(जो छीना नहीं जा सकता है, वही केवल आत्म-धन है-चौथा)
प्रिय जया बहिन,
स्नेह।आपका पत्र मिला हैै। बहुत खुशी हुई। शांति और आनंद की नई गहराइयां छू रही हैं, यह जान कर कितनी प्रसन्नता होती है!
जीवन के यात्रा-पथ पर उन गहराइयों के अतिरिक्त और कुछ भी पाने योग्य नहीं है।
जब सब खो जाता है, तब भी वह संपदा साथ रहती है।
इसलिए वस्तुतः वही संपदा है।
और, जिनके पास सब-कुछ है, लेकिन वह नहीं है, वे समृद्धि में भी दरिद्र हैं।
समृद्धि में दरिद्र और दरिद्रता में समृद्ध होना, इसलिए ही, संभव हो जाता है।
जीवन की सतह पर समृद्धि मिल जाती है, लेकिन दरिद्रता नहीं मिटती है। वह समृद्धि दरिद्रता के मिटने का धोखा देती है, लेकिन दरिद्रता मिटती नहीं, केवल छिप जाती है।
और, यह आत्मवंचना अंत में बहुत महंगी पड़ती है।
क्योंकि, वह जीवन जो कि वास्तविक संपदा के पाने का अवसर बन सकता था, उसके धोखे में व्यर्थ ही व्यय हो जाता है।
जीवन की सतह पर जो समृद्धि है, उससे सचेत होना बहुत आवश्यक होता है।
क्योंकि, जो उसके भ्रम से जागते हैं, वे ही जीवन के केंद्र पर जो धन छिपा है, उसकी खोज में लगते हैं।
उस धन की उपलब्धि दरिद्र्र्रता को नष्ट ही कर देती है। क्योंकि, उस धन को फिर छीना नहीं जा सकता है।
और, जो नहीं छीना जा सकता है, वही केवल अपना है, वही आत्मधन है। और, जो नहीं छीना जा सकता है, वह दिया भी नहीं जा सकता है; क्योंकि जो दिया जा सकता है, वह छीना भी जा सकता है। और, जो नहीं छीना जा सकता है, उसे पाया भी नहीं जा सकता है; क्योंकि जो पाया जा सकता है, वह खोया भी जा सकता है।
वह तो है, वह तो नित्य उपस्थित है, केवल उसे जानना मात्र होता है।
वस्तुतः, उसे जान लेना ही उसे पा लेना है।
जीवन का प्रत्येक चरण उसी ज्ञान संपदा की ओर ले चले, यही मेरी कामना है।
मैं आनंद में हूं। वहां सब प्रियजनों को मेरा प्रेम कहें। सुशीला जी को स्नेह।
रजनीश के प्रणाम
20 मई, 1964
(प्रतिः सुश्री जया शाह, बंबई)
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