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सोमवार, 15 जुलाई 2019

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-006

(आंख बंद है-चित्त-वृत्तियों के धुएं से-छठवां)

चिदात्मन्,
प्रेम।   
आपका अत्यंत प्रीति और सत्य के लिए प्यास से भरा पत्र मिला है। मैं आनंदित हुआ।
जहां इतनी प्यास होती है, वहां प्राप्ति भी दूर नहीं है।
प्यास हो, तो पथ बन जाता है।
सत्य तो निकट है और प्रकाश की भांति द्वार पर ही खड़ा है।
वह नहीं, समस्या हमारे पास आंख न होने की है।
और, उस आंख का भी अभाव नहीं है। वह भी है, पर बंद है।
इस आंख को खोला जा सकता है।
संकल्प और सतत साधना का श्रम उसे खोल सकता है।

विचार से, मन से, चित्तवृत्तियों के धुएं से आंख बंद है।
निर्विचार चैतन्य में वह खुलती है और सारा जीवन आलोक से भर जाता है।
यही मैं सिखाता हूं। निर्विचार की निर्दोष स्थिति सिखाता हूं।
मेरी और कोई शिक्षा नहीं है।
आंख खुली हो, तो शेष सब वह खुली आंख सिखा देती है।
आंख को खोलने के इस प्रयोग के लिए अभी 13, 14 और 15 फरवरी को महाबलेश्वर (पूना) में 200 मित्र मिल रहे हैं। आप आ सकें तो अच्छा है। 12 फरवरी को संध्या तक महाबलेश्वर पहुंच जाना है।
वहां सबको मेरे प्रणाम कहें।

रजनीश के प्रणाम

17 जनवरी, 1965

(प्रतिः श्री रजनीकांत भंसाली, जयपुर, राज.)

 

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