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सोमवार, 22 जुलाई 2019

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-04)

(नई संस्कृति का जन्म-प्रवचन-चौथा)

पूछा हैः क्या जीवन में किसी तरह के अनुशासन की, डिसिप्लिन की आवश्यकता नहीं है? और अगर अनुशासन न रहेगा तो अराजकता हो जाएगी। और न तो सभ्यता रहेगी, न कोई व्यवस्था रहेगी, बल्कि एक अराजकता, एक अनारकी पैदा हो जाएगी।

ठीक ही बात पूछी है। अब तक मनुष्य जिस भांति जिया है, और जैसी सभ्यता का उसने निर्माण किया है, जैसे समाज को बनाया, वह पूरा का पूरा समाज ही अनुशासन पर खड़ा है। और इसीलिए यह भय बिलकुल स्वाभाविक है कि यदि अनुशासन टूट जाए, तो समाज भी टूट जाए, सभ्यता भी टूट जाए, संस्कृति भी मिट जाए। अराजकता हो जाए। यह भय इसीलिए है, क्योंकि हमारे जीवन में जो भी नीति है, जो भी चरित्र है, वह सभी का सभी अनुशासन पर खड़ा है। और अनुशासन किस बात पर खड़ा हुआ है? अनुशासन किस बात पर निर्भर है? अनुशासन का, या डिसिप्लिन का अर्थ क्या है?

उसका अर्थ है, जैसे एक अंधा आदमी किसी रास्ते पर जाता हो, तो उसे रास्ते पर जाने के लिए अभ्यास करना होता है। यदि वह गलत चलेगा तो लोगों से टकराएगा। टकराने से पीड़ा होगी। इसलिए ठीक-ठीक चलने के लिए लाठी रखनी पड़ती है, टटोलता है। आंखें उसके पास नहीं हैं, इसलिए आंखों का काम उसे लाठी से पूछ-पूछ कर चलाना होता है। अगर उसके पास आंखें हों और अगर अंधों की कोई सभा होती हो तो वह मुझसे पूछेंगे कि अगर किसी के पास आंखें आ गईं तो फिर लाठी का क्या होगा, टटोलने का क्या होगा? तो उनसे मैं क्या कहंूगा? उनसे मैं कहूंगा, आंखें नहीं हैं, इसीलिए तो लाठी की और टटोलने की जरूरत है। अगर आंखें हों, तो लाठी की और टटोलने की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती।
मनुष्य के जीवन में अनुशासन की इसीलिए तो जरूरत है कि उसके जीवन में विवेक नहीं है, प्रज्ञा नहीं है, बोध नहीं है। जागरण नहीं है।। विचार नहीं है। विचार की आंख हो, विवेक की आंख हो तो अनुशासन के टटोलने की और लाठी की कोई जरूरत नहीं रह जाती। उससे अराजकता नहीं आएगी। उससे सभ्यता नहीं टूटेगी। बल्कि अभी जो सभ्यता है वह झूठी है, ऊपर से थोपी हुई है। भीतर आदमी असभ्य है, ऊपर से सभ्य मालूम पड़ता है। भीतर असंस्कृत है, ऊपर से संस्कृत मालूम पड़ता है। भीतर से अभी भी जंगली जानवर मौजूद है, ऊपर से मनुष्य हो गया है। बीसवीं सदी में आ गया है।
भीतर और ऊपर यह जो फर्क है, अनुशासन के कारण है। ऊपर से चीजें थोप दी गई हैं, बिठा दी गई हैं। भय के कारण उनसे अन्यथा जाने में डर मालूम होता है। चोरी हम नहीं करते हैं, इसलिए नहीं कि हमें वह विवेक मिल गया है, जहां चोरी असंभव हो जाती है; बल्कि इसलिए कि चोरी के पीछे दंड है। इस दुनिया का दंड है। रास्ते पर पुलिस का सिपाही खड़ा है। अदालतें बैठी हुई हैं, कानून बैठा हुआ है। अगर इससे भी बच गए तो मन के भीतर पाप का भय है, नरक का भय है। ऊपर परमात्मा बैठा हुआ है। पुलिस वाले से लेकर परमात्मा तक भयभीत करने वाले लोग बैठे हुए हैं। जेल से लेकर नरक तक के कष्ट हैं। ये सारे भय, डिसिप्लिन पैदा करने को, कि आप अनुशासित हो जाएं, कुछ भी न करें--बेईमानी न करें, धोखा न दें किसी को--आपके ऊपर थोप दिए गए हैं। लेकिन इससे आपका अंतःकरण न तो नैतिक होता है और न सुसंस्कृत होता है और न सभ्य होता है। भीतर तो चोरी चलती ही रहती है। डर के कारण ऊपर नहीं आती है। डर के कारण निकल नहीं पाती है। या निकलती है तो बहुत सुरक्षा करके निकलती है, सुव्यवस्थित ढंग से निकलती है। भीतर-भीतर चलती रहती है। भीतर कौन ऐसा आदमी है, जो चोरी नहीं करता? भीतर कौन ऐसा आदमी है, जिसने हत्याएं न की हों? भीतर कौन ऐसा आदमी है, जिसने वे सारे पाप न किए हों, जिनको हम पाप कहते हैं? अगर एक मनुष्य के मन की सारी की सारी चिंताएं, सारे विचार खोल के रख दिए जाएं तो एक-एक आदमी को अगर हम दस-दस बार भी फांसी दें, तो भी उसके अपराध कम नहीं होंगे, जितने वह सोचता है, करने के विचार करता है, नहीं करता--भय के कारण। नहीं करता है--समाज, रिस्पेक्टिबिलिटी, सम्मान, इस जगत का, उस जगत का भय, इन सब के कारण नहीं करता। रोकता है अपने को। लेकिन इस न करने से, हो सकता है कि समाज एक ऊपरी ढांचे पर ठीक-ठाक चलता हुआ मालूम पड़ता है, लेकिन मनुष्य के भीतर क्या स्थिति है? और वही स्थिति तो दस-पांच वर्ष में इतनी ज्यादा घनी हो जाती है कि अनेक-अनेक रूपों में निकल पड़ती है।
तीन हजार साल के इतिहास में साढ़े चार हजार युद्ध हुए हैं, सारी जमीन पर। साढ़े चार हजार लड़ाइयां हुई हैं। उनमें भयंकर हत्या हुई हैं। वही हत्या, जो सामान्य दिनों में वर्जित है, पाप है, युद्ध के दिनों में सम्माननीय हो जाती है। वे ही राजनेता, वे ही धार्मिक पुरुष, जो कहते हैं, किसी को मारना बुरा है, युद्ध के दिनों में कहते हैं, जो जितने ज्यादा मारेगा, वह उतना ही महान है। हत्याएं यही हैं, अगर अभी करेंगे इसी वक्त, तो सजाएं मिलेंगी। अगर युद्ध के दिनों में करेंगे तो राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिल सकते हैं। हत्या तो वही है। और हर वर्ष यह जगह-जगह दुनिया में कहीं न कहीं युद्ध होता ही रहता है। अगर युद्ध नहीं होते हैं, तो दंगे-फसाद होते हैं। नाम कोई भी ले लिए जाते हैं, बहाने कोई भी ले लिए जाते हैं, लेकिन भीतर वह जो पशु है, जिसको आप जबरदस्ती दबाए हैं, बार-बार विस्फोट हो जाता है। बार-बार निकल कर बाहर आ जाता है।
भले लोग रोज मस्जिद जाते हैं, रोज गीता पढ़ते हैं, रोज कुरान पढ़ते हैं। जरा-सी एक चिनगारी फैल जाए, वह जो आदमी रोज मस्जिद में नमाज पढ़ता था, वह जाकर लोगों के मकानों में आग लगाने लगेगा। जरा सी चिनगारी फैल जाए, तो जो आदमी रोज गीता पढ़ता था, वह छुरा लेकर खून का प्यासा हो जाएगा। वे लोग जो प्रेम की बातें करते थे--क्राइस्ट ने जैसा कहा है कि जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, उसके सामने तुम दूसरा कर देना। लेकिन ईसाइयों ने जितनी हत्याएं की हैं इस दुनिया में, और किसी ने भी नहीं की हैं। तो यह हैरानी की बात मालूम होती है।
ये अच्छी-अच्छी बातें सब ऊपर चलती हैं और भीतर, हमारे भीतर जंगली आदमी मौजूद रहता है। वह कभी भी निकलने की कोशिश करता है। कोई भी बहाना काफी है। महाराष्ट्रीयन और गुजराती का बहाना हो, तो छुरे निकल आते हैं। हिंदू-मुसलमान का बहाना हो तो छुरे निकल आते हैं। हिंदी भाषी गैर-हिंदी भाषी का मामला हो, तो छुरे निकल आते हैं। गोरी चमड़ी, काली चमड़ी का मामला हो, तो छुरे निकल आते हैं। छुरे तो हमेशा तैयार हैं। कोई मौका भर आ जाए, हम निकालने को हमेशा राजी हैं। हम पशु होने को हमेशा तैयार हैं। यह कैसी सभ्यता है? यह कैसा समाज है? दो महायुद्धों में दस करोड़ लोगों की हत्या की गई, और इस समाज को हम सभ्य कहते हैं, जिसमें तीस साल के भीतर दस करोड़ आदमी मार डालने पड़ते हों? और अब एक तीसरे की तैयारी हो रही है, जो हो सकता है, हम पूरी मनुष्य जाति को मार डालेें। इतना आयोजन है कि पूरी मनुष्य जाति को मारा जा सकता है।
यह कैसी सभ्यता है? यह कैसी सुव्यवस्था है, यह कैसी सुसंस्कृति है? और ऐसा मत सोचना कि यह आज ही हो रहा है और पुराने दिनों के लोग बड़े अच्छे थे। अगर पुराने दिनों के लोग बड़े अच्छे होते तो महाभारत कैसे होता? अगर पुराने दिनों के लोग बड़े अच्छे होते तो राम और रावण का युद्ध कैसे होता? ये ही लोग थे पुराने दिनों में भी, वही लोग अब हैं। अभी तक मनुष्य सभ्य हुआ नहीं है, सभ्य उसे होना है। अभी देर है। अभी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अभी सभ्यता थोड़ी है और झूठी है। जिस सभ्यता में रोज युद्ध आ जाते हों, रोज घृणा आ जाती हो, रोज कलह आ जाती हो, वह कोई सभ्यता है? धोखा है। ऊपर से लगाए हुए कपड़े हैं। भीतर से कुछ भी नहीं है। भीतर कोई बात नहीं है।
इस सभ्यता को खड़ा किया गया अनुशासन के आधार पर। उस अनुशासन के आधार पर खड़ी यह सभ्यता झूठी है। असल में अनुशासन के आधार पर जो भी खड़ा होगा वह झूठा होगा। मैं अगर आपको इसलिए प्रेम करूं कि आप भी भारतवासी हैं, इसलिए मैं आपको प्रेम करता हूं, यह प्रेम झूठा होगा। क्योंकि प्रेम भी अगर यह पूछता हो कि आप कौन हो, तब मैं करूंगा, तो वह झूठा हो गया। अगर मैं यह कहूं, कि आप मेरे पिता हो इसलिए मैं प्रेम करता हूं, तो यह बात झूठी हो गई। प्रेम यह नहीं पूछ सकता कि आप मेरे पिता हो, इसलिए मैं आपका आदर करता हूं। प्रेम ये बातें नहीं पूछता है कि आप गोरी चमड़ी के हो कि काली चमड़ी के हो, हिंदू हो कि मुसलमान हो, जैन हो कि पारसी हो। और जब यह पूछता है, तो समझ लेना, वहां प्रेम नहीं है। प्रेम तो किसी तरह के भेद नहीं मानता है। प्रेम तो किसी तरह की सीमाएं नहीं मानता है, कोई देश नहीं मानता है, कोई जाति नहीं मानता है। प्रेम तो धीरे-धीरे सबको अपने घेरे में ले आता है। कोई उसके बाहर नहीं रह जाता।
राबिया नाम की एक फकीर औरत हुई। कुरान में कहीं एक वचन है कि शैतान को घृणा करोे। उसने वह वचन काट दिया। एक दूसरा हसन नाम का फकीर उसके घर मेहमान था, उसने कहा, यह कुरान किसने खराब कर दिया, अपवित्र कर दिया? क्योंकि धर्मग्रंथों में संशोधन नहीं किया जा सकता, उनमें सुधार नहीं किया जा सकता। किसी धर्मग्रंथ में कोई सुधार नहीं किया जा सकता। वे अंतिम किताबें हैं। उनके आगे कोई सुधार की गुंजाइश नहीं है। उस हसन ने कहाः यह किस पागल ने किताब खराब कर दी? इस पवित्र गं्रथ में किसने लकीर काट दी? राबिया ने कहाः मुझी को काटनी पड़ी है। तुम कैसे पागल हो गई होे? बुढ़ापे में दिमाग खराब हो गया है? जीवन भर कुरान पढ़ी, जीवन भर धर्मग्रंथ पढ़े, नमाज को मस्जिद गई। यह बुढ़ापे में क्या हुआ? उसने कहाः इसके सिवाय कोई रास्ता न रहा कि इसको काट कर कुरान को पवित्र कर दूं। वह बहुत हैरान हुआ कि तुम कैसी पागल हो। कुरान को भी अभी पवित्र होना है तुम्हारे द्वारा?
राबिया ने कहा, जब मैं प्रेम से भर गई तो मैंने भीतर बहुत खोजा, वहां मुझे कहीं घृणा नहीं मिलती है। अगर शैतान मेरे सामने खड़ा हो जाए तो भी मैं प्रेम करने के लिए मजबूर हूं, क्योंकि घृणा करने के लिए घृणा होनी भी तो चाहिए। सवाल यही काफी नहीं है कि शैतान खड़ा है, घृणा करो। लेकिन घृणा होनी भी तो चाहिए! या गरीब आदमी खड़ा है, उसको दान दो, लेकिन देने के लिए भी तो कुछ होना चाहिए। और अगर देने के लिए नहीं है तो गरीब आदमी को दान भी कैसे देंगे? तो उसने कहाः शैतान भला मेरे सामने खड़ा हो, मैं तो असमर्थ हंू, मैं तो प्रेम ही दे सकती हूं। प्रेम ही मेरे पास है। और परमात्मा भी खड़ा हो तो भी प्रेम ही दे सकती हूं। और उसने कहा, अब तो मैं बड़ी कठिनाई में पड़ गई हूं कि पहचान भी नहीं पाऊंगी कि कौन शैतान है, कौन परमात्मा है। क्योंकि प्रेम पहचान नहीं पाता और फर्क नहीं करता। इसलिए मैंने यह पंक्ति काट दी है और ग्रंथ को पवित्र कर दिया है।
लेकिन यह जो हमारी सभ्यता है, इसमें प्रेम है? इसमें प्रेेम बिलकुल भी नहीं है। और प्रेम की झूठी बातें हैं। पति-पत्नी से कहता है, मैं तो तुम्हें प्रेम करता हूं, पत्नी-पति से कहती है, मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। ये बिलकुल झूठी बातें हैं। यह कहने वाला भी जानता है, झूठी हैं, सुनने वाला भी जानता है कि झूठी हैं। और बाप बच्चों से कहता है, हम तुम्हें प्रेम करते हैं। बच्चे बाप से कहते हैं, हम तुम्हें प्रेम करते हैं। यह बिलकुल झूठ है; यह सरासर झूठ है। यह झूठ न होता तो यह दुनिया और तरह की होती, अगर यह प्रेम पर खड़ी होती। यह प्रेम पर अगर खड़ी होती, यह परिवार अगर प्रेम की धुरी पर घूमते होते, और यह समाज का हर आदमी एक-दूसरे को प्रेम करता हुआ मालूम पड़ता है, सच में प्रेम करता होता तो दुनिया में युद्ध हो सकते थे? दुनिया में इतनी घृणा हो सकती थी? दुनिया में इतना वैमनस्य हो सकता था? इतनी शत्रुता हो सकती थी?
तथ्य तो यह कहते हैं कि जरूर यह प्रेम कहीं झूठा होगा। तथ्य तो यह कहते हैं, क्योंकि जो दिखाई पड़ता है कि वह तो यह है कि दुनिया में प्रेम कहीं भी नहीं है। दुनिया में वही तो होता है, जो एक-एक व्यक्ति दान करता है। दुनिया में घृणा है, हिंसा है, युद्ध है। इसका मतलब? इसका मतलब, एक-एक व्यक्ति दुनिया का यह जो बड़ा ढेर लगा हुआ जीवन का, उसमें घृणा डाल रहा है, क्रोध डाल रहा है, इसीलिए तो है। यह कैसे संभव है कि हरेक व्यक्ति प्रेम कर रहा हो? हरेक व्यक्ति पिता है, पुत्र है, पति है, पत्नी है, मित्र है, भाई है, बहन है। अगर ये सारे लोग प्रेम कर रहे हैं, तो यह दुनिया तो बिलकुल दूसरे ढंग की होनी चाहिए। यहां तो प्रेम का सागर दिखाई पड़े। लेकिन यह प्रेम नहीं है। इस प्रेम में जरूर कहीं बुनियादी भूल है। यह सब डिसिप्लिन हो सकता है, यह सब अनुशासन हो सकता है। मुझे प्रेम करना चाहिए इसलिए मैं कर रहा हूं, यह बिलकुल दूसरी बात है। मुझे प्रेम है, यह बिलकुल दूसरी बात है। मैं जिस दिन आपको इसलिए प्रेम करूं कि मुझे प्रेम करना चाहिए, उस दिन वह झूठा हो गया, असत्य हो गया। लेकिन जब मैं प्रेम करूं--चाहिए नहीं, कर्तव्य नहीं, जब मेरा प्रेम मेरे भीतर से बहे और आप तक पहुंच जाए। प्रेम किया नहीं जा सकता, प्रेम हो सकता है। क्योंकि किया हुआ झूूठा हो जाएगा। वह एक कोशिश और एफर्ट हो जाएगा। और जहां कोशिश है और एफर्ट है वहां झूठ हो गया।
क्या आपने किसी को प्रेम करने की कोशिश की है? अगर की होगी तो वह प्रेम झूठा रहा होगा। प्रेम करने की कोशिश नहीं हो सकती। लेकिन डिसिप्लिन तो सारी बातें यही सिखाती है। वह प्रेम करना भी सिखाती है, वह आदर देना भी सिखाती है, वह सम्मान देना भी सिखाती है, श्रद्धा करना भी सिखाती है और इसीलिए तो सब झूठा हो गया है। इसलिए तो सब असत्य हो गया है जीवन।
हम सब अनुशासनबद्ध लोग हैं। और हमारे जीवन में कोई भी ऐसा तत्त्व नहीं है, जो हम पर जबरदस्ती थोपा हुआ न हो, हमारे भीतर आया हो और जागा हो। और जिसे हमने खोजा हो अपने प्राणों के भीतर, जो बीज की भांति फूटा हो, अंकुरित हुआ हो, जिसमें फूल आए हों। हमारे सब फूल बाजार से खरीदे हुए हैं, कागज के हैं। उनको हम ऊपर से लगाए हुए हैं। इसलिए ऊपर से लगाए हुए, जब तक शांति हो, तब तक तो ठीक है, जरा ही उपद्रव हो जाए, फूल हट जाते हैं, कांटे बाहर निकल आते हैं। कांटे असली हैं। जरा एक आदमी को खरोंच दें, उसकी सब सभ्यता विलीन हो जाएगी और उसका असभ्य आदमी बाहर आ जाएगा। जरा एक आदमी को शराब पिला दें, उसकी सब सभ्यता विलीन हो जाएगी और भीतर से न मालूम कौन बोलने लगेगा। वह भीतर मौजूद था तब तो बोल रहा था। शराब बड़ी गड़बड़ बातें पैदा करती है। वह तो केवल वह जो ऊपर से थोपा था, उसको सुला देती है, असली आदमी भीतर से बाहर आ जाता है। नशे में कुछ यह थोड़ी होता है, नशे में कुछ ऐसी ताकत थोड़ी होती है कि आपके भीतर से गालियां निकलने लगेें। लेकिन जो आदमी मंदिर में बैठा भजन पढ़ रहा है, उसे नशा करवा दें, वह गालियां देने लगेगा। भजन ऊपरी हैं, गालियां असली हैं। भजन सीखे हुए थे, गालियां उसके स्वभाव का हिस्सा हो गई हैं, भजन सीखे हुए थे, गालियां उसके स्वभाव का हिस्सा हो गई हैं, वह गहरी आदतें हैं। इसीलिए तो धार्मिक लोग नशा करने से डरते हैं। सब धार्मिकता दो मिनट में हवा हो जाएगी।
यह जो सभ्यता है बहुत सतही है, बहुत सुपरफिशियल है। और यह खड़ी की गई है अनुशासन के आधार पर। क्या कोई और आधार नहीं हो सकते? मुझे दिखाई पड़ता है, अनुशासन ठीक आधार नहीं है। क्योंकि कितने दिन और प्रयोग करिएगा? कोई दस हजार साल से आदमी अनुशासन का प्रयोग करता है और सब झूठा से झूठा होता चला गया, सब झूठा हो गया है। उसमें कहीं कोई सचाई नहीं रह गई किसी बात में भी। इस झूठ को कब तक खींचिएगा? कहीं ऐसा न हो कि इस झूठ को खींचते-खींचते आदमी के प्राण निकल जाएं। डर तो यही है कि निकल जाएंगे। बचने की बहुत कम उम्मीद है। मरीज बचने वाला जैसा दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि खास उस दिशा में काम नहीं दिख रहा है कि मनुष्य बच सकेगा।
क्या करिएगा? क्या कोई दूसरा मार्ग नहीं है? मैं निवेदन करना चाहता हंू, अनुशासन आधार नहीं हो सकता। हमें विवेक को ही आधार बनाना होगा। हमें मनुष्य के भीतर किसी ढांचे को थोपने की जरूरत नहीं है, लेकिन उसकी प्रज्ञा को जगाने की जरूरत है। उसकी आंख खोलने की जरूरत है, उसके हाथ में लकड़ी देकर टटोलवाने की जरूरत नहीं है। और आंख जब खोली जा सकती है तो क्यों न खोली जाए?
जब मैं यह कह रहा हंू कि अनुशासन व्यर्थ है, तब मैं यह नहीं कह रहा हूं कि स्वच्छंदता सार्थक है। जब मैं यह कह रहा हंू, अनुशासन व्यर्थ है, तब मैं यह कह रहा हंू, विवेक सार्थक है। और मैं आपसे यह भी निवेदन कर दंू, यह अनुशासन का रिएक्शन है, स्वच्छंदता जो है। स्वच्छंदता अनुशासन की प्रतिक्रिया है। जब किसी आदमी पर बहुत चीजें थोप दी जाएं, तो उसका मन विद्रोह करने लगता है। विद्रोह में वह दूसरे एक्सट्रीम पर चला जाता है। इस सारी दुनिया में जो विद्रोह हो रहा है, नई पीढ़ी जो विद्रोह कर रही है, वह हजारों साल के अनुशासन की प्रतिक्रिया है। आपने बहुत-बहुत दबाया था और आपने स्त्रियों को बिलकुल नकाबों में ढांक के रखा था बुर्कों में और घूंघटों में। वह नये लड़के उनको नंगा घुमाने की कोशिश कर रहे हैं। यह प्रतिक्रिया है। उनकी नग्न तस्वीरें सारी दुनिया के चित्त पर फैलाई जा रही हैं। यह प्रतिक्रया है। इसमें कौन कसूरवार है? इसमें यही लड़के कसूरवार नहीं हैं, वह मर गए बूढ़े भी कसूरवार हैं, जिन्होंने औरतों को ढांका था। यह उसकी प्रतिक्रिया है, यह दूसरा एक्सट्रीम है, यह दूसरी अति है। एक अति यह थी कि स्त्री का कोई अंग ही न दिखाई पड़े। यह मूर्खतापूर्ण है। यह बिलकुल मूर्खतापूर्ण है। यह बिलकुल ही हद से ज्यादा मूर्खतापूर्ण बात है। स्त्री को ढांक दो बिलकुल तो एक वक्त आएगा कि लड़के उसे उघाड़ने लगेंगे। और जब वे उघाड़ने लगेंगे, तब आपको बड़ी घबड़ाहट होगी कि यह तो बड़ी अराजकता फैल रही है। यह अराजकता नहीं फैल रही है, यह आपके अनुशासन का अनिवार्य फल है। यह होने को ही है। जिन-जिन चीजों पर जितना निषेध किया जाएगा, वे उतनी ही आकर्षक हो जाती हैं। आकर्षण आप पैदा कर रहे हैं।
मेरे मित्र हैं, जिन्होंने मुझे कहा कि हम यूरोप और अमरीका के नग्न घरों में गए, नेकेड्स क्लब में गए, वह न्यूड-क्लब्स में गए। वहां हमने नग्न औरतों को देखा तो हम एकदम घबड़ा गए। हम सोचते थे, कोई बहुत रहस्यपूर्ण, कोई बहुत अदभुत बात होगी। नग्न औरतों को देख कर हम ठगे रह गए। वहां कुछ भी नहीं था। आखिर हो भी क्या सकता है? आखिर हो भी क्या सकता है? आप सब अपने नग्न शरीरों से परिचित हैं, उसमें क्या है? लेकिन दूसरे के नग्न शरीर में बड़ी उत्सुकता है, क्योंकि कपड़े बहुत ढांके गए हैं। अगर कपड़े बहुत ढांके जाएंगे तो शरीरों में अति उत्सुकता पैदा होगी और कपड़ों को उघाड़ने की चेष्टाएं शुरू हो जाएंगी। सारा साहित्य कपड़े उघाड़ने का धंधा करता है? कविताएं कपड़े उघाड़ने का धंधा करती हैं, फिल्में कपड़े उघाड़ने का धंधा करती हैं। और जो धंधा जितना ठीक से कपड़ा उघाड़ने का काम करता है, वह उतना ही पैसे लाता है। सारी दुनिया में यह काम चल रहा है। एक तरफ कपड़े ढांकने वाले लोग, एक तरफ उघाड़ने वाले लोग। लेकिन जीवन की सचाइयों को सीधा-सीधा देखने वाले लोग नहीं के बराबर हैं।
विवेक चाहिए, थोपे हुए अनुशासन खतरनाक हैं। उनका परिणाम बुरा होगा। जिन कौमों ने, जितना ज्यादा स्त्रियों को ढांका है, उन कौमों के पुरुषों ने उतना ही ज्यादा स्त्रियों के संबंध में चिन्तन किया है। आप अपना ही मुल्क देख लें। आप अपना पूरा साहित्य उठा कर देख लें, आप हैरान हो जाएंगे, इतना अश्लील साहित्य किसी कौम का नहीं है। आपके श्रेष्ठ से श्रेष्ठ धार्मिक ग्रंथ भी अपने गहरे में बहुत अश्लीलता लिए हुए हैं। और आपके साधु-संन्यासी भी मोक्ष की बात करते हैं, तो वह कहते हैं कि मोक्ष-रमणी का हम भोग करने जा रहे हैं। मोक्ष-रमणी का भोग करने जा रहे हैं! उनकी कल्पनाओं में भी वही रमणी और वही भोग सब बैठा हुआ है। आपके भक्तों की कविताएं देखें तो आप घबड़ा जाएंगे। उनमें इतनी सेक्सुअलिटी है, जिसका कोई हिसाब नहीं। इतनी कामुकता है, जिसका कोई हिसाब नहीं।
यह सब क्या है? यह सेक्स के ऊपर जो हजारों साल का अनुशासन है, उसकी प्रतिक्रिया है। उसकी प्रतिक्रिया में स्वच्छंदता पैदा हो रही है। दो ही चीजें हो सकती हैं--जबरदस्ती थोप दें, यह भी बुरा है। क्योंकि भीतर विकार तो बने रहेंगे, ऊपर थोपना हो जाएगा, यह भी खतरनाक है। और भीतर आग सुलगती रहेगी, और वह किसी भी दिन तोड़ देगी सारे ढांचे को। वह भी खतरनाक है। जब ढांचा टूटेगा तो आदमी ठीक दूसरे एक्सट्रीम पर चला जाएगा, दूसरी अति पर चला जाएगा। अतियां हमेशा खतरनाक हैं। विवेक हमेशा मध्य में खड़ा होता है। अविवेक हमेशा अतियों पर जाता है। या तो वह बहुत भोजन करेगा, या फिर अगर आ गया मौका तो उपवास करेगा। बीच में रुकने वाला नहीं है। सम्यक आहार पर कभी रुकने वाला नहीं है। जितने उपवास में रस लेने वाले लोग हों, अगर आप बहुत गौर से खोज-बीन करेंगे तो आप पाएंगे, किसी न किसी दिन वह अतिभोजी जरूर ही रहे होंगे। ज्यादा भोजन जरूर उन्होंने कभी किया होगा। उसकी ही अति, उसकी ही प्रतिक्रिया लंबे उपवास पर ले जा सकती है। सम्यक् पर वे कभी नहीं रुक सकते। बीच में वह कभी नहीं रुक सकते। एक कोने से दूसरे कोने पर मन घड़ी के पेंडुलम की तरह है, एक कोने से दूसरे कोने पर जाता है। बीच में कभी नहीं ठहरता है। हालांकि दोनों स्थितियां बेचैनी की हैं। जब बीच में होगा; तभी चैन हो सकता है, तभी शांति हो सकती है।
मैं अनुशासन के पक्ष में नहीं हूं। स्वच्छंदता के भी पक्ष में नही हंू। और यह कह देना चाहता हंू कि अनुशासन और स्वच्छंदता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, अलग-अलग चीजें नहीं हैं। जो कौम अनुशासित होगी, उसके नीचे स्वच्छंदता पलेगी। उसके नीचे पाप पलेगा, अपराध पलेगा। एक तरफ मंदिर बनते हैं, दूसरी तरफ जेल भी बनते हैं। मंदिर भी बनते जाते हैं रोज नये, जेल भी बनते जाते हैं, फिर भी हमको दिखाई नहीं पड़ता है कि मामला क्या है। एक तरफ पतिव्रत धर्म का उपदेश भी चलता है, दूसरी तरफ वेश्या भी पलती है; उसी घर के बगल में वेश्या भी पल रही है।
यह कौन पाल रहा है? जरूर इस पतिव्रत धर्म की छाया है, उसके साथ ही जुड़ी है। जहां-जहां पतिव्रत धर्म, वहां-वहां वेश्या। इसको अनिवार्य सूत्र समझ लेना। जहां-जहां धुआं, वहां-वहां आग। वैसा ही जहां-जहां पतिव्रत धर्म की अति, वहां-वहां पीछे वेश्या खड़ी हो जाएगी हमेशा। अभी तक दुनिया वेश्या से मुक्त नहीं हो सकी है, यह कैसा पतिव्रत धर्म है? इसमें जरूर कहीं कोई खामी है; जबरदस्ती थोपा हुआ है। यह प्रेम से आया हुआ नहीं है। यह प्रेम से आया हुआ होता, तो वेश्या नहीं हो सकती थी दुनिया में। आपका विवाह झूठा है, डिसिप्लिनड है, वह प्रेम से आया हुआ नहीं है। और जब विवाह प्रेम से नहीं आता तो पीछे वेश्या आएगी ही, बच नहीं सकती। उसको भगाइए कहीं भी, हटाइए कहीं भी, वह मौजूद रहेगी, क्योंकि आप उसको पैदा कर रहे हैं। आपका विवाह झूठा है। वह प्रेम से नहीं विकसित हुआ है, थोपा गया है। उसे आप खींच रहे हैं बोझ की तरह, लेकिन वह आपके प्राणों का संगीत नहीं है, भार है, बोझ है।
और इस बोझ के परिणाम होंगे। यह पूरी की पूरी समाज-व्यवस्था डिसिप्लिनड तो है, इसमें एक अनुशासन तो है, लेकिन यह झूठा है, इसलिए इसके नीचे-नीचे स्वच्छंदता पलती है। नीचे-नीचे विरोधी तल भी चलता है। ऊपर से प्रेम भी चलता है। भीतर घृणा भी चलती है।
एक मित्र हैं, मुझसे बोले कि मैं अपनी पत्नी को बहुत प्रेम करता हूं। मैंने उनको कहा कि अगर आपको कल पता चल जाए कि आपकी पत्नी मुझे भी प्रेम करती है, फिर? वह बोलेः उसका सिर काट दूंगा। मैंने कहाः यह तो बड़ा अदभुत प्रेम है, जो इतनी सी बात पर सिर काटने को राजी हो गया है। यह तो प्रतिस्पर्धा हो सकती है, प्रेम नहीं हो सकता है। ईष्र्या हो सकती है, प्रेम नहीं हो सकता है। अगर सच में आप अपनी पत्नी को प्रेम करते हैं, मैंने कहा, वह मुझे प्रेम करती है, तो खुश होना चाहिए कि मेरी पत्नी में जरूर कोई अदभुत बात होगी, एक आदमी और उसको प्रेम करने वाला मिल गया। तो आपको तो खुश होना चाहिए। जिसको मैं प्रेम करता हूं, उसको और लोग भी प्रेम करेंगे तो मेरा हृदय तो खुशी से भर जाना चाहिए।
लेकिन नहीं, मैं मालिक होना चाहता हूं, प्रेम कोई नहीं, करना चाहता। डोमिनेशन है। मालकियत, ओनरशिप है। स्त्री तो धन है, उसके मालिक हो जाओ। और जब आप मालिक होते हो, तो स्त्री भी बदला लेती रहती है चैबीस घंटे मालिक होने का। घर क्या हैं हमारे? कलह के केंद्र हैं। कोई परिवार है यह? उपद्रव की जड़ें हैं। कहां है परिवार? कहां है प्रेम वहां? कलह है चैबीस घंटे, सुबह से सांझ, सांझ से सुबह। लेकिन हम देखने को राजी नहीं, हम कहते हैं बड़ा प्रेम है। ऊंचा परिवार है। सब ठीक चल रहा है। बड़े आनंद में हैं। क्यों झूठी बातें हम दोहराए चले जा रहे हैं? और जब तक हम यह दोहराते रहेंगे तब तक सचाइयां ज्ञात नहीं होंगी। कोई क्रांति भी नहीं हो सकती जीवन में। ये बिलकुल झूठी बातें हैं। ये बिलकुल ही झूठी बातें हैं। इनके पीछे सचाइयां नहीं हैं, ये नाम हैं, जो हमने सीख लिए हैं और दोहरा रहे हैं। क्या भीतर सच में यह बात है? जहां प्रेम है, वहां ईष्र्या नहीं हो सकती। और जहां ईष्र्या है, स्मरण रखना, वहां प्रेम नहीं हो सकता है। ये दोनों साथ कभी होते ही नहीं। कभी ऐसा प्रेम किया है जहां ईष्र्या न हो? अगर नहीं किया है तो समझना, अभी प्रेम ही नहीं किया है। प्रेम कोई और ही बात है। अलौकिक है। प्रेम कुछ और ही बात है। सिर्फ धार्मिक मन का लक्षण है। हर आदमी प्रेम नहीं कर सकता। हर आदमी तो केवल ईष्र्या कर सकता है, घृणा कर सकता है, मालिक हो सकता है।
जिसको मैं प्रेम करता हूं, उसका मैं मालिक थोड़े ही होना चाहंूगा! मालिक तो हम उसके होना चाहते हैं, जिसको हम घृणा करते हैं। लेकिन पति का क्या मतलब होता है? पति का मतलब होता है मालिक, और पति मालिक बना बैठा है। वह पत्नी का मालिक है। उसको तो वह सम्पत्ति मानता रहा है। स्त्री-धन हम कहते ही रहे हैं, अपने मुल्क में। चीन में तो वह स्त्री में कोई आत्मा ही मानते नहीं रहे कि उसमें कोई आत्मा होती है! पति अगर मार डाले तो उस पर मुकदमा नहीं चलता था, बीस साल पहले तक भी। अगर पत्नी को मार डाले--अपने फर्नीचर को तोड़ दे, कुर्सी को तोड़ दे, ऐसा ही मामला था, इससे ज्यादा नहीं था। उस पर कोई अदालत मुकदमा नहीं चला सकती है। उसकी औरत है, उसने मार डाला है। वह उसकी सम्पत्ति है। बेचते रहे हैं लोग। हिंदुस्तान में बड़े-बड़े, जिनको हम कहते हैं धर्मराज, वह भी अपनी पत्नी को जुए में दांव पर लगाते रहे हैं। क्यों? सम्पत्ति मानते थे इसलिए।
यह प्रेम है? यह प्रेम हो सकता है यहां कोई? यह कोई प्रेम नहीं है। यह कोई भी प्रेम नहीं है। आप तो हैरान हो जाएंगे, राम ने सीता के लिए इतना बड़ा युद्ध किया, इतना बड़ा युद्ध किया, जाकर लड़े, फिर जब सीता को छीन लिया और लंका हार गई और रावण समाप्त हो गया तो आप हैरान होंगे, राम ने सीता से क्या कहा? राम ने सीता से कहाः तू यह मत समझना कि मैं तेरे लिए लड़ा हंू। एक स्त्री के लिए लड़ना कोई अर्थ रखता है? मैं लड़ा हंू अपने यश के लिए। मैं लड़ा हूं राज, अपने कुल की प्रतिष्ठा के लिए। तू यह मत समझना कि मैं तेरे लिए लड़ा हंू।
कैसे अभद्र शब्द हैं। सारी बात पर मिट्टी फिर गई। यहां प्रेम है कोई? नहीं, कुलधर्म है, अहंकार, वह कुलधर्म का अहंकार है। मेरा कुल, उसका अहंकार है। उसके लिए लड़ा हंू। स्त्री का क्या मामला है? पच्चीस स्त्रियां मिल सकती हैं। स्त्री से क्या लेना-देना है?
झगड़ा वह नहीं है। झगड़ा है अहंकार का। यह सारी की सारी हमारी चित्त की दशा रही है। इसमें प्रेम कहां है? तो राम को जब मौका आ गया कि उनके कुल-धर्म पर और मर्यादा पर चोट आने लगी और जब किसी ने एतराज कर दिया तो उस स्त्री को छोड़ कर अलग कर दिया। जिसके लिए लड़े थे, इतना उपद्रव किया था, इतनी हिंसा की, उसको अलग कर दिया। प्रेम होता तो खुद भी छोड़ देना था उसके साथ। क्या हर्ज था। एक दिन तो छूट ही जानी थी सारी बात। प्रेम होता तो कहते, ठीक है, मेरी स्त्री गलत है, वह जंगल जाती और मैं फिर उसके साथ चला जाता।
लेकिन प्रेम-व्रेम कुछ भी नहीं था। उसके पेट में गर्भ था, उन बच्चों से भी कोई प्रेम नहीं था। वहीं जंगल में वह भटकी, वह बच्चे वहां पैदा हुए। कौन सा प्रेेम है? उन बच्चों से क्या लेना-देना है? लेकिन हम कहते हैं, हम प्रेम करते हैं अपने बच्चों को। हम उनके लिए मरने को राजी हैं। कुछ नहीं है। आप मरने को राजी हैं, अगर यह पता चल जाए, यह बच्चा आपसे पैदा नहीं हुआ है, आपकी पत्नी से किसी और से पैदा हुआ है, आप इसको मारने को राजी हो जाएंगे, इसके लिए मरने को राजी नहीं होंगे। यह मेरा है, यह अहंकार का मजा तो आप लेना चाहते हैं--मेरा लड़का, लेकिन इस लड़के से आपको कोई भी प्रेम नहीं है। यह जो जीवित प्राण स्पंदित हो रहे हैं, इस लड़के से आपका कोई संबंध नहीं है। मेरा लड़का! मेरे से मतलब है। अहंकार से मतलब है। वहां प्रेम कहां है?
लेकिन यह हमारा सारा का सारा रुग्ण समाज है, रुग्ण सभ्यता है, और हम कहते हैं, यह कहीं टूट न जाए, कहीं यह बीमारी नष्ट न हो जाए! इसे नष्ट हो जाने दें। इससे कोई हर्जा होने वाला नहीं है। यह मिट जाए तो सौभाग्य होगा। क्योंकि शायद इसके मिटने से हमको विचार उठे। शायद यह टूटने लगे तो हम सोचें कि कुछ और हो सकता है।
क्या मनुष्य के जीवन के आधार किन्हीं और ढंगों से रखे जा सकते हैं? जरूर रखे जा सकते हैं। जरूर रखे जाने चाहिए। लेकिन तब तक यह संभव नहीं होगा, जब तक हम इस समाज को स्वस्थ मानते रहेंगे और इस सभ्यता को सभ्यता मानते रहेंगे, और इस संस्कृति को ठीक समझते रहेंगे, तब तक यह नहीं होगा। और मैं यह नहीं कह रहा कि पूरब की संस्कृति या पश्चिम की संस्कृति, वे सब एक जैसी हैं। कोई बहुत बुनियादी फर्क नहीं है कि इधर की संस्कृति, उधर की संस्कृति, यह नहीं कह रहा। अभी तक मनुष्य ने जो संस्कृति पैदा की है वह अनुशासन की संस्कृति है, विवेक की संस्कृति नहीं है, यह मैं आपसे कह रहा हूं। चाहे वह किसी देश ने पैदा की हो, चाहे वह किन्हीं ने पैदा की हो, इससे फर्क नहीं पड़ता।
अभी विवेक के आधार पर सभ्यता खड़ी नहीं की जा सकी है। और जो सभ्यता विवेक पर खड़ी न हो वह सभ्यता झूठी है। उसके होने न होने से बहुत फर्क नहीं पड़ता। काम चल जाता है। और काम चलना कोई जीवन का आनंद नहीं है।
कौन सा आनंद है जीवन का? कौन सा? कोई भी नहीं है। बस चल रहे हैं, घिसट रहे हैं, समाप्त हो जाएंगे। और इसी को बचा रखना चाहते हैं। इसके बचाने में क्या प्रयोजन है? तो मत डरें इस बात से कि यह टूट जाएगी। हां, लेकिन जरूरी है इसके पहले कि यह टूटे, क्यों हम इसे तोड़ देना चाहते हैं, यह खयाल में होना जरूरी है। हम इसे विवेक से एक नये समाज के लिए तोड़ देना चाहते हैं। और उचित होगा कि तोड़ने में उतनी उत्सुकता न लें, जितना उस विवेक को जगाने में उत्सुकता लें। क्योंकि विवेक जगेगा तो यह तो टूट ही जाएगी। इसे तोड़ने के लिए कोई खास जरूरत नहीं है।
इसलिए मेरी सारी चेष्टा यह है कि विवेक जगे। व्यक्ति के भीतर स्व-विवेक हो, न कि समाज के द्वारा दिए गए इशारे, और उन पर वह चले। उसके भीतर स्व-विवेक हो। उसको भीतर अपना बोध हो। वह देखना सीखे, समझना सीखे। जीवन के आनंद के रास्ते सीखे। फिर कोई कारण नहीं है कि दुख की तरफ जाए, पीड़ा की तरफ जाए। फिर कोई कारण नहीं है, वह दूसरे को दुख दे और पीड़ा दे। फिर कोई कारण नहीं, क्योंकि विवेक हमेशा उस मार्ग पर ले जाता है, जो शुभ है। जहां विवेक ले जाए, वही शुभ है। लेकिन हम तो विवेक को सिखाते ही नहीं, तो विवेक जगेगा कैसेे? हम तो सिखाते हैं अनुशासन। हम तो सिखाते हैं मानो, विश्वास करो, श्रद्धा करो। हम नहीं सिखाते सोचो, खोजो। हमारा सिखावा ही पूरा गलत है। पूरी शिक्षा के आधार ही गलत हैं। हम जो समझा रहे हैं, वही गलत है। जरूरी है कि हम उसके भीतर सोए हुए विवेक को जगाएं, न कि उसे हम कहें कि मानो और स्वीकार करो।
जब तक हम इस तरह की कोशिश जारी रखेंगे--मानो वाली, विश्वास कराने वाली, तब तक मनुष्य के भीतर विवेक जन्म नहीं ले सकता है। यह तो बड़े आश्चर्य की बात है कि हमारे इस बीमार समाज में भी कभी कोई इक्का-दुक्का विवेक को उपलब्ध महावीर, बुद्ध या क्राइस्ट और कृष्ण पैदा हो जाता है, मुश्किल से। आश्चर्यजनक है। यानी ये तो हमारी सब कोशिशों के बावजूद पैदा हो जाते हैं, बड़ी हैरानी की बात है। हमारी कोशिश तो ऐसी है कि हो ही नहीं सकते पैदा। यह बहुत हैरानी की बात है कि कैसे पैदा हो जाता है एकाध कभी? कैसे हमसे बच जाता है, कैसे हमारी तरकीब के बाहर निकल जाता है, हमारी मशीन के बाहर खड़ा हो जाता है? और ऐसी बातें कहने लगता है, जो कि हम चाहते नहीं थे कि वह कहे। इसके लिए हमने कोई तैयारी नहीं करवाई थी। हमने तो कुछ और बात के लिए तैयारी करवाई थी। वे सब गड़बड़ कर देते हैं। ऐसे कुछ थोड़े से डिस्टब्र्स अभी तक पैदा होते रहे हैं, थोड़े से विघ्न-बाधा देने वाले लोग। उन पर ही आशा टंगी है। दुनिया में जब इस तरह के लागों की संख्या थोड़ी बढ़े, जो जीवन में विवेक को उपलब्ध हो रहे हों, तो एक नई संस्कृति पैदा हो सकती है। अभी तक की सब संस्कृति, समझें तो संस्कृति नहीं है, अभी प्रारंभिक प्रयोग हुए हैं, जो असफल हो गए हैं। अभी कोई प्रयोग सफल नहीं हुआ है।
यह जो मैं विवेक की बात कह रहा हंू, इसको मैं और आगे समझाऊंगा कि मेरा क्या प्रयोजन है विवेक से।

इसी संदर्भ में एक प्रश्न और पूछा हुआ है। पूछा हुआ है कि हम अपने मन की जो हमारी मूल वृत्तियां हैं--क्रोध है, काम है, लोभ है, मोह है, इनको कैसे ट्रांसफार्म करें? कैसे परिवर्तित करें?

वह मित्र मुझे दोपहर में भी मिले थे। उनसे मैंने कहा था कि लिख कर आप दे देना, बाद में बात कर लंूगा। तो उन्होंने वह लिख कर दिया है। उन्होंने दोपहर में मुझसे कहा, कि ये जो शत्रु हैं हमारे, ये काम, क्रोध, मोह, लोभ, इनसे हम कैसे ऊपर उठें, कैसे इनको बदलें? तो मैंने उनसे पहला तो यह निवेदन किया कि कृपा करके इनको शत्रु न मानें। क्योंकि जिसको शत्रु मान लिया उससे लड़ाई शुरू होती है, उसकी बदलाहट नहीं होती है फिर। और जिससे आप लड़ते हैं, उसे आप कभी बदल नहीं सकते हैं। जिससे भी आप लड़ते हैं, उसे कैसे आप बदलेंगे? उसको दबा सकते हैं, उसके ऊपर बैठ सकते हैं। लेकिन वह नीचे मौजूद रहेगा। और कोशिश में रहेगा कि कब आपके हाथ से छूट जाए और वापस बाहर निकल जाए। उसे आप सप्रेस कर सकते हैं, जिसे शत्रु मान लिया था, दमन कर सकते हैं, लेकिन उसे बदल नहीं सकते।
लेकिन यह जो अनुशासन की सभ्यता है, इसने यही सिखाया है दमन करो, दबाओ। विवेक यह नहीं कहेगा कि दबाओ। विवेक यह कहेगा, पहचानो, समझो। और बड़े आश्चर्य की बात है, अगर आप समझने लगें तो ये शत्रु नहीं हैं, ये सब मित्र हैं। नासमझी के कारण शत्रु हैं, समझ के कारण मित्र हो जाते हैं।
अगर आपके घर के पास कचरा, कूड़ा-करकट इकट्ठा हो जाए, तो उससे गंदगी पैदा होगी, बास बढ़ेगी, कीड़े-मकोड़े बढ़ेंगे, आपका घर गंदगी का घर हो जाएगा। लेकिन अगर आपमें समझ हो तो उसी गंदगी को बगीचे में डाल सकते हैं और खाद बना सकते हैं और बीज बो सकते हैं और फूल आ सकते हैं। वही खाद की दुर्गंध फूलों की सुगंध बन जाएगी! वही दुर्गंध, जो घर को गंदा कर देती है, फूलों के सुवास से भर देगी। खाद बन जाएगी वही दुर्गंध, फूलों की सुगंध बन जाएगी।
जीवन में यह जो हमको दिखाई पड़ता है--क्रोध है, लोभ है, मोह है और हम सोचने लगते हैं कि ये सब शत्रु हैं, यह गलत बात है। ये सब जीवन की शक्तियां हैं, शत्रु नहीं हैं। इनको अगर समझें, पहचानें, तो ये मित्र हो जाएंगे। अगर न समझें, न पहचानें, तो ये शत्रु हो जाएंगे। शत्रुता और मित्रता इस बात पर निर्भर है कि आप इनके प्रति विवेकपूर्ण हैं या अविवेकपूर्ण हैं। इनका ही तो परिवर्तन होगा। जिस आदमी के भीतर क्रोध नहीं है, उसके भीतर कभी क्षमा भी नहीं हो सकती। कि हो सकती है?
महावीर इतने बड़े क्षमाशाली हुए, इससे मैं आपसे यह कह सकता हूं कि वह जरूर महाक्रोधी रहे होंगे। क्योंकि जितनी बड़ी क्रोध की शक्ति हो, उतनी ही बड़ी क्षमा की शक्ति प्रकट हो सकती है। क्रोध की शक्ति ही तो क्षमा बनती है। जिनके भीतर सेक्स, काम हो, उतने बडे ब्रह्मचर्य की उनके भीतर अभिव्यक्ति हो सकती है। जिनके भीतर काम ही न हो, जिनके भीतर सेक्स ही न हो, उनके भीतर ब्रह्मचर्य के विकास की कोई संभावना नहीं है। क्योंकि ब्रह्मचर्य बनेगा क्या? वही सेक्स-एनर्जी, वही काम की शक्ति तो ब्रह्मचर्य बनेगी, ओज बनेगी।
तो इसे मैं कैसे शत्रु कहूं? इसी पर तो सारा ब्रह्मचर्य खड़ा होगा। इसी पर तो सारा विकास होगा। ये शत्रु नहीं हैं, जीवन की शक्तियां हैं। लेकिन डिसिप्लिन वाले समाज ने हमको सिखाया है कि ये शत्रु हैं, इनको दबाओ, इनको नष्ट करो। तब ये नष्ट नहीं होते। दबे हुए भीतर बैठे रहते हैं।
बड़े से बड़े त्यागी के भीतर लोभ बैठा रहता है। बल्कि वह त्याग करता ही इसलिए है कि मोक्ष का लोभ है, नहीं तो वह त्याग भी नहीं करेगा। त्याग के पीछे भी मोटिव लोभ है। वह इसलिए त्याग करता है कि उसको पक्का विश्वास बैठने लगा है कि त्याग करेगा तो स्वर्ग में सब कुछ मिलेगा। यहां शराब छोड़िए, तो ऐसे धर्मग्रंथ हैं, जो कहते हैं, वहां शराब के चश्मे बह रहे हैं। यहां शराब छोड़िए, वहां शराब के झरने बह रहे हैं। और वहां मजे से पीजिए। जो यहां नहीं छोड़ेगा, वहां नहीं पा सकेगा। तो छोड़ने को लोग राजी हो जाते हैं। यह त्याग नहीं है, यह लोभ है। यहां धन का त्याग करिए तो स्वर्ग में सुख भोगिए, इंद्र हो जाइए, या कुछ और हो जाइए।
इसलिए कथाएं हैं पुरानी कि इंद्र बहुत डरता है त्यागियों से। और त्यागियों को डिगाने का, परेशान करने का, अप्सराएं भेजने का उसका धंधा ही है पूरा। अभी तक यही रहा है कि कोई कहीं त्याग करे, कोई साधना करे, इंद्र का धंधा और देवताओं का काम यह है कि उसको भ्रष्ट करे। यहां एंटी-करेप्शन डिपार्टमेंट है, वहां करेप्शन का डिपार्टमेंट है इंद्र के पास। वह हजारों साल से इसी काम में लगा हुआ है कि लोगों को करप्ट करो, औरतों को भेजो साधु-संन्यासियों के पास। कोई आती नहीं औरतें-वौरतें। कोई धंधा ऐसा खोला नहीं है दुनिया में। लेकिन वह साधु संन्यासियों ने सेक्स को दमन किया हुआ है। वह दमन इतना हो जाता है कि एक घड़ी में उस दमन के कारण ही उस दमन की तीव्रता के कारण ही उनके स्वप्न और उनकी कल्पनाएं अप्सराएं बन जाते हैं, और कुछ भी नहीं है। कोई कहीं भेजने वाला नहीं है। लेकिन वहां भीतर सेक्स को दबाया, दबाया, दबाया! औरतों से आंख बंद की, आंख बंद की, दूर भागे, भीतर स्त्री की प्रतिमा खड़ी होने लगी दमन के कारण। वह बाहर से तो स्त्रियों से भाग गए, भीतर स्त्री खड़ी हुई है। वह जितना भाग रहे हैं, वह इस बात का सबूत है कि भीतर डर है, इसलिए स्त्री से भाग रहे हैं। उस डर के कारण इमेजिनेशन स्त्री की तरफ जाने लगेगा। आप जिस तरफ से भागेंगे। उसी तरफ कल्पना दौड़ने लगेगी। जिस तरफ से रोकेंगे, उसी तरफ मन भागने लगेगा। यह स्वाभाविक, सहज नियम है। करके देखें, यही होगा।
तिब्बत में एक फकीर हुआ है मिलारेपा। एक आदमी उसके पास आया, बहुत सेवा की और कहा कि मुझे कोई मंत्र दे दें, कोई सिद्धि दे दें। उसने बहुत समझाया कि मैं सीधा-सादा फकीर हूं, मैं कोई मदारी जादूगर नहीं हंू। तुम कहीं और जाओ। ऐसे मदारी भी हो चुके हैं जो बहुत बड़े फकीर रहे। तुम वहां चले जाओ, क्योंकि मैं तो सीधा-सादा आदमी हंू। लेकिन वह नहीं माना, नहीं माना तो उसने पिंड छुड़ाने के लिए उसे एक कागज पर एक मंत्र दे दिया और कहा जाओ, इसे ले जाओ। आज पूर्णिमा की रात है, तुम एकांत में बैठ जाना। इसका पांच दफे पाठ कर लेना, तुम्हारे पास अदभुत शक्तियां आ जाएंगी। तुम जो चाहोगे सो करना। वह एकदम भागा, इसी के लिए तो आया था। फिर साधु को उसने धन्यवाद भी नहीं दिया, पैर भी नहीं छुए। रोज वह कई दफा छूता था। आज तो उसने कागज लिया, और भागा। मंदिर की सीढ़ियां उतर रहा था, तभी साधु चिल्लाया। वह बोला, ठहरो, मैं एक शर्त बताना तो भूल ही गया, नहीं तो सब गड़बड़ हो जाएगा। जब तुम उसे याद करो, तब बंदर का स्मरण न आए। बस, इतना ही खयाल रखना और कोई तकलीफ नहीं है।
वह बोला, आपने भी क्या फिजूल की बात कही! मेरी जिंदगी बीत गई आज तक बंदर का स्मरण नहीं आया। उसने कहा, बस तब ठीक है, बस सिद्ध हो जाएगा। वह सीढ़ियां पूरी भी नहीं उतर पाया कि बंदर! आंख मटके, सिर हिलाए, भीतर से भगाए, राम-राम जपे, जो भी करता है, सब तरह से कोशिश करे, लेकिन बंदर है कि वह बिलकुल स्पष्ट होने लगा। वह कल्पना न रही, वह बिलकुल उसके पास ही दिखाई पड़ने लगी, वह पूंछ भी हिलाता है, वह बैठा है भीतर। वह बड़ा घबड़ाया कि यह क्या हुआ? वह जब तक घर पहुंचा, तब तक बंदर बिलकुल जिंदा चीज बन गई। अब कोई ऐसी चीज नहीं है कि वह छुए तो स्पर्श हो जाए। कोई जिंदा चीज भीतर बन गई। अब वह बड़ा परेशान हुआ, मुश्किल हो गई। नहाया, धोया, पच्चीस तरह की स्तुतियां कीं, हे भगवान, इष्ट देवताओं को स्मरण किया, जंत्र-मंत्र पढ़े। कोई फल नहीं। जितना वह यह करने लगा, बंदर जो था भीतर उसके साथ ही है। वह जहां जाता है, वहीं साथ है। आंख बंद करता है, बैठा हुआ है भीतर। देख कर हंस रहा है। और उसे घबड़ाहट होने लगी कि यह क्या मामला है? यह कौन बंदर है? इतने जोर से आ गया, बात क्या हो गई! दूसरे दिन वह बड़ी सुबह साधु के पास आया। साधु ने कहाः मैं क्या करूं, शर्त यही थी। मेरे गुरु ने भी बताई थी, मैं भी सिद्ध नहीं कर पाया। और मैंने अपने गुरु से पूछा था, उन्होंने कहा था, मेरे गुरु ने बताई थी, मैं भी सिद्ध नहीं कर पाया। और ऐसे ही अनेक पीढ़ियों तक यह चलता रहा। अभी तक यह सिद्ध हुआ नहीं।
अगर स्त्री से भागेंगे, स्त्री सजीव हो जाएगी। धीरे-धीरे जीवित हो जाएगी। नाचने लगेगी सामने, निकट आने लगेगी। तब आप समझेंगे, इंद्र अप्सराओं को भेज रहे हैं। ऐसी बेवकूफी कहीं नहीं चल रही है। यह अप्सरा अपने पैदा की है, स्त्री से भागकर पैदा की है, अपनी ही स्त्री से भाग कर। और जो इस संबंध में सच है, वही क्रोध के संबंध में, वही लोभ के संबंध में सच है। दमन से कोई छुटकारा नहीं है। दमन से तो आप अपने हाथ से अपनी मौत में फस रहे हैं। दमन कोई रास्ता नहीं है। दमन कोई मार्ग नहीं है। विसर्जन करना होता है और विसर्जन के लिए लड़ना नहीं पड़ता। जीवन की शक्तियों को समझना पड़ता है। अंडरस्टैंडिंग की जरूरत है, सप्रेशन की नहीं। समझेंगे, यह जीवन की शक्तियां हैं। सच में शक्तियां हैं। जिस बच्चे में क्रोध न हो वह इम्पोटेंट होगा। वह नपुंसक होगा, उसमें कुछ भी नहीं होगा। वह तो कोई धक्का दे, कोई मारे, वह वहीं गिर जाएगा, वहीं पड़ा रहेगा। वह तो मुर्दा हो जाएगा, वह तो जिंदगी उसकी खराब हो जाएगी। नहीं, बच्चे में क्रोध होना चाहिए, नहीं तो बच्चे में कोई प्राण ही नहीं होंगे।
ये तो सारी जीवन की शक्तियां हैं। खतरा यह नहीं है कि ये हैं। खतरा यह है कि कोई इन्हीं पर रुक जाए। इनसे बहुत कुछ हो सकता था और आगे। ये बुराइयां नहीं हैं, ये पाप नहीं हैं, ये शत्रु नहीं हैं; बल्कि इन पर रुक जाना नासमझी है। इनको और आगे ले जाया जा सकता है। क्रोध क्षमा तक पहुंच सकता है। और काम ब्रह्मचर्य तक पहुंच सकता है। इनको पहुंचाया जा सकता है। ये शुरुआत हैं, ये बीज हैं। और अगर आप इन्हीं से लड़ने लगे तो फिर पौधे कैसे पैदा होंगे? इन्हीं से तो पैदा होने वाले हैं। तो जो आदमी क्रोध से लड़ेगा, वह क्रोध को दबा लेगा और क्रोध के हाथ में हमेशा के लिए कैदी हो जाएगा। क्रोध से कभी ऊपर नहीं उठ सकेगा। उसके भीतर अक्रोध कभी नहीं आ सकेगा। अक्रोध क्रोध के विरोध में नही आता। अक्रोध आता है, क्रोध को समझने, पहचानने और परिवर्तित करने से।
परिवर्तन के क्या सूत्र हैं, वह मैं कल चर्चा करूंगा। यह मैंने...कल दोपहर इसकी बात करूंगा कि कैसे हमारे भीतर यह स्थितियां परिवर्तित हो सकती हैं, लेकिन प्राथमिक बात आपसे कह दूं कि यह भाव गलत है कि ये हमारे रिपु हैं, शत्रु हैं, हमारे दुश्मन हैं--यह बात गलत है। ये हमारी शक्तियां हैं; ये हमारे जीवन की ऊर्जाएं हैं; ये हमारे जीवन की एनर्जीज हैं। इनके ऊपर ही कुछ खड़ा होगा। इसलिए इनके दुश्मन बनने से तो गलती हो जाएगी। इन्हें प्रेम करना होगा, मैत्री करनी होगी, इनको समझना होगा, इन्हें आहिस्ता से परसुएड करना होगा, राजी करना होगा कि और ऊपर विकसित हो सकें।
एक बीज को माली बोता है, प्रेम करता है, पानी डालता है, रक्षा करता है, बाड़ लगाता है कि कोई जानवर न खा जाए। फिर धीरे-धीरे उसमें अंकुर आता है, पत्ते आते हैं, फिर फूल आते हैं, फल लगते हैं। जो बीज के साथ करना होता है, वही क्रोध, लोभ, काम, मोह के साथ करना होता है। ये सब सीड्स हैं, ये सब बीज हैं। इनके भीतर बड़ी संभावनाएं छिपी हैं। लेकिन जो इनसे लड़ने लगेगा, वह डूब जाएगा। वह कहीं जा नहीं सकता। वह अपने हाथ से नरक का रास्ता तय कर रहा है, स्वर्ग की इच्छा में। स्वर्ग की इच्छा में नरक का रास्ता तय कर रहा है। लेकिन अगर वह इन्हें पहचान लेगा और इनको बदल सकेगा, तो मोक्ष अपने आप उसके द्वार आ जाएगा। स्वर्ग की इच्छा में नरक पैदा हो जाता है। लेकिन जो स्वर्ग की इच्छा नहीं करता, वह नरक से बच जाता है। और जो अपने भीतर बीज रूप संभावनाएं उपलब्ध हुई हैं, उनको पहचानता है और परिवर्तित करता है, उसके जीवन में एक ट्रांसफार्मेशन फलित होता है। एक दिन उसके भीतर अदभुत चीजें प्रकट होनी शुरू हो जाती हैं। बहुत है छिपा मनुष्य के भीतर और जिनको हम बुरा कहते हैं, उन्हीं सब बुराइयों के भीतर छिपा है। शायद प्रकृति की तरकीब ऐसी है कि किसी कोमल चीज को छिपाने के लिए बहुत सख्त चीज की खोल पहना दी जाती है। बीज होता है भीतर, ऊपर सख्त खोल होती है। वह सख्त खोल उस बीज के भीतर रक्षा करती रहती है। इस क्रोध की खोल के भीतर कहीं क्षमा छिपी है, लेकिन इस खोल को जब हम समझेंगे और प्रयास करेंगे तो वह क्षमा का पौधा भी इसमें से निकल सकता है।
यह मैं कल आपसे बात करूंगा कि कैसे हो सकता है। रात्रि का ध्यान करना है तो थोड़ी सी बात रात्रि के ध्यान के संबंध मेें समझा दूं, और फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
सुबह हमने ध्यान किया। वह जागरण का प्रयोग था कि हम सब भांति भीतर जागे रहें। जागरण का प्रयोग तो अभी करना है, लेकिन एक बहुत दूसरे रास्ते से। शरीर तो सो जाए, मन तो सो जाए और हम जागे रहें। सुबह शरीर भी जागा हुआ था, मन भी जागा हुआ था, हम नहीं जागे हुए थे। रात्रि का प्रयोग है, शरीर तो पूरी तरह सो जाए, मन भी सो जाए और फिर हमारे भीतर कुछ जागा रहे। इसके लिए रात्रि के सोने के पहले का ध्यान है। जब जाएं बिस्तर पर, तब इसे करें और सो जाएं। इसके माध्यम से धीरे-धीरे पूरी निद्रा ध्यान में परिवर्तित हो जाएगी, हो सकती है। सुबह के ध्यान को अगर धीरे-धीरे विकसित करें तो चित्त में से व्यर्थ के विचार क्षीण हो जाएंगे। धीरे-धीरे चित्त का ऊहापोह बंद हेा जाएगा, अशांति विलीन हो जाएगी और एक सतत शांति की धारा भीतर बहने लगेगी। रात्रि के ध्यान को करें तो निद्रा में से स्वप्न विलीन हो जाएंगे, निद्रा शांत और गहरी हो जाएगी। और एक अदभुत आनंद की धारा भीतर प्रवाहित होने लगेगी। सुबह उठेंगे इस धारा को लेकर और सुबह का ध्यान करें, दिन में उसकी धारा को फैलने दें और रात्रि में सोने के पहले इस ध्यान को करें। ये दो बिंदु हैं संक्रमण के, ट्रांजीशन के। जब हम नींद के बाहर आते हैं, वह क्षण, और जब हम जागने से नींद में जाते हैं, वह क्षण। ये बड़े महत्वपूर्ण हैं। ये संध्या काल हैं। वह संध्या नहीं, जब सूरज डूबता है; उससे क्या लेना-देना है? लेकिन जब आप सोते हैं, तब आपके जीवन में, आपकी चेतना में एक घटना घटित होती है। सोने का क्रम बंद होता है, जागने का क्रम शुरू होता है। उस बीच के गैप में आप वहां होते हैं जहां आत्मा है। सोने का काम बंद होता है, जागने का काम शुरू होता है। बीच में जो छोटा सा क्षण होता है, आप वहां होते हैं। ये दो संध्या के क्षण हैं। ये बहुमूल्य हैं। संध्या के क्षणों मेें अगर ध्यान का प्रयोग हो तो वह बहुत गहरे प्राणों में प्रविष्ट हो जाता है।
तो सुबह का प्रयोग है, जब आप सोकर उठें तब, रात्रि का प्रयोग है, जब आप नींद में जाएं तब। नींद की ही तरह उसकी व्यवस्था है। शरीर को सब भांति ढीला छोड़ देना है। लेट कर ही उसे करना है। अभी हम करेंगे तो सब दूर-दूर हट जाएंगे और लेट जाएंगे। लेटकर शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ देना है। ढीला ऐसे, जैसे शरीर मुर्दा हो गया हो। कोई प्राण ही नहीं है। एक-एक अंग का ढीला करते जाना है। पैर की तरफ से शुरू करना है। पैर का पंजा ढीला छूट जाए, फिर घुटने तक ढीला छूट जाए, फिर कमर तक ढीला छूट जाए। ऐसा एक-एक अंग को ढीला छोड़ते जाना है। मैं भी आपके सहयोग के लिए यहां सुझाव देता जाऊंगा एक-एक अंग के लिए। जिस अंग को मैं कहूं, भीतर उसका ही स्मरण करना और उसे ढीला छोड़ देना। एक दो तीन मिनट में सारा शरीर ढीला छूट जाता है। एक दस पंद्रह दिन प्रयोग करने पर आप पाएंगे कि शरीर को इतना ढीला किया जा सकता है कि आप खुद ही अपने हाथ को उठाना चाहें तो वह नहीं उठेगा। शरीर के तो हम मालिक हैं। हम चलना चाहते हैं, तो पैर चलना शुरू कर देते हैं। हम दौड़ना चाहते हैं तो पैर दौड़ने लगते हैं, हम रुकना चाहते हैं तो पैर रुक जाते हैं। तो हम शिथिल होना चाहेंगे तो पैर शिथिल क्यों न होंगे? लेकिन उस तरफ हमने कभी ध्यान नहीं दिया है। हम दौड़े, हम चले, लेकिन हमने शिथिल होने की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। शरीर के तो हम मालिक हैं। हम बायां हाथ उठाते हैं तो बायां उठता है, दायां हाथ उठाते हैं तो दायां उठता है। नहीं उठाते तो दोनों नहीं उठते। बैठा हंू तो बैठा हूं, खड़ा होना चाहूंगा तो खड़ा हो जाऊंगा। वह मेरा अनुगमन करता है, मेरे पीछे आता है।
एक बिलकुल नई दिशा में काम करना है कि शरीर को हम कह रहे हैं कि तुम बिलकुल मुर्दे की भांति हो जाओ। यह नई आज्ञा है, अभी तक आपने दी नहीं होगी। लेकिन शरीर इसके लिए भी राजी हो जाएगा। शरीर तो जड़ है, वह तो हमेशा राजी है। उससे आप जो काम लेना चाहेंगे वह करेगा। शरीर के मालिक तो आप हैं। लेकिन हो सकता है कि दस-पांच दिन आपको लग जाएं पूरी की पूरी सफलता में, क्योंकि आपने कभी यह आज्ञा नहीं दी। यह नई आज्ञा है। उसे पता नहीं कि आपने इसे भी कभी चाहा है। दस-पंद्रह दिन आप प्रयोग करेंगे, पाएंगे कि शरीर बिलकुल मुर्दे की भांति शिथिल हो जाता है। इस शिथिलता को इतनी दूर तक ले जाया जा सकता है कि अगर आप चाहें तो कह सकते हैं कि मैं अलग हो गया शरीर से, तो आप अलग तक हो सकते हैं।
लेकिन प्रारंभिक रूप से इतना ही करें कि सब भांति शरीर को शिथिल छोड़ दें और यह भावना करें कि शरीर शिथिल होता जा रहा है। अब कह दें शरीर को कि शरीर, शिथिल हो जाओ। यह अभी हम प्रयोग करेंगे। जब शरीर बिलकुल शिथिल हो जाएगा--जरूरी नहीं कि आज ही हो जाए, सुबह आकर मुझसे कोई न कहे कि हम तो किए, लेकिन वह हमसे नहीं हुआ। इतनी जल्दबाजी और अधैर्य की बात नहीं है। नहीं तो सुबह कोई ध्यान में बैठा हो और वह मेरे पीछे-पीछे चला आए और कहे कि नहीं, यह ध्यान मुझे नहीं हुआ।
जीवन में क्षुद्र चीजों पर हम बहुत समय लगाने को राजी होते हैं। श्रेष्ठ समय पर बिलकुल समय लगाने को राजी नहीं होते हैं। एक आदमी को एम.ए. करना होता है, तो पंद्रह-सोलह साल न मालूम क्या-क्या व्यर्थ का याद करता है। परीक्षाएं देता है सत्रह साल, और हिंदुस्तान में औसत उम्र होती है कुल उन्तीस साल। यानी जिंदगी का असली हिस्सा तो वह युनिवर्सिटी पढ़ने में समाप्त कर देता है। जब मरने के करीब आ जाता है, औसत दृष्टि से तब वह दुनिया में काम करने के लिए लौटता है। एक पैर तो उसका कब्र में ही चला गया। लेकिन वह कभी नहीं पूछता कि मैंने इतने दिन पढ़ा-लिखा है, अब फल क्या मिल गया है मुझे? कभी नहीं पूछता, लेकिन ध्यान करने बैठेगा तो वह पूछेगा पंद्रह मिनट के बाद कि अभी तक तो आत्मा के दर्शन नहीं हुए।
इससे क्या पता चलता है? सत्रह साल एक आदमी साधारण सी परीक्षाएं और एक कागज का सर्टिफिकेट लेने में गंवा देता है। और कभी नहीं पूछता कि क्या मिला सत्रह साल में? क्या हुआ? लेकिन अगर उससे कहा जाए ध्यान, तो वह कहेगा, पंद्रह मिनट खराब गए, अभी कोई आत्मा का दर्शन नहीं हुआ। नहीं, इसका मतलब यह है, न कोई प्यास है, न कोई जिज्ञासा है, न खोज की इच्छा है। नहीं तो पंद्रह जन्म में भी आत्मा मिल जाए तो भी वह कहेगा, कितनी जल्दी मिल गई! क्योंकि आत्मा जैसी चीज का मिल जाना पंद्रह जन्म में भी सस्ता और सरल है। और स्मरण रखें, जो बहुत धैर्य से चलते हैं वे ही इस जगत में प्रवेश कर पाते हैं। क्योंकि धैर्य भीतर एक समता लाता है और शांति लाता है, तनावशून्यता लाता है। जो धीरे-धीरे जाते हैं, वे ही पहुंच पाते हैं। इतने धीरे-धीरे, जैसे उन्हें पहुंचने की कोई जल्दी नहीं है। यह बड़े आश्चर्य की बात है, जो दौड़ते हैं, वह नहीं पहुंच पाते, जो धीरे-धीरे जाते हैं वे पहुंच जाते हैं। और अगर इतने धीरे कि वह वहीं खड़े हो जाएं, कहीं न जाएं, तो इसी वक्त पहुंच गए। फिर कोई जरूरत ही नहीं रही कहीं जाने की, पहुंच ही गए, रुक जाएं तो। तो बहुत आहिस्ता प्रयोग में प्रवेश करने की बात है।
पहले शरीर ढीला छोड़ देंगे। फिर धीरे-धीरे भाव करेंगे कि श्वास शांत होती जा रही है। श्वास भी हमारा अनुकरण करती है, आपने खयाल नहीं किया होगा। और आपने यह भी खयाल नहीं किया होगा कि श्वास हमारे मन के साथ बड़े गहरे रूप से संबंधित है। जब आप क्रोध में आते हैं, तब आपने खयाल किया होगा कि श्वास की गति बदल जाएगी। श्वास डावांडोल हो जाएगी, पेट चलने लगेगा, रिदिम टूट जाएगा श्वास का। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि क्रोध से और श्वास का क्या संबंध है? और कभी आपने यह भी खयाल किया कि अगर आपको क्रोध करना हो तो कभी ऐसा प्रयोग करें कि श्वास टूटे और आप क्रोध कर लें, आप क्रोध भी न कर पाएंगे। अगर आप श्वास के रिदिम को न टूटने दें, आप क्रोध नहीं कर सकेंगे। अगर आप यह तय कर लें कि मैं क्रोध तो करूंगा, कोइ फिक्र नहीं, लेकिन मैं श्वास की लयबद्धता को नहीं टूटने दूंगा। शांति से श्वास लेता रहूंगा, फिर क्रोध करूंगा। कभी नहीं कर पाएंगे। मन के भाव श्वास के साथ बहुत गहरे रूप से संबंधित हैं। जब आपके चित्त में बहुत सेक्सुअलिटी घूमेगी तो आपके श्वास की रिदिम टूट जाएगी। एकदम टूट जाएगी। श्वास गड़बड़ चलने लगेगी, तेजी से नीचे-ऊंचे आने लगेगी। उसका संगीत और उसका आनंद क्षीण हो जाएगा, उसकी लयबद्धता नष्ट हो जाएगी। अगर श्वास लयबद्ध हो जाए, तो भीतर मन में क्रोध और सेक्स मुश्किल हो जाएंगे। उनके भाव उस क्षण में आने कठिन हो जाएंगे। अगर श्वास बिलकुल शांत गति से चलने लगे, तो आप पाएंगे कि भीतर मन शांत हो गया।
तो पहले हम शरीर को शांत और शिथिल छोड़ देंगे। शरीर के शिथिल होते ही श्वास अपने आप शांत होती है। फिर हम श्वास को भाव करेंगे कि श्वास भी शांत होती जा रही है। एक-दो-तीन मिनट में श्वास भी शांत हो जाएगी। शांत का मतलब यह मत समझ लेना कि बंद हो जाएगी। कई लोग उसको रोक लेते हैं। रोकना नहीं है आपको। फिर बाद में मुझसे कहते हैं कि वह तो मैंने रोक लिया था तो और जोर से चलने लगी। रोकने से चलेगी। जो भी चीजें रोकी जाएंगी, वह जोर से चलती हैं।
तो श्वास को रोक मत लेना कि इसको रोक लेना है। रोक लेंगे तो कितनी देर रोकेंगे? फिर वह जोर से चलेगी, फिर वह बदला लेगी न! जितना रोका था उतना बदला लेगी, उतनी फिर जोर से चलेगी। स्वाभाविक है; जिसको भी रोकेंगे, वह बदला लेगा। रोकना नहीं है, शिथिल छोड़ देना है और शांत होने का भाव करना है। कुछ रोकना नहीं है। रुकेगी भी नहीं, क्योंकि रुक जाएगी तो आप जिंदा कैसे रहेंगे? रुकेगी नहीं, रिदमिक हो जाएगी। लयबद्ध हो जाएगी--बहुत शांत, बहुत धीमी, बहुत आहिस्ता। इतनी शांत तक हो सकती है कि आपको पता भी न चले कि चलती है कि नहीं चलती है। वह तो चलेगी, लेकिन उसके कंपन इतने शांत हो जाएंगे कि आपको पता नहीं चलेगा।
यह तो धीरे-धीरे होगा, लेकिन अभी प्रयोग करना है, प्राथमिक। और जब श्वास शांत हो जाएगी, तब मैं कहूंगा कि विचार भी शांत हो रहे हैं। मन भी शांत हो रहा है। फिर मैं अंत में कहूंगा कि दस मिनट के लिए सब शांत हो गया। शरीर मुर्दे की भांति पड़ा रहेगा, श्वास धीमी चलती रहेगी, विचार के कंपन कम हो जाएंगे। हो सकता है कि कुछ विचार आएं, क्योंकि चैबीस घंटे की वे आदतें हैं, तो पहले दिन में ही वह रुक जाएं यह संभव नहीं है। लेकिन थोड़े दिन प्रयोग करेंगे तो थोड़े दिन में दिखेगा कि उनकी गति धीमी हो गई। वह धीमे कदमों से आते हैं। एक विचार आता है, बीच में जगह छूट जाती है, दूसरा आता है। धीरे-धीरे गैप्स बढ़ते जाएंगे, मेहमान कम हो जाएंगे, जैसे रास्ता चलता है, बहुत भीड़ जा रही है। रास्ता चलता है, कभी कोई निकल जाता है। सन्नाटा हो जाता है, फिर कोई निकल जाता है। फिर ऐसा हो जाता है कि घंटों बीत जाते हैं, कोई नहीं निकलता है। यह धीरे-धीरे होगा। मेहमान बहुत दिन के बुलाए हुए हैं, एकदम से नहीं जा सकते। विदा करना बहुत कठिन है। और जमाना बहुत खराब है, मेहमान फिर जाते ही नहीं हैं, आ जाएं तो। तो ये मेहमान तो बहुत दिन के बुलाए हुए हैं। ये भीतर रहने के आदी हो गए हैं। ये तो भूल ही गए हैं कि हम मेहमान हैं, ये तो कहते हैं, हमीं हैं। तो ये एकदम से आज ही विदा हो जाएंगे, इस खयाल में कोई भी न हो। लेकिन हां, इनको नमस्कार करना शुरू करें कि अब आप जाइए। अब क्षमा करिए, बहुत हुआ।
तो इसके थोड़े से प्रयोग धीरे-धीरे करेंगे। तीन-चार महीने के प्रयोग में झलकें स्पष्ट होनी शुरू होंगी। और तीन-चार महीने कोई वक्त नहीं है--कोई वक्त नहीं है। कोई नहीं करेंगे, तो भी वे दिन बीत जाएंगे। कोई फर्क नहीं पड़ता है। दिन बीत ही जाते हैं, आप कुछ करें या न करें। आखिर में बड़े आश्चर्य की बात है कि ध्यान में बिताया हुआ समय आखिर में बचा हुआ सिद्ध होता है। बाकी सब समय खोया हुआ सिद्ध होता है। आखिर में, जब आखिरी चुकता फैसला होगा और हिसाब करेंगे आप अपनी जिंदगी का, तो यह मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं कि ध्यान में बिताए हुए क्षण ही आखिर में बचे हुए क्षण मालूम होंगे, साथी सिद्ध होंगे। बाकी सब समय खोया हुआ सिद्ध होगा। लेकिन वह तो आखिरी फैसले की बात है, उसकी चिंता भी क्या? उसको आखिरी वक्त ही हिसाब लगाना है। लेकिन हिसाब का अगर अभी से कोई बोध न हुआ तो हिसाब में फिर असफल होंगे, हारेंगे। खोया हुआ मालूम होगा।
दस मिनट के लिए मैं कहंूगा, सब शांत हो गया। उस शांति में; सन्नाटे में कुछ सुनाई पड़ेगा। जितना हम शांत हो जाएंगे, उतना ज्यादा सुनाई पड़ेगा। कोई कुत्ता भौंक दे, कोई पक्षी बोले, कोई रोए, सब सुनाई पड़ेगा। शांति से सुनते रहेंगे। यह खयाल रखेंगे कि मैं शांत पड़ा हंू। आवाज आएगी, गूंजेगी और चली जाएगी। आवाज क्या करेगी? एक पक्षी फड़फड़ाएगा तो आवाज आएगी, आपके भीतर फड़फड़ाएगी, गूंज होगी। जैसे खाली मकान हो और एक पक्षी फड़फड़ाए तो आवाज होगी, फिर गूंजती रहेगी, फिर विदा हो जाएगी। मकान खाली का खाली अपनी जगह बना रहेगा। आप उससे परेशान न हों कि यह क्या हुआ? आप तो शांत होने दें, जो हो रहा है। शांति से सुनते रहें--इतना दस मिनट के लिए। भीतर वहां जागे रहें, सो नहीं जाना है। सोने की संभावना बहुत रहती है, क्योंकि इतना आराम हमें कभी मिलता ही नहीं। शरीर शिथिल हो जाता है, श्वास शांत हो जाती है, फौरन नींद आ जाती है। लेकिन यह नींद भी आपकी आम नींद से बेहतर होगी। इसलिए कुछ नुकसान में नहीं रहेंगे, सो भी गए तो। हालांकि जागे होते तो और भी फायदा होता। तो अगर इस भांति सोने भी लगें तो कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि यह नींद आम नींद से बहुत गहरी और अर्थपूर्ण होगी। इसमें स्वप्न संभव नहीं होंगे। यह बहुत गहरे प्राणों तक छेद देगी। यह बहुत पीक होगी। और जितनी गहरी होगी, उतनी स्वास्थ्यपूर्ण होगी, उतनी शांतिदायी होगी।
लेकिन नींद नहीं सिखा रहा हंू। यह तो नींद होगी तो यह फल होगा। लेकिन अगर भीतर जागे भी रहे तो नींद के जो फल होने हैं, वह तो शरीर को मिल जाएंगे, लेकिन शरीर शांत पड़ा रहेगा। और भीतर जागरण के जो फायदे हो रहे हैं, वह आत्मा को मिल जाएंगे। इतना ध्यान रखें, नींद से फायदा हमेशा शरीर को होता है, और जागरण से फायदा हमेशा आत्मा को होता है। नींद शरीर की जरूरत है, जागरण आत्मा की जरूरत है। नींद के बिना शरीर जिंदा नहीं रह सकता है। जागरण के बिना आत्मा भी मुर्दा-मुर्दा सी हो जाती है। यह दो बातें खयाल रखें--नींद हमेशा शरीर की जरूरत है, शरीर की जरूरत है, शरीर को मिलनी चाहिए। जागरण आत्मा की जरूरत है, तो शरीर को नींद दे दें, और भीतर जागे रहें। दो काम होंगे। शरीर सो जाए और आप जागे रहें। धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगे यह बात कि शरीर सोया हुआ है और मैं जागा हुआ हंू। तब तो यह हो सकता है कि रात भर आप सोए भी रहें और जागे भी रहें। कृष्ण ने कहा है कि जब सब सो जाते हैं तब भी कोई हैं, जो जागते रहते हैं। उनको ही योगी कहा है।
बुद्ध के पास एक शिष्य था आनंद, रोज-रोज देखता था, रोज-रोज उनकी सब बातें देखता था कि कैसे जगते हैं, कैसे उठते हैं, कैसे सोते हैं। उसे बड़ी हैरानी हुई। एक बार देख कर बड़ा हैरान हुआ। वे जिस पैर पर जो पैर रखते हैं उस पर रात भर वहीं रखे रहते हैं। उसने कहा, यह बड़ी गड़बड़ है, हैरानी की बात है। न हिलते हैं, न डुलते हैं। पैर वहीं रखा रहता है। करवटें नहीं लेते। तो उसने उनसे पूछा कि मैं पूछना चाहता हूं, यह क्या मामला है? न करवट लेते हैं, न आप पैर हिलाते हैं। जिस पैर को जहां रख लेते हैं, जिस हाथ को जहां रख लेते हैं, वे वहीं रखे रहते हैं, पड़े रहते हैं रात भर? क्या अपने को सम्हाले रहते हैं? बुद्ध ने कहा, नहीं, सम्हालने की जरूरत नहीं है। बाहर से तो सो जाता हूं, भीतर जागा रहता हूं। तो अगर करवट लेनी हो तो मैं होशपूर्वक ही ले सकता हूं। अगर पैर हिलाना हो तो होशपूर्वक हिला सकता हंू। न हिलाना हो तो कोई जरूरत नहीं है। जरूरत क्या है पैर हिलाने की? लेकिन हम तो जागते में पैर हिलाते रहते हैं और हमें पता नहीं रहता कि क्यों हिला रहे हैं? तो सोने की तो बात ही छोड़ दें। लोग कुर्सियों पर बैठे हैं, पैर हिला रहे हैं। उनसे पूछें क्यों हिला रहे हैं? फौरन रोक लेंगे और कहेंगे कि इससे क्या मतलब आपको? उनको खुद भी पता नहीं कि वह क्यों हिला रहे हैं? माइंड भीतर हिल रहा है, तो टांगें भी हिल रही हैं। वे बेचैनी के लक्षण हैं और कुछ नहीं है। भीतर अशांति है, वह कहीं न कहीं प्रकट होती रहती है।
भीतर चित्त शांत और जागा हुआ हो तो हिलन-डुलन अपने आप थोड़ा कम होगा। बाहर से सो जाना है और भीतर जागे रहना है। फिर भी कुछ लोग सो जाएंगे, तो वे खुद थोड़ा विचार करेंगे कि क्या हम सो गए? और अगर वे सो गए हों तो उन्हें जानना चहिए कि उनकी नींद पूरी न होती होगी। इसलिए जब भी मौका मिलता है, शरीर नींद लेना चाहता है। वह अपनी थोड़ी नींद बढ़ा देंगे। और जब नींद पूरी हो जाएगी, तो फिर शरीर नींद नहीं मांगता है। तो फिर सहज शरीर सो जाएगा और अंदर जागरण हो सकता है। अब हम प्रयोग करेंगे।
तो आप जगह चुन लें अपनी-अपनी, दूर हट जाएं, ताकि एक-दूसरे से कोई स्पर्श न हो।

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