(हृदय की प्यास और पीड़ा से साधना का जन्म-दसवां)
मेरे प्रिय,प्रेम।
आपका पत्र मिले बहुत देर हो गई है। मैं इस बीच निरंतर प्रवास में था, इसलिए दो शब्द भी प्रत्युत्तर में नहीं लिख सका। वैसे मेरी प्रार्थनाएं तो सदा ही आपके साथ हैं।
मैं आपके हृदय की प्यास और पीड़ा को जान कर आनंदित होता हूं। क्योंकि, वही तो बीज है, जिससे कि साधना का जन्म होता है।
जीवन पर शांत और सहज भाव से प्रयोग करते चलें। फल तो अवश्य ही आता है।
स्मरण रखें कि कोई भी भूमि ऐसी नहीं है कि जिसके भीतर जलस्रोत न हो।
और, कोई भी आत्मा ऐसी नहीं है, जिसके भीतर कि परमात्मा न हो।
वहां सबको मेरे प्रणाम कहें।
रजनीश के प्रणाम
18-12-1965
(प्रतिः श्री रजनीकांत भंसाली, जयपुर)
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