सत्य की पहली किरण-प्रवचन-चौथा)
सुख और शांतिआठवां प्रवचन-(परिपूर्ण स्वीकृति)
मेरे प्रिय आत्मन्!
इसके पहले कि मैं कुछ आपसे कहना शुरू करूं, एक छोटी सी कहानी आपसे कहूंगा।
मनुष्य की सत्य की खोज में जो सबसे बड़ी बाधा है, अक्सर तो उस बाधा की ओर हमारा ध्यान भी नहीं जाता, और फिर जो भी हम करते हैं वह सब मार्ग बनने की बजाय मार्ग में अवरोध हो जाता है। एक अंधे आदमी को यदि प्रकाश को जानने की कामना पैदा हो जाए, यदि आकांक्षा पैदा हो जाए कि मैं भी प्रकाश को और सूर्य को जानूं, तो वह क्या करे? क्या वह प्रकाश के संबंध में शास्त्र सुने? क्या वह प्रकाश के संबंध में सिद्धांतों को सीखे? क्या वह प्रकाश के संबंध में बहुत उहापोह और विचार में पड़ जाए? क्या वह प्रकाश की कोई फिलासफी, कोई तत्वदर्शन, अपने सिर से बांध ले? और क्या इस भांति उसे प्रकाश का दर्शन हो सकेगा? नहीं जिस अंधे को प्रकाश की खोज पैदा हुई हो, उसे प्रकाश के संबंध में नहीं, अपने अंधेपन के संबंध में, अपने अंधेपन को बदलने के संबंध में निर्णय लेने होंगे।
प्रकाश को जानना हो, तो आंखों के संबंध में कुछ करना पड़ेगा। प्रकाश के संबंध में कुछ भी नहीं। लेकिन यदि वह प्रकाश के संबंध में कुछ करने में लग जाए, तो वह शक्ति और श्रम व्यर्थ जाएगा क्योंकि उसी शक्ति और श्रम से आंखें भी खुल सकती थीं। लेकिन सामान्यतः यही होगा, चक्षुहीन को जब भी प्रकाश के संबंध में कोई खयाल और कामना पैदा होगी, तो वह प्रकाश के संबंध में श्रम करना शुरू कर देगा। ऐसा सभी श्रम व्यर्थ है, ऐसा सभी श्रम सार्थक नहीं है। सार्थक होगी यह खोज कि वह आंख के संबंध में कुछ करे। इसलिए धर्म को मैं विचार नहीं कहता हूं, कहता हूं उपचार। धर्म कोई वैचारिक खोज नहीं है, बल्कि आत्मचिकित्सा है, बल्कि स्वयं का उपचार है। धर्म कोई वैचारिक तत्व ज्ञान की बात नहीं, बल्कि भीतर बंद आंखों को खोलने का मार्ग और पद्धति है। इस अर्थों में धर्म स्वयं ही एक विज्ञान है। उपचार है इसलिए।
रामकृष्ण एक छोटी कथा कहा करते थे, वही मैं आपसे कहना चाहता हूं। रामकृष्ण कहा करते, एक गांव में एक अंधा आदमी था, उसके मित्रों ने एक दिन उसे भोजन पर आमंत्रित किया। उसे भोजन में कुछ चीजें पसंद आईं। उसने पूछा कि यह कैसे बनीं? उसके मित्रों ने कहाः दूध से बनी हैं। उस अंधे ने कहा मैं जानना चाहूंगा दूध कैसा होता है? ठीक था उसका पूछना। उसके पूछने में तो कोई गलती न थी, लेकिन मित्र पंडित रहे होंगे, उन्होंने समझाना भी शुरू कर दिया। उन मित्रों ने दूध के संबंध में भी समझाना शुरू कर दिया कि दूध कैसा होता है? एक मित्र ने कहा कि तुमने नदी पर उड़ता हुआ बगुला देखा होगा, उसके जैसे सफेद, शुभ्र पंख होते हैं, वैसा ही दूध का रंग होता है। वह अंधा बोला, मुझसे मजाक न करें, मैंने तो बगुला देखा नहीं, और शुभ्र रंग क्या है, यह भी मुझे पता नहीं। तो मेरी पहली समस्या तो वहीं खड़ी है, कि दूध कैसा होता है? एक दूसरी समस्या और खड़ी हो गई कि यह सफेद रंग क्या होता है? और तीसरी और खड़ी हो गई कि यह बगुला क्या होता है? आपके उत्तर ने मुझे और कठिनाई में डाल दिया।
मित्र परेशान हुए, एक दूसरे मित्र ने समझाने की कोशिश की कि बगुला कैसा होता है? उसने अपने हाथ को उस अंधे के करीब ले गया और कहा मेरे हाथ पर हाथ फेरो, जैसा मेरा हाथ मुड़ा हुआ है, ऐसी ही बगुले की गर्दन होती है। उस अंधे आदमी ने उसके हाथ पर हाथ फेरा, और खुशी से उसकी आंखों में आंसू आ गए। और वह बोला कि मैं समझ गया कि दूध कैसा होता है? मुड़े हुए हाथ की तरह। ठीक ही उसने कहा, ठीक ही उसका निष्कर्ष है। उसमें अंधे आदमी की कोई भी भूल नहीं। भूल है उन आंख वालों की जिन्होंने उसे आंख न रहते हुए प्रकाश और रंग और वस्तुओं के संबंध में कुछ समझाने की कोशिश की।
मनुष्य का मन इधर हजारों वर्षों में सुलझा नहीं है और उलझ गया है। और दया है उन दार्शनिकों की और पंडितों की और विचारकों की जिन्होंने आत्मा और परमात्मा और सत्य के संबंध में बहुत से विचार दे दिए। और हमारे हाथों में उनका वही हाल हुआ है, जो उस अंधे के हाथों में हुआ। उसने समझा कि मुड़े हुए हाथ की तरह दूध होता है। और हमारी भी परमात्मा और आत्मा, और सत्य के संबंध में जो समझ है, वह इससे भिन्न नहीं है। यही तो वजह है कि ये सत्य को समझने वाले लोग आपस में लड़ते हैं। एक दूसरे की हत्या भी करते हैं। एक दूसरे के विरोध में भी जीवन लगाते हैं। और ये सत्य को समझने वाले लोग ही संप्रदाय खड़े करते हैं और मनुष्य-जाति को आपस में खंडित करते हैं। और युद्ध में खींचते हैं। धर्मों के नाम पर जो हुआ है, वह सभी कुछ हमें ज्ञात है, निश्चित ही सत्य की यह समझ किसी अंधे आदमी की समझ होगी। अन्यथा सत्य तो सौंदर्य को लाने वाला, जीवन में संगीत को लाने वाला बनता, सत्य तो मनुष्य-जाति को परमात्मा के निकट ले जाने वाला बनता, लेकिन ये तथाकथित सत्य की बातें और इनके केंद्र पर बने हुए संगठन और संप्रदाय, परमात्मा तो बहुत दूर पड़ोसी से भी जोड़ने में समर्थ नहीं हो सके हैं। इन्होंने पड़ोसी से भी पड़ोसी को तोड़ दिया है। और जो पड़ोसी को पड़ोसी से तोड़ देता हो, वह परमात्मा से जोड़ सकेगा यह असंभव है।
जो बात एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से भी नहीं जोड़ पाती, वह एक मनुष्य को परमात्मा से कैसे जोड़ सकेगी? इसलिए इन मंदिरों ने, मस्जिदों ने, संप्रदायों ने मनुष्य को ईश्वर से दूर रखने के सारे उपाय किए हैं निकट पहुंचाने के नहीं। और यही तो वजह है कि तीन-चार हजार वर्षों के इतिहास के बाद हम मनुष्य को पाते हैं, वह और अधार्मिक होता चला जा रहा है। तीन-चार हजार वर्ष की धार्मिक बनाने की चेष्टा और परिणाम यह, थोड़ी आश्चर्यजनक मालूम होती है बात, लेकिन मुझे आश्चर्यजनक नहीं मालूम होती। यह स्वभाविक परिणाम हैं। और अगर ये मंदिर और मस्जिद और ये संप्रदाय और सत्य के नाम पर चलती हुई बातें, इसी भांति चलती रहीं तो बहुत दिन वह दूर नहीं है, जब कि धर्म तिरोहित हो जाए। और जीवन में उसका कहीं कोर-किनारा न मिले। और इस सबको नष्ट करने में अधार्मिक लोगों का हाथ नहीं है।
इस सबको नष्ट करने में उन्हीं लोगों का हाथ है, जिन्होंने धर्म को उपचार न बना कर विचार और एक उपदेश, एक सिद्धांत और एक तत्वज्ञान बनाया, एक चिकित्सा नहीं। एक विज्ञान नहीं जो मनुष्य की आत्मा को परिवर्तित करे, और तब फिर ये सारी बातें अंधों के हाथों में बड़ी बेबूझ हो गईं। और बजाय इसके कि ये जीवन की कोई समस्या और प्रश्न को हल करतीं, हर समाधान नये प्रश्नों को खड़ा करने में, जन्म देने में सहयोगी होता चला गया। पांच हजार वर्षों में कौन सा प्रश्न हल हुआ है, आत्मा का, या परमात्मा का, या मोक्ष का? जन्म का या पुनर्जन्म का? मनुष्य के जीवन का कौन सा प्रश्न हल हुआ है, पांच हजार वर्षों में? समाधान तो बहुत दिए गए हैं, लेकिन हल कहां हुआ है? बल्कि अगर आंखें थोड़ी भी विचारपूर्ण होकर आप देखें, तो दिखाई पड़ेगा कि हर समाधान और नई समस्याएं खड़ा कर गया है। प्रश्न बढ़ते गए हैं और उत्तर कोई भी नहीं। और फिर भी हमें यह दिखाई नहीं पड़ता है कि यह उत्तर की खेाज ही कहीं बुनियाद में गलत तो नहीं है। और यह सब समाधान हमें अलग करते गए हैं और तोड़ते गए हैं।
मैंने सुना है, एक अमरीकन चर्च में एक संध्या एक नीग्रो प्रार्थना करने को गया। उसने द्वार खटखटाए, पादरी ने झांक कर देखा, क्योंकि पादरी हमेशा झांक कर देख लेते हैं कि परमात्मा से जो मिलने आया है, वह परमात्मा की जाति का है या नहीं? क्योंकि परमात्मा की बहुत जातियां हैं। देखा की काली चमड़ी का आदमी है, पुराने दिन होते, तो उस पंडित ने, उस पुरोहित ने, उस ब्राह्मण ने धक्के देकर निकलवाया होता और पश्चाताप करवाया होता। लेकिन दिन थोड़े बदल गए हैं, तो उसने प्रेम से उसे समझाने की कोशिश की कि व्यर्थ चर्च आने की क्या जरूरत है? मन को पवित्र करो, प्रार्थना करो, आराधना करो, और जब तक मन पवित्र नहीं होगा, तो चर्च में आने से क्या फायदा? जैसे कि जो सफेद चमड़ी के लोग वहां आते थे, वे सब मन पवित्र करके आते हों। लेकिन उनसे ये उसने कभी नहीं कहा था। आज उस नीग्रो को यह कहा, वह सीधा आदमी होगा। इसीलिए तो मंदिर की तलाश में गया था। वापस लौट गया यह बात मान कर।
दो-चार दिनों के बाद रास्ते पर उस पादरी को वह नीग्रो फिर मिला, उस पादरी ने पूछा तुम दिखाई नहीं पड़े दोबारा? उस नीग्रो ने कहा मैंने आपकी बात मान कर रात जाकर प्रार्थना की, बड़े प्रेम से भर कर प्रार्थना की, रात सपने में परमात्मा प्रकट हुआ और मुझसे बोला पागल, तू किस लिए उस चर्च में जाना चाहता है, तू इस भूल में मत पड़, दस साल से मैं खुद ही कोशिश कर रहा हूं, उस पादरी ने मुझे ही नहीं घुसने दिया, तो तुझे क्या घुसने देगा? और इसलिए फिर मैंने सोचा कि जहां परमात्मा भी घुसने में असफल हो गया, वहां मुझ गरीब की क्या हैसियत, मैंने फिर खयाल छोड़ दिया।
और परमात्मा ने अतिश्योक्ति से बचने के लिए दस वर्ष कह दिए होंगे। सच्चाई तो यह है कि दस हजार वर्षों से घुसने की कोशिश जारी है, अब तक किसी मंदिर और मस्जिद में परमात्मा पहुंच नहीं पाया। वहां सब शैतान के पहरेदार द्वारों पर खड़े हैं। और वहंा शैतान ने बहुत पहले, इसके पहले कि परमात्मा घुसता कब्जा कर लिया है। और नहीं तो धर्मों के नाम पर जो हुआ, वह नहीं हो सकता था। धर्म एक सांप्रदायिक मताग्रह बन गया, और अंधों के हाथ में तो सारी बात उपद्रव की होनी स्वाभाविक थी। इसलिए मैं यह प्रार्थना करना चाहता हूं, इस चर्चा के प्रारंभ में ही, धर्म मेरे लिए एक चिकित्सा है आंखों की। धर्म का कोई संबंध सिद्धांतों से नहीं है। धर्म का कोई संबंध प्रकाश के संबंध में लिखे गए, शास्त्रों से नहीं है। धर्म का कोई संबंध प्रकाश के संबंध में प्रतिपादित सिद्धांतों से, शब्दों से, थीरीज से नहीं है।
धर्म का संबंध है प्रत्येक व्यक्ति की आंखें जो करीब-करीब बंद हैं, वे कैसे खुल जाएं। सत्य को समझा नहीं जा सकता, सत्य को देखा जा सकता है। फिर से दोहराता हूं, सत्य को समझा नहीं जा सकता, सत्य को देखा जा सकता है। सत्य को वैचारिक रूप से नहीं, नहीं, सत्य की कोई धारणा वैचारिक रूप से नहीं बनाई जा सकती। लेकिन सत्य को अनुभव किया जा सकता है। सत्य के संबंध में विचार की कोई गति नहीं, लेकिन आंख की गति है।
इसलिए पहली बात धर्म एक चिकित्सा है, एक उपचार है। यह उपचार कैसे हो? इस उपचार की विधि की बाबत थोड़ी बात करने से पहले प्राथमिक रूप से ही यह जान लेना जरूरी था, इसलिए मैंने कहा कि अधिक लोग जो भी सत्य की खोज में अनुप्रेरित होते हैं, और ऐसा कौन मनुष्य है, जिसमें जीवन हो, जिसके प्राणों में स्पंदन हो? और जिसके हृदय में कभी न कभी जीवन के सत्य को जानने की आकांक्षा पैदा न हो जाती हो। ऐसा कौन सा मनुष्य है, जो जीवन के अर्थ को और अभिप्राय को जानने को अनुप्रेरित न हो जाता हो। ऐसा कौन सा मनुष्य है, जो यह न जान लेना चाहता हो कि वह क्यों है, और किसलिए है? और इस सारी जीवन यात्रा का कोई अर्थ है, या सब अर्थहीनता है? निश्चित ही हर एक के मन में यह प्यास किसी न किसी दिन पैदा होती है। लेकिन यह प्यास पैदा होते से ही भटक जाती है, भटक जाती है इसलिए कि वह सत्य के संबंध में विचार करने लगता है। सत्य के संबंध में सब विचार अंधे के टटोलने से ज्यादा की उनकी कोई स्थिति नहीं है। और उस टटोलने में अगर कुछ बातें बहुत सम्यक, बहुत संगत, बहुत कोहरेंट भी मालूम पड़ें, तो भी वह संगति केवल विचार की है, कल्पना की है, सत्य से उसका कोई वास्ता नहीं है।
एक स्कूल में ऐसा हुआ, एक इंस्पेक्टर एक स्कूल में परीक्षा, विद्यार्थियों की परीक्षा लेने आया। उसके पहले ही खबर आ गई कि वह इंस्पेक्टर पागल है। ऐसे तो हर आदमी पागल है, मगर वह कुछ ज्यादा रहा होगा। इसलिए खबर भी उसके आगे-आगे पहुंच गई। और भी कई स्कूलों में उसने परीक्षा ली थी, उसके प्रश्न ही ऐसे होते थे कि बच्चे उत्तर भी न दे पाते थे, बच्चे क्या शिक्षक भी उत्तर नहीं दे सकते थे। और तब वह स्कूलों की रिपोर्ट खराब कर आता था। अभी नया-नया पागल हुआ था, इसलिए उसके दफ्तर को अभी तो देर थी, फाइल चलेगी, उसका पागलपन सिद्ध होगा, तब वह अलग होगा। तब तक तो वह परीक्षा लेगा ही। तो वह परीक्षा लेने एक स्कूल में आया।
उसने आकर, शिक्षक घबड़ाए हुए थे, प्रधान अध्यापक घबड़ाया हुआ था, बच्चे घबड़ाये हुए थे। उसके प्रश्नों में कोई अर्थ ही नहीं होता था। उत्तर देने का सवाल ही नहीं था। उसने आते से ही बच्चों से पूछा कि एक प्रश्न जो मैं सब जगह पूछता हूं, और अभी तक किसी ने उत्तर नहीं दिया, वही मैं तुमसे भी पूछता हूं, अगर तुम उसका उत्तर दे दिए तो फिर मुझे और कुछ भी नहीं पूछना है। क्योंकि उससे बात साफ हो जाएगी, कोई हंडी के एक ही चावल को देख लेता है और बात साफ हो जाती है। उसने प्रश्न पूछा, कि दिल्ली से एक हवाई जहाज प्रति घंटा दो सौ मील की रफ्तार से कलकत्ते की तरफ चला, तो क्या तुम बता सकते हो कि मेरी उम्र कितनी है? बच्चे बहुत ही हैरान हुए होंगे, कोई भी हैरान होता, न तो यह कोई प्रश्न था, और न इसमें कोई संगति थी। शिक्षक घबड़ाए, प्रधान अध्यापक खड़े थे वे भी घबड़ाए, जिंदगी ने बड़े बेबूझ प्रश्न खड़े किए थे, लेकिन यह तो जिंदगी से भी ज्यादा बेबूझ आदमी था। इसका तो कोई अर्थ ही नहीं है।
लेकिन इससे भी बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक बच्चे ने हाथ हिलाया। तब तो अध्यापक और प्रधान अध्यापक और भी घबड़ाए कि बात यहीं तक रहती तो ठीक थी, कोई उत्तर देने वाला भी मौजूद था। वह इंस्पेक्टर बहुत प्रसन्न हुआ, उसने कहा कि खड़े हो जाओ तुम पहले बच्चे हो, जिसने कि हिम्मत की है उत्तर देने की। लोग तो चुप ही रह जाते हैं, उत्तर देते वक्त। वह लड़का खड़ा हुआ और उसने कहा कि मेरे अलावा कोई भी यह उत्तर दे ही नहीं सकता। आप पूरे मुल्क में घूम लेते तो भी उत्तर मैं ही दे सकता था, क्योंकि मामला ही कुछ ऐसा है, मुझे ही केवल इसका उत्तर पता हो सकता है। उसने पूछा क्या है, पहले उत्तर दो। उसने कहा आपकी उम्र चवालीस वर्ष है। वह एकदम हैरान हो गया उसकी उम्र चवालीस वर्ष थी। उसने कहा मैं हैरान हूं, लेकिन तुमने किस विधि से यह उत्तर निकाला? उस लड़के ने कहा विधि बिलकुल सरल है, मेरा बड़ा भाई है, वह आधा पागल है, उसकी उम्र बाईस वर्ष है। विधि बिलकुल आसान है। इसमें कोई भी कठिनाई नहीं है। लेकिन यह उत्तर कोई और आपको नहीं दे सकता था, यह तो मेरे घर में ही घटना घटी है, इसलिए मुझे पता है।
मात्र विचार के तल पर जो प्रश्न पूछे गए हैं, वे इससे भी ज्यादा बेहूदे और असंगत हैं। कितने स्वर्ग हैं, इसका विचार चलता है? सात हैं कि चैदह हैं, कि पंद्रह हैं? कितने नरक हैं? इसका विचार चलता है। ऐसे पागल हुए हैं, जिन्होंने स्वर्ग और नरक के नक्शे बना कर टांग दिए हैं। यह नक्शा है। भगवान का मकान किस स्थान से कितनी दूरी पर है इसका भी हिसाब लगा कर बता दिया है। मध्य-काल में यूरोप में यह विवाद चलता था, और उस विवाद में तथाकथित बड़े-बड़े साधु और महात्मा और खुद पोप भी सम्मिलित हो गया था। और विवाद यह था एक सुई की नोंक पर कितने फरिश्ते नाच कर सकते हैं? ये कोई कम पागल रहे होंगे, इस बाईस साल और चवालीस साल वाले मामले से? लेकिन इस पर विचार चलते हैं। और इन विचारों के उहापोह में सारे जीवन की साधना भटक गई है। इन पर विवाद हैं। न केवल विचार हैं, न केवल विवाद हैं, इनमें अगर आप किसी बात को गलत कह दें, तो जान की जोखम है। पागल अदभुत हैं, उन्होंने उन पर विचार भी तय किए हैं और अगर कोई शक करे कि नहीं चवालीस साल उम्र नहीं है, तो वह छुरा भी लगा सकते हैं कि नहीं यही उम्र है, क्योंकि हमारे ग्रंथ में यही लिखा हुआ है। और हमारा शास्त्र यही कहता है, और हमारे शास्त्र को कोई गलत नहीं कर सकता, चाहे हम जिंदा रहें या दूसरे को मार डालें। लेकिन शास्त्र हमारा तय है।
अत्यधिक काल्पनिक अंधेरी और जिनसे जीवन का कोई संबंध नहीं, उन दिशाओं में धर्म भ्रष्ट हुआ है। धर्म जब पतित होता है, तो उसके पतन का मार्ग होता है, काल्पनिक उहापोह, काल्पनिक विचार। अंधे आदमी को निश्चित ही प्रकाश के बाबत बड़ी-बड़ी सूझे आती होंगी, बड़े-बड़े खयाल सूझते होंगे, और अपने मन में अगर कोई अंधा कल्पना करने लगे प्रकाश की तो क्या कल्पना करेगा? आपको शायद यह भी पता न हो कि अंधे आदमी को अंधकार का भी कोई पता नहीं होता! अंधकार के पते के लिए भी आंखें चाहिए। शायद आपको खयाल हो कि अंधा आदमी अंधेरे में जीता होगा, तो आप गलती में हैं। अंधेेरे का अनुभव भी आंख का अनुभव है। अंधेेरे को जानने के लिए भी आंख चाहिए। आप आंख बंद करते हैं, तो अंधेरा अनुभव होता है, इसलिए यह मत सोचना कि अंधे आदमी को भी अंधेरा अनुभव होता है। बंद आंख भी आंख है, और उसने चूंकि प्रकाश जाना है इसलिए वह उसके अभाव को भी जान पाती है। लेकिन अंधा आदमी तो प्रकाश को नहीं जानता, इसलिए प्रकाश के अभाव को, उसकी एब्सेंस को भी नहीं जान सकता है। तो अंधे को तो हम अंधकार भी नहीं समझा सकते, प्रकाश तो बहुत दूर की बात है। अगर हम अंधकार भी समझा सकते, तो यह भी कह सकते थे कि अंधकार से कुछ विरोधी है वह प्रकाश, वह भी हम नहीं समझा सकते। उसे आंख का ही कोई अनुभव नहीं है, तो समझाना सब व्यर्थ है। और धर्म बन गया शिक्षा और उपदेश, समझाना।
पहली बात है, विचार की दिशा में सत्य को पाने का कोई उपाय नहीं। उपाय है आंख की दिशा में। आंख खोलने की दिशा में सत्य को पाने का उपाय है। और चूंकि हम सत्य के संबंध में कुछ सिद्धांत तय करते हैं, वे ही सिद्धांत हमारी आंख पर जकड़ हो जाते हैं। उनकी वजह से फिर आंख खोलने की जरूरत भी नहीं रह जाती। क्योंकि हम उनसे तृप्त हो जाते हैं। और जो मनुष्य कोरे शब्दों से तृप्त हो जाता है, गीता से, बाइबिल से, या कुरान से, बुद्ध से, महावीर से, या कृष्ण से; जो केवल शब्दों से तृप्त हो जाता है, उन्होंने जाना होगा, लेकिन किसी का जानना किसी दूसरे के लिए जानना नहीं बन सकता। दूसरे के लिए दूसरे का ज्ञान मात्र शब्द रह जाता है, उस थोथे और मुर्दा शब्द को जो पकड़ कर तृप्त हो जाता है, उस आदमी ने अपने जीवन की अपने हाथ से समाप्ति कर ली। उसके जीवन में अब कोई प्रकाश की किरण कभी नहीं उठ सकेगी। उसको प्रकाश के संबंध में कहे गए शब्दों से ही तय हो गया, तो फिर आंख खोलने का कोई सवाल नहीं रह गया।
जो सब भांति के शब्दों से असंतुष्ट है, जो सब भांति के शास्त्रों से अतृप्त है, जो सब भांति की शिक्षाओं की व्यर्थता को अनुभव कर रहा है, केवल वही; आंखें खोलने को उत्सुक हो सकता है। और उस श्रम के लिए तत्पर हो सकता है, जो आंखें खोलने में लगेगा। इसलिए मैंने कहा पहले तो विचार से, और विचार की अंधी गली से मुक्त होना जरूरी है और उपचार की दिशा में तभी हमारे कदम आगे बढ़ सकते हैं। उपचार के कुछ तीन सूत्रों पर आपसे मैं बात करूंगा।
उपचार का पहला सूत्र तो यह है जानने के पहले कुछ भी जानने के पहले, प्रेम या, सत्य, या सौंदर्य; एक अत्यंत शांत और सरल चित्त चाहिए। कुछ भी जानने के पहले अत्यंत शांत और सरल चित्त चाहिए। चित्त हमारा बहुत अशांत है। जैसे झील पर बहुत लहरें हों और चांद का कोई प्रतिबिंब न बने। और झील शांत हो और चांद पूरा का पूरा प्रतिफलित होने लगे, ठीक वैसा ही जीवन तो निरंतर बाहर मौजूद है, हम भीतर इतने अशांत हैं कि कोई प्रतिफलन जीवन का नहीं बन पाता। जीवन बिलकुल विकृत हो जाता है, लहर-लहर में टूट जाता और कट जाता। और हम भीतर इतने कोलाहल से भरे हैं, इतने शोरगुल से कि परमात्मा कितना ही द्वार पर चिल्ला रहा हो, उसकी आवाज हमें सुनाई नहीं पड़ सकती। हम भीतर इतने आकुपाइड, इतने व्यस्त हैं कि जीवन को जानने की फुरसत कहां है? रंध्र कहां हैं, छिद्र कहां है? द्वार कहां हैं, जहां से हम जीवन को जान सकें? हम हैं भीतर इतने भरे हुए इतने ठोस अशांति से कि वहां कोई चीज प्रवेश भी कैसे करेगी? शायद सब कुछ द्वार पर खड़ा है, लेकिन हम अपने भीतर प्रवेश देने की स्थिति और पात्रता में नहीं हैं।
पहली बात है अशांत चित्त आंखों को बंद किए है। शांत चित्त की पलकें अचानक खुल जाती हैं, उन्हें खोलना नहीं पड़ता। अशांत हम क्यों हैं? कौन सी बात है जो हमें भीतर द्वंद्व से भरे हुए है? कौन सी बात है जो हमारे भीतर सब कोलाहल हो गया है? शोरगुल हो गया है। भीतर कोई शांति का कोई क्षण कभी कल्पना में भी दिखाई नहीं पड़ता। क्या हुआ है भीतर? पक्षी भी ज्यादा शांत है, पौधे भी ज्यादा शांत हैं, चांद-तारे भी ज्यादा शांत हैं। मनुष्य को कौन सा रोग हो गया है? इस पूरे विश्व में मनुष्य के सिवाय और अशांति कहां है? अगर जमीन से मनुष्य हट जाए और मनुष्य पूरी कोशिश कर रहा है, कि हट जाए, हटाने की पूरी चेष्टा कर रहा है, तो जमीन पर अशांति कहां है? मनुष्य की आंखों के अतिरिक्त और किसी पशु-पक्षी की आंखों में भी अशांति दिखाई पड़ती है? अशांति, बेचैनी, तनाव। पक्षी भी शायद हमसे ज्यादा गीत गाने की स्थिति में हैं। और हम तो गीत भी गाते हैं, तो झूठे होते हैं।
नीत्शे से किसी ने पूछा, कि तुम निरंतर हंसते रहते हो, बात क्या है? नीत्शे ने कहाः इसलिए हंसने में उलझाए रखता हूं, नहीं तो रोना शुरू हो जाए। नीत्शे ने कहा इसलिए हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न लगूं? तो हम गीत भी इसलिए गाते रहते हैं कि कहीं रोना प्रकट न हो जाए। और हम फूल इसलिए चिपकाए रहते हैं कि कहीं भीतर के कांटे न दिखाई पड़ जाएं। और हम ऊपर से हंसते रहते हैं, भीतर जो है उसे छिपाने को और ढांकने को। मनुष्य न मालूम कैसी दुविधा में है? मनुष्य न मालूम कैसी कांफ्लिक्ट में है, कैसे द्वंद्व में है? इस द्वंद्व ने सब अशांत कर दिया है, और इस अशांति से बचने को वह पूछता है, हम ईश्वर को कैसे पाएं? हम आत्मा को कैसे पाएं, हम मोक्ष में कैसे जाएं? नहीं मोक्ष और आत्मा, और ईश्वर के संबंध में सोचना व्यर्थ है, सार्थक होगी यह बात यह जान लेना कि मैं अशांत क्यों हूं? और उस अशांति के कारण से मुक्त हो जाएं।
अशांति का पहला कारण तो यह है कि हर मनुष्य जैसा है, और जो है उससे तृप्त होने के लिए राजी नहीं है। कुछ और होना चाहता है। अ ब होना चाहता है, ब स होना चाहता है। हर मनुष्य कुछ और होना चाहता है, वह जो है, और जैसा है उससे राजी नहीं है। और जब कि जीवन के बुनियादी सत्यों में से एक सत्य यह है कि जो मनुष्य जो है, वही हो सकता है, कुछ और नहीं। कुछ और होने की सब दौड़ मूढ़तापूर्ण है। कुछ और होने की सब दौड़ नासमझी है। कुछ और होने की सब दौड़ में चित्त तनता है और खिंचता है, और अशांत होता चला जाता है। और विफल होता चला जाता है, और एक फ्रस्ट्रेशन और, एक चिंता, और एक पीड़ा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं छूट जाता। जो मनुष्य जो है, वही हो सकता है, लेकिन किसने यह सिखा दिया कि तुम कुछ और हो जाओ?
हजारों साल की शिक्षाएं यह काम कर रही हैं। दूषित, भ्रांत। निरंतर समझाया जा रहा है, महावीर जैसे हो जाओ, बुद्ध जैसे हो जाओ, कृष्ण जैसे हो जाओ, और क्राइस्ट जैसे हो जाओ। लेकिन कोई यह कहने वाला नहीं है कि तुम अपने जैसे हो जाना। तुम किसी और जैसे हो जाओ। जैसे कि तुम्हारे होने का कोई प्रयोजन नहीं। बस तुम किसी और की अनुकृति, किसी की कार्बनकापी होने को पैदा हुए हो। जैसे कि तुम्हारे होने का कोई अर्थ नहीं है तुम किसी और का अभिनय करने को पैदा हुए हो। राम हो जाओ, कृष्ण हो जाओ, क्राइस्ट हो जाओ, लेकिन क्यों? क्या प्रत्येक मनुष्य का स्वयं होने का अधिकार नहीं है? निश्चित ही प्रत्येक मनुष्य को परमात्मा जन्म देता है, उसे अधिकार है कि वह स्वयं जैसा हो, किसी और जैसा होने की दौड़ गलत है।
यह जो बिकमिंग, यह जो किसी और जैसे, किसी आदर्श के अनुकूल होने की चेष्टा शुरू होती है, मनुष्य अशांत होता जाता है। इसलिए आप हैरान होंगे, जितना व्यक्ति सभ्य होता है, उतना अशांत होता चला जाता है। क्योंकि उतने ही आदर्श उसको प्रेरित करने लगते हैं। असभ्य लोग भी सभ्य लोगों से ज्यादा शंात हैं और शांत थे। असभ्य और आदिवासी भी ज्यादा शांत थे, लेकिन सभ्य आदमी अशांत होता जाता है। जितनी सभ्यता बढ़ती है उतनी विक्षिप्तता बढ़ती है। अमरीका ने अंक छू लिया है, सबसे ज्यादा पागल पैदा करने का। अमरीका सबसे बड़ा सभ्य मुल्क है, इससे सिद्ध होता है। यह तो बात बिलकुल साफ ही है,जो मुल्क सबसे ज्यादा पागल पैदा करता है, वह सबसे बड़ा सभ्य मुल्क है। और जिस दिन कोई मुल्क पूरा पागल हो जाए, वह संस्कृति की चरम अवस्था होगी, उसके ऊपर फिर उसे कोई छू नहीं सकता। इसके भय हैं। क्योंकिमनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि हर तीन आदमी में एक आदमी थोड़ा गड़बड़ है। इधर भी इतने लोग हैं, इनमें से एक तिहाई के दिमाग ढीले होंगे। और जो आप हंस रहे हैं, तो थोड़ा सोच कर हंसना क्योंकि आप बगल वाले पर हंस रहे होंगे। हो सकता है कि नंबर आप पर ही गिरे।
यह जो बढ़ती हुई विक्षिप्तता है, यह सभ्यता की छाया है। सभ्यता ने आदर्श, किसी और जैसा होने की दौड़ पैदा की है। जब कि प्रत्येक मनुष्य अनूठा और अद्वितीय है, बेजोड़ और यूनीक है। उस जैसा कोई दूसरा मनुष्य न कभी हुआ है, और न कभी होगा। प्रकृति पुनरुक्त नहीं करती, प्रकृति की सृजनशीलता इतनी अदभुत है, परमात्मा की क्रिएटिविटी कुछ ऐसी अदभुत है कि वह कभी दोहराता नहीं। दोहराते तो केवल वे हैं जो मीडियाकर होते हैं। जिनका दिमाग बहुत छोटा और साधारण होता है।
परमात्मा की सृजनशीलता अदभुत है। वहां कोई चीज दोहरती नहीं, वहां प्रतिक्षण सब नया होता चला जाता है। जो सूरज कल उगा था वह अब कभी नहीं उगेगा। और जिन बादलों में कल संध्या आपके घर पर छाया की थी, वह अब कभी नहीं करेंगे। जो फूल पिछले वर्ष आए थे, वे अब आने को नहीं हैं। प्रतिक्षण सब नया होता चला जाता है। एक-एक मनुष्य भी वापस नहीं लौटता, मनुष्य तो दूर है, फूल की पत्ती भी दुबारा नहीं दोहरती। एक-एक व्यक्ति अनूठी कृति है, अगर यह खयाल में आ जाए, तो चित्त की बिकमिंग, उसकी दौड़ विलीन हो जाएगी। तब आप इस कोशिश में नहीं रह जाएंगे कि मैं किसी जैसा हो जाऊं । और जैसे ही यह खयाल चला जाए कि मैं किसी जैसा हो जाऊं, वैसे ही एक रिलैक्स माइंड, एक अत्यंत शांत मन की भूमिका खड़ी हो जाती है। और इस दौड़ के फिर और रूप हैं, पर इसी दौड़ के रूप हैं। दूसरे जैसा मकान बनाने की कोशिश चल रही है, दूसरे जैसे कपड़ों की कोशिश चल रही है, दूसरे जैसे पद पाने की कोशिश चल रही है; उन सबकी बुनियाद में दौड़ वही है। बुनियाद में दौड़ यह है कि मैं अपने होने से सहमत नहीं हूं, और मैं अपने होने को स्वीकार नहीं कर रहा हूं, मैं किसी और के होने से सहमत हूं, किसी और के होने को स्वीकार कर रहा हूं। और बड़े मजे की बात है कि अगर मैं उस आदमी के पास जाकर थोड़ा भी निरीक्षण करूं, तो वह भी इसी पागलपन से पीड़ित है, वह किसी और के होने को स्वीकार कर रहा है, वह किसी और जैसा होने को स्वीकार कर रहा है।
विक्षिप्त आदमी का पहला लक्षण है कि वह दूसरे जैसा होने की कोशिश में पड़ जाता है। यह पागल आदमी का पहला लक्षण है। इनसेन माइंड का पहला लक्षण है।
एक बहुत पुरानी घटना है, एक युवक अपने गुरुकुल से वापस लौटता था, उसकी दीक्षा, उसका दीक्षांत समारोह भी हो गया, उसकी शिक्षा भी पूरी हो गई। और वह था बहुत दरिद्र और बहुत गरीब। अपने गुरु को भेंट कुछ भी नहीं कर सकता था। दूसरे राजपुत्र थे, धनिक पुत्र थे, उन सबने बहुत-बहुत भेंटें अपने गुरु को भेंट दी, वह युवक सिर्फ आंसू गिराने को उसके पास थे। उसने गुरु के पैर छुए और रोता रहा, और कहा कि मुझे एक वचन दें, कि जब कभी मेरे पास कुछ हो और मैं भेंट करने आऊं तो आप इनकार न करेंगे। आज तो मेरे पास सिवाय आसुंओं के कुछ भी नहीं है। उसके गुरु ने कहा कि तुमने जो दिया, वह किसी ने भी नहीं दिया। तुम चिंता कुछ और देने की मत करो, प्रेम से बड़ा और कुछ भी नहीं है। लेकिन फिर भी वह युवक वचन लेकर गया कि कभी लाएगा तो गुरु अस्वीकार नहीं करेगा।
वह राजधानी पहंुचा अपने देश की और अपने एक मित्र के परिवार में मेहमान हुआ। रात उसने अपना दुख कहा कि मैं अपने गुरु को बिना कुछ दिए आया, मेरे मन में बड़ी पीड़ा है। वर्षों उनके पास था, उनका ही भोजन किया, उनके ही वस्त्र पहने, उनसे ही शिक्षा पाई और अंतिम क्षण में भी मैं उनको कुछ देकर नहीं आया। उस परिवार के लोगों ने कहाः चिंता मत करो, सुबह थोड़े जल्दी उठ जाना और राजा के द्वार चले जाना। यहां के राजा ने घोषणा कर रखी है कि कोई भी पहला भिक्षुक, पहला याचक जो भी मांग लेगा, राजा उसे दे देता है। तुम चाहते क्या हो? उसने कहा, बस पांच स्वर्ण-मुद्राएं मुझे मिल जाएं, तो पर्याप्त मैं गुरु को चढ़ा दूं। पांच स्वर्ण-मुद्राएं भी उस दरिद्र बालक को बहुत बड़ी थीं। उसने कभी पांच स्वर्ण-मुद्राएं भी इकट्ठी नहीं देखी थीं। और देखी भी थीं, तो दूसरों के हाथों में देखी थीं, अपने हाथ से उनका स्पर्श उसे कभी उपलब्ध नहीं हुआ था। उसकी कल्पना ज्यादा से ज्यादा जितनी दौड़ सकती थी, वह पांच स्वर्ण-मुद्राओं की थी।
मित्र ने कहा कि घबड़ाओ मत, सुबह जल्दी चले जाना, और बहुत जल्दी भी नहीं है क्योंकि याचक मुश्किल से कभी कोई जाता है। देश इतना समृद्ध, लोग इतने खुश, लोग इतने प्रसन्न हैं कि कौन मांगता है? लोग देना पसंद करते हैं, मांगना कोई भी पसंद नहीं करता। फिर भी वह जल्दी उठा और पहुंच गया, राजा अपने बगीचे में घूमने निकला था, वह युवक पहुंच गया और उसने कहा कि मैं पहला याचक हूं। राजा ने कहा आज के ही नहीं, तुम सदा के पहले याचक हो। क्योंकि अब तक कोई आया ही नहीं। और मैं निरंतर प्रतीक्षा करता हूं कि कोई आए। तुम आए तो मैं खुश हूं, बोलो क्या मांगते हो? तुम जो भी मांगोगे, मैं दूंगा। वह युवक पांच मुद्राएं सोच कर आया था। लेकिन उसने सोचा कि पांच मांगू तो नासमझ हूं, क्यों न पचास मांगू, क्यों न पांच सौ मांगू। जब राजा कहता है कि जो मांगोगे वही दे दूंगा, तो गलती क्यों करूं, जीवन में मामले को हल ही कर लूं। ये दौड़ खत्म हो जाए। पांच लाख क्यों न मांग लूं। उसके मन में चिंता और गणित का विस्तार होने लगा। राजा ने कहा कि तुम सोचो, जल्दी कुछ है नहीं, मैं तब तक बगिया का एक चक्कर लगा आऊं ।
युवक सोचता रहा, संख्याएं बढ़ती गईं, और आज उसे पहली बार पछतावा हुआ, उसने और बड़ी संख्याएं क्यों न सीखीं? आखिर जाकर संख्याएं एक जगह ठहर गईं, उसके आगे उसे पता नहीं था कि और भी संख्याएं होती हैं। राजा तब तक दूसरा चक्कर लगा कर आ गया था। वह भी अपनी संख्या की अंतिम सीमा पर पहुंच गया था। दुखी और पीड़ित खड़ा था। क्योंकि संख्या अटक गई थी, और उसे मालूम नहीं ं था और आगे क्या हो सकता है। राजा ने कहाः मालूम होता है, तुम उलझ गए, फिर भी तुम सोच लो, मैं एक चक्कर और लगा आऊं। तभी उस युवक को खयाल आया कि मैं सभी क्यों न मांग लूं, जो भी राजा के पास हो, संख्या की बकवास छोड़ूं। कहूं कि जो भी तुम्हारे पास है, सब दे दो, अशेष, पीछे कुछ बच न रह जाए। और जैसे दो कपड़े पहन कर मैं आया, वैसे दो कपड़े पहन कर तुम भी द्वार के बाहर निकल जाओ।
उसने राजा से कहाः सोचा था राजा घबड़ा जाएगा। लेकिन राजा हुआ प्रसन्न। उसने आकाश की तरफ हाथ जोड़े और कहा हे परमात्मा! वह व्यक्ति आ गया, जिसकी मैं प्रतीक्षा करता था। थक गया था और ऊब गया था प्रतीक्षा करते-करते, आज वह व्यक्ति आ गया जो मेरे भार को ले लेगा और मुझे मुक्त कर देगा। वह युवक तो घबड़ा गया परमात्मा को यह धन्यवाद सुन कर। उसने राजा से कहा कि बड़ी कृपा होगी, मैं अभी अनुभवी नहीं हूं, आप एक चक्कर और लगा आएं, मैं एक बार और सोच लूं। राजा ने कहा जो ज्यादा सोचता है, वह उलझन में पड़ जाता है, तुम सोचो मत, अब तुम स्वीकार कर लो और मुझे जाने दो। क्योंकि मुश्किल से तुम आए हो, और कहीं ज्यादा सोच-विचार में पड़े और भाग निकले तो बहुत मुश्किल हो जाएगाी। राजा ने कहा अब नहीं चक्कर लगाने को मैं राजी हूं। और तुम स्वीकार करो और भीतर जाओ, और मैं बाहर जाता हूं। और मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे ऊपर कि जिस तरह आज तुम मांगते आए हो, किसी दिन इतनी ही और इससे बड़ी खुशी से दे भी सको। लेकिन वह युवक बोला कि मैं राजी नहीं हूं, आप एक चक्कर और लगा आएं। राजा चक्कर लगाने गया और जो होना था वही हुआ, लौट कर युवक वहां पाया नहीं गया। वह भाग गया था।
एक बात उसे दिखाई पड़ी कि जिसकी मैं आकांक्षा कर रहा हूं, कोई उसे ही बोझ समझ कर छोड़ने को तैयार है! इसको मैं दृष्टि कहता हूं, इसको मैं देखना कहता हूं। तो जीवन को देखें, जिसके जैसे आप होना चाहते हैं। क्या वह कुछ और होने की दौड़ में नहीं है?
निश्चित ही आप पाएंगे कि सभी लोग, कुछ और होने की दौड़ में हैं। तब एक सत्य स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कुछ होने की दौड़ ही पीड़ा का मूल कारण है। दुख का, बेचैनी का, अशांति का। और इसके साथ एक दूसरी घटना घटती है, जब मैं दूसरे जैसा होने की दौड़ में पड़ जाता हूं, तो जो मैं हो सकता था, वह नहीं हो पाता। जो मेरे भीतर निसर्ग ने दिया था, वह खिल नहीं पाता। जो मेरे प्राण बीज की तरह लेकर आए थे, वह अंकुरित नहीं हो पाता। क्योंकि मेरी सारी शक्ति कुछ और होने में लग जाती है,जो मैं कभी हो नहीं सकता। और मेरे प्राण अविकसित पड़े रह जाते हैं। और मेरी आत्मा अंधेरे में पड़ी रह जाती है।
शांत होने के लिए पहला सूत्र है, स्वयं जैसे हैं उसकी परिपूर्ण स्वीकृति। उसकी टोटल एक्सेप्टिबिलिटी। परिपूर्ण स्वीकृति मैं जैसा हूं। किसी दूसरे से तुलना का कोई कारण नहीं। क्योंकि हर व्यक्ति अतुलनीय है, इनकंपेरेबल है। कोई किसी दूसरे से तुलना करना एकदम मूर्खतापूर्ण है। अपने बच्चे को कहना कि देखों गांधी ऐसा हुआ, तुम भी हो जाओ, इससे बड़ा विष, इससे बड़ा जहर और कुछ भी नहीं हो सकता। बच्चे के व्यक्तित्व को अपमान किया गया। उससे यह कहना कि तुम क्राइस्ट जैसे हो जाओ, उसका अपमान किया गया। किसी से किसी को तुलना करने का भी कोई कारण नहीं है।
प्रत्येक व्यक्ति अनूठा और अलग है। प्रत्येक व्यक्ति, व्यक्ति है। इंडिवीजुअल है। किसी से कोई कंपेरिजन की बात नहीं। यह जो कंपेयर करने वाला दिमाग है, यह अशांत होता चला जाता है। तुलना न करें, किसी और से तौलने का कोई कारण नहीं। अपने होने की स्वीकृति दें। जैसे ही आप अपने को स्वीकार करेंगे, वैसे ही पाएंगे उसकी छाया में एक गहरी शांति व्यक्तित्व में आनी शुरू हो गई।
स्वयं की सहज स्वीकृति से शांति उत्पन्न होती है। शांति लाई नहीं जा सकती खींच कर, वह स्वयं के परिपूर्ण स्वीकार की छाया है। इसलिए जो लोग शांत होना चाहते हैं, वे और अशांत होते जाते हैं। तथाकथित धार्मिक लोगों को देखें, वे माला लिए बैठे हैं शांत होने की कोशिश में और पाएंगे और अशांत हुए जा रहे हैं। वे उपवास कर रहे हैं शांत होने की कोशिश में, पाएंगे और अशंात हुए जा रहे हैं। तथाकथित साधु-संन्यासी को देखें वे पागल की तरह शांत होने की कोशिश में लगा है, बिना इस बात को जाने कि जहां भी कोशिश है, जहां भी इफर्ट है, वहां अशांति शुरू हो जाएगी। वहां चित्त अशांत हो जाएगा, क्योंकि सब कोशिश कुछ और होने की कोशिश है। शांति आती है उस व्यक्तित्व के केंद्र पर, जो अपने होने को परिपूर्णतया स्वीकार कर लेता है। स्वीकार कर लें अपने होने को, जैसे भी हैं, छोटे से पौधे सही, बहुत बड़े चीड़ के दरख्त ना सही। बलूद का आसमान को छूता हुआ दरख्त न सही। एक छोटा सा घास का पौधा, लेकिन क्या मुकाबला है, क्या संबंध है, क्या तुलना है? किसने कहा कि घास का छोटा सा पौधा छोटा है, बलूद के दरख्त से? किस पागल ने यह कहा? बलूद का दरख्त बलूद का दरख्त है, घास का अंकुर, घास का अंकुर है, दोनों का क्या मुकाबला? क्या संबंध, क्या तुलना? दोनों अपनी तरह बेजोड़ और अनूठे हैं।
लाओत्सु एक पहाड़ पर गया, उसके मित्र उससे पूछते थे कि हम कैसे शांत हो जाएं? उसने कहा किसी दिन कोई मौका मिलेगा तो मैं बताऊंगा। वह एक पहाड़ पर गया, वहां एक झाड़ के नीचे ठहरा। एक बड़ा दरख्त था, उसकी दूर-दूर तक शाखाएं फैल गईं थीं, उसमें दूर-दूर तक नये-नये पौधे पैदा हो गए थे। वह बड़ की जाति का कोई दरख्त होगा। उसके नीचे पांच सौ बैलगाड़ियां ठहर सकती थीं। इतनी बड़ी उसकी छाया थी। लेकिन चारों तरफ दरख्त काटे जा रहे थे। लाओत्से ने अपने मित्रों को कहा कि तुम जाओ, और लकड़हारों से पूछो कि इस दरख्त को तुमने क्यों छोड़ दिया? इस दरख्त क ो क्यों नहीं काटा? और सब दरख्त तो काटे जा रहे हैं, वे लकड़हारों से उसके मित्र पूछने गए। उन लकड़हारों ने कहाः वह दरख्त बिलकुल बेकार है। न तो जानवर उसके पत्ते खाते हैं, न उसकी लकड़ी जलती है, उसमें धुआं होता है, न उसकी लकड़ी सीधी है कि मकान में काम आ जाए, न उसकी कोई मेज-कुर्सी बन सकती है, वह दरख्त बिलकुल ही यूजलेस, बिलकुल ही बेकार है, वह किसी काम का ही नहीं है।
वे लौटे और उन्होंने कहा कि यह दरख्त बिलकुल ही बेकार है। लाओत्सु ने कहाः तुम भी इस भांति हो जाओ। तुम काम केहोने की बहुत फिकर छोड़ दो। और तब तुम पाओगे कि तुम बढ़ने लगे और फैलने लगे। और तब तुम पाओगे, कोई तुम्हें काटने नहीं आता, और कोई तुम्हें मारने नहीं आता। और तब तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन में जो भी छिपा था, वह प्रकट होने लगा और तुम्हारे नीचे न मालूम कितने लोगों को छाया मिलेगी?
जो व्यक्ति किसी और जैसे होने की कोशिश में पड़ता है, वह काम्पिटीशन में और प्रतिस्पर्धा में पड़ जाता है। और जो प्रतिस्पर्धा में पड़ जाता है, वह प्रतिस्पर्धा को आमंत्रित करने लगता है। और जहां प्रतिस्पर्धा है, और संघर्ष है, और दौड़ है और काम्पिटीशन है, वहंा अशांति स्वाभाविक है। लेकिन जो व्यक्ति अपने जैसे होने से तृप्त हो जाता है, उसकी सारी प्रतिस्पर्धा मन के तल पर, व्यक्तित्व के तल पर उसकी सारी प्रतिस्पर्धा विलीन हो जाती है। वह किसी को पीछे नहीं करना चाहता, और किसी के आगे नहीं होना चाहता। वह जहां है और जैसा है अपने भीतर उसकी परिपूर्ण स्वीकृति उसके भीतर छिपे हुए रहस्यों को फैलाने लगती है। उसके भीतर कुछ होने लगता है, जो बिलकुल अनूठा है, जो बिलकुल इफर्टलेस है, जिसके लिए कोई बहुत प्रयास नहीं करना पड़ता किंतु वह घटित होता है। जीवन में जो भी सत्य है और सुंदर है वह घटित होता है, उसे खींच-खींच कर लाना नहीं होता। शांति में उसका जन्म होता है, साइलैंस में वह पैदा होता है।
तो एक बार चित्त में जो-जो अशांति की दौड़ है, उसके प्रति जाग जाएं, और देखें उसका अर्थ कितना है? और जो लोग दौड़कर कहीं पहुंच गए हैं, वे कहां पहुंच गए हैं? उन्होंने क्या पा लिया है?
च्वांगत्से एक मरघट से एक बार निकला। एक खोपड़ी पड़ी थी, वह उसके पैर में लग गई। मरघट खोपड़ियों से भरे हैं। पूरी जमीन खोपड़ियों से भरी है, ऐसा कोई जमीन का हिस्सा नहीं है, जहां दस-पचास लोग दफन न किए गए हों, कितने लोग रह चुके। जहां भी बैठे हैं, कब्र पर बैठे हैं, जहां भी बैठे हैं, वहीं मरघट रहा है, कभी न कभी। उसका पैर एक खोपड़ी से लग गया, आप का भी पैर लगता तो आप निकल जाते, कि कहां यह मुर्दे की खोपड़ी बीच में आ गई? लेकिन च्वांगत्सु बड़ी समझ का आदमी रहा होगा। उसने खोपड़ी उठाई और कहा मित्र क्षमा करो, यह तो संयोग की बात है कि तुम मर गए, अगर आज तुम जिंदा होते और मेरा पैर तुम्हारे सिर से लग जाता, तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ जाते, हमारा सिर मुश्किल में पड़ जाता। और फिर यह कोई छोटे-मोटों का मरघट नहीं था, ये बड़े लोगों का मरघट था। मरघट भी अलग-अलग होते हैं, छोटे आदमियों के अलग, बड़े आदमियों के अलग। जिंदगी में तो छोटे-बड़े अलग हैं हीं, आदमी बड़ा अजीब है, उसने मरने के बाद भी, जहां कोई फासला नहीं करती मिट्टी मिला लेने में, वहां भी उसने बड़ों के मरघट अलग, छोटों के मरघट अलग हैं।
वह बड़ों का मरघट था, उसने कहा और भी कोई छोटे-मोटे आदमी होते तो भी एक बात थी, जरूर कोई बड़े आदमी रहे होओगे, अब मैं तुमसे कैसे क्षमा मांगूं? कैसे तुम्हें आदर दूं, दोस्त? खोपड़ी को उठाकर वह ले गया। और अपने कमरे में रखता था। लोगों ने कहा कि इसे किसलिए रखते हो? जो भी आता वह पूछता इसे किसलिए रखे हो? वह कहता इसके साथ एक भूल हो गई, उसकी क्षमा मांगने को। और एक स्मरण रखने को कि आज नहीं कल, यह सिर भी किसी मरघट में पड़ा रहेगा और लोगों के आते-जाते पैर लगेंगे। तो जब इसमें पैर लगने ही हैं, और यह मिट्टी हो ही जाना है, तो व्यर्थ इसे ऊंचा रखने का पागलपन, व्यर्थ इसे सम्हाले रखने का, इसकी प्रतिष्ठा, इसकी इज्जत, इसका होना नासमझी है, यह खोपड़ी मुझे यह बताती है कि नासमझी है। आज नहीं कल कोई पैर इसे मारेगा और कोई क्षमा भी नहीं मांगेगा। तो जो होना है और कल भी यह मिट्टी थी और फिर कल मिट्टी हो जाएगी, तो बीच में यह पागलपन मुझे पकड़ ले, यह होने का कुछ, समबडी होने का, कोई दौड़ मुझे पकड़ ले कुछ होने की, तो चित्त अशांत होता चला जाएगा। जो आदमी ना-कुछ होने को राजी है, नोबडी होने को राजी है, उस आदमी के चित्त में शांति अपने आप पैदा हो जाती है। शांति लानी नहीं पड़ती। इसलिए तथाकथित साधु और संन्यासी शांत नहीं हो सकता, वह तो समबडी होने की कोशिश में है। वह तो कुछ होने की कोशिश में है। मोक्ष जाने की, और मोक्ष में आपको पीछे छोड़ देने की। वह मुक्त होने की और भगवान के बिलकुल बगल में बैठने की।
क्राइस्ट जिस दिन रात पकड़े जाने को थे, और उनके मित्रो को खबर लग गई कि क्राइस्ट पकड़ लिए जाएंगे, तो उनके मित्रों ने पूछा, कि जाते वक्त यह तो बता दो, यह तो पक्का हो गया कि स्वर्ग के राज्य में तुम परमात्मा के बिलकुल बगल में बैठोगे, लेकिन हम लोगों की पोजीशन क्या होगी? ये बाकी लोग कौन, कहां बैठेगा? यह कैसे क्राइस्ट को समझ पाए होंगे? इनकी दौड़ तो वही कुछ होने की दौड़ थी, वहां परमात्मा के राज्य में भी। तो एक आदमी मंदिर बनाता है और दान करता है, और तीर्थ यात्रा करता है, और पुण्य करता है, और सब करता है, इस आशा में और आकांक्षा में। यहीं वह कुछ नहीं है, वहां भी वह कुछ हो, ऐसा आदमी अशांति के आत्यंतिक गहरे नरक में पड़ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं है।
केवल वही व्यक्ति शांत हो सकता है, जो ना-कुछ होने से, अपने होने से, जैसा भी है, ना-कुछ सही और हर एक व्यक्ति ना-कुछ है। कौन व्यक्ति क्या है? हां, कपड़े अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन जो कपड़ों से लोगों को पहचानता है, वह बच्चा है, बचकाना है, चाइल्डिश है।
दो छोटे से बच्चे फ्रांस के एक न्यूड-क्लब की बगल की दीवाल के पास से निकलते थे। नंगों के क्लब के पास से निकलते थे। छोटे से छेद से उन बच्चों ने झांक कर देखा, वहां स्त्रियां और पुरुष नग्न खेल रहे थे, कूद रहे थे, गपशप कर रहे थे। एक बच्चे ने दूसरे से पूछा इनमें से कौन स्त्री है, कौन पुरुष? उसने कहा अगर वे कपड़े पहने होते तो मैं बता भी देता, बिना कपड़े तो पहचानना बहुत कठिन है।
लेकिन हम भी लोगों को कपड़ों से पहचानते हैं कि ये कुछ हैं, और ये नाकुछ हैं। और हम भी कपड़ों से पहचानते हैं कि ये क्या हैं? ये संन्यासी हैं कि गृहस्थ हैं? और हम भी कपड़ों से पहचानते हैं कि ये राजनेता हैं या सड़क के मजदूर हैं? और हम भी कपड़ों से पहचानते हैं कि ये राष्ट्रपति हैं, या कोई चपरासी हैं? और हम भी कुर्सियों से पहचानते हैं कि कौन आदमी कितनी ऊंची कुर्सी पर बैठा है, उतना बड़ा आदमी है। जो नीचे बैठा है, वह छोटा आदमी है।
मद्रास में एक मजिस्ट्रेट था। अपने दफ्तर में उसने सात नंबरों की कुर्सियां बनवा रखी थीं। पीछे, अपनी अदालत के पीछे एक कमरे में उनको रखता था, अदालत में एक ही कुर्सी रखता था, जिस पर खुद बैठता था। जब कोई आदमी आता तो पहले देख लेता कि किस ढंग का आदमी है? कितने नंबर की कुर्सी के योग्य है। फिर उस हिसाब से वह नंबर बुलाता कि नंबर एक ले आओ। और एक छोटा सा मूढ़ा होता, फिर नंबर दो का बड़ा मूढ़ा होता, फिर नंबर तीन की कुछ कुर्सी होती, फिर नंबर चार की, और फिर बड़ी होती जाती, और नंबर सात की बहुत अच्छी कुर्सी थी, सिंहांसन ही था।
एक दिन एक आदमी आया, उसने सब गड़बड़ कर दिया। वह आदमी आया गरीब सा, दरिद्र सा, पुराने वस्त्रों में लकड़ी टेकता हुआ। उसने सोचा कि बिना ही कुर्सी के चल जाएगा, इस आदमी को कुर्सी की क्या जरूरत है? नंबर एक का मूढ़ा भी उसने बुलवाने की जरूरत न समझी। लेकिन वह आदमी आकर खड़ा हुआ, उसने सिर ऊपर उठाया, कीमती चश्मा उसकी आंख पर था। उसने जल्दी से अपने चपरासी को कहाः जा नंबर एक ले आ। तब तक उस बूढ़े ने सांस भरी, वह चपरासी आधा लेकर आया होगा, उस बूढ़े आदमी ने कहा, मालूम होता है आप पहचाने नहीं, मैं फलां-फलां गांव का जमींदार हूं। वह तो घबड़ाया। जमींदार! उसने बीच चपरासी को रोका कि ठहर, नंबर तीन की कुर्सी ले आ। वह जब तक बेचारा जाए और लाए तब तक फिर तस्वीर बदल गई, उसने कहा कि नहीं आप मुझे अब तक भी नहीं पहचाने। पिछले गवर्नमेंट के वाॅर फंड में दस लाख रुपये मैंने दिए थे, भूल गए? वह आदमी बोला दस लाख? उसने चपरासी को रोका, कि ठहर, नंबर पांच ले आ। उस बूढ़े आदमी ने कहाः मैं खड़े-खड़े थक गया, आखिरी नंबर बुलवा लें, क्योंकि अभी कुछ और बातें मुझे बतानी हैं। और यह भी मैं कहने आया हूं कि कुछ और रुपया भी मैं सरकार को दान करना चाहता हूं। तो नंबर आखिरी बुला लें।
यह उस मजिस्ट्रेट का पागलपन नहीं, हम सबका बचकानापन भी यही है। ऐसे ही हम आदमी को तौलते हैं कि कौन आदमी कितनी बड़ी कुर्सी पर बैठा है? कैसे कपड़े पहने हुए है? और जब हम इस भांति तौलते हैं, तो हम खुद भी इस तौल के चक्कर में पड़ जाते हैं कि कैसे कपड़े पहनें? और किस कुर्सी पर बैठें? और तब जिंदगी में एक बिकमिंग की, एक कुछ होने की दौड़, एक भूत सवार हो जाता है। वह जीवन को अवशोषित कर लेता है। भीतर सब अशंात, सब पीड़ा भर जाती है। भीतर सिर्फ रुदन के और कुछ नहीं रह जाता, भीतर आंसुओं के, असफलताओं के और कुछ नहीं रह जाता। और इस राख से भरे व्यक्तित्व से हम फिर चाहते हैं, सत्य मिल जाए। फिर हम चाहते हैं कि जीवन को हम जान लें, और फिर हम चाहते हैं कि स्वतंत्रता का और मुक्ति का आनंद मिल जाए। और फिर हम चाहते हैं कि कोई संगीत और कोई सौंदर्य हमारे प्राणों में आवास करे, और कोई सुगंध, कोई प्रकाश हमसे फूटे; नहीं ये कभी नहीं होगा। यह तो राख हो गया आदमी और अपनी ही मूढ़ताओं में राख हो गया।
पहली बात है, कुछ होने की दौड़ से, कुछ होने की दौड़ को ठीक से समझ लें, उससे मुक्त हो जाएंगे। उसकी पकड़, उसकी प्राणों पर भूत की तरह सवारी बंद हो जाएगी। भीतर एक अदभुत शांति का जन्म होगा। यह पहली बात है, कुछ होने की दौड़ से मुक्त हो जाएं, और शांत हो जाएं।
दूसरी बात--जीवन में सोए हुए न रहें। हम सब सोए हुए लोग हैं। लगता है कि हम जागे हुए हैं, मुश्किल से कभी कोई आदमी जागता है। रात तो हम सोते ही हैं, दिन भी हम सोए रहते हैं, सोए होने का मतलब? सोए होने का मतलब, जहां हम होते हैं, वहां हमारा चित्त नहीं होता। चित्त कहीं और होता है। सोए होने का और क्या अर्थ है? आज रात आप अपने घर में सोएंगे, सपना देखेंगे, तो आप लंदन में हो सकते हैं, न्यूयार्क में हो सकते हैं। सपने में आप सोए तो अपने कमरे में हैं, लेकिन हो सकते हैं न्यूयार्क में। सुबह जागकर आप कहते हैं, सब सपना था, क्यों? क्योंकि सुबह आप अपने को वहीं पाते हैं, जहां आप हैं। और तब आप जानते हैं कि कहीं और होना झूठ था। जहां व्यक्ति है, अगर उससे अन्यथा कहीं भी उसका चित्त है, तो वह सोया हुआ है। अभी आप यहंा मुझे बैठ कर सुन रहे हैं, और अगर आपका मन कहीं और है, तो आप सोए हुए हैं, आप यहां मौजूद नहीं हैं। आप एब्सेंट हैं, आपके होने का कोई मतलब नहीं है यहां। लग रहा है कि आप यहां मौजूद हैं, आप यहां मौजूद नहीं हैं। आप सोए हुए हैं।
भीकम एक गांव में गए एक बार। उस गांव में बड़े धार्मिक लोग थे। धार्मिक लोग से मतलब, उस गांव में रोज ही कथा-पुराण होते थे। धार्मिक होने से मतलब उस गांव में बहुत मंदिर थे। धार्मिक होने से मतलब उस गांव में सभी लोग टीका लगाते, चंदन लगाते, जनेऊ पहनते, ऐसे सब काम करते थे। ऐसे धार्मिक लोग उस गांव में थे, ऐसे धार्मिक लोगों से दुनिया बहुत दिन से परेशान है, ऐसे धार्मिक लोग वहां भी थे। सभी गांव में इसी तरह के धार्मिक लोग हैं।
भीकम उस गांव में गए, अदभुत फकीर थे। वे वहां कुछ लोगों को समझाते थे, तो लोग सांझ को सुनने आते थे। सुनता तो कोई भी नहीं था, सभी अधिकतर सोते थे। लेकिन यह खयाल है कि धर्म की बात अगर सोते-सोते भी सुन ली जाए, तो मुक्ति हो जाती है, मरते-मरते भी सुन ली जाए तो मुक्ति हो जाती है, ऐसी-ऐसी बेवकूफियां और एब्सर्टीज हैं कि कोई आदमी मरते-मरते धर्म की बात सुन ले, तो मुक्ति हो जाती है। जिसने जीवन भर धर्म को नहीं जाना, वह मरते-मरते सुन भी कैसे सकेगा? तो वे सांझ इकट्ठे होते, सुनते और सोचते कि शायद सुनने से, लेकिन सुनने के लिए जागना जरूरी है। लेकिन दिन भर के थके लोग, दिन भर के अशांत और परेशान लोग, सो जाते। सामने ही गांव का जो सबसे बड़ा धनपति था, आसो जी, वह बैठता था।
धर्म के मंदिर में भी आगे तो धनपति बैठता है, दरिद्र पीछे खड़ा रहता है। वहां भी फासले तो मौजूद हैं। वह आगे बैठता था, और सबसे ज्यादा वही सोता था। और भी लोग गांव में आते थे तो वह उनके सामने बैठ कर सोता था, लेकिन संन्यासी हमेशा धनी से डरते हैं, क्योंकि धनी का खाते हैं और निरंतर धनी की प्रशंसा में शास्त्र लिखते हैं और बताते हैं कि पिछले जन्मों के पुण्यों का फल भोग रहा है। और वह भोग रहा है इसी जन्मों के पापों का फल। और वे कहते हैं कि पिछले जन्मों के पुण्यों का फल भोग रहा है। और गरीब को कहते हैं तू भोग रहा है पिछले जन्मों के पापों का फल। ऐसे जो एक क्रांति हो सकती है, धन के बाबत, अर्थ के बाबत, उसे रोकते हैं, धनपति की सुरक्षा करते हैं। तो धनपति से हमेशा संन्यासी डरता है। और धनपति इसलिए संन्यासी के पैर छूता है, और बड़ा आदर करता है, और बड़ा सम्मान करता है, वह सुरक्षा है उसकी मानसिक। उसके पापों की सिक्योरिटी है। उसके चारों तरफ घेरा वह संन्यासी खड़ा कर रहा है, मन का। और वहां से मुक्त नहीं होने देगा समाज को वह। इसलिए तथाकथित धार्मिक मुल्क किसी क्रांति से नहीं गुजर पाते।
वह आगे बैठता आसो जी, लेकिन ये भीकम कुछ गड़बड़ रहे होंगे, गड़बड़ संन्यासी कभी न कभी पैदा हो जाते हैं। इन्होंने देखा कि यह आदमी सो रहा है, तो बीच में रुक कर कहा, आसो जी सोते हो? उसने आंख खोली घबड़ा कर, कौन सोने वाला आदमी कब मानता है कि मैं सोता हूं? उसने कहाः कौन कहता है? मैं तो जागा हुआ हूं। सोने की स्वीकृति कौन देता है? और जो आदमी सोने की स्वीकृति दे दे, उसका जीवन में जागरण आ सकता है। लेकिन कोई पागल कभी मानने को राजी नहीं होता कि मैं पागल हूं। और कभी कोई सोने वाला मानने को राजी नहीं होता कि मैं सोया हुआ हूं। बस यही सुरक्षा है, निद्रा की कि निद्रा स्वीकार नहीं करने देती।
आसो जी ने कहा, कौन कहता है, मैं तो जागा हुआ हूं? भीकम ने फिर बोलना शुरू कर दिया, लेकिन सोया हुआ आदमी कितना ही कहे कि मैं जागा हुआ हूं, फर्क क्या पड़ेगा? नींद रुकेगी? वह थोड़ी देर में फिर सो गया। फिर भीकम ने कहाः आसो जी! सोते हो? उसने फिर कहा कि आप भी क्या बार-बार वही बात लगाए हुए हो, मैं तो जागा हुआ हूं, मैं तो जरा आंख बंद करके सुनता हूं, तो आप समझते हैं कि सोते हो। मैं जरा ध्यान से सुनता हूं। जैसे की ध्यान के लिए आंख बंद करना जरूरी है। जो आंख बंद करके ध्यान करता है, मतलब डरता है जिंदगी से क्या? ऐसा कैसा ध्यान है, जो आंख बंद करके होता है, खुली आंख से होना चाहिए। सारी जिंदगी को देख कर होना चाहिए। उसने कहा मैं आंख बंद करके ध्यान करता हूं। जितने लोग सोने की तरकीबें निकालना चाहते हैं,वे सब आंख बंद करके ध्यान करने लगते हैं। फिर थोड़ी देर में फिर आंख बंद हो गई, वह फिर सो गया, लेकिन अब की बार भीकम ने फिर टोका और कहा आसो जी! जीते हो? उसने नींद में सुना कि शायद वही पुराना प्रश्न। उसने कहा कि नहीं, नहीं कौन कहता है? भीकम ने कहा कि आसो जी! जीते हो? उसने कहा कि नहीं, नहीं...कौन कहता है? उसने सोचा कि फिर वही प्रश्न है, कि सोते हो? भीकम ने कहाः अब तो पकड़ में आ गए, और ठीक भी आ गए, असल में जो सोता है, वह जीता भी नहीं है।
सोने से अर्थ है, चित्त के तल पर, बेहोशी, मूच्र्छा, अनअवेयरनेस। हम बिलकुल मूच्र्छित हैं। चित्त के तल पर और मूर्छा का राज एक ही है, कि चित्त वहां है जहां हम नहीं हैं। जागरण चाहिए, चित्त पर निद्रा नहीं। और उसका सूत्र है कि जो भी हम करते हों, उसे परिपूर्ण जागे हुए और होश से करें। रास्ते पर चलते हों, तो जागे हुए चलें। क्या मतलब होता है जागे हुए चलने का? जागे हुए चलने का मतलब होगा कि वह जो चलने की जीवंत क्रिया हो रही है, मन पूरी तरह उस क्रिया को देखे, जाने, निरीक्षण करे।
गांधी के पास एक युवक आया। वह बहुत कुशल था, चरखा कातने में। गांधी से ज्यादा कुशल था। उसने अपनी सारी शक्ति ही कुशलता में लगा दी थी। और तो किसी बात में वह कुशल नहीं था, जैसे सभी स्पेशियलिस्ट होते हैं। जैसे सभी एक्सपर्ट होते हैं, सभी विशेषज्ञ होते हैं। वह किसी छोटी सी चीज के बाबत, ना-कुछ के बाबत सब कुछ जान लेते हैं। और जिंदगी से उनका सब संबंध टूट जाता है। उन जैसा मूढ़ आदमी जिंदगी में खोजना कठिन है। हां, अपनी बात के बाबत वे सब जानते हैं, बाकि की सारी जिदंगी से उनका सारा संबंध टूट जाता है। वह बड़ा कुशल विशेषज्ञ होकर आया था गांधी के पास, क्योंकि गांधी हर एक को चरखे की बात करते, तो वह पहले से तैयार होकर आया था। गांधी भी उसकी कुशलता मान गऐ। लेकिन उस युवक ने धीरे-धीरे देखा एक गलती जरूर है, उसकी पौनी बहुत अच्छी है, उसका सूत गांधी से ज्यादा पतला और बारीक है, उसका चरखा भी ज्यादा कुशलता से उसने निर्मित किया है, लेकिन गांधी का सूत टूटता नहीं, उसका सूत टूटता बहुत है। उसने गांधी से पूछा कि बात क्या है?
गांधी ने कहा मैं जब कातता हूं, तो बस कातता ही हूं, और कुछ भी नहीं करता। सूत के धागे के साथ ही मेरा मन भी जाता और आता है। उसके साथ ही ऊपर उठता है, उसके साथ ही तकली पर लिपट जाता है। बस मैं नहीं रह जाता, सूत का कातना ही रह जाता है। मेरा मन कहीं और नहीं होता। तो उस युवक से कहा, तुम थोड़ा ध्यान करना, जब तुम्हारा मन कहीं और जाता होगा, वहीं तुम्हारा सूत टूट जाता होगा। क्योंकि सूत इतना सा झटका भी नहीं सह सकता, एब्सेंस का। वह जो अनुपस्थिति है, उसका इतना सा झटका भी नहीं सह सकता। सूत तोबारीक चीज है, वह जल्दी से टूट जाती होगी।
उस युवक ने देखा तो पाया कि बात तो यही थी कि सूत टूटता वहीं था, जहां चित्त कहीं और चला जाता था। जैसे सूत पर चित्त रखा जा सकता है, वैसे जीवन की प्रत्येक क्रिया पर, क्षुद्रतम क्रिया पर और जीवन में कोई क्षूद्रतम क्रिया नहीं है, सभी कुछ विराट का अंग है। भोजन करते वक्त, कपड़े पहनते वक्त, स्नान करते वक्त, रास्ते पर चलते, उठते-बैठते, सोते, बात करते या सुनते जो क्रिया हो रही है, वह प्रेजेंट में, मौजूदगी में, वर्तमान में, उसके प्रति चित्त पूरा जागा हुआ रहे, पूरा चित्त उसके साथ एक रहे, तो धीरे-धीरे निद्रा टूटेगी। अभी तो अगर प्रयास करेंगे, यहां से उठ कर जाते वक्त, तो एकाध सेकेंड को जागे रहेंगे, फिर नींद आ जाएगी। फिर पाएंगे कि अरे मैं तो कहीं और चला गया। ऐसा निरंतर करेंगे, तो धीरे-धीरे अगर कुछ क्षण भी जागरण के मिलें, तो उनसे एक बात तय हो जाएगी कि बाकी वक्त आप सोए हुए हैं। खुद को ही स्पष्ट दिखाई पड़ेगा कि मैं सोया रहता हूं, और सपने देखता रहता हूं, रात में भी और दिन में भी।
जिंदगी का काम चल जाता है, आदत के वश। एक रूटीन और आदत के वश। इसीलिए तो कोई आदमी आदतों के घेरे को तोड़ कर नई आदतों के घेरे में जाने में डरता है। क्योंकि पुरानी आदतों में सोए-सोए काम चल जाता है। नई आदतों में मुश्किल हो जाती है। नई आदतों में जाना, मतलब फिर कोई जाग कर थोड़ा काम करना पड़ेगा और जागने में बड़ी पीड़ा मालूम होती है, सोने में बड़ा सुख मालूम पड़ता है। जिसे सोने का सुख है, वह जागरण के आनंद को नहीं जान पाएगा। जिसे नींद में सुख है, वह अमूर्छित आनंद को नहीं जान पाएगा। और सोए हुए कोई भी न कभी सत्य से कभी संबंधित हुआ है, और न हो सकता है। इसलिए दूसरा सूत्र है जागरण। जागे हुए जीवन की क्रियाओं को करना। नहीं यह कह रहा हूं कि कौन सी क्रियाएं जाग कर करनी हैं, नहीं कोई भी क्रिया, क्रिया मात्र चाहे वह शरीर की होे, चाहे वह मन की हो, उसके प्रति जागे हुए होना। उसके प्रति अवेयरनेस, कांशसनेस, होश। उसका निरीक्षण और धीरे-धीरे उसके साथ एक हो जाना।
मेरे एक मित्र स्विटजरलैंड से वापस लौटे थे। वहां की बहुत झीलों से प्रेम करके आए थे। कवि हैं झीलों के बाबत, पहाड़ों के बाबत बड़े गीत लिखे हैं, चित्रकार भी हैं, बड़े-बड़े चित्र भी बनाएं हैं। वह आए मेरे पास, मेहमान थे। तो मैंने कहा कि यहां भी छोटी सी नदी है। छोटी सी इसलिए कि भारत में बड़ी नदी हो ही कैसे सकती है, सब बड़ी नदियां तो यूरोप और अमरीका में हैं। तो मैंने कहा कि छोटी सी नदी है, छोटे-छोटे पहाड़ हैं। बड़े तो हो ही कैसे सकते हैं? चलें यहां भी। वह बोले क्या करूंगा वहां जाकर? मैंने बहुत झीलें देखीं, बहुत नदियां देखीं, बहुत नौका में यात्राएं की।
मैंने कहा जिसकी ऐसी दृष्टि हो, वह शायद ही किसी झील में गया हो और शायद ही किसी नौका में गया हो। क्योंकि उसे अभी तक यह भी पता नहीं चल पाया कि हर झील का अपना व्यक्तित्व है, और किसी झील का किसी दूसरे से कोई नाता नहीं, कोई संबंध नहीं। उसे अभी यह भी पता नहीं चल पाया कि हर पहाड़ी अनूठी है, और अपने ढंग की है। उसका अपना सौंदर्य है, जिसकी किसी से कोई तुलना नहीं, लेकिन फिर भी आप कहते हो तो मान लेता हूं कि गए होंगे। फिर भी चलें। मेरे आग्रह को मान कर वे गए। पूर्णिमा की रात थी और मैं उन्हें संगमरमर की पहाड़ियों में, नर्मदा में ले गया। ऐसी अदभुत रात्रि थी, जिसकी कोई तुलना नहीं, कोई मुकाबला नहीं। लेकिन वे तो स्विटजरलैंड की झीलों की बातें ही करते रहे। वह तो वहीं के वर्णन सुनाते रहे। वह तो वहीं के पहाड़ों की चर्चा करते रहे। दो घंटे हम वहां थे, फिर हम लौटे, रास्ते में गाड़ी में वह कहने लगे बड़ी अच्छी जगह थी, मैंने कहा क्षमा करें यह न कहें। क्योंकि हम गए तो दो थे वहां, लेकिन पहुंचा केवल एक ही। दूसरा पहुंच नहीं पाया। आप पहुंच नहीं पाए। ले तो गया था, लेकिन मैं असफल हो गया, आपको नहीं ले जा सका। और कौन किसको ले जा सकता है? जब आप ही न जाने को राजी हों। वे बोले, आप क्या पागलपन की बातें करते हैं? मैं आपके साथ रहा। दो घंटे पूरे, साथ नाव पर मैं नहीं था? मैंने कहाः आप जरूर थे, लेकिन मैं बहुत गौर से देखा आप स्विटजरलैंड में रहे होंगे, यहां आप नहीं थे। और यह भी मैं निवेदन कर दूं अगर बुरा न माने, कि जब आप स्विटजरलैंड की झीलों में रहे होंगे तो वहां भी नहीं रह सके होंगे, क्योंकि यह मन वहां भी नहीं रह सकता है। तब यह कहीं और रहा होगा, कश्मीर में रहा होगा, कहीं और रहा होगा।
यह मन जो सतत कहीं और है, सोया हुआ मन है, ऐसा मन जीवन के सत्य को नहीं जान सकता। जीवन का सत्य तो निरंतर मौजूद है, लेकिन हम मौजूद नहीं हैं, हम एब्सेंट हैं। हम अनुपस्थित हैं, जीवन का सत्य तो उपस्थित है। वह तो सामने खड़ा है, पर हमारी आंखें बंद हैं। तो जागना पड़ेगा, और कोई जागने का ऐसा नहीं है कि सुबह एक-आधा घंटे एक कोने में बैठ कर आप जाग जाएंगे। या किसी मंदिर या मस्जिद में जाग जाएंगे।
जागना पड़ेगा चैबीस घंटे के जीवन में। जागना पड़ेगा दिनचर्या में, जागना पड़ेगा क्षण-क्षण, जागना पड़ेगा प्रतिक्षण और एक क्षण से ज्यादा किसी के पास कभी होता नहीं, इसलिए घबड़ाएं न, बड़ा भार नहीं है जागरण। एक क्षण ही एक दफा हाथ में होता है, दो क्षण तो कभी होते नहीं, उस एक क्षण में ही जागना सीख जाएं, तो सतत जाग जाएंगे। और वैसा जागरण जब भीतर फलित होगा, तो किसी से पूछने जाने की जरूरत नहीं है कि प्रकाश कैसा होता है? आंख खुलने लगेगी, पहली बात है शांति, दूसरी बात है जागरण।
और तीसरी और एक छोटी सी बात है, शून्यता। इस भांति अपने भीतर हम भरे हैं, इस भांति ठोस कि वहां कोई जगह भी नहीं है। अगर परमात्मा बरसे, तो हमारे ऊपर से बह कर निकल जाएगा, हमारे भीतर कोई जगह नहीं है। वर्षा होती है, पहाड़ों पर भी पानी गिरता है और झीलों में भी। लेकिन झीलें धन्य हो जाती हैं और भर जाती हैं, और पहाड़ सूखे के सूखे रह जाते हैं। वे पहले से भरे हुए हैं। गड्ढों पर भी पानी गिरता है और टीलों पर भी, लेकिन गड्ढे भरते हैं और टीले सूखे के सूखे रह जाते हैं। टीला अपने में ही इतना भरा है कि किसी और को अब कैसे भीतर ले सकेगा?
तो धन्य हैं वे लोग जो गड्ढों की भांति खाली होने में समर्थ हैं। और अभागे हैं वे लोग जो टीलों की भांति भरे हैं। और हम सब भरे हैं। तो भीतर स्पेस चाहिए, भीतर जगह चाहिए; भीतर कौन भरे हुए है? कौन सी चीज ठोस पत्थर की भांति भीतर बैठी हुई है? कौन सी चीज?
रवींद्रनाथ एक दफा एक झील पर गए। रात बजरे में थे। एक छोटी सी मोमबत्ती जला कर कोई शास्त्र पढ़ते रहे। फिर दो बजे रात उन्होंने मोमबत्ती बुझाई, पूर्णिमा का चांद था बाहर, चारों तरफ चांदनी बरसती थी, लेकिन उनके बजरे में पीला टिमटिमाता प्रकाश उस मोमबत्ती का होता रहा। जैसे ही उन्होंने मोेमबत्ती बुझाई कि वे चैंक कर खड़े हो गए, वे हैरान हो गए, जैसे एक रिविलेशन हो गया, जैसे कोई चीज उदघाटित हो गई, कोई पर्दा उठ गया, वे दंग रह गए यह देख कर कि मोमबत्ती के बुझते ही चांद की अदभुत रोशनी भीतर चली आ रही है, रंध्र-रंध्र से, खिड़की से, द्वार से, सब तरफ चांद भीतर भर आया। एक छोटी सी मोमबत्ती का प्रकाश उस चांद को बाहर ही रोके हुए था। वह बाहर ही ठहरा हुआ था, वह भीतर नहीं आ पा रहा था। मोमबत्ती गई कि चांद भीतर आया।
एक छोटे से भीतर अहंकार की मोमबत्ती है हमारे--‘मैं’--उसकी टिमटिमाती रोशनी में परमात्मा का प्रकाश बाहर रुका रह जाता है। इस ‘मैं’ को बुझा देना पड़े। यह मैं भरे हुए है, यह ईगो। यह मेरा कुछ होना, यह बहुत बुरी तरह भरे हुए हैं। और बड़े आश्चर्य की बात है कि जीवन में कौन सा आधार है यह कहने का कि मैं हूं? जन्म पर हमारा कोई वश नहीं, मृत्यु पर हमारा कोई वश नहीं, जो श्वास भीतर गई, वह बाहर आएगी इस पर भी कोई वश नहीं, जो बाहर गई वह भीतर भीतर लौटा सकूंगा, इस पर भी कोई सामथ्र्य नहीं; लेकिन कहते हम यहीं हैं कि मैं श्वास ले रहा हूं। जरूर कुछ गलत कहते होंगे, भाषा तो ठीक है, भाषा शास्त्री कहेगा, बिलकुल ठीक कहते हैं, मैं श्वास ले रहा हूं। लेकिन जो जीवन को जानता है, वह कहेगा गलत कह रहे हैं, श्वास आ रही है, जा रही है, आप ले रहे हैं यह भ्रम है। क्योंकि अगर आप लेते होते, तब तो आप मरते ही नहीं। आप लेते ही चले जाते, मौत खड़ी-खड़ी क्या करती? आप लेते ही चले जाते।
नहीं, श्वास ली जा नहीं रही, श्वास आ रही है और जा रही है। और मैं, मैं बिलकुल भ्रम है, जो यह सोच रहा है कि मैं ले रहा हूं। मैं कहता हूं, मेरा जन्म-दिन। कैसा पागलपन है? जिस पर मेरा कोई वश नहीं, जिसके लिए मुझसे पूछा नहीं गया, जिसके लिए मैंने कोई योजना नहीं बनाई, जिसमें मेरा कोई संकल्प, मेरी कोई च्वाइस नहीं, उसको मैं कहता हूं मेरा जन्म। जीवन जन्मा होगा, मैं कहां जन्मा हूं। जीवन ने कोई रूप लिया होगा, लेकिन मैं कहा हूं। और मैं कहता हूं मेरी मृत्यु, और मैं कहता हूं मेरा प्रेम, और मैं कहता हूं मेरा क्रोध; कभी खयाल किया है, जब आप प्रेम में होते हैं तो कोई मैं होता है, जब आप क्रोध में होते हैं, तो कोई मैं होता है? क्रोध होता है, पे्रम होता है, जन्म होता है, मृत्यु होती है, आप कहां हैं? यह आपके होने का भ्रम कहां से पैदा हो रहा है?
एक राजमहल के पास एक पत्थरों का ढेर लगा था। और एक छोटा बच्चा खेलता हुआ आया। और उसने एक पत्थर उठा कर महल की तरफ फेंका। वह पत्थर उठा, जब पत्थर ऊपर उठने लगा, तो उसने नीचे पड़े हुए पत्थरों से कहा, मित्रो, मैं थोड़ी आकाश की यात्रा पर जा रहा हूं, ठीक ही उसने कहा, कौन पत्थर कब आकाश की यात्रा को गया? नीचे पड़े पत्थर अपने चित्त में दुखी हुए होंगे, पीड़ित हुए होंगे, परेशान हुए होंगे। उनके चित्त में बड़ी-बड़ी आत्मग्लानि भर गई होगी कि वह पत्थर की तरह पड़े हैं और उनका एक साथी फूल की तरह ऊपर उठा जा रहा है। और वह पत्थर जो ऊपर जा रहा था, फूल कर और बड़ा हो गया। क्योंकि जब किसी को मैं का खयाल होता है, तो वह और बड़ा हो जाता है।
वह ऊपर उठने लगा, हवाओं को चीरता हुआ और जाकर महल की खिड़की से टकराया। वह कांच चकनाचूर होकर फूट गया। उस पत्थर ने कहा कितनी दफा मैंने नहीं कहा, मेरे रास्ते में कोई न आए, नहीं तो चकनाचूर हो जाएगा। ठीक ही उसने कहा प्रत्यक्ष थी बात, कांच टूटा हुआ पड़ा था, कोई झूठी, गढ़ी हुई बात भी नहीं थी। वह भीतर जाकर महल में बिछे कालीन पर गिरा। उसने कहा, कैसा अच्छा है यह राजा? मेरे लिए पहले से ही स्वागत करके रखा है, कालीन बिछा रखे हैं। कैसे अच्छे आतिथ्य को, आदर को देने वाले लोग हैं? कि पहले से सब इंतजाम, मेरे आने के पहले खबर है, मालूम होता है। और तभी राजमहल का नौकर भागा हुआ आया और उसने देखा कि कांच टूटा है, पत्थर आया है। पत्थर को उसने वापस उठा कर खिड़की से फेंका। उस पत्थर ने लौटते हुए कहा कि बहुत थक गया, बड़ी यात्रा की, घर की बहुत याद आती है, होमसिकनेस मालूम होती है। अब घर वापस चलूं। वह नीचे जब गिरने लगा उन पत्थरों में, उसने कहा मित्रो! बड़ी यात्रा की, बड़ी अदभुत यात्रा। शत्रुओं का विनाश, राज महलों में स्वागत, विश्राम, राजकीय हाथों से सम्मान, फिर घर की तरफ वापस लौटना।
उसके मित्रों ने कहा तुम जरूर आॅटोबायोग्राफी लिखो। तुम जरूर आत्म-कथा लिखो, इससे आने वाले बच्चे और पीढ़ियां धन्य हो जाएंगी। और पत्थर जन्म-जन्मों तक तुम्हारी पूजा करेंगे और याद रखेंगे कि कभी हममें से भी कोई आकाश की यात्रा को गया था। अभी वह लिख रहा है आत्म-कथा अभी तक छपी नहीं। बहुत संभावना है कि इलेक्शन के पहले छप जाये। बहुत संभावना तो है कि छप ही जायेगी। बहुत पत्थर पहले लिख चुके हैं, वह भी लिख रहा है, और पत्थर भी पैदा होंगे वे भी लिखेंगे। उस पत्थर को मैं का भ्रम पैदा हुआ और हम हंसते हैं, और हमको भी मैं का भ्रम पैदा हुआ है और हम हंसते नहीं हैं।
बस धार्मिक आदमी में इतना ही फर्क होता है, वह जीवन को खोजता है और हंसने लगता है ‘मैं’ पर। पाता है कि यह तो बिलकुल ही, बिलकुल ही इलूजन, बिलकुल ही झूठा, इसके लिए कोई आधार नहीं, और जैसे ही यह दिखाई पड़ता है कि मैं बिलकुल ही भ्रम है, और छाया है, जीवन की एक लहर उठी और प्रकट हुई और गिरी और गई। समुद्र में लहर आती है, उठती है और विलीन हो जाती है। ऐसे हम उठते हैं, जीवन की धारा पर। उठते हैं ऊंचे होते हैं, गिरते हैं विलीन होते हैं। मैं कहां हूं, सागर है, लहर कहीं भी नहीं है। लहर कहीं भी नहीं है, सागर है, परमात्मा है, मैं कहीं भी नहीं है। मैं से भरा है, जो वह परमात्मा से वंचित रह जाता है।
मैं से खाली हो जाएं। तीसरा सूत्र हैः शून्य हो जाना। इन तीन सूत्रों के आधार पर अगर कोई जीवन गतिमान हो तो आंखें खुल जाती हैं। और तब वह दिखाई देता है, जो है, उसे सोचना नहीं पड़ता, आंख खुलते ही वह मौजूद है, वह सदा से मौजूद था। हम ही आंख बंद किए हुए खड़े थे। जीवन का मार्ग सरल है, और जीवन का सत्य बहुत निकट, हम आंख बंद किए हुए खड़े हैं, इससे सारी बाधा है।
आंख कैसे खुल सकती है? कैसे उसका उपचार हो सकता है? उसके बाबत तीन सूत्र मैंने कहे--शांति, सजगता और शून्यता। इन तीन सूत्रों पर विचार करें। नहीं मैं कहता हूं मेरी बात मान लें। क्योंकि मैं इससे ज्यादा और खतरनाक कोई मनुष्य नहीं समझता हूं जो कहता हो कि मेरी बात मान लो। क्योंकि उसकी बात कभी भी आपकी बात नहीं हो सकती। उसका जानना कभी आपका जानना नहीं हो सकता। उसका ज्ञान कभी आपका ज्ञान नहीं बन सकता। उसकी अनुभूति कभी आपकी अनुभूति नहीं बन सकती। इसलिए मैं नहीं कहता हूं, मेरी बात मान लो। मैं तो धन्यवाद कहता हूं उन लोगों के लिए जिन्होंने केवल मेरी बात सुनी हो, क्योंकि बहुत थोड़े लोग सुन सके होंगे, क्योंकि सुनने के लिए जागना जरूरी है और शंात होना जरूरी है। धन्यवाद देता हूं उन लोगों को जिन्होंने मेरी बात सुनी हो, और उनसे प्रार्थना करता हूं उस पर सोचना भी और अगर सोचने और विचारने से वह सब व्यर्थ मालूम पड़े तो उनसे छुटकारा हो जाएगा और अगर उसमें कुछ सार्थक मालूम पड़े तो फिर वह मेरी बात नहीं रह जाएगी, जो सार्थक आपके विचार में मालूम पड़े वह आपका हो जाता है।
परमात्मा करे द्वार जो अपने हाथों से बंद हैं, खुल सकें। परमात्मा करे आंखें जो हम खुद ही बंद किए हैं, वेे खोल सकें और जीवन की जो अदभुत और परम धन्यता है उसका अनुभव हो सके।
मेरी बातों को इतने प्रेम से और शांति से सुना है उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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