(देखना भर आ जाए--वह तो मौजूद ही है-पांचवां)
प्रिय चिदात्मन्,मैं आपके अत्यंत प्रीतिपूर्ण पत्र को पाकर आनंदित हुआ हूं। आपके जीवन की लौ निर्धूम होकर सत्य की ओर बढ़े यही मेरी कामना है।
प्रभु को पाने के लिए जीवन को एक प्रज्वलित अग्नि बनाना होता है।
सतत उस ओर ध्यान रहे।
सोते-जागते, श्वास-श्वास में वही आकांक्षा और प्यास, वही स्मरण, उसकी ही ओर दृष्टि बनी रहे, तो कुछ और नहीं करना होता है।
प्यास ही, केवल प्यास ही उसे पा लेने के लिए पर्याप्त है।
सागर तो कितना निकट है, पर हम प्यासे ही नहीं हैं।
उसके द्वार तो कितने हाथ के पास हैं, पर हम खटखटाएं तो!
देखना भर आ जाए--वह तो मौजूद ही है।
आंखें अन्य से भरी हैं। चित्त व्यर्थ से घिरा है। इससे जो है, वह दीख नहीं पाता है।
हृदय ‘पर’ से आच्छादित है, इसलिए ‘स्व’ का विस्मरण हो गया है।
इस आच्छादन को हटाना हैः स्वच्छ, निर्मल झील के वक्ष पर जम गई काई को, कचरे को थोड़ा हटाना है।
और तब, दीखता है कि कुछ कभी खोया तो था ही नहीं, खोया ही नहीं जा सकता है।
मैं निरंतर सत्य में, सत्ता में विराजमान हूं। मैं वही हूं।
तुम भी वही होः तत्त्वमसि श्वेतकेतु।
जागे और स्मरण से भरें।
समस्त क्रियाओं में उसका स्मरण रखें, जो कि उन्हें देख रहा है।
सर्व विचारों में उस पर दृष्टि रहे, जो उनके पीछे है।
वहां जागना है--जहां न कोई क्रिया है, न कोई विचार है, न कोई स्पंदन है।
वहीं है वह, जो क्षेत्र और काल के अतीत है।
और, वहीं है शांति, आनंद और निर्वाण।
और, वहीं है वह, जिसे पाकर फिर और कुछ पाने को नहीं रह जाता है।
मेरे सब प्रियजनों से मेरा प्रेम कहना।
रजनीश के प्रणाम
17 जनवरी, 1964
यात्रा सेः औरंगाबाद
(प्रतिः श्री जीवन सिंह सुराणा, इंदौर, म. प्र.)
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