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गुरुवार, 18 जुलाई 2019

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-015

(जिज्ञासा जीवन की-पंद्रहवां)

मेरे प्रिय,
प्रेम।
तुम्हारे दो पत्र देर से आकर प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं, लेकिन बहुत था व्यस्त, इसलिए विलंब के लिए क्षमा मांगता हूं।
(पत्रः 8-10-68)

प्रश्न 1

"अवतार", "तीर्थंकर", "पैगंबर", जैसी अभिव्यक्तियां मनुष्य की असमर्थता की सूचक हैं। इतना निश्चित है कि कुछ चेतनाएं ऊर्ध्वगमन की यात्रा में उस जगह पहुंच जाती हैं, जहां उन्हें "मनुष्य" मात्र कहे जाना सार्थक नहीं रह जाता है। फिर कुछ तो कहना ही होगा। मनुष्यातीत अवस्थाएं हैं।
2ः धर्म की शिक्षा का अर्थ हैः ऐसा अवसर देना कि भीतर जो प्रसुप्त है, वह जाग सके। निश्चय ही मार्गदर्शकों की जरूरत होगी। लेकिन वे होंगे--मित्र। गुरु होने की चेष्टा में ही आरोपण प्रारंभ हो जाता है। मनुष्य को गुरुडम से बचाया जाना आवश्यक है।

3ः पहले के लोग भी ऐसे ही थे। कम शिक्षित थे। इसलिए, उनका सब भांति का शोषण होता था। इस शोषण की सुविधा को ही शोषक उनकी सरलता कहते थे। यह सरलता सरलता कम, बुद्धूपन ही ज्यादा थी।
मैं बुद्धूपन का जरा भी समर्थक नहीं हूं। जो सरलता अज्ञान से आती है, उसका मूल्य कौड़ी भर भी नहीं है।
ज्ञान से आई सरलता का ही आध्यात्मिक मूल्य है।
लेकिन, संक्रमण में ज्ञान से चालाकी आती है। यह स्वाभाविक है। लेकिन मनुष्य जाति जब ठीक से शिक्षित हो चुकी होगी, तो यह संक्रमणकालीन संकट नष्ट हो जाएगा। और फिर ज्ञान ्र सरलता की जो स्थिति होगी, वही अपेक्षित है।
4ः गरीब गरीब है, क्योंकि उसका चिंतन भ्रांत है। गरीबी भी हमारे गलत जीवन-दर्शन का परिणाम है।
इसलिए जीवन-दृष्टि की बदलाहट के साथ ही सामाजिक व्यवस्था भी बदलती है। विचार ही व्यवस्थापक है। अमरीका अकारण समृद्ध नहीं है। और भारत अकारण दरिद्र नहीं है। हमारा दर्शन दरिद्रता का दर्शन (ढीपसवेवचील वि चवअमतजल) है। उनका दर्शन है, संपन्नता का।
इसलिए मैं कहता हूं कि जब तक हमारा दर्शन नहीं बदलता है, तब तक दरिद्रता भी नहीं बदलने वाली है।
(पत्रः 23-9-68)

प्रश्न 1

दुख न शरीर को होता है, न आत्मा को। दुख होता है दोनों के संघात को अर्थात व्यक्ति को। व्यक्ति है दोनों का जोड़। शरीर पर पड़ता है आघात। आघात भौतिक है। लेकिन अनुभव होता है आत्मा को। अनुभव आत्मिक है। आघात के बिना अनुभव नहीं हो सकता है। अनुभोक्ता के बिना आघात का ज्ञान नहीं हो सकता है। अंधे और लंगड़े ने जैसे आग-लगे जंगल से भाग कर प्राण बचाए--वैसे ही। अलग-अलग दोनों नहीं बच सकते। मिल कर दोनों बचे। "मिलन" ने बचाया। दोनों के जोड़ ने। ऐसा ही है दुख का अनुभव।
2ः तत्वज्ञान की रुचि प्रत्येक में है। उसके जागरण के लिए निमित्त कोई भी बन सकता है। लेकिन निमित्त गौण है। बस, इतना ही ध्यान रखना है। शिष्य है प्रमुख। गुरु है गौण। गुरुडम इसके विपरीत प्रचार करती है। उससे ही मेरा विरोध है।
3ः पं. सुखलाल से मेरा मिलन हुआ है। वैसे वे मेरे साहित्य से और व्याख्यानों से परिचित हैं। मेरे व्याख्यानों के बहुत से टेप उन्होंने सुने हैं। उनकी पुस्तक "दर्शन और चिंतन" का एक हिंदी भाग मैंने देखा है।
4ः पश्चिम के विचारकों में अस्तित्ववादियों (द्मगपेजमदजपंसपेजे) से मेरे विचार-सूत्रों की कुछ साम्यता हो सकती है। झेन (र्मद) साधकों से भी सूफी संतों से भी। कृष्णमूर्ति और गुरजिएफ से भी।
वहां सबको मेरा प्रणाम।

रजनीश के प्रणाम

7-11-1968

(प्रतिः डा. रामचंद्र प्रसाद, पटना, बिहार)


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