय जो सबसे बड़ी बीमारियां पकड़े हुए हैं, उनमें से अखबार एक है। उससे थोड़ा बचें। राजनेता और अभिनेताओं को तीन दिनों के लिए विदा दें। थोड़ा मन को, कुछ और गहरे जीवन के मार्ग हैं, उन तक ले जाने के लिए थोड़ा उनसे छुटकारा लें। और कुछ गहरे मार्ग क्या हैं, उनकी तो मैं बात करूंगा। उनको कैसे पहचानें उनकी तरफ कैसे जाएं?
अगर इस क्षुद्र से उलझे रहते हैं तो फिर आपके लिए कोई मार्ग नहीं है, कोई रास्ता नहीं है। उसमें कोई कुछ भी नहीं कर सकता। इधर इन तीन दिनों में इसका थोड़ा विचार करेंगे--खुद का भी, औरों का भी। क्या बात करते हैं, उसका विचार करेंगे।
चैथी बात--जहां तक बन सके इन तीन दिनों में, ज्यादा से ज्यादा चुप और एकांत खोजेंगे। जब हम मिलेंगे तब तो एकांत नहीं होगा, हम सबकी भीड़ होगी यहां। लेकिन जो खाली समय होंगे, उनको ज्यादा महत्वपूर्ण समझेंगे, मिलने के समय की बजाय। आमतौर से आपको यही खयाल होगा कि शिविर में वही समय महत्वपूर्ण है जब हम मिलेंगे। सुबह जैसे अभी जटू भाई ने खबर दी आपको--सुबह घंटे भर मिलेंगे, दोपहर मिलेंगे, रात मिलेंगे। नहीं, वह समय ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। उस वक्त तो भीड़-भाड़ होगी। उस वक्त तो मैं कुछ बातचीत कहूंगा, आप सुनेंगे। वह बहुत महत्वपूर्ण समय नहीं है। जो महत्वपूर्ण समय है वह खाली गैप बीच के, जब हम नहीं मिलेंगे। उस वक्त आप क्या करिएगा? और उस वक्त जो आप करिएगा, उसी पर निर्भर होगा कि जब आप मिलेंगे तो आप क्या करिएगा, नहीं तो फर्क नहीं पड़ेगा। अगर उस वक्त आप कुछ गड़बड़ करते हैं, तो जब मिलेंगे, उस वक्त कुछ ठीक हो नहीं सकता। उस वक्त आप क्या करिएगा? वह समय महत्वपूर्ण है। वही महत्वपूर्ण है। वह जो खाली वक्त होगा, उस वक्त थोड़ा एकांत खोजिए। मित्रों से थोड़ा बचिए, मित्रों से थोड़ा सावधान रहिए। दुनिया में शत्रु उतना नुकसान नहीं करते हैं, जितना मित्र करते हैं। क्योंकि शत्रु तो दूर-दूर रहते हैं, मित्र बिलकुल पास-पास रहते हैं; मित्र भीड़ बनाते हैं; और भीड़ खतरनाक है।
तो थोड़ा मित्रों से सावधान रहिए, और यहां कृपा करके मित्रता को विदा कर दीजिए। यहां आप अकेले हैं, ऐसा मानकर तीन दिन रहिए। कोई यहां मित्र नहीं है आपका। यहां तो पहाड़ियां हैं, वे आपकी मित्र हों तो अच्छा। दरख्त हैं, वे आपके मित्र हों तो अच्छा। चांद है, तारे हैं, झील है, ये आपके मित्र हों, तो अच्छा। यहां चले जाइए। थोड़ा इनसे मैत्री बनाइए। उनके सूत्र तो मैं कहूंगा कि कैसे इनसे मैत्री बन सकती है।
जो आदमी केवल मनुष्यों से मैत्री जानता है, उस आदमी ने अभी जीवन की बहुत गहरी बातें नहीं जानीं। जिसने दरख्तों से भी मैत्री बनाई है, वह कुछ रहस्य जान गया है। जिसने पत्थरों से भी दोस्ती की है, वह कुछ बड़ी गहरी बातों को उपलब्ध कर जाएगा। जो चांद-तारों से थोड़ी देर निकट बैठा है, उसके प्राणों में कुछ स्पंदित हो जाएगा। मनुष्य से मैत्री कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है। और मैं यह भी आपसे निवेदन कर दूं कि जो दरख्तों से मैत्री कर लेता है और पशुओं से, फूलों से और तारों से, वही केवल मनुष्य से भी मैत्री कर सकता है, क्योंकि जो अभी पत्थरों से मैत्री करने में असमर्थ है, वह मनुष्य से मैत्री करने में कैसे समर्थ हो सकता है? मनुष्य तो पत्थर से बहुत गहरा है, दरख्त से बहुत गहरा है, चांद-तारों से बहुत गहरा है। तो जो अभी चांद-तारों से, पौधों से भी परिचित नहीं हो पाया, वह मनुष्य से कैसे परिचित हो पाएगा? एक स्त्री के साथ उसे पत्नी मान कर जिंदगी भर रह लेना एक बात है, उससे परिचित होना बहुत कठिन है। एक पति के साथ जिंदगी भर रह लेना एक बात है, उससे परिचित होना बहुत कठिन है। परिचित होना बहुत कठिन है, क्योंकि परिचित होने का हमें कोई मार्ग ही नहीं मालूम है।
तो यहां तो कृपा करके मनुष्यों से थोड़ा कम दोस्ती रखें और यह चारों तरफ जो प्रकृति फैली है, इससे थोड़ी ज्यादा। क्योंकि परमात्मा अगर कहीं है और मिल सकता है, तो प्रकृति के रास्ते के सिवाय और कहीं नहीं मिल सकता है। द्वार अगर कहीं है, तो यह चारों तरफ फैला हुआ है। यह जो फैलाव है, इसमें है। इसमें उसकी झलक है कहीं। यह जो सन्नाटा है चारों तरफ--जैसे कोई छोटा सा पक्षी आवाज दे रहा है। रात के एकांत में बैठ कर इसको सुनना। मेरी बात सुनने से वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह जो सन्नाटा चारों तरफ घिरा हुआ है, यह जो पक्षी चिल्ला रहा है, अगर आधा घंटा इसकी आवाज भर को सुना, आपके प्राण कंपित हो जाएंगे, आप दूसरे व्यक्ति हो जाएंगे। लेकिन आप मेरी बात को महत्वपूर्ण समझेंगे और इसकी आवाज को नहीं। और मैं आपसे फिर पुनः-पुनः निवेदन करता हूं कि मैं कुछ भी नहीं कह रहा हूं, उसमें कोई मूल्य नहीं है। अगर इसे आप सुनने में समर्थ हो जाएं और आधा घंटे शांति से सिर्फ सुनते रहें, आप पाएंगे, आपके भीतर एक ट्रांसफार्मेशन हो रहा है। सन्नाटा जो बाहर है, वह भीतर भी आने लगेगा। धीरे-धीरे बाहर-भीतर दोनों तरफ सन्नाटा हो जाएगा और आप अनुपस्थित हो जाओगे, एब्सेंट हो जाओगे। आप वहां नहीं होंगे। उस घड़ी में कुछ होगा, जो अदभुत है; जो अलौकिक है।
तो यहां इन तीन दिनों में, जो खाली वक्त होगा, मित्रों के साथ न बिता करके अकेले में और एकांत में बिताने की कोशिश करना। तो ही जब हम मिलेंगे, तब कुछ बात हो सकेगी, कुछ समझ हो सकेगी और काम हो सकेगा। ज्यादा बातें मुझे नहीं कहनी हैं। खूब ज्यादा से ज्यादा सोना। कम सोना बुरा होता है साधक के लिए। पूरा सोना जरूरी है। भोजन थोड़ा कम, नींद गहरी और भोजन थोड़ा कम, साधक के लिए सहयोगी होता है। तो भोजन थोड़ा कम लेना, नींद थोड़ी गहरी लेना। लोगों से थोड़ा बचना, अकेले में जाना। और एकांत जितना ज्यादा तीन दिनों में मिल सके, उतना उसे अनुभव करना। और बाकी जो बातें मुझे कहनी हैं, वह कहूंगा। उन बातों पर विचार, चिंतन, लेकिन दूसरों से बातचीत नहीं; उन बातों पर भी दूसरों से बातचीत नहीं। उन बातों पर भी अपना ही निर्णय, अपना ही विचार व्यक्तिगत।
अक्सर यह होता है--मैंने जो कहा, आप गए और चार लोगों से उसके संबंध में बात करने लगे। वह चार मिल कर, मैंने जो आपसे कहा, आपके मस्तिष्क में इतना मचा देंगे कि फिर आपको कुछ भी खयाल न रहेगा कि मैने आपसे क्या कहा। तो किसी की मत सुनना। मेरी बात सुनी है, उसे मानने की बिलकुल जरूरत नहीं। अकेले में बैठ कर उस पर खुद ही सोचना। मनुष्य अगर अकेले में बैठ कर अपनी बुद्धि पर विचार करे और विश्वास करे अपनी बुद्धि पर और चिंतन करे, तो बहुत सरलता से, बहुत स्पष्ट सत्यों पर पहुंच सकता है। लेकिन वह दूसरों से पूछता है। जिस क्षण वह दूसरों से पूछता है और विचार लेता है, उसी क्षण वह कनफ्यूजन में पड़ने की तैयारी करने लगता है।
तो इन पर सोचना, विचार करना अकेले में, मानने की कोई भी जरूरत नही है। लेकिन दूसरों से उन पर विचार और विवाद करने से कोई अर्थ नहीं।
ये थोड़ी सी बातें मुझे कहनी थीं। और बाकी इनके आधार पर आपको जो ठीक लगे, वह आप सोच लेंगे। और छोटी-छोटी और बहुत सी बातें कहने की कोई जरूरत नहीं है। अंततः इतना ही कहता हूं, आप यहां अकेले हैं, तीन दिन इस बात को स्मरण रखें। यहां और कोई नहीं है आपके अलावा। आप बिलकुल अकेले हैं यहां। और सच तो यही है कि हम सारे लोग बिलकुल अकेले हैं। हमारे अलावा शायद कोई भी नहीं है। लेकिन अकेलेपन से डरने की वजह से हम मित्रों को पकड़े हुए हैं और सोचते हैं, यह भी है और यह भी है। कोई नहीं है, शायद हम अकेले हैं। शायद अकेले होना ही सच है हमारा। लेकिन हम भीड़ बनाए हैं और समाज बनाए हैं ताकि अकेले होने से डर न लगे। किसी का कंधा पकड़े हैं, किसी का हाथ। किसी को प्रेम कर रहे हैं, किसी को मित्र, किसी को पत्नी, किसी को पति कह रहे हैं और इकट्ठा किए हुए हैं कि मुझे यह पता न चले कि मैं अकेला हूं। लेकिन स्मरण रखें, बिलकुल अकेले हैं आप। और बिलकुल अकेले आप जीते हैं और बिलकुल अकेले आपको मरना पड़ेगा।
इसको सूत्र मान कर चलें कि जब मृत्यु में आप अकेले हो ही जाने वाले हैं, तो यह असंभव है कि जीवन में आप किसी के साथ रहे हों। साथ रहे होते तो मौत में साथ होता। मौत अकेला कर देती है। तो बहुत स्पष्ट है यह बात कि जीवन में भी आप अकेले रहे होंगे। साथ होने का केवल भ्रम था। जो व्यक्ति अकेले होने की सचाई को थोड़ा अनुभव करता है और जीता है, धीरे-धीरे वह इस बात को पहचान लेता है कि वह बिलकुल अकेला है। और इस अकेलेपन की पहचान ही उसे क्रमशः मृत्यु में मरने पर जो अनुभव होता है, उस अनुभव में जीवित ही ले जाती है। जीते जी ही वह मौत में प्रविष्ट हो जाता है अकेला होकर। और जो व्यक्ति जीते जी मौत को जान लेता है, उसके लिए मौत मिट जाती है। वह अमृत के अनुभव को उपलब्ध हो जाता है।
बस, और ज्यादा मुझे नहीं कहना है। ये ही थोड़ी सी बातें हैं।
आज रात तो सो जाएं, क्योंकि सब अब सोने की स्थिति में हैं। यह मैंने कहा भी था कि अब सब सोने की तैयारी में हैं, तब उनसे मैं जागने की बातें कहूंगा तो गड़बड़ होगा, लेकिन वे माने नहीं। उन्होंने कहा, चाहे कोई सोने की तैयारी में हो, चाहे कुछ हो, आप कहें। अब जो मैं कह रहा हूं, वे सब जागने की बातें हैं, और सोने का वक्त है, और करीब-करीब सब सो ही गए हैं। तो अब सो ही जाएं। और सुबह जब जागें, तब मैंने जो कहा है, उस पर थोड़ा सा विचार करें।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना है, और इन तीन दिनों के लिए इतने दूर से आकर इकट्ठे हुए हैं, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद करता हूं।
बहुत लोग मेरे पैर छू लेते हैं, उसी वक्त मेरा मन होता है, मैं भी उनके पैर छुऊं, क्योंकि इसके सिवाय कोई और उत्तर नहीं हो सकता है। लेकिन इतने-इतने लोगों के अलग-अलग पैर छूना कठिन होगा, शायद वे मुझे छूने भी न दें, इसलिए मैं इकट्ठे सबके पैर छू लेता हूं। सबके पैरों में मेरे प्रणाम स्वीकार करें। सबके भीतर जो परमात्मा बैठा है, वही किसी दिन जागे, इसकी कामना करता हूं।

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